Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ (12) जिनसेन स्वामी : आप वीरसेन स्वामी के शिष्य थे। हरिवंशपुराणकार जिनसेन ने आपके "पार्श्वभ्युदय" ग्रन्थ की ही चर्चा की है जबकि आप महापुराण तथा कषाय-प्राभृत की अवशिष्ट चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका के भी कर्ता हैं। __ ऐसा प्रतीत होता है कि ये जिनसेन के समकालीन थे तथा हरिवंशपुराण की रचना के समय इन्होंने "पार्थाभ्युदय" की ही रचना की होगी। जयधवला और महापुराण की रचना आपकी अंतिम रचना कही जाती है, जिसे स्वयं पूरा न करने से उनके सुयोग्य शिष्य गुणभद्र ने पूरा किया। आपका समय ९वीं शती है। ये हरिवंशपुराणकार जिनसेन के समय में ही हुए थे। (13) वर्धमानपुराण के कर्ता : जिनसेनाचार्य ने वर्धमानपुराण का तो उल्लेख किया है परन्तु इसके कर्ता का नामोल्लेख नहीं किया है। जान पड़ता है उनके समय का कोई प्रसिद्ध ग्रन्थ रहा होगा परन्तु सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। जिनसेनाचार्य की गुरु परम्परा : जिनसेन स्वामी ने आलोच्य कृति में कई गुरु-परम्पराओं को विवेचित किया है। भार्गव ऋषि की शिष्य परम्परा के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि भार्गव का प्रथम शिष्य आत्रेय था, उसका शिष्य कौथुमि पुत्र था। कौथुमि का अयरावृत्त, अयरावृत्त का सित, सित का वामदेव, वामदेव का कपिष्ठल, कपिष्ठल का जगस्थामा, जगस्थामा का सरवर, सरवर का शरासन, शरासन का रावण, रावण का विद्रावण और विद्रावण का पुत्र द्रोणाचार्य था। जैन पुराणों में यह परम्परा इस रूप में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती है। हरिवंश के छासठवें सर्ग में महावीर भगवान् से लेकर लोहाचार्य तक की वही आचार्य परम्परा दी है जो श्रुतावतार आदि ग्रन्थों में भी मिलती है। वहाँ लिखा है कि महावीर के निर्वाण के बाद 62 वर्षों में तीन केवली (गौतम, सुधर्मा, जम्बू) हुएँ। उनके बाद सौ वर्षों में पाँच श्रुतकेवली (विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु) हुए। तदुपरान्तं 182 वर्षों में ग्यारह दशपूर्व के पाठी (विशाख, प्रौष्ठिल, क्षत्रिय, जयनाग, सिद्धार्थ, धृतसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव व धर्मसेन) हुए तथा फिर 118 वर्ष में समुद्र जयचन्द, यशोगाहु तथा लौहार्य ये चार आचाराङ्गधारी हुए। इस प्रकार वीर निर्वाण के 683 वर्षों में ये सब आचार्य हो गये। इसके बाद महातपस्वी विनयंधर, गुप्तश्रुति, मुनीश्वर, शिवगुप्त, अर्हवलि, मन्दरार्य, मित्रवि, बलदेव, मित्रक, सिंहबल, वीरवित, पद्मसेन, व्याघ्रहस्त, नागहस्ती, जितदण्ड, नन्दिषेण, स्वामी दीपसेन, श्रीधरसेन, सुधर्मसेन, सिंहसेन, सुनन्दिषेण, ईश्वरसेन, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन तथा शांतिसेन -