Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ प्रभु को देखो एक सुभाऊ अति गम्भीर उदार उदधि हरि जान सिरोमनि राई॥ भक्त-विरह कातर करुनामय डोलत पाछे लोग। सूरदास ऐसे स्वामी को देहि मीठे सो अभोग॥५१ इस पद को सुनकर गोसाईंजी अत्यन्त खुश हुए। तब चतुर्भुजदास ने सूरदास से प्रार्थना की कि-"सूरदासजी भगवल्लीला गान तो आजन्म किया, पर महाप्रभु का यश वर्णन नहीं किया।" . इस पर सूर ने कहा कि 'मैं भगवान् और श्रीआचार्यजी. में कोई भेद नहीं समझता हूँ। मैंने जिस यश का वर्णन किया है, वह सारा आचार्यजी का ही तो है। यह कहकर उन्होंने यह पद गाकर सुनाया भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो श्रीवल्लभ नखचन्द छटा बिन सब जग मॉझ अंधेरों॥ साधन ओर नाही या कलि में जासो होत निबेरों। सूर कहा कहै दुबिध आँधरो बिना मोल की चेरो॥५२ . इसके बाद चतुर्भुजदास ने सूरदास से विनती की कि अब संक्षेप में आचार्यजी के पुष्टिमार्ग के स्वरूप का वर्णन कीजिए। तब सूर ने निम्न पद का मान किया भजि सखी भाव भाविक देव कोटि कुमार मांग्यौ कौन कारण सेव॥ वेद विधि को नेम नाहि जहाँ प्रेम की पहिचान। ब्रज-वधु बस किये मोहन सूर चतुर सुजान॥५३ इसके बाद सूरदास पुनः अचेत हो गये। इस पर गोसाईंजी ने सूरदास को पुनः सचेत करके कहा कि-"आपकी नेत्र-वृत्ति कहाँ है?" तो सूर ने उत्तर में अपना अन्तिम पद सुनाया खंजन नैन रूप रसमाते अतिसे चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते॥ चलि-चलि जात स्रवनन के उलट फिरत ताटक फंदाते. "सूरदास" अंजन गुन अटके नातर अब उडि जाते॥५४ यह कहकर सूर ने परमशांति के साथ भगवल्लीला में प्रवेश कर भौतिक शरीर का त्याग किया। उपस्थित वैष्णव बन्धुओं ने "पारसौली" में उनके पार्थिव शरीर की अन्तिम विधि पूर्ण की।