Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
शंका ६ ओर उसका समाधान
४०५
ऐसा भी देखने में आता है कि घटका उत्पतिक्रम चालू रहते हुए बीचकी किसी भी अवस्थामें किसी श्री क्षण वह घट फूट भी जाता है, इसी प्रकार ऐसा भी देखने आता है कि घटका निर्माण कार्य समाप्त हो जाने के बाद भी वह किसी भी क्षण फूट जाता है। अब आप जो यह मानते है कि पटकी अन्तिम
से अव्यवहित पूर्वाणवर्ती पर्यायसे नियमसे पढकी उत्पत्ति होती है तो इसका आशय मह हुआ कि आपको मान्यता अनुसार घटोत्पत्तिका कार्य चालू रहते हुए यदि कदाचित किसी अवस्थायें उसका विनाश भी होना हो तो वह विनादा घटको संवरण अन्तिम पर्याय से यह पर्व क्षणवर्ती पर्यायसे भी अभ्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय तक ही हो सकेगा। इसी प्रकार पटका निर्माण कार्य समाप्त हो जाने के अनन्तर भी आपकी मान्यता के अनुसार घटके विनाशकी बराबर संभावना बनी रह सकती है, लेकिन पटका निर्माण कार्य चाल रहते हुए जब टोक्षिस पूर्ववर्ती पर्याय उपस्थित हो जायगी तो आपकी इस मान्यता के अनुसार कि 'पटको निष्यन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायसे अव्यवहितपूर्व गवर्ती पर्यायसे नियमसे घटको उत्पत्ति होती है उसके विनाशकी कतई संभावना नहीं रहेगी। लेकिन यह मान्यता आगमका स्पष्ट प्रमाण न होनेसे स्वीकार नहीं की जा सकती है और यदि आप समझते हैं कि उसका विना घटी निमिर्ती पर्यायसे अव्यवहितपूर्व क्षणवर्ती पयमे भी हो सकता है तो फिर इस तरह तो आपकी यह मान्यता समाप्त ही हो जायगी कि 'पटको निष्पन्न अखिम क्षयवर्ती पर्याय अस्य पूर्व क्षणवर्ती पर्यायके अनन्तर नियम पटकी उत्पत्ति होती है।' सबसे अधिक विचारणीय बात तो यह है कि खानमें पड़ी हुई मिट्टी से लेकर पट निर्माणको अतिम अपवर्ती पर्याय लकको प्रत्येक पर्यायी अध्यत्रहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायसे जब उसकी उत्पत्ति नियमसे होने पर नियम आप मानते हैं। तो किसी भी पर्यायको अवस्थायें हार आदि द्वारा पटका विनाश नहीं होना चाहिये, लेकिन विनाश की संभावनाका अनुभव को प्रत्येक लिये प्रत्येक प्रत्येक कार्यकी प्रत्येक अवस्थायें प्रत्येक क्षण होता ही रहता है।
↓
आपकी जो यह मान्यता है कि कार्य अध्यवहित पूर्व क्षयवर्ती पर्याय वस्तु जाने पर नियमले पहुँच कार्यकी उत्पत्ति होगी अयन संस्कृतिक वस्तु नमन स्वभावकी मान्यता ही समाप्त हो जाय सो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि हमारे आगमसम्म सिद्धान्त के अनुसार जिस वस्तु होनेवाले जिस कार्यके अनुकूल निमित्त जब जहाँ होंगे तब वहाँ उन निमित्तांके सहयोग से उस वस्तु उस वस्तुको उपादान शक्ति अनुसार यह कार्य अवश्य ही होगा। इसका मतलब यह है कि वस्तुका परिणमन तो प्राकृतिक ढंगसे हमेशा होता ही रहता है, वह कभी बन्द नहीं होता परन्तु उसमें विवक्षित परिणमन या तो उपादान शक्ति भाव में अथवा अनुकूल निमित्त सामग्री के सहयोग के अभाव और अथवा बाधक सामग्री के सद्भावमें अवश्य नहीं यह है कि उस समय उस वस्तु होनेवाले स्वप्रत्यय गरि तो कोई विरोध करता ही नहीं है और न विरोध करना ही चाहिये, साथ ही उस समय विवक्षित परिणमनके अनुकूल अथवा प्रतिकूल जैसे निमित्तों का सहयोग उस वस्तुको प्राप्त होता है उसके आधार पर वह वस्तु अनी उपादान शक्ति के अनुसार अपने स्व-परमाय परिणमन करतो ही है ।
होता
आगे आपने अपने इस मन्तब्यको कि 'जब मिट्टी घट पर्यायके परिणमनके सम्मुख होती है तब दण्ड, चक्र और पौरुषेय प्रयत्नकी निमित्तता स्वीकृत की गयी है, अन्य कालमें वे निमित्त नहीं होते' प्रमेयकमलमार्तण्डका भी प्रमाण उपस्थित किया है जो निम्न प्रकार है। :
किं प्राहकप्रमाणाभावाच्छफेरनावः अतीवाद वा ? तत्रायः पक्षीयुक्त कार्योत्पश्यन्यथानुप