Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 398
________________ दोनों ग्रन्थकारों ने केवल अपने कथ्य कृष्णचरित्र व परम्परागत दर्शन का ही चित्रण नहीं किया वरन् तत्कालीन संस्कृति को भी निरूपित किया, जिससे इन ग्रन्थों का अध्ययन और भी आवश्यक बन गया। इन ग्रन्थों में निरूपित कृष्ण चरित्र भी अपने-अपने क्षेत्र में एक आदर्श का प्रतीक बन गया है। जैन परम्परा के कृष्ण कवियों ने न केवल संस्कृत भाषा में ही वरन् अपभ्रंश, हिन्दी आदि विभिन्न भाषाओं के ग्रन्थों में हरिवंशपुराण का आश्रय लेकर, इसको महिमा-मंडित किया है। यह कार्य अद्यावधि तक चलता रहा है, जो कृति को कालजयी प्रमाणित करता है। इसी तरह सूरसागर के कथ्य को भी न केवल भक्तिकाल तथा रीतिकाल में अपितु आधुनिक काल में भी स्वीकार करने से अनेक ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। . तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाय तो हरिवंशपुराण में तत्कालीन संस्कृति का निरूपण अपेक्षाकृत अधिक हुआ है। कारण स्पष्ट है कि जिनसेनाचार्य के पास विस्तृत भाव-भूमि थी जबकि सूरसागर में तो केवल कृष्ण के बाल किशोर लीलाओं का ही सर्वाधिक वर्णन हुआ है। इस प्रकार दोनों ही ग्रन्थों का अपने-अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। किसी को अधमोत्तम नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों की दार्शनिक पीठिका तथा भावनात्मक संरचना अलग-अलग प्रकार की है। उपसंहार . हरिवंशपुराण तथा सूरसागर में वर्णित कृष्ण चरित्र का तुलनात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन करने के पश्चात् हम जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं, उनका संक्षेप में निर्देश करके हम इस अध्ययन का समाहार करेंगे। श्री कृष्ण का व्यक्तित्व बहुमुखी है, दर्शन, धर्म, इतिहास, पुराण और काव्य क्षेत्रों में उसका बहुविध आख्यान एवं चित्रण हुआ है। वेदों से लेकर पुराण काव्य, संस्कृत काव्य, भक्तिकालीन साहित्य परम्परा एवं आधुनिक काल तक यह गतिशील व्यक्तित्व अनेक रूपों में विकसित है। केवल ब्राह्मण परम्परा ही नहीं वरन् जैन परम्परा में भी कृष्ण चरित्र का विशद् वर्णन है। आगम साहित्य से पौराणिक काव्य एवं आधुनिक काल तक इस चरित्र के निरूपण में जैन कवियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कृष्ण के व्यक्तित्व का वैदिक साहित्य से, जो वर्णन मिलता है, वह क्रमशः विकसित होता दिखाई देता है। ऐसा लगता है कि कृष्ण के व्यक्तित्व में उनके अनेक चरित्रों का सुन्दर समन्वय हुआ हो। वेदों में कृष्ण मन्त्र-द्रष्टा ऋषि हैं तो उपनिषदों में नारायण स्वरूप / महाभारत में कृष्ण को धर्मरक्षक बताया गया है तो पुराणों में भक्ति के मुख्याधार एवं रसिक-बिहारी। कृष्ण व्यक्तित्व के विकास में आभीरों के बाल कृष्ण का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके बालकृष्ण का वैदिक विष्णु तथा महाभारत के कृष्ण में सुन्दर समन्वय हुआ है। उनका यही समन्वित स्वरूप लौकिक संस्कृत साहित्य में तथा भक्ति के आलम्बन के रूप में 3768

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