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विजय नगर राज्य के ज्ञे० नं० ५६१, ५६५,५६६ और ७१० से विदित होता है कि दूसरे सम्प्रदाय के लोग जैनों पर ज्यादती करते थे पर तत्कालीन राजाओं की उदार एवं निष्पक्ष नीति के कारण उनकी सुरक्षा बनी रही। ले० नं० ७१० से ज्ञात होता है कि जैनों को अपमानजनक शर्तें मानने को भी बाध्य होना पड़ा, पर उन्होंने अपने पड़ोसियों की भावना की रक्षा के लिए वह शर्त भी मान ली । उक्त लेख में लिखा है जैन लोग पहले विभूति और विल्व पत्र बांटकर अपनी सब धर्म विधि कर सकते हैं । जैनियों ने जब यह शर्त मान ली तो उसका प्रभाव दूसरे धर्म वालों पर तत्काल हुना और उन्होंने भी प्रतिज्ञा की कि जैन मन्दिरों आदि को कोई क्षति पहुँचावेगा तो वह उनके जायगा । जैनियों में उनकी अहिंसा नीति का ही प्रभाव थे और इससे वे श्राजतक भारत में रह सके ।
१०. जैन धर्म के केन्द्र
प्रस्तुत लेख संग्रह को ध्यान से पढ़ने से मालुम होता है कि भारत में उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सभी श्रोर अनेक प्रभावक जैन केन्द्र थे ! इन केन्द्रों का इतिहास देखने पर विदित होता है कि जैनाचार्यों ने जैन धर्म को राजायों और सामन्तों के दरबारों तक ही सीमित न रखा था बल्कि साधारण जनता के बीच भी उसे जनप्रिय बनाने के प्रयत्न किये थे । इसीलिए राजाओं और सामन्तों के सतत परिवर्तित होते रहने पर एवं उनके प्रभुत्व का लोप होने पर भी जैन धर्म की नींव भारतवर्ष में अक्षुण्ण बनी रही ।
धर्म से बाहर कर दिया था कि वे परमत सहिष्णु
( अ ) उत्तर भारत के जैन केन्द्रों में मथुरा एक समय प्रमुख स्थान था । इस सम्बन्ध में हम पर्याप्त लिख चुके हैं। इसके अतिरिक्त, उदयगिरिं खण्ड गिरि (उड़ीसा) पभोसा, राजगृह, रामनगर ( अहिच्छत्र), उदयगिरि (सांची ), देवगढ़, दूबकुण्ड, ग्वालियर, बबागंज, बड़नगर, खजुराहो, और महोबा के नाम उल्लेखनीय हैं।
उदयगिरि-खण्डगिरि- उड़ीसा प्रान्त में भुवनेश्वर के पास की उक्त