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जैन - शिलालेख - संग्रह
[(२८ वीं पंक्ति में ) लेखका काल सं० १२०७ दिया हुआ है, बो, विक्रम संवत् मान लेनेसे, ११४६-५० या ११५०-५१ ई० ठहरता है; और इसका उद्देश्य चालुक्य राजा कुमारपालकी चित्रकूट पर्यंत, आधुनिक 'चित्तौड़गढ़', की यात्रा, तथा वहाँ उसके द्वारा उस समय पर्वत पर 'समिद्धेश्वर [ शिव ]' देव मन्दिर के लिये किये गये कुछ दानोंका उल्लेख करना है ।
“ॐ नमः सर्व्वज्ञाय” इन शब्दों के बाद, लेखमें पाँच श्लोक है । इनमें से शर्व, मृड, और समिद्धेश्वर के नामसे शिव परमात्माकी स्तुत करते हैं, जबकि अन्य दो सरस्वतीकी सहायताकी कामना, तथा कवियोंकी रचनाओंकी यशोगाथा गाते हैं । [ पं० ५ में ] लेखक चालुक्योंके वंशकी प्रशंसा करता है । उस अन्वय [ वंश ] में मूलराज राजा उत्पन्न हुआ था [ पं० ६ ], और उसके तथा उसके बादके अन्य राजाओंके स्वर्गारोहण के बाद राजा सिद्धराज आये [ पं० ७ ], जिनके उत्तराधिकारी कुमारपाल देव हुए [ पं० ६ ]। जब इस राजाने शाकम्भरी ( वर्त्तमान साँभर ] के राजाको हरा दिया [ पं० १० ] और सपादलक्ष देशको मर्दन कर दिया [ पं० ११ ], वह शाालपुर नामक स्थान में गया ( पं० १२ ), और वहाँ अपनी छावनी ( Camp ) डालकर वह चित्रकूट [[चित्तौड़गढ़ ] पर्वतकी सुन्दरता को देखने आया; वहांके मान्दरों, राज-प्रासादों, झीलों या तालाबों, ढाल और बंगलोंका वर्णन १३-१६ की पंक्तियों में है । कुमारपालने वहाँ जो कुछ देखा उससे उसका चित्त प्रसन्न हुआ, और उत्तर दिशा की तरफ ढालपर बने हुए 'समिद्धेश्वर' देवके मन्दिर में आकर [पं० २२] उसने शिव ईश्वर और उसकी पत्नीकी पूजाकी, और मन्दिरके लिये एक गाँव दान में दिया जिसका नाम सुरक्षित न रह सका [ पं० २६ ) । पं० २७ में अन्य दान [ एक 'द्याणक' या कोल्हू दिये जलानेके लिये, आदि ] बनाये गये हैं; और पंक्ति २८ बताती है कि जयकीर्त्तिके शिष्य रामकीर्तिने जो दिगम्बर सम्प्रदाय के मुख्य थे, यह 'प्रशस्ति' लिखी है, और लेखके उपर्युक्त कालका निर्देश करती है । ]
[ EI, II, no xxxiil, T1-421-424]