Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ होता है, वह "नय" है। अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म के बोध के अभिप्राय का ज्ञान "नयं" है। एक धर्म ग्रहण करने के बावजूद भी दूसरे धर्मों का न तो निषेध होता है और न ही विधान होता है, क्योंकि निषेध करने से दुर्नय हो जाता है। पुराणकार ने नय के मुख्य दो भेद किये हैं - द्रव्यादिक तथा पर्यायार्थिक। ... नयोऽनेकात्मनि द्रव्ये नियतैकात्मसंग्रहः। द्रव्यार्थिको यथार्थोऽन्यः पर्यायार्थिक एव च // 139 इनमें द्रव्यार्थिक "नय" यथार्थ है तथा पर्यायार्थिक "नय" अयथार्थ है। ये दोनों मूल "नय" हैं तथा दोनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। अच्छी तरह देखे गये नैगम, संग्रह आदि इन्हीं नयों के भेद हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। इनमें आरम्भ के तीन नय द्रव्यार्थिक हैं तथा ये सामान्य को विषय करते हैं तथा अवशिष्ट चार नय पर्यायार्थिक नय के भेद हैं। वे विशेष को विषय करते हैं। नैगमः संग्रहश्चात्र व्यवहारर्जुसूत्रको। शब्दः समभिरूढाख्य एवंभूतश्च ते नयाः॥ त्रयो द्रव्यार्थिकस्याद्या भेदाः सामान्यगोचराः। स्युः पर्यायार्थिकस्यान्ये विशेषविषया नयाः॥१४० पुराणकार ने प्रत्येक नय का विस्तार से निरूपण कर उसके भेदोपभेद का सुन्दर / चित्रण किया है। इस प्रकार स्याद्वाद और नय का जैन धर्म में महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिसे पुराणकार ने सूक्ष्मता से विवेचित किया है। हरिवंशपुराण में जैनदर्शन की अनेक मान्यताओं का चित्रण मिलता है, जिसमें से कुछ सिद्धान्तों का निरूपण हमने पिछले पृष्ठों में किया है परन्तु इसके उपरान्त भी कई तत्त्व रह जाते हैं जिनका नामोल्लेख करना समुचित होगा। __इनमें से श्रमण संस्कृति 41, अणुव्रत और महाव्रत 42, हिंसाणुव्रत तथा उसके अतिचार'४३, सत्याणुव्रत व उसके अतिचार 44, अस्तेयाणुव्रत और उसके अतिचार 45, ब्रह्मचर्याणुव्रत तथा उसके अतिचार 46, अपरिग्रहाणुव्रत व उसके अतिचार'४७, मैत्री आदि भावनाएँ१८. तीन गणव्रत४९. चार शिक्षाव्रत५०, संलेखना५१, गहस्थ की ग्यारह प्रतिमाएँ 52, मुनिधर्म, तीन गुप्तियाँ तथा पाँच समितियाँ, गुणस्थान, धर्म, अनुप्रेक्षा एवं परिषहजय इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं। जैनदर्शन के इन मूल सिद्धान्तों को कवि ने गहराई से . जाँच-परख कर उन्हें विवेचित किया है। संक्षेप में हरिवंशपुराण में निरूपित दर्शन तत्त्वों का जैसा गहराई से अध्ययन मिलता है, वैसा अध्ययन अन्य जैनपुराणों में दुर्लभ है। जैन-धर्म के दार्शनिक तत्त्वविवेचकों की भारतीय संस्कृति को एक महत्त्वपूर्ण देन है और वह है-आचार-मीमांसा / जैन-दर्शन इसी आधार पर शुद्ध एवं पवित्र आचारण पर सर्वाधिक - -