Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ मिलता है। अच्छे कर्मों से अच्छा फल मिलता है अतः सत्कर्मों पर विशेष बल दिया गया है। शुभाशुभ कर्मों के अनुसार मानव का उत्थान या अध:पतन होता है। मानव कर्म-विपाक के अनुसार जन्म के बाद मरण तथा मरण के बाद जन्म ग्रहण करता है, और इस प्रकार वह बार-बार जन्म-मरण के गतिशील चक्र में निरन्तर घूमता रहता है। ___भारतीय दर्शनानुसार मृत्यु के बाद आत्मा विद्यमान रहती है। जैसे स्वर्णकार सोने के एक टुकड़े से एक आकृति बनाने के पश्चात् दूसरी नवीन एवं सुन्दरतम आकृति बनाता है, उसी प्रकार यह आत्मा इस शरीर को छोड़कर नवीनतम एवं सुन्दर शरीर को धारण करती है। आत्मा की यह यात्रा उसके योग्य पाथेय, पूर्वजन्म में किये अच्छे-बुरे कर्मों पर आधारित रहती है। ___ सूरसागर तथा हरिवंशपुराण दोनों ग्रन्थों में इस तथ्य को पूर्णरूप में स्वीकार किया गया है। इसी आवागमन से छुटकारा पाने हेतु सूर ने भक्ति पर विशेष बल देते हुए कहा है कि-हरि स्मरण बिना न जाने कितने ही जन्म खो दिये हैं, उससे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ है वरन् विषयों संग अनेक यातनाएँ ही सहन करनी पड़ी है। फिर भी मानव इस ओर ध्यान नहीं देता क्योंकि उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा बन गया कि जुग-जुग जन्म मरन अरु बिछुरन, सब समझत मत मेव। ज्यों दिनकर हि उलूक न मानत परि आई यह टेव॥१०३ सूरसागर में विद्यमान सूर की समस्त भक्ति इसी आवागमन के छुटकारे के लिए है। उनका यह दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य पुनर्जन्म के चक्कर में से, भक्ति से ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है। बिना भक्ति के मनुष्य तेली के बैल की भाँति चक्कर लगाता रहता है। सूर ने कृष्ण-भक्ति में "नवधा-भक्ति"१०४ के सभी अंगों की पुष्टि की है। इसके उपरान्त भक्ति हेतु भक्ति मार्ग में बाल-लीला, यशोदा-विलाप, गोवर्धन-धारण, मानलीला, गोपियों का विरह, भ्रमरगीत इत्यादि को लिया है। जिसमें वात्सल्य भक्ति, सख्य भक्ति तथा मधुरा भक्ति की प्रधानता रहती है। सूर के अनुसार सभी जन्मों में मनुष्य जन्म दुर्लभ है। चौरासी लाख योनियों में शुभ-कर्मों द्वारा यह जन्म मिलता है और इस जन्म में भी जो परमात्मा की भक्ति कर छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता, उसकी मुक्ति कैसे सम्भव हो सकती है? कवि शिरोमणि सूर, अपने आपको पतितों का सरताज, कुटिल, अभिमानी, अपराधी मानकर भव बन्धन से छुटकारे हेतु प्रभु-प्रार्थना करते हैं कि मैं लज्जाहीन हूँ, अनेक जन्मों से बेकार में भटकता रहा हूँ परन्तु अब आप करुणा के सागर, पतित पावन हो मुझे इस भवसागर से पार करो(क) माधो जू मोहिं काहे की लाज। जन्म-जन्म यौँ ही भरमायो, अभिमानी बेकाज। /