Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ ब्रज के लोग उठे अकुलाइ। ज्वाला देखि अकास बराबरि, दसहँ दिसा कहँ पार न पाइ। * झरहरात ब्रज-पात गिरत तरु, धरनी तराकि सुनाइ। जल बरबत गिरिवर-तर बाँचे, अब कैसे गिरि होत सहाइ। उचटत भरि अंगार गगन लौं, सूर निरखि ब्रज-जन बेहाल॥९ महाकवि सूर ने जहाँ इस प्रसंग को बड़े मनोयोग से चित्रित किया है। वहाँ जिनसेनाचार्य ने इसे उल्लेखित नहीं किया है। यह घटना भी श्री कृष्ण की शक्ति सम्पन्नता एवं अपरिमेय बल की परिचायक है। प्रतीक अर्थ : ___ दावाग्नि को प्राणाध्याय का प्रतीक माना जाता है। प्राणात्मवादी प्राण को ही आत्मा मानते हैं। भूख-प्यास एवं पाचन क्रिया प्राण का धर्म है। अतः प्राण को अग्नि कहा जाता है। साधक का प्राणों का पोषण करना भी असुर भाव या पशुता है। भूख-प्यास को ही मिटाने वाला साधक कभी सफल नहीं हो सकता है अतः प्राणों को संतुलित रखने के लिए साधना मार्ग के व्रत-उपवास, प्राणायाम आदि आवश्यक अंग माने गये हैं। श्री कृष्ण रूपी भावना या ज्ञान इस प्राणाध्यास (दावानल) का पान कर भक्ति की सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं एवं मुक्ति के मार्ग को अवसर देते ____ दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो-"अग्नि का कार्य जलाना है। योग भी अग्नि है जो विकर्मों, पापों को भस्म कर देती है। श्री कृष्ण जैसा देवोपम व्यक्ति भी इस अग्नि में तपकर उसका पान कर ही निखर सकता है।"५१ श्री कृष्ण की रसिक लीलाएँ : जब बालक्रीड़ा यौवन-क्रीड़ा में बदल जाती है और बालजीवन के साथी यौवनानुभूतियों के संवाहक बन जाते हैं तो कृष्ण के एक सर्वथा नये स्वरूप का उदय होता है। यह रूप काव्य में शृंगार और भक्ति के मधुररस के नाम से उल्लेखित किया गया है। महाकवि सूरदास ने तो इस रस के दोनों पक्षों (संयोग तथा वियोग) का बड़ा खूबी के साथ वर्णन किया है। शृंगार रस का कोई भी ऐसा पहलू नहीं है, जिसे सूर ने अपनी बंद आँखों से भली प्रकार से न देख लिया हो। उनके श्रृंगार के भाव अपने एक स्वाभाविक क्रम में पुष्ट होकर विकास की पूर्ण दशा तक पहुंचे हैं। गोपियों के साथ कृष्ण का मधुर भाव जीवन के प्रभात से ही विकसित होकर संभोग की विविध लीलाओं में शनैः-शनैः पुष्ट होकर अन्त में विप्रलम्भ की आँच में निखर कर परमोज्ज्वलता को प्राप्त करता है।५२ - - - - % - - -137