Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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का समाधान
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पर्यायोंके विभाजनको अपेक्षा वह मिट्टी जब तक कुशूलरूप पर्यायको प्राप्त नहीं हो जाती है तब तक अथवा क्षणिक पर्यायोंके विभाजनको अपेक्षा बह मिट्टी जा सक कारगत वा पर्याय सातो नहीं प्राप्त हो जाती है तब तक घट कार्यरूप परिणत नहीं हो सकती है। इस प्रकार मिट्टी में पाया जाने वाला मृत्तिकास्वरूप वस्तु-धम उसको ( मिट्टीकी ) घटरूप पर्यायकी उत्पत्तिम यद्यपि कारण होता है परन्तु जब तक यह मृत्तिकारवरूप वस्तु-धर्म कुशूल पर्यायरूपतासे अथवा कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवतों पर्यायरूपतासे समन्वित नहीं हो जाता तब तक वह मिट्टो घट-कार्यरूपसे परिणत नहीं हो सकती है । चूँकि मिट्टीकी कुशूल पर्यायरूपता अथवा कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायरूपता निमित्तोंके सहयोगको अपेक्षा रखती है, अतः मिट्टी को जिस समय अनुकूल निमित्तोंका सहयोग प्राप्त हो जाता है उस समयमें ही वह मिट्टो कुशलरूपता अथवा कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायरूपताको प्राप्त होती है इस तरह कार्यमें न तो सवंदा उत्पत्तिका प्रसंग उपस्थित हो सवता है और न सहकारी कारणकी व्यर्थता ही सिद्ध होती है।
अब आप अपने गृहीत अभिप्रायके साथ दोनों उद्धरणोंके ऊपर लिखित अभिप्रायोंका मिलान करेंगे तो आपको अभिप्रायके ग्रहण करने में अपनी गलतीका पता सहज ही में लग जायगा। ___आपने जो अभिप्राय ग्रहण किया है और जिसे हम ऊपर उद्धृत कर आये है.---यह है कि मिट्टी घट-पर्यायके परिणमनके सन्मल होती है तब दण्ड, चक्र और पौरुषेय प्रयत्नको निमित्तता स्वीकृत की गयी है, अन्य कालमें वे निमित्त नहीं स्वीकार किये गये हैं।'
मालम पड़ता है कि उक्त उद्धरणोंका यह अभिप्राय आपने दूसरे उद्धरण में पठित तदेव' पदके आधारपर ही ग्रहण किया है, परन्तु आपको मालूम होना पाहिये कि उस उद्धरण, 'सदैव' पदका अभिप्राय यही है कि मिट्टीको जिस समय निमितोंका सहयोग प्राप्त होता है उस समय में ही वह मिट्टी कुशूल पर्यायरूपता अथवा कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायरूपताको प्राप्त होती है।'
इस प्रकार हमारे द्वारा और आपके द्वारा गृहीत दोनों पर्यायों में जमीन-आसमानका अन्तर देखनके लिये मिलता है, क्योंकि जहाँ आपके अभिप्रायके आधारपर निमित्तकी कार्यके प्रति व्यर्थता सिद्ध होती है यहाँ हमारे अभिप्रायके आधारपर निमित्तको कार्यके प्रति सार्थकता ही सिद्ध होती है। अर्थात आपका अभिप्राय जहाँ यह बतलाता है कि जब उपादान कार्यरूप परिणत होनेके लिये तैयार रहता है तब निमित्त हाजिर रहता है वहाँ हमारा अभिप्राय यह बतलाता है कि जब निमित्तोंका सहयोग नपादान की कार्योत्पत्ति के लिये प्राप्त होता है, उस समय में ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। जैसे साइकल को आप चलाइये, उसपर बैठ जाइये और उसे चलाते जाइये, साइकल चलती जायगी और आपको भी वह अभिलपित्त स्थानपर पहुँचा देगी।
आपने जो यह लिखा है कि दण्ड, चक्र आदिमें निमित्तता उसो समय स्वीकार की गई है जब मिट्टी घट-पर्यायके परिणभनके समुन्न होती है, अन्य कालमें वे निमित्त नहीं स्वीकार किये गये हैं। इस विषयमें हमारा कहना यह है कि कुम्हार, दण्ड, चक्र आदिम घटके प्रति निमित्त कारणताका अस्तित्व उपादानभूत वस्तुकी तरह नित्यशक्तिके रूप में तो पहले भी पाया जाता है, क्योंकि कार्योत्पत्ति के लिये उपादान भूत वस्तुके संग्रहनो सरह निमित्तभूत वस्तुका भी लोकम संग्रह किया जाता है। यह बात दूसरी है कि उपादान और निमित्त दोनों ही प्रकारकी वस्तुओंका उपयोग कार्योत्पत्तिके अवसर पर ही हुआ करता है, इसलिये आपका वैसा लिखना भी गलत है।