Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ सूर ने नवधा-भक्ति में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चना व वन्दना को विशेष महत्त्व देकर उसके अनुरूप पदों की रचना की है। सूर की भक्ति प्रमुखतः सख्यभाव की रही है। परन्तु उन्होंने दास्य-भाव, वात्सल्यभाव, मधुराभाव, शान्तभाव आदि का भी सुन्दर निरूपण किया है। विषय की मर्यादानुसार दोनों कवियों की भक्ति की गहराई में जाना अनुपयुक्त होगा। परन्तु दोनों भक्तकवि थे। दोनों के काव्य में अपनी परम्परा की भक्ति का सुन्दर समावेश है। सूर भक्ति के क्षेत्र में जिनसेन से आगे निकल गये है। उनका हृदय उनके पदों में बोल रहा है। ऐसे भक्त कवि के पद देखते ही बनते हैं, क्योंकि वे दुर्लभ भक्ति रस के 'रसिया' थे। छन्द-विधान : कलापक्ष में छंदोविधान का अपना विशेष महत्त्व है व छंद काव्य के पाद हैं, क्योंकि उसके आधार पर काव्य गति करता है। छंद ही अपनी भावानुकूल गति एवं ध्वनि से काव्यार्थ का प्रकाशन करता है। छंद ही कविता के रसानुकूल वातावरण को तैयार करता है। छन्द कल्पना को प्रज्ज्वलित कर कवि को ऐसी दृश्यमान एवं श्रोतव्य प्रतिभाएँ प्रदान करता है, जिनमें कवि की अनुभूति की अभिव्यक्ति स्पष्ट और प्रेरक हो जाती है। छंद की सृष्टि लय के आधार पर होती है। इस लय का प्रमुख कार्य हमारे अन्तर्वेगों को उद्दीप्त करना है। वैदिक छन्दों से लेकर लौकिक छन्दों का मूलाधार लय ही है। . हमारी आलोच्य कृतियाँ-हरिवंशपुराण और सूरसागर की भाषा पृथक्-पृथक् है। अतः दोनों ग्रन्थों का छन्दोविधान भी भिन्न है। हम यहाँ प्रत्येक ग्रन्थ में प्रयुक्त छन्दों का अलग-अलग विवेचन करेंगे। हरिवंशपुराण एक विशालकाय पौराणिक महाकाव्य है। इसमें छन्दों का अपना महत्त्व है। नाना प्रसंगों के वर्णनों में रुचिरता लाने के लिए जिनसेनाचार्य ने विविध छन्दों का प्रयोग किया है। पर्वो का अन्त प्रायः छन्द परिवर्तन के साथ होता है। अनेक छन्दों के प्रयोग में चौतीसवाँ सर्ग देखा जा सकता है, जिसमें विविध छन्दों का सुन्दर समन्वय है। (1) हरिवंशपुराण में प्रधानतः अनुष्टप् छन्द का ही प्रयोग हुआ है जिसका लक्षण है श्लोके षष्ठं गुरुर्जेयं सर्वत्र लघु पंचमम्। द्विचतुष्पादयोह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥ उदाहरणार्थ -