Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 03
Author(s): Gulabchandra Chaudhary
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम संख्या काल नं० खण्ड Ž ३६७५ ३-विजन Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द्र-दिगम्बर-जैनग्रन्थमाला, पुष्प ४६. जैन-शिलालेखसंग्रह (तृतीय भाग) संग्रहकर्ता पं० विजयमूर्ति एम० ए० शास्त्राचार्य प्रस्तावना (द्वितीय-तृतीय भाग की ) लेखक डा० गुलाबचन्द्र चौधरी एम० ए०, पी-एच० डी०, आचार्य पुस्तकाध्यक्ष एवं प्राध्यापक नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा ( पटना) प्रकाशिका श्रीमाणिकचन्द्र-दिगम्बर जैनग्रन्थमाला समिति मुम्बई विक्रम संवत् २०१३ वार नि० सं० २४८३ मूल्य ..... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक मंत्री, माणिकचन्द्र जैनग्रन्थमाला हीराबाग, बम्बई ४ मार्च १६५७ मुद्रक शारदा मुद्रण टठेरी बाजार, वाराणसी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन प्रकाशकीय निवेदन प्रस्तावना विषय-सूची १. जैनों का मिलेग्य साहित्य : परिचय २. मथुरा के लेख : एक अध्ययन ३. जैन संघ का परिचय ४. राजवंश और जैनधर्म १०. . उत्तर भारत के राजवंश ग्रा. दक्षिण भारत के राजवंश इ. दक्षिण भारत के छोटे राजवंश एवं सामन्त गण ५. जैन सेनापति एवं मन्त्रिगण ६. जनवर्ग एवं जैनधर्म ७. जैनधमं प्रतिपालक महिलाएँ ८. धार्मिक उदारता एवं सहिष्णुता ९. जैन धर्म पर संकट . जैन धर्म के केन्द्र सहायक ग्रन्थनिर्देश लेख ( तिथिक्रम से ) नं० ३०३-८४६ अनुक्रमणिका १ ( लेखों के प्राप्तिस्थान ) अनुक्रमणिका २ ( विशेष नाम सूची ) ६६-७५ ७५-११२ ११२-१२२ पृष्ठ १-६ ६-२२ २२-६६ ६१-१२२ १२२-१३२ १३४-१२८ १३८-१४५ १४५-१४६ १४६-१५० १५०-१७३ १७५ १-५१२ १-७ ८-४१ Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक-कथन जैन-शिलालेखसंग्रह, भाग १, का जब मैंने आज से कोई बत्तीस वर्ष पूर्व सम्पादन किया था, तब मुझे यह आशा थी कि शेष प्राप्य जैन शिलालेखों के मंग्रह भी शीघ्र हो क्रमशः प्रस्तुत किये जा सकेंगे। किन्तु वह कार्य शीघ्र सम्पन्न न हो सका। तथापि इस योजना की चिन्ता माणिकचन्द्र ग्रंथमाला के कर्णधार श्रद्धं य पं० नाथूराम जी प्रेमी को बनी ही रही। उसी के फलस्वरूप गेरीनो की शिलालेख सूची के अनुसार अब यह संग्रह कार्य भाग दूसरे और तीसरे में पूरा हो गया है । गेरीनो की सूची बनने के पश्चात् जो जैन लेख प्रकाश में आये हैं, तथा जो महत्त्वपूर्ण लेख उम सूची में उल्लिखित होने से छूट गये हैं उनका संकलन करना अब भी शेष रहा है। ____ यह तो मानी हुई बात है कि देश, धर्म और समाज के इतिहास में पाषाण, ताम्रपट अादि लेख सर्वोपरि प्रामाणिक होते हैं। भारत का प्राचीन इतिहास तभी से विधिवत् प्रस्तुत किया जा सका है जब से कि इन शिला आदि लेखों के अध्ययन अनुशीलन की ओर ध्यान दिया गया है। जितने शिलालेख प्रस्तुत संग्रह में समाविष्ट हैं वे सभी गत मौ वर्षों में समय समय पर. यथास्थान पत्रिकाओं आदि में प्रकाशित हो चुके हैं और उनसे प्राप्य राजनीतिक वृत्तान्त का उपयोग भी प्राय: किया जा चुका है। किंतु जैन इतिहास के निमीण में उनका पूर्णतः उपयोग करना अभी भी शेष है। इस संग्रह में जो मौर्य सम्राट अशोक से लेकर कुषाण, गुप्त, चालुक्य, गंग, कदम्ब, राष्ट्रकूट श्रादि राजवंशो के काल के जैन लेख संकलित हैं उनमें भारतीय इतिहास और विशेषतः जैन धर्म के प्राचीन इतिहास की बड़ो बहुमूल्य सामग्री बिखरी हुई पड़ी है जिसका अध्ययन कर जैन इतिहास को परिष्कृत करना आवश्यक है । शिलालेखसंग्रह के प्रथम भाग की भूमिका में मैने वहाँ संकलित लेखो का विभिन्न दृष्टियों से एक अध्ययन प्रस्तुत किया था। अब इस भाग के साथ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब से आगे प्रकाशित दोनों भागों का सुविस्तृत और सूक्ष्म अध्ययन डाँ गुलाब चन्द्र चौधरी द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। मुझे भरोसा है कि डॉ. चौधरों के इस परिश्रम से जैन इतिहास का बड़ा उपकार होगा। इनकी प्रस्तावना से प्रकाश में आने वाली कुछ विशेष बातें निम्न प्रकार हैं:-- (१) मथुरा की खुदाई से प्रकाश में आई मूर्तियों में प्रमाणित हुआ कि आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व जैन प्रतिमायें नग्न ही बनाई जाती थीं। मतियों में वस्त्रों का प्रदर्शन लगभग पाँचवीं शती से पूर्व नहीं पाया जाता। (२) प्राचीन काल की प्रतिमाओं में तीर्थकरों के बैल आदि विशेष चिह्न बनाने की प्रथा नहीं थी। केवल आदिनाथ के केश ( जटा ) तथा पाश्च और सुपार्श्व के सर्पफण मूर्तियों में दिखलाये जाते थे। (३) तीर्थंकरों के साथ साथ यक्ष यक्षिणियों की पूजा का भी प्राचीन काल से ही प्रचार था और उनका भी मूर्तियां स्थापित का जाता थीं। (४) मथुरा से जो जैन मूर्तियों की प्रतिष्ठा संबंधा लेख मिले हैं उनमें गणिकायें, गणिकापुत्रियाँ, नर्तकियाँ ओर लुहार, सुनार, गंधोगिर आदि जातियों के लोग भी पूजा प्रतिष्ठादि धार्मिक कार्यों में भाग लेते हुए पाये जाते हैं । (५ ) मथुरा के ले वा से सिद्ध होता है कि उत्तर भारत में भा मातृपर. म्परा के उल्लेख की प्रथा थी। बात्मापुत्र, गोनिमीपुत्र, मोगलिपुत्र, कौशिकीपुत्र आदि जैसे नाम पाये जाते हैं। (६ ) मथुरा के लेखों में जो जैन मुनियों के गणो, कुलो और शाखायो के उल्लेख मिलते हैं उनसे कल्पसूत्र को स्थविरावली की प्रामाणिकता सिद्ध होता है। (७) कदंब वंशा लेखों के अनुसार ४-५ वी शता के लगभग दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ महाश्रमण, श्वेतपट महाश्रमण तथा यापनाय और कूचक संघो का अस्तित्व पाया जाता है। ये सब सम्प्रदाय प्राय: मिल जुल कर रहते थे। (८) मूलसंघ का सर्व प्रथम उल्लख गग वंश के माधव वर्मा द्वितीय और उमके पुत्र अविनीत ( सन् ४००-४२५ के लगभग ) के लेखों में पाया जाता है। किन्तु इन लेखों से किसो गण, गच्छ, अन्वय आदि का कोई उल्लेख Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है । गण गच्छादि के उल्लेख सन् ६८७ और उसके पश्चात्कालीन लेखों में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पाये जाते हैं । (E) पाँचवीं छठी शती के लेखों में नन्दिसंघ और नन्दिगच्छ तथा श्री मूलमूलगण और पुन्नागवृक्षमूलगण के उल्लेख यापनीय संघ के अन्तर्गत मिलते हैं। ग्यारहवीं शती से नन्दि संघ का उल्लेख द्रविड संघ के माथ तथा बारहवीं शती से मूलसंघ के साथ दिखाई पड़ता है। (१०) यापनीय संघ के अन्तर्गत बलहारि या बलगार गण के उल्लेख दशवीं शती तक पाये जाते हैं। ग्यारहवीं शती से बलात्कार गण मूलसंघ से संबद्ध प्रकट होता है। (११) मर्करा के जिस ताम्रपत्र लेख के अाधार पर कोएडकुन्दान्वय का अस्तित्व पाँचवीं शती में माना जाता है वह लेख परीक्षण करने पर बनावटी मिद्ध होता है, तथा देशोय गण को जो परम्परा उस लेख में दी गई है वहीं लेग्व नं० १५० ( मन् ६३१ ) के बाद की मालुम होता है। (१२) कोण्डकुन्दान्वय का स्वतंत्र प्रयोग ग्राठवीं नौवीं शती के लेख में देखा गया है तथा मूलसंघ कोण्डकुन्दान्वय का एक साथ मर्व प्रथम प्रयोग लेख नं० १८० ( लगभग १०४४ ई. ) में हुया पाया जाता है । ___ डॉ० चौधरी की प्रस्तावना में प्रकट होने वाले ये तथ्य हमारी अनेक सांस्कृतिक अोर ऐतिहामिक मान्यताओं को चुनोता देने वाले हैं। अतएव उनपर गंभीर विचार करने तथा उनसे फलित होने वालो बातों को अपने इति. हास में यथोचित रूप से समाविष्ट करने का आवश्यकता है। इस दृष्टि से इन शिलालेखों तथा डॉ० चौधरी को प्रस्तावना का यह प्रकाशन बड़ा महत्त्वपूर्ण है। मुजफ्फरपुर, १४-३-१६५७ हीरालाल जैन डायरेक्टर, प्राकृत जैन विद्यापीट, मुजफ्फरपुर ( विहार) Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन - जैन-शिलालेख संग्रह का पहला भाग सन् १६२८ में निकला था। दसरा भाग उसके चौबीस वर्ष बाद सन् १९५२ में और यह तीसरा भाग उसके लगभग पाँच वर्ष बाद प्रकाशित हो रहा है। अर्थात् सब मिलाकर इन तीन भागों के प्रकाशन में कोई तीस वर्ष लग गये। पहले भाग के साथ में सुहृद्वर डा. हीरालाल जी ने उसके लेखों का १६२ पृष्ठों का एक सुविस्तृत अध्ययन लिखा था। दूसरे भाग के साथ उसके लेखों का परिचय देने का कोई प्रबन्ध न हो सका, इसलिए अब इस तीसरे भाग में दोनों भागों के लेखों का अध्ययन करके डा० गुलाबचन्द्र जी चौधरी, एम० ए०. पीएच० डी०, प्राचार्य ने १७५ पृष्ठों की भूमिका लिख दी है जिसमें जैन मम्प्रदाय के संघों, गणों, गच्छों, राजवंशों, सामन्तों, श्रोष्ठियों, जैन-तीर्थों श्रादि पर विस्तृत प्रकाश डाला है। ___ डा० चौधरी स्याद्वाद विद्यालय काशी के लातक हैं और इस समय नालन्दा के पाली बौद्ध विद्यापीठ में पुस्तकाध्यक्ष एवं प्राध्यापक हैं । दो वर्ष पहले इन्हें हिन्दूविश्वविद्यालय से "पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ नादर्न इण्डिया फ्राम जैन सोसेंज' से ( जैन स्रोतों से प्राप्त किया गया उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास ) महानिबन्ध पर 'डाक्टरेट' की उपाधि मिली थी। चूँकि जैन साधनों से उक्त महानिबन्ध तैयार किया गया था, और इसके लिए इन्हें अनेक शिलालेखों की भी छानबीन करनी पड़ी थी, इस लिए इस ग्रंथ की यह भूमिका लिखने के लिए वही उपयुक्त समझे गये और उन्होंने भी मेरे आग्रह को स्वीकार कर लिया। मुझे बड़ी प्रसनता है कि उन्होंने यह काम एक इतिहास-संशोधक की दृष्टि से बड़ी लगन के साथ परिश्रमपूर्वक किया है । इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) इसमें ऐसी बातों पर प्रकाश डाला गया है जो अभी तक अन्धकार और जिनकी र ध्यान देना इतिहासज्ञों के लिए परम श्रावश्यक है । इनमें से कुछ बातों की तरफ डा० हीरालाल जी ने 'प्राक्कथन' में हमारा ध्यान आकर्षित किया है । इन तीन भागों में वे सब लेख या गए हैं जिनकी सूची डा० गेरिनो ने संकलित की थी और जिसका नाम Repertoire de Epigraphie Jaina है। उक्त सूची के प्रकाशित होने के बाद और भी सैकड़ों लेख प्रकाश में चाये हैं और उनका प्रकाशित होना भी आवश्यक है । परन्तु माणिक्यचन्द्र ग्रन्थमाला का फड समाप्त हो गया है और इधर दीर्घकालव्यापिनी अस्वस्थता के कारण मेरी शक्तियों ने भी जबाव दे दिया है, इसलिए अब यह आशा तो नहीं हैं कि उक्त लेख संग्रह भी चौथे भाग के रूप में प्रकाशित कर सकूँगा । फिर भी विश्वास तो रखना ही चाहिए कि किसी न किसी इतिहास प्रेमी के द्वारा यह आवश्यक कार्य अविलम्ब पूरा होगा। मुझे सन्तोष है कि मेरी एक बहुत बड़ी आशा इन तीस वर्षों में किसी तरह पूरी हो गयो । दूसरे भाग के समान इस भाग का संकलन भी श्री विजयमूर्ति जी एम० ए०, शास्त्राचार्य ने किया है। इसमें उन्हें भी बहुत परिश्रम करना पड़ा है। विभिन्न लाइब्रेरियों में जाकर 'इण्डियन एण्टीक्वेरी', 'एपोग्राफिया इंडिका' आदि की पुरानी फाइलों में से प्रत्येक लेख को ढूँढ़ना, उन्हें रोमन लिपि से नागरी में उतारना और फिर उनका सारांश लिखना समयसाध्य और श्रमसाध्य तो है ही । इसके लिए वे भी धन्यवाद के पात्र हैं । ब २४-३-५७ नाथूराम प्रेमी मंत्री Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 प्रस्तावना १. जैनों का अभिलेख साहित्य: एक परिचय भारतीय इतिहास के विविध अंगों के ज्ञान के लिए अभिलेख साहित्य बड़ा प्रामाणिक साधन है । यह साधन भारतवर्ष में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध भी है और विशेष कर दक्षिण भारत में । जैनों का अभिलेख साहित्य बड़ा ही विशाल है । वैसे तो जैनों के ये लेख भारतवर्ष के प्रत्येक कोने से प्राप्त हुए हैं। पर इनका प्राचुर्य दक्षिण और पश्चिम भारत में विशेषतः देखा जाता है । ये लेख जल्दी न नष्ट होने वाले पाषाण एवं धातु द्रव्यों पर उत्कीर्ण पाये जाते हैं। इसलिए इनमें कालान्तर में सम्भावित संशोधन और परिवर्तन की वैसी कम गुंजाइश होती है जैसी कि अन्य साहित्यिक कृतियों में देखी जाती है । इसलिए इनसे प्राप्त होने वाले तथ्यों को प्रथम श्रेणी का महत्व दिया जाता है । पाषाणनिर्मित द्रव्यों पर पाये जाने वाले जैनों के लेख कई प्रकार के हैं, जैसे चट्टानों एवं गुफाओं में मिलने वाले लेख, उदाहरण के रूप में लेख नं० २,७,६१ एवं एलोरा, पञ्चपाण्डवमले, वल्लीमले और तिरुमलै से प्राप्त लेख ; मंदिरों से प्राप्त लेख, जैसे श्रवण वेल्गोल, हुम्मच एवं अन्य तीर्थ स्थानों के कई लेख; मूर्तियों के पादुका पट्ट पर उत्कीर्ण लेख जैसे श्रवण वेल्गोल, बाबू, गिरनार, शत्रु जय, महोवा, स्वजुराहो, ग्वालियर से प्राप्त होने वाले कतिपय प्रतिमालेख; स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेख, जैसे मथुरा से प्राप्त लेख नं० ४३,४४ एवं कहायू का लेख तथा दक्षिण भारत से प्राप्त मानस्तम्भों एवं सल्लेखना मरण के स्मारक स्वरूप निर्मित निधिकलसों पर के लेख, मथुरा से प्राप्त कतिपय लेख स्तूपों पर तथा शिलापट्टों पर, मथुरा के श्रायागपटों के लेख और शासन पत्र के रूप में लेख नं० २२८,३३२,३७४ आदि प्राप्त हुए हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताम्रादि धातुओं पर भी उत्कीर्ण अनेकों जैन लेख पाये जाते हैं, उदाहरण के रूप में मर्करा का ताम्रपत्र एवं कदम्ब वंश के कतिपय लेख समझने चाहिये। ___ इन लेखों में अधिकांश पर काल निर्देश देखा गया है, चाहे वह शासन करने वाले राजा का संवत् हो, चाहे वह शक संवत्, विक्रम संवत् या ज्योतिष शास्त्रप्रणीत प्लङ्ग, खर आदि संवत् हो । ये संवत् राजनीतिक, धार्मिक, एवं सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं। जैन लेखों की प्रकृति समझने के लिये, हम उन्हें अनेक दृष्टियों से विभक्त कर सकते हैं, जैसे उत्तर भारत के लेख, दक्षिण भारत के लेख, दिगम्बर सम्प्रदाय के, श्वेताम्बर सम्प्रदाय के, राजनीतिक, धार्मिक तथा भाषावार संस्कृत, प्राकृत, कनड़, तामिल आदि,इमी तरह लिपि के अनुसार भी। पर वास्तव में इनके दो ही भेद करना ठीक है, एक तो राजनीतिक शासन पत्रों के रूप में या अधिकारिवर्ग द्वारा उत्कीर्णं और दूसरे सांस्कृतिक, जनवर्ग से सम्बधित । राजनीतिक एवं अधिकारिवर्ग से सम्बंधित लेख प्रायः प्रशस्तियों के रूप में होते हैं। इनमें राजाओं को अनेक विरुदावलो, सामरिक विजय, वंश परिचय आदि के साथ मंदिर, मूर्ति या पुरोहित आदि के लिए भूमिदान, ग्रामदानादि का वर्णन होता है । सांस्कृतिक एवं जनवर्ग से सम्बंधित लेखों का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। ये लेख अपनी धार्मिक मान्यता के लिए भक्त एवं श्रद्धालु पुरुष या स्त्रीवर्ग द्वारा लिखाये जाते थे। ऐसे लेख १-२ पंक्ति के रूप में मूर्ति के पादुकापट्टों पर तथा कुटुम्ब एवं व्यक्ति की प्रशंसा में उच्च कोटि के काव्य रूप में भी पाये जाते हैं । इनसे अनेक जातियों के सामाजिक इतिहास और जैनाचार्यों के संब, गण, गच्छ, पट्टावली के रूप में धार्मिक इतिहास के अतिरिक्त सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास का परिचय मिलता है । इन लेखों में प्रायः मूर्तियों, धर्मस्थानों, और मंदिरों के निर्माण का काल अङ्कित रहता है । जिससे कला और धर्म के विकास-क्रम को समझने में बड़ी सहायता मिलती है, और सामाजिक स्थिति का परिज्ञान-एक देश से दूसरे . देश में जैन कव फैले और वहाँ जैन धर्म का प्रसार अधिकाधिक कब हुआ--भी हो जाता है । अनेक जैन भक्त पुरुषों और महिलाओं के नाम भी इन लेखों से Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जात होते हैं जो कि भाषाशास्त्र की दृष्टि से बड़े महत्व के हैं। अधिकांश नाम अपभ्रश और तत्कालीन लोक भाषा के रूप को प्रकट करते हैं। प्रस्तुत लेख संग्रह से ज्ञात सांस्कृतिक इतिहास का एक छोटा चित्र यहाँ दिया जाता है । लोग अपने कल्याण के लिए, माता, पिता, भाई, बहिन श्रादि के कल्याण के लिए, गुरु के स्मृत्यर्थ, राजा, महामण्डलेश्वर आदि के सम्मानार्थ मंदिर या मूर्ति का निर्माण कराते थे और उनकी मरम्मत, पूजा, ऋषियों के श्राहार, पुजारी की आजीविका, नये कार्यों के लिये तथा शास्त्र लिखने वालों के भोजन के लिए दान देते थे। दातव्य वस्तुओं में ग्राम, भूमि, खेत, तालाब, कुत्रा, दुकान, भवन, कोल्हु, हाथ के तेल की चक्की, चावल, सुपारी का बगीचा, माधारण बगीचे, चुंगी से प्राप्त आमदनी, तथा निष्क,पण, गद्याण,होन्नु (ये सब एक प्रकार के सिक्के हैं ) घी एवं मुफ्त श्रम आदि हैं। एक लेख ( १६८ ) में ब्राह्मण को कुमारिकाओं की भेंट का उल्लेख है जो देवदासी प्रथा की याद दिलाता है। ग्राम या भूमि के दान में प्रायः यह ध्यान रखा जाता था कि वे दान सर्व करों से मुक्त कराकर दिये जाय ( २२६,४०४ अादि)। उत्सवों पर ही दान देने की प्रथा थी। बहुत से लेखों से ज्ञात होता है कि दानादि द्रव्य, चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, उत्तरायण-संक्रांति या पूर्णिमा आदि के दिन दान दिये जाते थे ( १०२ १२७,३०१,६४६ आदि ) । मूर्तियों के निर्माण में हम देखते हैं कि लोग प्रायः तीर्थकरों की मूर्तियाँ बनवाते थे-उनमें विशेषतः आदिनाथ, शान्तिनाथ, चंद्रप्रभ, कुथुनाथ, पार्श्वनाथ एवं वर्धमान की मूर्तियाँ होती थीं। तीर्थकरों के अतिरिक्त हम दक्षिण भारत में वाहुबली की मूर्ति भी देखते हैं । भक्त या शिव्यगण अपने प्राचार्यों की मूर्तियाँ या पादुका (चरण) भी बनवाते थे। यक्ष-र्याक्षणियो की पूजा भा प्र_लत थी। हुम्मच पद्मावती का पूजा का प्रमुख केन्द्र था। लेखों में अम्बिका देवी ( ३४६) और ज्वालामालिनी ( ७५८) की मूर्तियो का भी उल्लेख मिलता है । प्रतिमाएँ प्रायः पाषाण और धातु को बनती थीं, पर एक लेख (१६७ ) में पंच धातु की प्रतिमा का उल्लेख है। मंदिर प्रायः पाषाण या ईट के बनते थे, पर कुछ लेखों ( २७७,२०४ ) में लकड़ी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मंदिर का भी उल्लेख है। पूजा के अनेक प्रकार होते थे ( ३३८)। धर्मप्राण महिला एवं पुरुषवर्ग सारे जीवन को धर्म की आराधना में व्यतीत कर अन्तिम क्षणों में समाधिमरण पूर्वक देहोत्सर्ग करता था । चौदहवीं शताब्दी के लगभग दक्षिण प्रांत में जैन महिलावर्ग के बीच सतीप्रथा का भी प्रवेश हो गया था ( ५५६,५७४,६०५ )। राजघराने की महिलाएं अपने पति के शासन में हाथ बटाती थीं। ___ जमीन प्रायः नापकर दान में दी जाती थी। लेखों में विविध प्रकार की नापों का उल्लेख है जैसे निवर्तन (लेख नं. १०१,१६०२ ) भेरुण्ड दण्ड (१८१ ) मत्तर ( २१०) कम्म (२४१) कुण्डिदेश दण्ड (३३४ ) हाथ (३२०) तथा स्तम्भ (३३४) श्रादि । चावल आदि की नाप के लिए मत्त (१८१) तथा तेल की नाप के लिए करघटिका ( २२८) का भी उल्लेख मिलता है। विविध प्रकार के आय करों के नाम भी लेखों से ज्ञात होते हैं। जैसे अन्नियाय वावदण्ड विरै (१६७, तामिल देश में । सिद्धाय कर ( ३१२ ) नमस्य (२१०) हालदारे (६७३ )। तत्कालीन अनेकों सिक्कों के नाम भी लेखों में मिलते है, जैसे गुप्त कालीन कार्षापण ( ६४ ) निष्क ( ४६४ ) सुवर्ण गधाण ( १६७ ) लोक्कि गद्याण ( २५३ ) गद्याण ( १६७,६७३ ) होन्नु ( ४११,६७३ ) विंशोपक (२२८)श्रादि। गाँव के अधिकारी के रूप में सेनवोव ( पटवारी, २१०,२२६,२५१ ) महामहत्त, (७१०) एवं हेगडे या पेगडे ( २०८) के नाम पाते हैं । पटवारी लोग अच्छे पढ़े लिखे होते थे । एक लेख ( २५१ ) में एक पटवारी को लेख रचने वाला लिखा है। यह एक छोटा सा चित्र है । विस्तृत के लिए भूमिका के विविध प्रकरणों को देखना चाहिये। लेख पद्धतिः -प्रत्येक पाषाण लेख या ताम्र लेख, यदि वह बहुत ही छोटा केवल नाम मात्र का या छोटा-सा दानपत्र नहीं हुआ तो, प्राय: देखा गया Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि उसमें एक निश्चन शैली का अनुसरण किया जाता है। प्रारम्भ में बहुधा मंगलाचरण होता है। वह छोटे वाक्य के रूप में सर्वशाय नमः,ॐ नमः सिद्ध न्या' श्रादि या पद्य के रूप में जिनशासन को नमस्कार या किसी देवता या अनेक देवताओं को नमस्कार श्रादि । इसके बाद प्रशस्ति प्रारम्भ होती है जिसमें राजा के नाम युद्ध में विजय श्रादि तथा वंशपरम्परा का वर्णन होता है। यह वर्णन कभी कभी ऐसे सांचे में ढले हुए के समान होता है कि एक राजा के शासनकाल के सभी लेखों में एकसा विवरण मिलता है । लेख का यही हिस्सा राजनीतिक इतिहास के विद्यार्थी के लिए बड़े महत्त्व का होता है । इस अंश के बाद राजा से भिन्न अगर कोई दाता है तो उसका, उसके वंश एवं वैभव आदि का वर्णन आता है। साथ में देय पात्र का वर्णन आता है। यदि वह मुनि व प्राचार्य हुआ तो उसकी गुरुपरम्परा संघ, कुल, गण, गच्छ, अन्वय आदि का वर्णन होता है । यदि वह मंदिर आदि धर्मस्थान हुआ तो उसका भी वर्णन होता है। इसके बाद देय वस्तु- धन, जमान, कर, शुल्क, तेल आदि जो होता है उसका भी खुलासा वर्णन मिलता है। जमीन के दान में उसको सभी परिधियों का वर्णन होता है। इसके बाद दान की रक्षा के लिए विशेष अनुरोध किया जाता है। इसमें दान को जो क्षति पहुचाते हैं उनकी भर्त्सना और जो रक्षा करते हैं उनके प्रशंसावाक्य दिये जाते हैं। अंत में लेख को उत्कीर्ण करने वाले का या निर्माता का नाम होता है। जैन लेख संग्रहः जैन शिला लेखों की संख्या इतनी अधिक है कि उनका संग्रह एक जगह करना कठिन है । इधर माणिकचंद्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला से दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बंधित लेखों का संग्रह तीन भागो में निकला है। बाबू कामताप्रसाद ने एक छोटा प्रतिमालेख संग्रह निकाला है। वैसे ही श्वेताम्बर जैन शिलालेखों के संग्रह स्वर्गीय वाबू पूरणचंद्र नाहर ने जैन लेख संग्रह नाम से तीन भाग में, मुनि जयंतविजय जी ने श्रवुद प्राचीन लेख संग्रह पांच भाग में, विजयधर्म सरि के प्राचीन लेख संग्रह और जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह एवं मुनि कांतिसागर जी का जैन प्रतिमा लेख दो भाग तथा उपाध्याय विनयसागर जी का प्रतिष्ठा खेख संग्रह श्रादि प्रकाशित हो चुके हैं। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखों का जितना भारतीय इतिहास के - जैन धर्म और जैन समाज के इतिहास निर्माण में इन महत्व है वैसा ही भारतीय इतिहास के लिखने में भी है। अनेक परिच्छेदों के निर्माण करने में, उन्हें संशोधित एवं प्राप्त तथ्यों को दृढ़ करने में इन लेखों का बड़ा उपयोग है। भारतीय इतिहास के निर्माण में जैन साहित्यिक उपादानों की भले ही अब तक उपेक्षा हुई हो पर वर्षा, सर्दी एवं गर्मी के आघातों से सुरक्षित इन लेखों से प्राप्त श्रटल तथ्यों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । 1 प्रस्तुत लेख संग्रह: - प्रस्तुत लेखों का संग्रह श्रद्ध ेय पं० नाथूराम जी प्रेमी की सत्कृपा एवं प्रेरणा का फल है । इसके प्रथम भाग का संकलन एवं सम्पादन डा० हीरालाल जी जैन ने २८- २६ वर्ष पहले किया था। उक्त भाग में ५०० लेख श्रवण वेल्गोल और उसके आस पास के कुछ स्थानों के हैं । इसके बहुत वर्षों बाद श्रद्धय प्रेमी जी ने पं० विजयमूर्ति जी एम० ए० शास्त्राचार्य से द्वितीय एवं तृतीय भाग का संकलन कराया। इन दो भागों में ८४६ लेख संगृहीत हैं। इसके संकलन में प्रसिद्ध फ्र ेन्च विद्वान् स्व० ए० गेरानो द्वारा प्रकाशित जैन शिलालेखों को एक विस्तृत तालिका Repertoire Epigraphie Jaina की सहायता ली गई है। वह तालिका सन् १६०८ में प्रकाशित हुई थी, इसलिए इस संग्रह में उक्त सन् या उससे पहले तक के प्रकाशित लेख ही श्रा सके हैं, बाद का एक भी लेख नहीं। सभी लेखों का संग्रह तिथिक्रम से किया गया है। उनमें प्रथम माग में प्रकाशित लेखों का एवं श्वेताम्बर लेखों का यथास्थान निर्देश मात्र कर दिया गया है इससे ग्रन्थ का कलेवर बढ़ नहीं सका । सन् १६०८ से अब तक अनेक जैन लेख प्रकाश में आ चुके हैं। उनका भी तिथिक्रम से संकलन श्रावश्यक है । ग्रन्थमाला को चाहिये कि उन लेखों को भी संग्रह कराकर प्रकाशित करे । २ मथुरा के लेख: एक अध्ययन प्रस्तुत संग्रह में मथुरा से प्राप्त ८५ लेख संग्रहीत हैं। इनमें नं० ४ से लेकर १६ तक के लेखों को अक्षरों की बनावट की दृष्टि से डा० बूल्हर ने ईसा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ge पूर्व १५० से लेकर ईसा की प्रथम शताब्दी के बीच का सिद्ध किया है। में १७ से ८६ तक के लेख कुपारणकालीन हैं जिनमें कुछेक पर सम्राट् कनिष्क, हुविष्क एवं वासुदेव के राज्यसंवत्सर दिये गये हैं और कुछेक बिना संवत्सर के है । शेष लेख गुप्तकाल से लेकर ११वीं शताब्दी तक के हैं। इनमें से ८ लेख तो श्रायागपटों' पर, २ लेख ध्वज स्तम्भों पर, ३ लेख तोरणों पर, १ लेख नैगमेव ( यक्ष प्रतिमा ) पर, १ लेख सरस्वती" की मूर्ति पर, ५. लेख सर्वतोभद्र प्रतिमाओं पर, और शे लेख प्रतिमापट्ट या मूर्तियो की चौकियों पर उत्कीर्ण मिले हैं । उक्त तथा अन्य मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुई थी। इस टीले पर कंकाली देवी का एक मन्दिर है । मन्दिर भी एक छोटी-सी झोपड़ी के रूप में हैं, जिसमें नक्काशीदार एक स्तम्भ का टुकड़ा रखा गया है, जिसे लोग कंकाली देवी मानकर पूजते हैं। इस तरह देवी के नाम से इस टीले का नाम कंकाली पड़ गया । इसकी सर्व प्रथम खुदाई सन् १८७१ में जनरल कनिंघम ने की थी जिसमें उन्हें तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियां मिलीं जिनमें कुछ पर कुषाण वंशी प्रतापी सम्राट् कनिष्क के ५ वें वर्ष से लेकर वासुदेव के राज्य के कुषाण संवत् ६८ तक के लेख खुदे । दूसरी खुदाई सन् १८६८-६१ में डा० फ्यूरर ने विस्तृत रूप से की जिससे ७३७ मूर्तियाँ तथा अन्य शिल्पसामग्री प्राप्त हुई । उसके पश्चात् पं० राधाकृष्ण ने भी यहाँ की खुदाई की और अनेक महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त की । इस तरह कंकाली टीला जैन सामग्री के लिए एक निधान सिद्ध हुआ । यहाँ से अनेक १–नं० ५,८,६,१५,१७,७१,७३,८१ २ नं० ४३,४४ ३ - नं० ४,१४,६८ ४- नं० १३ ५नं० ५५ ६- नं० २२,२६,२७,४१,१७३ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार की हिन्दू और बौद्ध सामग्री भी प्राप्त हुई है जिससे ज्ञात होता है कि जैन धर्म की बढ़ती देखकर, हिन्दुओं और बौद्धों ने भी मथुरा को अपना केन्द्र बना लिया था। यह स्थान प्राचीन काल में जैनियों का अतिशय क्षेत्र था। डा. फ्यूरर को इसी टीले से एक जैन स्तूप भी मिला था । स्तूप की एक ओर विशाल मन्दिर दिगम्बर सम्प्रदाय का और दूसरा श्वेताम्बर सम्प्रदाय का मिला, पर वे खनन कार्य की असावधानी से छिन भिन्न हो गये। खोदने के समय के फोनों में ये तथ्य अब भो मौजूद हैं। लेख नं० ५६ से ज्ञात होता है कि इस स्तूप का नाम 'देवनिर्मित वोद स्तूप' था। लेख एक प्रतिमा की चोकी पर पाया गया है जो उक्त स्तूप पर प्रतिष्ठित की गई थी । लेख में कुषाण संवत् ७६ दिया गया है। इस संवत् में कुषाण नरेश वासुदेव का राज्य था । हेल्ली सन् की गणना में इस मूर्ति की प्रतिष्ठा ७+७८-१५७ ईस्वी में हुई थी। उस समय भी यह स्तूप इतना पुराना हो गया था कि लोग इसके वास्तविक बनाने वाले को एकदम भूल गये थे और उसे देवों का बनाया ( देवनिर्मित) हुया मानते थे। इससे प्रतीत होता है कि 'वोद्ध स्तूप' बहुत ही प्राचीन स्तूप था विसका कि निर्माण कम से कम ईसा पूर्व ५-६ वीं शताब्दी में हुअा होगा। इस अनुमान की पुष्टि का दूसरा प्रमाण यह भी है कि तिब्बतीय विद्वान् तारनाथ ने लिखा है कि मौर्य-काल की कला यक्ष-कला कहलाती थी और उससे पूर्व की कला देवनिर्मित-कला। अतः सिद्ध है कि कंकाली टीले का स्तूप कम से कम मौर्यकाल से पहले अवश्य बना था। जिनप्रभ सूरि (१३ वी १४ वी १ नं० ) ने विविधतीर्थकल्प में लिखा है कि पहले यह स्तूप स्वर्ण का बना था, इसमें रत्न बड़े थे, इसे मुनि धर्मरुचि और धर्मघोष की इच्छा से कुबेरा देवी ने सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की पुण्यस्मृति में बनवाया था। तत्पश्चात् २३ वें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ के समय में इसका निर्माण ईटों से हुआ था और पाषाण का एक मन्दिर इसके बाहर बनाया गया था। पुन: वीर भगवान् के केवलज्ञान प्राप्त करने के १३०० वर्ष बाद बप्पभहि सूरि ने इस स्तूप को भग० पार्श्वनाथ के नाम पर अर्पण करने के लिए इसकी मरम्मत कराई थी। भाग० महावीर को केवलशान की Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्ति ईसा से लगमा ५५० वर्ष पहले हुई थी ,अतः इस स्तूप की मरम्मत १३०० वर्ष आद अर्थात् सन् ७५. के लगभग में हुई होगी। और पार्श्वनाथ के समय में इसके इंटों से बनाये जाने का काल ईसा से ६०० वर्ष से भी पूर्व निश्चित होता है। संभव है देवनिर्मित शब्द यही योतित करता है। यदि यह संभावना ठीक है तो भारत वर्ष के जितने स्तूप एवं इमारतें है उनमें यह स्तूप सबसे प्राचीन समझना चाहिये। स्तूप का मल अभी तक विद्वानों के विवाद का विषय है। किन्हीं का मत है कि यह प्राचीन यज्ञशालाओं का अनुकरण है जब कि दूसो इसे भग० बुद्ध के उलटकर रखे गये भिक्षापात्र के आधार पर निर्मित मानते हैं । कभी कभी विशिष्ट पुरुषों के स्मारक रूप में भी स्तूप बनते थे और उसमें उनके अस्थिफूल रखे जाते थे। पर यह आवश्यक नहीं कि सभी स्तूप ऐसे हों । सारनाथ के घमेख स्तूप और चौखण्डी स्तूप में कनिंघम को कुछ भी प्राप्त नहीं हुअा।। स्तूप का तलभाग गोल होता है। नीचे एक गोल चबूतरा, उसके ऊपर ढोल या कुएं के आकार की इमारत और उसके भी ऊपर एक अर्घ गोलाकार गुवज (छतरी) होती है । चबूतरे पर स्तूप के चारों ओर एक प्रदक्षिणा पथ छोड़कर पत्थर का लम्बी खड़ी ओर आड़ी पटरियों का एक घेरा ( Railing) बना रहता है । इस घरे में अधिकतर चारों दिशात्रों में तोरण (gate way) बने होते हैं। ये तोरण बड़े ही सुन्दर बनाये जाते हैं। पत्थर के दो स्तम्भ खड़े करके उनके ऊपर के शिरों पर तान श्राड़ी पटरियां लगा देते हैं। उन्हीं के नीचे से श्राने जाने क राम्ता रहता है। तोरण तक जाने के लिए सोड़ियां रहती हैं। ये स्तूप पोले अोर ठोस दोनों तरह के मिले हैं। मथुरा के जैन स्तूप का वर्णन इस प्रकार है:-इस स्तूप के तले का व्यास ४७ फीट था। यह ईटों का बना था, ईटें आपस में बराबर न थी किन्तु छोटी बड़ी थीं। इसकी भूमि का ढांचा इक्के गाड़ी के आकार का था । केन्द्र से बाहर की दीवार तक प्रा. व्यासाचं, जिनपर पाठ दीवार स्तूप के भीतर-भीतर ऊपर तक बमी थीं। इन दीवारों के बीच में मिट्टी भरी हुई मिली है । कदाचित् यह स्तूप Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० die था और गृहनिर्माण की मितव्ययिता के कारण भीतर की ओर केवल ये दीवारें ही बना दी गई थीं। इस कारण भीतर के कुछ हिस्से में ईंट चिनने की जरूरत न रहीं । स्तूप के बाहर की ओर तीर्थकरों की प्रतिमाएँ बनी थीं । यहाँ एक और जैन स्तूप था, उस पर का बहुत छोटा सा लेख मिला है । वह ईसा की तीसरी या चौथी शताब्दी का मालूम होता है । इन स्तूपों के अतिरिक्त यहाँ कई प्रयागपट्टे मिले हैं। जिनसे ८ लेख प्रस्तुत संग्रह में संकलित हुए हैं। ये श्रायागपट्ट पत्थर के वे चौकोर पटिये होते हैं जो sant प्रकार के माङ्गलिक चिन्हों से अंकित करके किसी तीर्थकर को चढ़ाये जाते थे । मथुरा के इन प्रयाग पट्टों का जैन कला में विशेष स्थान है । एक श्रायागपट्ट ( जिस पर लेख नं० ७१ उत्कीर्ण है ) पर १ मीन मिथुन, २ देव विमान गृह, ३ श्रीवत्स, ४ वर्धमानक, ५ त्रिरत्न, ६ पुष्पमाला, ७ वैजयन्ती और ८ पूर्णघट येष्ट मांगालिक चिह्न मिले हैं। दूसरे अन्य श्रायागपट्टों पर नंद्यावर्त स्वस्तिक, कमल आदि चिह्न अङ्कित हैं । 1 इन पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होता है कि ये मन्दिरों में अर्हन्तों की पूजा के लिए रखे जाते थे । अधिकांश अन्तों की प्रतिमाऐं हैं, कुछ में चरणचिह्न हैं। तीन श्रयागपट्टों पर स्तूपों के चित्र अङ्कित मिले हैं। लेख नं० ८ और १५ वाले श्रायागपट्ट इनमें से ही हैं। लेख नं०८ वाला श्रायागपट्ट ( मथुरा संग्रहालय २ ) अधिक महत्व का है। अनुमान किया जाता है कि उक्त श्रायागपट्ट पर उत्कोर्ण तोरण और वेदिका मण्डित स्तूप मथुरा के विशाल जैन स्तूप की प्रतिकृति है । लेख के अनुसार श्रमणों की श्राविका गणिका लोपशोभिका की पुत्री गणिका वासु ने अपनी माता, पुत्री, पुत्र और अपने समस्त कुटुम्ब के साथ श्रर्हत् का एक मन्दिर एक श्रायागसभा, पानोगृह और एक पाषाणासन बनवाये । इसके अतिरिक्त कंकाली टीले से स्तूप को प्रतिकृति और पूजन आदि के महोत्सव को चित्रित करनेवाले कुछ इमारतों के अंश भी मिले हैं। लेख नं० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ऐसे ही एक तोरण के अंशपर से लिया गया है । इस तोरण पर एक नन साधु चित्रित है जिसकी कलाई पर एक खण्ड वस्त्र लटका हुया' है। यहाँ से सैकड़ों जैन तीर्थकरों एवं यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों मिली है। ये मूर्तियां बड़े सादे ढंग से बनाई गई हैं। तीर्थंकरों की मतियां खङ्गासन एवं पद्मासन दोनों प्रकार की मिली है। प्रारम्भिक शताब्दियों की मूर्तियां नग्न हैं। इनमें अधिकांश मूर्तियाँ श्रादिनाथ, अजितनाथ, सुपार्श्वनाथ, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि और वर्धमान की मिली हैं। उस काल में तीर्थकर के चिन्हों-लाञ्छनों का आविष्कार न होने के कारण मूर्तियों में प्राय: एक दूसरे से भेद नहीं है। हाँ, आदिनाथ के केश (जटाएं ) तथा पाय और सुपार्श्व के सर्पफरण इनको पहचानने में सहायता देते हैं। जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ नग्न होने के कारण, वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह होने से और शिर पर उष्णीष न होने कारण इस काल की बौद्ध मूर्तियों से अलग आसानी से पहचानी जा सकती है। मथुरा से इसो समय की चौमुखी मूतियाँ मिली हैं जो सर्वतोभद्रिका प्रतिमा अर्थात् वह शुभ मूर्ति जो चारों ओर से देखी जा सके, कहलाती थीं। इन प्रतिमात्रों में चारों ओर एक तीर्थकर की मूर्ति बनी होती है। चौमुखी मूर्तियों में आदिनाथ, महावीर और सुपार्श्वनाथ अवश्य होते हैं। ऐसी मूर्तियाँ कुषाण और गुप्त काल में बहुतायत से बनती थीं । ईश्वी सन् ४७५ के लगभग उत्तर भारत पर हणों के भयानक आक्रमणों से मथुरा के स्थापत्य को बड़ा धक्का लगा। अतः ईस्वी ६वीं के पश्चात् मथुरा से जो नमूने हमें मिले हैं वे भोड़े और भई हैं। उनमें पहले की सी सजीवता नहीं है। इसी काल के लगभग बिना कपड़ेवाली मूर्तियों में कपड़े दिखाये जाने लगे, और सर्वप्रथम राजसिंहासन यक्ष यक्षिणी, त्रिछत्र एवं गजेन्द्र श्रादि प्रदर्शित होने लगे जो उत्तर गुप्तकाल और उसके बाद की जैन मूर्तियों के विशेष लक्षण हैं। इन्हीं के साथ मध्यकाल में मथुरा के शिल्पियों ने यक्ष यक्षिणियों और जैन मातृदात्रों की भी पृथक -बाबू कामताप्रसाद जैन इसे जैनों के अर्धफालकसम्प्रदाय से संबंधित बताते है, देखो जैन सि. भास्कर भाग ८ अंक २ पृष्ठ ६३-६६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मूर्विया बनाना प्रारम्भ की। जैन मातृकानों में श्रादिनाथ की यक्षिणी चश्वरी, तथा नेमिनाथ की अम्बिका देवी की मूर्तियां यहाँ मिली हैं। यक्ष धरणेन्द्र की सूर्ति भी मिली है। . इन मूर्तियों के सिवाय यहाँ नैगमेव नामक एक यक्ष की भी मुर्ति मिली है। नेगमेष या हरि नैगमेष जैन मान्यता के अनुसार सन्तानोत्पत्ति के प्रमुख देवता थे। इनकी पुरुष और स्त्री दोनों विग्रहों में मूर्तियाँ मिली हैं। संभवतः पुरुषशरीर की मूर्तियां पुरुषों के पूजने के लिए और स्त्रीशरीर की मूर्तियाँ स्त्रियों के लिए. थीं। इनका मुख बकरी के आकार का होता है। इनके हाथों या कन्धों पर खेलते हुए. बच्चे चिन्हित किये गये हैं | गले में लम्बी मोती की माला भी है जो कि इनका विशेष चित है। कुषाणकाल में इन मूर्तियों की विशेष पूजा होती थी। लेख नं० १३ ऐसी ही एक मूर्ति पर से लिया गया है। मथुरा से प्राप्त ये लेख ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं। इनमें उल्लिखित शक एवं कुषाण राजात्रों के नाम तथा तिथियों से हमें उनके क्रमिक इतिहास तथा राज्य काल की अवधि का पता चलता है । लेख नं ५वें में स्वामी महाक्षत्रप शोडास का संवत्सर ४२ तथा मास दिन दिये हुए हैं। शोडास, महाक्षत्रप रंजुवुल का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था । रंजुवुल शक नरेश मोश्र के अधीन मथुरा का महाशासक था। यह मोश्र ईसा पूर्व ६० के लगभग अफगानिस्तान एवं पंजाब का शासक था। उसके अधीन मथुरा का शासक रंजुवुल पोछे स्वतंत्र हो गया था जैमा कि उसकी शाही उपाधियों से मालूम होता है । लेख में शोडास की स्वामी एवं महाक्षत्रय उपाधियाँ दी गई है जो कि उसके स्वतन्त्र शासक होने की परिचायक हैं । यदि उक्त लेख का संवत्सर ४२ विक्रम संवत् माना जाय जैसा कि स्टीन कोनो सा० का मत है, तो शोडास ईसा पूर्व १७-१६ में राज्य करता था । शकों के राज्य पर अधिकार करनेवाले थे कुषाण्वंशी राजा । इनका राज्य भारत वर्ष पर ईसा की प्रथम शताब्दी के मध्य से स्थापित हुआ था। इस वंश का सबसे बड़ा प्रतापी राजा कनिष्क हुन्मा, जिसने अपने राज्याभिषेक के समय Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से एक संवत् चलाया था जो कि विद्वानों के मत से सम् ७८ ई० से प्रारम्भ होता है । इतिहास के अनुसार कनिष्क ने सन् १०० ई० तक अर्थात् २२ वर्ष राज्य किया। इसके बाद उसके उत्तराधिकारी वासिष्क ने सन् १०८ तक, तत्पश्चात् उसके उत्तराधिकारी हुविष्क ने सन् १३% तक तथा उसके उत्तराधिकारी वासुदेव ने सन् १७६ तक राज्य किया। प्रस्तुत संग्रह में लेख नं० १६ में देवपुत्र कनिष्क लिखा है और राज्य सं ५ दिया है। इसी तरह लेख मं०२४ में महाराज राजातिराज देवपुत्र पाहि कनिष्क तथा राज्य सं० ७ दिया है और लेख नं० २५ में महाराज कनिष्क तथा सं०६ दिया गया है । इन लेखों के सिवाय लेख नं० १७,१८,१९,२०,२१.