Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ यह लीला सूर की मौलिक सूझ है। रसिकेश्वर श्री कृष्ण ने जब अपना समय छेड़-छाड़ में व्यतीत करना प्रारम्भ किया, उस समय अपनी गतिविधियों का केन्द्र "पनघट" बनाया। वे यमुना जल को भरकर आने वाली गोपियों के गागर को दरका देते हैं। किसी की इंडूरी फैंक देते हैं तो किसी की गागर फोड़ देते हैं एवं किसी के चित्त को चुरा लेते हैं। काहू की गगरी ढरकावें। काहू की इंडुरी फटकावै। काहू की गगरी धरि फॉरें। काहू के चित्त चितवन चौरें // 63 - इससे भी आगे बढ़कर श्री कृष्ण किसी की बाँह मरोड़ देते हैं, किसी की अलकें पकड़ लेते हैं, बरजोरी से किसी को अपने भुजापाश में आबद्ध कर देते हैं। गोपियाँ कृष्ण की इन शरारतों से बाहर से खीझ प्रकट करती हैं परन्तु इतना होने पर भी वे अन्दर से इतनी मुग्ध हैं कि उन्हें कृष्ण की लीलाएँ अत्यधिक आनन्द प्रदान करने वाली लगती हैं। ऐसी मुग्ध अवस्था में वे अपना मार्ग भटक जाती हैं। एक गोपिका के बाहर से संकुचित होने पर भी भीतर से पुलकित होने का चित्रण द्रष्टव्य छाँड़ि देहु मेरी लट मोहन। कुच परसत पुनि-पुनि सकुचत नहिं कत आई तजि गोहन। जुवति आनि देखि है कोऊ, कहति बंक करि भौंहन। बार-बार कही वीर दुहाई, तुम मानत नहिं साँहन। इतने ही को सोह दिवावति, मैं आयो मुख जोहन। सुर स्याम नागरि बस कीन्ही विबस चली घर कोह न।६४ .... इससे आगे गोपिका अपनी मुग्धावस्था में मार्ग भटक जाने पर अपनी लट पर रोष प्रकट करती है। वह सोचती है कि मनमोहन कृष्ण ने इसी को छटका मेरी यह दशा की है। सूर की भावपूर्ण अभिव्यंजना देखते ही बनती है चली भवन मन हरि-हरि लीन्हौं। पग द्वे जाति ठठकि फिरि हेरति, जिय यह कहति कहा हरि कीन्हाँ। मारग भूलि गई जिहिँ आई, आवत कै नहिँ पावति चीन्हौं। रिस करि खीझि खीझि लट झूटकति स्याम-भूजनि छुटकायौ इन्हौं। प्रेम-सिन्धु मैं मगन भई तिय हरि के रंग भयौ उर लीनौ। सूरदास-प्रभु सो चित अँटक्यौ, आवत नहिँ इत उतहिँ पतीनौं।६५ ... . सूरदास ने इस प्रसंग में गोपिका का ठिठकना, बारम्बार पीछे मुड़कर देखना, अपना मार्ग भटकना तथा अपनी विचित्र मनोदशा इत्यादि का बड़ा ही स्वाभाविक वर्णन किया है। D