Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________ वे विचार करने लगे कि कहीं मैं दूसरी जगह तो नहीं आ गया या फिर भूल वश कैलास पर तो नहीं पहुंच गया। उन्हें संशय होने लगा कि कहीं वे वापस द्वारिका तो नहीं पहुँच गये। इस प्रकार सुदामा अपने ही द्वार पर खड़े अपने कुटिया को खोज रहे हैं। भक्त-वत्सल भगवान् ने उसे सब कुछ दे दिया परन्तु उन्हें पता ही नहीं चला था कि उन्होंने क्या पाया है। (क) हों फिरि बहुरि द्वारिका आयौ। समुझि न परी मोहिं मारग की, कोइ बुझो न बतायौ॥ कहिहैं स्याम सत इन छाँडयौ, उतो राँक ललचायो।६४ अब सुदामा ने श्री कृष्ण की असीम अनुकम्पा से सब कुछ प्राप्त कर लिया था। मणिकंचन की दीवारों से सजा सुन्दर भवन व दास-दासियों को देकर उन्हें ऐश्वर्यशाली बना दिया था। वे अपने वैभव के आगे आँसू भरी आँखें लिए खड़े ही थे कि इतने में उनकी पत्नी उन्हें पहचान गई। वह तुरन्त ही महल से नीचे आकर बड़े आदर के साथ अपने पति को अन्दर ले गई। सुदामा को अपनी बदली हुई दशा देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ तथा साथ-साथ में प्रसन्नता भी हुई। उन्होंने श्री कृष्ण को लाख-लाख धन्यवाद दिया। उनकी पत्नी उनसे पूछने लगी कि-हे स्वामी आप द्वारिकापति श्री कृष्ण से कैसे मिले। इस पर सुदामा ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया उठिके दौरि अंक भार लीन्हौ, मिलि पूछी इत उत कुसलाती। पटतै छोरि लिए कर तंदुल, हरि समीप रुकमिणी जहाँ ती॥१६५ ' अब सुदामा को लगने लगा कि हरि के बिना कौन किसी का दारिद्र्य हर सकता है। धनी पुरुष तो मेरे जैसे दीन व्यक्तियों को पहचानने से भी कतराते हैं। विपत्ति आने पर कुशल क्षेम भी नहीं पूछते, सहायता की बात तो दूर रही। सुदामा की आँखों के सामने द्वारिका के वे दृश्य आने लगे जब श्री कृष्ण ने अपने कर-कमलों से उनके पैर धोए थे। वे बड़े प्यार के साथ उनसे मिले थे। चुपचाप मुँह से कुछ भी न बोलकर उन्हें सब कछ दे दिया था। .. श्री कृष्ण के अलावा ऐसा कौन दीनबन्धु हो सकता है जो मेरे जैसे गरीब को सब कुछ दे दे। लेकिन सुदामा यह क्या जाने कि श्री कृष्ण के आगे प्रेम का मूल्य है, छोटेबड़े का नहीं। सूरदास ने सुदामा-चरित्र को दो बार वर्णित किया है। एक बार तो यह विस्तार से एकवीस पदों में वर्णित है जबकि दूसरी बार में मात्र एक पद में यह कथा आती है। इस प्रसंग में श्री कृष्ण की महानता, दीनबन्धुता एवं सच्ची मित्रता के गुणों का परिचय मिलता है। 1838