Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________ आचार्यजी ने कहा-"कुछ भगवद् जस वर्णन करो"। सूर ने इस पर विनय के सम्बन्धित इस पद का गान किया प्रभु हौ सब पतितन को टीको और पतित सब चार दिना के, ही तो जनम तही कौ॥ 138 / राचार्य वल्लभ सूर की मधुर वाणी से अत्यधिक प्रभावित हुए परन्तु उन्होंने सूर के जीवन में परिव्याप्त दीनता, निराशा तथा अवसाद को देखकर कहा किसूर ते के ऐसे काहे को घिघियातु है, कछु भगवान् की लीला का वर्णन करूँ।" सूर ने अपनी विवशता को प्रकट करते हुए कहा कि 'प्रभु मैं तो नेत्रहीन हँ, मै कुछ समझता नहीं हूँ।८' इस पर वल्लभाचार्य ने उन्हें दीक्षा प्रदान की तथा अष्टछापं मन्त्र "श्रीकृष्णः शरणं मम" सुनाया एवं समर्पण करवाया। सूर को आश्वस्त करते हुए बताया कि भगवान् की लीला का सम्बन्ध चर्म-चक्षुओं से नहीं वरन् ज्ञान-चक्षुओं से है। इस प्रकार आचार्य ने उन्हें ज्ञान-दृष्टि से मंडित कर पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया। वहीं से वल्लभाचार्य सूरदास को अपने साथ गोवर्धन ले गये। गोकुल में सूरदासजी ने "नवनीतप्रियाजी" के सम्मुख भक्ति के पदों का गान किया। यहीं पर श्रीवल्लभाचार्य के आदेशानुसार लीलापदों का गान एवं लिखना प्रारम्भ हुआ। श्रीवल्लभाचार्य भागवत के जिस भाग का पारायण करे थे, सूरदास उसी पर पदों को लिखने का कार्य प्रारम्भ कर देते थे। आचार्यजी के साथ थोड़े समय तक गोकुल में निवास कर तत्पश्चात् उन्हीं के साथ गोवर्धन चले गये। गोवर्धन में नवनिर्मित श्रीनाथजी के मन्दिर में स्थापित श्रीनाथजी की सेवा में लग गये। वहाँ का कीर्तन-कार्य कुंभनदास करते थे। श्रीनाथजी की सेवा का कार्य बंगाली वैष्णवों के हाथों में था। संवत् 1556 में पूरणमल खत्री ने श्रीवल्लभाचार्य की प्रेरणा से वैशाख सुदि 3 को एक विशाल मन्दिर बनवाया एवं वहाँ श्री श्रीनाथजी की मूर्ति स्थापित कर सूरदास को प्रमुख कीर्तनिया नियुक्त किया। संवत् 1576 वैशाख सुदि 3 के बाद में जाकर यह मन्दिर पूर्ण हुआ। श्रीनाथजी के कीर्तनिया के रूप में सूर का स्थाई निवास गोवर्धन न होकर उसके पास "पारसौली" ग्राम में चन्द्रसरोवर को अपना स्थाई निवास बताया। "पारसौली" से सूरदास नित्य श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा में आया-जाया करते थे। इन्हीं कीर्तनों में वे सहस्रों नये-नये पद हैं, जिनके संकलन को सूरसागर का नाम दिया गया है। अष्टछाप की स्थापना : श्रीनाथजी के मन्दिर में कीर्तन का 'मंडान' होने पर सूर उनके प्रथम नियमित कीर्तनीये नियुक्त किये गये। इसके पश्चात् दूसरे कीर्तनिये के रूप में परमानन्द को नियुक्ति प्रदान की गई। वैसे कुंभनदास सूरदास से भी प्राचीन कीर्तनकार थे परन्तु वे गृहस्थ होने