२६.२. २६,३०,३३ और ३४ में राजा का नाम तो अंकित नहीं है पर राज्य संवत्सर से मालूम होता है कि ये कनिष्क के ४थ वर्ष से लेकर २२वें तक के लेख है। लेख नं ३५-३८ तक कुषाण सं. २५ से २६ तक के हैं जो कि वासिष्क के के राज्य काल के होते हैं । यद्यपि इनमें राजा का नाम या तो दिया ही नहीं गया या स्पष्ट उत्कीर्ण नहीं हो पाया है । लेख नं०४० से ५६ तक के लेख कुषाण सं० ३१ से ६० के भीतर के हैं जो कि हुविष्क के शासनकाल के हैं। इनमें लेख नं. ४३,४५,४८,५० ओर ५६ में तो हुविष्क का नाम दिया हुआ है। लेख नं०५० से ७० तक कुषाण सं० ६२ से ६८ के अन्तर्गत हैं जो कि वासुदेव के राज्यकाल में पड़ते हैं उनमें से ६२,६५ और ६६ में तो चासुदेव का नाम भी दिया हुआ है। इतिहासज्ञों के मत से लेल नं० ६६ वासुदेव के राज्य को अन्तिम अवधि का द्योतक है। ___यहाँ लेखों के सम्बन्ध में यह सब विस्तार पूर्वक इस लिए लिखना पड़ा कि इस संग्रह में भूल से कतिपय लेखों पर दूसरे राजाओं का नाम दिया गया है जो कि इतिहासशों के लिये भ्रम उत्पन्न कर सकता है। इन राजाओं में कनिष्क, वासिष्क एवं हुविष्क तो बौद्ध धर्म प्रतिपालक थे और वासुदेव शैव मत का, पर अपने शासन में वे लोग अन्य धर्मों के प्रति बड़े उदार थे। इनके राज्यकाल में. जैन धर्म का हित सुरक्षित था और वह खूब समृद्ध स्थिति में था। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सामजिक इतिहास की दृष्टि से भी ये लेख बड़े महत्व के हैं। इन लेखों में गणिका (८) नर्तकी ( १५ ) लुहार ( ३१,५४ ) गन्धिक ( ४१,४२,६२,६६) सुवार ( ६७), ग्रामिक (४४) तथा श्रेष्ठी ( १६,२६,४३ ) आदि जातियों या वर्ग के लोगों के नाम मिलते हैं जिन्होंने मूर्ति आदि का निर्माण, प्रतिष्ठा एवं दान कार्य किये थे। इनसे विदित होता है कि २ हजार वर्ष पहले जैन संव में सभी व्यवसाय के लोग बराबरी से धर्माराधन करते थे। अधिकांश लेखों में दातावर्ग के रूप में स्त्रियों की प्रधानता है जो बड़े गर्व के साथ अपने पुण्य का भागधेय अपने माता-पिता सास-ससुर पुत्र-पुत्री, माई आदि श्रात्मीयों को बनाती थीं (१४)। इन स्त्रियों में बहुतसी विधवाएं थीं जो वैधव्य के शोक से घर महत्यी छोड़कर विरक्त हो जैन संघ में आर्यिका हो गयीं थीं । लेख नं. ४२ में ऐसी ही स्त्री कुमारमित्रा थी जिसे लेख में आर्या कुमारमित्रा लिखा है तथा उसे संशित, मखित एवं बोधित कहा गया है। इन लेखों से एक और महत्व की बात सूचित होती है कि उस समय लोग अपने व्यक्तिवाचक नाम के साथ माता का नाम जोड़ते थे जैसे वात्सीपुत्र, तेवणीपुत्र, वैहिदरीपुत्र, गोतिपुत्र, मोगलिपुत्र एवं कौशिकिपुत्र श्रादि । ऐसे नाम सांस्कृतिक-इतिहास निर्माण की दृष्टि से मूल्यवान् हैं। जैन धर्म के प्राचीन इतिहास की दृष्टि से मथुरा के ये लेख और भी बड़े महत्त्व के हैं। इन लेखों में मूर्ति के संस्थापक ने न केवल अपना ही नाम उत्कीर्ण कराया है बल्कि अपने धर्मगुरुत्रों का नाम भी, जिनके कि सम्प्रदाय का वह था । इनमें श्राचार्यों की उपाधियाँ-आर्य, गणी, वाचक, महावाचक, प्रातपिक आदि जो कि उस समय प्रचलित थीं, दी गई है। लेखों में अनेक गणों, कुलों और शाखाओं के नाम भी दिये गये हैं । ठीक इस प्रकार के गण, कुल एवं शाखा, श्वेताम्बर अम्गम 'कल्पसूत्र' की स्थावरावली में तथा कुछ वाचक श्राचार्यों के नम्म नन्दिसूत्र की पट्टावली में मिलते हैं । महत्त्व की बात तो यह है कि लेखों का कुछ हिस्सा घिस जाने या पत्थर के कारीगर द्वारा गलत ढंग से उत्कीर्ण Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किये जाने या लेखों का गलत छापा लेने तथा नकल को गलत पढ़े जाने पर श्री उक्त दोनों पट्टाबलियों के कई नामों के साथ साम्य स्थापित किया जा सकता है। संभव है सम्प्रदाय का नाम गण, उसके विभाग का नाम कुल तथा उसके उपविभाग का नाम शाखा था । ये नाम जैन श्रमणों के उन विभिन्न संघों की ओर संकेत करते हैं जो कि ईसा पूर्व की कुछ शताब्दियों में जैन श्रमणों में अपनी अपनी श्राचार्य परम्परा और पर्यटन भूमि की विभिन्नता के कारण पैदा होना शुरु हुए, थे I में कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार वर्धमान स्वामी की परम्परा में ६ वीं पोड़ी सुहस्ति हुए जो कि श्रार्य स्थूलभद्र के अन्तेवासी थे । इन श्रार्य सुइस्ति के १२ अन्तेवासी थे । इनमें से आर्य रोहण, आयं कामर्धि श्रार्य सुस्थित तथा सुप्रतिबुद्ध एवं आर्य श्रगुप्त से निकलने वाले गण, कुल एवं शाखाओं के कई एक नाम लेखों में पहिचाने जा सके हैं । तदनुसार श्रार्य रोहण गणी से 'उद्देह' गण निकला जो कि हमारे लेख २४ एवं ६६ का 'उद्दे किये गए समझना चाहिये । उक्त गणके ६ कुल थे जिनमें से केवल दो की पहिचान हो सकी है । 'नागभूय' कुल हमारे लेख नं० २४ का 'नागभूतिय' होना चाहिये । 'परिहासक' गलत रूप से लिखा या पड़ा जाकर लेख नं० ६६ में पुरिध के रूप में प्रतीत होता है । उक्त गण की चार शाखायें थीं जिनमें एक शाखा 'पुराण पत्तिका' लेख नं० ६६ की पेतपुत्रिका होना चाहिये । Tara aur से वेसवाडिय गण निकला । यद्यपि यह नाम लेखों में स्पष्ट रूपसे उत्कीर्ण नहीं मिला लेकिन उक्त गणके चारकुलों में से एक 'मेहियकुल' मेहिक के रूप में २६ और ६३ वे लेख में प्राप्त हुआ है । श्रार्य सुस्थित एवं सुप्रतिबुद्ध गणी से 'कोडिय' गण निकला जो कि अनेकों लेखों में कोट्टिय के रूप में मिलता है। इस गण के चार कुलों में पहले कुल 'लिज' को तो अनेकों लेखों का ब्रह्मदासिक कुल ही समझना चाहिये । दूसरा 'वस्थलिज' भी लेख नं० २७ कावच्छलिय प्रतीत होता है। तृतीय 'वाणिन' कुल Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक लेखों से प्राप्त ठामिय कुल के रूप में प्राप्त हुआ है। इसी तरह चतुर्थ 'पहवाहण' तो परहवणय कुल ( ६६ ) मालुम होता है। उक्त गण की चार शाखायें थी । प्रथम 'उच्चानगरि' तो अनेक लेखों की उच्छेनगरी ही है। द्वितीय विबाहरी' शाखा लेख नं०६२ की विद्याधरी शाखा मालूम होती है। तृतीय 'बहरी' शाखा को हम अनेक लेखों में वेरिय, बेर, बैर, बहर के रूप में देख सकते हैं। चनुर्थ 'मज्झिमिला' शाखा लेख नं० ६६ की मझम शाखा हो समझना चाहिये ____ आर्य श्रीगुप्त गणी से 'चारण' गण निकला था जो कि मथुरा के अनेक लेखों में वारण गण के रूप में पढ़ा गया है। उससे सम्बन्धित ७ कुलों में से 'पीइधम्मित्र' लेख नं० ३४ एवं ४७ का पेतवमिक मालुम होता है । 'हालिब' कुल लेख नं० १७,४४ एवं ८० का अार्य हाटिकिय प्रतीत होता है । 'पूसमित्तिज' लेख नं० ३७ का पुश्यमित्रीय तथा 'अजवेडय' कुल लेख नं० ४५ का श्रायंचेटिय एवं नं. ५२ का अय्यमिस्त ( १ ) और 'कएहसय लेख नं. ७६ का कनियसिक विदित होते हैं। इसी तरह उक्त गण की चार शाखाओं में 'हारियमालागारी' लेख नं० ४५ की 'हरीतमालकाधी,' 'वजनागरी' लेख नं० ११,४४ एवं ८० को वाजनगरी, 'संकासीत्रा' लेख नं० ५२ की सं ( कासिया) तथा 'गवेधुका' लेख नं. ७६ में अोद ( संमव गोदुक ) के रूप में पढ़ी गयी है। इस तरह ३ गण, १२ कुल एवं १० शाखाओं के नाम लेखों और कल्पसूत्र स्थविरावली में बराबर मिल जाते हैं। केवल लेख नं० ८२ के बारण गण के नाडिक कुल का मिलान नहीं हो सका है । संभव है यह नाम अन्य नामों के समान लिखने की अशुद्धियों के कारण अज्ञात सा प्रतीत होता है।। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार काल की दृष्टि से इन मणों, कुलों और शाखाओं का श्राविर्भाव वीर सं० २४५-२६१ अर्थात् ई० पूर्व २८२-२३६ के बीच हुना था और मथुरा के लेखों से मालूम होता है कि ये गुप्त संवत् ११३ अर्थात् सन् ४३४ तक बराबर चलते रहे। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा के इन लेखों में उक्त गर्यो, कुलों एवं शाखाओं के सिवाय अनेकों आचार्यों के नाम श्राते हैं जो कि वाचक श्रादि पद से विभूषित थे । श्वेताम्बर श्रागम नन्विसूत्र में एक वाचक वंश की पट्टावली दी हुई है, जिसके अनेकों नामों का मिलान शिलालेखों के नामों से किया जा सकता है। उक्त पट्टावली में सुधर्म गणधर की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए ७वें श्रार्य स्थूलभद्र के शिष्य सुहस्ति से चलने वाले वाचक वंश का वर्णन है जो कि वीर निर्वाण सं० २४५ से लेकर ६६४ तक अर्थात् ई० पूर्व २८२ से लेकर सन् ४६७ तक चलता रहा । उक्त वंश में ही श्रार्य देवर्धि क्षमाश्रमण हुए थे जिन्होंने वर्तमान श्वेताम्बर श्रागमों को अन्तिम रूप दिया था। उक्त पट्टावली में गण, कुल एवं शाखाओं का नाम बिल्कुल नहीं दिया । संभव है वहाँ गण, कुल शाखादि को महत्त्व न दे वाचक पदधारी श्राचार्यों का नाम ही गिनाया गया है। जो भी हो, यहाँ उक्त पट्टावली और लेखों के कुछ नामों में काल दृष्टि से साम्य प्रकट किया जाता है । १३ -- श्रार्य समुद्र, वीर नि० सं०... महावाचक, गणि समदि १४ - श्रार्य मंगु', ૪૬૭૨ १५ -- श्रार्य नन्दिल क्षमण (ले० नं०५२) 35 गणि मंगुहस्ति श्रानन्दिक गणी नन्दी (,,६७) १६ – आर्य नागइस्ति (,, ६२० - ६८६) वाचक श्रार्य घस्तुहस्ति (,, ५४ ) (, ५४ ) (,,४१ ) १ --मुनि दर्शनविजय, पट्टावली समुच्चय, भा० १ पृष्ठ १३ पर श्रार्य मंगुकी गाथा के अनन्तर दो प्रक्षिप्त गाथाएं श्राती है, जिनमें अज्जधम्म, भद्रगुप्त, श्रज्जवयर, अज्जरक्खित के नाम श्राते हैं । २ - वही, पृष्ठ ४७, तपागच्छपट्टावली । इस पट्टावली का रचना काल विक्रम सं० १६४६ है । ३ - वही, पृष्ठ १६, 'सिरि दुधमाकाल समणसंघथयं' नामक पट्टावली का Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं हस्तहस्ति' (ले० नं०५५) २२- भूतदिन (वी०नि०६०४-१८३२) दन्तिल (,६२) '. लेख नै ५२ पर जिसमें कि महावाचक गणि समदि का नाम श्राता है, कुषाण संवत् ५० अंकित है जो कि गणना में वीर निर्वाण सं० ६५५ श्राता है। नन्दिसूत्र पट्टाक्ली में आर्य समुद्र का नाम आर्य मंगु से पहले अाता है । आर्य मंगु का समय पट्टावली के अनुसार वीर नि० सं० ४६७ है। यदि यह ठीक है तब तो श्रार्य समुद्र का समय भी आर्य मंगु से पहले होना चाहिये । लेख में दिया गया कुषाण सं०५० (वी०नि० सं० ६५५.) यदि आर्य समदि का समय है तो इस हिसाब से पटावली के समय और लेख के समय में लगभग १८८ वर्ष का अन्तर आता है। पर वास्तव में लेख मं० ५२ में आर्य समदि का समय नहीं दिया गया बल्कि वह आर्य दिनर ( १ ) अादि की एक शिष्या द्वारा मूर्ति स्थापना का समय है । उक्त लेख में समदि शब्द के बाद कई अक्षर घिस गये हैं । यदि रचना काल वि० सं० १३२७ है। १. शुद्ध नाम हस्ति-हस्ति प्रतीत होता है। हस्ति का पर्यायवाची नाग होता है। यह संभव है कि नागहस्ति को लेख में हस्ति-हस्ति लिखा गया है। संभव है लेख को उत्कीर्ण करने वाले की भूल से हस्ति शब्द घस्तु हो गया हो, और दूसरे लेख में हस्ति का हल हो. गया हो। २..वही, पृष्ठ १८, दिन और दत्तिल दोनों शब्द दत्त शन्द के प्राकृत रूप होते हैं। ... ३. जैन परम्परा के अनुसार वीर निर्वाण का समय विक्रम सं० से ४७. वर्ष पूर्व है, अतः ई० सन् पूर्व ५२७ होगा । कुषाण संवत् ईस्वी सन् .. .७८ से प्रारंभ होता है अतः कुषाण संवत् के प्रारंभ में ५२७+७८ ६०५ वीर निर्वाण सं० समझना चाहिये। डा० याकोबी के मतानुसार -, बीर निर्धारण ई० सन् पूर्व ४६७ में होता है। । . Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षरों की पूर्ति पादचस्या आवचरी' शब्द से की जाय तो यह कहा जा सकता है कि वह शिष्या या उसके गुरु, महावाचक समदि के बाहचरी या श्राइचर थे। श्राइचर शब्द का यदि यह अर्थ मान लिया जाय कि उक्त प्राचार्य की परम्परा में विश्वास करने वाला तो यह संभावना करनी पड़ेगी कि महावाचक समदि की परम्परा १८८ वर्ष या उसके कुछ अधिक वर्षों तक चलती रही। इसी हालत में लेख और पट्टावली के आर्य समदि और आर्य समुद्र का समीकरण संभव है। इसी तरह गणि आर्य मंगुहस्ति का उल्लेख करने वाले लेख नं०५४ का समय कुषाण सं० ५२ दिया गया है जो कि वी० नि० सं० ६५७ होता है। इस लेख में जो समय दिया गया है वह है वाचक आर्य घस्तुहस्ति के शिष्य एवं गणी आर्य मंगुहस्ति के श्राद्धचर वाचक आर्य दिवित का। पट्टावली में आर्य मंगु का समय वी०नि० सं०४६७ दिया गया है। लेविगत समय वी०नि० सं० ६५७ (कुषाण सं० ५२) से संगति बैठाने के लिए यहाँ यह समझना चाहिए कि आर्य मंगु की परम्परा कम से कम १६० वर्ष तक चलती रही। १. मथुरा के लेख नं. १७ में सहचरी, ४३ में सढचरिय, ५४ में षढचरो तथा ५५ में श्रमचरों शब्द आते हैं। २. यह संभावना इसलिए करना पड़ी कि उस काल में एक समय में ही श्राचार्यों की कई परम्परायें चलती थी। श्वेताम्बर जैन पट्टावलियों के देखने से यह बात भली भांति विदित होती है कि आर्य सुहस्ति के बाद ऐसी अनेक परम्पराओं का उद्गम हुआ था। कोई वाचक परम्परा थी, कोई युगप्रधान परम्परा थी तथा कोई गुरु परम्परा थी अादि. तथा उन श्राचार्यों से कई गण, कुल और शाखा निकले थे। जिन परम्पराओं की स्मृति रही उनका अंकन तो हो गया, शेर कालदोष से सुप्त हो गई। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी या उसके कुछ बाद तक अच्छा संगठित था इसमें कई प्रभावशाली मा थे जिन में से पुन्नागपक्ष मूलगण, बलहारि गण र कण्डूर गह मूलसंघ में शामिल कर लिए गये और नन्दिसंघ को द्रविड संघ और पीछे मूलसंघ ने अपना लिया। कूर्चकसंघ कर्नाटक प्रान्त में ईस्वी पांचवी शताब्दी या उसके पहले जैनो का एक सम्प्रदाय कूर्चक नाम से था और कदम्बवशी राजानों के लेखों (१८६६ ) से शात होता है कि वह निमन्य संघ, श्वेतपट (श्वेताम्बर ) संब एवं यापनीय संघ से पृथक् था । श्रद्धय प्रेमी जो का अनुमान है कि यह कूचेक जैन साधुओं का ऐसा सम्प्रदाय होना चाहिये जो दाढ़ी-मूछ रखता हो। प्राचीनकाल म जटाधारी, शिखाधारी, मुड़िया, कूर्चक, वस्त्रधारो और नग्न आदि अनेक प्रकार के अजैन साधु ये । जान पड़ता है कि इसी तरह जैनों में भा साधुओ का ऐसा सम्प्रदाय था जो दाढ़ी-मूछ ( कूर्चक ) रखने के कारण कूर्चक' कहलाता होगा। वरागचरित्र के कर्ता जटाचार्य सिंहनन्दि सम्भव है ऐसे ही साधना में ये जिनकी जटाओं का वर्णन ( जटयः प्रचलवृत्तयः ) श्राचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में किया है। कदम्क्वंशी राजाओं के एक लेख (EL ) में इस सम्प्रदाय का यापनीय और नियों के साथ उल्लेख है। लेख में 'यापनीयनिम्रन्थकूर्चकाना' बहवचनान्त पद सूचित करता है कि यापनीय, निम्रन्थ और कूर्चक तीन पृथक् सम्प्रदाय थे। कृक सम्प्रदाय के भी कई संघ ये इससे उक्त सम्प्रदाय का लेख नं १०३ में बावचन (कुर्चकानाम्) प्रयोग किया है । यदि लेखन०६६ के कूचक पद को बहुवचनान्त मान निम्रन्थ पद को उसका विशेषण मान लें, तो कहमा होगा कि वह संघ नियन्च अर्थात् दिगम्बर सम्प्रदाय का ही एक मेद था। कदम्ब मृगेशवर्मा ने अन्य दो जैन सम्प्रदायों के समय इसे मी भूमिदान देकर सात किला था। दूसरे एक लेख (१०३ ) में इस संघ के अवान्तर वारिषेणाचार्य संघ का उल्लेख Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। साथ में लिखा है कि उक्तसंत्र के प्रधान मुनि चन्द्रक्षान्त को कदम्ब नरेश हरिवर्मा ने अपने पितृव्य शिवरथ के उपदेशसे सिंह सेनापति के पुत्र मृगेश द्वारा निर्मापित जैन मन्दिर की श्रष्टाह्निका पूजा के लिए तथा सर्व संघ के भोजन के लिए वसुन्तवाटक नामक ग्राम दान में दिया था । लेख नं० १०४ मैं हरिष्टि नामक एक और श्रमण संघ का उल्लेख है जिसे सेन्द्रक सामन्त भानुशक्ति की प्रार्थना पर कदम्ब नरेश हरिवर्मा ने मरदे नामक ग्राम दान में दिया था। उक्त संघ के प्राचार्य धर्मनन्दि को यह दान में भेंट किया गया था ताकि वे अपने अधीन चैत्यालय की पूजा आदि का प्रबन्ध कर सकें और उस दान का उपयोग साधुत्रों के लिए भी कर सकें । यद्यपि इस लेख में कूर्वक सम्प्रदाय का उल्लेख नहीं है तथापि जान पड़ता है कि वारिषेणाचार्य संघ के समान ही हरिष्टि श्रमण संघ भी कूर्चकों का एक भेद था । द्राविड़ संघ द्रविड़ देश में रहने वाले जैन साधु समुदाय का नाम द्राविड़ संघ है । इस संघ के अनेकों लेख प्रस्तुत संग्रह में है । इन लेखों में इसे द्रमिड़, द्रविड़, द्रविण, द्रविड, द्राविड, दविल, दरविल या तिबुल नाम से उल्लिखित किया गया है । नामगत ये सब भेद लेखक या उत्कीर्णक के कारण हुए प्रतीत होते हैं । द्रबिड़ देश वास्तव में वर्तमान आन्ध्र और मद्रास प्रान्त का कुछ हिस्सा है जिसे सुविधा की दृष्टि से तामिल देश भी कह सकते हैं। इस देश में जैनधर्म पहुँचने का समय बहुत प्राचीन है । उस देश के प्राचीन साधु समुदाय का कोई संघ रहा होगा । उसका क्या नाम था यह हमें मालुम नहीं पर देवसेनाचार्य ने अपने दर्शनसार में अन्य संघों के उत्पत्ति के वर्णन में द्राविड़ संघ के सम्बन्ध में लिखा है कि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि ने वि० सं० ५२६ में दक्षिण मथुरा ( मदुरा ) में द्राविड़संघ की स्थापना की । इस संघ को वहां जैनाभासों में गिनाया गया है और वज्रनन्दि के १. जैन साहित्य और इतिहास ( द्वितीय संस्करण ) पृष्ठ ५५६-५६३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय में लिखा है कि उस दुष्ट ने कछार, खेत, बसदि और वाणिज्य से जीविका निर्वाह करते हुए, शीतल जल से स्नान करते हुए प्रचुर पाप अर्जित किया ।' इस कथन में सचाई कहां तक है यह तो हम नहीं कह सकते पर इन लेखों में इस संघ के अनेक प्रतिष्ठित और विद्वान् श्राचार्यों को देखते हुए. ऐसा लगता है कि शायद संघीय विद्वेष के कारण मूलसंघ के उक्त प्राचार्य ने एक प्राचीन श्राचार्य के सम्बन्ध में ऐसी कटूक्ति कह दी हो।। इस संघ से सम्बन्धित इस संग्रह के सभी लेख ईस्वी १०-११वीं शताब्दी या उसके ही बाद के हैं। इससे पहले इसकी प्राचीनता का द्योतक शायद ही कोई लेख मिला हो, तथा दसवीं शताब्दी से पहले का ऐसा कोई ग्रन्थ भी नहीं जो इस संघ के इतिहास पर प्रकाश डाले। इस संघ के प्रायः सभी लेख कोङ्गाल्ववंशी, शान्तरवंशी तथा होय्सलवंशी राजाओं के राज्यकाल के हैं जिससे ज्ञात होता है कि उन वंशों के नरेशों का इस संघ को संरक्षण प्राप्त था । अधिकांश लेख होय्सल नरेशों के हैं। इन लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि इस संघ के प्राचार्यों ने पद्मावती देवी की पूजा एवं प्रतिष्ठा के प्रसार में बड़ा योग दिया था। इस संघ के कई लेखों में शान्तर और होय्सलवंश के आदि राजाओं द्वारा राज्य सत्ता पाने में पद्मावती के चमत्कार या प्रभाव की सहायता दिखायी गई है । लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि इस संघ के साघु बसदि या जैन मन्दिरों में रहते थे। उनका जीर्णोद्धार और अषियों को श्राहार दान, तथा भूमि, जागीर आदि का प्रबन्ध करते थे। १. सिरिपुज्जपादसोसो दाविडसंघस्स कारगो दुटो। णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्यो ॥ ५ ॥ पञ्चसए. छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स | दक्षिणमहुरा जादो दाविडसंघो महामोहो ॥ २६ ॥ कच्छं खे वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवन्तो। एहतो सीयलनीरे पावं पउरं च संचेदि ॥२७॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. इस संघ के श्रादि एवं प्राचीन कुछ लेख होम्सलों के उत्पत्ति स्थान श्रदि (सोसेदूर ) से ही प्राप्त हुए हैं। इस स्थान के एक लेख नं० १६६ ( सन् १६० के लगभग ) में इस संघ को द्रविड संघ कोण्डकुन्दान्वय, तथा दूसरे लेख नं० १७= (सन् १०४० ई० १ ) में मूलसंत्र द्रविडान्वय लिखा है । पर ई० ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के लेख नं० १८०, १८६, १६०, १६२,२०२, २१४,२१५,२१६ ओर २२६ में इसका द्रविड़ गए के रूप में नन्दिसंग इरुङ्गलान्वय या रुङ्गलान्वय के साथ उल्लेख किया गया है। इन निर्देशों से यह अनुमान होता है कि प्रारम्भ में नत्र संगठित द्रविड़ संघ ने अपना श्राधार या तो मूलसंघ को या कुन्दकुन्दान्वय को बनाया होगा पर पीछे यापनीय सम्प्रदाय के विशेष प्रभावशाली नन्दिसंघ में इस सम्प्रदाय ने अपना व्यावहारिक रूप पाने के लिए उससे विशेष सम्बन्ध रखा या द्रविड़ गए के रूप में उक्त संत्र के अन्तर्गत हो गया । पीछे यह द्रविड़ गण इतना प्रभावशाली हुआ कि उसे ही संघ का रूप दे दिया गया और साथ में कुछ लेखों ( २१३ - २१५ ) में नन्दिसंघ को नन्दिगण के रूप में निर्दिष्ट किया गया पर पीछे उसको उसी रूप ( नन्दिसंघ ) में उल्लेख किया गया है । दर्शनसार ( १० वीं शता० ) में द्रविड़ संघ को यापनीयों के साथ जो जैनाभास कहा गया है, वह संभव है, इस ओर हो संकेत कर रहा है । होटलों के उत्पत्तिस्थान अदि ( सोसेवूर ) से इस संघ के आदि एवं प्राचीन लेखों की प्राप्ति से हम अनुमान करते हैं कि इस संघ के प्रारम्भिक आचार्यों ने जैन धर्म संरक्षक होम्सल नरेशों को ऊपर उठाने में अवश्य सहायता की होगी, अथवा प्रगतिशील दोनों - राज्य एवं संघ ने एक दूसरे को बढ़ाने की कोशिश की होगी । होयसल वंश के अनेकों नरेश और सेनापति इस संघ के १. बहुत संभव है कि होय्सल वंश के समुद्धारक सुदत्तमुनि ( ४५७ ) या वर्धमान मुनि (६६७ ) लेख नं० १६६ में श्रायें त्रिकाल मौनि देव हों या विमलचन्द्राचार्य के सधर्मा कोई और मुनि हो । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त थे हालांकि उन्होंने अपनी भक्ति एवं श्रादर दूसरे जैन संघों के प्रति भी प्रदर्शित किया है । धार्मिक उदारता सचमुच में उस युग की देन थी। - इसके बाद इस नवीन संघ के एक प्रमुख प्राचार्य के रूप में वज्रपाणि पण्डित का नाम आता है । लेख नं० १७८ में इन्हें द्रविड़ान्वय मूलसंघ का तथा नं. १८५ में सूरस्थ गण का लिखा है। पिछले लेख में उनकी एक गृहस्थ शिष्या के दान का उल्लेख है । लेख नं० १७८ की शुरू की पत्तियां भग्न हैं पर 'तर्काच्चालित' श्रादि विशेषणों से प्रतीत होता है कि थे बड़े तार्किक थे। ये होय्सल नरेश राचमल्ल भूपाल ( नृपकाम ) के गुरु थे और इन्होंने होयसलों के उत्पत्तिस्थान सोसेवर में अपना जीवन बिता कर संन्यास मरण किया था । लेख में यद्यपि काल निर्देश नहीं है फिर भी उनका समय द्रविड़ संघ का प्रथम साहित्यिक उल्लेख करने वाले ग्रन्थ दर्शनसार और होयसल नृपकाल के समय के आसपास होना चाहिये। देवसेनाचार्य के दर्शनसार में जिस वज्रनन्दि का वर्णन किया गया है और उनके द्वारा प्रवृत्त जिस शिथिलाचार की अोर संकेत किया गया है, उससे प्रतीत होता है कि इस संघ की स्थापना देवसेन के समय (१० वीं शता० ) या उससे कुछ पूर्व हुई है । वि० सं० ५२६ के जिस वज्रनन्दि को ग्रन्थकर्ता ने शिथिलाचार फैलाने का दोषी ठहराया है, उसका उल्लेख किसी लेख या उनसे पूर्व किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता । फिर जिन कटुशब्दों द्वारा एक संघ के अनुयायी द्वारा दूसरे संघ के प्रतिष्ठापक आचार्य की भर्त्सना को गई इससे प्रनीत होता है कि वे समकालीन या कुछ ही समय पूर्ववर्ती रहे होंगे। संभव है इस लेख के वज्रपाणि ही वग्रनन्दि हों, पर इस अनुमान की पुष्टि के लिए. अभी और प्रमाणों की आवश्यकता है। वज्रपाणि पण्डित की आगे पीछे की गुरुपरम्परा का वर्णन हमें किसी लेख से प्राप्त नहीं हुआ । इसके बाद इस संब के लेखों में नन्दिसंघ के प्राचार्यों की परम्परा चलने लगती है। इस संघ के अनेकों ऐसे लेख हैं जो कि पटावली कहे जा सकते हैं पर उनमें गुरुपरम्परा का क्रम व्यवस्थित म होने से कम से कम प्राचीन प्राचार्यों के क्रम पर विश्वास नहीं किया जा सकता । अनेकों लेखों Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१३-२१४ श्रादि) में वर्धमान, एवं गौतमस्वामी के उल्लेख पूर्वक कतिपय प्रसिद्ध जैनाचार्यों का निर्देश किया गया है-जैसे कोण्डकुन्दाचार्य, भद्रबाहु, समन्तभद्रस्वामी, सिंहनन्दि, अकलंक देव, वानन्दि, पूज्यपाद स्वामी आदि । इन लेखों में यह दिखाने का प्रयत्न किया गया है कि प्रायः सभी प्रतिष्ठित प्राचीन श्राचार्य द्रविड़ संघ के नन्दिसंघ के अन्तर्गत थे। हम पहले संभावना कर चुके हैं कि नन्दि संघ द्रविड़ संघ में यापनीय संघ से आया है । नन्दिसंघ की एक प्राचीन प्राकृत पट्टावली भी है। जिसमें भगवान महावीर के बाद ६८३ वर्षों तक की परम्परा दी गई है। उसके बाद के क्रम का उल्लेख करने वाली कोई प्रामाणिक पट्टावली उपलब्ध नहीं होती । संभव है द्रविड़ संघ में श्राकर नन्दिसंघ के पश्चात्कालीन श्राचार्यों ने अपनी स्मृति से कुछ परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए लेखों में उक्त आचार्यों का निर्देश किया हो । यह निर्देश सूचित करता है कि उक्त श्राचार्य उस नन्दिसंघ के अन्तर्गत थे जो कि प्रारम्भिक शताब्दियों में यापनीय था। इस संघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ के साथ प्रत्येक लेख में अरुङ्गलान्वय का उल्लेख मिलता है। अरुङ्गलान्वय किसी स्थानविशेष की अपेक्षा सूचित करता है । अरुङ्गल नाम का स्थान भी तामिल प्रान्त के गुडियपत्तन तालुका में हैं जो कि एक प्राचीन जैन स्थान था । हम यापनीय संघ के वर्णन में देख चुके हैं कि तामिल प्रान्त में यापनीय नन्दिसंघ का अस्तित्व पूर्वीय चालुक्यों के राज्य में था। द्रविड़ संघ, नन्दिसघ, अरुजालान्वय इन तीनों शब्दों का एकत्र प्रयोग हमें निःसन्देह सूचित करता है कि वह तामिल प्रान्त का नन्दिसंघ था जो कि अरुङ्गल स्थान से उदभूत हुआ था। इससे अब हमें यह कहने में संकोच न होना चाहिये कि तामिल प्रान्त के यापनीयों के नन्दिसंघ से ही द्रविड़ सघ के नन्दिसंघ को उत्तराधिकार मिला था । १. पखंडागम, पुस्तक १, पृ० २४-२७। संभव है यह पट्टावली प्राचीन याप नीय नन्दिसंघ की हो। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ '' ११-१२ वीं शताब्दी में इस संघ के मुनियों की गद्दियाँ कोङ्गाल्व राज्य के मुल्लूर तथा शान्तर राजाओं की राजधानी हुम्मच में थीं। हुम्मच से प्राप्त लेख नं० २१३-२१६ में इस संघ के अनेकों श्राचार्यों का परिचय मिलता है । इनमें श्रेयांस पण्डित, उनके सधर्मा कमलभद्र और वादीभसिंह जितसेन पण्डित के पूर्ववर्ती और समकालीन प्राचार्यों की परम्परा दी गई है। जो इस प्रकार है: मौनिदेव 1 विमलचन्द्र भट्टारक 1 कनकसेन वादिराज ( हेमसेन ) दयापाल पुष्पसेन (रूपसिद्धि के कर्ता) | गुणसेन श्रेयांसदेव श्रनितसेन कुमारसेन ( वादीभसिंह ) इनमें मौनिदेव और विमलचन्द्र भट्टारक वे ही मालुम होते हैं जिनका उल्लेख गदि से प्राप्त लेख नं० १६६ ( लगभग ६६० ई० ) में द्रविड़ संघ कुन्दकुन्दान्वय के प्राचार्य के रूप में किया गया गया है। शायद ये ही द्रविड़ संघ के श्रादि प्रवर्तक श्राचार्य रहे हों । कनकसेन वादिराज का दूसरा नाम लेख नं० २१३ और २१५ में हेमसेन दिया गया है । संस्कृत में कनक और हेम का अर्थ भी एक होता है। गुरु के रूप में कहा गया है। इन्हें श्रीविजय, वादिराज, दयापाल यादि के वादिराज की उपाधियाँ षट्तर्कभयमुख श्रीर वादिराज श्रीविजय ( पण्डित पारिजात ) ( षट्तर्कपरमुख, जगदेकमल्लवादि ) कमलभद्र Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह 1 जगदेकमल्लवादी थीं । वादिराज भी हमें एक उपाधि मालुम होती है, क्योंकि लेख नं० ३४७ में इनका असली नाम श्री वर्धमान जगदेकमल्ल वादिराज दिया गया है । इनके धर्मा रूपसिद्धि नामक व्याकरण ग्रन्थ के कर्ता दयापाल थे । मलिषेण प्रशस्ति ( २६०, प्रथम भाग ५४ ) में उपर्युक्त पट्टावली के अनेकों श्राचायों का उल्लेख तथा प्रशंसावाक्य दिये गये हैं । उसमें वादिराज के गुरु का नाम मतिसागर दिया गया है और दयापाल को उनका धर्मा माना गया है। उसी प्रशस्ति के ३५ वें पद्म में मतिसागर की प्रशंसा के बाद ३६-३७ पद्य में हेमसेन मुनि की प्रशंसा की गई है, पर दोनों श्राचार्यो का कोई सम्बन्ध नहीं बतलाया गया। हेमसेन तो निःसन्देह हुम्मच के उक्त दोनों लेखों के कनकसेन वादिरान ( हेमसेन ) ही हैं। पर मतिसागर भी थे, यह बात हमें उनकी षट्तर्कपरमुख प्रतिभा के न्यायशास्त्र के ग्रन्थ न्यायविनिश्चयविवरण की प्रशस्ति से लेखों से यह सिद्ध होता है कि मतिसागर और हेमसेन ( कनकसेन ) दो व्यक्ति थे । संभव है एक तो वादिराज के दीक्षागुरु और दूसरे विद्यागुरु रहे हों। हमारे इस श्राशय का समर्थन न्यायविनिश्चय विवरण की प्रशस्ति के दूसरे पद्य से भी होता है जहाँ श्लेषात्मक ढंग से बिनेन्द्र की स्तुति करते हुए वादिराज ने 'सन्मतिसागरकनकसेनाराध्यम्' लिखा है । वादिराज बड़े ही विद्वान्, लेखक एवं वादी आचार्य थे। इन्हें चालुक्य नरेश जयसिंह तृतीय जगदेकमल्ल ( सन् १०१६१०४४ ) ने जगदेकमल्लवादि नामक उपाधि दी थी ( २६० पद्य ४२, प्रथम भाग ५४ ) । लेख नं० २१५ में इन्हें अकलंक, धर्मकीर्ति और अक्षपाद के प्रतिनिधिरूप माना गया है । वादिराज के गुरु परिचायक उनके मालुम होती है । वादिराज के अन्य धर्माश्रों में पुष्पसेन और श्रीविजय पण्डित थे । पुष्पसेन हमें वे ही प्रतीत होते हैं जिनकी पादुकाओं की स्थापना का स्मारक लेख नं० १७७ (सन् १०३० के लगभग ) में है । इनके शिष्य का नाम गुणसेन था जिनके कई लेख मुल्लूर से प्राप्त हुए हैं। ये कोङ्गाल्व नरेश राजेन्द्र चोल के कुलगुरु थे ( १८८-१६२ ) । लेख नं० २०१ में इन्हें पोम्सलाचारि लिखा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. है जिससे जात होता है कि इनका प्रभाव होयसल राजाओं पर भी था । लेख नं० २०२ ( सन् १०६४ ई०) इनके समाधिमरण का स्मारक है और उन्हें विलगण, नन्दिसंघ, अरुमालान्वय का नाथ तथा अनेक शास्त्रों का वेत्ता लिखा है। लेख नं० १७७ और लेख नं० २०२ में अंकित वर्षों से ज्ञात होता है कि वे ३४ वर्षों ( १०३० ई०-१०६४ ई० ) तक बराबर जिनशासन की प्रभावना करते रहे । हुम्मच के लेख नं० २१३ में इनका नाम वादिराज के बाद की पीढ़ी के प्राचार्यो में दिया गया है और मल्लिषेण प्रशस्ति के पद्य ५३ में इनकी प्रशंसा की गयी है। श्रीविजय पण्डित के सम्बन्ध में लेख नं० २१३ से विदित होता है कि वे अनेक प्रतिष्ठित प्राचार्यों के गुरु थे। उनका दूसरा नाम वोडेयदेव या अोडेयदेव था जो कि तियंगुडि के निडुम्बरे तीर्थ, अरुङ्गलान्वय, नन्दिगण के अधीश्वर थे। इन्हें तामिल प्रान्त ( तामेल्लरु ) से सम्बन्धित बताया गया है (२१४ ) पर इनका अधिक समय हुम्मच में बीता था ऐसा उक्त स्थान से प्राप्त लेखों से मालुम होता है । इनके गृहस्थ शिष्यों में ननि शान्तर एवं प्रसिद्ध जैन महिला चट्टलदेवी प्रमुख थे। श्रीविजय के शिष्यों में श्रेयांसदेव को लेख नं० २१३ में उर्वोतिलक जिनालय का प्रतिष्ठापक लिखा है। दूसरे शिष्य कमलभद्र लेख नं० २१४ और २१६ के अनुसार भुजबल शान्तर आदि तथा चट्टल देवी द्वारा सम्मानित थे। तीसरे शिष्य अजितसेन' बड़े ही विद्वान् थे। उनकी कई उपाधियाँ थीं-जैसे शन्द १. कुछ विद्वान् इन अजितसेन वादीभसिंह का गवचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि के कर्ता बादीभसिंह अजितसेन से साम्य स्थापित करते है, पर यह ठीक नहीं क्योंकि अन्यकर्ता अजितसेन के गुरु का नाम पुष्पसेन था। इस लेख के अजितसेन के गुरु सधर्मा एक पुष्पसेन अवश्य थे पर वे अन्यकर्ता अजितसेन के गुरु थे यह लेखो से नहीं ज्ञात होता । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्मुख, तार्किकचक्रवर्ती एवं वादीमसिंह ( २१४)। लेख नं० २४८ में इन्हें वादिषरट, तार्किक चक्रवर्ती, एवं वादीभपञ्चानन कहा गया है। ये विक्रम शान्तर द्वारा पूजित थे। उसने पञ्चवसदि जिनालय के लिए इन्हें प्रामादि भेंट में दिये थे ( २२६ ) । पोछे विक्रम शान्तर के पुत्र त्रिभुवनमल्ल शान्तर ने अपनी दादी की स्मृति में इन्हीं गुरु का स्मरण कर एक मन्दिर का शिलान्यास किया था ( २४८)। इन मुनि के अन्तिम समय का स्मारक लेख नं० १३२ है जिसका समय लगभग १०६० ई० दिया गया है । लेख नं० २१४ में इनके सधर्मा मुनि कुमारसेन का नाम दिया गया है जो कि वैद्यगजकेशरी थे। लेख नं० २१३ में इनके समकालीन शान्तिदेव और दयापाल नामक दो मुनियों का उल्लेख है । शान्तिदेव के सम्बन्ध में मलिषेण प्रशस्ति में लिखा है कि इनके पवित्र पादकमलों की पूजा होय्सल विनयादित्य द्वितीय ( सन् १०४७ से, ११०० ई० ) करता था । लेख नं० २०० से भी यह बात समर्थित होती है । इस लेख के अनुसार सन् १०६२ में इनकी मृत्यु के उपलक्ष्य में एक स्मारक खड़ा किया गया था। दयापाल के सम्बन्ध में मलिषेण प्रशस्ति में केवल प्रशंसा पद दिये गये है। हुम्मच के लेखों से प्राप्त इतिवृत्त के बाद इस संग्रह के अनेकों लेखों से जो संघ की प्राचार्यपरम्परा ज्ञात होती है वह इस प्रकार है १-इस सग्रह के अन्य लेख है-२६४, २६५, २७४, २८७, २८८, २६० ३०५, ३१६, ३२६, ३२७, ३४७, ३५१, ३७३, ३७५, ३७६, ३८०, ४१०, ४२५ और ४६६. . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .कनकसेन वादिराज ( हेमसेन) दयापाल पुष्पसन - वादिराज श्रीविजय (श्रोडयदेव) ( वर्धमान जगदेकमल्ल • वादिराज ले० नं० ३४७) । कमलमद्र (वादीम सिंह) पद्मनाभ मल्लिषेण मलधारी (११२८ ई.) शान्तिनाथ (ले० नं० २६०) (ले० नं० २६.०, ३१६) श्रीपाल चन्द्रप्रभ (ले० नं० ३५१ ) वादिराज (ले० नं. ५०३) वासुपूज्य (सन् ११६०-११७३ ई०) पुष्पसेन (ले० नं० ५०३ सन् १२५६ ई.) वृषभनाथ मल्लिषेण पण्डित (ले० नं० ३४७) (ले० नं० ३७३) (सन् ११५८ ई० ) ' मूलसंघ के गण, गच्छ एवं अन्वय हम पहले लिख चुके हैं कि यापनीय और द्रविड संघ के वर्णन के बाद मूलसंघ के गण गच्छादि का लेखों से प्राप्त होने वाले वाला परिचय देंगे। इसके सम्बन्ध में ११ वीं शताब्दी के प्राचार्य इन्द्रनन्दि के श्रु वावतार में और उसके Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत संग्रह में देशियगण से संबन्धित ६५-७० लेख हैं पर कुछ ऐसे लेख हैं जिनसे ७-८ श्राचायों का एक गुरुवंश बन सकता है और कुछ से गण की विभिन्न पट्टावलियां । लेखों के पर्यालोडन से विदित होता है कि कर्नाटक प्रान्त के कई स्थानों में इस गण के केन्द्र थे। उन स्थानों में इनसोगे ( चिक हनसोगे ) प्रमुख था । यहाँ के श्राचार्यों से ही पीछे इस गया की इनसोगे बलि या गच्छ निकले हैं। गच्छ का साधारण अर्थ होता है शाखा और बलि ( कन्नड शब्द वलय या क्लग) का अर्थ होता है परिवार = श्राभ्यात्मिक परिवार या समुदाय । चिक इनसोगे से प्राप्त लेख नं० १७५, १६५, १६६ और २२३ से विक्ति होता है कि यहाँ इस गया की अनेक बसदियाँ (मन्दिर) थीं, जिन्हें चाल्व नरेशों द्वारा संरक्षण प्राप्त था । इनसोगे ( पनसोगे ) बलि या गच्छ के श्राचार्यों की लेख नं० २२३, २३२, २३६, २४१, २५३, २६६, २८४ एवं २८५ कीसहायता से प्राप्त एक परम्परा अगले पृष्ठ पर दी गई है। इसका बहुत कुछ समर्थन धवला के अन्त में दी गई श्राचार्य शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव की ग्रन्थप्रशस्ति से भी होता है ' । लेखों से प्राप्त इस गुरुपरम्परा में और प्रशस्ति में दी गई परम्परा में कुछ अन्तर है। प्रशस्ति में गुरुवंश कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छ और बलाकपिच्छ से चला है और इस परम्परा के पूर्णचन्द्र को देशिय गण के प्रतिष्ठापक देवेन्द्र सिद्धान्त से जोड़ने का प्रयत्न हुआ है। उनके बीच में वसुनन्दि और रविचन्द्र सिद्धान्तदेव नामक दो श्राचार्यों का नाम दिया गया है। देवेन्द्र सिद्धान्त के पहले गुणनन्दि पण्डित का नाम भी रखा गया है। मालुम होता है कि प्रशस्ति के श्राधार १२वीं शताब्दी के द्वितीय, तृतीय दशकों के लेख ( २५५, २८४ आदि ) रहे होंगे । प्रति के तथा श्रन्य लेखों के द्वितीय शुभचन्द्र सिद्धान्त देव प्रसिद्ध सेनापति गंगराज के गुरु थे । १. घटखण्डागम, पुस्तक पृष्ठ ७-१० । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दामनन्दि पूर्णचन्द्र I दामणन्दि I श्रीधर I मलधारिदेव (एलाचार्य) चन्द्रकीर्ति I दिवाकरणन्दि 赋 जयकीर्ति ( चान्द्रायणीदेव) शुभचन्द्र (सन् १९०१३ में स्वर्गवास ले० नं० २३२ ) T कुक्कुटासन मलधारि ( गण्डविमुक्त ) 1 शुभचन्द्र (सन् १९२३ में स्वर्गवास, लेख नं० २८५, प्र० भा० ४३ ) बलि है जिसके श्राचार्य ५७१ आदि ) । इस इस गण की एक और शाखा का नाम इंगुलेश्वर गण प्राय: कोल्हापुर के श्रास पास रहते थे ( ४११ एवं से सम्बन्धित अनेकों लेख ( ४११, ४६५, ५१४, ५२१, ५२४, ५२८, ५७१, ५८४, ५ε६, ६००, ६२५ और ६७३ ) हैं पर इन लेखों से इस गण की ठीक गुरुपरम्परा नहीं दी जा सकती । १२-१३ वीं शताब्दी के लेखों में माघनन्दि श्राचार्य का नाम प्रथम दिया गया है ( ४१९, ४६५, ५१४ आदि ) । १४ बी१५ वीं शताब्दी लेखों में श्रभयचन्द्र और उसके शिष्य श्रुतमुनि का नाम शा जाता है तथा १६ वीं शताब्दी के लेखों में चारुकीर्ति का नाम । