Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ यद्यपि जिनसेनाचार्य श्रृंगार के कवि नहीं हैं परन्तु उनकी कृति में इस रस का भी यत्र-तत्र सुन्दर परिपाक मिलता है। उन्होंने श्री कृष्ण की इन रसिक लीलाओं का सूर जैसा विशद एवं मनोवैज्ञानिक धरातल पर परिपुष्ट वर्णन नहीं किया है। ये घटनाएँ भी सूरसागर के अनुसार श्री कृष्ण के जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर हमें विचारने को विवश करती हैं। इन प्रसंगों का वास्तविक रहस्य क्या है? इसे भी समझना परमावश्यक है अतः हरिवंशपुराण में इन घटनाओं का स्वल्प वर्णन होने के उपरान्त भी सूरसागर के साथ उसका तुलनात्मक अध्ययन करने का यहाँ प्रयास किया जायेगा। सूरसागर में गोपियों के साथ में श्री कृष्ण के प्रेम-विकास का क्रमबद्ध निरूपण मिलता है, जिसका हरिवंशपुराण में अभाव है। रसिकलीलाओं में भी हरिवंशपुराण सूरसागर से पीछे है। इन्हीं विशेषताओं को दृष्टि में रखकर कृष्ण की इन लीलाओं का हम यहाँ विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं। रासलीला : शरद् ऋतु का पूर्ण चन्द्र शुभ आकाश पर चढ़कर कृष्ण की रासलीला देखने को आतुर हो रहा है। ऐसी पूर्ण चन्द्रमयी रात्रि में श्री कृष्ण गोपियों के आह्वान के लिए वेणु-वादन करते हैं। मुरली का स्वर सुनते ही गोपियाँ भाव-विह्वल हो जाती हैं। वे अपने पति इत्यादि की मर्यादाओं को तोड़कर शीघ्र कृष्ण के पास दौड़ी आती है, जैसे बीन विमोहित सर्प बीन की ध्वनि पर गारूड़ी के पास पहुंच जाता है। यमुना का मनोरम तट और चारों ओर अपनी सुगन्धमयी मुस्कराहट फैलाते हुए फूल ऐसे मनमोहक वातावरण में लगता है कि प्रकृति भी अपने सुन्दर रंगबिरंगे वस्त्र पहिने अपने सौभाग्य पर मुस्करा रही है। रोम-रोम को पुलकित करने वाला शीतल, मंद, सुगंधित पवन बह रहा है। प्रकृति की प्रसन्नावस्था में मोहन की बंशी-विमोहित मण्डली रास करने जा रही है। सूरसागर में रासलीला का अत्यधिक रोचक और चित्ताकर्षक वर्णन है। इस वर्णन में कवि शिरोमणि सूर की तन्मयता एवं कल्पनाशीलता पराकाष्ठा पर पहुंच गई है। कृष्ण के वेणुवादन से गोपियाँ इतनी तन्मयता को प्राप्त कर गई हैं, वे इतनी प्रेमान्मत हो गई हैं कि वे वस्त्राभूषण तक स्थानान्तर पर धारण कर लेती हैं। इस लीला में गोपियों की प्रेम जन्य उत्सुकता एवं उत्कटता देखते ही बनती है। गोपियों की अनुरक्ति का सब से बड़ा प्रमाण इसी रास-लीला में मिलता है। करत शृंगार जुवति भुलाहीं। अंग-सुधि नहीं उलटे बसन धारहिँ एक एकहि कछू सुरति नाही। नैन-अंजन अधर आँजही हरष साँ, स्रवन ताटक उलटे सँवारें। सूर प्रभु-मुख-ललित बेनु धुनि बन सुनत चली बेहाल अंचल न धारें॥५३ -