Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ श्रीमद्भागवतानुसार सूरसागर में निरूपित इस प्रसंग को हरिवंशपुराण में कहीं उल्लेख नहीं है। जिनसेनाचार्य ने श्री कृष्ण के शलाकापुरुष स्वरूप को ही विशिष्ट महत्त्व दिया है। परन्तु उनकी इस दीनबन्धुता का पर्याप्त महत्त्व है अतः इस प्रसंग का उल्लेख करना यहाँ परमावश्यक था। श्री कृष्ण की दीनबन्धुता गोकुल वृंदावन में रहते ग्वालबालों के साथ खेल-खेलते, गाये-चराते, कलेवा करते इत्यादि प्रसंगों में तथा कुब्जा पर अनुकम्पा के समय देखी जा सकती है। श्री कृष्ण द्वारा पाण्डवों को सहायता : सूरसागर तथा हरिवंशपुराण दोनों ही ग्रन्थों में श्री कृष्ण द्वारा पाण्डवों को प्रदान की गई सहायता का निरूपण मिलता है परन्तु यह वर्णन पर्याप्त भिन्नता पर आधारित है। सूरसागर में कवि ने इस प्रसंग को सूत्ररूप में वर्णित करने के लिए संक्षेप में ही लिखा है। कृष्ण द्वारा राजसूय यज्ञ में जाना, द्रौपदी की सहायता, महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की सहायता तथा पाण्डवों का राज्याभिषेक इत्यादि प्रसंगों का वर्णन महाकवि सूर ने इस कथा-प्रसंग के महत्त्व को बढ़ाया है। सूरसागर के अनुसार जिस समय इन्द्रप्रस्थ नरेश युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ को प्रारम्भ किया उस समय उनके आमंत्रण को पाकर श्री कृष्ण व बलराम नाना प्रकार के उपहार लेकर वहाँ गये। वहीं पर शिशुपाल द्वारा श्री कृष्ण की अग्रपूजा का विरोध किया गया एवं युद्ध के लिए उद्यत हो जाने पर श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काटा। ... एक बार कौरवों ने कपट द्वारा पाण्डवों को हराने के लिए हस्तिनापुर में जुए का आयोजन किया। आमंत्रण पाकर युधिष्ठिर सहित पाँचों पाण्डव वहाँ आए। युधिष्ठिर और दुर्योधन जुआँ खेलने लगे। कपट द्वारा दुर्योधन प्रत्येक बार जीतता गया। जुए के इस खेल में युधिष्ठिर अपना सब कुछ हार गया। राज-पाट, धन-दौलत, नौकर-चाकर, हाथी-घोड़े सबको हार जाने के बाद उसने अपनी पत्नी द्रौपदी को भी बाजी पर लगा दिया। इसको भी वे हार गये। इस पर दुःशासन द्रौपदी को पकड़कर घसीटते हुए राजसभा में ले आया तथा उसके वस्त्राहरण करने लगा। द्रौपदी असहाय होकर श्री कृष्ण से प्रार्थना करने लगी कि हे मुरारी! अब मेरी लाज रखो। आज इस सभा में भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे महावीर, गुरु तथा अनेक राजा महाराजा बैठे हैं परन्तु कोई मेरी रक्षा की बात नहीं करता। पाण्डव भी नीचे देखकर बैठे हैं। भीम ने अपने हाथ से गदा छोड़ दी है, महान् धनुर्धर अर्जुन भी बेबस है। हे गिरधारी ! मेरी प्रार्थना सुनो! मैं अनाथ हूँ। आपने पूर्व में भी अपने भक्तों की रक्षा की है। मैं त्राहि-त्राहि कर रही हूँ, मेरी लाज रखो। लाज मेरी राखो स्याम हरि। हा हा करि द्रोपदी हारी, विलम्ब न करो घरी। दुस्सान अति दारून रिस करि, केसन करि पकरी।