Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ में मिलते हैं तो कहीं शुद्ध साहित्यिक ब्रज भाषा में। मीरों के समस्त पद गेय भाषा में हैं। इन्हें विभिन्न राग-रागनियों में गाया जा सकता है। मीराँ के पदों में शृंगार व शान्त रस का सुन्दर प्रयोग हुआ है। मीराँ का विप्रलम्भ श्रृंगार उत्कृष्ट कोटि का है, वह अत्यधिक मार्मिक व तीव्र बन गया है। विरहनी बावरी सी भई। उंची-चढ़ी अपने भवन में हेरत हाय दई। मीराँ श्री कृष्ण के अनन्य प्रेम में पागल थी। ऐसी तन्मयता अन्यत्र दुर्लभ है। रसखान : रसखान, जैसा कि इनके नाम से ही स्पष्ट है कि ये भक्ति-रूपी रस की खान थे। ये दिल्ली के रहने वाले पठान थे। इन्होंने गोवर्धन-धाम जाकर गोस्वामी विठ्ठलनाथ से दीक्षा ली थी। इनके जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में कुछ निश्चित नहीं है। ये सम्प्रदाय बन्धन से मुक्त श्री कृष्ण के भारी भक्त थे। 'दो सौ वैष्णवन' की वार्ता में इनका एक बनिये के लड़के पर आसक्त होना लिखा है। दूसरे में यह भी पाया जाता है कि जिस स्त्री पर ये आसक्त थे, वह बहुत मानवती थी तथा वह इनका निरादर किया करती थी। कहते हैं कि एक दिन भागवत पढ़ने पर सोचा कि प्रेम तो कृष्ण से ही करना चाहिए। "प्रेम वाटिका" में इस दोहे का संकेत इसी ओर बताया जाता है : तोरी मानिनी ते हिया, कोरी मोहिनी मान। ... प्रेम देव की छबिहि लखि, भए मियाँ रसखान। इनकी निम्न रचनाएँ मिलती हैं-(१) प्रेम वाटिका (2) सुजान रसखान (3) दानलीला तथा (4) अष्टयाम। ... . इन्होंने अपनी रचनाओं में दोहा, कवित्त, सवैया तथा सारठा इत्यादि छन्दों का सफल प्रयोग किया है। इनकी भाषा बड़ी ही सरस तथा आडम्बरहीन है। इनका कविताकाल संवत् 1640 के बाद माना जाता है। इनके सवैये हिन्दी साहित्य में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। भारतेन्दु ने रसखान के काव्य से प्रभावित होकर यह पंक्ति ठीक ही कही थी कि. . इन मुसलमान हरिजनन पै, कोटि हिन्दू वारिए। इनके सरस काव्य का एक उदाहरण द्रष्टव्य है मोर पंखा सिर उपर राखिहों गूंजकी माल गरे पहिरोंगी। ओढ़ि पिताम्बर ले लकुटि वन गोधन ग्वालन संग फिरोंगी। भाव तो सोही मोरे रसखान सो, तेरे कहि सब स्वांग करोंगी। या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी, अधरा न धरोंगी॥०१ (सुजान रसखान-से)