Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ आचार्य हुए। तदन्तर अखण्ड मर्यादा के धारक, षट्खण्डों के (जीवस्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड, महाबंध) के ज्ञाता, इन्द्रियजीत एवं कर्मप्रकृति रूप श्रुति के धारक जयसेन नामक गुरु हुए। इनके शिष्य अमितसेन गुरु हुए जो प्रसिद्ध वैयाकरणी प्रभावशाली तथा समस्त सिद्धान्तसागर के पारगामी थे। ये ही शतायु पुन्नाट संघ के अग्रसर आचार्य तथा परम तपस्वी थे। इन्हीं अमितसेन के अग्रज धर्मबन्धु कीर्तिषेण नामक मुनि थे। आचार्य जिनसेन उनके ही प्रधान शिष्य थे जिन्होंने हरिवंशपुराण की रचना की है।३२ वीर निर्वाण की वर्तमान काल गणना के अनुसार विक्रम संवत् 213 तक लौहार्य का अस्तित्व समय है तथा उसके बाद जिनसेन का समय वि०सं० 840 है अर्थात् दोनों के बीच में यह जो 627 वर्ष का अन्तर है। जिनसेन ने इस कालावधि में 29-30 आचार्य बतलाये हैं। यदि प्रत्येक आचार्य का समय इक्कीस बाईस वर्ष गिना जाय तो यह अन्तर लगभग ठीक बैठता है। ____ दूसरी तरफ वीर निर्वाण से लौहार्य तक अठ्ठाईस आचार्य बतलाये गये हैं और सब का संयुक्त काल 683 वर्ष का है। प्रत्येक आचार्य का औसत काल 25 वर्ष के लगभग पड़ता है। इस तरह दोनों कालों की औसत लगभग समान बैठ जाती है। उपर्युक्त विवेचन से यह निश्चित हो जाता है कि वीर निर्वाण के बाद से विक्रम सं० 840 की एक अविच्छिन्न अखण्ड परम्परा को इस ग्रन्थ में सुरक्षित रखा है। ऐसी परम्परा अन्य किसी भी ग्रन्थ में नहीं देखी गई है अतः इस दृष्टि से इस ग्रन्थ का पर्याप्त महत्त्व है। हरिवंशपुराण का मूलाधार : कोई भी कृतिकार किसी ग्रन्थ का आधार लेकर अपने ग्रन्थ की रचना करता है जैसे सूरसागर को श्रीमद् भागवत का आधार लेकर बनाया गया है। इसी तरह से जिनसेन (प्रथम) के "महापुराण" का आधार "वागर्थसंग्रह" पुराण रहा है। हरिवंशपुराण का भी कुछ न कुछ आधार अवश्य रहा होगा। जिनसेन ने अपने ग्रन्थ के अन्तिम सर्ग में जिस गुरु-परम्परा को वर्णित किया है इससे ज्ञात होता है कि इनके गुरु "कीर्तिषेण" थे। सम्भवतः हरिवंश की कथावस्तु उन्हें अपने गुरुजी से प्राप्त हुई होगी।३३ प्रसिद्ध ग्रन्थ "कुवलयमाला" के रचयिता उद्योतनसूरि ने (विक्रम संवत् 835) जिस तरह रविषेण के पद्मचरित तथा जटासिंह नन्दि के वरांगचरित की स्तुति की है उसी तरह हरिवंशपुराण की भी वंदना की है। उन्होंने लिखा है कि "मैं हजारों बन्धुजनों के प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रथम वंदनीय और विमलपद हरिवंश की वन्दना करता हूँ।"३४ यहाँ विमल से हरिवंश के "विमल पद" प्रयोगों के साथ 'विमल की रचना' यह ध्वनि भी प्राप्त होती है। इस ध्वनि से स्पष्ट निर्देश है कि विक्रम की पहली शताब्दी में हए =808