Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ जैन-दर्शन : जैनदर्शन का मूल सिद्धान्त है कि समस्त संसारी दु:खी हैं एवं वे इस दु:ख से छुटकारा चाहते हैं, परन्तु उन्हें सम्पूर्ण मोक्ष का मार्ग ज्ञात न होने के कारण वे दु:खों से छूट नहीं पाते। जैनागमों में इसी सिद्धान्त के आधार पर मोक्ष मार्ग बतलाया ब्राह्मण अथवा वैदिक धर्म साधना में कर्म, उपासना तथा "ज्ञान" का क्रम स्वीकृत किया गया है। बौद्ध धर्म में वैदिक धर्म से मिलता-जुलता शील, समाधि एवं प्रज्ञा का क्रम स्वीकार किया गया है, जबकि जैन धर्म में दर्शन, ज्ञान और चारित्र का क्रम अपनाया गया है जिसे त्रिरत्न कहते हैं। मूल रूप से जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र की एकता ही मोक्ष का मार्ग है। जिनसेनाचार्य ने अपनी प्रसिद्ध कृति हरिवंशपुराण में इसी मोक्ष मार्ग को सिद्धान्त और चिन्तनानुसार विश्लेषित किया है। वैसे ये तीनों रत्न घनिष्ठता के साथ एक दूसरे पर अवलंबित हैं, परन्तु तत्त्व-चिन्तन की दृष्टि से इनके प्रमुख तीन भेद किये गये हैं। प्रथम हम जैनागमों के इसी मोक्ष-मार्ग "त्रिरत्न" पर संक्षिप्त में विचार करेंगे, जिसे हरिवंशपुराण में प्रतिपादित किया गया है। तदुपरान्त सूरसागर की दार्शनिकता के साथ तुलनात्मक दृष्टिकोण से इसे उल्लेखित करेंगे। सम्यग्दर्शन :- .. ___जैनदर्शन के त्रिरत्न में सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान दिया गया है। यहाँ दर्शन का अर्थ है-शास्त्र-वचनों में (आगमग्रन्थ एवं तीर्थंकरों के उपदेश) श्रद्धा होना। इसी कारण आध्यात्मिक विकास के प्रारम्भ में ही ऐसी धर्म-श्रद्धा की परमावश्यकता होती है। इसके अभाव में आध्यात्मिक विकास अवरोधित हो जाता है। ज्ञान प्राप्ति की इच्छा का उदय भी इसी दर्शन (श्रद्धा) में समाहित है। सम्यग्दर्शन को अनेक जैन ग्रन्थों में कई प्रकार से परिभाषित किया है। "जीव- अजीवादि तत्त्वार्थों की सच्ची श्रद्धा का नाम ही सम्यग्दर्शन है।"२ सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। आत्म-श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन सम्बन्धित परिभाषाएँ शाब्दिक दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु गहराई से देखा जाए तो प्रतीत होता है कि इन सबका मूल-भाव एक ही है। मात्र परिभाषित करने का ढंग भिन्न-भिन्न है-मंजिल सबकी एक है। हरिवंशपुराण में जैन दर्शन की मूल मान्यता का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। जिनसेनाचार्य के अनुसार जीवादि सात तत्त्वों का निर्मल तथा शंका आदि अन्तरंग मलों के सम्बन्ध से रहित श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनमत्रेष्टं तत्त्वश्रद्धानमुज्ज्वलम्। व्यपोढसंशयाद्यन्तर्निश्शेषमलसङ्करम्॥ 2036