Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ (1) सूर-सारावली : "सूर-सारावली" जैसा कि उनके नाम से ही विदित होता है कि यह स्वतंत्र रचना न होकर सूरसागर की अनुक्रमणिका है। सम्भव है कि स्वयं सूरदास ने इन पदों की रचना कर सूरसागर की भूमिका स्वरूप रख दिया हो परन्तु यदि सारावली तथा सूरसागर की ध्यानपूर्वक तुलना की जाय तो स्पष्ट होता है कि सारावली में अनेक ऐसे स्थल मिलते हैं, जो सूरसागर में नहीं हैं। सारावली की प्रामाणिकता : सूर के प्रायः सभी आलोचकों ने सारावली की प्रामाणिकता पर गहनता से विचार किया है। इसमें अधिकांश आलोचक "सारावली" को सूरकृत मानने के पक्षधर हैं। डॉ० कृष्णदास, लाला भगवान दीन, डॉ० बेनीप्रसाद, डॉ० मुंशीराम शर्मा, डॉ. दीनदयाल गुप्त, द्वारकादास पारीख, प्रभुदयाल मित्तल, डॉ० हरवंशलाल शर्मा, डॉ० भ्रमरलाल जोशी आदि अनेक विद्वान् इस ग्रन्थ को सूर-कृत मानते हैं। परन्तु मिश्र बन्धु तथा डॉ० रामरतन भटनागर इसे संदिग्ध रचना मानते हैं एवं डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा तथा डॉ० प्रेमनारायण टंडन इसको सर्वथा अप्रामाणिक रचना मानते हैं। डॉ० दीनदयाल गुप्त ने सारावली को सूर की रचना मानने के पक्ष में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उनमें से मुख्य इस प्रकार से हैं(१) इस ग्रन्थ में व्यक्त विचार वल्लभ-सम्प्रदायी-विचारों से साम्य रखते हैं। (2) वल्लभाचार्य ने सृष्टि-विकास में 28 तत्त्व माने हैं। सारावली में भी 28 तत्त्वों का निर्देश किया गया है। (3) सूरसागर एवं सारावली में भाव-साम्य के साथ-साथ आत्मविषयक कथनों में भी साम्य है। (4) सूर के जैसा ही लालित्य-पूर्ण ब्रजभाषा का स्वरूप सारावली में विद्यमान है। (5) सूरसागर के अनुरूप भावों के दृष्टिकूट पद सारावली में हैं। (6) सूर के नाम की जो छापे सूरसागर में हैं, वे सूर सारावली में भी है। ___अन्त में आप कहते हैं कि चार छः शब्दों को पकड़कर जो सम्भवतः अब तक छपे सूरसागरों में नहीं मिलते, इस ग्रन्थ को सूरकृत न कहना उचित नहीं है। "प्रक्षिप्त" शब्द और वाक्य सूर के सभी ग्रन्थों में हो सकते हैं। अतएव यह रचना के विचार से सूरकृत ही है।६० वर्ण्य-विषय : सारावली का प्रारम्भ सूरदास के प्रसिद्ध पद "बन्दऊ श्री हरिपद सुखदायी" से -900