________________
६२.
ब्राह्मधर्मानुयायी था पर इसके कतिपय नरेशों की धार्मिक नीति बड़ी ही उदार थीं और कुछ तो जैनधर्मं प्रतिपालक भी थे । इस वंश का आदि नरेश मयूरशर्मा, माना जाता है पर उपर्युक्त लेखों में उसका तथा उसके बाद के चार नरेशों का नाम नहीं दिया गया । प्रस्तुत लेखों में इस वंश के पांचवें नरेश काकुस्थ वर्मा से ही वंश परम्परा का उल्लेख है ।
काकुस्थवर्मा के समय का केवल एक लेख (६६) अबतक उपलब्ध हुआ है । इसमें काकुस्थ वर्मा को कदम्वयुवराज लिखा है तथा उल्लेख है कि उसने ८० वें वर्ष में अपने एक जैन सेनापति श्रुतकीर्ति के लिए अर्हन्तों के खेट ग्राम में, वद्रोवर क्षेत्र दान में दिया था । लेख के ८० वाँ वर्ष को इतिहासज्ञ गुप्त संवत् का मानते हैं । इस मान्यता का श्राधार यह है कि कदम्बों का अपना कोई संवत् नहीं चला था तथा काकुस्थवर्मा की कुछ कन्याओं में से एक का विवाह गुप्त नरेश चन्द्रगुन विक्रमादित्य द्वितीय ( सन् ३७५-४१५ ई० ) के एक पुत्र से हुआ था । गुप्त संवत् के लेखा के अनुसार युवराज काकुस्थवर्मा का समय ३१६ + ८०=३६६ ई० होना चाहिए । इसके बाद काकुस्थवर्मा ने राजा के रूप में कुछ वर्ष अवश्य राज्य किया होगा । हम गंग अविनीत के सम्बन्ध में लिख
ये हैं कि उसे काकुस्थ वर्मा की एक पुत्री विवाही गई थी । समय की दृष्टि से विनीत ( लग० सन् ४०० ई० के बाद ) और काकुस्थवर्मा प्रायः समकालीन भी थे । काकुस्थ वर्मा पलासिका में राज्य करता था, पर उसके पुत्र और प्रपौत्र वैजयन्ती से राज्य करते थे । सम्भव है पलासिका, कुछ समय के लिये उनसे छिन गई थी।
काकुस्थवर्मा का पुत्र शान्तिवर्मा था ( ६६ ) उसके सम्बन्ध का इस संग्रह में कोई लेख नहीं हैं । ले० नं० ६६ में इसके सम्बन्ध में लिखा है कि जैसे दुर्जन किसी स्त्री को बलात् खींचता है उसी तरह उसने शत्रु के गृह से लक्ष्मी को श्राकृष्ट किया था । यह उल्लेख उसके किसी संघर्ष का द्योतक है। उसका बेटा मृगेश
१. दि० च० सरकार, सक्शेसर श्राफ सातवाहनाज, पृष्ठ २५६