Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ यमक : जहाँ शब्दों की आवृत्ति बार-बार हो परन्तु अर्थ में भिन्नता रहती है, वहाँ यमक अलंकार होता है। हरिवंशपुराण में प्रयुक्त यमक के कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं(क) अनेन घनरागिणा समनुवर्तिता रागिणी, महोदयनिषेविणाप्यनुरतेन पूर्व तु या।२७ (ख) न मोहो न मयद्वेषौ नोत्कण्ठारतिमत्सराः। अस्यां भद्रप्रभावेण जम्माजम्भा न संसदि॥१८ .(ग) कालः कालहरस्याज्ञामनुकूलभयादिव। प्रविहाय स्ववैषम्यं पूज्येच्छामनुवर्तते॥९. यहाँ प्रथम श्लोक में "राग" शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है परन्तु दोनों बार उसका अर्थ भिन्न है। इसी तरह दूसरे श्लोक में "जम्भा" शब्द तथा तीसरे श्लोक में "काल" शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है जिसके अर्थ में भिन्नता रही है। हरिवंशपुराण में यह अलंकार स्वल्प मात्रा में प्रयुक्त हुआ है जबकि सूरसागर में इसका प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक रहा है। (1) लोचन जल कागद-मसि मिलै कै, द्वै गई स्याम-स्याम की पाती। इस पंक्ति में "स्याम" शब्द की भिन्नार्थक आवृत्ति हैं। एक का अर्थ काली तथा दूसरे का अर्थ है कृष्ण। यह प्रयोग चमत्कार के साथ भावोपस्कार भी है। सूर की एक पंक्ति और देखिये, जो यमक का उदाहरण है (2) चली भवन मन हरि-हरि लीन्हीं।२०१ इस पंक्ति में प्रयुक्त प्रथम हरि शब्द का अर्थ कृष्ण तथा द्वितीय का हरण कर लेना या चुरा लेना होता है। सूर ने इस अलंकार को अनेक स्थानों पर सफलता से चित्रित किया है, जिसकी तुलना में जिनसेनाचार्य का प्रयोग सामान्य प्रतीत होता (2) अनुप्रास अलंकार : वर्गों में साम्य को अनुप्रास अलंकार कहते हैं। सूरसागर तथा हरिवंशपुराण में इस अलंकार का सहज प्रयोग मिलता है जो भावों के उत्कर्ष में सहायक बन पड़ा है। हरिवंश के कुछ उदाहरण देखिये(क) छेकानुप्रास श्रीसनाथैः स्ततः सर्वैर्भूयते पूर्णमंगलैः। मंगलस्य हि मांगल्या यात्रा मंगलपूर्विका॥१०२ .