Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा
योग्यता ही सामर्थ्य शवका याज्य है तो फिर हमारा है कि इसको मिट्टीकी कुशूल, कोश, स्थान, पिष्टरूप पर्यायोंमे तथा इसके भी पहले की सामान्य मिट्टी अवस्था भी गयी जाती है. इसलिए घट कार्यके प्रति इन सबको उपादान कारण मानना असंगत नहीं है। अब यदि आप हमसे यह प्रश्न करें कि यदि सामान्य सिट्टी जो खानमें पड़ी हुई है पथवा जिसे कुम्हार अपने घरपर के बाया है उस मिट्टोमें तथा उसकी आगामी पिण्डादि अवस्थाओ में यदि घट कार्यकी सामर्थ मान ली जाती है तो फिर इन सब अवस्थाओं में भी मिट्टी से सीधा घट बन जाना चाहिए ।
तो इस प्रश्नका उत्तर यह है कि मिट्टी में घट निर्माणकी योग्यता यद्यपि स्वभाव से हो है, परन्तु परमाणुओं का जो मिट्टीरूप परिणमन हुआ है वह केवल स्वभावसे न होकर किसी मिट्टीरूप स्कन्धके साथ मिश्रण होनेवर ही हुआ है अर्थात् जैन संस्कृतिको मान्यता के अनुसार जिस प्रकार पुद्गल कर्म- नौकर्मके साथ विद्यमान मिश्रण के कारण आत्माकी गंगाररूप मिश्रित अवस्था अनादिकाल से मानी गयी है उसी प्रकार जैन संस्कृतिमें पुद्गल को भी अनादिकाल से अणु और स्कन्ध इन दो स्वीकार किया गया है। इस भेदन प्रकार मिट्टीरूप स्कन्धकी स्थिति अनादिसिद्ध होती है परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वह स्वस्थ नाना क्योंके परस्पर मिश्रण हो बना हुआ है, अतएव मिट्टी में पाया जानेवाला मुस्तिका धर्म मिट्टीकी अपेक्षा स्वाभाविक होते हुए भी नाना द्राणोंके मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण कार्यधर्म ही कहा जायेगा । उस अनादिकालोन मिट्टीरूप स्कन्धमें अन्य पुद्गल परमाणु भी जो आकरके मिल जाते हैं उनमें वह मुकित्व धर्म उत्पन्न हो जाता है तथा जो परमाणु उस मिट्टीमेंसे निकल जाते हैं उनका तब वह पूर्वमें सम्मिलित होन
मृत्तिकात्व धर्म नष्ट हो जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि किसी भी स्वन्यरूपता के आधारपर पैदा होनेवाली पर्यायका रूप परमाणु सिद्धरूपये नहीं पाया जाता है। यह बात दूम है कि उसमें इस जातिको स्व. सिद्ध योग्यता पायी जाती है कि यदि दूसरे अणु द्रव्यों या स्कन्ध द्रक्योंके साथ किसी अणु द्रव्यका मिश्रण हो जाता है तो वह अणु उसरूप परिणाम जाता है । इससे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि अनुरूप तो रूप कार्यकी उपादानता नहीं मानी जा सकती है, केवल मिट्टीरूप स्कन्धमें ही घटको उपादानताका अस्तित्व सम्भव दिखाई देता है। प्रत्यक्ष देखने में आता है कि घटकी उपादानताको प्राप्त यह मिट्टी अपने आप तो अवश्य घटरूप परिणत नहीं होती है और कुम्हार द्वारा दण्ड, चक्र आदिकी सहायता से घटानुकूल व्यापार करनेपर पिण्ड, स्वास, कोश, कुशल आदिके क्रमते अथवा इनकी क्षणिक पर्याय क्रमसे अवश्य घटरूप परिणत हो जाती है। इस तरह इस अन्वयव्यतिरेक के आधारपर यह निश्चित हो जाता है कि घट कार्यके प्रति अपनो स्वाभाविक योग्यता अनुसार उपादानताको प्राप्त मिट्टी कुम्हार आदि अनुकूल निमित्तोंके सहयोग ही उत्पन्न होनेवाली उक्त क्रमिक पर्यायोंके बिना घट परिणत नहीं हो सकती है। इनके साथ ही यह भी देखने में जाता है कि यदि मिट्टी अच्छी नहीं है दो चतुर कुम्हार उससे अच्छा सुन्दर घड़ा नहीं बना सकता है और मिट्टी अच्छी भी हो लेकिन यदि कुम्हार चतुर न हो अथवा उसके सहायक दण्ड, चक्र आदिमें कुछ गड़बड़ी हो तो भी बड़ा सुन्दर नहीं बन सकता है । अलावा इसके यह भी देखने में आता है कि पड़ा बनाते हुए कुम्हारके सामने कोई बाधा आ जाती है और तब उसे यदि अपना घड़ा पड़ा बनानेरूप व्यापार बन्द कर देना पड़ता है तो उसके साथ उस घड़का बनना भी बन्द हो जाता है और कदाचित यह भी देखने में आता है कि कोई दूसरा व्यक्ति आकार घण्टा प्रहार उस बनते हुए पर कर देता है तो बनते-बनते भी घड़ा फूट जाता है फिर चाहे घट निर्माणको अन्तिम क्षणवर्ती कार्यरूप पर्याय से अभ्यवह पूर्व क्षणवर्ती पर्याय ही वह क्यों न हो।