Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
४०३ पूर्व परंपरा नियमितपनेके आधारपर ही कुशल, कोश, स्थास, पिण्ड और अन्त में खानकी मिट्टीतक पहुँच जायगी । इस प्रकार आपको मान्य 'उपादान कारण वही है जिससे निययसे कार्य उत्पन्न हो जावे' उपादानकारणका यह लक्षण जिस प्रकार आपके मतसे घटको निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याथ में घटित होता है उसी प्रकार घट-कायंको अनुकूलताको प्राप्त मिट्टोको उक्त सभी पर्यायोम भी आपके मतसे घटित हो जाता है । इस तरह आपके मतानुसार भी मिट्टीकी सामान्यरूप अवस्थाको तथा घट-निर्माणके उद्देश्यसे कुम्हार द्वारा निर्मित पिशादिहा अवस्थाओंको घट-कार्यके प्रति उपासन कारण मान लेने में कोई बाधा नहीं रह जाती है। इतना ही नहीं, घट-निर्माणको योग्यताको प्राप्त मिट्रीकी आदि अवस्थाको प्राप्त परमाणुरूप द्रश्यों में अनादि कालसे ही यह ध्ययस्था आपके मतानुसार स्वीकार करनी होगी, लेकिन इससे जो अव्यवस्था पैदा होगी, वह यह कि प्रत्येक परमाणुरूप द्रश्यमें परिणमनको ही योग्यता तथा उनका परिणमग एक ही रूप स्वीकार करना होगा जो कि जैनदर्शनको व्यवस्था तथा आगमके स्पष्ट विरुव पड़ता है। पंचास्तिकाय गाथा ७८ की प्राचार्य अमुतचन्द्रको टोका लिखा है
पृथिव्य जोषायुरूपस्य धासुचतुष्कस्य एक एक परमाणुः कारणम् । अर्थ-पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चारों धातुओं का एक ही परमाणु कारण होता है ।
गाथामें इस बातको स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया गया है। इस तरह आएको मान्यता में आगमका विरोध स्पष्ट है।
इस अव्यवस्थाको नहीं होने देने का यही एक उपाय है कि आप अपने द्वारा मान्य रादोष कार्यकारणमात्र व्यवस्थाको बदलकर हमारे द्वारा स्वीकृत बागममम्मत व्यवस्थाको स्वीकार कर लें।
यदि कहा आप कि जिस प्रकार घटकी निष्पन्न अन्तिम प्रणवर्ती पर्यायका उमसे अव्यवहित पर्व क्षणवर्ती पर्यायके साथ कार्यकारणभावका नियम बनता है वैमा नियम उस अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायसे पर्वको पर्यायों के साथ घट की निष्पा अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायका नहीं बन सकता है तो इसपर हम आपसे पूछना वाहेंगे कि जम आपके मतसे क्रमनियमित पर्यायोंके मध्य अपवहित पूर्वोत्तर क्षणवर्ती पर्यायों में नियमित कार्यकारणभाव विद्यमान है तो आपके इस मत में यह कदापि नहीं कहा जा सकता है कि जैसा कार्यकारणभावका नियम घटको निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायका उससे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायके साथ बनता है बैसा उससे पूर्वनी पर्यायोंके साय नहीं बन सकता है।
यदि फिर भी कहा जाय कि कार्यरूप पर्यायसै अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पीवमें ऐपो सामर्थ्य प्रगट हो जाती है कि उससे अनन्तर क्षणमें ही कार्य उत्पन्न हो जाता है।
तो इसपर भी यह प्रश्न उठ सकता है कि यह सामथ्र्य क्या है? और इराको सत्पत्तिका कारण भो क्या है ? यदि आप इसके उत्तरमें यह कहें कि कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय में स्वभावरूपसे पाया जानेवाला कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्तीपना ही वह सामर्थ्य है जो अनन्तर समय में नियमस कार्यको पैदा कर देती है, तो यह मान्यता इसलिए गलत है कि कार्यान्यवहित पूर्व क्षणवतीं पर्यायम जो काव्यिवहित पूर्व क्षणअतित्वका धर्म पाया जाता है वह स्वभावसे उत्पन्न हुआ नहीं है, किन्तु वह तो कार्यसापेक्ष धर्म है, अतः जब सक कार्य निष्पन्न नहीं हो जाता तब तक उस अध्ययहित पूर्व पर्यायमें काव्यिवहित पूर्व क्षणवर्तित्व रूप धर्मका व्यवहार होहो नहीं सकता है, इसलिए यदि कहा जाय कि कार्यात्मतिकी स्वाभाविक अतीन्द्रिय
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