Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________ हरिवंशपुराण और स्याद्वाद या अनेकान्तवाद :- . - जैन परम्परा में साम्यदष्टि-आचार और विचार दोनों में व्यक्त हुई है। आचार साम्य दृष्टि ने ही सूक्ष्म अहिंसा-भाव को जन्म दिया और विचार साम्य दृष्टि की भावना ने ही अनेकान्तवाद को जन्म दिया।३४ जैन-दर्शन में स्याद्वाद प्रत्येक ज्ञान को समन्वित रूप में देखता है। उस प्रत्येक नय में स्यात् शब्द का प्रयोग अभीष्ट है। स्यात् शब्द अस् (होना) धातु के विधि लिङ्ग के एकवचन का रूप है जिसका अर्थ है-हो सकता है, सम्भव है या शायद।१३५ दार्शनिक जगत में जैन-दर्शन की यह मौलिक और असाधारण बात है। इसमें अनेकान्त का सिद्धान्त सर्वोपरि है। इसके अनुसार वस्तु को अनेक दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। जैसे आत्मा को जब द्रव्यादिक नय से देखते हैं तो वह एक है, ज्ञाननंय की दृष्टि से, वह दो है तथा जब अनेक अवयवों की अपेक्षा देखते हैं तो वह अनेक है। यह सिद्धान्त एक नवीन विचारधारा है जिसमें समस्त विरोधों का उपशमन हो जाता है। अनेकान्तवाद समस्त दार्शनिक समस्याओं तथा भ्रमणाओं के निवारण का समाधान प्रस्तुत करता है। यह जैनाचार्यों की समन्वयात्मक उदार भावना का परिचायक है। एकांत वस्तुगत धर्म नहीं है, परन्तु बुद्धिगत कल्पना है। जब बुद्धि शुद्ध होती है, तब एकांत का नाम-निशान नहीं रहता है। प्रसिद्ध विद्वान् यशोविजय ने लिखा है कि "सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं कर सकता है। वह नयात्मक दर्शनों को वात्सल्य की दृष्टि से देखता है कि जिस प्रकार पिता अपने पुत्र को देखता है। अनेकान्तवादी न किसी को न्यून तथा न किसी को अधिक समझता है। वह सबके प्रति समभाव होता है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहलाने का अधिकारी भी वही है जो अनेकान्तवाद का आलम्बन लेकर समस्त दर्शनों से ऊपर समभाव रखता हो। मध्यस्थ भाव में रहने से शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है अन्यथा कोटि-कोटि शास्त्रों का अभ्यास करने से कोई लाभ नहीं।।१३६ स्याद्वाद एक दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण जब तक विचार रूप है, तब वह अनेकान्त है। अनेकान्त का अर्थ होता है कि जिसमें किसी एक के अन्त का आग्रह न हो, किसी एक पक्ष विशेष या धर्म विशेष का आग्रह न हो। यह एक विचार है, दृष्टिकोण है, समझने का एक सन्मार्ग है। यही अनेकान्तवाद जैन-धर्म की आधारशीला है। प्रत्येक वस्तु अनेक गुणों, अनेक विशेषताओं का समूह होता है, वस्तु के प्रत्येक अवस्थाओं पर विचार करना अनेकान्तवाद है। सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है कि-"इस अनेकान्तवाद के बिना लोक का व्यवहार चल नहीं सकता।" मैं उस अनेकान्त को नमस्कार करता हूँ, जो जन-जन के जीवन को आलोकित करने वाला गुरु है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक वस्तु सत् भी है तथा असत् भी। वह अपने निज रूप से तो - - - -