Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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(ख) तस्वचर्चा
भी पर्याय घट काके प्रति उपादान नहीं कही जा सकती है । कारण कि उन पर्यायों में दूसरी पर्यायोंका saura कार्योत्पत्ति के लिये पड़ जाता है और अब कार्याध्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायको ही उपादान संज्ञा प्राप्त होती है तो फिर कोई कारण नहीं कि उससे कार्य उत्पन्न न हो, क्योंकि अन्यथा उसकी उपादान संज्ञा ही व्यर्थ हो जायगी, इसलिये उस पर्यायके अनन्तर नियमसे कार्यको उत्पत्ति होती है यह मानना उचित है। दूसरी बात यह है कि यदि उस समय भी किसी सबबसे कार्योत्पत्ति रुक सकती है तो वस्तु के परिणाम स्वभावको जैन संस्कृतिको मान्यता ही समाप्त हो जायगी ।'
आपका यदि यह अभिप्राय है तो इस विषय में हमारा कहना यह है कि राजधार्तिक के उक्त कथनमें पठित 'आभिमुख्य' यान्द सामान्य रूपसे घट निर्माणको योग्यता के सद्भावका ही सूचक है। इसी तरह उसमें 'निरुत्सुकष' शब्द भी सामान्यरूपसे घट निर्माणको योग्यता अभावका हो सूचक है। यही कारण है कि घटोत्पत्ति होनेको योग्यता के अभाव में कार्योत्पत्तिके प्रभावकी सिद्धिके लिये राजनार्तिक के उक्त कथनमें 'शर्करादिप्रचितो मृत्पिड' पद द्वारा बालुका मिश्रित मिट्टीका उदाहरण श्रीमदकलंकदेवने दिया है। यदि उनको दृष्टिमें यह बात होती कि उपादानकारणता तो केवल उत्तर क्षणवर्ती कार्यरून पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय ही होती है और उससे कार्य भी नियमसे हो जाता है तो फिर उन्हें (श्रीमदकलंकदेषको ) घर निर्माणको योग्यता रहित बालुकामिश्रित मिट्टीका उदाहरण न देकर कार्योपससे सान्तरपूर्ववर्ती द्वितीयादि क्षणोंको पर्यायोंम कथंचित् रहनेवालो घट निर्माणकी योग्यतावन्न मिट्टोका ही उदाहरण देना चाहिये था, लेकिन चूंकि श्रीमदकलंकदेवने बालुकामिश्रित मिट्टीका ही उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसमें कि घट-निर्माण की योग्यताका सर्वथा ही अभाव पाया जाता है तो इससे यही मानना होगा कि राजदार्तिक के उक्त कथन में जो 'आभिमुख्य' शब्द पड़ा हुआ है उसका अर्थ घट निर्माणको सामान्य योग्यताका सद्भाव हो सही है । इसी प्रकार उसी कथन में पड़े हुए 'निरुत्सुकत्व' शब्दका अर्थ घट निर्माणको सामान्य योग्यताका अभाव ही सही है । इस प्रकार जैसे आप उत्तर क्षणवर्ती कार्यरूप पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय में कार्य की उपादानता स्वीकार करते है उसी प्रकार खान में पड़ो अथवा खानसे कुम्हार द्वारा घर लामो गयी मिट्टोमें तथा कुम्हार के व्यापारका सहयोग पाकर निर्मित हुए मिट्टी के पिण्ड स्थास, कोश और कुलादिमें भी उपशधानताका सद्भाव सिद्ध हो जाता है और यह बात तो हम पहले भी कह चुके हैं कि यदि मिट्टी में खानको अवस्थासे लेकर कुशलपर्यन्त या इससे भी और आगे जहाँतक कार्यकारणभावकी कल्पना की जा सके की अवस्थाओं में यदि घट निर्माणको उपादानकारणता नहीं रहती है तो फिर कुम्हारका घट-निर्माणके उद्देश्यसे मिट्टीका खानसे घर लाना तथा उसके पिण्ड, स्वास, कोश और कुशलादि पर्यायोंके निर्माणके अनुकूल व्यापार करना यह सब मूर्खताका हो कार्य समझा जायगा ।
तात्पर्य यह है कि मिट्टीकी इन सब अवस्थाओं के निर्माण में कुम्हार जो व्यापार करता है वह सब उससे (मिट्टी से ) घट निर्माणको लक्ष्यमें रखकर बुद्धिपूर्वक ही करता है और प्रत्यक्ष में देखा भी जाता है कि खानसे कुम्हारके द्वारा लायी गयी मिट्टी ही पहले पिण्डका रूप धारण करती है, पिण्ड स्थासका रूप धारण करता है, स्थारा कोशका रूप धारण करता है और कोण कुशलका रूप धारण करते हुए अन्तमें उसका वह कुशूलरूप हो कुम्हार चक्र आदिको सहायता से घड़े के रूप में परिणत हो जाया करता है, इसलिये क्षणिक पर्यायोंके रूपमें - निर्माणरूप कार्यका विभाजन करके यदि घट-निर्माणको अन्तिम पर्याय में अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्यायको घटका उपादान कहा जा सकता है तो उसी घट निर्माणको यदि पिण्ड, स्थास, कोण कुशूल और घटरूप स्थूल पर्यायोंमें विभाजित किया जाय तो उस हालत में घट स्थूल पर्यायसे अव्यवहित पूर्वमें रहनेवाली स्थूल