Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 03
Author(s): Gulabchandra Chaudhary
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 542
________________ हले बीटके देख राभय-भैषज्य-शास्त्र-दान-विनोदरं । खण्ड-स्फुटित-जीर्ण-जिन चैत्यालयोनारकरूं बिन-गन्धोदक-पवित्रीकृतोत्तमानराद सम्यकलाबनेक-गुण-गणालंकृतराद हासनद देवप्प-सेट्टिय सु-कुमार-पाण्ण-सेहि-मन्ताद-समस्तक बिनहं माडिकोळलागि आ-महा-महत्तु एकस्थरागि वा सिकोण्डु कटुमाडिसिद विवर । विभूति-वीळ्यवन्नु माडिसिकोण्डु यी-विजय-पारवनाथ-स्वामिगे पूजे-पुनस्कार-अङ्ग-रन-वैभवदीपाराधने-अग्रयोदक-प्रभावना-मुख्यवाद जैनागमक्के सलुब धर्मव पूर्व-मर्यादेयल्लि आ-चन्द्रार्क स्थायियागि माडिकोळ्ळि येन्दु बेळूर वेङ्कटादि-नायक-अय्यनवरिगे सकल-साम्राज्याभ्युदयार्थ-निमिस्वामि आ-दोरेय दक्षिण-दोर-दण्डराद प्रधानवंशोद्धारकराद पद-वाक्य-प्रमाण-पारावार-पारङ्गतराद पर-पुरुषार्थ-परम-पण्डितराद । काळप्पय्य-मंत्रि-प्रियाग्र-कुमार मंत्रि-कुलान-गण्यराद कृष्णप्पय्यनवरु यी-धर्म-कार्यवनु कयि-विडिदु पुरो-वृद्धि गे सलिसलागि आ-महा-महत्तु बरसि कोट्ट शील-शासन यी-जैन-धर्मक्के आवनानोर्चनु विघ्नव माडिदरे आतनु तम्म महा-महत्त पडव कूडिदबनल्ल शिवद्रोहि जङ्गम-द्रोहि विभूति-इद्राक्षिगे तप्पिदवनु कासि-रामेश्वरादि तीर्थङ्गल लिङ्गक्के तप्पिदवरु यी-महा-महत्तिन प्पित ॥ वर्द्धताम् जिनशासनम् । [ यह लेख शक सं० १५६० के समयमें जैन और शैवोंके ऐक्यका तथा परधर्मसहिष्णताका एक खासा नमूना है। इसमें मंगलाचरणमें पहले जैनदर्शन की प्रशंसा है, फिर शम्भू ( महादेव ) को नमस्कार किया है । इसमें बताया गया है कि ( उक्त मितिको ) जब कृष्णप्प-नामक-अय्यका पुत्र, कलिकालका अष्टमचक्रवर्ती, वेङ्कटाद्रि-नामक-अय्य वेलर-राज्यकी न्यायसे रक्षा कर रहा था, तब हुच्चप्प-देवने हलेयबीडुके विजय-पार्श्वनाथ-बसदिके खम्भोंपर लिङ्ग-मुद्रा लगायी और विजयप्पने उसको तोड़ दिया, तब हलेबीडके देवपृथ्वी-महामहत्त, पुष्प गिरिके पट्टददेव, तथा देशभागके अन्य महा-महत्तुओंने मिलकर यह आशा निकाली कि जैन लोग चद्र, सूर्यके स्थायी होनेतक अपनी सब धार्मिक विधि कर सकते हैं। [ EC, V, Belur tl., No. 128.]

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