Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ वल्लभाचार्य के अनुसार जगत ब्रह्मस्वरूप है तथा जीव भी। इसलिए उनके शुद्धाद्वैत को ब्रह्मवाद भी कहा जाता है। सर्वं ब्रह्म इति वादः ब्रह्मवादः। ब्रह्म सच्चिदानन्द घन स्वरूप है। उसके सत् अंश के आविर्भाव से जगत की उत्पत्ति होती है तथा उसके सत् एवं चित् अंश से जीव की। जीव तथा जगत दोनों को ही ब्रह्म मानने के कारण इस मत को ब्रह्मवाद नाम से भी अभिहित किया गया है। ब्रह्म सच्चिदानन्द सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान है। वह चल भी है तथा अचल भी, गम्य भी है तथा अगम्य भी, सगुण भी है तथा निर्गुण भी। __ शंकराचार्य के मत से निर्गुण ब्रह्म ही परमतत्त्व है। वही सत्य है, यह जगत मिथ्या है। परन्तु शुद्धाद्वैत के अनुसार जगत तथा जीव की सत्ता भ्रममूलक नहीं है वरन् वास्तविक है। उनके अनुसार ब्रह्म के तीन रूप महत्त्वपूर्ण हैं(१) परब्रह्म या पुरुषोत्तम : परब्रह्म आदि दैविक है, जिसे सच्चिदानंद भी कहते हैं। इनके अनुसार ब्रह्म रस रूप है, जिसकी प्राप्ति केवल भक्ति से ही हो सकती है। श्री कृष्ण ही रस रूप परब्रह्म हैं। जाकी माया लखै न कोई। निर्गुण सगुन धरै बहु सोई। अगम अगोचर लीलाधारी। सो राधाबस कुंज बिहारी॥२ (2) अक्षर ब्रह्म : - अक्षर ब्रह्म प्रकृति तथा जीवों का उपादान एवं निमित्त कारण है। वही ज्ञानियों की साधना का विषय है। वही सृष्टि का पालन-पोषण तथा संहार करता है। वही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का रूप धारण कर जीवों की उत्पत्ति करता है। ___ उत्पत्ति पालन देव हरि तीन रूप धरि आवै। विष्णु रुद्र ब्रह्मा करि सब प्रेरक अंतरजामि सोई॥७३ (3) अन्तर्यामी ब्रह्म : ब्रह्म का यह स्वरूप समस्त आत्माओं में निवास करता है। वह जगत रूप है। यही ब्रह्म अन्तर्यामी होकर सृष्टि का संचालन करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर अवतार धारण करता है। वल्लभ सम्प्रदाय के अनुसार सूर के परब्रह्म कृष्ण ही हैं / वही रस रूप है, अवतार लेते हैं तथा ब्रज भूमि उनकी लीला धाम है एवं ब्रह्मा, विष्णु और शिव से ऊपर है। नैननि निरखि स्याम स्वरूप रह्यौ घट-घट व्यापि सोई, जोति रूप अनूप। चरन सप्त पताल जाके, सीस है आकाश। सूर्यचन्द्र नक्षत्र पावक सर्व तासु प्रकास॥७४ .