Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ श्रुत्वा गजकुमारोऽसौ जिनादिचरितं तथा। विमोच्य सकलान् बन्धून् पितृपुत्रपुरस्सरान्॥ संसारभीरुरासाद्य जिनेन्द्रं प्रश्रयान्वितम्। गृहीत्वानुमतो दीक्षां तपः कर्तुं समुद्यतः॥५ सूरसागर में भी महाकवि सूर ने विनय के पदों में जो संसार की क्षणिकता, आत्म-दैन्य, ईशभक्ति इत्यादि का विर्णन किया है, उनमें शान्तरस के भावों की अभिव्यंजना है। उदाहरणार्थ देखिये सूर का यह पद सब तजि भजिए नंदकुमार। और भजि ते काम सरे, नहिं मिटे भव जंजार। जिहिं जिहिं जोनि जन्म धारयौ, बहु जोरयो अघ को भार। तिहि कारन को समरथ हरि को, तीछन मार कुठार। वेद पुरान भागवत गीता, सबको यह मत सार। भव समुद हरि पद नौका, बिनु कोऊ न उतरे पार॥ इस प्रकार से दोनों ही भक्त कवियों की कृतियों में शांत रस के भावों का सुन्दर निरूपण मिलता है। दोनों कवियों की परम्परानुसार भक्ति के उद्गारों में यह भाव मणिकांचन स्वरूप में समाहित है। हरिवंशपुराण के शांतरस की अभिव्यक्ति में शांत रस के प्रसंगों में संक्षिप्तता अधिक है। भक्ति : . जिनसेनाचार्य जैन-मुनि थे। उनकी दृष्टि में भक्ति ही सर्वोच्च थी। फिर भला भक्ति रस के अवसर अपने हरिवंशपुराण में क्यों न निकालते। इसीलिए उन्होंने स्थान-स्थान पर जिनेन्द्र पूजा कराई है। इन्द्र, कृष्ण, बलदेव, समुद्रविजय, नारद आदि अनेक पात्रों द्वारा जिन पूजा एवं जिनेन्द्र स्तुति के समय भक्ति रस के भावों की अभिव्यंजना हुई है। एक उदाहरण है जिसमें इन्द्र अरिष्टनेमि की स्तुति कर रहे हैं भवतेह भवां त्रितये भवता गुरुणा परमेश्वर विश्वजनीन, महेच्छधिया प्रतिपादितमप्रतिमप्रतिमारहितम्। हितमुक्तिपथं प्रथितं विधिवत् प्रतिपद्य विधाय तपो विविधं, विधिना प्रविधूय कुकर्ममलं सकलं भुवि भव्यजनः प्रणतः॥ - हरिवंशपुराण की रचना के बारे में जिनसेनाचार्य ने स्वयं स्वीकार किया है कि मैंने इस ग्रन्थ की रचना न तो काव्य रचना के व्यसनजन्य संस्कारों से की है, न ही कीर्ति समूह की बलवती इच्छा से की है, न काव्य के अभिमान से की है और न दूसरे के देखा देखी की है। किन्तु यह रचना मैंने मात्र जिनेन्द्र कुमार की भक्ति से की है। इस चरित के गुणगान से मुझे असंख्य पुण्य का संचय हुआ है जो मंगलरूप है।