Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ भ्रमरगीत प्ररांगण में सूर की विरह व्यंजना गंभीर व व्यापक बन गई है। गोपियाँ जड़-चेतन का विवेक भी भूल गई हैं मधुक तुम क्यौ रहत हरे। विरह वियोग स्याम सुंदर के, ठाढे क्यों न जरे। मोहन बेनु बजावत तुम तर, साखा टेकि खरे। मेहि थावर अरु जड जंगम, मुनि जन ध्यान हरे। यह चितननि तू मन न धरत है, फिर फिरि पुहुप धरे। सूरदार' प्रभु वि. नाव. नख सिख लौन जरे।२२ विरहावस्था में राधा की दशा बड़ी मलिन हो गई है। उसके पास प्रियतम व मधुर स्मृति ही शे है। विरह की ऐसी अभिव्यंजना अन्यत्र दुर्लभ है अति मलिन वृषभानु कुमारी। हरि का जल भीज्यो उर अंचल, तिहि लालच न धुवावति सारी। छूटे चिकुर वक्ष कुम्हिलानि, ज्यौं नलिनी हिमकर की मारी। हरि संदेस सुनि सहज मृतक भई, इक विरहिनि दूजे अलिजारी। सूरदार कसे करि जीवै, ब्रज बनिता स्याम दुखारी।२२ सूरसागर जैसे श्रृंगार वर्णन का हरिवंशपुराण में नितान्त अभाव रहा है। सूर के भाव चित्रणों के समक्ष जिनसेनाचार्य का वर्णन नीरस एवं वर्णनात्मक प्रतीत होता है। शृंगार के सूक्ष्मतम भावों के निरूपण में सूर की सिद्धहस्तता विख्यात रही है। सच्चे अर्थों में श्रृंगार रस को देखना हो तो उनकी कृति सूरसागर का रसास्वादन करना पड़ेगा। यहाँ तो मात्र स्वल्प उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जो शृंगार रस की परिणति हैं। हास्य रस : हरिवंश .में इस रस की भी सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। सूर की शैली ही विनोद प्रिय रहा है। उन्होंने तो स्थान-स्थान पर कृष्ण की हास्य-जनक चेष्टाओं एवं क्रियाकलापों के रा हास्य रस के भावों की अभिव्यक्ति की है। कृष्ण के नटखट, वाक्पटु (हाजिर जवार, / स्वरूप के कई पदों में यह रस निरूपित हुआ है। जिनसेनाचार्य ने भी यत्र-तत्र हार- चित्रण किया है परन्तु वह स्वल्प मात्रा में है। हरिवंशपुराण : एक बार श्री ... रुक्मिणी के मुख से उगले हुए पान का वस्त्र के छोर में बाँध कर सत्यभामा के यहाँ जाते हैं। सत्यभामा उसे सुगन्धित पदार्थ मानकर अपने शरीर पर लगा देती है। तब श्री कृष्ण उसकी खूब हँसी उड़ाते हैं परन्तु वह ईर्ष्यावश क्रोधित हो जाती है।