Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ सूरसागर में शुद्धाद्वैत की इन्हीं मान्यतानुसार जीव मुक्ति एवं मुक्तिजन्य परमानन्दानुभूति का निरूपण मिलता है। भगवत्-अनुग्रह से ही जीव को सालोक्य, सामीप्य तथा सायुज्य में से कोई एक मुक्ति मिलती है। गोपिकाओं के भगवान् श्री कृष्ण के परम अनुग्रह से ये मुक्तियाँ अत्यन्त सहज में लभ्य है। भगवान् श्री कृष्ण के साथ नित्यरास में भाग लेना सायुज्य मुक्ति की अवस्था है। शृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों अवस्थाओं में गोपियों की पूर्ण तल्लीनता एवं आत्मविस्मृति इसी बात का द्योतक है। गोपियों को जब उद्धव ज्ञान, वैराग्य, योग, निर्गुण ब्रह्म की बात सिखाने का उपदेश देते हैं, तब वे कहती हैं कि उद्धव हम अबलाओं के लिए यह निर्गुण ज्ञान भारी है। जैसे-कोमल शरीर के लिए गरिष्ठ भोजन कष्टप्रद होता है।५७ भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उधो सुधौ नेकु निहारौ हम अबलानि को सिखवन आए, सुन्यौ सयान तिहारो। हम सालोक्य सारुप्य सायुज्यौं रहतिं सयान सदाई। .. सो तजि कहत और की औरे, तुम अलि बडे अदाई॥५८ पुष्टिमार्ग के अनुसार जीव के मोक्ष की सर्वोत्तम स्थिति श्री कृष्ण के लीला प्रवेश में है। रासरसेश्वर परब्रह्म परमेश्वर श्री कृष्ण जहाँ नित्यधाम वृन्दावन में नित्य लीलाएँ, गोपियाँ वहीं उनके साथ नित्य लीलास्थ रहना चाहती हैं। उनके लिए यही परम मोक्ष की स्थिति है। नित्य लीला विहार ही परम स्थिति का परिचायक है। मोक्ष की प्राप्ति के दो रास्ते हैंनिर्गुण तथा सगुण। निर्गुण भक्ति ज्ञान योग से सम्बन्धित है तथा सगुण भक्ति भाव प्रवृत्ति पर आधारित है। सूर की गोपिकाएँ भी प्रवृत्ति मूलक जीवनयापन करती हुई श्री कृष्ण की आराधिकाएँ हैं। वे कृष्ण की अनुरागी हैं, उन पर दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता। सूरदास जे रंगो स्याम रंग फिर न चढे रंग यात।६० इसी स्याम रंग में डूबना अर्थात् परमात्मा में लीन होना ही सूर के मतानुसार सर्वोच्च मोक्ष मार्ग है। भ्रमरगीत प्रसंग में इसी सगुण-भक्ति के महत्ता को प्रतिपादित किया गया है। सूर के पदों में जप, तप, तीर्थ, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष एवं तीनों लोकों के साम्राज्य से भी बढ़कर गोपाल नाम का संकीर्तन एवं वृन्दावन निवास को महत्त्व दिया गया है। जो सुख होत गोपालहि गाएँ सो सुख होत न जप-तप कीन्है कोटिक तीरथ न्हाएं। दिए लेत नहि चार पदारथ, चरन-कमल चित लाएँ। तीनि लोक तृन समकरि लेखत, नंद नंदन उर आऐं। -