Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 350
________________ तदनन्तर नेमिनाथ ने चिरकाल तक शत्रु सेना के साथ भयंकर युद्ध किया। बाण वर्षा से नीचे गिराकर हजारों शत्रुओं राजाओं को युद्ध में तितर-बितर कर दिया। निपात्य शरवर्षेण रुक्मिणं चिरयोधनम्। रिपुराजसहस्राणि नेमिरिचक्षेप संयुगे॥° इतना ही नहीं अरिष्टनेमि के प्रभाव से अन्त में श्री कृष्ण को जरासंध से विजयश्री प्राप्त हुई एवं वे नौवें नारायण के रूप में प्रतिष्ठित हुए। अरिष्टनेमि के एक प्रसंग में वर्णन आता है कि एक दिन युवा नेमिकुमार कुबेर के यहाँ से भेजे हुए वस्त्राभूषणों आदि से सुशोभित, राजाओं तथा बलदेव व श्री कृष्ण आदि के साथ यादवों से भी कुसुमचित्रा सभा में गये। सभा में उपस्थित सभी राजाओं ने अपने-अपने आसन छोड़कर उन्हें नमस्कार किया। श्री कृष्ण ने भी आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। ___उस सभा में बलवानों की चर्चा छिड़ गई। सभी अपने-अपने मतानुसार कोई अर्जुन को, कोई युद्ध में स्थिर रहने वाले युधिष्ठिर को, कोई पराक्रमी भीम को, कोई उद्भट सहदेव तथा नकुल को एवं कोई अन्य लोगों की प्रशंसा करने लगे। किसी ने कहा. बलदेव सबसे ज्यादा बलवान् है तो कोई गोवर्धन पर्वतधारी श्री कृष्ण को सबसे अधिक बलवान् कहने लगा। इस पर बलदेव ने कहा कि तुम लोग व्यर्थ, में इनकी बातें करते हो, नेमिकुमार सा बल तीन लोक में किसी का नहीं है। वे पृथ्वी को उठा सकते हैं, समुद्र को दशों दिशाओं में बिखेर सकते हैं। इसके जैसा बल मनुष्य तो क्या किसी देवता में भी नहीं है। श्री कृष्ण ने नेमिकुमार की बढ़ाई सुनकर मुस्कुराते हुए उनसे मल्लयुद्ध में बल की परीक्षा करने का कहा। इस पर नेमिनाथ ने कहा कि हे अग्रज! यदि आपको मेरी भुजाओं का बल जानना ही है तो सहसा इस आसन से मेरे पैर को विचलित कर दीजिए। श्री कृष्ण उसी समय कमर कसकर भुजबल से जिनेन्द्र नेमिकुमार को जीतने की इच्छा से खड़े हुए परन्तु पैर का चलाना तो दूर रहा, उनके पैर की एक अंगुली को भी चलाने में समर्थ नहीं हो सके। पसीने से लथपथ होकर एवं लम्बी-लम्बी साँसे निकालते हुए उन्होंने कहा किहे देव! आपका बल लोकोत्तर एवं आश्चर्यकारी है। तदुपरान्त श्री कृष्ण के अहंकार का नष्ट करने वाले जिनेन्द्र रूप चन्द्रमा राजाओं से परिवृत्त हो अपने महल में चले गये। निजमगारमगाजिनचन्द्रमाः परिवृतः क्षितिपैः क्षपितस्मयः। हरिरपि स्फुटमात्मनि शंकितः क्लिशितधीर्हि जिनेष्वपिशंकते॥२ एक समय वसन्त ऋतु आने पर श्री कृष्ण अपनी स्त्रियों से परिवृत भगवान् नेमिनाथ, राजा-महाराजा और नगरवासी लोगों के साथ गिरनार पर्वत पर क्रीड़ा करने की इच्छा से

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