Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ हरिवंशपुराण और सूरसागर का कला-पक्ष हरिवंशपुराण और सूरसागर के दार्शनिक पक्ष पर विचार करने के बाद यहाँ दोनों ग्रन्थों के कला-पक्ष पर तुलनात्मक विचार प्रस्तुत है। सूर एक भक्त कवि थे, उनका मुख्य साध्य भक्ति थी। इसी प्रकार जिनसेनाचार्य एक दिगम्बर जैन मुनि थे, जिनका मुख्य साध्य जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में हरिवंश में उत्पन्न शलाकापुरुषों का लीला-गान था। अतः इनके काव्य में बाह्य-पक्ष की ओर विशेष ध्यान न होना स्वाभाविक है। परन्तु इनके काव्य के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि उनमें उच्चकोटि की भक्ति के साथ जहाँ नवोन्मेषशालिनी अपूर्व सहज-काव्यप्रतिभा थी। अभिव्यक्ति की सहज एवं उत्तम कलात्मक प्रक्रिया भी उनमें विद्यमान थी। अतः इस दृष्टि से उनकी कृतियों में विषय वस्तु एवं दार्शनिक तत्त्वों की भाँति उनका कला पक्ष भी पूर्णतः समृद्ध है। कलापक्ष में रस, छन्द, अलंकार एवं भाषा प्रमुख अंग माने जाते हैं। यहाँ इन्हीं अंगों पर अब क्रमशः विचार किया जायेगा।' रस-विधान : मानव हृदय भावों का सागर है, जो सदा बाह्य सुख-दु:ख के अनुकूल-प्रतिकूल वातावरण से तरंगायित होता रहता है। जिन भावों के प्रभावों से भाव उबुद्ध होते हैं, वे विभाव कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-आलम्बन एवं उद्दीपन। जिसका आलम्बन कर भाव उत्पन्न होते हैं, वे आलम्बन तथा उद्भूत भावों को उद्दीपत करने वाले उद्दीपन विभाव कहलाते हैं। आश्रय-जिन चेष्टाओं द्वारा हृदय स्थित भावों को अभिव्यक्त करता है वे अनुभाव कहलाते हैं। भाव दो प्रकार के होते हैं-संचारी भाव तथा स्थायी भाव। बुबुदों की भाँति जो भाव प्रकट होकर शीघ्र ही लुप्त हो जाते हैं, उन्हें संचारी भाव कहते हैं तथा जो भाव रसास्वादन पर्यन्त मन में स्थिर रहते हैं, वे स्थायी भाव कहलाते हैं। संचारी भावों का कार्य स्थायी भावों को पुष्ट करना है। इनकी संख्या "तैंतीस" मानी जाती है। स्थायी भाव आठ हैं। विभाव, अनुभव व संचारी भावों के पुष्ट स्थायी भाव ही रस रूप में परिणत होते हैं। शान्त-रस के साथ इनकी संख्या नौ मानी जाती है। काव्यशास्त्र के अनेक विद्वानों ने "वात्सल्य रस" को भी साहित्य का रस स्वीकार किया है। जिससे ये दस हो जाते हैं। - - -