Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ (3) हरिवंशपुराणकार जिनसेन स्वामी ने अपने पुराण के प्रथम अध्याय में 39-40 वें श्लोक में "पार्वाभ्युदय" के कर्ता जिनसेन तथा उनके गुरु वीरसेन की स्तुति की है ..जितात्मपरलोकप्त्य कवीनां चक्रवर्तिनः। वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलंकावभासते॥१/३९ यामिताऽभ्युदये पार्श्वे जितेन्द्रगुणसंस्तुतिः॥१/४० इससे दोनों का पृथक्करण स्पष्ट हो जाता है क्योंकि पार्श्वभ्युदय के कर्ता जिनसेन ही आदिपुराण के कर्ता थे। (4) दोनों ग्रन्थों के विस्तृत अचान-पनन से भी भली-भाँति समझ में आ जाता है कि इनके रचयिता भिन्न-भिन्न थे। हरिवंशपुराण में तीनों लोकों का, संगीत का, व्रतविधान आदि का जो बीच-बीच में विस्तृत वर्णन मिलता है, जिससे कथा के सौन्दर्य में हानि पहुँची है, जबकि आदिपुराण में इनके विस्तार को छोड़कर प्रसंगानुसार संक्षिप्त में वर्णन किया है। काव्य-सौष्ठव को देखने पर भी हरिवंशपुराण से महापुराण उत्कृष्ट रचना दिखाई देती है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों ग्रन्थों के रचयिताओं में नामसाम्य के अलावा कोई साम्य नहीं है। अतः दोनों अलग-अलग कवि थे, इसमें तनिक भी सन्देह की गुंजाईश नहीं है। हरिवंशपुराण का रचनाकाल : . वैदिक एवं पौराणिक कृतियों के रचयिताओं. उनका रचना स्थल, रचना का समय आदि के सम्बन्ध में अनेक विवाद तथा अनिश्चयात्मक स्थिति पाई जाती है। विशेषकर पौराणिक कृतियों में उनके रचनाकाल एवं कर्ता के नामों का उल्लेख नहीं पाया जाता है। जिससे उनके सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त करना कठिन हो जाता है लेकिन जैन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में काल एवं निर्देश की प्रवृत्ति को अपनाया है। इनके प्रसिद्ध पुराणों में न केवल रचयिताओं के नाम वरन् रचनाकाल का भी उल्लेख मिलता है जिससे किसी भी महत्त्वपूर्ण रचना के रचनाकाल को जानने में कठिनाइ नहीं होती। .' सौभाग्य से हरिवंशपुराण-कर्ता : जिनसेनचार्य ने भी इसी सुन्दर प्रवृत्ति का निर्वाह करते हुए आलोच्य कृति के रचनाकाल को इंगित किया है। इरिवंशपुराण के छासठवें सर्ग के 52 वें श्लोक में ग्रन्थ के रचनाकाल का उल्लेख है शाकेष्वब्दशतेषु सप्तसु दिशं पञ्चोत्तरेषूत्तरां। पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम्। पूर्वां श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वत्सादिराजेऽपरां। सूर्याणामधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽवति॥ 66/52 = 69