Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ अब कै राखि लेहुँ गोपाल। दसहूँ दिसा दुसह दावागिनि, उपजी हैं इहिँ काल॥ पटकत बॉस कॉस कुस चटकत, लटकट ताल तमाल। उचरत अति अंगार फुटत कर, झटपट लपट कराल।' . धूम धूंधि बाढ़ी अम्बर, चमक बिच-बिच ज्वाल। हरिन बराह मोर, चातक, पिक जरत जीव बेहाल // 20 श्री कृष्ण के परमधाम गमन पर पाण्डवों द्वारा शोक करने का एक पद भी द्रष्टव्य है जिसमें करुण रस के भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति है हरि बिनु को पुरसैं मो स्वारथ। मीड़त हाथ सीस धुनि, रुदन करत नृप पारथ // 31 इस प्रकार से सूरसागर के अनेक स्थलों पर इस रस ने की निष्पत्ति हुई है। दोनों ही कृतियों के इस चित्रण में प्रमुख स्थायी भाव "शोक" :हा है। दोनों कवि इस भावनिरूपण में सिद्ध-हस्त रहे हैं परन्तु सूरसागर की अपेक्षा हरिवंशपुराण में यह वैशद्य के साथ वर्णित हुआ है, जिसमें कारुणिक दृश्यों का सांगोपांगरण है। रौद्र-रस : हरिवंशपुराण में रौद्र रस के भावों का सुन्दर चित्रण मिला है। युद्धों के वर्णन में वीर रस के साथ-साथ रौद्र रस की भी अभिव्यंजना हुई है। इसके अतिरिक्त द्वैपायन मुनि के क्रोध तथा अन्य स्थलों पर भी रौद्र के उदाहरण मिलते हैं। यहाँ पर मथुरा में श्री कृष्ण द्वारा प्रधान मल्लों को मारने पर कंस के क्रोध का एक चित्र प्रस्तुत दशशतहरिहस्तिप्रोबलौ साधिषूमावितिहठहतमल्लौ वीक्ष्य गै शीरिकृष्णौ। प्रचलितवति कंसे शातनिस्त्रिंशहस्ते व्यचलदखिलरंगाम्भोधिरुत्तुंगनादः॥३२ रुक्मिणी-हरण में शिशुपाल एवं रुक्मिी द्वारा आक्रमण करने पर श्री कृष्ण व बलराम का क्रोधित होने का प्रसंग भी इन्हीं भावों का उदाहर" -- एवमस्त्विति संत्रस्तां सान्त्वयित्वा प्रियां हरिः। न्यवर्त्तयद्रथं वेगादभ्यमित्रं हली तथा॥ रुष्टयोः शरजालेन द्विष्टसैन्यं ततोऽनयोः। श्लिष्टं ननाश विध्वस्तक्लिष्टदर्पमभिद्रुतम्॥३३ श्री कृष्ण-जरासंध युद्ध प्रसंग तो इस रस के भावों से भरा पड़ा है। श्री कृष्ण व जरासंध क्रोधित हो एक-दूसरे पर बाणों की वर्षा कर रहे हैं के यस्त्रो-शस्त्रों से भयंकर युद्ध हो रहा है