Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ और गोपियों के प्रेमपूर्ण उपालम्भ द्वारा गोपियों के माधुर्य भाव की व्यंजना की गई है।' 188 प्रतीक अर्थ : इस लीला की यथार्थता यह है कि गोपियाँ ब्रह्मान्वेषकारिणी भक्ति-साधिकाएँ हैं। अनेक जन्मों के पुण्य स्वरूप उन्हें परमात्मा श्री कृष्ण प्राप्त हुए हैं। उनकी इस अहं बुद्धि को छुड़ाने के लिए भगवान् ने यह लीला की। इसलिए अन्त में वे उन्हें साधना के सिद्ध होने की सूचना कर शरद्-रास में आमंत्रित करते हैं। चीरहरण में कोई लौकिक वस्तु की चोरी नहीं वरन् बुद्धिगत काम-वासना की चोरी है। अर्थात् इस शरीर को भूलने की बात है, जब हम शरीर का भाव भूल जायेंगे तभी भगवान् के पास जा सकेंगे। अशरीरी बनने पर ही जीव और शिव का मिलन सम्भव है। शरीर ही वह चीर-वस्त्र है, जिसका परमात्मा हरण करता है। वास्तव में शरीर के धर्म छोड़ने पर ही अज्ञान रूपी अन्धकार दूर हो सकेगा। तभी ज्ञान रूपी सूर्य का उदय होगा। श्रीमद् भागवत गीता में भी श्री कृष्ण अर्जुन को यही कहते हैं कि, "परधर्म दुःखदायी है एवं स्वधर्म सुखदायी है।"९० अर्थात् इसमें विषय-वासना एवं विकारों को त्यागने की बात है तथा आत्मा की पवित्रता शुद्धता व निर्मलता पर जोर दिया गया है। वसंत लीला :- इस लीला में ब्रज में बसन्त ऋतु के आगमन पर उसकी अपूर्व मादकता एवं गोप-गोपियों के साथ फाग खेलने का चित्रण मिलता है। वे अपनी मान-मर्यादा को भूलकर वह बसन्त क्रीड़ाएँ करते हैं। सूरसागर में बसन्त लीला में मग्न ब्रज को उपमा सागर की गई है, जो अपनी सभी मर्यादाओं को छोड़ चुका है। मानहुँ प्रेम समुद्ध सूर बल उमंगि तजी मरजाद।११ प्रकृति के सुरम्य एवं मादक वातावरण से इस लीला का प्रारम्भ होता है। मुंदग, बीन, डफ, मुरली इत्यादि विविध वाद्यों की मनमोहक ध्वनि में श्री कृष्ण अपने सखाओं के साथ होली खेलने में मस्त है। गोपियाँ भी वहाँ आती है तथा उन्हें गालियाँ देती हैं। एक ओर श्री कृष्ण तथा उनके सखा एवं दूसरी ओर गोपियाँ एक दूसरे पर अबीर, गुलाल, आदि झोलियाँ भर-भरके डालते हैं। बसन्त का सुन्दर चित्रण कवि के शब्दों में दृष्टव्य है खेलत अति सुख प्रीति प्रगट भई, उत हरि इतहिं राधिका गौरी। बाजत ताल मृदंग झांझ डफ, बीच बीच बांसुरी धुनि थोरी॥ गावत दै दे गारी परस्पर, उत हरि इत वृषभानु किसोरी। मृगमद साख जवादि कुमकुमा, केसरि मिलै मिलै मथि घोरी॥१२