Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________ इस दृष्टि से यह सूर का ग्रन्थ है। डॉ० हरवंशलाल शर्मा भी इसे सूर की प्रामाणिक रचना स्वीकार करते हैं। इनके अलावा भी अनेक समीक्षकों ने इसे सूरकृत प्रामाणिक ग्रन्थ माना है जो सर्वथा उचित है। वर्ण्य विषय : सूर ने साहित्य-लहरी में भगवान् की किशोर लीलाओं को ही अपना विषय बनाया है। इस ग्रन्थ में दृष्टिकूट पदों का संग्रह मिलता है। सूरसागर की अपेक्षाकृत इसमें अधिक पाण्डित्य होने के कारण यह एक काव्य शास्त्रीय-ग्रन्थ प्रतीत होता है। इसमें नायिका भेद, अलंकार, रस-निरूपण आदि के उदाहरण स्वरूप अनेक पद उपस्थित किये गए हैं। नायिका भेद में परकीया भाव का स्वर सब से ऊँचा है। कवि ने नायिकाओं के अनेकानेद भेदों का वर्णन किया है, जो 108 भेद हैं। लेकिन दृष्टिकूट शैली में प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष रूप में भगवान् रसिकेश्वर कृष्ण की ही लीलाओं का गान मिलता है। इस कृति में कवि का उद्देश्य भक्ति-भावना के प्रचार की अपेक्षा चमत्कारवादी अधिक रहा है। कवि का प्रौढ़ आचार्यत्व प्रकट करती यह एक प्रसिद्ध काव्य-शास्त्रीय कृति रही है। परन्तु गहनता से देखा जाय तो वैष्णव परम्परा में भक्तिभावना की अभिव्यक्ति की यह एक रीति है। श्रीमद् भागवत् में इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है। भगवान् श्री कृष्ण के काव्योक्त प्रकारों से रमण करने के कारण काव्य-कथाओं में भी उसका इस प्रकार निरूपण मिलता है। सूर-निर्णयकारों ने साहित्यलहरी को श्री कृष्ण की रमणलीलाओं की श्रृंखला में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी मानते हुए लिखा है कि "साहित्य-लहरी का नाम और उसका बाह्य कलेवर काव्य साहित्य का सूचक होते हुए भी वह भक्ति की उच्चतम भावना से अनुप्राणित है। इससे कवि का उद्देश्य भगवान् श्री कृष्ण की रहस्यमयी लीलाओं का गान करना मात्र था, साहित्य-नेतृत्व करना नहीं।"३३३ - इस प्रकार साहित्यलहरी काव्य ग्रन्थ होते हुए भी भक्ति-भावना से ओत-प्रोत कृति है जिसमें श्री कृष्ण की रमण-लीलाओं का काव्यशास्त्रीय पद्धति से निरूपण किया गया है। मुद्रण और प्रकाशन : ' साहित्य लहरी की सबसे पुरानी दो सटीक प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं, उसकी कोई हस्तलिखित कृति अब तक प्राप्त नहीं हुई है। एक प्रति में सूरदास कवि की टीका है तथा दूसरी में सूरदास की टीका के साथ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की टिप्पणी भी है। इन दोनों प्रतियों में आंशिक अन्तर भी है। सूरदास कवि की टीका सहित साहित्यलहरी के प्राचीनतम रूप की खोज का श्रेय प्रभुदयाल मित्तल को है। इसका सर्वप्रथम प्रकाशन ई०सं० 1869 में लाईट-प्रेस (बनारस) में हुआ था। बाद में ई० 1890, दूसरी बार नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ से तथा तीसरी बार ई०सं० 1895 में खड़गविलास प्रेस, बांकीपुर तथा चौथी बार ई०सं० 1939 में 1038