Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
जयपुर (खानिया) तत्त्वंचची यह प्रश्न तो आपके सामने खड़ा ही हुआ है कि व्यवहाररूप होने के कारण वह पर्याय आपके मतरी अवास्तविक, उपञ्चरित एवं कल्पनारोपित अतएव अवस्तुभूत है, इसलिए वह पर्याय आकाशकुसुम तथा खरविषाणके समान, केवलज्ञानका विषय वस हो सकती है ? और जच्च क्षणिक पर्यायको केवल ज्ञानी जानता है तो उसकी अवास्तविकता समाप्त हो जाने के कारण व्यवहारविषयक आपका सिद्धान्त स्वयं खण्डित हो जाता है । फिर बिचार तो कीजिये कि मिट्टी अपने आप उपस्थित होनेवाले बाह्य कारणोंके सहयोगसे भी यदि प्रतिसमय अपना रूप बदलती है और उस मिट्रीको उसलप बदलाहटमै मति-श्रुतज्ञानियों के लिए आगे चलकर जो विलक्षणताका भान होने लगता है-विलक्षणताका वह भान--उस रूप बदलाहटके कार्यकारणभावको खोजने के लिए उनको ( मति-श्रुतज्ञानियोंको) प्रेरित करता है। यहाँ पर रूप बदलाहटमें आनेवाली विलक्षणताका एक अनुभवपूर्ण उदाहरण यह दिया जा सकता है कि कोई एकदम जो क्रोधसे लोभादि कषायरूप व्यापार करने लगता है इसका कारण तो खोजना चाहिए कि परिवर्तन में यह विलक्षणता एकदम कैसे आ गयो ? इसी तरह जीवकी मिथ्यात्व पर्यायसे एकदम सम्बवत्व पर्याय कैसे हो गयी ? विचार करने से ज्ञात होता है कि ये सभी विलक्षणता, निमित्त कारणोंसे होती है। इस तरह यह तो हुई क्षणिक फ्र्यायोंकी बात, लेकिन जब हम स्थल विलक्षणताबोंपर विचार करते है तो मालूम पड़ता है कि वह मिट्टी जो समान और असमान पर्यायोंके रूपमे प्रति समय बदलतो चलो आ रही है वह यकायक पिण्डरूप स्थूल विलक्षणताको अपने-आप उन क्षणिक पर्यायोंके चाल परिवर्तनके बलपर कैसे प्राप्त हो जाती है? केवल इतना कह देनेसे तो काम नहीं चल सकता है कि मिट्टीकी पिण्डरूप इस विलक्षण बदलाहटको इस रूपमें केवली भगवानने देखा है और जब कि हम इस विलक्षण बदलाहटको कुम्हार व्यापार आदि साधनों द्वारा होतो हुई देख रहे है तथा तसे और आगमसे उसकी पुष्टि भी पा रहे है तो ऐसी स्थितिम केवल इस प्रकारका प्रतिपादान करना कि मिट्रोकी अमुक समयपर पिष्टरूप पर्याय होना नियत था, केवली भगवानने पहलेसे हो ऐसा देख रक्खा है, उससे अपवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय ही उसम उपादान कारण है तथा इस प्रकारका प्रतिपादन करना कि निमित्त कारणको उसमें कुछ उपयोगिता नहीं है आदि कहाँतक बुद्धिगम्य हो सकता है यह आप जानें ।
इस प्रकार राजवातिकका 'यथा मृदः' इत्यादि कथन न केवल आपकी कार्यकारणभाव व्यवस्था सम्बन्धो मान्यताको पुष्टि नहीं करता है, बल्कि मति-श्रुतज्ञानियों के अनुभव, प्रत्यक्ष और तर्कसे तथा आगमके अन्य प्रमाणोंसे-जिनका उल्लेख पर किया जा चुका है-जसका ( आपको कार्यकारणव्यवस्था सम्बन्धी मान्यताका)खुण्डन होता है।
थोड़ा इस तरफ भी विचार कीजिये कि अध्यषहित उत्तर क्षणवर्ती पर्यायके प्रति अव्यवहित पर्व क्षणवर्ती पर्यायविशिष्ट वस्तुको जब आप उपादान कारण मानने के लिए तैयार हैं और यह भी मानते हो है कि उस अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायसे उस अव्यवहित उत्तर क्षणवर्ती पर्यायकी उत्पत्ति निवमसे होती ही है तो कार्य कारणमावको यह व्यवस्था तो पूर्व-पूर्वकी अनेक क्षणिक पर्यायोंके समूहरूप कुशूल, कोश, स्थान, पिण्ड और कुम्हार द्वारा खानसे लायो हुई अथवा अन्तम खानी पड़ी हुई मिट्टी तककी एकके पूर्व एकके रूपमें विभाजित सभी क्षणिक पर्यायामें भी लागू होगी। ऐसी स्थिति में खानको मिट्टी में अथवा खानसे कुम्हार द्वारा लायी गयी मिट्टी में तथा पिण्ड, स्थास, कोश और कुशूलरूप मिट्टीकी अवस्थाम घटके अनुरूप नियमित कारणताका निषेध कैसे किया जा सकता है? अर्थात् घटको निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती कार्यरूप पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवती पर्याय यदि आपके मतमें नियमसे घटको उत्पन्न करनेवालो है तो उक्त कार्यरूप इस पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवती इस कारणरूप पर्यायको इससे भी अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नियमसे ही उत्पन्न करेगो, इस तरह कार्यकारणभावकी यह