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re लेख ४७८ में इस गए की एक बाणद बलिय का नाम दिया गया है । इस गण का प्रसिद्ध एवं प्रमुख गच्छ पुस्तक गच्छ है। जिसका कि उल्लेख अधिकांश लेखों में है। इसी गच्छ का दूसरा नाम वक्रगच्छ है ( २५६, प्रथम भा० ५५ और ४२६ ) । नन्दिगणः -- मूलसंघ, कोण्ड कुन्दावय, देशियगण, पुस्तक गच्छ से सम्बन्धित तथा सन् १९११५ से ११७६ ई० के बीच के श्रवणवेल्गोल से प्राप्त लेख नं० २५५ (४७) २८५ (४३) ३३२ (५०) ३६२ (४०) और ३८८ (४२) में श्राचार्यो की कई पट्टावलियां दी गई हैं। इनमें बीच या श्रन्त में प्राचार्यों के साथ मूलसंघ देशियगण आदि लिखा है पर आदि में दो चार मंगलाचरण के श्लोकों के बाद केवल नन्दिगण का उल्लेख कर एक सामान्य परम्परा दी गई है जो इस प्रकार है: पद्मनन्दि ( कोण्डकुन्द ) उनके अन्य में | उमास्वाति ( युद्धपिच्छ ) | बलाकपिच्छ 1 गुणनन्दि } देवेन्द्र सैद्धान्तिक कलधौतनन्दि लेख नं० ३६२ की थोड़ी विशेषता यह है कि बलाकपिच्छ के बाद समन्तभद्र, देवमन्दि ( पूज्यपाद ) और अकलंक का नाम दिया गया है। इनमें गुणानन्दि, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YO . देवेन्द्र सिद्धान्त श्रादिदेशियमण की परम्परा से सम्बन्धित है यह हम पहले देख चुके हैं पर उनके पहले के कोड कुन्दाचार्य, उमास्वाति, समन्तभद्र श्रादि श्राचार्यो के नाम द्रविड संघ से सम्बन्धित नन्दिगण के ११ वीं शताब्दी के लेखों ( २१३, २९४,२८७ आदि) में भी दिखाई देते हैं। इस तरह मूलसंघ और द्रविडसंघ के लेखों में नन्दिगरा के प्राचीन श्राचार्यों के प्रायः एक से नामों को देखकर ऐसा लगता है कि इन दोनों संघों में कोई प्राचीन नन्दिगण ( संघ ) बाहर से शामिल किया गया होगा, तथा ये सब श्राचार्य उसी गए के रहे होंगे और इस विषय में हम संकेत भी कर आये हैं कि यापनीय संघ के नन्दिसघ को ही द्रविड संघ और मूलसंघ ने अपनाया था । यापनीय संघ के साथ नन्दिसंघ के प्रगट या गट रूप से किये गये कतिपय उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि यापनीयों में नन्दिसंघ महत्त्वपूर्ण था ( १०६, १२१, १२४, १४३) । प्राकृत भाषा में नन्दिसंत्र की जो प्राचीन पट्टावली उपलब्ध है वह संभव है इसी संघ की थी । उसमें वीर निर्वाण सं० ६८३ तक की वंशपरम्परा दी गई है । संस्कृत में नन्दिसंत्र की एक और पट्टावली उपलब्ध है पर वह मूलसंघ के पश्चात्कालोन श्राचार्यों की है उसका प्राकृत पट्टावलि से कोई सम्बन्ध नहीं । इस सम्भावना के बाद उपर्युक्त मूलसंघ के लेखों में जो पट्टावलियाँ दी गई हैं। उन पर हम संक्षिप्त में कह देना चाहते हैं कि लेख नं० २५५ (४७) और ३२२ (५०) में प्राय: एकसी गुरुपरम्परा दी गई है पर वह कलधौतनन्दि के बाद देशिय गण के उपर्युक्त निर्दिष्ट अन्य लेखों से नहीं मिलती। लेख नं० ३६२ (४०) में देशिय गण को नन्दि गण का प्रभेद कहा गया है और उसमें जो पट्टावली दी गई है वह जैन शिलालेखसंग्रह के प्रथम भाग की भूमिका के पृष्ठ सं० १३२ में प्रति है । लेख नं० २८५ (४३) में कलधौतनन्दि एवं रविचन्द्र के बाद जो गुरुपरम्परा मिलती है वह देशिय गण इनसोगे बलि की पट्टा १. षट्खण्डागम, पुस्तक १, पृष्ठ २४-२७ २. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४ पृष्ठ ७१, ८१. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.८ बनी ये हमने जो दी है वही है। लेखनं. ३८८ (४२) में इनसोने बलि के मलपारि देव के बाद एक दूसरी गुरुपरम्पस दी गई है जो उक लेख से जान लेना चाहिये। इसके बाद लेख नं. ५६६ (१०५, १४वीं शताब्दी) और ६२५ (१०८, १५ वीं शताब्दी) में नन्दिगण को चन्दिसंघ कहा गया है और उसे मूलसंघ के अर्थ में प्रयुक्त किया है। इन दोनों लेखों में सेन, नन्दि, देव और सिंह संघों का एक काल्पनिक इतिहास दिया गया है। लेख नं० १०५ के ऐतिहासिक महत्त्व के लिए प्रथम भाग की भूमिका के पृष्ठ १२४-१२७ देखें । ये दोनों लेख एक सुन्दर काव्य कहे जा सकते हैं। सूरस्थगण:-मूलसंघ का एक गण सूरस्थ गण नाम से प्रसिद्ध था यह लेख नं० १८५ २३४, २६६, ३१८,४६. और ५४१ से ज्ञात होता है । लेखों में इसका रस्त, सुराष्ट्र एवं सूरस्थ नाम से उल्लेख है। इन लेखों में इसके अन्वय गच्छ आदि का निर्देश नहीं है पर इस संग्रह के बाहर के कुछ लेखों से ज्ञात होता है कि इसमें चित्रकूट अन्वय या गच्छ था'। सूरस्थ एवं सूरस्त नाम कैसे पड़े यह कहना कठिन है । सुराष्ट्र नाम से प्रतीत होता है कि इस गण के साधु शुरू में सुराष्ट्र देश में रहते रहे होंगे, पर सुराष्ट्र का प्राकृत या अपभ्रंश रूप तो सुद्ध होता है सूरस्थ नहीं। संभव है उत्कीर्णक ने सुरटू का पुनः संस्कृत रूप देने के प्रयत्न में सूरस्थ कर दिया हो पर यह भी एक दो लेख में सम्भव था सब में नहीं । इस तरह सूरस्थ गण की व्युत्पत्ति अब भी भ्रान्त है । हो सकता है कि कोई सूरस्त नाम का दक्षिण भारत में क्षेत्र हो जहाँ से इस गण के मुनियों ने अपना नाम ग्रहण किया हो । पुरस्थ गण का सर्वप्रथम उल्लेख सन् १६४ के एक जैन लेख में मिलता है। कहा जाता है कि सूरस्थ गण प्रारम्भ में मूल संघ के सेनगण से सम्बन्धित था। १. जैन एन्थक्वेरी, भाग ११, अंक २, पृष्ठ ६३, ६५ २. जैनिज्म इन साउथ इण्डिया, लेख नं. ४६ पृष्ठ ३१७-३४ (जीवराव प्रन्थमाला सोलापुर) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ इसके बाद प्रस्तुत संग्रह के ११ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के लेख नं० १८१ में इसका उल्लेख है वहाँ यह मूलसंघ के साथ द्रविड़ान्वय से युक्त है। इस पर हम अनुमान करते हैं कि द्रविड़ संघ के आदि गठन काल में, संभव है, इस गद्य के साधुओं ने भाग लिया हो या उस संघ के साधुगण मूलसंघ सूरस्थ गम में सम्मिलित रहे हों । इस गण के लेख, ११ वीं के पूर्वार्ध से लेकर १३ वीं शता० के अन्त तक के मिलते हैं। सभी लेख छोटे हैं केवल लेख नं २६६ को छोड़कर । इसमें सौभाग्य से इस गण की एक छोटी पट्टावली दी गई है जो इस प्रकार है:अनन्तवीर्य, बालचन्द्र, प्रभाचन्द्र कल्नेलेय देव ( रामचन्द्र ), श्रष्टोपवासि, मनन्दि, विनयनन्दि, एकवीर और उनके सधर्मा पल्लापण्डित ( श्रभिमानदानिक ) । लेख में पल पण्डित की बड़ी प्रशंसा है। इनका समय सन् १९१८ ई० (२६६) दिया गया है। इस गण के किसी भी लेख में कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख नहीं है। संभव है यह गण मूलसंघ की प्रभावशालिनी कुन्दकुन्दान्वय धारा में स्थान न पाने के कारण पिछली शताब्दियों में अपनी स्थिति को न सम्हाल सका हो । क्रापूर गण: - क्राणूर गण के सम्बन्ध में यापनीय संघ के विवेचन में हम संभावना प्रकट कर श्राये हैं कि क्राणूर गण यापनीयों के कएडूर गण के नाम का शब्दानुकरण है। कण्डूर या क्राणूर दोनों किसी स्थान विशेष को सूचित करते हैं जहाँ से कि उक्त गण के साधु समुदाय ने नाम ग्रहण किया है। इस गण के ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध (२०७, सन् १०७४ ई० ) से लेकर १४ वीं शताब्दी के अन्त तक लेख मिलते हैं । इस संग्रह में १७-१८ लेख इस गण से सम्बन्धित हैं जिनसे मालुम होता है कि इसमें प्रसिद्ध दो गच्छ थे- मेत्रपाषाण गच्छ (२१६, २६७, २७७, २६६, ३५३ ) तथा तिन्त्रिणोक गच्छ (२०६, २६३, ३१३, ३७७, ३६६, ४०८, ४३१, ४५६, ५८२ ) । मेषपाषाण का अर्थ है मेषों के बैठने का पाषाण । यह कोई स्थल विशेष होना चाहिए जहाँ से इस गण के के साधुओं का शुरू शुरू में सम्बन्ध रहा होगा । तिन्त्रिक एक वृक्ष का नाम है । ये पाषाणान्त और वृक्ष परक नाम इस गया के यापनीय संघ के साथ पूर्व सम्बन्ध Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की.स्मृति दिलाते हैं। लेख नं० २६७, २७७ और २९E से मेवपाषाणगच्छ की इस प्रकार गुरुपरम्परा प्राप्त होती है ( तिथिक्रम के अनुसार लेख नं० २६६ (पुरले ) को सबसे पहले होना चाहिए)। सिंहनन्दि श्रादि अनेकों प्राचार्यों के नाम बिना किसी सम्बन्ध को दिखाये बालचन्द्र प्रभाचन्द्र गुणनन्दि गुणचन्द्र मापनन्दि प्रभाचन्द्र अनन्तवीर्य मुनिचन्द्र (२६७) शुभकीर्ति (२६७) बुधचन्द्र (२७७) भुतकीर्ति कनकनन्दि कनकचन्द्र माधवचन्द्र बालचन्द्र बहाचार्य (२७७, २६९) १. सापनीयों में श्रीमूलमूलगन पुलागवृक्षमुलगा तथा कनकोपल (कनकपाषाण) श्रादि मण थे । गण एवं गच्छ पीछे एकार्य में भी प्रयुक्त हुए है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ इन लेखों में मक्षसंव कुन्दकुन्दान्वय के नाथ स्वरूप सिंहनन्दि प्राचार्य का उल्लेख है जिन्हें. गंग महीमण्डलिककुलसंवरण या समुदरण कहा गया है। लेख नं २७७ में बहबलि, बेट्टव-दामनन्दि भट्टारक, बालचन्द्र भट्टारक, मेषचन्द्र अविद्य श्रादि प्राचार्यों के नाम बिना किसी सम्बन्ध बताये दिए गये हैं। इन लेखों से ज्ञात होता है कि ११-१२ वीं शताब्दी के गंगनरेश मुबबल गंग बर्मदेव उसकी रानी गंग महादेवी तथा चार पुत्र मारसिंग, नन्निय गंग, रक्कत गंग और भुजबल गंग चौथो और पांचवी पीढ़ी के. प्राचार्यों के मक्तये और उन्हें दानादि से सम्मानित किया था। क्राणूर गण के तिन्त्रिणीक गच्छ की प्राचार्य परम्परा लेख नं० ३१३,३७७ ३८६, ४०८ और ४३१ से इस प्रकार मालुम होती है। रामणन्दि पद्मणन्दि मुनिचन्द्र भानु कीर्ति कुल भूषण (४३१) नयकीर्ति (४०८) संकल चन्द्र (..) इनमें मुनिचन्द्र और उनके शिष्य की लेखों में बड़ी प्रशंसा है । वे . कल्याणी के चालुक्यों के अधीन सामन्तों के गुरु थे । भानुकीर्ति यंत्र, तंत्र, मंत्र में प्रवीण थे। वे बन्दखिकापुर के अधिपति थे.( ३७७) तथा मसालाचार्य कहलाते थे और इस पद पर करीब ४० वर्ष तक रहे( ३१३, ४०८)। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ मूलसंघ के देशिय गया और क्राणूर यथ की अपनी बसदियां होती थीं और उन दोनों में वास्तविक मेद था यह बात हमें दडिंग से प्राप्त एक लेख से मालुम होती है जिसमें लिखा है कि होटल सेनापति मरियाने और भरत ने दडिगणफेरे स्थान में पाँच बसदियां बनवायी थीं उनमें चार तो देशिय गण के लिए और एक कारणूर गया के लिए ' । १४वीं शताब्दी के बाद क्राणूर गया का प्रभाव खाली भट्टारकों के श्रागे क्षीण हो गया। इसके बाद मिलते हैं । बलात्कार गण के प्रभावइसके विरले ही उल्लेख → बलात्कार गण: - इस गण के सम्बन्ध में हम कह चुके हैं कि नामसाम्य को देखते हुए यह यापनीयों के बलिहारि या बलगार गण से निकला है । बलिहारि और बलगार, सम्भव है, स्थान विशेष के सूचक हैं पर उससे निकले बलात्कार शब्द से ऐसा सूचित नहीं होता । बलात्कार शब्द का अर्थ पोछे १६ व शताब्दी के विद्वानों ने बतलाया है कि : चूंकि इस गण के श्रीदि नायक पद्मनन्दि श्राचार्य ने सरस्वती को बलात्कार से बुलाया था इसलिए बलात्कार गण और सरस्वती गच्छ नाम प्रसिद्ध हुआ । जो हो, लेखों से बलात्कार के इस की कोई सूचना नहीं मिलती । 3 बलात्कार गण का सर्व प्रथम नाम ले० लगभग ) में मिलता है जिसमें इस गण के और उनके शिष्य अनन्तकीर्ति का उल्लेख है । में इस गण के कुछ मुनियों की परम्परा दी गई है जो निम्न प्रकार है: नं० २०८ (सन् १०७५ ई० के चित्रकूटाम्नाय के मुनि मुनिचन्द्र लेख २२७ (सन् १०८७ ई० ) 1 नं० ५८ १. जैन एसटीक्वेरी माग ६, अंक २, पृ० ६६, २. दक्षिण भारत में चलनार नामक एक गांव था (मेडीयल जैनिज्म, पृष्ठ २२७ ) ३. जैन साहित्य और इतिहास ( प्र० सं० ) ट ३४३ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनन्दि मीधर भुतकीर्ति वासुपूज्य नेमिचन्द्र लेख के अन्त में गम का नाम बालक्कार गण दिया गया है । इसके बाद शेख नं० २४६ और ४४४ में इस गण के मुनि कुमुदचन्द्र भट्टारक व कुमुदेन्दु का नाम तथा उन्हें कुछ सेट्टियों द्वारा दान का उल्लेख है। लेखों में कोई समय नहीं दिया गया। इसके बाद चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक इस गण के कोई लेख नहीं है । चौदहवीं शता० के उत्तरार्ध के लेखों से इस गण का विशेष प्रभाव योतित होता है। विजयनगर साम्राज्य के नरेश इनका सम्मान करते थे। लेख नं. ५६६ में वीर बुक्कराय के राज्यकाल में इस गण के एक अग्रणी प्राचार्य सिंहनन्दि का उल्लेख है। उनकी उपाधियाँ-राय, राजगुरु तया मण्डलाचार्य थीं। उक्त लेख उनकी गृहस्व शिष्या का समाधिमरण स्मारक है। लेख नं० ५७२ ( प्रथम भाग १११ ) और ५८५ में इस गण की निम्न प्रकार की परम्परा मिलती है : कीर्ति (वनवासि के) देवेन्द्र विशालकीति शुभकीर्ति देव भट्टारक धर्मभूषण (प्रथम) अमरकीर्ति प्राचार्य धर्मभूषण (द्वितीय) सिंहनन्दि वर्षमान स्वामी (सिंहनन्दि के चरणसेवक) धर्मभूषण ( तृतीय) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख नं० ५८५ बड़े महत्त्व का है। इसमें मूलसंघ के साथ नन्दिसंघ का तथा बलात्कार गण के सारस्वत गच्छ का उल्लेख है । साथ ही इस गण के प्रादि प्राचार्य के रूप में पद्मनन्दि को लिखा है और उनके कुन्दकुन्द, वक्र श्रीव, एलाचार्य, ग्भ्रपिच्छ नाम दिए हैं। हमें लेखों से इस परम्परा के प्राचार्य अमरकीर्ति तक केवल प्रशंसा के अतिरिक्त विशेष कुछ नहीं मालुम होता है। लेखन० ५७२ ( सन् १३७२ ) से धर्मभूषण द्वितीय की । उनके शिष्य वर्धमान मुनि द्वारा निषद्या निर्माण का उल्लेख है । लेख नं० ५८५ में सिंहनन्दि आचार्य को सेनापति इरुगप का गुरु लिखा है। ये सिंहनन्दि वे ही प्रतीत होते हैं जिनका उल्लेख हमें लेख नं० ५६६ में मिला है। धर्मभूषण तृतीय का कुछ विद्वान् वर्तमान न्यायदीपिका ग्रंथ के कर्ता से साम्य स्थापित करते हैं। ये विजयनगर सबाट देवराय के गुरु थे, यह बात हमें लेख नं. ६६७ के एक श्लोक से विदित होती है। देवराय प्रथम का समय सन् १४०६ ई० से १४२२ तक है। लेख में धर्मभूषण तृतीय का समय सन् १३८६ दिया गया है जो संभव है उनके पट्टारोहण के आस पास का समय हो। लेख नं० ६६७ ( सन् १५५४ के लगभग ) और ६६१ (सन् १६०८ ई०) में इस गण की एक गुरुपरम्परा इस प्रकार दी गई: सिंहकीर्ति मेरुनन्दि, वर्धमान आदि विशालकीर्ति ( सन् १४६७-१५५४ ई.) विद्यानन्द ( सन् १५०२-१५३० ई.) देवेन्द्रकीर्ति ( सन् १५३०-१५५० ई) विशालकीर्ति द्वितीय ( सन् १५५०-१६०८ ई.) १. ५० दरबारीलाल न्यायाचार्य, न्यायदीपिका, प्रस्तावना, पृष्ट ६२-२६ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखन०६६७ में जैनधर्म की प्रभावना करने वाले अनेकों प्राचार्यों का नाम शुरू में दिया गया है जो कि विभिन्न संघों एवं गणों से सम्बन्धित हैं। सिंहकीर्ति से पहले धर्मभूषण तृतीय का भी उल्लेख है पर उन दोनों के बीच कोई सम्बन्ध का निर्देश नहीं है। हो सकता है कि ये सिंहकीर्ति, धर्मभूषण तृतीय से जुदी किसी और गुरुपरम्परा के हों। उन्होंने दिल्ली के बादशाह मुहम्मद सुरित्राण की सभा में बौद्धादि वादियों को जीता था । इस बादशाह का समय सन् १३२६ से १३३७ तक था। मेरुनन्दि आदि के विषय में हमें कुछ नहीं मालुम । विशाल कीर्ति ने विजयनगर नरेश विरूपाक्ष के दरबार में विजय पत्र प्राप्त किया था तथा सिकन्दर सुरित्राण ( सुल्तान सिकन्दर सूर सन् १५५४ ई.) के दरवार में विरोधियों को जीता था। इससे विशालकीर्ति का ८०-६० वर्ष का दीर्घ जीवन मालुम होता है। विद्यानंद की उपाधि वादी थी इन्होंने अनेकों दरबारों में विरोधियों को वाद में परास्त किया था। इनकी अनेक यशस्वी विजयों का वर्णन लेख में दिया गया है। इसी तरह उनके शिष्य देवेन्द्रकीर्ति थे | लेख में तिथिका निर्देश नहीं है तथा वर्णन व्यतिक्रम से प्राचार्यपरम्परा ठीक नहीं मालुम हो पाती। लेख नं० ६१७ में उत्तर भारत में बलात्कार गण के मदसारद गच्छ की गुरुपरम्परा दी गई है वह निम्न प्रकार है धर्म चन्द्र रत्न कीर्ति प्रभा चन्द्र पद्मनन्दि शुभचन्द्र १. जैन एन्टोक्वेरी भाग ४ पृ०१-२१ तथा मेमेवल जैनिज्म, पृष्ठ ३७१-३७५ । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ इसी तरह लेख नं० ७०२ में पश्चिम भारत के बलात्कार गण सरस्वती गच्छ कुन्दकुन्दान्वय की भट्टारक परम्परा दी गई है जो इस प्रकार है-सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति, तानभूषण, विजयकीर्ति, शुभचंद्र, सुमतिकीर्ति, गुणकीर्ति, वादिभूषण, समकीर्ति तथा पद्मनन्दि । काष्ठा संघ काष्ठासंघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक विवाद हैं । दसवीं शताब्दी में देवसेनाचार्यकृत दर्शनसार ग्रन्थ में लिखा है कि दक्षिण प्रांत में आचार्य जिनसेन के सतीर्थ्य विनयसेन के शिष्य कुमारसेन ने उत्तर पुराण के रचयिता गुणभद्र के दिवंगत ( संवत् ६५३ ) होने के पश्चात् काष्ठासंघ की स्थापना की थी, पर यह उल्लेख कालक्रम आदि अनेक दृष्टियों से युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता है ' । १७ वीं शताब्दी के एक ग्रन्थ वचनकोश में इस संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लिखा है कि उमास्वामी के पट्टाधिकारी लोहाचार्य ने इस संघ की स्थापना उत्तर भारत के अमरोहा नगर में की थी। इस कथन में सचाई जो हो पर १६-२० वीं शताब्दी के लेखों में काष्ठासंघ के अन्तर्गत लोहाचार्य अन्वय का उल्लेख मिलता है । प्रस्तुत संग्रह के एक लेख नं० ७५६ ( सं० १८८१ ) में यही बात हम पाते हैं । इस संग्रह में इस संघ से सम्बन्धित सभी लेख उत्तर और पश्चिम भारत से ही प्राप्त हुए हैं । लेख नं० ६३३ और ६४० में इसका नाम काञ्चीसंघ लिखा है, जो कि माथुरान्वय ( मयूरान्वय) एवं पुष्करगण के साथ होने से लगता है कि यह काष्ठासंघ का ही अपर नाम होना चाहिए । इस संघ के प्रमुख गच्छ या शाखायें चार थीं: - नन्दितट, माथुर, बागड़ और लाटवागड़ । ये चारों नाम बहुतकर स्थानों और प्रदेशों के नामों पर रखे गये हैं । नन्दितट से संबन्धित एक ले० नं०११६ इस संग्रह के प्रथम भाग में हैं जिसमें कि नन्दितट को भूलकर मण्डिततट लिखा गया है । संभव है इस गच्छ का संबन्ध दक्षिण से था । माथुर गच्छ जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ २७७ ( द्वि० सं० ) 1 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 या अन्य से संबन्धित ६ लेख प्रस्तुत संग्रह में हैं। प्रथा से प्राप्त लेख नं० ३०५ क में यद्यपि काष्ठासंघ का उल्लेख नहीं है फिर भी उसके प्रसिद्ध श्रन्वय माथुरान्वय का निर्देश है और लेख से इस संघ के एक श्राचार्य छत्रसेन का नया नाम मालूम होता है । लेख नं० ५८६ में मसार से प्राप्त तीन प्रतिमालेखों में इस संघ के प्राचार्य कमलकीर्ति का नाम देकर एक लेख में उन्हें माथुरान्वय का लिखा है। ग्वालियर से प्राप्त दो लेख नं० ६३३ और ६४० में तोमरवंशीय नरेश डूंगरसिंह और उसके पुत्र कीर्तिसिंह ( १५ वीं शता० ) के समय इस संघ के कतिपय प्रतिष्ठित भट्टारकों के नाम मिलते हैं । लेख नं० ६३३ में भट्टा ० गुणकोर्ति और उनके शिष्य यशःकोर्ति का उल्लेख है, साथ में प्रतिष्ठाचार्य श्री पण्डित रद्दधू का भी । भट्टा० यशःकोर्ति वे ही हैं जिन्होंने अपभ्रंश भाषा में पाण्डवपुराण ( वि० सं० १४६७) र हरिवंशपुराण ( वि० सं० १५०० ) की रचना की थी । अपभ्रंश चंदप्पहचरिउ भी इनकी रचना है । इन्होंने प्रसिद्ध कवि स्वयम्भू के हरिवंशपुराण की जीर्ण-शीर्ण खण्डित प्रति का समुद्धार भी किया था । ये गुणकीर्ति भट्टारक के अनुज तथा शिष्य भी थे । प्रतिष्ठाचार्य रधू, प्रसिद्ध कवि रधू ही हैं जिन्होंने बीसों ग्रन्थों की रचना की थी । ये महान् कवि होने के साथ साथ भट्टारकीय पण्डित थे, प्रतिष्ठा आदि में भाग लेते थे इसलिए प्रतिष्ठाचार्य कहलाते थे । ग्वालियर से प्राप्त ले ० नं० ६४० में और वात्रा गंज से प्राप्त लेख नं० ६४३ में इस संघ के कुछ दूसरे भट्टारकों के नाम गुरुपरम्परा पूर्वक मिलते हैं, वे हैंक्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, विमलकीर्ति ( ६४० ) तथा क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, कमलकीर्ति एवं रत्नकीर्ति ( ६४३ ) । संभव है इन दोनों लेखों के भट्टारक एक परम्परा से सम्बन्धित थे और लेख नं० ६३३ की परम्परा से जुदे थे, क्योंकि ज्ञानार्णव की लेखक- प्रशस्ति से मालुम होता है कि उक्त लेख के भट्टारक यश:कीर्ति के बाद उनकी गद्दी पर उनके शिष्य मलय कीर्ति और प्रशिष्य गुरणभद्र भट्टारक हुए थे । ले० नं० ६४३ में भट्टारक रत्नकीर्ति को मण्डलाचार्य लिखा १. जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ ५.३५. ( प्रथम संस्करण ) 1 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है.। मापुर गच्छ (अन्वय ) पुष्कर गण का उल्लेख करने वाला सं० १८८१ का एक लेख पमोसा ( कौशाम्बी) से प्राप्त हुआ है जिसमें मटारक जगत्कीर्ति और उनके शिष्य ललितकीर्ति का निर्देश है। ___ माथुर गच्छ या संघ का इतना प्रभाव था कि आचार्य देवसेन को अपने अन्य दर्शनसार में इसकी गणना अलग करना पड़ी । माथुर संघ नाम भी स्थान के कारण पड़ा है-मथुरा नगर या प्रान्त का जो मुनिसंत्र है वह माथुर संघ । मथुरा प्राचीन काल से जैन धर्म का प्रमुख स्थान रहा है यह हम मथुरा से प्राप्त बहुसंख्यक लेखों से जान चुके हैं । स्थान सापेक्षिकता के कारण संघों, गणों एवं गच्छों के नाम को लेकर बाबू कामताप्रसाद जी जैन ने काष्ठासंघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कल्पना की है कि यह संघ मथुरा के निकट जमुना तट पर स्थित काष्ठा ग्राम से निकला' है, या हो सकता है कि काष्ठासंघ जैन मुनियों के उस साधुसमुदाय का नाम पड़ा जिसका मुख्य स्थान काष्ठा नामक स्थान था। काष्ठासंघ माथुरान्वय के प्रसिद्ध श्राचार्यों में सुभाषितरत्नसन्दोह आदि अनेक ग्रन्थों के रचयिता प्रा० अमितगति हो गये हैं जो परमार नरेश मुंज और भोज के समकालीन थे ( वि० सं० १०२० से १०७३ )। . काष्ठासंघ, की दूसरी शाखा लाट वागट से भी सम्बन्धित दो लेख प्रस्तुत संग्रह में हैं और वे हैं दूबकुण्ड से प्राप्त ले० नं० २२८ और २३५ । सन् १०८८ ई. के लेख नं० २२८ में इस शाखा (गण ) के देवसेन, कुलभूषण, दलमसेन, शान्तिषेण एवं विजयकीर्ति नामक प्राचार्यों के नाम गुरु-शिष्यपरम्परा के रूप में दिये गये हैं । अन्तिम श्राचार्य विजयकीति उक्त प्रशस्ति के रचयिता थे। यदि पूर्ववर्ती चार श्राचार्यों का समय १०० वर्ष मान लिया जाय १. जैन सिद्धान्त भास्कर भा० २, किरण ४, पृष्ठ २८-२९ । २. पं० नाथूराम जी प्रेमी ने बतलाया है कि दिल्ली के उत्तर में जमुना के किनारे काष्ठा नगरी थी जिस पर नागवंशियों की एक शाखा का राज्य था। १४वीं शताब्दी में 'मदनपारिजात' निबन्ध यहीं लिखा गया था। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ नरेश का माम, दडिग को शि देते हैं और उसका समय सन् १कार-२०० के खरामय मानते हैं। प्रस्तुत संग्रह में इस वंश का सबसे प्राचीन ले० नं०६० है, जिसे गुप्त काल के प्रारंभ का होना चाहिये । इसमें कोड णिवर्मा प्रथम से माधववर्मा द्वितीय तक पाँच नरेशों की वंशावली दी गई है यदि प्रथम राजा के राज्य का प्रारंभ समय ई० सन् २०० के लगभग मान लिया जाय और प्रत्येक नरेश को ३५-४० वर्ष या उससे कुछ अधिक वर्ष का राज्यकाल दिया जाय ( जो कि संभव है ) तो लेख के अन्तिम राजा माधव द्वितीय का समय ई० सन् ३७५-४०० के लगभग या कुछ बाद आता है। उक्त लेख में इस बात का उल्लेख नहीं है कि कोङ्ग णिवर्मा और उसके बाद के दो नरेश किस धर्म के प्रतिपालक थे । पर इस बात का वहाँ स्पष्ट निर्देश है कि तृतीय नरेश हरिवर्मा महाधिराज का उत्तराधिकारी विष्णुगोप नारायण भक्त था और उसका उत्तराधिकारी माधववर्मा त्यम्बकभक्त था । माधववर्मा द्वितीय ने चिर प्रनष्ट देवभोग, ब्रह्मदेय आदि को फिर से संचालित किया था और कलियुग में धर्मोद्धार किया था (६४)। इसका विवाह कदम्बवंशी नरेश काकुस्थवर्मा की बेटी से हुआ था क्योंकि गंगवंश के अनेक लेखों में इसके बेटे अविनीत को कदम्बनरेश कृष्णवर्मा ( संभव है प्रथम ) का प्रिय भागिनेय लिखा है' (६५, १२१, १२२)। कृष्णवर्मा काकुस्थवर्मा का द्वितीय पुत्र था। त्र्यम्बकभक्त होते हुए भी माधववर्मा दितीय की धार्मिक नीति बड़ी उदार थी। १. मैसूर एण्ड कुर्ग इन्सक्रिप्सन्स पृष्ठ,३२, ४६. २. लुइस राइस महोदय सन्देह करते हैं कि इन ताम्रपत्रों में प्रत्येक राजा के साथ पूर्व निर्धारित या सांचे में ढले हुए के समान जो विवरणात्मक वाक्य दिये हैं, वे संभव है, तथ्य नहीं हैं । वे मानते हैं कि ब्राह्मण प्रभाव के कारण ताम्रपत्र उत्कीर्ण करने वाले ने स्वेच्छा पूर्वक तथ्यों को विकृत कर उनके जैन होने पर पर्दा डाला है। ३. पीछे कदम्बों का परिचय भी देखिये। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ले० न०६० के अनुसार उसने अपने राज्य के १३ वें वर्ष में प्राचार्य वारदेव को सम्मति से मूलसंघ द्वारा प्रतिष्ठापित जिनालय के लिए कुछ भूमि और कुमारपुर गांव दान में दिया था। ___ माधव द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी को णिवर्म धर्ममहाधिराज अविनीत था । ले० नं०६४ में इसके प्रतापी होने का वर्णन है । लेख से ज्ञात होता है कि यह जैनधर्मानुयायी था। इसने अपने गुरु परमाईत विजयकीर्ति के उपदेश से अपने राज्य के प्रथम वर्ष में ही मुलसंघ के चन्द्रनन्दि आदि द्वारा प्रतिष्ठापित उरनूर के जैन मन्दिर के लिए एक गाँव प्रदान किया था तथा एक. दूसरे जिनमन्दिर के लिए चुंगी से प्राप्त धन का चतुर्थ भाग दान में दिया था। लु० राइस महोदय उक्त लेख का समय सन् ४२५ के लगभग मानते हैं । यदि उनका यह अनुमान सच है तो कहना होगा कि अविनीत सन् ४२५ के लगभग राजगद्दी पर बैठा था । अविनीत ने बहुत समय तक शासन किया था क्योकि उसके बेटा दुर्विनीत का समय अनेक प्रमाणों के अाधार पर लगभग सन् ४८० और ५२० ई० के बीच बैठता है । अविनीत जैनधर्मानुयायी था यह बात मर्करा से प्राप्त ताम्रपत्रों (६५) से भी सिद्ध होती है। १. जैन धर्म के केन्द्र प्रकरण में हमने इन वीरदेव और सोनभण्डार के वैरदेव मुनि में साम्य स्थापित किया है । २. प्रो० ज्योतिप्रसाद जैन, 'गङ्गनरेश' दुर्विनीत का समय', जैन एन्टीक्वेरी, भाग १८, अंक २, पृष्ठ १-११ । ३. मर्करा से प्राप्त ताम्रपत्र असली नहीं है क्योंकि उनमें पश्चात्कालीन अकाल वर्ष पृथ्वीवल्लभ ( राष्ट्रकूट नरेश) का निर्देश है तथा जो प्राचार्यपरम्परा दी गई है वह ई०६-१० वीं शताब्दी की मालुम होती है। लेख में समयोल्लेख के साथ यह निर्देश नहीं है कि वह किस (शक या विक्रम ) संवत् का है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनीत का उत्तराधिकारी एवं पुत्र दुर्विनीत संस्कृत और कन्नड भाषा का बड़ा विद्वान था । उसे एक ताम्रपत्र में 'शब्दावतारकार, देवभारतीनिबद्ध बृहकथा' आदि कहा गया है ! राइस महोदय एवं डा० सालेतोरे श्रादि विद्वान् इस पद की व्याख्या कर यह सूचित करते हैं दुर्विनीत जैन वैय्याकरण पूज्यपाद का शिष्य था और उसने पूज्यपाद द्वारा लिखे शब्दावतार को कन्नड भाषा में "परिवर्तित किया था । उसने भारवि के किरातार्जुनीय काव्य के १५ सर्गों पर संस्कृत टीका भो लिखी थी ( १२१-१२२ ) । इसके समय का उल्लेख किया जा चुका है । हां, इसके समकालीन कोई जैन लेख हमारे संग्रह में नहीं हैं । इसके बाद इस वंश के राजाओं का वर्णन ई० सन् ७५० के लेख नं० ११६ तथा बाद के लेखों ( १२०-१२२ ) में मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि गङ्ग वंश एक स्वतन्त्र राज्य था, उसने किसी की पराधीनता स्वीकार न की थी। इन लेखों से दुर्विनीत के बाद के नरेशों--मुष्कर, श्रीविक्रम, भूविक्रम, शिवमार प्रथम ( नवकाम) श्रीपुरुष, शिवमार द्वितीय एवं मारसिंह प्रथम तक वर्णन मिलता है । लेख नं० १२१ र १२२ में इन राजाओं को राजनातिक सफलताओं और सामरिक विजयों का उल्लेख है । शिवमार द्वितीय के पुत्र मारसिंह प्रथम के सम्बन्ध उसके समकालीन लेख नं० १२२ से ज्ञात होता है कि ई० सन् ७६७ में वह युवराज ही था । उसके राज्यकाल का ऐसा कोई लेख नहीं मिला जिससे कहा जाय कि वह राजा हो सका हो । I इसके बाद ईस्वी सन् ७६७ से ८८६ तक इस वंश का कोई लेख इस संग्रह में नहीं आ सका । मरणे से प्राप्त सन् ८०२ ई० के एक लेख ( १२३ ) से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय के समय में राष्ट्रकूट वंश दूसरे वंश की प्रतियोगिता में १. मेडीवल जैनिज्म, पृष्ठ १६-२३ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर उठ गया था। उसने गहों को बहुत समय से पराधीन देख उन्हें मुक्त किया पर उनके उद्धत स्वभाव के कारण पुनः बांध दिया । गङ्ग वंश के पराधीन होने की बात सन् ८६० के कोन्नूर से प्राप्त एक लेख ( १२७ ) से भी ज्ञात होती है । इतिहासज्ञों का अनुमान है कि गण वंश के इन बुरे दिनों में शिवमार द्वितीय उक्त वंश की गद्दी पर था । उसने राष्ट्रकूट वंश की अधीनता मान ली थी। इस राजा के सम्बन्ध में लेख नं० १८२ में लिखा है कि यह राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष प्रथम (८१४-८७७ ई०)का पञ्चमहाशब्दधारी महामण्डलेश्वर था । इसने कल्भावी में एक जैन मन्दिर बनवाकर उसके लिए एक गांव दान में दिया था। ___ इसके बाद भी जैनधर्म की परम्परा इस वंश के नरेशों में बराबर चलती रही। लेख नं० १३१ से ज्ञात होता है कि सन् ८८७ में सत्यवाक्य कोगुणिवर्मा ने अपने राज्याभिषेक के १८ वे वर्ष में एक जैन मन्दिर के उद्देश से भट्टारक सर्वनन्दि के लिए १२ गांव दान में दिए थे। इतिहासज इस राजा को राचमल्ल द्वितीय मानते हैं जिसे राष्ट्रकूट नृप कृष्ण द्वितीय ने हराया था। इस लेख में और इसके बाद के लेखों में इस वंश की राजधानी का नाम कुवलालपुर ( वर्तमान कोलार ) और किले का नाम उच्च नन्दगिरि नाम दिया गया है। लेख नं. १३८ से विदित होता है किं सत्यवाक्य ( राचमल्ल द्वितीय) तथा उनके भतीजे एरेयप्परस ( चतुर्थ ) ने कुमारसेन भट्टारक को दान दिया था। ले० नं० १३६ के अनुसार एयप्परस के पुत्र नीतिमार्ग अर्थात् राचमल्ल तृतीय का राज्य उत्तरोत्तर बढ़ रहा था। उसने कनकगिरि तीर्थक्सदि को दुगुना कर भट्टारक कनकसेन को दान दिया । सूदी से प्राप्त सन् ६३८ का एक लेख (१४२ ) इस वंश के इतिहास की दृष्टि से बड़े महत्त्व का है। इसमें गंगवंश की श्रादि से लेकर बूतुग द्वितीय तक सारे राजाओं की वंशावली दी गई है तथा कहीं कहीं उनके राजनीतिक महत्त्व के कार्यों का भी उल्लेख किया गया है । इस लेख में लिखा है कि बूतुग द्वितीय ने अपनी पत्नी द्वारा निर्मापित एक जैन मन्दिर के लिए कुछ भूमि दान में दी। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुग, राचमल्ल तृतीय का भाई एवं उत्तराधिकारी था, तथा राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय अकालवर्ष ( ६३८-६६६ ई० ) का बहनोई और सामन्त राजा था। __तुग द्वितीय का पुत्र मारसिंह तृतीय इस वंश का बड़ा प्रतापी राजा हुआ है। लेख नं० १४६ और १५२' में इसकी जो अनेक उपाधियाँ दी गई हैं और उसके लिए जो प्रशंसात्मक वाक्य प्रयुक्त हुए हैं उनसे इसके प्रतापी होने में कोई संदेह नहीं रह जाता । लेख नं. १४६ के अनुसार उसने पुलिगेरे नामक स्थान में एक जिन मन्दिर बनवाया जो कि इसके नाम पर 'गंगकंदर्प जिनेन्द्र मन्दिर' कहलाता था। लेख न० १५२ के उल्लेखानुसार इसने अनेक पुण्य कार्य किए थे, और जैन धर्म के उत्थान में बड़ा योग दिया था। इसी लेख में उसकी अनेक सामारिक विजयों का उल्लेख है। उक्त लेख के अनुसार इस राजा ने अन्त में राज्य का परित्याग कर अजितसेन भट्टारक के समीप तीन दिवस तक सल्लेखना व्रत का पालन कर बंकापुर में देहोत्सर्ग किया था। यह राजा राष्ट्रकूट नरेशों का महासामन्त था और इसने कृष्ण तृतीय के लिए अनेक देश जोत कर दिये थे तथा इन्द्र चतुर्थ का राज्याभिषेक कराया था। इसका और इसके बेटे राचमल चतुर्थ का मंत्री अोर सेनापति प्रसिद्ध चामुण्डराय था । ___राचमल्ल चतुर्थ के समय का केवल एक लेख (१५४) प्रस्तुत संग्रह में है। उसने श्रवणवेल्गोल निवासी श्रीमत् अनन्तवीर्य के लिए पेर्गदूर नामक ग्राम तथा कुछ और दान दिये थे। इसके राज्यकाल में सेनापति चामुण्डराय ने श्रवणबेलगोल स्थान में बाहुबलि की एक विशालमूर्ति का निर्माण कराया था । गंग वंश के राजारों में अन्तिम उल्लेखनीय नाम है रक्कसगंग पेम्मा॑नडि सचमल्ल पंचम का जो कि सन् १८४ में सिंहासनारूढ हुआ था। उसका असली नाम अरुमुलि देव था । वह बूतुग द्वितीय की दूसरी पत्नी रेवकन्निम्मदि से उत्पन पुत्र वासव का पुत्र था। इसने अपनी कन्याओं के विवाह द्वारा पल्लयो - - १. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, लेख नं० ३८. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शान्तरवा से सैन्ध स्थापित किया था। हुम्मच से प्रास लेख नं. २१३ से विदित होता है कि नन्नि श्रादि शान्तर राजकुमारों की अमिमाविका प्रसिद्ध जैन महिला चटत देवी इसी की पुत्री थी। इसके गुरु द्रविड संघ के विजय देव भट्रारक थे। इस राजा ने अपने वंश की गिरती हुई हालत को सुधारने का प्रयत्न किया पर सफल न हो सका। यद्यपि इस वंश का अन्त सन् १.०४ में रान राज चोल प्रथम की लड़ाई में हो गया, तो भी यह यत्र तत्र शाखाओं के रूप में जीवित बना रहा। ___ ऊपर निर्दिष्ट इस वंश के लेखों के अतिरिक्त दूसरे वंश के लेखों ( नं. १७२, २२२, २५१, २५३, २६७, २७७, २६६, ३१४, ४३१ ) में गंगवंश के अनेकों महामण्डलेश्वरों एवं राजात्रों का नाम श्राता है। ले० नं० २६७, २७७ एवं २६६ में तो इस वंश की प्रारम्भ से अन्त तक की वंशावली दी गई है, पर पीछे के राजाओं के सम्बन्ध में बहुत ही कम बात मालुम होती है जिनसे क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा जा सकता। प्रस्तुत शिलालेख संग्रह के देखने से इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता कि इस वंश के राजा प्रारम्भ से ही जैन धर्म और साहित्य के उपासक एवं संरक्षक साथ ही अपनी उदारनीति के कारण दूसरे सम्प्रदायों को भी दान श्रादि द्वारा संरक्षण प्रदान करते थे। इस वंश के संरक्षण में जैन धर्म ने अपना स्वर्णयुग देखा है। २. कदम्बर्वश:-प्रस्तुत संग्रह में कदम्ब वंश से सम्बन्धित १० लेख (६६, ६७,६८,६६, १००, १०१, १०२, १०३, १०४ ओर १०५) संग्रहीत है जिनमें कतिपय तो संस्कृत भाषा की सुन्दर काव्यात्मक शैली के नमूने हैं । यद्यपि इन लेखों में कोई काल-निर्देश नहीं है पर जिन राजात्रों के ये लेख हैं उनका समय अन्य प्रमाणों से ज्ञात होता है इसलिए हमें इन्हें लगभग सन् ३६६ से ५५० के भीतर के मानना चाहिए। ___ इन लेखों से कदम्ब नरेशों के गोत्रादि विदित होते हैं । तदनुसार वे मानव्य गोत्र एवं हारितीपुत्र अंगिरस के वंशज तथा काकुस्थान्वयी थे। यद्यपि यह वंश Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. ब्राह्मधर्मानुयायी था पर इसके कतिपय नरेशों की धार्मिक नीति बड़ी ही उदार थीं और कुछ तो जैनधर्मं प्रतिपालक भी थे । इस वंश का आदि नरेश मयूरशर्मा, माना जाता है पर उपर्युक्त लेखों में उसका तथा उसके बाद के चार नरेशों का नाम नहीं दिया गया । प्रस्तुत लेखों में इस वंश के पांचवें नरेश काकुस्थ वर्मा से ही वंश परम्परा का उल्लेख है । काकुस्थवर्मा के समय का केवल एक लेख (६६) अबतक उपलब्ध हुआ है । इसमें काकुस्थ वर्मा को कदम्वयुवराज लिखा है तथा उल्लेख है कि उसने ८० वें वर्ष में अपने एक जैन सेनापति श्रुतकीर्ति के लिए अर्हन्तों के खेट ग्राम में, वद्रोवर क्षेत्र दान में दिया था । लेख के ८० वाँ वर्ष को इतिहासज्ञ गुप्त संवत् का मानते हैं । इस मान्यता का श्राधार यह है कि कदम्बों का अपना कोई संवत् नहीं चला था तथा काकुस्थवर्मा की कुछ कन्याओं में से एक का विवाह गुप्त नरेश चन्द्रगुन विक्रमादित्य द्वितीय ( सन् ३७५-४१५ ई० ) के एक पुत्र से हुआ था । गुप्त संवत् के लेखा के अनुसार युवराज काकुस्थवर्मा का समय ३१६ + ८०=३६६ ई० होना चाहिए । इसके बाद काकुस्थवर्मा ने राजा के रूप में कुछ वर्ष अवश्य राज्य किया होगा । हम गंग अविनीत के सम्बन्ध में लिख ये हैं कि उसे काकुस्थ वर्मा की एक पुत्री विवाही गई थी । समय की दृष्टि से विनीत ( लग० सन् ४०० ई० के बाद ) और काकुस्थवर्मा प्रायः समकालीन भी थे । काकुस्थ वर्मा पलासिका में राज्य करता था, पर उसके पुत्र और प्रपौत्र वैजयन्ती से राज्य करते थे । सम्भव है पलासिका, कुछ समय के लिये उनसे छिन गई थी। काकुस्थवर्मा का पुत्र शान्तिवर्मा था ( ६६ ) उसके सम्बन्ध का इस संग्रह में कोई लेख नहीं हैं । ले० नं० ६६ में इसके सम्बन्ध में लिखा है कि जैसे दुर्जन किसी स्त्री को बलात् खींचता है उसी तरह उसने शत्रु के गृह से लक्ष्मी को श्राकृष्ट किया था । यह उल्लेख उसके किसी संघर्ष का द्योतक है। उसका बेटा मृगेश १. दि० च० सरकार, सक्शेसर श्राफ सातवाहनाज, पृष्ठ २५६ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्मा हुआ जिसके राज्य काल के तीन लेख ( ६७, ६८, ६६) प्रस्तुत संग्रह में हैं। ले० नं० ६७ से ज्ञात होता है कि उसने अपने राज्य के तीसरे वर्ष में अर्हन्तदेव के अभिषेक, उपलेपन एवं पूजनादि के लिए भूमिदान किया था । उसने अपने राज्य के चतुर्थ वर्ष में एक गाँव को तीन भागों में विभाजित कर एक भाग - महाजिनेन्द्र के लिए, दूसरा भाग श्वेताम्बर श्रमण संघ तथा तीसरा भाग दिगम्बर श्रमण के उपभोग के लिए दान में दिया था ( ६८ ) । आठवें वर्ष में उसने पलासिका नामक स्थान में एक जिनालय बनवाकर ३३ निवर्तन प्रमाण भूमि को यापनीयों के लिए तथा निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के कूर्चकों के उपभोग के लिए दान में दे दिया ( ६६ ) । ले० नं० ६६ में उसे एक धर्मविजयी नृप लिखा है । यह लेख राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से महत्व का है। इसमें उसे उन्नत गंग कुल को नष्ट करने वाला तथा पल्लव वंश के लिए प्रलयाग्नि लिखा है । इस लेख से मालुम होता है मृगेशवर्मा पलाशिका से राज्य कर रहा था । मृगेश वर्मा के तोन बेटे थे रविवर्मा, भानुवर्मा और शिवरथ । उनमें रविवर्मा उसका उत्तराधिकारी हुआ । उसके राज्यकाल के तीन लेख (१००, १०१, १०२) इस संग्रह में हैं । ले० नं० १०० के अनुसार सेनापति श्रुतकीर्ति के पौत्र जयकीर्ति ने कदम्ब राजाओं द्वारा परम्परा से प्राप्त पुरुखेटक ग्राम को रविवर्मा की श्राज्ञा से अपने माता पिता के कल्याणार्थ यापनीय संघ के कुमारदत्त प्रमुख श्राचार्यों को दान में दे दिया । ले० नं० १०१ राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से महत्त्व का है । इसमें लिखा है कि विष्णुवर्मा प्रभृति राजाओं को नष्ट कर तथा कांचीपति चण्डदण्ड को पराजित कर रविवर्मा पलाशिका में समवस्थित था । इतिहासज्ञ इस लेख के विष्णु को कास्थवर्मा के द्वितीय पुत्र कृष्णवर्मा ( प्रथम ) का इस नाम वाला ज्येष्ठ पुत्र मानते हैं, जिसने सम्भव है, मुख्य शाखा के विरुद्ध विद्रोह खड़ा किया 1 १. इस लेख में गंगकुल के जिस नरेश से मतलब है वह पेरूर शाखा का गंग नृपस्य या माधव प्रथम होना चाहिये । पल्लव नृप को सिंहवर्म का पुत्र स्कन्दवर्मा होना चाहिये । ( सक्शेसर श्राफ सातवाहनाज, पृष्ठ २६४ ) । