Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ मानवती, विनय, नरनागर, सूरघनाक्षरी, उत्कंठ, लीलापति, काममोहिता, जलतरंग, प्रफुल्लित, तोमर लावनी हंसाल तथा ग्रीव इत्यादि मुख्य है। सूर का छन्दोविधान इनकी भावाभिव्यक्ति का सशक्त साधन है। डॉ० द्विजेन्द्र के शब्दों में ___ "सूरदास केवल छन्द प्रयोक्ता ही नहीं थे वरन् नवीन छन्दों के निर्माता भी थे। संगीतज्ञ होने के कारण उनकी लय चेतना बड़ी तीव्र थी। जिसकी लय चेतना जितनी तीव्र होगी, वह नवीन छन्दों के निर्माण में उतना ही कृतकार्य हो सकेगा।"९४ . ___ इस प्रकार से सूर का छन्दोविधान उनके आचार्यात्व एवं महाकवित्व को स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। सूर छन्द-शास्त्र के मर्मज्ञ थे, यह तथ्य उनकी कृति सूरसागर से असंदिग्ध रूप से स्वीकार किया जाता है। सूर के पदों में संगीत का स्वर-ताल, लोकधुनों का शास्त्रीय स्वरूप एवं साहित्यिक पद-बन्ध है-जो एक निराले स्वरूप में विशेष प्रभावशाली बन गया है। निष्कर्ष : तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाय तो दोनों आचार्य कवि अपने-अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध कवि रहे हैं। जिनसेनाचार्य ने अपनी अभिव्यक्ति का साधन संस्कृत के प्रसिद्ध छन्दों को बनाया है तो महाकवि सूर ने हिन्दी के। जहाँ तक छन्दों की संख्या का प्रश्न है तो सूरसागर में हरिवंशपुराण से कई गुने अधिक छन्द प्रयुक्त हुए हैं। जिनसेनाचार्य ने किसी छन्द का स्वतः निर्माण नहीं किया है जबकि सूर ने कुछ छन्दों की कल्पना स्वतंत्र की है। सूर ने बहुत जल्दी-जल्दी छन्द परिवर्तन किया है किन्तु जिनसेनाचार्य ने चौतीसवें सर्ग को छोड़ कर कहीं भी इतनी शीघ्रता से छन्द नहीं बदले हैं। इसके अलावा भी सूरसागर का छन्दोविधान हरिवंशपुराण से अधिक समृद्ध एवं व्यापक बन पड़ा है। सूर को भावानुकूल छन्दों के प्रयोग में विशेष सिद्धि मिली है। अलंकार विधान : काव्य के शोभादायक धर्मों को अलंकार कहते हैं। काव्य में अलंकार योजना के दो रूप होते हैं-श्रम साध्य एवं स्वाभाविक। श्रमसाध्य अलंकार योजना में चमत्कार का प्राधान्य होता है, जिससे उसके काव्यत्व को क्षति पहुँचती है। इसीलिए श्रमसाध्य अलंकार योजना को निकृष्ट और त्याज्य बताया गया है। काव्य में स्वाभाविक रीति से प्रयुक्त अलंकार ही वस्तुतः काव्य की शोभा के कारक और रस तथा भावों के उपकारक होते हैं। काव्य में अलंकारों के महत्त्व का विवेचन करते हुए "चन्द्रालोककार" जयदेव ने कहा है कि-"जो काव्य को अलंकार रहित मानता है, वह अग्नि को अनुष्ण क्यों नहीं मानता?१९५