Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ स्थलों की न्यूनता है तथा माधुर्य एवं प्रसाद गुण का प्राधान्य दिखाई देता है। सूर की कोमलकान्त पदावली देखते ही बनती है। सूरसागर में लोकोक्तियों और मुहावरों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है जिसका हम आगे विस्तृत उल्लेख करेंगे। सूर का काव्य भाषा में अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना-तीनों शब्द-शक्तियों का प्रयोग हुआ है। श्री कृष्ण के लीला वर्णन में अभिधा शक्ति रसात्मकता का संचार करती प्रतीत होती है। काव्य में चित्रात्मकता एवं बिम्बात्मकता की सृष्टि के लिए कवि ने लक्षणा का आश्रय लिया है। जहाँ कवि भाव-विभोर या तन्मय हो जाता है, वहाँ व्यंजना मुखर होती है। सू. गब्द नयन के प्रति सतत जागरूक रहे हैं। माधुर्य भावों की अभिव्यंजना में आनुप्रासिकता सूरसागर का श्रृंगार है। सूरसागर में ऐसे अनेक स्थल आते हैं, जो भावपूर्ण और अत्यन्त मार्मिक हैं। ऐसे अनेक वर्णनों में कवि की भावुकता, सहृदयता एवं विलक्षण प्रतिभा के दर्शन होते हैं। भाषा का निर्माण शब्दों से होता है। जिस कवि का शब्द भण्डार जितना विपुल होगा उसकी भाषा भी उतनी ही सम्पन्न होगी। इसमें तनिक भी संदेह नहीं, कि सूरदास का शब्द भण्डार अत्यन्त समृद्ध है। तत्सम, तद्भव तथा विदेशी शब्दों के विशद भण्डार के उपरान्त अपनी भाषा को समृद्ध बनाने के लिए कवि ने स्वयं अनेक शब्दों का निर्माण किया है। इसके अतिरिक्त ग्रामीण शब्दों का भी प्रचुरता से प्रयोग किया है। सूरसागर की भाषा में प्रयुक्त अलंकार-योजना, वक्रोति-विधान, भावमयता एवं वाग्विदग्धता देखते ही बनती है। गोपियों की वाग्विदग्धता एवं वक्रता एक पद द्रष्टव्य मधुकर तुम रस-लंपट लोग। कमलकोष बस रहत निरन्तर हमहिं सिखावत जोग॥ अपने काज फिरत बन अंतर निमिष नहीं अकुलात।(पद सं० 4300) सूर ने अपनी कृति में अनेक छन्दों के शास्त्रीय नियमों का पालन कर भावों की अभिव्यंजना को गीतात्मक बना दी है। कवि की भाषा अत्यन्त ही सशक्त है, जिसमें छन्दोविधान भी ऐसे उत्पादन हैं जो भाषा के स्वरूप का उत्कर्ष करते हैं। कवि ने भावात्मक भाषा के साथ विवरणात्मक भाषा का भी सफल प्रयोग किया है जो इतिवृत्तात्मक शैली में है। इसके अलावा सूरसागर में कूटात्मक भाषा का भी सफल प्रयोग हुआ है, जिसमें कवि का पाण्डित्य-प्रदर्शन अत्यन्त ही चमत्कार पूर्ण ढंग से अभिव्यक्त हुआ है। जिसमें कवि सूर के भाषा की समृद्धि का तथा तज्जन्य गम्भीर प्रभाव का वर्णन करते नाभादास जी ने कहा है कि 2309