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था; तका काशीपति चण्डदण्ड को नन्दिकर्मा पल्लव का उसका कोई एक उत्तराधिकारी मानते हैं। इस ले० के अनुसार दामकीर्ति ( भुतकीर्ति का पुत्र ) के श्रानुन श्रीकीर्ति ने अपनी माता के कल्यणार्थ अपने स्वामी रविवर्मा से चार निवर्तन भूमि लेकर जिनेन्द्र के लिए दान में दी । ले० नं० १०२ से ज्ञात होता है फि रविवर्मा के ११ वें राज्य वर्ष में उसके अनुज मानुवर्मा से किसी पण्डर भोजक ने १५ निवर्तन भूमि प्राप्त कर जिनेन्द्र के लिए दान में दे दी। रविवर्मा का राज्यकाल साधारणतः सन् ४७८ से ५१३ ई० के लगभग माना जाता है। रविवर्मा का उत्तराधिकारी उसका पुत्र हरिवर्मा हुना। इसके राज्य के दो लेख (१०३-१०४) इस संग्रह में हैं । ले० नं० १०३ से ज्ञात होता है कि उसने अपने राज्य के चतुर्थ वर्ष में अपने चाचा शिवरथ के उपदेश से पलाशिका' में सिंह सेनापति के पुत्र मृगेश द्वारा निर्मापित जैन मन्दिर की अष्टाहिका पूजा के लिए तथा सर्व संघ के भोजन के हेतु कूर्चकों के वारिषेणाचार्य संघ के हाथ में चन्द्रक्षान्त को प्रमुख बनाकर वसुन्तवाटक ग्राम दान में दिया । इसी तरह ले० नं १०४ से ज्ञात होता है कि उक्त नरेश ने अपने राज्य के पांचवें संवत्सर में सेन्द्रक राजा भानुवर्मा की प्रार्थना पर अहिरिष्ट नामक दूसरे श्रमण संघ के लिए मरदे नामक ग्राम दान में दिया । हरिवर्मा का राज्य काल सन् ५१३ से ५३४ ई. में माना जाता है। कदम्बों की एक शाखा और थी जिसके कुछ नरेशों ने मुख्य शाखा से विद्रोह किया था यह हमें ले० नं० १०१ से ज्ञात होती है। इस शाखा से सम्बन्धित इस संग्रह में केवल एक लेख (१०५) है। जो कि कृष्णवर्मा प्रथम के राज्यकाल का है। इतिहासज्ञों ने इस कृष्णवर्मा को शान्तिवर्मा का अनुज एवं काकुस्थवर्मा का पुत्र माना है। ले० नं० १०५ में उसके अश्वमेधयाजिन् , समरार्जित विपुल ऐश्वर्य, एकातपत्र आदि विशेषण दिये हैं जो कि इसके प्रताप १. सक्शेसर श्राफ सातवाहनाज, पृष्ठ २७२-२७३ ॥ २. सक्शेसर श्राफ सातवाहनाज, पृष्ठ २५२। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ન્યૂ के सूचक हैं। लेख में इसके प्रियतमय देवराज का उल्लेख है जो कि युबराज था । वह त्रिपर्वत का शासक था तथा जिनधर्म का भक्त था । उसने श्रर्हन्त भगवान् के चैत्यालय की पूजा मरम्मत आदि के लिए यापनीय संघों के लिए कुछ खेत दान में दिये थे । गंग वंश के कई लेखों में अविनीत महाधिराज को कदम्ब कुल के कृष्ण वर्मा का प्रिय भागिनेय माना जाता है। कदम्ब नरेशों में कृष्णवर्मा दो हो गये हैं । अि 1 नीत का मामा कौन कृष्णवर्मा था इसमें इतिहास एक मत नहीं है। फिर भी समकालीन राजवंशों के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह प्रतीत होता है उसे कृष्ण वर्मा प्रथम होना चाहिए' । कृष्णवर्मा प्रथम श्रविनीत का समकालीन भी था । ३. चालुक्य वंशः -- प्रस्तुत संग्रह में इस वंश से सम्बन्धित अनेकों लेख संगृहीत हैं जिनसे मालुम होता है कि ये मानव्य गोत्र तथा हारीति के वंशज थे, वराह इनका लांछन था । इस वंश के राजाओं की साधारणतः वल्लभ एवं सत्याश्रय उपाधियाँ थीं। इस वंश की एक शाखा जिसे पश्चिमी चालुक्य कहा जाता है वातापी ( बादामी ) नामक स्थान से ६ वीं ईस्वी शासन करती रही और पीछे दो शताब्दी बाद १०वीं से नामक स्थान से । इसी तरह दूसरी एक शाखा पूर्वी चालुक्य atri देश के वेंगी नामक स्थान से ७ शताब्दी तक सत्तारूढ रही । इस तरह इस वंश ने पर शासन किया । से ८ वीं ईस्वी तक १२वीं तक कल्याणी के नाम से विख्यात वीं शताब्दी से ११-१२ वीं दक्षिण भारत के बहु भाग वंश का सबसे प्राचीन ड़ते से मिला है । (क) पश्चिमी चालुक्य:- जैन लेखों में इस दानपत्र ( १०६ ) शक सं० ४११ ( ई० ४८९ ) का यह ले० सत्याश्रय पुलकेशि का था । तदनुसार उस राजा ने चोल, चेर, केरल, सिंहल और कलिङ्ग के राजाओं को कर देने वाला बना दिया था एवं पाण्डय १. प्रो० ज्योतिप्रसाद, 'गंग नरेश दुर्विनीत का समय', जैन एण्टीक्वेरी, भाग १२, अंक २, पृष्ठ १-११ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ यदि मण्डलीक सानों को दण्डित किया था । लेख का उद्देश्य है कि उक्त नरेश के शासनकाल में सेन्द्रकवंशी सामन्त सामियार ने अलकक नगर में एक जैन मन्दिर बनवाया था और राजाज्ञा लेकर चन्द्र ग्रहण के समय कुछ जमीन और गाँव दान मे दिये । इस लेख के समय के सम्बन्ध में इतिहासज्ञ एकमत नहीं है । डा० रा० गो० भण्डारकर प्रभृति विद्वानों की धारणा है कि पुलकेशि प्रथम के सिंहासनारूढ होने का समय ई० सन् ५५० से पहले नहीं हो सकता, पर यह लेख उस नरेश के राज्यकाल को ६२ वर्ष पहले ले जाता है। जो हो, इस लेख में पुलकेशि प्रथम के वंश गोत्रादि के निर्देश के अतिरिक्त पितामह का नाम जयसिंह और पिता का नाम रणराग दिया गया है। ले० नं० १०६ से ज्ञात होता है कि रणराग के शासनकाल में उसके एक सेन्द्रक सामन्त दुर्गशक्ति ने पुलिगेरे के प्रसिद्ध शंख जिनालय के लिए भूमिदान दिया था । पुलकेशि प्रथम का उत्तराधिकारी उसका बेटा कीर्तिवर्मा प्रथम था । उसके शासन काल के एक लेख ( १०७ ) के कन्नड अंश से ज्ञात होता है कि कीर्तिवर्मा ने कुछ सरदारों के निवेदन पर जिनेन्द्र मन्दिर के पूजा विधान के लिए. कुछ खेत प्रदान किये थे । इसी तरह उक्त लेख के संस्कृत अंश से ज्ञात होता है कि उसने अपने सरदारों द्वारा निर्मापित जिनालय एवं दानशाला आदि के लिए भी कुछ खेतों का दान दिया था । I कीर्तिवर्मा प्रथम का बेटा पुलकेशि द्वितीय हुना जिसके काल का एक प्रसिद्ध लेख एहोले (१०८) से प्राप्त हुआ है, जिसे कविता के क्षेत्र में कालिदास एवं भारवि की कीर्ति पाने वाले जैन कवि रविकीर्ति ने रचा था । भारतवर्ष का तत्कालीन राजनीतिक इतिहास जानने के लिए यह लेख बड़े महत्त्व का है । इसमें पुलकेशि द्वितीय के पिता कीर्तिवर्मा और चाचा मंगलीश की सामरिक विजयों के उल्लेख के बाद पुलकेशि द्वारा राज्य प्राप्ति और उसकी विस्तृत दिग्विजय का वर्णन मिलता है । उक्त लेख के अनुसार पुलकेशि उत्तर भारत के सम्राट् हर्षवर्धन का समकालीन था और उसने दक्षिण की ओर बढ़ते हुए हर्ष का हर्ष (उत्साह) विगलित कर दिया था। लेख के अन्त में लिखा है कि प्रतापी पुल Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि के आभित कवि रविकीर्ति ने पाषाण का एक जैन मन्दिर शक सं० ५५६ में बनवाया था। इस वंश के अन्य ले. नं० १११, ११३, ११४ से शात होता है कि चालुक्य नरेश प्रारम्भ से लेकर जैन धर्म और उसके उपास्य स्थानों को संरक्षण देते आये हैं । ले. नं० १११ पुलकेशि द्वितीय के पौत्र विनयादित्य के राज्यकाल का है और नं. ११३ विजयादित्य तथा नं. ११४ विक्रमादित्य द्वितीय के राज्यकाल का है। इनसे विक्रमादित्य द्वितीय तक की वंशावली के अतिरिक्त हमें इन राजाशों के राजनीतिक इतिहास की कोई सूचना नहीं मिलती। ये लेख छोटे दान पत्र के रूप हैं । ले० नं० ११३ से मालुम होता है कि विजयादित्य ने अपने पिता के पुरोहित उदय देव पण्डित अर्थात् निरवद्य पण्डित को एक गाँव दान में दिया था । इसी तरह ११४ वे लेख से मालुम होता है कि विक्रमादित्य द्वितीय ने पुलिगेरे नगर में धवल जिनालय की मरम्मत एवं सजावट करायी थी। तथा मूलसंच देवगण के विजयदेव पण्डिताचार्य के लिए जिनपूजा प्रबन्ध के हेतु भूमिदान दिया था। विक्रमादित्य द्वितीय के बाद चालुक्य कुल के बुरे दिन श्राते हैं। यह बात हमें ले० नं० १२२, १२३,१२४, एवं १२७ से सूचित होती है । गंग और राष्ट्रकूट राजाओं ने इस साम्राज्य को तहस नहस कर दिया और लगभग २०० वर्षों तक यह फिर न पनप सका । इस बीच काल में इसका स्थान राष्ट्रकूट वंश को मिला। इस राजवंश का इतिहास पड़ने से मालुम होता है कि सन् ६७४ के पास पास तैलप द्वितीय ने इस वंश का पुनरुद्धार किया तथा कल्याणी नामक स्थान को राजधानी बनाया। नूतन शक्ति प्राप्त इस वंश के कतिपय राजाओं ने यद्यपि उतने उत्साह के साथ तो नहीं, फिर भी जैनधर्म की यथाशक्ति सेवा की। कविचरिते नामक ग्रन्थ से मालुम होता है कि तैलप द्वितीय महान् कन्नड जैन कवि रन का प्राश्रयदाता था। यह धारा नरेश मुज और भोज का समकालीन था। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १८२ में अमोघवर्ष के उल्लेख के बाद गंगनरेश शिवमार सैगोट्ट का नाम दिया गया है जिससे मालुम होता है कि यह अमोघवर्ष प्रथम (सन् ८१४-८७७ ई.) के समय का है। पर लेख में गलत रूप से शक सं० २६१ किया गया है और किसी कञ्चरल सैगोट गग का उल्लेख है जिससे लेख जाली मालुम होता है । फ्लोट महोदय इसके उत्तरार्ध भाग को सच्चा मानते हैं। कृष्ण तृतीय ( अकालवर्ष ) के पौत्र इन्द्र चतुर्थ के सम्बन्ध में ले० नं०१६३ (सन् ६८२ ) से ज्ञात होता है कि वह पोलो के खेल में बड़ा निपुण था । उसने श्रवणवेलगोल में सल्लेखनापूर्वक मरण किया था। इस लेख में इन्द्र के अनेक विशे-ण दिये गये हैं और कहा गया है कि वह गंग गंगेय ( बुतुग द्वितीय) का कन्यापुत्र एवं राजचूडामणि का दामाद था। ले० नं० १५२' से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के लिए गंग नरेश मारसिंह तृतीय ने गुर्जरप्रदेश को जीता था एवं और कृष्ण तृतीय के पौत्र इन्द्र चतुर्थ का राज्याभिषेक किया था। इन लेखों से ज्ञात होता है कि उस काल में इन दोनों राजवंशों में घनिष्टता थी। ६. कलचुरि वंशः-ले० नं. ४०८ से हमें ज्ञात होता है कि चालुक्य नमडि तेल (तैल तृतीय) के बाद चालुक्य राज्य को लक्ष्मी कलचूरितिलक विजल के हाथ चली आई। कलचूरि वंश बहुत प्राचीन है इसका उल्लेख हम एहोले के लेख (१०८) में पाते हैं जहाँ चालुक्य मंगलीश द्वारा उनके परास्त होने का उल्लेख है। कलचूरि वंश के अन्य लेखों से तथा इस संग्रह के लेख नं. ४०८, ४३५ से ज्ञात होता है कि ये अपनी उत्पत्ति उत्तर भारत के कालञ्जर नामक स्थान से मानते थे। लेख नं. ४०८ में बिज्जल की शूर वीरता का वर्णन है। उसका भाई मैनुगिदेव था । लेख से बिज्जल के तीन पुत्रों-सोयिदेव (रायमुरारि ), शंकम (निःशंकमल), श्राइवमल्ल (रायनारायण) और पौत्र मन्दार का नाम एवं परिचय मिलता है। उक्त लेख में लिखा है कि राजा पिल को सप्ताङ्ग सम्पत्ति दिलाने वाला उसका एक जैन सेनापति रेचि था जो १. जैन शिलालेख, सं० भाग १, ले० नं० ३८ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 'वसुधेकबान्धव' कहलाता था। लेख का विषय है कि श्राहवमल (रायनारायण कलचुरि के शासनकाल में उक्त सेनापति ने मागुरि गांव के रत्नत्रय चैत्यालय के लिए भानुकीर्ति सिद्धान्त देव को तलवे गांव दान में दिया था। लेख नं ४३५ से मालुम होता है कि बिजल के शासनकाल में वीरशैव मत का बोलवाला था। उक मत का प्राचार्य एकान्तदरामय्य जैनों पर अत्याचार कर रहा था ( ४३५, ४३६)। यद्यपि कलचूरि जैन धर्मानुयायी थे, उनके शासन पत्रों पर तीर्थंकर की पद्मासन मूर्ति, इन्द्रादि सेवकों के साथ बनायी जाती थी, पर बिज्जल समय की गति देखते हुए वीर शैवों की ओर मुका,और कहा जाता है है कि उन्हीं के द्वारा उसकी मृत्यु भी हुई । लेख नं० ४६५ से ज्ञात होता है कि उसके सेनापति रेचि ने उसे छोड़ कर जैन धर्मावलम्बी होयसल नरेश वीर बल्लाल द्वितीय का आश्रय लिया था। लेख नं. ४४८ में उल्लेख है कि कुन्तल देश से बिज्जल के शासन को हटाकर बल्लाल होय्सल ने उसे अपने अधीन कर लिया था । इस तरह दक्षिण भारत में इस वंश का शीघ्र ही अन्त हो गया। ७. होय्सल वश:-चालुक्यों के पतन के बाद दक्षिण भारत में दो नई शक्तियों का जन्म होता है । ये दोनों अपने को यादव वंश से उत्पन्न मानते हैं। उनमें चालुक्य साम्राज्य के दक्षिण भाग पर अधिकार करने वाले होय्सल थे और उत्तर भाग पर यादव ( सेऊण )। गङ्ग वंश के समान होय्सल वंश के अभयुदय में जैन प्रतिभा का बड़ा भारी हाथ रहा । जैन गुरुओं ने इस वंश के उत्थान में योग देकर अहिंसा और अनेकान्त की दुन्दुभि को फिर एक बार दक्षिण प्रान्त में बजाया । इस वंश का उत्पत्ति स्थान सोसेवूर (सं० शशकपुर) था जिसे राइस सा० ने वर्तमान अङ्गडि ( मुडगेरे तालुका, कहूर जिला, मैसूर राज्य ) माना है । अंगडि से इस वंश से सम्बन्धित अनेकों लेख भी प्राप्त हुए है। यहीं इस वंश की कुलदेवता वासन्तिका देवी का मन्दिर अब भी विद्यमान है। संभव है यहीं इस वंश.की उत्पत्ति से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण घटना हुई थी जिसका उल्लेख कतिपय कैन Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखों में मिलता है। भवणवल्गोल से प्राप्त सन् १९२३ के एक लेख से शात होता है कि एक समय इस वंश के प्रतक प्रथम पुरुष सल से एक जैन मुनि ने एक कराल व्या को देखकर कहा कि-पोय्सल-हे सल ! इसे मारो। लेख नं. ४५७ के अनुसार यह घटना इस प्रकार है:- कुन्तल श्रादि देशों का अधिपति, यदुकुल के सल को बनवास देश का मुख्य क्षेत्र दान में देना चाहता था । उस समय सुदत्त मुनिप ने पद्मावती को एक चीते के रूप में प्रकट करवाया। पद्मावती को चीते के रूप में देखते ही उन्होंने सल से कहा-पोय्सल (सल, मारो)। जिस पर उसने चीते को सल ( डण्डे ) से मारा और देवी पदमाबती के समक्ष उसके साहस का प्रदर्शन कराया। इससे राजा का नाम पोयसल पड़ा। इस घटना के उल्लेख से इतना तो मालुम होता है कि सल उस समय एक होनहार। सरदार था जैन प्रतिभा को राज्याश्रय से वचित होते समय यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि वह किसी उदीयमान सरदार को आगे बढाये जो जिनधर्म को पुनः संरक्षण प्रदान करे । इतिहास हमें बताता है कि सचमुच ही इस वंश ने अपने अन्तिम दिनों तक जैन धर्म को आश्रय प्रदान किया था । इस वंश के उद्गम होने के पहले अंगडि एक जैन केन्द्र था यह बात हमें लेख नं. १६६ से ज्ञात होती है। लेख नं० २०१ तथा अन्य लेखों से ज्ञात होता होता है कि इस वंश के शासक अपने को मले परोल गण्ड ( पहाड़ी सामन्तों में मुख्य ) मानते थे, जिससे मालुम होता है कि वे लोग पहाड़ी जाति के थे। यद्यपि प्रस्तुत संग्रह के लेखों से वंश के प्रारम्भ के तीन नरेश-सल, विनयादित्य प्रथम एवं नृपकाम-के सम्बन्ध में विशेष नहीं मालूम होता है पर अन्यत्र उल्लेखों से अनुमान किया जाता है कि ये तीनों नरेश सुदत्त मुनि के प्रभाव में थे। नृपकाम के सम्बन्ध में ले० नं० ३४७ से ज्ञात होता है कि वह विनयादित्य १. जै० शि० सं० प्रथम भाग, ५६, प्रस्तुत संग्रह का २८२ या २८३ वा लेख। २. सालेतोरे, मेडीक्ल जैनिज्म, पृष्ट ६४-७१ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ 3 द्वितीय का पिता था । लेख नं० २७८१ में नृपकाम होयसल का जैन सेनापति गंगराज के पिता एचि के संरक्षक के रूप में उल्लेख है । लेख नं० १७८ के आधार पर कुछ इतिहास इस नरेश का समय सन् १०२२ या १०४० ( १ ) के लगभग निर्धारित करते हैं, तदनुसार इसका दूसरा नाम राचमल्ल पेम्मनिडि था जो कि गंगवाडी के मुनियों में प्रसिद्ध था । इसके गुरु द्रविड़संघ के वज्रपाणि ने सोसवूर (ड) में अपना जीवन व्यतीत कर अन्त में संन्यासपूर्वक देह त्यागा था । नृपकाम का पुत्र विनयादित्य द्वितीय हुआ जिसने सन् १०४० - ११०० के लगभग शासन किया । लेख नं० २६० से ज्ञात होता है कि इसके गुरु शान्तिदेव थे, जिनकी चरणसेवा से उसे राज्यलक्ष्मी प्राप्त हुई थी। लेख नं० २८६४ में उल्लेख है कि उसने अनेक तालाब एवं जैन मन्दिर बनवाये थे । लेख नं० १२५ से ज्ञात होता है कि विनयादित्य के राज्यकाल में अङ्गति में मकर जिनालय नाम से एक प्रसिद्ध चैत्यालय था । ले० नं० २०० के अनुसार उक्त नरेश के गुरु शान्तिदेव सन् १०६२ ई० में दिवंगत हुए थे। उक्त अवसर पर उस नरेश ने और सभी नगरवासियों ने मिलकर उनकी स्मृति में एक स्मारक बनवाया था। यह नरेश चालुक्य नृप विक्रमादित्य पृष्ठ का सामन्त था । उसका बेटा एरेयङ्ग (त्रिभुवनमल्ल) सोमेश्वर तृतीय भूलोकमल्ल चालुक्य का सामन्त था ( २१८ ) । ले० नं० ४०३५ और ३६३ में उसे चालुक्य नरेश का बलद ( दक्षिण ) भुजादण्ड कहा गया है । ले० नं० ३४८ में कई पद्यों द्वारा इसकी सामरिक वीरता की प्रशंसा १. जै० शि० सं० प्रथम भाग लेख नं० ४४ २. रावर्ट सेवल, हिस्टोरिकल इन्स्क्रिप्सन्स ग्राफ सदर्न इण्डिया, पृष्ठ ३५१ ३. जै० शि० सं० प्रथम भाग, ले० नं० ५४. ४. वही - ले० नं० ५.३. ५. वही ले० नं० १२४. ६. वही - ले० नं० १३७ ( ? ) ---- Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२ की गई है और अनेकों उपाधियाँ दी गई है। लेख नं० २३३' से, जो कि एरेयंग के राज्यकाल का ही है, शात होता है कि वह गंग मण्डल पर राज्य करता था। उसने अपने गुरु जैनतार्किक गोपनन्दि को अवणवेल्गोल की वसदियों के जीर्णोबार के हेतु कुछ प्राम दान में दिये थे। इतिहासज्ञों का अन्य लेखों के आधार पर विश्वास है कि एरेयंग अपने अन्तिम दिनों तक युवराज वना रहा और उसका वृद्ध पिता विनयादित्य गद्दी पर बैठा रहा। होय्सल वंश में एरे यंग प्रथम व्यक्ति था जिसने वीर गङ्ग उपाधि धारण की। पीछे इसके उत्तराधिकारियों में यह उपाधि बड़ी प्रिय समझी गई। लेख नं० २६५ से ज्ञात होता है कि एरेयङ्ग की रानी एचलदेवी से बल्लाल, विष्णुवर्धन ( विट्रिग ) एवं उदयादित्य नामक तीन पुत्र हुए । लेख नं० २६६ में इसके एक दामाद का उल्लेख है जिसका नाम हेम्माडिदेव था, यह गंगवंशोत्पन एवं जैन धर्मानुयायी था। लेख नं० २१८ के अनुसार मालुम होता है कि उसके ज्येष्ठ पुत्र बल्लाल ने कुछ समय के लिए शासन किया था यद्यपि उक्त लेख का शक संवत् १००० सन्देहास्पद है। इस लेख में बल्लाल के शौर्य की प्रशंसा भी है । लेखन० ५६६ तथा ६२५ २ से ज्ञात होता है कि उसके जैन गुरु चांरुकीर्ति मुनि थे जिन्होंने इसे असाध्य बीमारी से बचाया था। बल्लाल का शासन काल सन् २१०० से ११०६ ईस्वी तक माना जाता है। बलाल का उत्तराधिकारी उसका भाई विष्णुवर्धन हुआ। यह इस वंश का सबसे बड़ा प्रतापी राजा था। इस राजा ने कर्नाटक देश को चोल आधिपत्य से मुक्त किया था। इस संग्रह में उसके राज्य के अनेकों लेख संग्रहीत हैं । लेख १. वही-ले० नं० ४६२ । २. वही-ले० नं. १०५, १०८ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ नं० २६३, २६४, २८३, २८७, २८६, ३०४, ३४८, ३६३ एवं ४०३ में विष्णुवर्धन के अनेकों विरुदों तथा प्रतापादि का उल्लेख है । उसके बाठ जैन सेनापतियों गङ्गराज, बोप्प, पुलिस, बलदेव, मरियाने, भरत, ऐन्च एवं विष्णु ने अनेकों महत्व के युद्धों में उसे विजय प्रदान कर उसके राज्य को मजबूत बनाया था । लु० राइस महोदय की मान्यता है कि सन् १९१६ ई० के पहले विष्णुवर्धन ने जैन धर्म को छोड़कर रामानुजाचार्य के प्रभाव में चाकर वैष्णव धर्म ग्रहण कर लिया था । सत्य जो हो पर उसके मन पर जैन प्रभाव और कृतज्ञता इतनी अधिक थी कि जैनत्व के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति में उसने कमी नहीं की थी। लेख नं० २८७ और ३०१ से ज्ञात होता है कि सन् ११२५ और ११३३ ई० में भी जैन धर्म के प्रति श्रद्धालु था । २८७ वे लेख के अनुसार उसने चोल सामन्त श्रदियम, पल्लव नरसिंह वर्म, कोङ्ग, कलपाल तथा अङ्गरन के राजाओं को पराजित किया था तथा पीछे वसदियों के जीर्णोद्धार के हेतु तथा ऋषियों को आहार दान देने के लिए, अपने जैन गुरु द्रविड़ संघ के श्रीपाल त्रैविद्य देव को चल्य ( शल्य ) नामक ग्राम दान में दिया था । लेख नं० ३०१ ( सन् १९३३ ) से विदित होता है कि उसके एक सेनापति बोपदेव द्वारा हनसोगेबलि के द्रोहघरट्ट जिनालय की स्थापना के बाद जिस समय पुरोहित लोग चढ़ाये हुए भोजन ( शेषा ) को विष्णुवर्धन के पास बकापुर ले गये, उसी समय वह एक शत्रु पर विजय प्राप्त कर आया था, तथा उसकी रानी लक्ष्मी महादेवी से पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ था । उसने उनका स्वागत कर प्रणाम किया और यह समझकर कि इन्हीं पार्श्वनाथ भग०की स्थापना से उसे युद्ध में विजय, पुत्रोत्पत्ति एवं सुख समृद्धि मिली है, उसने देवता का नाम विजयपार्श्व तथा पुत्र का नाम विजय नरसिंह देव रखा था । ले० नं० २८३२ से ज्ञात होता है कि उसकी एक पत्नी शान्तलदेवी जैन धर्म परायणा था । उसकी एक उपाधि थी उद्वृत्तसवतिगन्धवारणे अर्थात् उच्छङ ख सौतों के लिए मत्त हाथी । उसने श्रवणबेलगोल में 'सवति गन्धवारण' वसदि भी बनवायी थी । उसके श्रनेक १. वही - (२८३ से क्रमशः) ले ० नं० ५६, ४६३, ५३, १४४, १३८, १२४, १३७॥ २. वही - ले० नं० ५६ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.०४ दानादि कार्यों का वर्णन जैन महिलाओं के प्रकरण में दिया गया है। विष्णुवर्ष से सम्बन्धित प्राय: सभी लेखों में उसके जैन सेनापतियों मन्त्रियों एवं जो कि प्रसंगानुसार पृथक् दानादि कार्यों का वर्णन है अफसरों की शुर वीरता, किया गया है । यद्यपि विष्णुवर्धन ने होयसल वंश को दक्षिण भारत की राजनीति में समुबनाया था और अपने वंश के पूर्व अधिपति चालुक्य वंश से बहुत कुछ स्वतंत्र कर लिया था, पर वह सम्राट् का पद धारण न कर सका । लेख नं० २६५ से सिद्ध होता है कि वह चालुक्याभरण त्रिभुवनमल्ल ( विक्रमादित्य ठ) का आधिपत्य स्वीकार किया था। उसके अन्तिम वर्षों के लेखों (३१८ आदि) में भी उसे महामण्डलेश्वर कहा गया है । इतिहासज्ञों की मान्यता है कि विष्णुवर्धन सन् १९४० ई० में दिवंगत हुआ और उसका बेटा नरसिंह ( प्रथम ) गद्दी पर श्रारूढ़ हुआ । यद्यपि विष्णुवर्धन के राज्यकाल का उल्लेख करने वाले लेख सन् १९४६ ई० तक के मिलते हैं पर या तो वे पुराने लेखों की पुनरावृत्ति हैं या जाली हैं। जैन लेखों में ऐसा ही एक लेख (३१८ ) उसकी मृत्यु के दो वर्ष बाद का है । विष्णुवर्धन को नर सिंह के अतिरिक्त एक और पुत्र था । ले० नं० २६३ ( सन् ११३० ई० ) से ज्ञात होता है कि उसका ज्येष्ठ पुत्र श्रीमन् त्रिभुवनकुमार बल्लालदेव राज्य कर रहा था। उसकी बहिनों में सबसे बड़ी हरियब्बरसि थी जो जैन धर्मपरायण थी । उक्त राजकुमार के संबंध में इससे अधिक और कुछ ज्ञात नहीं । नरसिंह प्रथम के राज्यकाल के भी अनेकों लेख इस संग्रह में दिये गये हैं ( ३२४, ३२८, ३३३, ३३६, ३४७, ३४८, ३५१, ३५२, ३५६, ३६३, ३६७ ) । ये सामन्तों, सेनापतियों एवं अफसरों से सम्बन्धित हैं । लेख नं० ३४८१ से ज्ञात होता है कि उक्त नरेश के भाण्डागारिक एवं मंत्री हुल्ल ने 1 ९. वही- ले० नं० १३८. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०॥ श्रवणवेल्गोल में चतुविशति लिन मन्दिर निर्माण कराया । यह मन्दिर प्राजकल भी भएडारिवस्ति कहलाता है । उक्त लेख में लिखा है कि एक समय नरसिंह अपनो दिग्विजय के समय श्रवणवेलगोल आये और उक्त जिनालय को देख प्रसन्न हो उसका नाम भव्य चूड़ामणि रखा । नरसिंह ने उस समय मन्दिर के पूजनादि प्रवन्ध के लिए 'सवणेरु' नामक ग्राम दान में दिया । यही बात ले० नं० ३४८ में भी लिखी है। अन्य लेखों से प्राप्त इसके सेनापतियों एवं महाप्रधानों का वर्णन दूसरे प्रकरण में दिया गया है । इन लेखों से ज्ञात होता है कि उक्त नरेश ने अपने शासनकाल में होय्सल वंश को समृद्धि के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किये । केवल अपने पिता द्वारा अर्जित राज्य वैभव और उसके यश का ही उपयोग करता रहा । लेख नं० ३३६ में इसकी एक उपाधि 'जगदेकमल्ल' दी गई है जो सूचित करती है कि यह चालुक्यों का आधिपत्य स्वीकार करता था। ___ नरसिंह का उत्तराधिकारी उसका प्रतापी वेटा बल्लाल द्वितीय हुआ जिसे लेखों में वीर बल्लाल कहा गया है । यह बड़ा बहादुर राजा था । इसने होय्सल वंश को स्वतन्त्र बनाया और राज्य में शान्ति एवं सुख समृद्धि स्थापित की । इसका राज्य सन् ११७३ से १२२० ई० तक अर्थात् ४८ वर्ष के लगभग रहा। इस नरेश के राज्यकाल के भी अनेकों लेख इस संग्रह में दिये गये हैं । लेख .नं० ३७३ ( सन् १९६८) इसकी युवराज अवस्था का है जिससे ज्ञात होता है कि यह अपने पिता के शासनकाल में सक्रिय सहयोग देता था । इसके जैन गुरु का नाम वासुपूज्य सिद्धान्त देव था । लेख नं. ३७६ और ३८१' इसके राज्य के प्रथम वर्ष के हैं । ले० नं० ३७६ से विदित होता है कि अपने पट्टबन्धोत्सव में महादान दिये थे । शक सं० १०६५ की श्रावण शुक्ला एकादशी (दशमी) रविवार को उसका राज्याभिषेक हुआ था । उस दिन उक्त लेखा १. वही-ले० नं० ४६१. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ नुसार उसके महासांधिविग्रहिक मंत्री बूचिमय्य ने त्रिकूट जिनालय बनवा कर, .उसकी पूजादि के लिए द्रविड संघ के वासुपूज्य सिद्धान्तदेव को मरिकली गाँव भेट किया । इसी तरह लेख नं. ३८१ से विदित होता है कि उसका दण्डाधिप हुल्ल था । यह हुल्ल उसके पितामह विष्णुवर्धन के समय से ही उक्त वंश की सेवा में था। बल्लाल देव ने उस वर्ष भानुकीर्ति व्रतीन्द्र को पाव और चतुर्विशति तीर्थकर की पूजा हेतु मारहल्लि ग्राम दान में दिया तथा हुल्ल के अनुरोध से बेक्क गांव भी भेंट में दिया । ले० नं. ३६६ में लिखा है कि बल्लाल ने अपने पिता द्वारा दिये गये तीन गाँवों के दान को हुल्ल मंत्री द्वारा पूरा कराया । इस राजा के इस संगह के अनेक लेख उसके सेनापतियों, मंत्रियों एवं सेठों से संबंधित है जिनका वर्णन पीछे प्रकरणों में दिया गया है। उसकी सामूहिक विजयों के सम्बन्ध में ले० नं० ३६४ में लिखा है कि इसने उच्चंगि के किले को जीता था, तथा ले० नं० ४३१ से विदित होता है कि उसते सेबुण राजा को हराया और ले० नं० ४४८ से ज्ञात होता है कि उसने कुन्तल देश पर कलचूरि बिज्जल के शासन को हटाकर अपने अधीन किया था। ले० नं० ४६५ से मालुम होता है कि इसका एक जैन दण्डनायक रेचि था जो कि ४०८ वें ले० में कलचूरि वंश का दण्डाधिनाथ बतलाया गया है। दोनों लेखों का अध्ययन करने से मालुम होता है कलचूरि नरेश के धर्म परिवर्तन के कारण तथा बल्लाल द्वारा अपने स्वामी के परास्त होने पर संभव है वह उसका सेनापति हो गया हो। ____ बल्लाल द्वितीय के पुत्र नरसिंह द्वितीय के राज्य का केवल एक लेख (४७५)२ हमारे संग्रह में हैं जिसमें उसकी पृथ्वीवल्लभ, महाराजाधिराज, सर्वशचूड़ामणि आदि उपाधियाँ दी गई हैं। लेख में उक्त नरेश के राज्य में एक सेठ द्वारा गोम्मटेश्वर की पूजा के हेतु किये गए दान का उल्लेख है। १ वही-ले० नं०६०. २. वही-ले० नं० ८१. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ हमें नरसिंह द्वितीय के पुत्र सोमेश्वर के समय के दो लेख (४५. एवं ४६६) मिलते हैं। ले.नं. ४६५ में सोमेश्वर को विजय एवं कीर्ति का परिचय उनकी उपाधियों से ज्ञात होता है । उक्त नरेश के सेनापति शान्त और उसके पुत्र सातगण ने मनलकेरे में जैनमन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था। द्वितीय लेख में वीर बल्लाल तक तो ठीक रूप से वंशावली दी गई पर पीछे की वंशावली नहीं। लेख में काल निर्देशको देखते हुए कहा जा सकता है कि यह उसके समय का है। सोमेश्वर के राज्य के उत्तराधिकारी उसकी दो रानियों के दो पुत्र, नरसिंह तृतीय एवं रामनाथ हुए । नरसिंह तृतीय के चार लेख प्रस्तुत संग्रह में दिए गये हैं। ले० नं० ४६६ के अन्तर्गत दो लेखों से ज्ञात होता है कि सोमेश के पुत्र नर सिंह ने अपने जीजा द्वारा बनवायी गई चहार दीवारी एवं मकान की मरम्मत कराकर विजयपार्श्वदेव की सेवा में अर्पण किया था तथा कुछ महीने बाद अपने उपनयन संस्कार के समय उक्त देव की पूजादि के निमित्त दान दिया था। ले० नं० ५१२२ में उक्त नरेश द्वारा तथा होनचगेरे के सम्भुदेव द्वारा भूमिदान का उल्लेख है । ले० नं० ५२८३ में होय्यसलराय शब्द से इस नरेश का निर्देश इसके गुरु महामण्डलाचार्य माघनन्दि का उल्लेख तथा वेल्गोल के जौहरियों द्वारा भूमिदान का कथन है । चूँकि लेख का समय उक्त नरेश के राज्यकाल में पड़ता है इसलिए होय्सलराय से नरसिंह तृतीय ही समझना चाहिये । अन्यत्र उल्लेखों से ज्ञात होता है कि रामनाथ तथा नरसिंह के उत्तराधिकारी बल्लाल तृतीय ने भी जैन धर्म को संक्षरण प्रदान किया था। इस तरह हम देखते हैं कि इस वंश के आदि पुरुष से लेकर अन्तिम राजा तक सभी जैन धर्म के प्रति श्रद्धालु, भक्त एवं उसे संरक्षण प्रदान करने वाले थे। १. वही-ले. नं० ४६६. २. ,, ले० नं०६६. . ३. , ले० नं० १२६. ४. सालेतोरे, मेडीवल जैनिज्म, पृष्ठ ८५-८६ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ८. विजय नगर राज्य:-होय्यसल साम्राज्य १३ वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में विद्यमान रहा पर मुसलमानों के दो तीन हमलों से वह ध्वस्त हो गया। उसका अन्तिम राजा बल्लाल तृतीय, मदुरा के सुल्तान गियासुद्दीन द्वारा मार डाला गया । दक्षिण के अन्य हिन्दू साम्राज्य भी खतरे में थे। वे सत्र सचेत हो विजय नगर के नायकों के झण्डे के नीचे पाये। विजय नगर साम्राज्य के संस्थापक अपने को यादव वंश का मानते हैं (५८५ श्लो० १५) । इस वंश का संस्थापक था संगमेश्वर या संगम (५६१ ) जिसके संबंध में हमें विशेष कुछ मालुम नहीं। इसके दो बेटों ने मिलकर हिन्दू शक्ति को नेतृत्व प्रदान किया। हरिहर प्रथम जिसके सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह सन् १३३६ में गद्दी पर बैठा था सन् १३५५ तक जीवित रहा । प्रस्तुत संग्रह में उसके समय के दो ले० नं. ५५८, ५५६ हैं जिनमें उसे महामण्डलेश्वर, हिन्दुवराय, सुरताल श्री वीर कहा गया है । उसका उत्तराधिकारी उसका भाई बुक्कराय हुआ जिसने सन् १३५५ से १३७७ ई० तक राज्य किया। इसके राज्य के ६-७ ले० प्रस्तुत संग्रह में दिए गये हैं, जिनमें उसे महामण्डलेश्वर कहा गया है। ले० नं ५६६ में उसे पूर्व दक्षिण पश्चिम समुद्राधीश्वर तथा ले० नं० ५६२ में अभिनव बुक्कराय कहा गया है । ले० नं० ५६१ में उसके एक पुत्र विरुपएण वोडेयर का उल्लेख हैं । ले० नं० ५६१, ५६५' एवं ५६६ में उक्त नरेश की धार्मिक नीति का निरूपण है । तदनुसार वह अपने राज्य में जैन और वैष्णवों में कोई भेद नहीं देखता था ओर जब कभी विवाद के प्रश्न उठते थे तो दोनों के पारस्परिक मेल मिलाप कराने में उद्यत रहता था। उसके राज्य के शेष लेख प्रायः समाधिमरण के स्मारक हैं। बुक्कराय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र वोर हरिहरराय द्वितीय हुश्रा जिसने सन् १३७७ से १४०४ ई. तक शासन किया । इसके राज्यकाल के करीब १३ १. जैन शि० सं०, प्रथम भाग, ले० नं० १३६. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ लेख इस संग्रह में हैं जो कि प्रायः साधारण जनता, सरदारों एवं सेनापतियों से सम्बंधित हैं । ले.नं. ५७६ में उसके एक जैन सेनापति वैचप्प का उल्लेख है जो कि उसके पिता के समय से उक्त पद पर था । उक्त लेख में उसकी कोंकण देश से लड़ाई का वर्णन है जिसमें बैचप्प की जीत हुई थी। ले० नं० ५८१ में हरिहर द्वितीय के पुत्र बुक्कराय द्वितीय तथा बैचाप सेनापति के पुत्र इरुगप्प महामंत्री का उल्लेख है । ले० नं० ५८५ में चैच (वैचप) और इरुगप्प की प्रशंसा के साथ बुक्क और हरिहर की प्रशंसा है। सन् १३८६ में इरुगप्प ने विजयनगर में एक मन्दिर बनवाया और उसमें कुन्यु जिननाथ की स्थापना की थी। ले० नं. ५८६ में और उसके बाद के लेखों में महामण्डलेश्वर के स्थान में उक्त राजा की अश्वपति, गजपति आदि तथा महाराजाधिराज उपाधियां मिलती हैं। ले.नं. ६०२ में हरिहरराय की मृत्यु का उल्लेख है। उक्त लेखानुसार वह सन् १४०४ (शक सं० १३२६ भाद्रपद कृष्ण १० सोमवार ) में दिवंगत हुआ था। हरिहर द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका बेटा बुक्क द्वितीय हुअा जिसने १४०४ से १४०६ ई० के बीच राज्य किया था पर उसके राज्य का एक भी जैन लेख प्रस्तुत संग्रह में नहीं है । उसका उत्तराधिकारी देवराय हुआ जो कि उसका भ्राता था । इसने १४०६ से १४२२ ई० तक राज्य किया। इसके राज्य के ६ लेख प्रस्तुत संग्रह में हैं। ले० नं. ६०४ में उसकी अधिराट जैसी उपाधियां दी गई है तथा ६०५ में इसकी प्रशंसा की गई है। ले० नं० ६०६ में उसकी अनेक उपाधियों के साथ उसके जैन सेनापति गोप का उल्लेख है । लेख नं. ६१५ के अन्तर्गत दो लेखों से विदित होता है कि उसका एक बेटा हरिहरराय था जो कि जैन धर्मानुयायी था। उसने कनकगिरि के विजयनाथ देव की उपासना आदि के लिए, मलेयूर ग्राम दान में दिया था। ले० नं० ६१६ एवं ६२० में इस वंश की वंशावली दी गई है जिससे १. वही-ले. नं० १२६ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० विदित होता है कि देवराय का उत्तराधिकारी विजय अर्थात् बुक्क तृतीय या बिसने कुछ ही महीने राज्य किया था। ले.