Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ वचन, काय से किया गया धर्म ही प्राणियों को सुख के आधारभूत स्थान स्वर्ग, अपने मोक्ष को पहुँचा सकता है। धर्म ही उत्तम मंगल स्वरूप है। सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान से सहित अहिंसा, संयम तथा तप ही धर्म के लक्षण हैं। इस संसार में यह धर्म ही सब पदार्थों में उत्तम है। वह उत्कृष्ट सुख की खान है। जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से उत्पन्न दुःखों से छुटकारों के लिए धर्म ही अर्थात् पुण्य कर्म ही उत्तम शरण है। धर्मो मंगलमुत्कृष्टमहिंसासंयमस्तपः। तस्य लक्षणमुद्दिष्टं सदृष्टिज्ञानलक्षितम्॥ धर्मो जगति सर्वेभ्यः पदार्थेभ्य इहोत्तमः। कामधेनुः स धेनूनामप्यनूनसुखाकरः॥ धर्म एव परं लोके शरणं शरणार्थिनाम्। मृत्युजन्मजरारोगशोकदुःखार्कतापिनाम्॥१०१ हरिवंशपुराणकार ने धर्म क्या है? इस विषय में गहनता के साथ लिखा है कि अहिंसा, सत्यभाषण, अचौर्य ओर अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य ये पाँच महाव्रत, मनोगुप्ति, वचन गुप्ति तथा कायगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ, इर्या, भाषा-एषणा, आदान-निक्षेपण तथा प्रतिष्ठापन ये पाँच समितियां तथा विद्यमान समस्त सावध योग का त्याग ही धर्म है। इस भाँति दोनों ही आलोच्य कृतियों में पाप-पुण्य पर विचार किया गया है। मोक्ष की प्राप्ति हेतु पाप कर्मों का त्याग अत्यावश्यक है। पुण्य कर्मों से व्यक्ति को सुखों की प्राप्ति होती है। पाप तथा. पुण्य दोनों बन्धन हैं जो व्यक्ति को जन्म-मरण-चक्र में बाँधे रहते हैं। सूरसागर में मोक्ष की प्राप्ति भगवद् अनुकम्पा से सम्भव है, वहाँ हरिवंशपुराण में मोक्ष प्राप्ति हेतु शुभ वृत्ति से किये गये धर्म पर जोर दिया गया है। * पाप-पुण्य तथा उसकी फलश्रुति में एकरूपता होने के उपरान्त भी मोक्ष-प्राप्ति के सम्बन्ध में दोनों कृतियों में तात्त्विक अन्तर है। पाप कर्मों को छोड़े बिना, शुभ कर्मों में उद्यत नहीं हो सकते हैं। न तो भगवद्-भक्ति हो सकती है तथा न ही धर्म का पालन। अतः व्यक्ति को पाप कर्मों से दूर रहकर पुण्य कर्मों में जुड़ जाना ही उसके कल्याण हेतु श्रेयस्कर है। जैसे—बेड़ी सोने की हो या लोहे की, व्यक्ति को बन्धन में बाँधती है, ठीक उसी प्रकार पाप-पुण्य बन्धन हैं। परन्तु पुण्य कर्मों से व्यक्ति अपने अंतिम-लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकता है, जिसमें उसका कल्याण निहित है। हरिवंशपुराण का यह तात्त्विक विवेचन सूरसागर से भी अधिक गहनता की ओर ले जाता है। पुनर्जन्म :_ . पुनर्जन्म का ।सद्धान्त कर्म-सिद्धान्त का ही विकसित रूप है। मानव जन्म-मरण की विभीषिका से डर कर उससे मुक्ति पाने हेतु जप-तप, पूजा-अर्चना, ध्यान, भक्ति इत्यादि करता है। भारतीय दर्शन के अनुसार जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल -2376 - -