Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ है। उसके अनुसार तो इस संसार के मिथ्यादर्शन का कारण आस्रव एवं बन्ध तत्त्व है। आस्रव तत्त्वों का द्वार बंद करके ही मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है, उसके लिए भगवान् की अनुकम्पा या अनुग्रह की आवश्यकता नहीं। दोनों ग्रन्थों में मुक्ति की बात स्वीकार की गई है—मुक्ति ही मानव का चरम लक्ष्य है परन्तु सूरसागर में भगवान् की कृपा से मुक्ति की बात है तो हरिवंशपुराण में आत्मा के कर्मों के बन्धन से छूटने पर। जैन-दर्शन आत्म तत्त्व एवं कर्म तत्त्व पर ही विशेष बल देता है, वह मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वरत्व पर आश्रित रहने पर विश्वास नहीं करता। पर वैष्णव परम्परा में परमात्मा की कृपा से ही संसार के मोह जाल से छुटकारा एवं मुक्ति संभव है। दोनों ही कविश्रेष्ठों ने माया अथवा मिथ्यादर्शन तत्त्व पर विशद विवेचन किया है परन्तु जिनसेनाचार्य का यह विश्लेषण और भी सूक्ष्मता के साथ निरूपित हुआ है। मोक्ष : जीव का जन्म-मरण, जरा-व्याधि से छुटकारा, अखंड आनन्द प्राप्त करने की दशा को मोक्ष कहा गया है। इस स्थिति विशेष सत्ता को सूरदास एवं जिनसेन दोनों ने स्वीकार किया है। साम्प्रदायिक दर्शनानुसार इस मोक्ष की स्थिति में विभेद रहा है परन्तु मोक्ष या मुक्ति दोनों का अंतिम लक्ष्य रहा है। श्रीमद्भागवत में जिस क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन किया गया है, उसे वल्लभाचार्य ने स्वीकार किया है। इस प्रकार भक्त के अधिकार क्षेत्र की दृष्टि से मुक्ति के दो रूप होते हैं-(१) क्रम मुक्ति एवं (2) सद्यो मुक्ति। . जिसे कर्म, भक्ति आदि उपासना से प्राप्त किया जाता है वह क्रम मुक्ति कहलाती है एवं जिसका अधिकारी सकाम भक्त होता है। सद्योमुक्ति से किसी क्रम-नियम साधना के निर्वाह की आवश्यकता नहीं होती। इसके अधिकारी मात्र पुष्टि-पुष्ट निष्काम भक्त होते हैं। सूरदास ने भक्ति के इन दोनों रूपों का वर्णन किया है। भक्त सकामी हूँ जो कोई क्रम क्रम करिकै उधरै सोई। निष्कामी वैकुंठ सिधावै जन्म-मरन तिहि बहुरि न आवै।५५ . : आचार्य वल्लभ के मतानुसार जीव के तीन प्रकार होते हैं-(१) पुष्टिजीव (2) मर्यादाजीव तथा (3) प्रवाही जीव। शुद्धाद्वैत वेदान्त के अनुसार जीव को मुक्ति का आनन्द होना, भगवदिच्छाधीन है। वेदविहितसाधनों के साधक सालोक्य सामीप्य तथा सायुज्य में से कोई एक मुक्ति को प्राप्त करता है। ज्ञान-साधना कष्टप्रद है, इसके द्वारा साधना के अंत में मुक्ति मिलती है। पुष्टिजीव के लिए लीला में लय होने की स्थिति को वाल्लभाचार्य ने सायुज्य अनुरूपा मुक्ति कहा है। यही मुक्ति श्रेष्ठ है। इसे ही स्वरूपानन्द मुक्ति भी कहा गया है। इसमें भक्त वैकुण्ठ से भी उत्कृष्ट गोलोक लीला की परमानन्दानुभूति प्राप्त करता है तथा भक्त पूर्ण पुरुषोत्तम लीला में प्रविष्ट हो जाता है।५६ - -