नं०६१८ में विजय बुक्कराय के सम्बंध में लिखा है कि उसने स्वर्ग प्राप्ति के लिए गुम्मटनाथ स्वामी की पूजा एवं सजावट के लिए तोटहल्लि गांव मेंट में दिया था । वह भगवद् अर्हत् परमेश्वर का अाराधक था। उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र देवराय द्वितीय हुश्रा । ले० नं. ६१६ और ६२० में इस वंश की देवराय दितीय तक वंशावली दी गई है। ले० नं०६१६ के अनुसार उक्त ताम्रपत्रों का दाता यही देवराय था । ६२० में इस वंश के प्रत्येक राजा की प्रशंसा में एक एक शार्दूलविक्रीडित छन्द दिया गया है। देवराय द्वितीय की प्रशंसा में अनेक छन्द है और कहा गया है कि उसने अपने पान सुपारी बगीचे में एक चैत्यालय बनवाया था और मन्दिर में श्री पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा विराजमान की थी। इस नरेश ने सन् १४२२ से १४४६ तक राज्य किया । ले० नं०६३५. (सन् १४४६ ई०) में इसको मृत्यु का संवत् दिया गया है। देवराय द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका बेटा मल्लिकार्जुन हुत्रा पर उसका एक भी लेख प्रस्तुत संग्रह में नहीं है। इसको मृत्यु के बाद सन् १४६५ में उसका भाई विरूपाक्ष तृतीय गद्दी पर बैठा । उसका राज्य सन् १४८५ तक था। उसके समय का एक लेख नं०६४९ (सन् १४७२ ) है जिसमें उसकी अनेक उमाधियां-पृथ्वीमनोवल्लभ, महाराजाधिराज, राजपरमेश्वर आदि-दी गई है । यह संगम वंश का अन्तिम राजा था । इसके मंत्री सालुब नरसिंह ने इसे मार कर राज्य छीन लिया और इस तरह सन् १४८५ में इस वंश का अन्त हो गया। इस वंश के बाद विजयनगर पर शासन करने वाले अन्य वंश भी हुए हैं। उनमें तुलुव और बारवीडु वंश ख्यात हैं । तुलुव वंश के तृतीय नृप कृष्णदेव राय का नाम इतिहास में विशेष प्रसिद्ध है। अन्य उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इसने - १. वही-ले० नं० १२५ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ जैन धर्म को अच्छी तरह संरक्षण प्रदान किया था। उसका उत्तराधिकारी उसका भाई अच्युत राय हुआ था। लेख नं. ६६७ में लिखा है कि वादि विद्यानन्द ने नरसिंह के कुमार कृष्णाराय के दरबार में परमतवादियों को अपने वाम्बल से परास किया था तथा उनके चरण कमलों को कृष्णराय के भाई अच्युतराय अपने मुकुट से पूजते थे । विजय नगर राज्य पर शासन करने वाले प्रारवीड वंश के दो नरेशों के राज्य काल के दो लेख नं. ६६१ ( सन् १६०८) और ७१० (सन् १६३७) भी इस संग्रह में उपलब्ध है। प्रथम लेख वेवयद्रि प्रथम के समय का है। जिसमें उसे राजाधिराज श्रादि उपाधियां दी गई हैं और उल्लेख है कि मेलिगे नामक स्थान में बोम्मण श्रेष्टो ने जिन मन्दिर बनवाकर अनन्त जिन की प्रतिष्ठा की थी। इसी तरह दूसरे लेख में बेङ्कटाद्रि द्वितोय का अनेक उपाधियों के साथ उल्लेख है । उसे कलिकाल अष्टम चक्रवर्ती कहा गया है । इस लेख में लिंगायत और जेनों के बोच उठे धार्मिक विवाद पर आपसी समझौता होने का उल्लेख है। विजय नगर राज्य के लेखों को देखने से हमें भली भांति ज्ञात होता है कि जनता के बीच विशेषतः नायकों और गौडों के बीच जैन धर्म प्रिय था। वे उसका विधिवत् पालन करते, दान देते तथा अन्त में समाधि विधि पूर्वक देहत्याग करते थे। हिरियावलि एवं नव निधि श्रादि ऐसे स्थान थे कि जहां समाधि विधि साधक श्राचार्य रहते थे । स्त्रियां अपने पति के मरने के बाद या तो सहगमन ' (सती होकर) या समाधि विधि से मरण करती थीं। सती प्रथा के दो तीन दृष्टान्तों से ज्ञात होता है कि जैन समाज हिन्दू संस्कारों से प्रभावित होने लगा था । उनके धार्मिक मामलों में बैष्णवों की ओर से भी समय समय पर बाधाएं श्राने लगी थीं। ६. मैसूर राज्यवंश:-मैसूर राज्य के सम्बंध के इस संग्रह में प्रायः वे ही लेख है जो कि जैनशिलालेख संग्रह प्रथम भाग में वर्णित हैं । केवल दो लेख नं० ७५८ १. देखो, लेख नं० ५५६, ५७४, ६०५, - Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ः ( सन् १८८२८ केलसुरु से प्राप्त ) एवं नं० ७६४ ( सन् १८२६ ) नरसीपुर से प्राप्त नये हैं, जो कि मुम्मुडि कृष्णराज चतुर्थ के राज्यकाल के हैं । इसका राज्य सन् १७६६ से १८३१ ई० तक था। पहले भाग के लेख नं० ४३३, ६८ एवं ४३४ इस संग्रह में लेख नं० ७५२, ७५७ एवं ७६६ के रूप में संगृहीत हैं, जो कि इसी नरेश के समय के समझने चाहिये, कृष्ण राज तृतीय ( राज्य काल ई० १७३४ -१७६१ ) के नहीं । ई. दक्षिण भारत के छोटे राजवंश एवं सामन्त गण । १. सेन्द्रक कुल:- इस कुल की उत्पत्ति नागवंश से कही जाती है। लेख नं० १०६ में इन्हें भुजगेन्द्रान्वय का कहा गया है । इनका देश नागरखण्ड था जो कि बनवासि प्रान्त का एक भाग था। पहले ये कदम्बों के सामन्त थे पर पीछे कदम्बों के पतन के बाद बादामी के चालुक्यों के सामन्त हो गये । प्रस्तुत संग्रह के लेख नं० १०४, १०६ एवं १०६ से ज्ञात होता है कि ये जैन धर्मानुयायी थे । इस वंश के सामन्त भानुशक्ति राजा ने कदम्ब हरिवर्मा से जैनमन्दिर की पूजा के लिए दान दिलाया था ( १०४ ) तथा चालुक्य जयसिंह ( प्रथम ) के राज्य में सामन्त सामियार ने एक जैन मन्दिर बनवाया था ( १०६ ) | लेख नं० १०६ से ज्ञात होता है कि चालुक्य रणराग के शासन काल में विजयशक्ति के पौत्र एवं कुन्दशक्ति के पुत्र दुर्गशक्ति ने पुलिगेरे के प्रसिद्ध शंख जिनालय के लिए भूमिदान दिया था । २. नीर्गुन्द वंश: - इस वंश का उल्लेख गंगवंश के एक लेख नं० १२१ में मिलता है। वहां लिखा है कि बाणकुल को भयमीत करने वाला दुड्डु नाम का एक नीन्द नामक युवराज हुया । उसका बेटा परगूल पृथ्वी नोर्गुन्द राज हुआ उसकी पत्नी कुन्दाचि थी जिसकी माता पल्लव नरेश की पुत्री थी तथा उसका पिता संगर कुल का मरुवर्मा था । परशूल और उसका पिता दुण्डु दोनों जैन थे । उसकी पत्नी कुन्दाचि ने लोक तिलक नामक जैन मन्दिर बनवाया। जिसके लिए: " Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परग्ल ने अपने अधिपति नरेश से एक ग्राम दान में दिलाया था। उक्त लेख में दुरहुँ के जैन गुरु विमलचन्द्राचार्य का उल्लेख हैं। ३. शान्तर वंश-दक्षिण मारत में जैन धर्म को शक्तिशाली बनाने में शान्तरवंशी राजाओं का बड़ा भारो हाथ था। प्रस्तुत संग्रह के अनेक जैन लेख इस बात के प्रमाण है। शान्तरं राजाओं के वंश का नाम उग्रवंश था और सातवीं शताब्दी के लगभम पश्चिमी चालुक्य नरेश विनयादित्य के शासनकाल में यह वंश हमारे सामने प्राता है। राज्य के रूप में इस वंश को स्थापित करने वाले प्रथम पुरुष का नाम जैन लेखों में, जिनदत्तराय मिलता है । लेख नं. १४६ के अनुसार यह जिनदत्तराय कलस राजाश्रों के खानदान कनककुल में उत्पन्न हुआ था । उसने जिनामिषेक के लिए कुम्बसेपुर नामक गांव दान में दिया था। जिनदत्तराय के प्रताप का वर्णन ले० नं. १६८ में दिया गया है जिससे विदित होता है कि उसने पद्मावती देवी के प्रसाद को प्राप्त कर एक राक्षस के पुत्र को अपने भुजबल से भयभीत कर दिया था। ले० नं० २१३ और २४८ से जिनदत्तराय और उसके वंश के सम्बन्ध की अनेक सूचनायें मिलती हैं। इनसे मालुम होता है कि इस वंश की उत्पत्ति उत्तर भारत के मथुरा नगर में हुई थी और जिनदत्तराय ने पद्मावती के प्रसाद से पट्टिपोम्जुच्चपुर (वर्तमान हुम्मच ) में अपना शासन स्थापित किया था। इसके बाद शान्तर लोगों को राजधानी बहुत समय तक हुम्मच ही रही । इस वंश के अनेकों लेख भी हुम्मच से ही प्राप्त हुए हैं। जिनदत्तराय के वंश में कुछ समय बाद तोलापुरुष विक्रमशान्तर हुत्रा जिसने मौनिमट्टारक के लिए एक पाषाणवसदि (१३२ ) बनवाई थी। ले० नं. २१३ से विदित होता है कि विक्रम शान्तर ने एक महादान देकर सान्तलिगे हजार नाड नाम का एक मित्र राज्य स्थापित किया, इससे वह कन्दुकाचार्य, दानविनोद, विक्रमशान्तर इन तीन नामों से प्रसिद्ध हुा । उसका पुत्र चागि शान्तर हुश्रा जिसने चागि समुद्र का निर्माण कराया था। उक्त लेख से ज्ञात होता है कि चागि के बाद क्रमश: वीर, कन्नर, कावदेव, त्यागि, ननि, राय, चिकवीर अम्मन Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या तेला, (सन् ८५.ई. के लगभग से १०२५ ई. के लगभग तक) इस वंश में उत्पन्न हुए। दुर्भाग्य से इन सबके सम्बन्ध में कोई लेख नहीं मिलते। तेल (प्रथम) के तीन पुत्र थे उनमें वीर शान्तर (द्वितीय) ज्येष्ठ था। वही राज्य का अधिकारी हुश्रा । उसके राज्य के इस संग्रह में दो लेख है। ले. नं. १६७ में उसके अनेक विरुद दिये गये हैं। ले० नं. १९८ से ज्ञात होता है कि उसने समस्त विरोधियों को नष्ट कर अपने राज्य को निष्कण्टक कर दिया था। इस लेख में उसकी पत्नी चागलदेवी द्वारा निर्मापित तोरण एवं मन्दिर आदि कार्यों तथा दानों की प्रशंसा है। वीरशान्तर का अधिराजा त्रैलोक्यमल्ल चालुक्य ( सोमेश्वर प्रथम-सन् १०४२-१०६८ ई.) था इसके नाम पर ही वीर शान्तर का दूसरा नाम त्रैलोक्यमान पड़ा ( १६७, १९८)। ले० नं० २१३ से ज्ञात होता है कि इसका विवाह जिन भक्त कुल गंगवंश में हुआ था। उसका ससुर रकस गंग था। उसकी पत्नी कञ्चलदेवी ( वीर महादेवी ) से उसे चार पुत्र उत्पन्न हुए-तैल, गोग्गिग, श्रोडुग और बर्म। ये सब जैन धर्म के परम भक्त थे। इन भाइयों ने अपनी जैन धर्मपरायणा मौसी चट्टलदेवी के सहयोग से जैन धर्म की प्रभावना के अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये थे। इस संग्रह में तेलशान्तर के राज्यकाल के ७ लेख ( २०३, २१२, २१३, २१४, २१५, २१६, २२६) है जो सभी हुम्मच से प्राप्त हुए हैं। ले० नं० २०३ से ज्ञात होता है कि तैल द्वितीय ने सन् १०६६ में अपनी राजधानी पोम्बुच्चपुर में एक जिनालय बनवाया था, जिसका नाम भुजबल शान्तर जिनालय था। अन्य लेखों में उसके भाइयों के धार्मिक कार्यों का उल्लेख है। तेल द्वितीय भी अपने पिता के समान चालुक्य त्रिभुवन मल्ल ( विक्रमादित्य षष्ठ ) के अधीन था। उसका विरुद मी था त्रिभुवन मल्ल । उसने अपनी माता वीरन्बरसि की स्मृति में, वादिघरट अजित सेन पण्डितदेव का नाम लेकर एक बसदि की नींव रखी थी। ले.नं. २४८ और ३२६ से शात होता है कि तेल शान्तर के पम्पादेवी नाम की एक पुत्री तथा श्रीवकाम नाम का पुत्र था लथा श्रेहुन्ग शान्तर के तेल Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तृतीय ) नामका पुत्र था । अन्यत्र उल्लेखों से ज्ञात होता है कि तैल तृतीयश्रीम् का उत्तराधिकारी हुआ ' । ले० नं० ३४६ में इस वंश के अन्तिम अंश का वर्णन है। यह लेख तैल चतुर्थ के वर्णन से प्रारम्भ होता है । तैल चतुर्थ, श्रीवल्लभ शान्तर का पुत्र था । इसकी पत्नी श्रक्खादेवी यो जिससे काम, सिंह और श्रमण ये तीन पुत्र हुए। काम से जगदेव और सिगिदेव दो पुत्र तथा लिया देव पुत्री हुई। काम, तैल चतुर्थ का उत्तराधिकारी हुआ और जगदेव कामदेव का । उक्त लेख में लियादेवी के दान कार्यों का वर्णन है । यह देवी गंगवंश के राजकुमार होन्नेयरस की पत्नी थी । यद्यपि पीछे के शान्तर नरेश वीर शैवधर्म की ओर झुक गये थे तो भी जैन धर्म को कृतज्ञता के भाव उनके मन में बराबर थे । २-३ शताब्दी बाद भी इस वंश के नायकों को अपने पूर्वजों के धर्म की याद बनी रही। कारकल से प्राप्त दो लेखों ( ६२४ और ६२७ ) से हमें ज्ञात होता है कि जिनदत्तराय के वंशज भैरव के पुत्र वीर पाण्ड्य ने कारकल में बाहुबलि की प्रतिमा बनाकर प्रतिष्ठित कराई थी तथा वहीं जिनभक्त ब्रह्म ( क्षेत्रपाल ) की प्रतिमा भी प्रतिष्ठापित की थी । ४. कोल्ववंशः - कोङ्गाल्ववंश राजानों का शासन कोङ्गलनाड ८००० प्रान्तपर था जो कि वर्तमान कुर्गके उत्तरीभाग येलु सावीर प्रान्त और मैसूर के हसन जिले के दक्षिणी भाग कुल्गुद तालुका को शामिल किये था । यहाँ के पूर्व इतिहास का हम पता नहीं पर ११वीं शताब्दी इस्वी से कोब्राल्व नरेशों के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उस समय यह क्षेत्र महत्वपूर्ण था । इस वंश के जो भी लेख प्रस्तुत संग्रह में हैं उनसे उनके राजवंश का विशेष परिचय नहीं मिलता पर उनकी जैन धर्मपरायणता का परिचय अवश्य मिलता है । सन् १०५८ ई० के लेखों (१८८, १८६, १६० ) से मालुम होता है कि राजेन्द्र कोवाल्व ने अपने पिता द्वारा निर्मापित बसदि के लिए भूमिदान दिया था । उसकी मां ने भी एक बसदि बनवाई थी और उसमें अपने गुरु गुरासेन १ - रावर्ट सेवेल, हिस्टोरिकल इन्स्क्रिप्सन्स ग्राफ सदर्न इण्डिया, पृष्ठ ३६० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति देव की प्रतिमा प्रतिष्ठित की थीं। ले० नं० १६० में राजेन्द्र का पूरा नाम राजेन्द्र चोल कोवाल्व दिया गया है । सन् १०७० के एक त्रुटित लेख (२०६) में पृषि कोशाल्व नाममात्र मिलता है उसके श्रागे का श्रंश नहीं पर ले० नं० २२०' में उसका पूरा नाम राजेन्द्र पृथ्वी कोशाल्व श्रदटरादित्य दिया गया है । इसने दरादित्य नामक चैत्यालय निर्माण कराया था । पहले के शासन काल कम उदधृत लेखों और इस लेख से ज्ञात होता है कि उसका से कम सन् २०१६ से १०७६ ई० तक अवश्य था । उक्त लेख में राजेन्द्र कोशाल्व की महत्त्वपूर्ण अनेकों उपाधियाँ दी गई है जिनसे मालुम होता है कि वे सूर्यवंशी थे और चोलवंश से उनकी उत्पत्ति हुई थी। उन्हें रेयूर पुरवराधीश्वर कहा गया है । ओरेयूर व उरगपुर चोलराज्य की प्राचीन राजधानी थी। इस वंश के नरेश प्रारंभ से ही होग्सल राजाओं के अधीन सामन्त थे तथा पीछे विजय नगर राज्य के अधीन बने रहे । प्रस्तुत संग्रह में इस वंश के और राजाओं के लेख नहीं आ सके। ले० नं० ५६० (सन् १३६१ ) में कोङ्गालववंशी किसी राजा की रानी सुगुरण देवी द्वारा प्रतिमा स्थापना एवं दानादि कार्यों का उल्लेख है। इससे विदित होता कि इस वंशके नरेश चौदहवीं शताब्दी या उसके बाद तक जैन धर्म पालन करते रहे । ५. चङ्गालव वंशः - कोङ्गाल्वों के दक्षिण में चंगाल्व वंश का राज्य था । पहले वे चंगनाडू ( मैसूर रियासत का वर्तमान हुए सूर तालुका ) के अधिपति थे । पश्चात् इनका राज्य पश्चिम मैसूर और कुर्ग में फैला था । यद्यपि ये शैव सम्प्रदाय के थे पर प्रस्तुत संग्रह के कुछ लेख यह सिद्ध करते हैं कि ११ वीं शताब्दी के अन्तिम एवं १२वीं के प्रथम दशकों में वे जैन धर्मावलम्बी थे । ले० नं० १७५, १६५, १६६ एवं २२३ से ज्ञात होता है कि वीर राजेन्द्र चोल नन्नि चंगा ने देशियगण, पुस्तक गच्छ के लिए कुछ बसदियाँ बनवायी थीं । लेख न० २४० और २४१ में कथन है कि उसी राजेन्द्र चंगाल्व ने सन् ११०० • में 1 ११ - जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, ले० नं० ५०० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ཟ་་ बन्द-तीर्थ की बसदि को, जिसे पहले राम ने बनवाया था और जिसको गंगोंने दान में दिया था, फिर से बनवाया । ले० नं० ३७७ में उल्लेख है कि कदम्बवंशी सोविदेव ने किसी चंगाल्व राजाको हरा दिया था और ४५२ में लिखा है कि होय्सल सेनापति ने चंगाल्व नृप को मार भगाया था । पर इन राजाओं का क्या नाम है, हमें मालुम नहीं । ले० नं० ६६१ में सूचना है कि सन् १५१० के लगभग इस वंश के एक नरेश के मंत्री पुत्र ने गोम्मटेश्वर की ऊपरी मंजिल का जीर्णोद्धार कराया था । ६. निडुगल वंशः - १३ वीं शताब्दी ईस्वी में इस वंश का राज्य उत्तर मैसूर प्रान्त के कुछ हिस्से पर था । ये अपने को चोल महाराज तथा श्ररेयूर पुरवराधीश्वर कहते थे । इस वंश के दो लेख (४७८ और ५२१ ) हमारे संग्रह में हैं जिनसे मालुम होता है कि इस वंश के कुछ नरेश जिनधर्म भक्त थे । ले० नं० ४७८ में इस वंश की एक वंशावली दी गई है जो कि तीसरे वंशधर से प्रारंभ होती है, यथा--चोल राजाओं में हुआ मंगि, उससे बन्त्रि, उससे गोविन्द, उसका पुत्र हुत्रा इरुङ्गोल ( प्रथम ) । इरुङ्गोल का पुत्र हुआ भोगनृप जिससे ब (ब्रह्म) नृप हुआ | उस बम्र्म्म नृप की रानी वाचालदेवी से हरु गोल द्वितीय हुआ । इस नरेश ने अपने श्राश्रित एक जैन व्यक्ति गंगेयन मारेय के अनुरोष पर पार्श्व जिनवसदि के लिए कुछ भूमियों का दान दिया । उक्त बसदि का निर्माण उक्त जैन ने कराया था । उस बसदि की पूजा आदि के लिए कुछ किसानों ने चन्दा एवं तैलादि दान की व्यवस्था की थी। ले० नं० ५२१ में उसकी अनेक उपाधियाँ दो गई हैं तथा उक्त जिन वसदि का नाम ब्रह्म जिनालय दिया गया है जो कि सम्भव है उसके पिता के नाम पर रखा गया था। उक्त बसदि के लिए सन् १२७८ ई० में मल्लि सेट्टि ने सुपारी के २००० पेड़ों के २ हिस्से दान में दिये थे । इरु गोल द्वितीय के सम्बन्ध में इतिहासज्ञों की मान्यता है कि वह जैन धर्मावलम्बी था । १ - रावर्ट सेवेज, हिस्टोरिकल इन्स्क्रिप्सन्स ग्राफ सदर्न इण्डिया, पृष्ठ ३६६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fits गोल प्रथम के सम्बंध में श्रवण बेल्गोल से प्राप्त दो लेखों ( ३४८, ३७८ ) से ज्ञात होता है वह भी जैन था । उसके गुरु नयकीर्ति सिद्धान्त देव ये तथा वह होय्सल विष्णुवर्धन द्वारा पराजित हुआा था । ७. चेर वंश-चेर वंश की एक शाखा प्रदिर्गेमान् का एक लेख ( ४३४ ) हमारे संग्रह में है, जिससे उस वंश का थोड़ा परिचय मिलता है । उक्त लेख में एलिनि उर्फ यवनिका नामक एक अदिमान् सरदार का उल्लेख है । दूसरा सरदार राजराज था । उसका पुत्र विकादलगिय पेरुमाल अर्थात् ब्यामुक्त श्रवणोज्ज्वल था, जिसे लेख में तकटानाथ कहा गया है । अन्यत्र उल्लेखों से मालुम होता है कि वह सन् १९६८ - १२०० ई० में जीवित था । उक्त लेख के अनुसार व्यामुक्त श्रवणोज्ज्वल ने अपने पूर्वज यवनिका द्वारा तुण्डीर मण्डल के सुगिरि पर प्रतिष्ठापित यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमाओं का जीर्णोद्धार कराया तथा एक घण्टा दान में दिया और एक नाली भी बनवायी थी। लेख से ज्ञात होता है कि इस शाखा के तीनों पुरुष जैन धर्म में रुचि रखते थे । ८. शिलाहार वंश - शिलाहार अपने को जीमूतवाहन का वंशज मानते हैं । प्रस्तुत संग्रह में पश्चात्कालीन शिलाहारों के केवल तीन लेख संगृहीत हैं, जो कि कोल्हापुर और उसके आसपास प्रदेश में राज्य करते थे । ले० नं० ३२० और ३३४ में इस वंश की वंशावली दी गई है जिसमें जतिग से इस वंश का प्रारम्भ माना गया है । जतिग को नरेन्द्र, क्षितीश कहा गया है । जतिग के चार बेटे थे- गोङ्गल, गूबल, कीर्तिराज और चन्द्रादित्य । इसमें गोडल का पुत्र मारसिह हुना जिसके पाँच पुत्र थे: - गूवल, गंगदेव, बल्लाल, भोजदेव, गण्डरादित्य | उक्त दोनों लेख गण्डरादित्य के पुत्र विजयादित्य के राज्य के हैं जो कि भूमिदान संबंधी है । इन लेखों में उसके जो विरुद दिये गये हैं उनसे ज्ञात होता है कि वह अपने समय का बड़ा प्रतापी मण्डलेश्वर था । बल्लालदेव और २ - जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, ले० नं० १३८, ४२ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ गण्डरादित्य के सम्बन्ध में ले० नं० २५० में उल्लेख है कि उसने जैन मुनियों के लिए एक भवन दान में दिया था। उसकी महामण्डलेश्वर उपाधि थी । भोजदेव के सम्बन्ध में अन्यत्र उल्लेख से मालुम होता है कि उसके दरबार में रहकर सोमदेव ने शब्दार्णव चन्द्रिका बनायी थी । ६. रट्ट वंश - इस वंश के अनेक लेख इस सग्रह में दिखाई देते हैं । इस वंश के राजे जैन धर्म के संरक्षक राष्ट्रकूट एवं चालुक्य नरेशों के सामन्त थे । हुल्स महोदय की मान्यता है कि इस वंश का व्यवहारो नाम रह था जब कि राष्ट्रकूट अलंकारिक एवं शाही रूप था। जो भी हो, रट्ट लोग राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय के समय से प्रभाव में श्राये थे । सौंदत्ति से प्राप्त एक लेख ( १३० ) से मालुम होता है कि रट्टों में प्रथम जिसने प्रमुख अधिकारी होने का पद पाया था वह था मेरड का पुत्र पृथ्वीराम । उसे यह पद राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय की अधीनता में मिला था । उससे पहले वह मैलाप तीर्थ के कारे यगण के इन्द्रकीर्ति स्वामी का शिष्य था । ले० नं० १६० में पृथ्वीराम के पुत्र, प्रपोत्र एवं उनकी पत्नियों के नाम दिए गए हैं। संभव है ये सब सामन्त या महासामन्त थे । इसके बाद इस वंश की परम्परा का क्रम कुछ भंग हो गया है । वंशावली का द्वितीय अंश २०५ और २३७ वें लेख में वर्णित है, जिसमें न से सेन द्वितीय तक वंश परम्परा दी गई है । इन लेखों में तथा पीछे के लेखों में कार्तवीर्य को लत्तलुपुरवराधीश्वर तथा महामण्डलेश्वर आदि कहा गया है । ले० नं० ३६६, ४४६, ४४६, ४५३, ४५४ और ४७० इसी वंश से संबंधित है जिनमें सेन द्वितीय से ४-५ पीढ़ी तक अर्थात् कार्तवीर्य चतुर्थ, मल्लिकार्जुन और लक्ष्मीदेव द्वितीय तक की वंशावली दी गई है। ज्ञात होता है कि इस वंश का अभ्युदय ई० सन् ६७८ के लगभग से १२२६ ई० तक रहा । इस वंश के प्रथम पुरुष पृथ्वीराम ने राष्ट्रकूट वंश की अधीनता में वृद्धि की पर उसके उत्तराधिकारी शान्तिवर्मा से लेकर सेन द्वितीय तक कल्याणी के चालुक्यों की Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अधीनता में रहे । सेन द्वितीय पीछे स्वतन्त्र हो जाता है और संभव है कि उसके बाद के सभी वंशधर स्वतन्त्र थे । ' वंश के आदि पुरुष पृथ्वीराम के सम्बन्ध में ले० नं० १३० में कहा गया है वह एक जैन मुनि का विनीत छात्र था। उपर्युक्त लेखों से मालुम होता है कि कार्तवीर्य और मल्लिकार्जुन ने अपने दानों द्वारा जैन धर्म को अच्छी तरह संरक्षित किया था । १०. यादव वंश: - यह वंश अपनी उत्पत्ति विष्णु से मानता है (३१७) गर इसके प्रारम्भिक इतिहास के विषय में हमें कुछ नहीं मालुम । इस संग्रह के जैन लेखों से ज्ञात होता है कि वे राष्ट्रकूटों के तथा पीछे कल्याणी के चालुक्यों के सामन्त थे । ईस्वी १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह शक्ति कुछ स्वतन्त्र होती दिखती है । प्रारम्भिक यादवों को सेउण देश के यादव भी कहते हैं । पीछे इन्होंने देवगिरि में अपने राज्य को स्थापित किया था । प्रस्तुत संग्रह में इस वंश के राजा सेउरणचन्द्र तृतीय से लेकर रामदेव या रामचन्द्र तक के शिला लेख संग्रहीत हैं । ले० नं० ३१७ से ज्ञात होता है कि राजा सेउ चन्द्र तृतीय ने चन्द्रप्रभ भगवान् के मन्दिर के खर्च के लिए अंजनेरी मैं तीन दुकानें दान मे दी थीं पर उसकी राजनीतिक स्थिति का पता नहीं चलता । ४२१ वें लेख में उल्लेख है कि होय्सल नृप वीरबल्लाल द्वितीय ने, सन् १९६८ के लगभग सेऊणदेश के किसी राजा को जिसके पास अगणित हाथी घोड़े तथा वीर योद्धा थे, युद्ध में अकेले ही हराया । इतिहास को देखने से पता चलता है कि उस समय वहाँ भिल्लम पञ्चम का बेटा जैत्रपाल (जैतुगि) प्रथम शासन कर रहा था । उसके शौर्य सम्पन्न विशेषणों से ज्ञात होता है कि उस समय तक यादवों का प्रभाव एवं स्थिति अच्छी हो गई थी । जैत्रपाल प्रथम का बेटा सिंहरण हुआ जिसका राज्य सन् १९६१ ई० से १२४७ ई० तक था । १. विशेष इतिहास के लिए देखो, दिनकर देसाई, महामण्डलेश्वराज अण्डर fe चालुक्यान श्राफ कल्याणी, बम्बई, १६५१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ इसके ३७ में वर्ष को द्योतन करने वाला एक समाधिमस्थ स्मारक लेख ( ४६० ) प्रस्तुत संग्रह में दिया गया है। इसी तरह सिंह के पौत्र कन्हार देव या कन्धार देव के समय का वैसा ही एक लेख ( ५०२ ) इसी संग्रह में है । इस वंश से सम्बन्धित ले० नं० ५११ में वंशावली वाला भाग त्रुटित है, तो भी इससे इतना ज्ञात होता है कि कन्धार देव का सहोदर महदेव था तथा कन्धारराय का पुत्र रामदेव ( रामचन्द्र ) था । उक्त लेख के अनुसार दण्डेश कूचिराब ने अपने स्वामी महदेव के करकमलों द्वारा अपनी पत्नी के नाम पर निर्मार्पित लक्ष्मी जिनालय को कुछ दान दिलवाया था। रामचन्द्र या रामदेव के राज्य काल के ५. लेख ( ५१३, ५३५, ५३८, ५४०, ५४१ ) इस संग्रह में हैं जो कि दाताओं द्वारा दिये दान के स्मारक हैं । सन् १२६२-६५ के बीच के ले० नं० ५३८, ५४०, ५४१ में उक्त राजा की भुजबल प्रौढ प्रताप चक्रवर्ती श्रादि उपाधियाँ दी गयी हैं । होयसल वंश के समान ही इनका रोज्य मुसलमानों ने नष्ट कर दिया । ११. संगीतपुर के सालुव मण्डलेश्वरः - १५ वीं ई० के उत्तरार्ध से लेकर १६ वीं के उत्तरार्धं तक संगीतपुर के शासक जैन धर्म के नेता के रूप में हमारे सामने आते हैं । तौलव देश ( उत्तर कनारा जिला ) में संगीतपुर, जिसे हाति भी कहते हैं, एक समृद्ध नगर था । उस नगर के शासक काश्यप गोत्र तथा सोमवंश के कहलाते थे । ले० नं० ६५४ में इस नगर का बड़ा सुन्दर वर्णन है । वहाँ का शासक महामण्डलेश्वर सालुवेन्द्र था जोकि चन्द्रप्रभ भगवान् का भक्त था । लेख में उक्त राजा के अनेक विशेषण दिये गये हैं जिससे विदित होता है कि वह राज्य और जैनधर्म दोनों को अच्छी तरह पालन कर रहा था । उसके मंत्री का नाम पद्म या पद्मण था जो कि शाही खान्दान का था । उसे सन् १४८८ में सालुवेन्द्र महाराज ने एक ग्राम भेंट दिया जिसे उसने जिनधर्म की उन्नति के लिए दान में दे दिया ( ६५४ ) । इसी मंत्री ने १० वर्ष बाद सन् १४६८ में पद्माकरपुर में एक चैत्यालय बनवाकर पार्श्व जिन की स्थापना की तथा अनेक दान दिये ( ६५८ ) । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ महामण्डलेश्वर सालुवेन्द्र के पिता का नाम संगिराय था तथा अनुब का नाम कुमार इन्दगरस वोडेयर था। इन्दगरस का दूसरा नाम इम्मडि सालुवेन्द्र या जो कि अपनी शूर वीरता के लिए प्रसिद्ध था (६५६)। वह बैनधर्म का मक्त श और उसने विदिरू में वर्धमान स्वामी की पूजा के निमित्त दान की व्यवस्था की थी। श्रागे इस वंश के सालुव मल्लिराय, सालुव देवराय, सालुव कृष्णराय के नाम मिलते हैं जिन्होंने जैनधर्म को संरक्षण प्रदान किया था। सालुव कृष्णराय, सालुव देवराय की बहिन पद्माम्बा का पुत्र था । ले० नं० ६६७ से ज्ञात होता है कि ये तीनों शासक प्रसिद्ध जैन वादी विद्यानन्द मुनि के भक्त थे। सालुव मल्लिराय और देवराय के दरबारों में उक्त मुनि ने अनेकों प्रतिवादियों को परास्त किया था। ले० नं. ६७४ में तीनों राजाओं के पूर्वजों का परिचय तथा एक दूसरे के सम्बन्ध का परिचय दिया गया है। वहाँ उन्हें क्षेमपुर का शासक भी कहा गया है। ५. जैन सेनापति एवं मन्त्रिगण इन लेखों पर दृष्टिपात करने से यह निश्चय रूप से मालुम होता है कि दक्षिण भारत में जैन धर्म ने अपना व्यावहारिक रूप अच्छी तरह पा लिया था। जैन सन्तों के उपदेश से न केवल व्रत नियमादि पालन कर अन्त में समाधि से देहोत्सर्ग करने वाले व्यक्ति ही प्रभावित थे बल्कि विशाल सेनाओं के नायक दण्डाधिपति एवं राज्यसंचालक मंत्रिगण भी प्रभावित हुए थे। अहिंसा का सन्देश केवल उनकी श्रद्धा का विषय न था, वह तो देश की प्रगति में बाधक होने की जगह साधक था। उसके बिना चाहे धार्मिक क्षेत्र हो या राजनीतिक, स्वतन्त्रता संभव न थी। इन लेखों में अनेकों वीर सेनानियों की अमर कहानियाँ भरी पड़ी हैं। उनमें से प्रमुख कुछ का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ ,' . १. श्रुतकीतिः-जैन धर्म के श्राश्रयदाता कदम्बों के सेनापति श्रुतकीर्ति और उसके वंशजों की भक्ति उल्लेखनीय है। ये लोग यापनीय संघ के प्राचार्यों के भक्त थे। पलाशिका ( हल्सी ) और देवगिरि से प्राप्त लेखों में इस वंश का चरित चित्रित है। ले० नं०६६ से विदित होता है कि श्रतकीर्ति सेनापति ने अपने कल्याण के लिए बदोवर क्षेत्र को अर्हन्तों के लिए दे दिया था जो कि उसने अपने स्वामी कदम्ब काकुस्थ्यवर्मा से खेटक ग्राम में प्राप्त किया था । लेख नं० १०० में इसके गुणों की प्रशंसा है और इसे भोजवंश का या भोजक लिखा 'है । वह काकुस्थ्यवर्मा का विशेष कृपापात्र था । उक्त लेख के अनुसार काकुस्थ्य वर्मा के बेटे शान्तिवर्मा के पुत्र मृगेश ने श्रुतकीर्ति की पत्नी एवं दामकीर्ति की मां को खेटग्राम धर्मार्थ दे दिया था। उसी लेख में लिखा है उस दामकीर्ति का ज्येष्ठ पुत्र जयकीर्ति था जिसके गुरु प्राचार्य बन्धुषेण थे। उसने अपने माता पिता के पुण्यार्थ खेटक ग्राम को यापनीय संघ के प्राचार्य कुमारदत्त को दे दिया था । ले० नं. १०१ में दामकीर्ति के छोटे भाई का नाम श्रीकीर्ति था जो कि अपने कुल के अनुरूप धर्मात्मा था। ले० नं०६७ और ६६ में दामकीर्ति का उल्लेख है जिनसे ज्ञात होता है कि वह कदम्ब शान्तिवर्मा की धार्मिक प्रवृत्तियों का प्रेरक था । उन दिनों पलाशिका (हल्सी ) यापनीय संघ का केन्द्र था और श्रुतकीति के वंशज उक्त संघ के अनुयायी थे। २. चामुण्डरायः--इसका प्रिय नाम 'राय' भी था। इतना शूरवीर, इतना दृढ़ भक्त एवं इतना स्वामिभक्त मंत्री कर्नाटक के इतिहास में दूसरा और कोई नहीं दिखाता । उसके समय के अनेकों लेखों और उसकी कन्नड भाषा में कृति चामुण्डराय पुराण से उसके जीवन का परिचय मिलता है। ले० नं० १६५ (प्रथम भाग, नं० १०६ ) से ज्ञात होता है कि वह ब्रह्मक्षत्र कुल में पैदा हुआ था । वहाँ उसे 'ब्रह्मक्षत्रकुलोदयाचलशिरोभूषामणि' कहा गया है। यह गंग नरेश राचमल्ल चतुर्थ का सेनापति था पर मालुम होता है कि वह उसके पिता मारसिंह तृतीय के समय भी सेनापति था। मारसिंह के विषय में लिखा जा चुका है कि वह उस वंश का बड़ा प्रतापी नरेश था। वह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ का महासामन्त था । श्रवणबेलगोला से प्राप्त ले० नं० १५२ ( प्रथम भाग, ३८) और १६५ ( प्रथम भाग १०६ ) में इसकी अनेक विजयों का वर्णन किया यया है । ले० नं० १५५ (प्रथम भाग, ६१ ) में वर्णित अनेक विजयों का श्रेय राख मारसिंह को दिया गया है पर उक्त लेख के कथन को ले० नं० १६५ और वामुड पुराण के सहारे पढ़ने से वास्तविकता समझ में श्रा जाती है। रात्रमक्ष को 'जगदेकवीर' उपाधि सूचित करती है कि ये सब विजयें उसके राज्य में सम्पन्न हो सकी थीं । मारसिंह और राचमल्ल ने ये सब युद्ध अपने श्रधिराट् राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय और इन्द्र चतुर्थ के लिए सेनापति चामुण्ड राय के द्वारा जीते थे । 1 उपर्युक्त लेखों में चामुण्डराय की शूरवीरता को सूचित करने वाली अनेक उपाधियाँ दी गई है । खेद है कि ले० नं० १६५ छः पद्यों के बाद अकस्मात् समाप्त हो जाता है जिससे हमें उसके सम्बन्ध की पूरी जानकारी नहीं हो पाती । उसके जीवन के अन्य पहलुओं को उसकी श्रमरकृति चामुण्डराय पुराण और उसके प्राचार्यों के ग्रन्थों से जाना जा सकता है । उसकी भ्रमर कीर्ति की प्रतीक श्रवणवेल्गोल में बाहुबलि की जगद्विख्यात एक विशाल मूर्ति (५७ फुट ऊँची ) प्रतिष्ठित है । इस मूर्ति के निर्माण का ले० नं० ३६५ में वर्णित है जिसका कि अन्यत्र उल्लेख किया गया' है । चामुण्डराय के दो गुरु थे एक का नाम था अजितसेन और दूसरे का नाम नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती । श्रवण वेल्गोल के एक लेख ( प्रथम भाग, १२२ ) से ज्ञात होता है कि इस सेनापति ने चिक बेट्ट पर एक बसदि बनवाई थी तथा ० नं० १५७ ( प्रथम भाग, ६७ ) से ज्ञात होता है कि उसके पुत्र जिनदेवगण ने भी जो कि जितसेन मुनि का शिष्य था, एक बसदि बनवाई थी । चामुण्डराय की जैन धर्म के प्रति की गई सेवाओं की छाप दक्षिण भारत में १. देखो, 'जैनधर्म के केन्द्र' प्रकरण | Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ शताब्दियों तक रही। ले०० ३६३ (प्रथम माग, १३७ ) में एक प्रसंग में लिखा है कि दिन शासन के स्थिर उद्धार करने में प्रथम कौन है ? तो उत्तर होगा राचमल्ल भूपति के वरमंत्री राय (चामुण्डराय) (पद्य २२)। ३. शान्तिनाथ-इसके सम्बन्ध में ले० नं० २०४ में लिखा है कि वह सहजकवि, चतुरकवि, निस्सहायकवि " नुनमहाकवीन्द्र था । उसकी उपाधि सरस्वती मुखमुखर थी। उसका यश अति विशद था और वह जिन शासन रूपी सत्सरोजिनी का कलहंस था । उसने अपने राजा लदमनृप से प्रार्थना कर बलिनगर में लकड़ी के बने जैन मन्दिर को पाषाण का बनवाया। इस मन्दिर का नाम मल्लिकामोद शान्तिनाथ था । १२ वीं शताब्दी में होय्सल वंश से सम्बन्धित हम अनेक जैन सेनापतियों को देखते हैं । इस वंश का प्रतापी नरेश विष्णुवर्धन था। उसकी अनेक विस्तृत विजयों का श्रेय उस नरेश के आठ जैन सेनापतियों को था। ये सेनापति थेगंगराज, बोप, पुणिस, बलदेवएण, मरियाने, भरत, ऐच और विष्णु । इन सेनापतियों के कारण ही होय्सल राज्य दक्षिण भारत की प्रधान शक्तियों में गिना आने लगा। ४. गंगराज-इन सेनापतियों में प्रधान था गंगराज। इसके सम्बन्ध में जैन शिलालेखसंग्रह प्रथम भाग की भूमिका में पर्याप्त लिखा गया है। इसके जीवन वृत्त को जानने के लिए इस संग्रह में दो दर्जन से अधिक लेख है । प्रस्तुत द्वितीय तृतीय भाग में इस सेनापति से सम्वन्धित केवल ले० नं० २६३, २६६, २६६, ३०१ और ४११ के मूल पाठ हैं । शेष २८५ (४३) २७८ ( ४४ ) २५४ (४६) २५५ (४७) २६० (६५) २८१ (४४६) २८३ (४८९) ३६६ (६० ) के मूल पाठ प्रथम भाग में दिए गये हैं, कोष्ठक में उन लेखों की संख्या दी गई है। प्रथम भाग के ले. नं० ७५, ७६, ४४७ और ४७८ इन भागों के लेखों की संख्या से नहीं पहिचाने जा सके। लेख २६३, २६६ और २६६ में उसकी अनेक सामरिक विजयों का उल्लेख तथा जैन मुनियों और Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मन्दिरों को अनेक प्रकार के दानों का उल्लेख है । इन लेखों में उसके दो जैन गुरुत्रों-मेषचन्द्र सिद्धान्त देव एवं शुभचन्द्र सिद्धान्त देव का नाम मिलता है। ले० नं० ३०१ में गंगराज की बड़ो प्रशंसा की गई है। उसकी मृत्यु के स्मारक स्वरूप उसके पुत्र बोप्प सेनापति ने दोर समुद्र में एक जिनालय बनवाकर पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की थी। उक्त लेख में लिखा है कि अनेक उपाधियों से विभूषित गंगसन ने अगणित ध्वस्त जैन मन्दिरों का पुनर्निर्माण कराया था। अपने अनवधि दानों से उसने गंगवाडि ६६००० को कोपण के समान चमकाया था। गंगराज के मत से ये ७ नरक थे-झूठ बोलना, युद्ध में भय दिखाना, परदारारत रहना, शरणार्थियों को शरण न देना, अधीनस्थों को अपरितृप्त रखना, जिनको पास में रखना चाहिए उन्हें छोड़ देना और स्वामी से द्रोह करना । । उक्त जिनालय का नाम गङ्गराज की एक विशिष्ट उपाधि पर से द्रोहघरट्ट जिनालय पड़ा था। इसी जिनालय की स्थापना को अपनी सुख समृद्धि के वर्धन में हेतु मानकर होय्सल विष्णुवर्धन वे इसे प्रामादि दान दिये थे। ५. बोप्प-गंगराज का पुत्र दण्डेश बोप्प देव भी बड़ा ही शूरवीर एवं धर्मिष्ठ था। उसने उपयुक्त द्रोहघरट्ट जिनालय के सिवाय दो और मन्दिर बनवाये थे, कम्बदहल्लि से शान्तीश्वर बसदि तथा सन् ११३८में त्रैलोक्यरखान दि जिसका दूसरा नाम बोप्पण चैत्यालय था ( ३०३)। इसे ले.नं० ३०३ में बुधबन्धु, सतां बन्धुः कहा गया है । इसी तरह ले. ३०१ और ४११ में उसके अनेक विशेषणों के साथ उसकी वीरता की प्रशंसा की गई है। ले.नं. ३०४ में उल्लेख है कि सन् ११३४ में उसने शत्रु पर श्राक्रमण किया और उनकी प्रबल सेना को खदेड़कर अपने मुनवल से कोडों को परास्त किया था। ६. पुणिस:-गंगराज के बहादुर साथियो में पुणिस भी था। उसके पूर्वन अमात्य होते आये थे। उसका पितामह पुणिसम्म चम्प था जो कि सकल शासन वाचक चक्रवति था । उसके ज्येष्ठ पुत्र चामण का पुत्र पुशिल था। यह होय्सल नरेश विष्णुवर्धन का सान्धिविप्रहिक था । ले० नं. २६४ में उसकी सामरिक शूर Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरता के कार्यों का वर्णन है । उसने अनेकों देश जीतकर होसल विष्णुवर्धन को दिये। पुणिस, गंगराज के समान ही विशाल हृदय का था। उसने धर्म और मानवता की समान दृष्टि से सेवा की। ले० नं० २६४ में लिखा है कि युद्ध के कारण जो व्यापारी बिगड़ गये थे, जिन किसानों के पास बीज बोने को नहीं था, जो किरात सरदार हार जाने से अधिकार वंचित हो नौकर हो गए थे, उन्हें तथा उन सबको जिनका जो नष्ट हो गया था,वह सब पुणिस ने दिया और उनके पालन पोषण में मदद की । उक्त लेख में यह भी उल्लेख है कि उसने एगणनाड़ के अरकोटार स्थान में अपने द्वारा बनवाई गई त्रिकूट बसदि से संलग्न बसदियों के लिए भदान दिया तथा निर्भय होकर गंगों की तरह गंगवाडि की बसदियों को शोभा से सज्जित किया ।। ७. बलदेवण्पा:-विष्णुवर्धन का चौथा सेनापति बलदेवण्ण था ले० नं. २९.६ मे इसके सम्बन्ध में थाड़ा परिचय मिलता है। वह राजा अरसादित्य और आचाम्बिके का तृतीय पुत्र था। उसके दो बड़े भाइयों का नाम पम्पराय और हरिदेव था। लेख में उसके 'मंत्रियूथाग्रणि, गुणी, सकलसचिवनाथ एवं जिनपादांघ्रि सेवक' आदि विशेषण दिये गए हैं। ८-६. मरियाने और भरतः-होय्सल विष्णुवर्धन के सेनानायकों में दो भाई-दण्डनायक मरियाने और भरत या भरतेश्वर भी थे। इनके वंश का परिचय ले० नं. ३०७, ३०८ और ४११ में दिया गया है जिससे ज्ञात होता है कि इसके बंशज होयसल राजवंश से सम्बन्ध रखते थे। इस कारण इन दोनों भाइयों का पद सर्वाधिकारो, माणिकभाण्डारी तथा प्राणाधिकारी था। विष्णुवर्धन ने मरियाने दण्डनायक को अपना पट्टदाने ( राज्य गजेन्द्र ) समझकर ही उसे सेनापति बनाया था । ये दोनों भाई जैसे शूर वीर थे वैसे ही धर्मिष्ठ थे। लेख में इन्हें 'निरवद्यस्यावादलदमीरत्नकुण्डल, नित्याभिषेकनिरत, जिनपूजामहोत्सा हजनितप्रमोद, चतुर्विधदानविनोद' श्रादि कहा गया है। ले० नं० ३०७ में भरत के अनेक गुणों की प्रशंसा की गई है। वहाँ लिखा है कि उसका धन जिनमन्दिरों के लिए था, क्या सभी प्राणियों के लिए थी, उसका अच्छा मन जिनराज की पूजा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं था औदार्य सजन वर्ग के लिए तथा दनि सन्मुनीन्द्रों के लिए बा । भवन गोल से प्राप्त लें. नं. ३५४. और ३५५ से विदित होता है कि उसने वरवेल्गोल में ८० नई बसदियां बनवायीं और गंगवाडि की २०० पुरानी बसदियों का जीर्णोद्धार कराया था। इन दोनों भाइयों के गुरु थे देशीगण, पुस्तक गच्छं के प्राचार्य माघनन्दि के शिष्य गण्डविमुक्त प्रती। ले० नं. ४११ से हात होता है कि ये दोनों भाई विष्णुवर्धन के बेटे नारसिंह के समय में भी विद्यमान थे। इन दोनों ने ५०० होन्नु देकर उक्त नरेश से सिन्दगेरी श्रादि तीन गांवों का प्रभुत्व प्राप्त किया था। १०. ऐच:-गंगराज का भताजा एवं उसके बड़े भाई का पुत्र ऐच मी विष्णुवर्धन के सेनापतियों में था। उसकी शूरवीरता श्रादि के सम्बन्ध में विशेष तो नहीं मालुम पर ले० नं० ३०४ (प्रथम भाग १४४ ) में लिखा है कि उसने कोपण, बेल्गुल आदि स्थानों में अनेक जिन मन्दिर बनवाये और सन् ११३५ में संन्यासविधि से प्राणोत्सर्ग किया । गंगराज के पुत्र बोप्प ने अपने चचेरे भाई की स्मृति में निषद्या बनवाई थी। 