Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ जिनसेनाचार्य के अनुसार धर्म और अधर्म द्रव्यकण से गति और स्थिति की निर्मिति हैं। आकाश, जीव और अजीव दोनों द्रव्यों के अवगाह में निर्मित है। जो वर्तना लक्षणों से युक्त है, वह काल द्रव्य है। इसके समय आदि अनेक भेद हैं। परिवर्तनानुरूप धर्म से सहित होने के कारण काल द्रव्य परत्व और अपरत्व व्यवहार से युक्त है। गतिस्थित्योर्निमित्तं तौ धर्माधर्मों यथाक्रमम्। नभोऽवगाहहेतुस्तु जीवाजीवद्वयोस्सदा॥ . पूरणं गलनं कुर्वन् पुद्गलोऽनेकधर्मकः। सोऽणुसंघाततः स्कन्धः स्कन्धभेदादणुः पुनः॥ वर्तनालक्षणो लक्ष्यः समयादिरनेकधा। कालः कलनधर्मेण सपरत्वापरत्वकः॥८ इस भाँति पुष्टि सम्प्रदाय से दीक्षित होने के कारण सूर ने इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त के अनुरूप जीव तत्त्व की विवेचना करते हुए उसे आत्म स्वरूप.एवं ब्रह्म अंश के रूप में स्वीकार किया है। ___ जबकि जिनसेनाचार्य ने जैनदर्शनानुसार जीव तत्त्व को चैतन्य स्वरूप में उल्लेखित किया है। सूर के अनुसार जीव की उत्पत्ति ब्रह्म की इच्छा मात्र से होती है परन्तु जिनसेन के अनुसार जीव पृथ्वी आदि चार भूतों से उत्पन्न और अभिव्यक्त नहीं होता वरन् वह अनादिनिधन है, जो निजकर्मवश यहाँ दूसरी गति को जाता है। सूर ने शरीर के आत्मतत्त्व को ही जीव मानकर उसे अज्ञान वश इसे मायाजाल भ्रमित होते हुए चित्रित किया है जो भगवान् के अनुग्रह से मुक्ति को प्राप्त होता है। परन्तु पुराणकार ने जीव को ही कर्ता, भोक्ता, द्रष्टा तथा अपने कर्मों का नाश करने वाला बताया है। सूरसागर की अपेक्षा हरिवंशपुराण में जीव-अजीव तत्त्व की विशद व्याख्या के साथ उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों पर भी विचार किया है। माया : संस्कृत भाषा में "मा" शब्द अव्यय है जिसका अर्थ है "नहीं"। और "या" यत् सर्वनाम शब्द के स्त्रीलिंग प्रथमा विभक्ति का एकवचन का रूप है जिसका अर्थ है "जो"। इस प्रकार-"जो नहीं है" अर्थात् "माया" ! जो नहीं है, फिर भी भ्रान्ति से दिखाई देता है, वह माया है। शंकराचार्य ने माया को भ्रम रूपा माना है परन्तु वल्लभाचार्य के अनुसार माया ब्रह्मवशा है। वह भगवान् की अगाधशक्ति स्वरूपा है। इसके भी दो . रूप माने हैं(१) विद्या माया एवं (2) अविद्या माया। विद्या-माया वह है जो ब्रह्म की वशवर्तिनी एवं शक्ति है तथा जिसके द्वारा ब्रह्म समस्त जगत का निर्माण करता है। अविद्या माया वह है जो जीव को काम, क्राध, लोभ, मोह आदि के द्वारा वशीभूत करके पथभ्रष्ट करती है।