Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 03
Author(s): Gulabchandra Chaudhary
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 559
________________ जैन - शिलालेख संग्रह महाचार्य इन्द्रनन्दि शिष्य महादरि पार्श्वपतिस्य कोतरि । " इन्द्रनन्दिके शिष्य महादरि, पाश्वपतिके मन्दिरको || " ५६२ यहाँ 'पार्श्वपति' से मतलब २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से ही है। एक दूसरी नग्न प्रतिमा के पाषाणपर 'नवग्रह' ये शब्द खुदे हुए थे, एक विशाल स्तम्भके खण्डपर उसके चारों ओर शेरके आकार बने हुए थे, जो कि महावीर स्वामीका चिह्न है । नैनों में 'अहिच्छत्र' अब भी एक पवित्र स्थान माना जाता है । इन लेखों के अक्षरोंसे जनरल कनिंघम अनुमान करते हैं कि यह मन्दिर गुप्तकालकी अवनति से पहले बना था । [ Art, Ins. N-W-PO (ASI, II), p. 28, t. & tr. ] ८४४ खजुराहो ; -- संस्कृत | [ काल अनिश्चित ] [ २१ नं० के जिन मन्दिर के द्वारके स्तम्भपर ] आचार्य स्त्री (श्री)- देवचन्द्र : (न्द्र) ख्रिस्य (शिष्य) कुमुदचन्द्र (न्द्रः) ॥ [ देवचन्द्र के शिष्य कुमुदचन्द्रका उल्लेख । ] [ ASWI, Progress Reports 1909-1904, 48, t. ] शि० ले ० ८४७ - संवत् १४६३ = १४३६ ई० १४६७ = १४४० ई० १५०५ = १४४८ ई० १५३६ = १४७६ ई० समास 93 22 " ,, ८४५-४६ जैसलमेर – संस्कृत | - [ सं० १४७३ = १४१६ ई० ] श्वेताम्बर लेख | 33 ८४८ ८४६ ८५० " 15 "" 4

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