1 ११. विष्णु दण्डाधिप-ले० नं० ३०५ से ज्ञात होता है कि विष्णुवर्धन होयसल का एक और सेनापति था जिसका नाम विष्णु दण्डाधिप या माडि दानायक बिटियण्ण था। इसने आधे महीने में ही दक्षिण प्रान्त की विजय कर ली थी। विष्णुवर्धन होय्सल का यह दाहिना हाथ था। यह बचपन से ही उक नरेश का प्यारा था। लेख में लिखा है कि किशोरावस्था प्राप्त होने पर नरेश ने इसका बड़े उत्सव के साथ स्वयं ही उपनयन संस्कार कराया, सात आठ वर्ष की आयु के बाद जब वह समस्त शास्त्र विज्ञान में पारंगत हुना तब उसको अपने प्रधान मंत्री की सर्व लक्षण सम्पन पुत्री न्याह दी और १०-११ वर्ष की उम्र में महापचण्ड दण्डनाय तथा सर्वाधिकारी का पद दिया। १. प्रथम भाग, ३६५. २. वही, ११५, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ यह सेनापति बड़ा ही धर्मिष्ठ एवं दानी था । इसने कई सार्वजनिक कार्य कराये थे तथा राजधानी दोरसमुद्र में एक जिनालय बनवाया था । इसके गुरु श्रीपाल त्र विद्यदेव था जिन्हें उक्त जिनालय के प्रबन्ध और ऋषियों के श्राहार दान के हेतु उसने एक ग्राम और भूमियां दान में दी थीं । का नाम १२. मादिराज - विष्णु वर्धन का एक जैन मंत्री महाप्रधान मादिराज था । ले० नं० ३१६ में उसके धार्मिक गुणोंकी बड़ी प्रशंसा की गई है। वह श्रीकरण का अधिपति था और अपनी वक्तृता से सभा भवन को प्रभावित किये था । वह कोष का लेखा रखता था । उसके भी गुरु श्रीपाल त्रै विद्यदेव थे । विष्णुवर्धन के उत्तराधिकारी नरसिंह के भी चार सेनापति जैन धर्मावलम्बी थे । वे थे देवराज, I हुल्ल, शान्तियण और ईश्वर चमूप । १३. देवराज - ले० नं० ३२४ में देवराज का उल्लेख है । इसका गोत्रकौशिक था । लेख में इसे 'श्रीजिनधर्मनिर्मलाम्बरहिमकर' एवं 'श्रीहोय्सल महीशराज्यभूभृन्निलय मणिप्रदीपकलश' कहा गया है। राजा नरसिंह ने उसकी धर्मबुद्धि और स्वामिभक्ति से प्रसन्न होकर उसे सूरनहल्लि गाँव दिया जहाँ उसने जिन चैत्यालय बनवाया जिसके लिए होय्सलदेव ने अष्टविधार्चन और श्राहार दान के निमित्त १० होन्नु दान में दिये और गाँव का नाम पार्श्वपुर रख दिया । उक्त ले० में उसके गुरु मुनिचन्द्र का नाम दिया है। उन गुरु की पट्टावली भी उक्त ले० में दी गई है। ਚਰ भाग की १४. हुल्ल -नरसिंह होय्सल का द्वितीय सेनापति हुल्ल या हुल्लप था । युग में जैन धर्म के उद्धारकों में चामुण्डराय और गंगराज के बाद हुल्लप का ही नाम आता है। इसके सम्बन्ध में जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भूमिका में पर्याप्त लिखा गया है। इस संग्रह में ये ले० नं० ३४८, ( २८ ) ३६२ (४०) ३६३ ( १३७ ) ३८१ ( ४६१ ) ३६६ (६०) इस सेनापति से सम्बन्धित है। कोटक में प्रथम भाम के लेखों की संख्या दी गई है। इस सेना • Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. पति ने होसल विष्णुवर्धन, नरसिंह और बालाल द्वितीय के राज्य में होय्सल बंश की सेवा की थी। १५. शान्तियण्ण-ले० नं. ३४७ में उक्त नरेश के एक और जैन सेनापति शान्तियएण का नाम मिलता है। वह पारिसरण और बम्मलदेवी का पुत्र था । पारिसरण मरियाने दण्डनायक का दामाद था। लेख में उसे महाप्रधान, पट्टिस भण्डारि ( भालों का अध्यक्ष) कहा गया है। उसने युद्ध में शत्रुओं को परास्त कर अन्त में अपने प्राण दे दिये। उस पर नरसिंह ने उसके पुत्र शान्तियएण को करगुएड का स्वामी तथा सेना का दण्डनायक बना दिया । उक्त स्थान में शान्तियएण ने अपने पिता की स्मृति में एक बसदि बनवायी और उसकी सुरक्षा के लिए दान दिया । उसके गुरु मल्लिषेण पण्डित थे। १६. ईश्वर चमपः-ले० नं० ३५२में उक्त नरेश के राज्य में एक जैन सेनापति का और उल्लेख है । वह है महाप्रधान, सर्वाधिकारी, दण्डनायक एरेयङ्ग का पादोपजीवी ईश्वर चमूप । ये दोनों श्वसुर दामाद थे । ईश्वर चमूपति ने जिनालयों की मरम्मत करवायी और उसकी पत्नी माचियक्क ने मरदबोलल नामक पवित्र तीर्थ में एक जिन मन्दिर एवं एक तालाब बनवाया । उसके गुरु का नाम गण्डविमुक्त मुनिप था । ___नरसिंह के उत्तराधिकारी बबाल द्वितीय के समय भी होयसल राज्य का भाम्य निर्माण करने वाले कुछ जैन सेनापति थे। १७. रेचरसः-ले० नं. ४६५में उल्लेख हैकि बल्लालदेवकी रत्नत्रय और धर्म में हढ़ता सुनकर कलचूर्य कुल के सचिवोत्तम रेचरस ने बलालदेव के चरणों में आश्रय पाकर अरसियरे में सहस्रकूट बिन की प्रतिमा स्थापित की और मन्दिर की व्यवस्था के लिए राजा बल्लाल से हन्दरहालु ग्राम प्राप्त कर अपने वंश के गुरु सागरनन्दि सिद्धान्त देव को सौंप दिया। उक्त जिनालय का नाम एल्कोटि चिनालय था। इस रेचरस के सम्बन्ध में ले० नं. ४०८ में लिखा है कि वह ३३ वर्ष पहले सन् १९९२ में कलरिवंथ के नरेश विमल का दण्डाधिनाय था। उक्त लेख में इसकी अनेक विष प्रशंसा एवं वर का परिचय दिया गया है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस लेख में लिखा है कि रेचण को कलचुरि नरेशों से बहुत से देश मिले ये उनमें नागर खण्ड था । वहाँ मागुडि नामक स्थान में, शान्तिनाथ जिनालय के लिए उसने दानादि दिये थे। श्रवणवेल्गोल से प्राप्त एक लेख नं० ४२९ (प्रथम भाग ४७१ ) से शात होता है कि उसने सन् १२०० के लगभग शान्तिनाथ भगवान की प्रतिष्ठा करायी और बसदि को कोल्हापुर के सागरनन्दि को सौंप दिया । लेख में उसे 'वसुधैकबान्धव' कहा गया है। १८. बूचिराजः-होय्सल बल्लाल द्वितीय का दूसरा सेनापति बृचिरान था। ले. नं० ३७६ में उसे मन्त्रीश्वर एवं सांधिविग्रहिक कहा गया है। उसमें चतुर्विध पाण्डित्य था तथा वह संस्कृत और कमड दोनों भाषाओं में कविता कर सकता था। इसके अतिरिक उसकी धर्मिष्ठता की अनेक विध प्रशंसा की गई है। उसने सन् १९७३ में राजा बल्लाल के पट्टबन्धोत्सव के समय सीगेनाड के मारिकलि स्थान में त्रिकूट जिनालय बनवाया और मन्दिर की पूजा, जीणोद्धार एवं प्राहार दान श्रादि के लिए अपने गुरु वासुपूज्य सिद्धान्त देव को मारिकलि ग्राम भेंट में दिया। ११. चन्द्रमौलिः-उक्त बल्लाल नरेश के राज्य में जैनधर्म के प्रति उदारता दिखलाने वाला एक शैव मंत्री चंद्रमौलि था। ले० नं. ४०६ (प्रथम भाग ४६४ ) में वह भारत शास्त्र, श्रागम, तर्कव्याकरण, उपनिषद, नाटक, काव्य श्रादि में विद्वन्मान्य था तथा बल्लालनप के दाहिने हाथ का दण्डस्वरूप था । यद्यपि वह स्वयं कट्टर शैव था पर उसकी पत्नी श्राचलदेवी परम जैन धर्माबलम्बिनी थी। उस देवी ने अक्णवेल्गोल तीर्थपर बड़ी भक्ति के साथ पार्श्वनाथ का मन्दिर निर्माण कराया और मंत्री चंद्रमौलि ने राजा बल्लाल से स्वयं प्रार्थना कर उक्त जिनालय की पूजादि के लिए बम्मेयनहल्लि नामक गाँव दान में दिलाया। २०. नागदेवः-बल्लाल द्वितीय के मंत्रियों में एक जैन मंत्री नम्गदेव भी था । वह बोम्मदेव सचिव का पुत्र था। ले० नं. ४२८ (प्रथम भाग १३.) में लिखा है कि वह बैन मन्दिरों का प्रतिपालक था तथा राजा ने उसे पटन Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ स्वामी बनाया था। उसके गुरु का नाम नयकीर्ति सिद्धान्तदेव था । उसने सन् १९९५ में भवणवेल्गोल तीर्थ पर पाश्वदेव के श्रागे नृत्यरंगशाला एवं शिलाकुटिम बनाकर अपने दिवंगत गुरु की स्मृति में एक निषिधि बनवायी थी। जिनधर्म के लिए नागदेव की स्थायी कृति थी श्रवणवेल्गोल में 'श्रीनिलय' नगरजिनालय का निर्माण तथा उसके लिए भूमिदान । उसके प्रतिपालन के लिए उसने खएडलि और मूलभद्र के वंशज श्रवणवेल्गोलवासी वणिजों को नियुक्त किया था। २१. महादेव दण्डनाथ:-जैन मंत्रियों में उस मंत्री का नाम भी उल्लेखनीय है । वह बल्लाल द्वितीय के महामण्डलेश्वर एक्कलरस का महाप्रधान था। उसके गुरु का नाम सकलचन्द्र भट्टारक था । लेख नं० ४३१ में लिखा है कि उसने सन् १९६८ में उद्धरे नामक स्थान में एक अनुपम जिनालय बनवाया और उसका नाम एरग जिनालय रखा और उक्त जिनालय की पूजा, जीर्णोद्धार के हेतु स्वयं बहुत प्रकार के दान दिये तथा एक्कलरस आदि से भी विविधदान दिलाये। २२. कम्मट माचय्यः-सन् १२०० के लगभग के कुम्बेयनहल्लि ग्राम से प्राप्त एक ले० नं. ४३७ (प्रथम भाग ४६५ में एक और जैन मंत्री का उल्लेख है। वह है महाप्रधान, सर्वाधिकारी, तन्त्राधिष्ठायक, कम्मट माचय्य । उसने उक्त सन् में अपने श्वसुर के साथ कुम्बेयनहल्लि नामक ग्राम में परिमादिमल्ल जिनालय के लिए दान दिया था। उक्त लेख में यह भी लिखा है कि महाप्रधान, सर्वाधिकारी हरियएण ने कुम्बेयनहल्लि के देव की प्रतिष्ठा की थी। २३. अमृतः-ले० नं० ४५२ से विदित होता है कि बल्लाल द्वितीय के अमृत नाम का एक और दण्डनायक था जो कि महाप्रधान, सर्वाधिकारी, महापसायस (आभूषणाध्यक्ष ) एवं भेरुदन मोत्तदिष्टायक ( उपाधिधारियों का अध्यक्ष ). था। लेख में उसे कविकुलज और चतुर्थवर्ण (शुद्र ) का कहा गया है । उसे 'धार्मिक, भमति, पुण्याधिक, मंत्रिचूडामणि, सौम्यरम्याकृति कहा गया है। उसने श्रोक्ल गैरे में सन् १२०३ में एक्कोटि नामक जिनालय बनवाया और सभी. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ पाम्बब्बे ने, जो अभयनन्दि पण्डितदेव की शिष्या नाणब्बेकन्ति की शिष्या थो, केशलोंच करने के बाद तप के पूरे ३० वर्ष पूर्ण किए और पांच अणुव्रतों (१) को धारण कर दिवंगत हुई । लेख में उसके व्रत एवं तपस्या की प्रशंसा है। कोङ्गाल्व वंश की जैनधर्म के प्रति भक्ति सुविदित है। उक्त वंश के राजा राजेन्द्र कोङ्गाल्व की मां पोच्चब्बरसि ने सन् १०५० में एक बसदि बनवायी थी, और उसमें अपने गुरु गुणसेन पण्डितदेव की मूर्ति स्थापित की थी तथा सन् १०५८ में उसने उक्त बसदि को भूमिदान दिया था (१८८, १८१) ले.नं. ५६० में कोङ्गाल्व वंश की एक और महिला सुगुणिदेवी का नाम दिया गया है जिसने अपनी माता के पुण्यार्थ एक प्रतिमा की स्थापना की और भूमिदान दिया। जैन सेनापतियों की परिनयों का भी जैनधर्म की सेवा में बड़ा हाथ था। इनमें सबसे उल्लेखनीय नाम है सेनापति गंगराज की पत्नी लक्कले या लक्ष्मीमती का। वह लक्ष्मोमती दण्डनायकिति कहलाती थी। उसे लेख नं०२५८ (प्रथम भाग, ६३, में गंग सेनापति के 'कार्ये नीतिवधू' और 'रणे जयवधू' कहा गया है। उसने सन् १९१८ में श्रवणवेल्गोल में एक जिनालय वनवाया था। ले० नं० २६८(प्रथम भाग ५६) से ज्ञात होता है कि सेनापति गंगराज ने अपने राजा विष्णुवर्धन से एक गांव पारितोषिक रूप में पाकर अपनी माता पोचल देवी एवं अपनी भार्या लक्ष्मी देवी द्वारा निर्मापित जैन मन्दिरों के रक्षार्थ अर्पण किया था। लक्ष्मीमति ने भी श्राहार, अभय, औषधि और शास्त्र इन चारों दानों को देकर 'सौभाग्यखानि' पद पाया था ( २५५, प्रथम भाग, ४७)। ले० नं. .२७९ (प्रथम भाग, ४८ ) में लक्ष्मोमति के रूप, गुण, शाल श्रादि की प्रशंसा की गई है। इस धर्मपरायण महिला ने सन् १९२१ में संन्यास विधि पूर्वक शरीर त्यागा था। सेनापति गङ्गाराज ने अपनी साध्वी पत्नी की स्मृति में एक निषद्या बनवा दी थी। गङ्गराज के बड़े भाई का नाम बम्मदेव चभूप था। इसकी पत्नी अक्कमब्वे थी जो कि दण्डनायकीति कहलाती थी। वह सेनापति बोप्प की माता थी तथा "एमचन्द्रदेव की शिष्या थी। प्रथम भाग के ले० नं. ४६ और ४८e से संत Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪૨ होता है कि उसने मोक्षतिलक नामक प्रत किया था और पाषाण पर नयणदेव की मूर्ति खुदवायी थी । उसी वर्ष उसने श्रवणबेलगोल में मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी एवं वहाँ एक तालाब खुदवाया था । ले० नं० २८५ (प्रथम भाग, ४३ ) में इस महिला की बड़ी प्रशंसा है। ले० नं० २८ से एक श्रौर जैनधर्म भक्त महिला का नाम ज्ञात होता है । वह है कालियक्कबे, जो कि चालुक्य नरेश त्रिभुवनमल्ल के सामन्त पारड्य भूपाल के सेनापति सूर्य की पत्नी थी । इसने सन् १२२८ में साम्बनूरु में एक सुन्दर जिनालय बनवाया और पूजा के हेतु तथा पुजारी की ब्राजीविकार्थं मन्दिर के पुरोहित को कुछ भूमि दान में दे दी । दिया था । ले० नं० ३१३ में हमें दानशील तीन महिलाओं के नाम मिलते हैं । गंग नरेश मारसिंह की छोटी बहिन सम्गियन्त्ररसि ने उद्धरे नामक स्थान में अनेक जैन मुनियों को दान दिलाया और पञ्चवसदि जिनालय को सजाया था, तथा वसदि के लिए सवरणविलि नामक ग्राम दान में उसी लेख में safeब्बरसि नामक एक महिला का उल्लेख है । उस महिला ने जहाँ जिन मन्दिर नहीं थे वहाँ जिन मन्दिर बनवाये और जहां जैन यतियों को आमदनी के क्षेत्र नही थे वहां उसने दान दिये। तीसरी महिला शान्तियक्क ने, जो कि बोप्प दण्डेश की भतीजी एवं केतिसेट्टि की पत्नी थी, उद्धरे में एक बसदि बनवायी । ले० नं० ३३६ में जैन धर्म परायणा दो बहिनों का नाम आता है । वे हैं Geoबे र पद्मिक्क । जक्कब्बे के विषय में लिखा है कि वह होय्सल नरेश नरसिंह के पुराने सेनापति चाविमय्य की पत्नी थी । उसने हेरगू में एक जिनालय बनवाकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी तथा पूजनादि प्रबन्ध के लिए नरसिंह से भूमि का दान भी ले लिया था । इसी तरह ले ० नं० ३५२ में ईश्वर चमूप -की पत्नी माचियक्क द्वारा जिन मन्दिर निर्माण एवं भूमिदान का उल्लेख है। ले० नं० मालियक्क को अन्तसून गुणरत्नमण्डन एवं चातुर्वण्णसमुदयैकशरण कहा गया है । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rrr चैन धर्म पर अचल श्रद्धा रखने वाली एक विशिष्ट महिला श्राचल देवी का उल्लेख करना यहाँ श्रावश्यक है । वह शैव धर्म को मानने वाले सेनापति चन्द्रमौलि की पत्नी थी । वह अपने चार प्रकार के दान के लिए विख्यात थी । उसके इस कार्यों में उसके पति ने कभी बाधा नहीं दी बल्कि धार्मिक उदारता के कारण उसने सहायता ही की है । श्राचल देवी ने श्रवणवेल्गोल में एक जिनालय बनवाया और उसके पति ने अपने नरेश होय्सल बल्लाल से बम्मेयन इति नामक गांव दान में दिलाया ( ले० नं० ४०३, प्रथमभाग १२४ ) । ले० नं० ४०४ ( प्रथम भाग १०७ ) से ज्ञात होता है कि वीर बल्लाल ने उक्त महिला की प्रार्थना पर बेक्क नामक ग्राम भी गोम्मटेश्वर की पूजा के हेतु दिया था । मंत्री एचण की पत्नी सोमल देवी भी जैन महिलानों में उल्लेखनीय है । ले० नं० ४५१, ४५५ और ३५६ में उसकी प्रशंसा है। उसने बेलवते नाड् में एक जैन बसदि का निर्माण कराया और उसके पूजन के हेतु दान भी दिया था । यह नहीं समझना चाहिए कि राजघराने, सामन्तों एवं सेनापतियों की पत्नियों में ही जिन धर्म के प्रति विशेष अनुराग था बल्कि वैसा ही अनुराग नागरिकों की पत्नियों में भी देखने को मिलता है । ले० नं० ३५३ में लिखा है कि tfs aक्कय्य और उसकी पत्नी जक्कब्बे ने दीडगुरु में एक चैत्यालय बनवाया और पार्श्वनाथ भगवान् की स्थापना करके देवपूजा और ऋषियों के श्राहार के लिए भूमिदान दिया । ले० नं० ३८३ में जैनधर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखनेवाली हर्य्यले महासती का उल्लेख है । उक्त लेख में लिखा है कि उक्त सती ने मृत्यु के समय अपने पुत्र भूवय नायक को बुलाकर कहा कि स्वप्न में भी मेरा ख्याल न करना, केवल धर्मं का विचार करना । यदि मुझे और तुम्हें पुण्योपार्जन करना है तो जिन मन्दिर बनवाओ आदि । इसके बाद जिनेन्द्र के चरणों में पंच नमस्कार मंत्र को जपते हुए उसने समाधि से देह त्याग दिया । ले० नं० ३८४ से मालुम होता है कि Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तरह चन्द्रायण देव की गृहस्थ शिष्या हरिहर देवी भी समाधिमरण से दिवंगत हुई थी । ११वीं शताब्दी के मध्य के नल्तूर से प्राप्त एक लेख (१८३) में after a नामक श्राविका भी संन्यसन विधि से स्वगंगत हुई थी। १२वीं शताब्दी के उत्तरार्धं और १२वीं के पूर्वार्ध के ऐसे अनेकों लेख इस संग्रह में हैं जिनमें समाधिभावना से देहोत्सर्ग करनेवाली अनेकों महिलाओं का उल्लेख है । ले० नं० ४२३ में शान्तियक्क या शान्तले, ले० नं० ४३६ में मालब्बे तथा ले० नं० ४२७ में मक्कब्बे का नाम, यहाँ उदाहरण के रूप में समझना चाहिये । ८. धार्मिक उदारता एवं स हष्णुता इन लेखों में सहिष्णुता के अनेक उदाहरण मिलते हैं । जैनाचार्यों और जैन नेताओं, नरेशों, सामन्तों और सेठों में भारतीय संस्कृति के अनुरूप यह विशेष गुण था और इस भावना का उन्होंने निष्पक्षभाव से प्रदर्शन भी किया । इन लेखों से जैनाचार्यों की विद्वत्ता एवं इतिहासप्रियता के साथ साथ उनकी विस्तीर्ण हृदयता का परिचय मिलता है। उन्होंने शिलालेखों की रचना ही अपने स्थानों और धर्म और सम्प्रदाय के लेखों के उपयोग के लिए नहीं की प्रत्युत अन्य धर्म और सम्प्रदाय के उपयोग के लिए भी की । उदाहरण स्वरूप दिगम्बराचार्य रामकीर्ति ने चित्तौड़गढ़ से प्राप्त प्रशस्ति ( ३३२ ) वहाँ के तोकलजी के मन्दिर के लिए लिखी थी । बृहद्गच्छ के जयमंगल सूरि ने सुन्ध पहाड़ी से प्राप्त एक लेख ( ५०७ ) लिखा जो कि वहां चामुण्डा देवी के मन्दिर से प्राप्त हुआ है । इसी तरह यशोदेव दिगम्बर ने ग्वालियर के कच्छवाहों की प्रशस्ति तथा रत्नप्रभसूरि ने गुहिलोत वंश के घाघा एवं चिर्वा से प्राप्त लेख लिखे । पीछे के ये लेख इस संग्रह में नहीं है । यहाँ यह न समझना चाहिये कि वे लेख उन स्थानों में जैनों से छीन कर ले जाये गये हैं, प्रत्युत इसके विपरीत, वे लेख विशेषतः उन स्थानों के लिए हो जैनाचार्यों ने लिखे थे, क्योंकि उन लेखों के अन्त में जैनाचार्यों के नाम, गुरु परम्परा, गण, गच्छ के सिवाय हमें ऐसा कुछ नहीं मिलता जो जैनों से सम्बन्धित हो। यहां 1 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक कि मङ्गलाचरण के पद्य भी अजैन देवी देवताओं के मंगलाचरण से प्रारम्भ होते हैं। हां, कुछेक में ॐ सर्वशाय नमः, पद्मनाथाय नमः आदि से उनका प्रारम्भ हुआ है । ये लेख निश्चय रूप से जैनाचार्यों की विशाल हृदयता को वचित करते हैं। बैनाचार्यों की इस नीति का अनुसरण जैन नेताओं ने भी किया। ले० नं. १८१ ( सन् १०४८ ) से विदित होता है कि एक जैन महामण्डलेश्वर चामुण्डराय ने बनवसेनाड़ में जिननिवास, विष्णुनिवास, ईश्वरनिवास, और जैन . मुनियों के लिए निवास बनवाये थे। इसके समान ही और दूसरे सामन्त थे जो जैन और ब्राह्मणों में भेद नहीं मानते थे । ले. नं० २४६ से विदित होता है कि नोलम्बवाड़ी के शासक बम्मरस ने सन् ११०६ में एक जैन मन्दिर तथा सपेश्वर देव के लिए चुगी से प्राप्त आय को तथा कई प्रकार के और दानों को दिया था । सामन्तों की ऐसी रुचि को सूचित करने वाले और भी लेख है। ले० नं० ३५६ से मालुम होता है कि सामन्त गोव, महेश्वर, बौद्ध, वैष्णव एवं अहन् इन चार समयों का प्रतिपालक था। ब्राह्मण और जैनों के बीच असाधारण हार्दिक सम्बन्ध था। ले० नं० ४४८ से ज्ञात होता है कि सन् १२०४ में नागर खण्ड के पांच अग्रहारों के ब्राह्मणों ने स्थानीय अधिकारियों, सेठों, नागरिकों और किसानों के साथ मिलकर बन्दिलिके के शान्तिनाथ की पूजा के लिए भूमिदान किया । धार्मिक उदारता के विषय में अदलकुल के सामन्तों का नाम विशेष उल्लेखनीय है । इस वंश के सामन्त विष्णुवर्धन ने सन् ११४० में अपने ही क्षेत्र में एक शिवमन्दिर तथा अदल जिनालय बनवाया था (३१५)। इसी वंश के एक ले० नं ३३३ का मंगलाचरण सर्वधर्म समन्वय की भावना से श्रोतप्रोत है। शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ) । इस लेख में उदारचेता सामन्त बाचि की विस्तार पूर्वक प्रशंसा की गई है। उक्त सामन्त्र ने कैदाल नामक स्थान में न केवल जैन मन्दिर ही बनवाया था बल्कि गंगेश्वर, नारायण, चलवरिवरेश्वर तथा रामेश्वर के मन्दिर भी बनवाये थे। उसने अपनी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ पत्नी भीमले के नाम पर मीम जिनालय तथा भीम समुद्र नामक विशाल तालाब बनवाकर पार्श्वदेव के नाम पर कर दिया था। उक्त लेख में बाचिराज को चतुः समय-धर्मोद्धार-धौरेय कहा गया है। हमें अन्य जैन लेखों से मालुम होता है कि १३ वीं शताब्दी के मध्य तक धार्मिक उदारता की भावना का अच्छा प्रचार था पर तेरहवीं के अन्तिम पाद के बाद १०० वर्षों तक दक्षिण भारत के ऊपर मुस्लिम आक्रमणों के कारण उनसे रक्षा के महत्त्वपूर्ण प्रश्न के श्रागे धार्मिकता का प्रश्न फीका पड़ गया । किसी तरह मुस्लिम श्रातङ्कों का जोर कम करने के लिए विजय नगर साम्राज्य की स्थापना हुई। इस वंश के राजाश्रों में धार्मिक निष्पक्षता का एक सन् १३६३ के एक लेख ( ५६१ ) से विदित होता शासन काल में जैन मन्दिर की सीमाओं के विषय । बड़ा महत्त्वपूर्ण गुण था है कि बुक्कराय प्रथम के में जब हेर नाड के लोगों और मन्दिर के आचार्यों में तो राज्य कीर से उस मामले को जाँच पड़ताल हुई। नागरण ने वृद्धजनों की एक सभा में फैसलाकर मन्दिर की शासन पत्र भी लिख दिया । झगड़ा उठ खड़ा हुआ राज्य के प्रधान मंत्री टीक सीमा बाँधकर इसके पाँच वर्ष बाद सन् १३६= में बुक्कराय के सामने जैनों और भक्तों ( श्रीवैष्णवों ) के बीच धार्मिक विवाद फिर खड़ा हुआ । ले० नं० ५६५ . ( प्रथम भाग, १३६ ) और ले० नं० ५६६ में इन घटनाओं का चित्रण है । इन लेखों में लिखा है कि जैनों ने अपने ऊपर वैष्णवों द्वारा हुए अन्याय की शिकायत लिखित रूप में बुक्कराय से की तब बुक्कराय ने स्वयं इस बात की जाँच की और जैनों के हाथ को वैष्णवों और उनके श्राचार्य के हाथ में रखकर कहा कि जैन दर्शन एवं वैष्णव दर्शन में कोई भेद नहीं 1 जैन धर्म वाले भी पिंच महावाद्य बजा सकते हैं । जैन धर्म की हानिवृद्धिको वैष्णुत्रों को अपनी हानिवृद्धि समझना चाहिये । वैष्णवों को इस विषय के शासन पत्र समस्त बसदियों में लगाना चाहिये। जब तक सूर्य और चन्द्र हैं तब तक वैष्णव जैन धर्म की रक्षा करेंगे। जो इस नियम को तोड़ेगा वह राजा, संघ एवं समुदाय का द्रोही Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ होगा। ले.नं० ५६६ के अन्त में लिखा है कि जैनों और वैष्णवों ने मिलकर बसवि सेटिको संघ नायक की उपाधि दी। उपयुक्त तीन लेखों से ज्ञात होता है कि विजयनगर नवोदित हिन्दू समाज के अधिनायकों में देश की सुरक्षा और शान्ति के साथ धार्मिक निष्पक्षता का बड़ा ध्यान था। इस बात के प्रमाण अन्य लेखों में भी मिलते हैं जो कि इस संग्रह में नहीं है। धर्म समभाव की इस भावना का प्रभाव हम कतिपय शिलालेखों के प्रारंभिक मंगल पद्यों में भी पाते हैं। ले.नं. ६४६ पार्श्वनाथ जिनेश्वर के नमस्कार से प्रारम्भ होता है । तत्पश्चात् जिनशासन की प्रशंसा व पञ्चपरमेष्ठियों के नमस्कार के बाद नमस्तुगशिरः प्रादि पदों से शम्भु की स्तुति है। उसके बाद बराह और शम्भु की स्तुति की गई है । ले० नं० ६८८ में भी जिनशासन की स्तुति तथा शम्भु की स्तुति साथ साथ की गई है। जैन और शैवों के परस्पर मेल मिलाप को प्रदर्शन करने वाले एक महत्वपूर्ण लेख की ओर भी हम ध्यान दें। ले० नं. ७१० के प्रारम्भ में जिनशासन और शम्भु की स्तुति के बाद एक घटना का उल्लेख है। विजयनगर के प्रारवीडू वंश के नरेश बेकटाद्रि द्वितीय के राज्य में एक वीर शिव हुचप्प देव ने हलेवीड की विजय पार्श्व बसदि के खम्भे पर लिंग मुद्रा लगा दी थी जिसे विजयप्प नामक जैन ने साफ कर दी। तब पद्यगण सेट्टि आदि जैनों ने यह समझा कि इससे दूसरे धर्म वालों की भावना को क्षति पहुँचेगी, वीर शैवों के मुखियों से निवेदन किया। इस पर दोनों सम्प्रदाय के लोग इकट्ठे हुए और उचित जांच के बाद उन्होंने प्राशा निकाली की कि विभूति और विल्वपत्र प्रदान करने के बाद जैन लोग प्राचन्द्रसूर्य अपनी सब धर्म विधि कर सकते हैं। इसके बाद इस शासन पत्र पर राज्य की स्वीकृति ली गई और वह वीर शैवों की ओर से जैनों को समर्पण किया गया । लेख के अन्त में वीर शैव सम्प्रदाय ने अपने उदार भाव दिखलाये हैं कि जो व्यक्ति जैन धर्म का विरोध करेगा वह महामहत्तु के चरणों से निकाल दिया बागा, वह शिव, जंगम तया काशी, रामेश्वर के लिंग का द्रोही समझा जायगा। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अन्त में महामहत्तु की स्वीकृति के बाद वर्धतां जिनशासनम् लिखा है। ९. जैनधर्म पर संकट १२ वीं शताब्दी के बाद दक्षिण भारत में जैन धर्म के पतन के एवं विखलित होने के चार प्रधान कारण थे। प्रथम तो वह राज्याश्रय से वंचित हो गया था, गंग, राष्ट्रकूट, होय्सल जैसे साम्राज्य नष्ट हो चुके थे। द्वितीय, पश्चात्कालीन जैन नेता गण ब्राह्मण धर्म के नवोदित रूप वैष्णव और वीर शैव सम्प्रदाय से जैन धर्म की रक्षा करने में उदासीन हो रहे थे। जैनाचार्यों में ऐसे कोई प्रभावक श्राचार्य न थे जो कि धार्मिक क्षेत्र में प्रतिद्वन्द्वियों को परास्त करते। ___ तृतीय, जैन मन्दिरों को श्राश्रय देने वाले व्यापारी संघ, वीर वणिज आदि वीर शैव धर्म के प्रभाव में आकर जैन धर्म को छोड़ चुके थे। शेष सामान्य जन वर्ग में ऐसी शक्ति न थी कि वे संगठित हो विधर्मियों का प्रतिरोध कर सकते। चतुर्थ, वीर शैव धर्म के प्राचार्यों ने जैन धर्म के केन्द्रों पर हमला करना प्रारम्भ किया और स्थानीय सामन्तों को अपने धर्म में परिवर्तित कर उनसे ही जैनों का तिरस्कार कराया। उपयुक्त बातें जैन लेखों पर दृष्टिपात करने से भलीभांति सिद्ध होती हैं। इस संग्रह के लेख नं० ४३५ और ४३६ से वीर शैव धर्म के एक प्राचार्य एकान्तद रामय्य के सम्बन्ध में ज्ञात होता है कि उसने कलचूरि नरेश बिज्जल को अपने प्रभाव में लाकर जैनों पर भयंकर उत्पात किए थे। उसने अन्लूर में जैनमूर्ति को फेंककर वेदी को ध्वस्त कर दिया और शिवलिंग की स्थापना की । इस पर जैनों ने कलचूरि नरेश विजल से शिकायत की पर वह तो उक्त आचार्य के प्रभाव में था। इसने उनका उपहास किया और एकान्तद रामय्य को प्रोत्साहन देते हुए जय पत्र प्रदान किया (४३५)। उसी लेख से ज्ञात होता है कि चालुक्य वंश का अन्तिम नरेश सोमेश्वर चतुर्थ भी उस मत का अनुयायी हो गया था। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂ विजय नगर राज्य के ज्ञे० नं० ५६१, ५६५,५६६ और ७१० से विदित होता है कि दूसरे सम्प्रदाय के लोग जैनों पर ज्यादती करते थे पर तत्कालीन राजाओं की उदार एवं निष्पक्ष नीति के कारण उनकी सुरक्षा बनी रही। ले० नं० ७१० से ज्ञात होता है कि जैनों को अपमानजनक शर्तें मानने को भी बाध्य होना पड़ा, पर उन्होंने अपने पड़ोसियों की भावना की रक्षा के लिए वह शर्त भी मान ली । उक्त लेख में लिखा है जैन लोग पहले विभूति और विल्व पत्र बांटकर अपनी सब धर्म विधि कर सकते हैं । जैनियों ने जब यह शर्त मान ली तो उसका प्रभाव दूसरे धर्म वालों पर तत्काल हुना और उन्होंने भी प्रतिज्ञा की कि जैन मन्दिरों आदि को कोई क्षति पहुँचावेगा तो वह उनके जायगा । जैनियों में उनकी अहिंसा नीति का ही प्रभाव थे और इससे वे श्राजतक भारत में रह सके । १०. जैन धर्म के केन्द्र प्रस्तुत लेख संग्रह को ध्यान से पढ़ने से मालुम होता है कि भारत में उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सभी श्रोर अनेक प्रभावक जैन केन्द्र थे ! इन केन्द्रों का इतिहास देखने पर विदित होता है कि जैनाचार्यों ने जैन धर्म को राजायों और सामन्तों के दरबारों तक ही सीमित न रखा था बल्कि साधारण जनता के बीच भी उसे जनप्रिय बनाने के प्रयत्न किये थे । इसीलिए राजाओं और सामन्तों के सतत परिवर्तित होते रहने पर एवं उनके प्रभुत्व का लोप होने पर भी जैन धर्म की नींव भारतवर्ष में अक्षुण्ण बनी रही । धर्म से बाहर कर दिया था कि वे परमत सहिष्णु ( अ ) उत्तर भारत के जैन केन्द्रों में मथुरा एक समय प्रमुख स्थान था । इस सम्बन्ध में हम पर्याप्त लिख चुके हैं। इसके अतिरिक्त, उदयगिरिं खण्ड गिरि (उड़ीसा) पभोसा, राजगृह, रामनगर ( अहिच्छत्र), उदयगिरि (सांची ), देवगढ़, दूबकुण्ड, ग्वालियर, बबागंज, बड़नगर, खजुराहो, और महोबा के नाम उल्लेखनीय हैं। उदयगिरि-खण्डगिरि- उड़ीसा प्रान्त में भुवनेश्वर के पास की उक्त Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो पहाड़ियां जैन तीर्थों के इतिहास की दृष्टि से बड़े महत्व की है। यहाँ से भारतीय लेखों में महत्वपूर्ण एक लेख (२) हाथी गुम्फा से प्राप्त हुआ है जो जैन सम्राट् खारवेल के इतिहास पर प्रकाश डालता है। उक्त लेख में लिखा है कि यहाँ श्रादिनाथ भगवान् की एक प्रतिमा थी जिसे मगध का राजा नन्द उठा ले गया था। इसका अर्थ यह हुआ कि नन्दकाल से ही यह स्थान एक जैन केन्द्र था । इस संग्रह में दो और लेख (३ और २४५) इस स्थान के दिये गये हैं। अन्तिम लेख सूचित करता है कि ११वीं शताब्दी में भी यह जैन तीर्थ या । इसका प्राचीन नाम कुमारी पर्वत था । यहाँ से और भी अनेक लेख मिले हैं। जिनकी प्रतिलिपि स्व. वेणीमाधव वरुणा ने श्रोल्ड ब्राह्मी इन्क्रिप्सन्स् नामक ग्रन्थ में दी है। प्रभोसाः-इलाहाबाद के पास कौशाम्बी जैन और बौद्धों का एक प्राचीन तीर्थस्थान है। कौशाम्बी के पास ही प्रभास पर्वत नाम की एक पहाड़ी है जो प्राचीन काल से ही जैन तीर्थ रही है। इस स्थान के तीन लेख (६, ७ और ७५६ ) इस संग्रह में दिये गये हैं। प्रथम दो लेख वहां की प्राचीन दो गुफाओं से प्राप्त हुए हैं । इन लेखों की लिपि शुगकालीन है । उनसे मालुम होता है कि अहिच्छत्र के अषाढ़सेन ने जो कि वहसतिमित्र ( मगध नरेश ) का मामा था, काश्यपोय अर्हतों के उपयोग के लिए ये गुफाऐं बनवायीं । काश्यप, भग० महावीर का गोत्र था। संभव है ये गुफाएं भग० महावीर के अनुयायी भिन्तुओं के लिए बनवायी गई थीं। तीसरा लेख १६ वीं शताब्दी का है। ये तीनों लेख इस बात को सिद्ध करते हैं कि यह स्थान प्राचीन काल से अब तक बराबर जैनों का मान्य तीर्थ है। राजगृहः -- यह स्थान जैन, बौद्ध और हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ है । इस स्थान के तीन जैन लेख (८७,८३६ और ७४३) इस संग्रह में दिये गये हैं। ले० नं० ८७ पाँचवे पर्वत वैभार की तलहटी में एक गुफा से प्राप्त हुआ है जिसे सोन • भण्डार कहते हैं। यह लेख बड़े महत्त्व का है और इस प्रकार पढ़ा गया है: १. निर्वाण लामाय तपस्वियोम्ये शुभे गुहेऽहत्पतिमा प्रतिष्ठे Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्राचार्यरन मुनि वैरदेवः विमुक्तयेऽकारयदीर्घतेजाः ॥ - जिसका माव है कि किसी मुनि वैरदेव ने निर्वाण प्राप्ति के हेतु दो गुफाएं बनवायी, ___बन० कनिंघम ने श्राा० स० रिपो० के प्रथम भाग में इसकी प्रतिलिपि छापी थी और टी० लाख महोदय ने इसे पढ़कर एपि० इरिडका के 5वें भाग में प्रकाशित कराया। ब्लांख महोदय इसे लिपि विद्या की दृष्टि से तीसरी या चौथी शताब्दी का कहते हैं। इस लेख के श्रा० वैरदेव कोन थे यह ठीक तरह से नहीं कहा जा सकता। कुछ विद्वान् इसे श्वेताम्बर पट्टावलियों के वनस्वामी मानते हैं जिनका समय सन् ५७ ई० है । हमारा अनुमान है कि ये वैरदेव ले.नं०६० (सन् ३६० के लगभग ) के वीरदेव होना चाहिये जो कि मूलसंघ के प्राचार्य थे और जिनके सम्बंध में लेख में 'श्रीमद् बीरदेवशासनाम्बरावभासनसहनकर' अर्थात् भग० महावीर के शासन रूपी आकाश को प्रकाशित करने वाला सूर्य, विशेषण दिया गया है। लेख की लिपिका समय ३ री ४ थी शताब्दी, हमें वैरदेव से वीरदेव का साम्य स्थापन करने को बाध्य करता था। यदि यह अनुमान ठीक है तो मानना होगा वीरदेव का प्रभाव उत्तर भारत में राजएह की अोर और दक्षिण भारत में कबड प्रान्त में बराबर था । इस स्थान के दो अन्य लेख १८ वीं शताब्दी के हैं जिनसे सिद्ध होता है कि यह स्थान जैनों का अविच्छिन रूप से तीर्थ रहा है। राम नगर-अहिच्छत्र ) से प्राप्त अनेकों लेखों में से केवल दो लेख (५३,८४३) इस संग्रह में दिये गये है। ले. नं०८४३ के कोत्तरि शब्द से हात होता है कि यहाँ अनेकों जैन मन्दिरों के ढेर थे। अब भी वहाँ कोत्तरि के १-जर. बिहार.रि. सो०, भाग ४६, अंक ४, पृष्ठ ४००-४१२, उमाकान्त प्रेमचंद शाह-राजगिर की बैन गुफा सोन भाडार के मुनि वैरदेव । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश रूप में मतारि खेरा नामक छोटी पहाड़ी है। यह स्थान एक समय दिग० सम्प्रदाय का केन्द्र था। उदयगिरिः-(साँची ) यहाँ की एक अकृत्रिम गुफा से एक लेख (६१) मिला है जो इस स्थान को जैन केन्द्र होने की सूचना देता है। देवगढ़ से प्राप्त ले० नं० १२८ से ज्ञात होता है कि गुर्जर प्रतिहार नरेश मिहिर भोज के समय इसका एक नाम लुअच्छगिरि था वहाँ शान्तिनाथ भगवान् का एक मन्दिर था । दो अन्य लेखों (६१७, ६१८) से जो कि १५ वीं शताब्दी के हैं, विदित होता है कि यहाँ मूलसंघान्तर्गत नन्दिसंघ मदसारद गच्छ, बलात्कार गण का अच्छा प्रभाव था । ११ वीं शताब्दी में दुबकुण्ड, काष्ठासंघ के लाटवागट गण का प्रमुख स्थान था । यह स्थान ग्वालियर से ७६ मील दक्षिण पश्चिम दिशा में है। इस क्षेत्र के आसपास कच्छवाहों ( कच्छप घाट वंश) का राज्य था । सन् १०८८ ई० में महाराजाधिराज विक्रमसिंह कच्छवाहा ने यहाँ के एक जैन मन्दिर को दान दिया था । उस मन्दिर की स्थापना एक जैन व्यापारी साधु लाहड़ ने की थी जो जायसवाल वंश का था । उसे विक्रमसिंह ने श्रेष्ठि की पदवी दी थी। यहाँ काष्ठासंघ लाटवागट गण के प्रमुख गुरु देवसेन की पादुकात्रों की स्थापना सन् १०६५ ई० में की गयी थी ( २२८, २३५)। ग्वालियर से प्राप्त दो लेखों (६३३, ६४०) से विदित होता है कि १५ वीं शताब्दी में तोमर वंशी राजाओं के काल में यह स्थान काञ्चीसंघ ( काष्ठासंघ का दूसरा नाम ) माथुरान्वय, पुष्करगण के भट्टारकों का प्रमुख केन्द्र था । इन लेखो में उक्त संघ के कतिपय भट्टारकों के नाम दिये गये हैं। वबागंज (मालवा ) से प्राप्त १२ वीं शताब्दी से १५ वीं तक के तीन लेखों से विदित होता है कि यह प्रमुख जैन केन्द्रों में एक या । सन् १९६६ में १-यहां से प्राप्त अनेकों लेख, अनेकान्त, वर्ष १० किरण ३-४ में प्रकाशित हुए में। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ यहाँ एक प्रभावक छैन मुनि रामचन्द्र थे. जो राज्यमान्य मुनि ( भूपतिवृन्दवन्दितपदः) थे। ये सर्वसंघतिलक देवनन्दि मुनि के शिष्य थे जो कि राज्यमान्य लोक नन्दि मुनि के शिष्य थे (३७०, ३७१)। १५ वीं शतान्दी में यह स्थान ग्वालियर के मट्टारकों के अधीन था (६४३ )। खजुराहो के जैन और हिन्दू मन्दिर भारतीय शिल्पकला के विशिष्ट नमूने है। यहाँ से प्राप्त अनेक लेखों में से केवल १२ मूर्तिलेख इस संग्रह में है इनमें कुछ लेखों से विदित होता है कि यह स्थान ग्रहपति वंश ( गहोई वैश्यों ) का प्रमुख केन्द्र था। यहां के सन् ६५५ के एक लेख से मालुम होता है कि यहाँ जिननाथ का एक प्रसिद्ध मन्दिर था जिसे चन्देल नरेश धंग के राज्य में पाहिल्ल नामक सेठ ने अनेक वाटिकायें बगीचे दान में दिए थे (१४७ )। इसी तरह महोबा मी चन्देल नरेशों के समय में एक जैन केन्द्र था। इस संग्रह में इस स्थान से प्राप्त सं० ११९६ से.सं० १२२१ अर्थात् ५२ वर्ष के ८ मूर्ति लेखों से विदित होता है कि यहाँ जैन लोग निर्विघ्न रीति से सोत्साह प्रतिष्टा आदि कराते थे। ले० नं. ३३७, ३४२ पर चन्देल नरेश मदन वर्म का नाम और ले० नं० ३६५ में परमर्दि का नाम एवं राज्य संवत्सर दिया हुआ है। (आ) इस संग्रह में पश्चिम भारत के संगृहीत लेखों को देखने से विदित होता है कि इस क्षेत्र में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनेक जैन केन्द्र थे जैसे बाबू , सिरोही, अजमेर, अनहिलवाड़, खम्भाल, दोहद, दिलमाल, नडलाई, नडोले जैसलमेर, पालनपुर, बयाना आदि । गिरनार से प्राप्त २-३ लेख दिग० सम्प्रदाय के हैं, शेष बहुसंख्य लेख श्वेताम्बर सम्प्रदाय के हैं। शत्रुक्षय से ११८ संग्रहीत लेखों में दिगम्बर सम्प्रदाय का केवल एक लेख (७०२) है जिसमें मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण कुन्दकुन्द अन्वय के भट्टारकों की पट्टावली दी हुई है। यहां सं० १६८६ में अहमदाबाद के संघपति हुवड़ भासीय श्री रखसी के वंशजों ने. जब कि शाहजहाँ का राज्य प्रवर्तमान था, श्री शान्तिनाथ की प्रतिमा स्थापित की थी। