Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 386
________________ और भोग़वर्दन ये दक्षिण दिशा के देश थे। माल्य, कल्लिवनोपान्त दुर्ग, सूपाई, कर्बुक, काक्षि, नासारिक, अगर्त सारस्वत, तापस, महिम, भरुकच्छ, सुराष्ट्र और नर्मद ये पश्चिम दिशा के देश थे। दशार्णक, किष्किन्ध, त्रिपुर, आवर्त, नैषध, नैपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अन्तप, कौशल, पतन और विनिहात्र ये देश विन्ध्याचल के ऊपर स्थित थे। भद्र, वत्स, विदेह, कुश, भंग, सैतव और व्रजखण्डिक ये देश मध्य देश के आश्रित थे। इस प्रकार के अनेक वर्णन हरिवंशपुराण में यत्र-तत्र भरे पड़े हैं, जो कवि के भौगोलिक ज्ञान की विज्ञता के परिचायक हैं। सामाजिक परिस्थिति :-तत्कालिन सामाजिक परिस्थितियों के वर्णन में भी कवि ने लोगों के आभूषणों तथा वस्त्रों इत्यादि का विश्लेषणात्मक उल्लेख किया है। वस्त्रों में दुकूल, क्षोभ, चिनांकुश, पटवास, वलकल इत्यादि तथा आभूषणों में मुकुट, कुण्डल, केयूर, चूडामणि, कटक, कंकण, मुद्रिका, हार, मेखला, कण्ठरत्नावली, कटिसूत्र, नुपूर आदि का प्रचलन था। इसके अलावा प्रसाधनों के साधन, मनोरंजन के साधन, उत्सव, त्यौहार, आवागमन के साधन, नगर व्यवस्था, मकान व्यवस्था, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा आदि का भी चित्रण मिलता है जो उस समय की सामाजिक स्थिति जानने में अत्यधिक सहायक सिद्ध होता है। आर्थिक परिस्थिति :-पुराणकार ने उस समय के भारत की आर्थिक स्थिति का निरूपण कर हरिवंशपुराण के महत्त्व को और बढ़ा दिया है। कृषि, पशुपालन, व्यापार, वाणिज्य एवं कला कौशल में भारत की सम्पन्नता इत्यादि के तथ्य देखते ही बनते हैं। भारत का व्यापार किन-किन देशों के साथ होता था, किन मार्गों से होता था, वस्तु विनिमय किस प्रकार का था, लोगों का जीवनस्तर कैसा था, इत्यादि का पुराणकार जिनसेनाचार्य ने सूक्ष्मता से विवेचन किया है। राजनितिक परिस्थिति :-पुराणकार के राजनैतिक विवरणों में तत्कालीन भारतीय शासन व्यवस्था का सुन्दर चित्रण है। कवि के अनुसार उस समय दो प्रकार की शासन व्यवस्था थी (1) राजतन्त्रात्मक एवं (2) गणतन्त्रात्मक। इसमें गणतन्त्रात्मक ही इस काल की प्रमुख प्रचलित शासन प्रणाली थी। राजा की निरकुंशता, महत्त्वाकांक्षा एवं विस्तार लोलुपता का भी कवि ने उल्लेख किया है। इसके उपरान्त तत्कालीन युद्ध प्रणाली, युद्ध कला, युद्ध-विज्ञान, मल्लयुद्ध, अस्त्र-शस्त्र तथा चमत्कृत अलौकिक शक्तियों का भी निरूपण मिलता है। अन्य :-जैन परम्परा के उल्लेख की दृष्टि से भी इस पुराण का पर्याप्त महत्त्व रहा है। इसमें भार्गव-ऋषि से द्रोणाचार्य तक की परम्परा तथा महावीर स्वामी के निर्वाण से बाद की आचार्य परम्परा को जिनसेन तक सम्पूर्ण रूप से उल्लेखित किया गया है। यह परम्परा वर्णन अन्यत्र देखने को नहीं मिलता।

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