Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 401
________________ सर्वशक्तिमान, व्यापक, अनन्त, विशुद्ध धर्माश्रयी तथा अधिकृत परिणामी माना है। श्री कृष्ण को वे परात्पर ब्रह्म मानते हैं। सूर ने ब्रह्म के सगुण रूप की महत्ता का ही प्रमुख रूप से प्रतिपादन किया है। इसके अलावा इन्होंने दर्शन के अन्य तत्त्वों का जैसे जीव, माया, मोक्ष, स्वर्ग, नरक इत्यादि का भी सूक्ष्म विवेचन किया है। सूर का रास वर्णन भी अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। शुद्धाद्वैत सिद्धान्तों से प्रभावित होने के बावजूद उनके विचारों में शांकर वेदान्त का भी प्रभाव परिलक्षित होता है। सूर का भक्त कवि होने के कारण उन्होंने भाव प्रधान रागानुरागा-भक्ति का भी समधुर रसपान किया है। राधाकृष्ण व गोपियों के द्वारा ही उन्होंने अपने मधुर भावों की अभिव्यक्ति दी है। उनका मधुर भाव संभोग की क्रीड़ाओं में विकसित हो, वियोग की पुष्टता को प्राप्त करता दिखाई देता है। इस प्रकार दार्शनिक तत्त्वों के विश्लेषण में दोनों ग्रन्थ प्रसिद्ध रहे हैं। कथा-शिल्प की भाँति दोनों कवियों का कला-पक्ष भी उत्कृष्ट, प्रांजल और परिमार्जित है। इस निरूपण में दोनों कवियों को समान सफलता मिली है। हरिवंशपुराण में शांत व वीर रस की प्रमुखता रही है तो सूरसागर में वात्सल्य और श्रृंगार की। इसके अलावा भी साहित्य के सभी रसों का सुन्दर परिपाक इन काव्यों में हुआ है। दोनों कृतियों में अलंकार योजना का बाहुल्य मिलता है। जिनसेनाचार्य की अपेक्षा सूर ने श्रेष्ठ शब्दालंकारों का सुभग समन्वय किया है। . रूपक, उत्प्रेक्षा, उपम्ना, सन्देह जैसे सामान्य सादृशमूलक अलंकारों में दोनों कवियों को अपने-अपने क्षेत्र में समान सफलता मिली है। जिनसेनाचार्य से सूर की अलंकारयोजना सहज एवं स्वाभाविक रही है। वह विद्वज्जनों के चित्त को चमत्कृत करने में पूर्ण क्षमता रखती है जबकि जिनसेनाचार्य की अलंकार योजना दुरूहता को प्राप्त कर गई है। सूरसागर में दृष्टिकूट एवं सांगरूपक पदों की अलंकार-योजना साहित्य रसिकों को अत्यधिक प्रभावित करती है। दोनों कृतियों की भाषा अलग-अलग है। जिनसेनाचार्य ने संस्कृत में अपने काव्य का निर्माण किया तो सूर ने ब्रज भाषा में। दो विभिन्न भाषाओं के कवि होने के कारण उनकी भाषा का तुलनात्मक दृष्टि से विचार करना संभव नहीं है। परन्तु स्मरणीय है कि दोनों की भाषा अपने ग्रन्थों में आज भी अपने रूप में सुरक्षित रही है जिस रूप में वह प्रयुक्त हुई थी। जिनसेनाचार्य की भाषा पौराणिक संस्कृत रही है, जो अवसरानुकूल एवं आलंकारिक है परन्तु मार्मिक स्थलों को छोड़ कर वह भी वर्णनात्मकता को ग्रहण कर जाती है। सूर की भाषा आसपास की भाषाओं से प्रभावित रही है जो लोक भाषा जनमनोऽवगाहिनी, लालित्ययुक्त, आनुप्रासिक एवं ऋजुतायुक्त है। इसमें ध्वन्यात्मकता एवं नाद सौन्दर्य का भी उत्तम विधान हुआ है। भाषा के बाद वर्णन-कौशल में दोनों कृतियों का पर्याप्त महत्त्व है। सूरसागर की अपेक्षा हरिवंशपुराण में वर्णनों की बाढ़ आ गई है। % 3D

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