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (इ) दक्षिण प्रान्त के प्रमुख जैन तीर्थों और केन्द्रों में श्रवणवेल्गोल, पोदनपुर, पलासिका, पुलिगेरे, कोपण, हनसोगे, हुम्मुच, बलिगाम्बे, कुप्पटूर, हलेबीड़, मलेयूर, मुल्लूर, मुगलूर, अंगड़ी, बन्दालिके, श्रावलि, उद्रि, कारकल, गेरसोप्पे श्रादि प्रसिद्ध थे। श्रवण वेल्गोल-यहाँ के सम्बन्ध में विशेष कुछ नहीं कहना है क्योंकि उसके माहात्म्य को प्रकट करने के लिए, जैन शिला लेख के ५०० शिलालेख प्रथम भाग के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। इस स्थान की परम्परा का सम्बन्ध अनेक विद्वानों के मत से श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त से है। कुछ विद्वानों के मत से उज्जयिनी के द्वितीय भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्त से है । जो भी हो पर जै० शि० सं० प्रथम भाग के प्रथम लेख का साधारणतः अर्थ करने से यहां की परम्परा का सम्बन्ध भद्रबाहु द्वितीय से ही मालुम होता है। १. जैन परम्परानो इतिहास' के लेखक विद्वान मनि श्री दर्शन विजय जी श्रादि (त्रिपुटी महाराज) ने आर्य सिंहगिरि के उत्तराधिकारी आर्य वज्रस्वामी और भद्रबाहु द्वितीय के जीवन चरित में अनेक प्रकार का साम्य दिखलाया है और संभावना प्रकट की है कि यदि दोनो आचार्यों को एक मान लिया जाय तो श्वेताम्बर दिगम्बर इतिहास संबंधी अनेक गृथियां सरल रीति से उत्कल जा सकती हैं। इन वज्रस्वामी का जन्म वीर संवत् ४६६ में, दीक्षा काल वीर सं० ५०४ में युगप्रधान पद ५४८ में और सं० ५८४ में स्वर्गगमन हुआ था। वे लिखते हैं:-दिगम्बर अन्थों में इस अरसे में द्वितीय भद्रबाहु होने का उल्लेख है जिनके दुसरे नाम वज्रयशा (तिलोयपरस्पत्लि ) महायशा ( महापुराण), यशोबाहु ( उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण), जयबाहु ( श्रुतावतार ), वर्षि ( हरिवंश पुराण स० १ श्लोक ३३ ), महायशा (आवश्यक नियुक्ति ) मिलते हैं। श्रवण वेल्गोल के चन्द्रगिरि स्थित एक लेख में उल्लेख है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु की परम्परा में महानिमित्त भद्रबाहु ने उज्जयिनी में रहते हुए १२ वर्षीय दुष्काल को श्राते देख Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ 私 दक्षिण कर्नाटक की ओर विहार किया और ७०० शिष्यों के साथ इस पहाड़ी पर श्राये । उन्होंने यहाँ अपने समाधिमरण की श्राराधना के लिए केवल एक शिष्य को साथ रख शेष को विसर्जित कर दिया इत्यादि ( पृष्ठ २८४-२६२ ) । श्रागे मुनिश्री लिखते हैं कि श्रार्य वज्रस्वामी ने वि० सं० १७४ में अपने शिष्य संघ के साथ बारह वर्ष के दुष्काल में दक्षिण जाकर एक पहाड़ी के ऊपर अनशन किया और समाधि पूर्वक स्वर्गगमन किया । इस भूमि की इन्द्र ने रथ के द्वारा तीन प्रदक्षिणा की इससे इस पहाड़ का नाम 'रथावर्तगिरि' पड़ा | इस रथावर्तगिरि का असली नाम क्या था और वर्तमान में उसका नाम क्या है, इस बात का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । किन्तु हमें लगता है कि श्राज जो इन्द्रगिरि ( विन्ध्यमिरि ) के रूप में पहाड़ी बोली जाती है वही वास्तव में स्थावर्त गिरि है, और उसके ऊपर जो विशालकाय मूर्ति है वह श्रार्य द्वितीय भद्रबाहु स्वामी याने वज्रस्वामी की मूर्ति है । ० वज्रस्वामी ने अनशन के लिए प्रथम एक पहाड़ी पसन्द किया या अपने एक बालमुनि को भी छोड़ने के लिए उन मुनि को वहीं रख उस पहाड़ी का त्याग कर सामने की दूसरी पहाड़ी पर अनशन किया और बालमुनि ने पहली पहाड़ी पर अनशन किया । इसके पश्चात् उनके प्रशिष्य श्राचार्य चन्द्रसूरि यहाँ पधारे थे और उनके उपदेश से उसी पहाड़ी की विशाल शिला पर श्रा० वज्रस्वामी की विशाल काय प्रतिमा बनी । ये दोनों पहाड़ियाँ श्राज इन्द्रगिरि और चन्द्रगिरि नाम से प्रसिद्ध है, इत्यादि । ( देखो, जैन परम्परानो इतिहास, मा० प्रकाशक - श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थ माला, ३३७-३३६) १, लेखक त्रिपुटी महाराज, अहमदाबाद, १६५२, पृष्ठ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो भी हो पर 'अनेकपामशतसंख्यं मुदित जन धन कनक सस्य गोमहिषालावि कुल समाकीर्स जनपदं प्राप्तवान् " उल्लेख जिस स्थान के लिए किया गया है यह पुम्नाट देश के उत्तरी भाग के सिवाय और कोई दूसरी जगह नहीं है। पोदनपुर-तीर्थ के सम्बन्ध में हमें ले० नं० ३६५ (सन् १९८०) से विदित होता है कि भरत चक्रवर्ती ने पोदनपुर के समीप ५२५ धनुष प्रमाण बाहुबलि की मूर्ति प्रतिष्ठित करायी थी। कुछ काल बीतने पर मूर्ति के आसपास की भूमि कुक्कुट सों से व्याप्त और बीहड़ बन से आच्छादित होकर दुर्गम्य हो गयी थी । राचमल्ल नृप के मंत्री चामुण्ड राय को बाहुबलि के दर्शन की अभिलाषा हुई पर यात्रा के हेतु जब वे तैयार हुए तब उनके गुरु ने उनसे कहा कि वह स्थान बहुत दूर और अगम्य है । इस पर चामुण्ड राय ने वैसी मूर्ति की प्रतिष्ठा कराने का विचार किया और उन्होंने वैसा कर डाला । कहा जाता है कि यह पोदनपुर निजाम हैदराबाद प्रान्त के निजामाबाद जिले का 'बोधन' नामक गाँव है जो कि १० शताब्दी के पूर्वार्ध में राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र चतुर्थ की राजधानी था और वहां वैष्णवों का बोलबाला था तथा वहाँ एक. विशाल वैष्णव मन्दिर भी बनवाया गया था। यहाँ अब भी जैन एवं ब्राह्मण पुरातत्त्व की सामग्री मिलती है। पलासिकाः-हलसी या हलसिगे ( जिला बेलगांव) से प्राप्त ६ लेखों से शात होता है कि पांचवीं शताब्दी ईस्वी में कदम्बों के राज्यकाल में पलासिका एक प्रमुख जैन केन्द्र था। यहां यापनीय, निम्रन्थ एवं कूर्चक ये तीनों सम्प्रदाय समान भाव से आहत थे। ले० नं०६६ में लिखा है कि कदम्ब नरेश काकुस्थवर्मा ने अपने जैन सेनापति श्रुतकीर्ति को धार्मिक कार्य के लिए, एक क्षेत्र दान में दिया था। ले० नं० ६६ के अनुसार कदम्ब मृगेशवर्मा ने अपने पिता की स्मृति में १. जैन शि० ले० संग्रह, नं०८५ २. सालेतोरे, मेडीवल, जैनिज्म, पृष्ठ १८६. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ यह एक जैन मन्दिर बनाकर यापनीय, निर्मन्थ और कूर्चकों को दान में दिया या । इसी तरह ले० नं० १०० उल्लेख करता है कि श्रष्टाह्निका पर्व मनाने के लिए कदम्ब नरेश रविवर्मा और अन्य लोगों ने पुरुखेटक गांव यापनीय संघ को दिया था । ले० नं० १०१-१०२ के अनुसार यहाँ कदम्ब रविवर्मा और उसके छोटे माई भानुवर्मा द्वारा जिन भगवान् की पूजा के लिए दान दिये गये थे । ले० नं० १०३ से विदित होता है कि कदम्ब नरेश हरिवर्मा ने पलासिका में सिंह सेनापति के पुत्र मृगेश द्वारा निर्मापित जैन मन्दिर में अष्टान्हिका पूजा के लिए और सर्व संघ के भोजन के लिए कूर्चकों के वारिषेणाचार्य संघ के लिए चन्द्रक्षान्त को प्रमुख बनाकर दान दिया था। इसी तरह ले० नं० १०४ के अनुसार अहिरिष्ट नामक श्रमण संघ के लिए सेन्द्रक राजा भानुवर्मा की प्रार्थना पर हरिवर्मा ने दान दिया था । इस तरह कदम्ब राजानों की ४-५ पीढ़ी तथा पलासिका यापनी, निथ और कूर्चक सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र रहा है। पुलिगेरे ( लक्ष्मेश्वर ):: - इस स्थान के सातवीं से दशवीं शताब्दि ईस्वी के संग्रहीत पाँच लेखों से मालुम होता है यह एक जैन तीर्थ था । यहाँ शंखवसदि नामक विशाल जैन मन्दिर था जिसकी छत ३६ खम्भों पर थमी थी । इस बसदि के नाम से इस स्थान का नाम शंखतीर्थ पड़ा था । ले० नं० १०६ से विदित होता है कि सेन्द्रक राजा दुर्गशक्ति ने शंखजिनेन्द्र की नित्य पूजा के लिये कुछ भूमि दान में दी थी। ले० नं० १११ के अनुसार चालुक्य विनयादित्य सत्याभय ने इस मन्दिर को अपने राज्य के ५ वें या ७ वें वर्ष में माघ पूर्णिमा के दिन दान दिया था । ले० नं० ११३ में उल्लेख है कि चालुक्य वंशी विजयादित्य सत्याश्रय ने अपने राज्य के ३४ वें वर्ष में इस मन्दिर के लिए दान दिया था और ले० नं० ११४ से ज्ञात होता है कि सन् ७३४ ई० में विक्रमादित्य ने शंखतीर्थ वसदि का जीर्णोद्धार कराया था। यहां शंख बसदि के अतिरिक्त एक और जिनालय था, जिसका नाम धवल जिनालय था । ले० नं० १४६ इस तीर्थ के इतिहास की दृष्टि से बड़े महत्त्व का है। उक्त लेख के अनुसार सन् ६८ में इस तीर्थ का विशाल रूप हो गया था। यहाँ गंगराजा मारसिंह गङ्ग Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ कन्दर्प ने एक जिनालय बनवाया जो कि शंख असदि तीर्थ बसदि मण्डल के लिए मण्डन स्वरूप था । उसका नाम उक्तः राजा के नाम पर गङ्गकन्दर्प भूपाल जिनेन्द्र मन्दिर रखा गया और उसके लिए दान देते समय सीमा के रूप में अनेक जैन एवं श्रजैन बसदियों का उल्लेख है । कोपण: - यह स्थान श्रवण वेल्गोल के बाद बड़े महत्त्व का जैन तीर्थ रहा है। शिलालेखों के पर्यवेक्षण से प्रतीत होता है कि यह ७ वीं से लेकर १६ वीं शताब्दी तक जैनों का महातीर्थ रहा है । प्रस्तुत संग्रह में कोपण के सम्बन्ध के ११ वीं शताब्दी के पहले के लेख संग्रहीत नहीं पर उसके बाद के जो भी लेख है उनमें उसकी प्रसिद्धि का ही उल्लेख है । ले० नं० १६८ से विदित होता है कि सन् १००० के लगभग कोपण तीर्थ के कुछ यात्री श्रवण वेल्गोल आये थे । ले० नं० २६६ में लिखा है कि जैनों के प्रमुख तीर्थं कोण था । ले० नं० २५५ में उल्लेख है कि जैन ने अपनी नवधिक दानशीलता से गङ्गवाडि ६६००० को चमका दिया था। यही बात ले० नं० ३०१ और ४११ से पुष्ट होती है । ले० नं० ३०४ के अनुसार गंगराज के ज्येष्ठ भ्राता बम्मदेव के पुत्र ऐच दण्डनायक ने कोपण वेल्गोल आदि स्थानों में अनेक जिन मन्दिर निर्माण कराये सहस्रों तीथों में सेनापति गंगराज कोपण के समान थे । उसी लेख में कोपण को 'कोपरा आदि तीर्थदलु' अर्थात् एक प्रमुख या । आदि तीर्थ के रूप में माना गया है । सन् १९५६ ( ३५४ ) में सेनापति हुल्ल ने कोपण महातीर्थ में २४ जैन साधुनों के संघ के लिए अक्षयदान दिया था । ले० नं० ४५१ में उल्लेख है कि ऐचरण ने वेलगवत्तिनाडू में एक ऐसा जिनालय बनवाया था जैसा उस प्रदेश में और कहीं नहीं था और इस तरह उसने बेलवत्तिनाड को कोपण के समान बना दिया । १६ वीं शताब्दी में भी कोपण का महत्व कुछ कम न हुआ था । इस शताब्दी के महान् विद्वान् वादि विद्यानन्द के विषय में ले० नं० ६६७ में उल्लेख है कि इन्होंने कोप तथा अन्य दूसरे तीर्थों में महोत्सव करके विद्यानन्द नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ. राइस महोदय कोपण को निबाम हैदराबाद के दक्षिण-पश्चिम में स्थित वर्तमान कोप्पल को माना है । इस विषय में अब सन्देह नहीं है। . चिकहनसोगे:-जैन तीर्थों में चिक्क हनसोगे का नाम भी प्रमुख था। इस संग्रह के लेखों से प्रतीत होता है कि उक्त स्थान ११ वीं शताब्दी के पहले से भी जैन धर्म का केन्द्र था । ले० नं० २४० से शात होता है कि वहां एक समय ६४ बसदियां थीं जो कि अब सब ध्वस्त हालत में हैं पर उन्हें देखने से मालुम होता है कि वे चालुक्य शिल्प की शैली में सुन्दर ढंग से निर्मित हुई थीं। ले० नं० २२३ ( लगभग सन् १०८० ई० ) से विदित होता है कि दामनन्दि.भट्टारक के अधिकार क्षेत्र में पनसोगे के चङ्गाल्व तीर्थ को सारी बसदियाँ थीं,अम्बेय बसदि तथा तोरेनाड् की बसदि भी उनके प्रधान शिष्यगण के अधिकार में थी । ले० नं. १६६, २४० और २४१ से उन बसदियों का एक विचित्र इतिहास मालुम होता है कि इन बसदियों के श्रादि प्रतिष्ठापक मूलसंघ, देशीगण, होत्तगे गच्छ के रामस्वामी थे जो कि दशरथ के पुत्र, लक्ष्मण के भाई सीता के पति और इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न हुए थे। पीछे इन्हीं बसदियों को दान देने वाले क्रमशः शक, नल, विक्रमादित्य, गंग और चङ्गाल्व थे। सन् १०६० के लगभग यहां चंगाल्व नरेश राजेन्द्र चोल ननि चंगाल्व ने कुछ बसदियों का निर्माण कराया था। हनसोगे के जेन गुरुओं का बड़ा प्रभाव था। इनकी एक शाखा हनसोगे बलि नाम से प्रसिद्ध थी । सन् १३०३ में हनसोगे के बाहुबलि मलधारि देव के शिष्य पअनन्दि भट्टारक ने होन्नयन हल्लि में गंध कुटो निर्माण करायी थी तया १५ गद्याण का दान भी दिया था (५५१)। पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग कारफल के शासकों को जैन धर्म के प्रभाव में लाने वाले इसी स्थान के गुरु थे। इनसोगे के ललितकीर्ति भुनीन्द्र के उपदेश से शक सं० १३५३ फाल्गुन शुक्ल १२ के दिन सोमवंश के भैरवेन्द्र के पुत्र पाणन्ध राय ने कारकल में बाहुबलि की प्रतिमा बनाकर प्रतिष्ठित करायी थी ( ६२४ )। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मच:-शान्तर कुल के संस्थापक जिनदचराय के समय (8 वीं शता.) से यह बराबर महत्व पूर्ण जैन तीर्थ रहा है। इस संग्रह के लगभग २२ लेखों से यह बात भली भाँति सिद्ध होती है। यहां की प्राचीन बसदि का नाम पालियक्क बसदि था जो कि सन् ८७८ के लगभग निर्मापित हुई थी। ले.नं. १४५ से से ज्ञात होता है कि तोलापुरुष शान्तर की पत्नी पालियक्क ने अपनी माता की मृत्यु पर उसे पाषाण बसदि के रूप में खड़ा किया था और इसके लिए बहुत से दान दिऐ थे । सन् ८६७ के ले० नं० १३२ में उल्लेख है कि तोलापुरुष विक्र मादित्य ने मौनिसिद्धान्त भट्टारक के लिए एक पाषाण बसदि बनवायी। सन् १०६२ के दो ले० नं० १६७ और १६८ क्रमशः सूले बसदि और पार्श्वनाथ बसदि से प्राप्त हुए हैं। प्रथम लेख में पट्टणस्वामि नोक्कय्य सेटि के दानों का उल्लेख है और दूसरे में वीर शान्तर की पत्नी चागलदेवी के दान कार्यों की प्रशंसा है । सन् १०६५ के एक लेख (२०३ ) में उल्लेख है कि त्रैलोक्यमान शान्तर ने अपने गुरु कनकनन्दि देव को यहां दान दिया था । सन् १०७७ के ५ लेख उसी तीर्थ से प्राप्त हुए हैं जिनमें से ले. नं० २१२ में तैलह शान्तर के दानों और पट्टणस्वामि नोक्कय्य सेट्टि की प्रशंसा है। ले० नं० २१३ बहुत ही विशाल लेख है जो कि पञ्चकूट बसदि के प्राङ्गण में एक बड़े पाषाण पर उत्कीर्ण है । पञ्चकूट बसदि प्रसिद्ध उर्वीतिलक जिनालय का ही नाम है। इस लेख के अनुसार चट्टलदेवी ने अपने पति एवं पुत्रादि की याद में तालाब कुत्रां, बसदि, मन्दिर, नाली, पवित्र स्नानागार, सत्र, कुंज श्रादि प्रसिद्ध धर्म एवं पुण्य के कार्यों को सम्पन्न कराया था। चट्टलदेवी शान्तरकुल और गंगवंश से सम्बन्धित कांची की रानी थी। लेख में शान्तर वंश और गंग वंश की वंशावली तथा द्रविड़ संघ, अरुजलान्वय नन्दिगण की पट्टावली भी दी हुई है। इस लेख के अनुसार पंचकूट जिनालय का स्थापना काल शक सं० १६६ था। ले० नं. २१४ में पंचकूटवसदि के निर्माण कार्य का विशेष इतिहास दिया गया है और मन्दिर के प्रतिष्ठाचार्य श्रेयांस देव की (ले. नं. २१३ के समान ही ) परम्परा दी गई है। ले० नं० २१५ में ननि शान्तर, राजा श्रोदुग और चट्टलदेवी आदि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ नियों की तथा हेमसेन ( कनकसेन ) दयापाल, पुष्पसेन, वादिराज, श्रजितसेन श्रादि श्राचार्यों की प्रशंसा की गई है। ले० नं० २२६ में शान्तर राजाओं के दान का उल्लेख है । ले० नं० ३२६ में उल्लेख है कि सन् १९४७ में विक्रम शान्तर की बड़ी बहिन पम्पादेवी ने उर्वीतिलक जिनालय के समान ही शासन देवता की मूर्ति निर्माण करायी थी, तथा उसने उसके भाई और पुत्री ने पञ्चअसदि के उत्तरीय पट्टसाले को बनवाया था । ले० नं० २३८, ४६७, ४६४, ४६७, ५००, ५०३, ५४२, तथा ५६७ समाधिमरण के स्मारक लेख हैं । ले० नं० ६६७ बहुत विशाल है और विजयनगर साम्राज्य के प्रसिद्ध विद्वान् वादि विद्यानन्द तथा तत्कालीन राजाओं पर उनके प्रभाव का सुन्दर वर्णन करता है । बल्लिगाम्बे : के भी जैन तीर्थ होने के अनेक लेख प्रमाण हैं । यहाँ सन् १०४८ में जजाहुति शान्तिनाथ से सम्बद्ध वलगारगण के मेघनन्दि भट्टारक के शिष्य केशवनन्दि ष्टोपवासि भट्टारक की बसदि थी। इस बसदि के लिए उक्त सन् में महामण्डलेश्वर चामुण्डराय ने कुछ भूमि का दान दिया था (१८१ ) । यहाँ सन् १०६८ में जैन सेनापति शान्तिनाथ ने काष्ठ से बनी हुई प्राचीन मल्लिकामोद शान्तिनाथ तीर्थंकर की बसदि को पाषाण की बनवाया था तथा इस मन्दिर के निमित्त वहाँ माघनन्द भट्टारक को कुछ जमीन दान में दी थी ( २०४ ) । इस लेख में तथा इससे पहले के ले० नं० १८१ में उल्लेख है कि यहाँ सभी धर्मों के जिन, विष्णु, ईश्वर श्रादि के मन्दिर थे । ले० नं० २०४ की अन्तिम पंक्तियों से यह भी विदित होता है जगदेकमल्ल ( जयसिंह तृतीय जगदेकमल्ल ) तथा चालुक्य गंग पेर्म्मानडि विक्रमादित्य ने उक्त बसदि को पहले कुछ जमीनें दान में दी थीं। ले० नं० २१७ ( सन् १०७७ ) से मालुम होता है कि यहां के चालुक्य गंग पेम्र्म्मानडि जिनालय को विक्रमादित्य चतुर्थ ने सेन के प्राचार्य रामसेन को एक गांव दान में दिया या । सन् १९८६ ई० करीब का एक लेख (४२० ) समाधि मरण का स्मारक है । ले० नं० ४५३ और ४५४ ( सन् १२०५ ई० ) में एक जैन बसदि के लिए एक जैन राजा ( सम्भव है रह वंश के राजा) - द्वारा दान का उल्लेख है। इन दोनों लेखों में रहवंश के पिछले Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ राजा की वंशावली दी गई है। इस सबसे यही मालुम होता है कि बल्लिगाम्बे ११-१२ वीं शताब्दी के प्रमुख जैन केन्द्रों में एक था । कुप्पटूर:- के सम्बन्ध में संगृहीत कतिपय लेखों से ज्ञात होता है कि यह स्थान ११ वीं से १५ वीं शताब्दी तक एक महत्त्वपूर्ण जैन केन्द्र था । ले० नं० २०६ से विदित होता है कि कदम्ब राशी मलाल देवी ने सन् १०७७ में पार्श्वदेव चैत्यालय की स्थापना की थी और पद्मनन्दि भट्टारक ने उसकी प्रतिष्ठा करा के उसका नाम वहां के ब्राह्मणों के नाम पर 'ब्रह्म निनालय' रखा था । यहीं देशी गण के श्राचार्य देवचन्द्र के शिष्य श्रुत मुनि थे जिन्होंने एक मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था, और सन् १३६७ में समाधिगत हुए थे ( ५६३ ) । ले० नं० ५५५ से विदित होता है कि सन् १४०२ में कुप्पटूर एक प्रसिद्ध स्थान था । विजय नगर के सम्राट् हरिहर के समय यहां एक जैन मन्दिर था, जिसमें कदम्बों का एक शासन पत्र मिला था । सन् १४०८ के ले० नं० ६०५ से विदित होता है कि कुप्पटूर नागर खण्ड का तिलक स्वरूप था वहां अनेक जैन रहते थे, तथा अनेक जैन चैत्यालय थे । वहां का शासक जैन धर्मावलम्बी गोपमहाप्रभु था । I अङ्गड:ड: -- यह होय्सल वंश का उत्पत्ति स्थान था । इसका दूसरा नाम सोसेबूर था । १० वीं शताब्दी के मध्य से इसके जैन केन्द्र होने के अनेक प्रमाण मिलते हैं । ले० नं० १६६ से ज्ञात होता है कि यहां द्रविड़ संघ के प्रसिद्ध मुनि विमलचन्द्र पण्डित देव थे जिन्होंने सन् ६६० में लगभग संन्यास विधि से मरण किया था और उनकी शिष्याओं ने इस उपलक्ष्य में स्मारक खड़ा किया था । इसी तरह ले० नं० १७८ वज्रपाणि मुनि के समाधिमरण का स्मारक है । ये वज्रपाणि होय्सल नरेश नृपकाय राच मल्ल के गुरु थे । ले० नं० १६४, २०० २४२ भी समाधिमरण के स्मारक हैं । ले० नं० १८५ से मालुम होता है कि ये वज्रपाणिमुनि सूरस्थ गण के थे। उनकी शिष्या जाकियब्बे ने कुछ जमीनें वहां के मकर जिनालय के लिए छोड़ दी थीं। इस लेख के समय विनयादित्य होम्सल का राज्य प्रवर्तमान था । ले० नं० २०१ में पाषाणशिल्पियों के प्रधान, माणिक होम्सलाचारि द्वारा निर्मित एक बसदि का उल्लेख है । यह बसदि मुल्लूर के गुणसेन Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पतिदेव को सौंप दी गई थी। इसी तरह ले० नं० ३६७ (सन् ११६४ ) में उल्लेख है कि यहाँ एक बसदि पट्टणसामि नागसेट्टि के पुत्र ने बनवायी थी जिसके लिए सन् १९६४ में वीर विजय नरसिंह देव ने दान दिया था । सन् ११७२ के एक लेख (३७८) में एक होन्नंगिय बसदि के लिए किसी कम्बरस नामक व्यक्ति द्वारा दान का उल्लेख है। 1 ( बन्दा लिके:- : - इस स्थान की तीर्थ रूप में प्राचीनता यहाँ से प्राप्त सन् ६१८ ( ठीक ६११ ) के एक लेख १४० ) से विदित होती है जहाँ इसे बन्दनिके तीर्थ रूप में लिखा है। उक्त सन् में नागर खण्ड सत्तर की शासिका जक्कियब्बे ने सल्लेखना पूर्वक देहत्याग किया था । सन् १०७५ के एक लेख (२०७ ) में भी इसका तीर्थ के रूप में उल्लेख है। वहाँ शान्तिनाथ बसदि के लिए चालुक्य नृप सोमेश्वर ने कुछ भूमि दान में दी थी। ले० नं० ४०८ से ज्ञात होता है कि कदम्ब वंश की एक शाखा की अधीनता में इस स्थान की कीर्ति एवं यहां के शान्तिनाथ जिनालय की प्रसिद्धि जगह जगह फैल रही थी । इसी लेख के अनुसार एक बार यहां के जिनालय को देखने होय्सल सेनापति रेचरण श्राया था । उसने इस मन्दिर के दर्शन से प्रसन्न होकर पूजा के खर्च के लिए एक गाँव दान में दिया था। इसी शान्तिनाथ जिनालय में सन् १२०० के लगभग सोमलदेवी नामक महिला ने समाधि मरण किया था ( ४३३ ) ले० नं० ४३८ के अनुसार उक्त बसदि के लिए तीन गाँव दान में दिये गये थे । ले० नं० ४४८ में बन्दालिके ( बान्धव नगर ) की समृद्धि एवं सौन्दर्य का अच्छा वर्णन है । यहाँ एक सेट्टि ने शान्तिनाथ देव के किया था । ललितकीर्ति सिद्धान्त के शिष्य शुभचन्द्र प्रबन्ध ( पारुपस्य ) अपने हाथ लेकर उसे सत्तर के सभी प्रमुख व्यक्तियों ने, प्रजा ने, 1 लिए एक मण्डप खड़ा पण्डित ने इस तीर्थ का समुन्नत किया था और किसानों ने एवं नागर खण्ड अनेक दान दिये उक्त जिनालय के थे और होम्सल सेनापति मझ ने उक्त क्षेत्र की रक्षा की थी। प्रवन्धक शुभचन्द्र देव ने सन् १२१३ में सम्यासपूर्वक देहत्याग किया था (४५९ ) । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५. उद्धरे (उद्रि ):- इस तीर्थ के १२ वीं से १४वीं शताब्दी के ही लेख इस संग्रह में हैं जिनसे मालुम होता है कि यहाँ प्रसिद्ध तीन बसदियाँ थींपञ्च बसदि, कनक जिनालय एवं एरंग जिनालय । सन् १९२६ में यहाँ का शासक गंगनरेश मारसिंह का पुत्र महामण्डलेश्वर एक्कलरस था उसके सेनापति सिंगरण का विरुद जैनचूडामणि था ( २६१ ) | यह एक्कलरस नाना देशों के विद्वानों और कवियों के लिए कर्ण के समान दानी था । वह वहाँ की सारी प्रवृत्तियों का संचालक था । उसकी फुश्रा सुग्गियव्त्रिरसि ने यहाँ पञ्चवसदि में रहने वाले साधुनों के लिए दान दिया था ( ३१३ ) | एक दूसरी महिला कनकन्त्रिरसि ने वहाँ बहुत से दान दिये ( ३१३ ) । इसका अनुकरण कर दूसरी महिलाओं ने भी दान दिये थे । राजा एक्कल ने कनक जिनालय को भूमि दान दिया था । ( ३१३ ) । सन् ११६ = के एक लेख ( ४३१ ) में उल्लेख है कि होय्सल सेनापति महादेव दण्डनाथ ने वहाँ एरंग जिनालय नाम का एक विशाल जिनालय बनवाया था । उसने उक्त मन्दिर के लिए अनेक दान भी दिये थे । इसी लेख में लिखा है कि उद्धरे बनवासी देश के शासकों के रक्षण और कोष भवन के रूप में अद्वितीय स्थान था । सन् ३८० के एक लेख (५७६ ) से विदित होता है कि इस स्थान में विजयनगर नरेश हरिहर राय द्वितीय के समय में बैचप नामक एक जैन वीर रहता था । उसने अपने देश को तातायियों से बचाने के लिए उनसे युद्ध किया और उन्हें परास्त करने में अपने जीवन की बलि दे दी । ले० नं० ५६६ में बैचप के पुत्र सिरियण्ण की जिनधर्म भक्ति का और उद्धरे की महिमा का वर्णन है । सन् १४०० में सिरियण ने समाधि विधि से देह त्याग किया था। चौदहवीं हे I शताब्दी में उद्धरे स्थान के प्राचार्य यहाँ तक कि इस लिया था । यहाँ के चाय मुनिभद्र प्रति समुन्नत एवं प्रख्यात स्थान था, ने अपने वंश का नाम उद्धरे वंश रख देव ने हिसुगल बसदि बनवायी थी तथा मुलगुन्द के जिनेन्द्र मन्दिर का विस्तार कराया था । ले० नं० ५८८ उनके समाधिमरण का स्मारक है । । हलेबीड : - जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र होय्सलों की राजधानी इलेबीड Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। जिसका कि दूसरा नाम उक्त वंश के लेखों में दोरसमुद्र या द्वारावती मिलता है। प्रस्तुत संग्रह में इस स्थान का पुराना लेख सन् १९१७ के लगभग का (२६३ ) है जो कि विष्णुवर्धन नृप के समय का है। इसमें जैन मंत्री गंगराज के कार्यों को बड़ी प्रशंसा है । सन् ११३३ के ले. नं० ३.१ में विष्णुवर्धन की दिग्विजय का, तथा साथ में सेनापति गंगराज द्वारा अगणित जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार कार्यों का उल्लेख है । गंगराज के पुत्र बोप्प ने दोर समुद्र में पार्श्वनाय बसदि का निर्माण कराया था और अपने पिता की स्मृति में पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की थी। राजा विष्णुवर्धन को दैवयोग से इसी अवसर पर युद्ध विजय, पुत्रोत्पत्ति और सुख समृद्धि मिली थी। उसने इस मांगलिक स्थापन को ही उक्त बातों में निमित्त मान बड़ी प्रसन्नता से देवता का नाम विजयपार्श्व एवं पुत्र का नाम विजय नारसिंह देव रखा और जावगल नामक गाँव तथा अन्य प्रकार के दान दिये । उक्त लेख से यह भी मालुम होता है कि मन्दिर के पुरोहित नयकीर्ति सिद्धान्तदेव को तेली दास गौंड ने भूमिदान दिया तथा उसने और राम गौण्ड ने उत्तरायण संक्रमण में बहुत से दान दिए । सन् ११६६ के एक लेख (४२६ ) में यहाँ की शान्तिनाथ बसदि के लिए कुछ किसानों द्वारा गाँव एवं तालाबों के दान का तथा वसदि के प्राचार्य, स्थानीय किसान वर्ग, एवं गाँव के १० कुटुम्बों द्वारा दान की रक्षा का उल्लेख है। ले० नं० ४६६ के अन्तर्गत दो लेखों का संकलन हुआ है । पहले लेख में होय्सल नरसिंह तृतीय द्वारा जीणोद्धार कार्य का तथा दूसरे में उक्त राजा द्वारा अपने उपनयन संस्कार के समय दान का उल्लेख है । सन् १२७४ के एक लेख ( ५१४ ) में बालचन्द्र पण्डित देब के चमत्कार पूर्ण समाधि मरण का वर्णन है। उनके स्मारक रूप में भव्य लोगों ने उनको तया पंच परमेश्वर की प्रतिमायें बनाकर प्रतिष्ठित की थीं। इसी तरह ले० नं० ५२४ ( सन् १२७६ ) में उक्त बालचन्द्र पण्डितदेव के श्रुतगुरु अभयचन्द्र महासैद्धान्तिक के समाधिमरण का उल्लेख है । ये अभयचन्द्र अनेक शास्त्रों के प्रकाण्ड पण्डित थे। इसी तरह इस लेख के २० वर्ष बाद बालचन्द्र पण्डित देव के प्रधान शिष्य रामचन्द्र मलधारि देव के समाधिमरण Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ का अनोखा वर्णन है (५४८)। ले० नं० ५४६ में एक अद्भुत सूचना है । उसमें उल्लेख है कि वहां से ईशान दिशा की ओर १५ बिलस्त के अन्तर पर शान्तिनाथ देव जिनकी ऊँचाई ६ बिलस्त है, जमीन के अन्दर गड़े हैं. कोई भन्य पुरुष उनको बाहर निकालकर उनकी प्रतिष्ठा कर पुण्य लाभ ले । सन् १६३५ के महत्वपूर्ण एक लेख (७१० ) में जैन और शैवों की एकता तथा परधर्म सहिष्णुता का वर्णन है। मलेयरः-चामराजनगर तालुके में जैन धर्म का एक मजबूत गढ़ मलेयूर था। यहाँ के कनकाचल पर्वत पर अनेक बसदियां थीं। सन् १९८१ में यहाँ की पार्श्वनाथ बसदि के लिए अच्युत वीरेन्द्र शिक्यप वैद्य की पत्नी चिक्कतायी ने पूजा प्रबन्ध के लिए, मुनियों के नित्यदान के लिए और हमेशा शास्त्रदान के लिए किन्नरीपुर ग्राम को दान में दिया था ( ४०१)। यहाँ के १४ वीं से लेकर १६ वीं शताब्दी तक के १० लेखों से विदित होता है कि यहाँ अनेक बसदियाँ थीं। आवलि नाड:-सोराब तालुके के अनेकों जैन केन्द्रों में प्रसिद्ध केन्द्र श्रावलिनाडु (हिरिय प्रावलि ) था। मध्य युग में इस स्थान के अनेकों सामन्तों ने. उनकी पत्नियों ने तथा नगरवासियों ने अपने उत्साहपूर्ण धर्मसेवन से इस स्थान को अमर बना दिया था । जैनधर्म की दृष्टि से उस स्थान का महत्त्व यद्यपि १२ वीं शताब्दी में भी था ( २८६, ३२२ ) पर विशेषकर यहाँ १४ वीं शताब्दी के मध्य से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रथम दर्शकों के अनेक लेखों से, जो कि इस संग्रह में दिये गये हैं, विदित होता है कि यहाँ जैन धर्म की धारा अच्छी तरह प्रवाहित थी। इन लेखों में अधिक संख्या समाधिमरण के स्मारक लेखों की है। इन लेखों से ज्ञात होता है कि यहां के सामन्त श्रावलि प्रभु या श्रावलि महाप्रभ कहलाते थे और अपने जीवन के अन्तिम क्षणों को सुधारने में कितने जागरूक रहते थे। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ तबनिधिः-सोराब तालुके का यह स्थान भी एक जैन तीर्थ था । यहाँ से अनेकों जैन लेख मिले हैं पर यहां केवल ६ हो लेख संगृहात हैं जो कि सब समाधिमरण के स्मारक हैं जिनसे ज्ञात होता है कि ऐसे स्थानों में समाधिविधि सम्पन्न कराने वाले प्राचार्य होते थे जहां कि श्रावक जन अपने जावन के अन्तिम क्षणों में श्राकर संन्यासविधि से जीवन त्याग करते थे। - मुल्लुरु:-यह स्थान कुर्ग तालुके में है। यहाँ के ११ वीं से १४ वीं शताब्दी तक के ८ लेख संग्रहीत हैं जिनसे विदित होता है कि यहाँ शान्तीश्वर बसदि, पार्श्वनाथ बसदि एवं चन्द्रनाथ बसदि नाम के तीन निालय थे। ले० नं० १७७, १८८, १६१, २०२, २०६ से विदित होता है कि यह स्थान कोङ्गाल्व नरेशों की श्रद्धा एवं विनय का क्षेत्र था। यहां राजेन्द्र चोल काँगाल्व के समय में एक प्रसिद्ध आचार्य गुणसेन पण्डित ये, 'जनके भक्त, उक्त परिवार के सभी लोग थे । उक्त सभी लेख दान या समाधि के स्मारक हैं। ले० नं० ५६० (सन् १३६१ ) से सिद्ध होता है कि यहाँ चौदहवीं शताब्दा के अन्तिम दशकों तक कोङ्गाल्व राज्य का अस्तित्व था, और वे लोग जैन धर्म के बराबर भक थे। इस लेख में चन्द्रनाथ बसदि की पुनः स्थापना का उल्लेख है। मुगलूर (मुगुलि ):--हसन तालुके का यह स्थान होरसल राज्य में एक समय जैन धर्म का केन्द्र था । प्रस्तुत संग्रह में यहां के चार लेग्व संग्रहात हैं जिन से ज्ञात होता है कि यहाँ १२ वीं शताब्दी में द्रविड़ सघान्तर्गत नन्दिसंघ अरुङ्गलान्वय की गद्दी थी। उस गद्दी के अधिकारी श्रीपाल विद्य के शिष्य वासुपूज्य देव थे। ले० नं० ३२७ से मालुम होता होता है कि यहां होयसल विष्णुवर्धन के राज्य में एल्कोटि जिनालय नामक एक प्रसिद्ध मन्दिर था। यहीं महाप्रभु पेनिडि के पुत्र गोविन्द ने बड़ी बसदि बनवायी थी । उस मन्दिर के भटारक वासुपूज्य देव को उक्त जिनालय के लिए नारसिंह होय्सल देव ने कुछ भूमि का दान दिया था। कारकल:-तुलु देश में यह महत्त्वपूर्ण जैन केन्द्र है। इस स्थान का इति Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ हास हुम्मच के शान्तर वंश के साथ जुड़ा हुआ है । जिनदत्तराय ने ६ वीं शताब्दी में शान्तर राज्य की नींव हुम्मच की राजधानी बनाकर डाली थी और उसी शताब्दी में वह उसे कलस नामक स्थान में ले गया था । ले० नं० ५२२ से विदित होता है कि सन् १२७७ में उक्त राजाओं की राजधानी कलस ही थी । कुछ लेखों से ज्ञात होता है कि चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शान्तर नरेश अपनी राजधानी कलस से कारकल ले आये थे । इसी शताब्दी में यहाँ के राजाओं पर लिंगायत मत का प्रभाव भी पड़ने लगा था । परन्तु १५ वीं १६ वीं शताब्दी के लेखों से मालुम होता है कि वे जैन धर्म के भी प्रतिपालक थे । सन् १४३२ के एक लेख ( ६२४ ) से मालुम होता है कि शक सं० १३५३ के फाल्गुन शुक्ल १२ बुधवार को भैरबेन्द्र के पुत्र वीर पाण्डेयशी या पाण्ड्यराय ने यहाँ बाहुबल की प्रतिमा बनाकर प्रतिष्ठित करायी थी । यह कार्य उन्होंने देशीगण की पनसोगे शाखा में ललितकीर्ति मुनीन्द्र के उपदेश से किया था । ले० नं० ६२७ में वीर पाण्ड्य की मनोकामना पूर्ण करने के लिए ब्रह्मदेव ( जिसकी मूर्ति वहीं थी ) से याचना की गई है । ले० नं० ६६४ से मालुम होता है कि सन् १५३० में कारकल की गद्दी पर वीर भैररस वोरेयड थे । उसकी बहिन कालल देवी ने कल बस्ति के पार्श्वनाथ के लिए अनेक प्रकार के दान दिये थे । ले० नं० ६८० से ज्ञात होता है कि सन् १५८६ में ललित कीर्ति मुनीन्द्र के उपदेश से भैरव द्वितीय ने चतुर्मुख बसदि बनवाया, जिसके दूसरे नाम त्रिभुवनतिलक जिनालय या सर्वतोभद्र भी थे । इस लेख में भैरव द्वितीय द्वारा अन्य अनेकों मूर्तियों की स्थापना का उल्लेख है । 1 वेणूर:: - कारकल तालुके में इस छोटे से गाँव में गोम्मटस्वामी की एक विशाल मूर्ति मिली है जिसकी स्थापना सन् १६०४ में तिम्मराज ने की थी, जो कि प्रसिद्ध चामुण्डराय के वंशज थे । इस मूर्ति की स्थापना श्रवणबेलगोल के भट्टारक चारुकीर्ति पण्डितदेव की सलाह से की गई थी ( ६८६, ६६० ) । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० गेर सोप्पे :- १५-१६ वीं शताब्दी के जैन केन्द्रों में गेरसोप्पे का नाम प्रमुख था। अब तक यहाँ की स्थिति को प्रकट करने वाले अनेकों लेख प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत संग्रह के कतिपय लेखों से उसकी महत्ता पहचानी जा सकती है । गरसोप्पे के राजवंश का वैवाहिक सम्बन्ध संगीतपुर और कारकल के राजाओं से था । गरसोप्पे का नाम बढ़ाने का श्रेय वहाँ के राजाओं और जैन नागरिकों को विशेष था । ले० नं० ६७४ में इस नगर का सुन्दर वर्णन है जिससे मालुम होता है कि यहाँ अनेक भव्य जिनालय थे, योगियों के निवास तथा विद्वानों की मण्डली थी। इस लेख से विदित होता है कि सन् १५६० में यहाँ अनन्तनाथ और नेमीश्वर नामक दो विशाल चैत्यालय थे । उक्त लेख में यहाँ के वणिक् वर्ग के धार्मिक कार्यों का उल्लेख है । यहाँ के उदारचेता कतिपय सेट्टियों के दान कार्य का उल्लेख हमें श्रवणवेल्गोल से प्राप्त कुछ लेखों में भी मिलता है । ले० नं० ६६६' से विदित होता है कि सन् १४१२ में गेरसोप्पे के गुम्मटण्ण सेट्टि ने यहाँ श्राकर पाँच बसदियों का जीर्णोद्धार कराया था । इसी तरह ले० नं० ६७१२ से ज्ञात होता है कि सन् १४१६ के लगभग गेरसोप्पे की श्रीमती अब्बे और समस्त गोष्ठी ने चार गद्याण का दान दिया था। लै० नं० ६७० ( सन् १५३६ ) में चार बातों का उल्लेख है जिनमें गेरसोप्पे के सेट्टियों से लेन देन सम्बन्धी कुछ आपसी समझौतों के उपलक्ष्य में आहार के लिए दान देने की प्रतिज्ञाएँ करायी गई हैं। मैसूर राज्य से पन्द्रहवीं शताब्दी के अनेक जैन लेखों से ज्ञात होता है कि यहाँ और भी अनेक जैन केन्द्र थे जैसे सरगुरु (६१८) मोरसुनार (६२१), निडगल्लु पर्वत (४७८, ६३७) यिडुवणि (६४९ ) वोगेयकेरे (६५५ ) आदि । १. प्रथम भाग, १३१ २. प्रथम भाग, १३५. २६-१०२ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POP कर्नाटक प्रान्त के अन्य कई जैन केन्द्रों का नाम इन शिला लेखों से विदित होता है जैसे नन्दपर्वत (११४), तडताल (२३२), चामराज नगर (२६४), कैदाल (३३२), एलम्बल्लि (३४६), नित्तर (४३६-४४१, ४६६), हिरियमहालिंगे (४३८) कुन्तलापुर (४४९), सोरब (४५७), जोगमन्तिगे (१२१), कलस (५२२), होन्नेयनहल्लि (५५१), हरवे (६५२) श्रादि । (ई) तामिलदेश के अनेक जैन केन्द्रों में से केवल तीन स्थानों के लेख प्रस्तुत संग्रह में संगृहीत हो सके हैं। वल्ली मल्लैः – यह स्थान उत्तरी कट जिले के बन्दिवास तालुका में है I यह ६-१० वीं शताब्दी में जैन धर्म का केन्द्र था। यहां गंगराजा शिवमार के प्रपौत्र, श्रीपुरुष के पौत्र तथा रणविक्रम के पुत्र राचमल्ल सत्यवाक्य ने इस स्थान को अपने अधिकार में करके एक मन्दिर बनवाया था ( १३३ ) | यहां किसी बाणवंशी राजा के गुरु देवसेन की प्रतिमा स्थापित की गई थी । ये देवसेन भट्टारक भवान्दि के शिष्य थे ( १३६ ) । इस प्रतिमा की स्थापना एक जैन मुनि श्री अननन्दि भट्टार ने की थी ( १३५ ) । यहां से प्राप्त एक दूसरी प्रतिमा के लेख से मालुम होता है कि ये अज्जनन्दि भट्टारक बालचन्द्र के शिष्य थे और इन्होंने गोवर्धन भट्टारक की प्रतिमा की स्थापना की थी ( १३४ ) । एक (११५) से पञ्चपाण्डवमलैः – इस स्थान से प्राप्त दो लेखों में से ज्ञात होता है कि पल्लव राज नन्दि पोत्तरसर ( नन्दि ) ५० राज्य संवत्सर में पोन्नियक्कियार नामक यक्षी और नागनन्दि गुरु की एक पाषाण पर मूर्ति खुदवायी गई थी । ले० नं० १६७ से विदित होता है कि अपनी रानी की प्रार्थना पर वीर चोल ने तिरुप्पानमलै देवता के लिए एक गांव की आमदनी बाँध दी पर लेख पलिच्चन्दम् शब्द से मालुम होता है कि यहाँ एक प्रसिद्ध जैन बसदि थी । ये दोनों लेख ६ वीं, १० वीं शताब्दी के हैं । तिरुमलै - उत्तरी अर्काट जिले में यह स्थान ११ वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही जैन केन्द्र रहा है । इस नाम का अर्थ पवित्र पर्वत होता है । यहाँ सन् Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.०५ ई० में चोलराजा रान प्रयम के २१ वें वर्ष में एक जैन मुनि गुणवीर ने अपने काब्यादि कला में विशारद गुरु गणिशेखर के नाम पर एक नहर या मोरी बनवायी थी ( १७१)। दूसरे लेख नं० १७४ से ज्ञात होता है कि राजेन्द्र चोल प्रथम के १२ वें राज संवत्सर में मल्लियूर के एक व्यापारी की पत्नी ने तिरुमले में एक जैन मन्दिर की पूजा और दोपक के लिए दान दिया था इस मन्दिर को राजराज चोल की पुत्री कुन्दव ने बनवाया था इसलिए इसका नाम कुन्दवै जिनालय था। ले० नं. ४३४ से विदित होता है कि इस पर्वत को अहंसुगिरि ( अर्हत् का पर्वत ) कहते थे जिसका तामिल नाम एणगुणविरै तिरुमले ( अर्हत् का पवित्र पर्वत ) कहा गया है। यहां चेर वंशके राजा अतिरीमान् ने केरल नरेश द्वारा संस्थापित यक्ष यक्षिणी की प्रतिमाओं का जीणोंद्धार कराकर प्रतिष्ठापित किया था और एक घण्टा दान में दे यहाँ मोरी बनवायी थी । ले० नं० ५५७ में उल्लेख है कि राजनारायण शम्बुवराज के १२ वें वर्ष में पोन्नूर निवास' मए पौन्नाण्डे की पुत्री नल्लाताल ने एक जैन प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की थी। इसी तरह ८३१ वें लेख में उल्लेख है कि परवादिमल्ल के शिष्य अरिष्टनेमि प्राचार्य ने एक यक्षी की प्रतिमा बनवाकर स्थापित की थी। (3) श्रान्ध्र देश में जैन धर्म का आगमन संभवत: कलिंग देश से हुआ था वह भी ईशा की दो शताब्दी पूर्व जैन सम्राट खारवेल के समय में । पर शिलालेखों से जैनधर्म के केन्द्रों के प्रमाण ७ वीं शताब्दी से ही मिलते हैं । इस शताब्दी में यहां जैन धर्म को प्रश्रय कतिपय पूर्वी चौलुक्य नरेशों ने दिया था। प्रस्तुत संग्रह में केवल दो केन्द्रों के लेख ही श्रा सके हैं। ले० नं० १४३ से ज्ञात होता है कि नेल्लोर जिले के ओंगले तालुका में मल्लिय पूण्डि ग्राम में कटकाभरण नाम का एक प्रसिद्ध जैन मन्दिर था इसे कृष्णराज के पोत्र दुर्गराज ने बनवाया था। यह स्थान यापनोय संघ नन्दि गच्छ १. संभव है वह राजा राज राज चोल तृतीय का समकालीन था। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ का प्रमुख केन्द्र था मन्दिर के अधिष्ठाता धीरदेव मुनि थे जो कि जिननन्दि के शिष्य थे। उक्त जिनालय के लिए मल्लियपूरिड ग्राम दान में दिया गया । इसी तरह अत्तिलिनाडु में कलुचुम्बरु नामक स्थान में एक सर्वलोकाश्रय बिनालय था । ले० नं० १४४ से ज्ञात होता है कि सन् ६४५ से ६७० के लगभग पूर्वी चालुक्य श्रम्म द्वितीय ( विजयादित्य षष्ठ ) ने उक्त जैन मन्दिर की भोजन शाला की मरम्मत के लिए दान दिया था। यह दान पट्टवर्धिक वंश की श्राविका चामेकाम्बा की ओर से उसके गुरु श्रनन्दि को दिलाया गया था । थे मुनि बलिहारिगण श्रड्डकलि गच्छ के थे । गुलाबचन्द्र चौधरी Page #139 --------------------------------------------------------------------------  Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक अन्य निर्देश १. पं० नाथू रामप्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम, द्वितीय संस्क रण, बम्बई. २. डा० हीरालाल जैन, जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, बम्बई १६२८ ३. डा० अनन्त सदाशिव अल्तेकर, राष्ट्रकूटाज् एण्ड देयर टाइम, पूना, १६३४. ४. डा० भास्कर अानन्द सालेतोरे, मेडीवल जैनिज्म, बम्बई, १६३४. ५. डा. दिनेशचन्द्र सरकार, सक्सेसर श्राफ सातवाहनाज , कलकत्ता, १६३६. ६. डा० बे० मा० बरुत्रा, अोल्ड ब्राझी इन्स्क्रिप्सन्स , कलकत्ता, १६२९. ७. डा०मजूमदार और पुसलकर, एज श्राफ इम्पीरियल यूनिटी, बम्बई १९५१. , क्लासिकल एज, बम्बई, १९५४ ६. डा० गुलाबचन्द्र चौधरी, पोलिटिकल हिस्ट्री अाफ़ नार्दर्न इण्डिया फ्राम जैन सोर्सेज (७-१२ वीं शताब्दी ), बनारस (अप्रकाशित ) १०. रावर्ट सेवेल और कृष्णा- हिस्टोरिकल इन्स्क्रिप्सन्स आफ सदर्न इण्डिया स्वामी आयंगर, मद्रास, १६३२. ११. एम० आर० शर्मा, जैनिज्म एण्ड कर्नाटक कल्चर, धारवाड, १०४० १२. प्रो० नीलकण्ठ शास्त्री, हिस्ट्री श्राफ साउथ इण्डिया, आक्सफोर्ड १६५४ १३. विलियम कोल्हो, होय्सल वंश, बम्बई, १९५० १४. दिनकर देसाई, मएडलेश्वराज अण्डर दि चालुक्याज़ श्राफ कल्याणी, बम्बई, १६५१ । १५. वेंकट रमनय्य, ईस्टर्न चालुक्याज आफ बेंगी, १६. मुनि दर्शन विजय जी, पट्टावली समुच्चय,प्रथम भाग,वीरमगाम, १६३३ १७. त्रिपुटी महाराज, जैन परम्परानो इतिहास, अहमदाबाद, १६५२ १८. प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, टीकमगढ़ १६४६ जैन सिद्धान्त भास्कर, बारा, भाग १-२१ अनेकान्त, देहली, १-१० इण्डियन एण्टीक्वेरी Page #141 --------------------------------------------------------------------------  Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैम- शिलालेख संग्रह सन्दरवरिं बलिक तदीय- श्रीमद्-द्रमिल-संघाप्रेसररण पात्रकेसरि स्वामिगलिं वक्रप्रीयामि.. . रिन्दनन्तरम् । यस्य दि... .. न् कीर्त्तिस्त्रैलोक्यमप्यगात् । येव स भात्येको बज्रनन्दी गणामणी ॥ अafi बलिक सुमति भट्टारकरवरिं बलिक... समय- दीपक.. उन्मीलित-दोष-क.. . रजनीचर - बलमु०दोधित-भव्य कमलमाटतू ज्जितभफलङ्क प्रमाण - तपन स्फु.. ..॥ अवरिं बलिक चक्रवर्त्ति भट्टारकरवरिं बलिक कप्रकृति.. वरिं बलिक पञ्जवन गुरुगलु विमलचन्द्राचार्य्यखरि बलिक परिवादिमल्ल- देवरवरं बलि कनकसेन श्री - वादिराज देववरिं बलिक गंग कुल-कमल-मार्तण्डनप बूतुग-पेम्र्म्माडिय गुरुगलु श्री- विजय भट्टारकर वरिं बलिक चक्रवर्त्ति - जयसिंह- देवन गुरुगलागि । - सर्व्वज्ञाभिमानं सुरातनपगतात- प्र... दं कणादं । कृत-नीति-भ्रान्ति- नश्यन्- निज-नय- नयनालोकनं सन्द लोकायस निन्नी-मर्य-मागत नुदिगलोलवेम्बिनं मीरि लोकोन्नतमाप्तमताम्भोनिधि... विभवं वादिराजेन्द्र भावं ॥ वरिं बलिक यादवान्वय- चूडामणियप्पेरेयङ्ग-देवङ्गे गुरुगलु ं जगद्गुरुगलु मेनिसि । • चरणानुस्मरणा..... . य-निकर विष्टार्थ-संसिद्धियं । तर् वाचं ग्रहणं कुमार्ग:-युत-वादि-वातमं तूले दुर् र चारित्रद दुर्जयोर्जित - वन्त्र - श्रीयोलप तम्मोल मनोहरमागल् तलदसंमन्तजितसेन स्वामिगल कीर्त्तियं ॥ कन्तुवनान्तु मेय् देगेयदोडिसि दुम्मेद-कर्म-वैर-वि-1 क्रान्तमने भञ्जसि लसत्परमागम-विर्वादन्दिदा- । नीन्तन-तीर्थ नाथरेने रूढियनान्त कुमारसेन -सेद्धान्तिक रादमुज्जल... 1... जिन - धर्म - यशो - विलासमम् ॥ वरिं बलिक श्रीमजितसेन स्वामिगलम- पुत्ररुं जगत्पवित्ररुमागि । अवर सधर्म्मरु | Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेलूरके लेख सले सन्द योग्यतेयनालिसिद दुर्द्धर-तपो-विभूतिय पेम्पिम् । कलियुग-गणधररेमबुद्ध नेलनेल्लं मलिषण-मलबारिमलं ॥ अवरि बलिक मकलंक-सिंहासनमनलंकरिसि तार्षिकचक्रवर्तिगलु' वादीमसिंह रुमेम्ब पेसरेसेये। अवसर्पिण्यदिन [दि ] तुलुगडे जिन-जीमूत-संभात-मी भूभुवनन् तेङ्कादुवन्नं सुरिद सकल-विद्या-नादि-पूरदिन्ती। वि विपश्चित्पापसन्तापमनुडुगिसुतिईप्युदादं मुनीन्द्र-। प्रवर-श्रीपालयोगोखर नेनिय जगत्-सार्थकृत्-पुण्य-तीर्थ ॥ आवन विषयमो पट-तर्काविल-बहु-भंगि-संगतं श्रीपाल-। त्रैविय-गद्य-पद्य-बाचो-विन्यासं निसर्ग-विजय-विलासम् ॥ अन्तु जगद्गुरुगनिसिद श्रीपाल विद्य-देवर कालं कचि श्रीमदिम्मडि-दण्डनायक बिट्टियण्णनो-बमदिय खण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धारब, देवतापूजेगमिलिम्र रि(ऋ)निममुदायदाहारदानव शक-वर्ष १०५६ नेयनलसंवत्सरदुत्तरायण-संक्रान्ति यन्दु श्रीविष्णुवर्द्धन-पोय्सल देवर श्री हस्तदिं धारेयेरेपिसि परमेश्वरदत्ति माडि विडिसिद ग्राम भरसे-नाड बीजेबोललदर सामान्तर ( भागेकी ६ पंक्तियोमें सीमाओंका वर्णन है) दोरसमुद्रद पट्टण-म्यामि वोण्डादि-सेट्टिय मग नाडवलसेट्टिय कापलु हिरियकोरेयोलगण तावरेयकेरेयोलगाद नेलनं मारुगोण्डी-बहिगे कोट्ट श्री हिरियकेरेय केलगण तावरेयकेरेय बडगण-कोडिय विष्णुभहन तोट...सण गलेय...लु चतुरस्न १५ गलेय भूमिपं मारुगोण्डी-बसदिगेबिट ॥ द्वादशसोमपुरवाद होलेयब्बेगेरेय हन्नेरडुवृत्तियोलगोण्डु वृत्तियं गोग्गण-पण्डितर म...से गुलियण्णन कय्यलु मारुगोण्डी-वसदिगे बिट ।। ( वे ही परिचित श्लोक) (प्रथम भाग नष्ट हो गया है) [राजा एरंगंगके पुत्रने अपनी रानियोका परित्याग करके, राज्य छोड़कर, और चेङ्गिरिके निकटके देशमें मरते वक्त देह त्याग करते हुए नरसिंहकी पत्नियोंके ऊपर अधिकार जमा लिया था, अङ्गरको नष्ट कर दिया था Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह और गंगाकी ओर मुड़कर उत्तरदेशके राजाओंका सत्यानाश किया । उत्तर के आक्रमण में सफलता प्राप्त कर उसके हाथीने पाण्ड्य राजाकी सेनाको कुचल दिया था, भयङ्कर महान् युद्धोंमें चोल और गौलोंको हराया । कञ्चीगौण्ड - विक्रम-गंगने पाण्डयका पीछा करके नोलम्बवाडिको अधिकृत करके उच्चगिपर दखल कर लिया। इसके बाद तेलुङ्ग (तैलंग) देशकी तरफ़ बढ़ा, और इन्द्र... को सारी सम्पत्ति सहित कैद कर लिया। इसके बाद भसणको, जो सारे राष्ट्रका कण्टक था, समूल नष्ट किया और बनवसे बारह हज़ारको अपने कडित ( हिसाबकी किताब ) में लिख लिया । क्षणार्ध में राजाविष्णुने ( एरेगंगके पुत्रने ) प्रसिद्ध पानुङ्गल ले लिया, किसुकल्पर राज्य करने वाले.... नाथको अपनी नजरसे ही मार डाला । जयकेसीका पीछा करके पलसिगे १२००० का तथा.. . ५०० पर अधिकार जमा लिया । I इस महाक्षत्रिय विष्णुवर्द्धन देवके अनेक पद और उपाधियोंमें से कुछेक ये हैं :--- चोलकुलप्रलय-भैरव, चेरस्तम्बेरमराजकण्ठीरव, पाण्डय कुलपयोधि बडवानल, पल्लवयशोवल्लीपल्लवदावानल, नरसिंहवर्म्म-सिंह- सरभ, निश्चलप्रतापद्वीपपतित-कलपालादि - नृपाल - शलभ । कचीपर अधिकार करनेवाला ( कञ्चि-गोण्ड ), विक्रम-गंग वीर - विष्णुवर्द्धनदेव जिस समय इस तरह गंगवाडि ६६०००, नोणम्बवाड ३२००० तथा नवसे १२००० पर सुख व शान्तिसे राज्य कर रहा था : उसके पादमूल प्रभृत ( उत्पन्न ) तथा उसके कारुण्यरूपी अमृतप्रवाह परिवर्द्धित विष्णु दण्डाधिप था। ( उसकी प्रशंमा ) विष्णु दण्डाधिपका नाम इम्मडि दण्डनायक बिहियण्ण था । इस दण्डनायकने आधे महीने ( १५ दिन ) में ही दक्षिण विजय कर ली थी। विष्णुवर्द्धन- देवका यह दाहिना हाथ था । बहुत-सी उपाधियों और पदोंसे युक्त यह महाप्रधान, इम्मडि- दण्डनायक बिट्टियण 'सर्वाधिकारी' और सर्वजनोपकारी होता हुआ शान्तिसे ममय व्यतीत कर रहा था: इसके बाद पद्यमें विष्णु - दण्डाधिनाथके उन्हीं पराक्रमोंका वर्णन आता है जिनका वर्णन पहिले गद्यमें हो चुका है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेलूरके लेख ११ विष्णु - दण्डाaिrat भूत-कुल-परम्परा इस प्रकार थी:- सबसे पूर्व में (आदि ब्रह्मा युगमें ) काश्यप प्रजापति थे, जिनसे बहुत-से महान् पुरुष उत्पन्न हुए; उनके बाद एक उदयादित्य हुए, जिनकी पत्नीका नाम शान्तियके था । उनका पुत्र विष्ण-राज- दण्डाधीश था । उसकी पत्नी चन्दले थी, उनका पुत्र उदयण था । उदयणका छोटा भाई विष्णु हुआ, जो नये चन्द्रमाकी तरह श्राकार और यशमें बढ़ता ही गया । इसके किशोरावस्था प्राप्त होने पर स्वयं काञ्चिगोण्ड विक्रमगंग विष्णुवर्द्धन देवने, उसको अपने पुत्रके समान मानकर, बड़े उत्सवसे स्वयं ही उसका उपनयन संस्कार किया । सात या आठ वर्षकी उमरके बाद जब वह समस्त शास्त्र - विज्ञान में पारंगत हो गया तब उसको अपने प्रधान मन्त्रीकी पुत्री ब्याह दी । और १० या ११ वर्षकी उम्र में बुद्धिमें कुशाग्रकी तरह तीक्ष्ण होने और चार उपाधियों ( राजभक्ति, निस्पृहता, संयम और धैर्य ) में पूर्ण होने पर विष्णुवर्द्धनदेवने दुगुने विश्वासके साथ उसे 'महा-प्रचण्ड - दण्डनाथ' का पद दिया । और उसे सर्वाधिकार दे देनेसे वह सर्वाधिकारी तथा समस्त जनोंका उपकार करने की सामर्थ्य वाला हो गया । पूर्ण यौवन प्राप्त होने पर समस्त सार्वजनिक कामोंके करनेसे अनुभवकी वृद्धि होनेपर महापवित्र स्थानोंमें दान देनेके बाद, उसने यादव राज्यकी राजधानी दोरसमुद्र में यह विष्णुवर्द्धन जिनालय बनवाया । इस महापुरुषके गुरुकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थीः – वर्द्धमान स्वामीके बाद केवली और श्रुतिकेवलियोंके हो जानेके बाद, जिन शासन के प्रभावको सहस्रगुणा बढ़ानेवाले समन्तभद्र स्वामी हुए । उनके बाद, उसी द्रमिल-संघ के अग्रणी पात्रकेसरी-स्वामी हुए । तत्पश्चात् क्रमसे वक्रग्रीव-वज्रनन्दी गणाग्रणी, सुमतिभट्टारक, जिनसमयदीपक अकलङ्क - चन्द्रकीर्त्ति भहारक - कर्मप्रकृति-पल्लवाधिपगुरु विमलचन्द्राचार्य- परिवादिमल्लदेव, कनकसेन - वादिराजदेव — श्रीविजयभट्टारक ( बूयुगपेमडिके गुरु - जयसिंहदेवके गुरु वादिराजेन्द्र - जो दर्शन शास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान् थे )--- यादवान्वय-चूड़ामणि एरेयङ- देवके गुरु अजितसेन -स्वामी ( उनकी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह - प्रसाइनके एक सतीर्थ्य कुमारसेन-सैद्धान्तिक हुए, जो अपने समयके तीर्थनाथ कहे जाते थे-उनके बाद अजितसेन स्वामीके ज्येष्ठ पुत्र मल्लिषेण-मलधारि हुए, जो कलियुगके गणधर माने जाते थे। तत्पश्चात् वादीभसिंह अकलङ्ककी गद्दी सभालने वाले मुनीन्द्रप्रवर श्रीपाल-योगीश्वर हुए, जिन्होंने सम्यग् ज्ञानका प्रचार कर अहानके हटानेमें बड़ा काम किया। उन्होने अनेक तर्कशास्त्रके ग्रन्थ बनाये थे। इन जगद्गुरु श्रीपाल-विद्य-देवके पैरोंका प्रक्षालन करके,—इम्मडि-दण्टनायक बिडियण्णने 'बसदि की मरम्मत, भगवानकी पूजाके प्रबन्ध, तथा ऋषियोंके आहारदानके लिये, ( उक्त मितिको ) विष्णबर्द्धन-पोप्सलदेवके हाथोसे मटसे-नाडम बीजचोललका गाँव प्राप्त किया और उसे परमेश्वरको दानमें दे दिया। इसी तरह दोरसमुद्र-पट्टण-स्वामी ( नगरसेट ) वाण्डाडि-सेष्टि के पुत्र नाडवल-सेटिसे खरीदी गयी ( उक्त ) दूसरी भूमि भी उक्त मंदिरको टानमें दे डाली । द्वादश सोमपुरके १२ हिरसो से एक जो होलेय वेगर थावह भी दानमें दे दिया। (वे ही अन्तिम श्लोक)] [ EC,V,Bbur tl ., No. I77. ३०५ क अथूणाका शिलालेख अqणा ( उच्छृणक ) संस्कृत । [विक्रम सं० ११६६, बैशाख सुदि ३] २-६० ॥ ॐ नमो वीतरागाय । स जयतु जिनभानुर्भव्यराजीवराजी __ जनितवरविकाशो दत्तलोकप्रकाश. । परसमयतमोभिन स्थितं यत्पुरस्तात् क्षणमपि चपलासद्वादिखद्यौतकैश्च ॥ ॥ छ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थमा लेख २ - आसीच्छ्रीपरमारवंशजनितः श्रीमण्डलीकाभिधः कन्हस्य ध्वजिनीपते निधनकृच्छ्री सिंधरानस्य च । जज्ञ कीर्तिलतालबालक इतश्चामुंडराजो नृपो योऽतिप्रभुसाधनानि बहुशो हति स्म ३– देशे स्थलौ ॥ २ ॥ श्रीविजयराजनामा तस्य सुतो जयति मंति ( जगति ) विततयशाः । सुभगो नितारिवर्गो गुणरत्नपयोनिधिः शूरः || ३ || देशेऽस्य पत्तनवरं तलपाटकाख्यं पण्याङ्गनाजनजिता — प्रशस्तसुरमन्दिरवैजयन्तीविस्ताररुद्धदिननाथकर ४-मरसुंदरीकम् । अस्ति प्रचारं ४॥ पू--- १३ ६ – श्रोसः (प·) कृतोपासनाः । यस्यानन्यसमानदर्शनगुणैरन्तश्चमत्कारिता शुश्रूषां विदधे रुतेव सततं देवी च चक्रेश्वरी ॥ ६ ॥ पापाकस्तस्य सूनुः समजनि जनितानेकभव्यप्रमोदः प्रादुर्भू ७ -Ɑ तस्मिन्नागवंशशेखरमणिनिः शेषशास्त्राम्बुधिजैनेन्द्रागमवासनारससुधाविद्धास्थिमज्जाभवत् । श्रीमानंबरसंज्ञकः कलिबहिर्भूतो भिषग्रा (ग्रा) मणी गर्हिस्थे (स्थ्ये ) पि नि चिताक्षप्रसरो देशव्रतालंकृतः ॥ ५ ॥ यस्याव [श्य ] क [क] निष्टितमतेः श्रेष्ठा वनांते भवन्नंतेवासिवदाहितांजलिपुटा । -तप्रभूतप्रविमलधिपण. पारदृश्वा श्रुतानां [ ] सर्वायुर्वेदवेदी विदितसकलरुक्क्रान्तलोकानुकम्पो निन्नताशेषदोषप्रकृतिरपगदस्तत्प्रतीकारसारःः ॥ ७ ॥ तस्य पुत्रास्त्रयोऽभून्भूरिशा ८- स्त्रविशारदाः । आलोकः साहसाख्यश्च लल्लुकाख्यः परोनुजः ||८|| यस्तत्राद्यः सहजविशदप्रज्ञया भासमानः स्वांतादर्शस्फुरित एकलैतिह्यतत्त्वार्थसारः । संवेगादिस्फुटतरगुणव्य Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शिलालेख संग्रह t-तसम्यकप्रभावः तैस्तैदानप्रभृतिभिरपि स्वोपयोगी कृतभीः ॥६॥ आधा [0] यः स्वकुलसमितेः साधुवर्गस्य चाभूभ्रे शीलं सकलजनतालादिरूपं च काये । पात्रीभूतः कृतियतिधृतीनां २०-श्रुतानां श्रियां च सानन्दानां धुरमुदवहद्भोगिनां योगिनां च ॥ १०॥ यो माथुपन्वय नभस्तलतिग्मभानोव्याख्यानरंजितसमस्तसभाजनस्य । श्री उनसेनसुगुरोश्चरणारविंदसे११-वापरो भवदनन्यमनाः सदैव ॥ ११॥ तस्य प्रशस्तामलशीलवत्यां हलाभिधायां वरधर्मपल्यां। त्रयो बभूवुस्तनया नयाख्या विवेकवंतो भुवि रत्नभूताः ॥ १२ ॥ अभवदमल१२-बोधः पाहुकस्तत्र पूर्वः कृतगुरुजनभक्तिः सत्कुशाग्रीयबुद्धिः । जिनवास यदीयप्रश्नजाले विशाले गणभृदपि विमुह्यत् कैव वार्ता परस्य ॥ १३ ॥ करणचरणरूपानेक१३-शास्त्रप्रवीणः परिहृतविषयार्थो दानतीर्थप्र [ वृत्तः] । ग (श) मनिर्यामत चित्तो जातवैराग्यभावः कलिकलिलविमुक्तोपासकीयप्र (ब) तायः ॥ १४ ॥ कनिष्ठस्तस्याभूवनविदितो भूषण इति श्रियः पात्रं१४-कातेः कुलगृहमुमायाश्च वसतिः । सरस्वत्याः क्रीडागिरिरमलबुद्धेतिवनं क्षमा वल्याः कंदः प्रविततकृपायाश्च निलयः ॥ १५ ॥ स्मरः (रो) सौ रूपेण प्रबल [भ] गत्वेन गणभृत् कुबेरः संप-(1) २५-त्या समधिकविवेकेन धिषणः । महोनत्या मेजलनिधिरगाधेन मनसा विद ग्धत्वेनोच्चैर्य इह वरविद्याधर इव ||१६|| जैनेन्द्रशासनसरोवरराजहंसो मौनी न्द्रपादकमलद्वय२६-चंचरीकः । निःशेषशास्त्रनिवहोदक नाथनक्रः । सीमंतिनीनयनकैरवचारु चन्द्रः ॥१७॥ विदग्धजनवल्लभः सरससारशृंगारवानुदारचरितश्च यः सुभगसौम्यमूर्तिः सुधीः । प्रसाद Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थणाका लेख १७- नपरा नमद्वरविलासिनी कुन्तल व्यपस्तपदपंकज द्वितयरेणुरत्युन्नतः ॥ १८ ॥ प्रथमधवलप्राये मेघे गतेपि दिवं पुनः । कुलरथमरो येनैकेनाप्यसंभ्रममुधृत्तः । गुरुतरविप १५ १८ – - द्गर्त्तग्रावग्रहादुदनादिव ( तारि च ) रिथरमतिमहास्थाम्ना नीतो विभूतिगिरेः शिरः ||१८|| द्व े भार्ये भूषणस्य स्तः लक्ष्मी सीलीती विश्रुते । पतिव्रतत्वसंयुक्त चारित्रगुणभूषिते ॥ २० ॥ ससी १६ - लिकायामुदपादि पुत्रान् सन्तानयोग्यान् गुरुदेवभक्तः । आलोकसाधारणशांतिमुख्यान् स्वबन्धुचित्ताब्जविकाशमानून् ||२१|| आयुस्तप्तमहींद्रसारनिहितस्तो काम्बुवन्नश्वरं २०--संचिंत्य द्विपकर्ण चंचलतरां लक्ष्म्याश्च दृष्ट्वा स्थितिं । ज्ञात्वा शास्त्रसुनिश्वयात् स्थिरतरे नूनं यशः श्रेयसी तेनाकारि जिनगृहं... भूमेरिदं भूषणम् ॥ २२ ॥ भूषणस्य क २१ - निष्ठो यो लल्लाक इति विश्रुतः । देवपूजापरो नित्यं भ्रातुरादेशकृत् सदा ॥ २३ ॥ ज्येष्ठो बाहुकनामा यः सीडकायामजीजनत् शुभलक्षणसंयुक्तं पुत्रमम्बटसंज्ञकम् ॥ २४ ॥ २२ वर्षसहस्रं याते षट्षष्ठ्युत्तरशतेन संयुक्ते विक्रमभानोः काले स्थल वयमवति सति विजयराजे ॥ २५ ॥ विक्रम संवत् १९१६६ वैशाख सुदि ३ सोमे वृषभनाथस्य प्रतिष्ठा ॥ २३—–श्री वृषभनाथधाम्नः प्रतिष्टितं भूषणेन बिम्बमिदं । उच्छ्रणकनगरे स्मिनिह जगतौ वृषभनाथस्य || २६ || युगलं ॥ ० ॥ तुर्यवृत्तात्समारम्य वृत्तान्येतानि २४ – षोडश । श्राद्यवृत्तेन युक्तानि कृतवान् कटुको बुधः || २५ || माइलोवंशेऽभूत्तजः श्रीसावडो द्विजः । तत्सूनोर्भादुकस्येयं निःशेषाथ परा कृति || २५ || वालभान्व यकायस्थराजपालस्य Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शिलालेख संग्रह (सूनुना । संधिविग्रहसंस्थेन लिखिता वासवेन वै ॥ २६ ॥ यावद्रावणरामयोः सुचरितं भूमौ जनैम्गीयते [ । ] यावद्विष्णुपदीजलं प्रवहति व्योम्यस्ति यावच्छृशी । - १६: २६ – द्वक्त्रविनिर्गतं श्रवणकैः याव [ च्छ्र]तं श्रूयते तावत्कीर्तिरियं चिराय जयतात्संस्तूयमाना जनैः ॥ ३० ॥ उत्कीर्णा विज्ञानिकसूमाकेन ॥ ० ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ ● ॥ शिलालेखका परिचय ' [ डूंगरपुरके अन्तर्गत अथूणा ( उच्छूक ) नामका एक स्थान है, जो एक समय विशाल नगर था; और परमारवंशी राजाओंकी राजधानी रह चुका है । एक समय यह स्थान एक छोटे से गाँवके रूपमें आबाद है और इसके पास ही सैकड़ों मन्दिरों तथा मकानो आदिके खण्डहर भग्नावशेपके रूपमें पाये जाते हैं । यह शिलालेख यहींसे मिला है जो आजकल अजमेरके म्यूजि यम मौजूद है । उक्त शिलालेख वैशाख सुदि ३ विक्रम सं० १९६६ का लिखा हुआ है और उस वक्त लिखा गया है जबकि परमारवंशी मंडलीक ( मदनदेव ) नामके राजाका पौत्र और चामुण्डराजका पुत्र 'विजयराज ' स्थलि देशमें राज्य करता था। उच्छूणक नगर में, उस समय 'भूषण' नामके एक नागरवंशी जैनने श्री वृषभदेवका मनोहर जितभवन बनवाकर उसमें वृत्रभनाथ भगवान्की प्रतिमाको स्थापित किया था, उसीके सम्बन्धका यह शिलालेख है। इसमें भूषणके कुटुम्बका परिचय देनेके सिवाय, माथुरान्वयी श्री छत्रसेन नामके एक आचार्य १. पं० जुगल किशोर मुख्तार; अर्थुजाका शिलालेख, जैनहितैषी, भाग १३, अंक ८, पृ० ३३२ से उद्धृत । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमेरका लेख का भी उल्लेख किया है, जो अपने व्याख्यानाद्वारा समस्त सभाजनोंको सन्तुष्ट किया करते थे और भूषणका पिता 'आलोक' जिनका परमभक्त था । माथुरसंघी इन आचार्यका, अभी तक, कोई पता नहीं था। माथुरान्वयसे सम्बध रखने वाली काष्ठासंघकी उपलब्ध गुर्बावलीमें भी छत्रसेन गुरुका कोई उल्लेख नहीं है।। इस शिलालेखसे माथुरसंघके एक आचार्यका नया नाम मालूम हुआ है। अजमेर-प्राकृत [सं० ११६५ = ११३८ ई.] संवत् ११६५ आगणसुदि ३ प्राचार्य गदानन्दीकृते पण्डितगुणचन्द्रेण शान्तिनाम प्रतिमा कारिता। अर्थ स्पष्ट है। [ J. A.S.B., VII, p. 52, no.6] " ३०७ सिन्दिगेरे;-संस्कृत तथा कन्नड़ [शक १०६० = ११३८ ई.] [सिन्दिगेरे में, ब्रह्मेश्वर बसदिके दालानके स्तम्भ पर ] (पूर्वमुख) श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाच्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। स्वस्ति समस्त-भुवनाश्रयं श्री-पृथ्वी-वल्लभं महाराजाधिराज परमेश्वरं परमभट्टारकं सत्याश्रयकुलतिलकं चालुक्याभरणं श्रीमत्-त्रिभुवनमल्ल-देवर विजय १. देखो जैनसिद्धान्त भास्कर, किरण ४, पृ० १०३ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्क -तारं सलुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि समविगत-पञ्च-महाशब्द महा-मण्डलेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यादवकुलाम्बरमणि सम्यक्त्व-चूड़ामणि मलेपरोळ, गण्डाद्यनेक नामावली समलंकृतरप्प श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल तळकाडु-कोत्त- नङ्गलि गङ्गवाडि-नोळम्बवाडि-बनवसेहानुअतु- इलसि - गोण्ड भुजबल वीरगङ्ग होयसळ देवरु श्रीमद्- राजधानि - दोरसमुद्र बीडिनलु सुख-संकण-विनोदृदिं पृथ्वी- राज्यं गेप्पुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीविगळ श्रीमन्महाप्रधानं हिरिय मरियाने दण्डनायंकर मगं दाकरस- दण्डनायकर पुत्ररु द्रोह - घरह गङ्गपटय-दण्डनायकर बाचरस- दण्डनायकर सोवरस- दण्डनायक रळियन्दिरुमप्प श्रीमन्महा - प्रधानं हिरिय-भण्डारि-मरियाने दण्डनायकरुं श्रीमन्महाप्रधानं दण्डनायकं भरतरुप्पालु शक वर्ष १०६० नेय पिङ्गळ -संवत्सरद पुष्य-सु १० श्रदिवारदुत्तरायण संकान्तियलु तुलापुरुष महादानदलु तम्म नेलेपूरु सिन्दङ्गेरेय बसदिगे श्रीविष्णुवर्द्धन होय्सल- देवर कय्यलु धारा- पूर्वकं हडेदु विट्ट सवगोन - हल्लिय सीमा-सम्बन्धमेतेन्दडे ( आगेकी २० पंक्तियों में सीमाओं की चर्चा है तथा हमेशा का अन्तिम श्लोक ) ( दक्षिण मुख ) जय-जया- शरणं रण- क्षिति-हत- क्षत्रं हत क्षेत्र - निर्- | द्दय-निर्धारित - देह - लोहित-पयश - शातासि शातासि दुर्- | जय धारा-चकितारि-रक्षण-भुना - दण्डं भुजा दण्ड-को- | टि-युवद् वीर-वधू प्रमोदि भरत - श्रीमच्चमूवल्लभं ॥ नय-युक्त-क्रम-विक्रमं क्रम-नमद्-भू-मण्डलं मण्डल - | प्रिय- वृत्तं प्रिय वृत्त-संगत-गुण- ग्रामं गुण- ग्रामणी- । नयनानन्दकरं करार्पित- धनुर्ज्या - राव - दूरीकृता । रि-यशो - राचि नितोद्धतानि भरत - श्रीमच्च मूवल्लभम् ॥ अवनी- नूत-यश यशो-घवलिताशा-मण्डलं मण्डला- 1 - विलुनारि-बलं बल-प्रभु-नमच्चञ्चच्छिखा-शेखरी- । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिन्दिगेरेके लेख भक्दात्माकिन-नरवोत्करं कर-तारि-श्री-विलासं विला-। सवती-मानित-मीनकेतु भरत-श्रीमच्चमू-वल्लभम् ॥ स्मर-लीलं स्मर-लील-लोल-ललित-भ्र-भ्र -धनुर्विभ्रमो-। कर-लीलायत-दृष्टि दृष्ट-क्लिसत्-पुष्पेषु पुष्पेषु-जर्- । ज्जरितोन्मत्त-विलासिनी-जन-मनो-मानं मनो-मान-खे-। द-रतोत्कण्ठ-वधू-कदम्बि भरत-श्रीमच्चमू-बल्लभम् ॥ जित-मन्त्र जित-मन्त्र-नूत-महिम-स्तोमं हिम-स्तोम-शु-। भ्रतमात्मीय-यशं यशो-लहरिका-मजजगत्-तर्पि तर- । प्पित-लोक-स्तुत-कीर्ति कीर्तित-भुन-स्तम्भं भुज-स्तम्भ-सं-। भृत-विक्रान्त-वधू-करेण भरत-श्री मच्चमू-वल्लभम् ।। बित-विद्विष्ट-चमू-चमूप-विलसन्मन्त्रं लसन्मन्त्र-सा-। धित-दुर्वृत्त महो-महोर्जित-मही-चक्र मही-चक्र-सं-। स्तुत-दोमण्डल मण्डलाम-दमितानम्रारि नम्रारि-कीर्- । त्तित-दिग-वर्तित-जै-लक्ष्मि भरत-श्रीमचमूवल्लभम् ।। प्रतिपक्ष-क्षिति-केतु केतु-बनित-द्विड-भीति भीति-द्र ता-1 श्रित-रक्षा-निळयं लयानल-जुठत्-तापाग्नि-कोपाग्नि-शो-1 षित-युद्धोद्धत-जीवनं वन-शिखि-प्रोद्यत्प्रतापं प्रता-। प-तत-श्री-परिलब्ध-लक्ष्मि भरत-श्रीमच्चमूवल्लभम् ।। करवाळाहत-विद्विषं द्विषदसक्-पूर-प्लुतेभं प्लुते- । भं रथालम्बित-खङ्गि खळिग-निहतश्वौधं हताश्वौघ-जर्- । नरितान्त्रौष-विकर्षि-फेरव-रव-व्याजम्भितं जृम्भितो-। दुर-दोदण्ड-भवजितानि भरत-श्रीमचमू-वल्लभम् ॥ ललनानीकमनो-मनोभव भव-स्फाराळिकाख्यानळो-। ज्वळ-तेलो-निज-बाहु बाहु-निहत-द्विड् (दि) द्विट-च्चिरो-देवकीर । त्ति-लता-वेल्लित-वार्धि वार्द्धि-बलय-क्षोणि-तळ-स्तुत्य निन्न लसद्-वलदोळिक्के लक्ष्मि मरत-श्रीमन्चमू-वल्लभम् ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह ३१०-३११ श्रवणबेलगोला - संस्कृत तथा कन्नड़ । [ शक १०६१ (१) = ११३३ ई० ] ३१२ बादामी - कन्नड़ । [ शक १०६१ (१) = ११३३ ई० ] नमः श्री वासुदेवाय भोगिने योगमूर्त्तये । हरेश्वराय सत्याय नित्याय परमात्मने || स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्रीपृथ्वीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक [सत्या] श्रय-कुळ-तिळक चाळ क्याभरण [ श्री] मतु प्रतापचक्रवर्त्ति जयदेकमल्लदेव [२] विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमा [चं]द्रार्कतारं बरं सलुत्तमिरे [I] [त] स्पादपद्मो]पत्नीवि [1] श्रीवल्लभनमळ भू [दे ] वाङ्घ्रि, सरोजभृङ्गनङ्गजकल्पं कोविद-शुकसहकारं देवं श्रीकालिदासदण्डाधी[श]म् ॥ समधिगतपं[च] महाशब्द महासा[म]न्ता[धि]पति महाप्रचण्डदण्डनायक समस्ताधिकारि मनेवेडे काविम[र]स......ने (१) गल्द (१) कालिदास चमूनाथनाद... ... सुखने कनिळय श्री-ना... ..... घीशं ॥ मत्तन्ते काळिमरसङ्गुत्तम'. .महादेवचमूपोत्तमनुदग्रमहिमं मत्तेभवलं विनीतना ततसी (शौ ) य्यं ॥ इन्तेनिसिद महादेवदण्डनायकनुं पालदेवदण्डनायकनुं चालुक्य- जगदेक मल्लवरिषद एरडे (ड) नेय सिद्धास्थि- संवत्सरद कार्त्तिक सु(शु)ख भयोदसि (शि) सोमवारवन्तु श्रीमद्योगिजनहृदयानन्दनेनिप परमानन्ददेवरु माडिसि (द) योगेश्वरदेवर्गो बादाबिय सिद्धापदोळगे हतु (तु) गद्याण पोन्नु बरिसवरिसक्के कुडुहदेन्दाचन्द्रार्कस्थायियागे (ग) पेमाडे - रामदेव - रसन बिनपदि बिट्टरु ॥ [ क्रम ] दिन्दिविद [ नेय्दे काव पुरुष [a] श्रीयु [मक्के] यिद कायदे [काय् पापिगे कुरुक्षेत्रं] गळोळ, वार १. सम्भवतः यहाँ पाठ 'उत्तमसुपुत्र मोगेद' है । ........... Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादामीके लेख णासियोळे र-कोटि मुनीन्द्रदं कविले] यं वेदान्धरं कोन्दुदेन्दयशं सा] मि(द) [ दुसारिदपुदी शैलाक्षरं धात्रियो॥] ___ यह लेख बताता है कि किस तरह, जगदेकमाल के राज्यके द्वितीय वर्ष सिद्धतिय संवत्सरमें उसके दो अधीनस्थ दण्डनायक महादेव और पालदेवने रामदेव नामके किसी सरदारकी प्रार्थना करने पर मन्दिरको वार्षिक दानके रूपमें १० गद्याण 'सिद्धाय नामके करकी आयसे दिये। __ चालुक्य वंशावलीमें दो बगदेकमल्ल आते हैं : एक तो जयसिंह द्वितीय जिसका काल, सर डब्ल्यू ईलियट ( Sir W. Elliot ) के मतके अनुसार, शक ४० से ६६२७) है, और दूसरा सोमेखर तृतीय का ज्येष्ठ पुत्र एवं उत्तराधिकारी, जिसकी सिर्फ उपाधि, नाम नहीं, शिलालेखों में आता है और जिसका समय, उसीके अनुसार शक १०६० से १०७२ है । ___ इस प्रकार दोनोंके राज्यके प्रारम्भका अन्तराल १२० (१०६०-६४०) वर्ष आता है। यह काल २ युगके बराबर होता है। इसके संवत्सरका नाम तथा राज्यका वर्ष अभी भी लेखको सन्देहापन्न बनाये रखते हैं। लेकिन ईलियटके मैनुस्क्रिप्ट कलेक्शन ( Elliot Ms. Collection) से जे. एफ, फ्लीटको इस बातका पता चला कि जयसिंह द्वितीयने 'श्रीमत्प्रतापचक्रवर्ति' यह पदवी कभी धारण नहीं की थी, और उधर यह पदवी सोमेश्वर द्वितीयके उत्तराधिकारीकी उपाधियों में हमेशा आती है। अतएव यह लेख द्वितीय जगदेकमलके समयका है, और इसकी तिथि शक १०६१ (११३६-४० ई०) है, जो कि "सिद्धार्थ संवत्सर था।] ३१३ बुद्रि-संकृत तथा काद। वर्ष कालयुक्त [ ११९९ ई. (लू. राइस)।] [पुनिमें, बन-शायरी मन्दिरके पूर्वकी भोरके पाषाणपर] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह भद्र समन्तभद्रस्य पूज्यपादस्य सन्मते । अकलङ्कगुरोर्भूयात् शासनायाघनाशिने ।। धुरदोळ चाळु क्य-चक्रेखरनधिक-बळ तैलपं सत्य-रत्ना-1 करना-सत्याश्रयं विक्रम-भुज-बलदिं विक्रमादित्य भूपम् । वर-तेज अप्पर्ग भूतळ-नुत-जयसिंह मनोजात-रूपम् । घरेपोळ त्रैलोक्यमल्ल निरुपमनेसेटं सोमनुर्बी-ललामम् ।। त्रिभुवन-जन-नुतनेसेदम् ! त्रिभवनमलं विरोधि-बळ-हृत-सेल्लम् । विभवद भूलोकमलं । विभु सले जगदेकमल नाळदं धरेयन् ।। कुन्तळ-विषयकधिपति । कुन्तळ-चक्रशनलि बनवसे नागेळ । कन्तु-श्री-निळयं सले । भ्रान्तम् जिडडलिगेर्यालयहरयेसेगुम् ॥ . बेळे दि-गन्ध-शाळी-वन-परिवृतदिम् तेङ्गु-पङ्कज-पण्डडगळि (नो)पं पेत्तु तोपर्पा-कुल-तिळाद चम्पकाशोक-जम्बू-। कुळदि जम्बीर-पूगद्रुम-कुरवकदि नागवल्ली-तटाकड - । गहिनादं हर्म्यदिन्दुहरे बुध-जन-सम्प्रीतियं माडुतिक्कुम् ॥ धरणीशं गङ्ग-वंशं जन-नुतनिरिवा-चट्टिगं वैरि-भूपा-1 ळरुमं बेङ्कोण्ड-गण्डं सोगयिसे हरि-बा-कञ्चिगंधाळियिट्टम् । मरेयं तान...नाडोळगण हणवं कोण्डना-मारसिगम् । वर-तेजं कीर्ति-रानं रण-मुख-रसिकं मारसिंग नृपेन्द्रम् ।। गङ्ग-कुळ-कमळ-दिनकरन् । अङ्गज-सन्निभननून-दान-विनोदम् । भङ्गिसिदं वैरिगळम् । तुङ्ग-यश नेगळ दनोप्पेयेकला-भूपम् । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्रिके लेख वृत्त । परमात्यं वीर-तीर्थ पर-हित-चरितार्थे सदा-माविताय॑म् । तरुणी-सम्मोहनार्थ मनसिब-बनितारूप-संशुद्धितार्थम् । वर-शिष्टानीककर्थ सले कुडे पडेगु लोक संरक्षणार्थम् । पुरुषार्थ स्वार्थमेन्देक्कल-नरपति भू-लोककन्ति...तिक्कुम् ॥ बलवद्विदिष्ट-भूपालरनवय वादिं कादि बेहोण्ड-मण्डम् । दळवेल्लं बोडे गण्डं विरुद-भटर बेनित्तु पोपल्लि गण्डम् । कळनं पेल्दहे गण्डं रिपु-मदहरणं गङ्ग-मार्तण्ड-देवम् । तळे दं भू-कान्तेयं येक्कल-नृप-तिलकं चारु-दोर-दण्डदिन्दम् ।। करारातीभ-कुम्भ-स्थळ-विदलन-कण्ठीरवं विश्व-विद्या । धरं श्री-भारती-मण्डन-कुच-मणि-हारं मनोजात-रूपा-1 कारं गम्भीर-नीराकारनमल-गुणं सत्य-भाषा-विभूषम् । तारा-शुभ्राभ्र-गङ्गा-शशि-विशद-यशङ्गेकलङ्गोप्पुतिक्कुम् ॥ अङ्ग-कलिङ्ग-वन-कुरु-जागळ-कौशळ-मध्यदेश-मद्-। रह-तुरुष्क-गौड-मगघान्ध्रमवन्ति बराट-चोळ दे। शङ्गळ पण्डितर् क्कविगमुत्तम-याचकगेटदे कोट्ट कर। ण्णङ्गे समानमागे सलेयेक्कलनित्तपनोप्पे वित्तमम् ।। अमर्दिन बरि-बोनलिन्दम् । कमनीयं कल्प-वल्लि पुट्ट व तेरदिम् । प्रमदा-रत्नं नियिसल अमळाङ्गने सुग्गियब्बरसि धारिणियोल-।। परमेष्ठि-स्वामि देय्वं गुरु तनगेसवो-माघणन्दि-वतीन्द्रम् । वर-भव्यर वन्धु-वर्ग निरुपम- मरेयं एरिदा-मारसिङ्गम् । नरपाळमण्णना-सुग्गियब्बरसि यतोश कोहन-दानम् । धरेगोप्पम्बेत्तुदा-पञ्चवसदि जसवं बीरुगु माटादन्दम् ।। वीर-जिनेन्द्र-पाद-सरसो [क] ह-राजित-राजहंसेयम् । चारु-चरित्रेयं गुण-पवित्रेयनूज्जित-दान-शीलेयम् । भारति-वर्णपूरे मुनि-राज-पयो [5] ह-शृङ्ग यं गुणा- । धारद सुग्गियबरसिय घरे बण्णिसुतिक्कु मागळ म् ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह " सवणन-बिळिलोळे बिट्टळ । भुवन- स्तुते मत्तरोप्पे सले पन्नेरडम् । व-हर- पञ्चवदिगा । प्रवरान्विते सुग्गियब्बरसि धारिणियोलू ॥ कतिपय - कालान्तरितं । हितवेनिपा - पूर्व-वृत्ति तळे यलु पडेगुम् । सततं जिन पूजोत्सव- । रतेयप्पा - कर्नाकयब्बरसियिं घरेयोळ ॥ बिन- पूजेगे जिन-महिमेगे । जिन-राजन मज्जनक्के जिन भवनक्कम् । बिन - मुनिगेसवी - दानमन् । अनवरतं माडुतिक्कु कनकियब्बरसि ॥ बिन - गृहमिल्लदल्लि जिन-मन्दिरमं जिन - गेहमानियुम् । बिन- मुनिगळ गे दान - निचयं दोरकोळ द थाविनल्लिया । मुनि-जन गित्तु कीर्त्ति-लते पल्लत्रिसुत्तिरे लोकदल्लियन्त् । अनुपममागला- कनकियब्बरसियोपुत्रिक्कु धात्रियोळ || सुर-कुनमनिळिति शक्रन । सुर्गभयनिन्नेबुदेन्दु चिन्तामणियम् । परिहरिसि कुडले वल्लळे । परमा चट्टियम्बरसि धारिणियोळ ॥ जनकनु मासिन-नृपनग्रजनेक्कल भूग बल्लभम् । दिनकर-तेनोप्पे दशवर्म्म टरेयङ्गनम-नन्- | दनननुबात केशव - नृपाळ चतुर्विष दानदिन्द मान्- | तनदोळे चट्टियब्बरसियं बुध-मण्डलि मेच्चि बण्णिकुम् ॥ परमाराध्यं बिनेन्द्र गुरु ऋषि-निवहं बोप्प- दण्डेश मावम् । freतं बोपच्यन्ता-जनति जनकना-कोटि-सेट्टि प्रमोदम्- । वेरशिद्द - शान्तियक्क करवेसदिरला पत्नि सम्यक्त्व - रत्ना- । करनप्पी-केति-सेड्डद्दरेय बसदियं माडिदं पुण्य-पुञ्जम् । विमळ- यशो - वितान नकळङ्कनुपार्जित - जैन-धर्म्मना । गमिक-जन प्रपूर्ण-विकचान्ज- सरोवर - राजहंसनेन्द् । अमम धरित्रि बष्णिपुदु भव्य - शिखामणि भव्य -बन्धुवम् । सुमति-निवासनं नेगळ्द केतननुत्तम-दान-सत्वनम् ॥ परम-श्री-मूलसंघं सोगयिसुतिरे श्री - कोण्डकुन्दान्वयम् । इरे श्री-क्राणूर्गणं गच्छ मेसदिरे सन्दा - तिन्त्रिणीकाख्यमोधं । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्रिके लेख ३५. बेरसा-श्री- रामणन्दि-प्रति-पतियेसेट पद्मणन्दि-प्रतीन्द्रम् । वर-शिष्यङ्गग्र-शिष्यं नेगळ दनु मुनिचन्द्राख्य- सिद्धान्त-देवम् ॥ अन्तवर शिष्यनेसेगु ं । भ्रान्तेम् श्री भानुकीर्ति सिद्धान्तेशम् । क (श) त्रु-मद-दर्प-दळनम् । सन्तत-बुध- कळप भुवनेगळ दें घरेयोळ ॥ कनक- जिनालय वेसे दिल् । श्रनुपमनेकल नृपाळ सवणन-विलिहोळ । जन-नुतमेने भानुकीर्त्ती । मुनिगोप्पिरे बिट्ट मत्तरं पन्नेरडम् ॥ नेगळे चाळ क्य-चकि-वर्ष जगदेक-महीश सासिरम् । मिलिरुत्तु - कालयुत - माघ "दा दशमी बृहस्पती । सोगयिसे वार पन्नेरडु-मत्तरना कोडगेय्महादमम् । तगरदे भानुकीर्त्ति मुनीगेकल बिट शशाङ्कनुळि ळनम् ॥ कोटि-पयं कविलेयनेळ - | कोटि- तपोधनर वेद विदरं पन्निर् । कोटि कोटि तीर्थदे । कोटि-महा-दिनदोळळदनिन्तिदनळिदम् || ( हमेशाका अन्तिम श्लोक ) श्री- बन्दणिकेय तीर्थद प्रतिबद्ध ॥ [बिन-शासनकी प्रसंशा । पृथ्वीका शासन करनेवाले क्रमशः ये राजा हुए: --] १ चालुक्य-चक्र श्वर तैलप; २ सत्याश्रय; ३ विक्रमादित्य; ४ अय्यण; ५. जयसिंह ६ त्रैलोक्यमल्ल ७ सोम ८ त्रिभुवनमल्ल ६ भूलोकमल; १० जगदेकमल्ल | कुन्तल- देश में, बनबसे- नाड्में, जिड्डु लिगेमें उद्धरेके वृक्षों और बगीचोंका वर्णन | गंग वंश के राजा मारसिंगका वर्णन । राजा एक्कलकी प्रशंसा । अङ्गादि नानादेशों के विद्वान् और कवियोंके लिए वह कर्णके समान दानी था । सुम्मियन्चर सिकी प्रशंसा । उसके गुरु माघनन्दि - ब्रतीन्द्र थे, राबा मारसिंग उसका बड़ा भाई था । सुम्नियन्बरसिने यतीशों को आहारदान तथा बढ़िया पञ्चबसदि दी थी । बसदि के लिए सवणविळिमें भूमिदान किया था । न ब्रिसिने इस पूँजीमें और भी वृद्धि की । वहाँ जिन मन्दिर नहीं थे Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह वहाँ चिन-मन्दिर बनवाये, और नहाँ बिन-मुनियोंको आमदनीका क्षेत्र नहीं था वहां उसने दान दिये। चटियन्बरसि कामधेनु और चिन्तामणिके समान थी। उसके पिता राजा मारसिंग थे, ज्येष्ठ माई राजा एकल, पति राजा दशवर्मा था, जिसका एरेयङ्ग ज्येष्ठ पुत्र था, और उसका छोटा भाई राजा केशव था। शान्तियक्केके परमदेव जिनेन्द्र थे, गुरु ऋषि-गण थे, बोप्य-डण्डेश उसका चाचा, बोधले उसकी मां, कोटि-सेट्टि उसके पिता थे, उसके पति केति-सेट्टिने उद (द) रेकी बसदिका निर्माण कराया। मूलसंघ, कोण्डकुन्दान्वय, काणूर-गण और तिन्त्रिणोक गच्छमें रामणन्दि-बतिपति-पद्मणंदि-मुनिचन्द्र सिद्धान्त-देव-भानुकीर्ति-सिद्धान्तेश क्रमशः शिष्यपरम्परामें हुए । अन्तिम मुनिको राना एकलने कनक-जिनालयके साथ-साथ चालुक्य-चक्री जगदेव राजाके राज्यमें ( उक्त मितिको ) भूमिदान दिया ] [Ec, VIII, Sorab TI. No. 233] रायबाग;-संस्कृत तथा कन्नर । [१] ["रायबाग गांवमें नरसिंगशेटिके जैन मन्दिरके पाषाणखण्ड पर ।" ] यह एक चालुक्य शिलालेख है । इसमें दासिमरसु पेनानायकके दानका वर्णन है । यह दान सिद्धार्थी संवत्सर के आषाढ़ महीनेकी कृष्णपक्षको त्रयोदशी, सोमवारको, जवकि सूर्य दक्षिणायन हो रहा था, किया गया था। यही संवत्सर जगदेकमलदेव राजाके राज्यका दूसरा वर्ष था । यह दान विनवाग के नरसिंगशेटिके जैन मन्दिरके लिये किया गया था। सर डब्ल्यू ईलियटकी सूची में दो चालुक्य राजाओंकी 'जगदेकमन' उपाधि है,-एक वो जयसिंह द्वितीय की, जिसका करीब-करीब काल शक ६४० से शक ६६२ तक दिया हुआ ह, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्रिके लेख और दूसरे का नाम तो नहीं दिया हुआ है, परन्तु इतना मालूम है कि वह सोमेश्वर तृतीयका उच्चाधिकारी या। शक वर्ष ६४२, उसी तरह शक वर्ष २०६२ सिद्धार्थी संवत्सर था, और तदनुसार वर्तमान लेखका काल सन्देहास्पद है, लेकिन सम्भवतः शक १०६२ (११४०-१ ई० ) यथार्थकाल है। [JB, X, P. 183-184, N... 10..] ३१५ मौंट शिवगङ्गा;--संस्कृत तथा कन्नद। [विना काल-निर्देशका [ लगभग १५० ई० (लू. राइस)।] [गङ्गाधरश्वर मन्दिरके मण्डपके खम्भे पर ] एतन्मित्र-कुळाम्भोज-भास्करस्य यशस स्थिरम् । विष्णोरडळ-वंश-श्री नायकस्यैव शासनम् ॥ ललितेन्दु-द्युतियं तेरल्मि भवनं माडिट्टो संकरा-1 चळम मेङ कडिदिट्टरो शिव-गृहं माडिहरा पुण्य-सङ । कुळम येळिमेनल्के कूत्तु शिवगों शादियोळ माडिदम् । कुळ-नाम गडिमेन्दु देव-गृहमं सामन्त-कम्जासनम् ॥ अदळ-कुळ-रन-भूषणन् । अदळ-कुलाम्भोज-भानुवदळेश्वरमेन्दु । उदुभव-चरितं माडिद- । नुदुघ-यशं विहि-देवनी-शिवगृहमम् ॥ पूवलि पूजे निवेद्यं । दाविंगे जळ गन्ध धूपवक्षते पात्रम् । पाकुळमेनिप्पुवनारैद् । आवगमवं कपके बर्प धनम कोट्टम् ॥ अन्तुमल्लदेयु निन-जनकन पेसरिं ब्रह्म श्वर-देवालयं वरं ब्रह्मसमुद्रमं नेगल्द .. मत्तम् । अदळ-जिनालयङ्गळबळेश्वर-देवगृहङ्गळित्तिवेन्द् । अदळसमुद्रमेन्देसेव विष्णुसमुद्रमिवेन्दु धर्मदिम् । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह पुदिदवनन्दु माडिसिद कट्टिसिद्धं केषेयं निचान्वयक्कू । उद्भवभागलेन्दद्ळ-वंश-शिखामणि [वि] ष्णुवर्द्धनम् ॥ अलि बळिक तम्मवगे परोक्ष - विनयमागे बोचसमुद्रमेम्ब केषेयं कट्टिसि शिव महिमेयेडेगे केशव- । भवनोद्धरणक्के... ऐ -कोडिगेधर्म्म- । प्रवर बेडितनितर- 1त्थमनिवनीव बिट्टि-देवनदटर देवम् ॥ स्वस्ति श्री विष्णु-सामन्तं स्थिरं जीवि [ इस लेख में बताया गया है कि बिट्टि देव, अपरनाम विष्णुवर्द्धन, शिवगङ्गेशाद्रि (Mount Shivaganga) में शिव मन्दिर बनवाया था । विट्टि देव श्रळ-कुळका था । उसने इसके सिवाय, श्रदळ- जिनालय, श्रदलेश्वर - देवगृह भी बनवाये थे । ] > [EC. Ix, Nelamangala U., No. 84 ] ३१६ मुगुलूर - कन्नड़ | [ विना काल-निर्देशका, ११४० ई० ( लु. राइस ). ] [ बस्तिके अन्दर पड़ी हुई मूर्ति के पीठस्थलपर ] श्रीपाल वैविद्य-देवर गुड्डगळ मेळसिन मारि-सेट्टियरि नेगतिय गोवनसेट्टियर सोगे- नाड मुगुळियलु बसदियं माडिसिरु... माडिसि श्री पार्श्व - देवर प्रतिष्ठेयं माडिसि आ-असदियुमं आ-देवर भूमियुमं तम्म गुरुगळिगे धारा-पूर्वकं माडि कोहरु || ३८ [ श्रीपाल - त्रैविद्य देवके गृहस्थ- शिष्य मारि-सेट्टि और गोवन सेट्टिने सीगे - नाड्में मुगुळिमें एक 'बसदि' बनवायी और उसमें पार्श्व-देवकी स्थापनाकर, बसदि और उसकी जगह ( जमीन ) देवता के लिये अपने गुरूको अर्पित करदी । ] [E, C, V. Hassan U. 129.] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्जनेरीके लेख -अब्जनेरी (नासिक के पास);-संस्कृत -[शक १०६३= ११४२ ई.] यादववंश शिलालेख (१) ओं पंच परमेष्ठिभ्यो नमः । स्वस्ति श्री शक संवत् १०६३ दुंदुभिसंवत्सरां तर्मात ज्येष्ठ सुदि पंचदश्यां सोमे अनु(२) राधानक्षत्रे सिद्धयोगे अस्यां संवत्सरमासपक्षदिवसपूर्वायां तिथौ समधिगता शेषपंचमहाशब्दद्वारावतीपुरपरमे(३) श्वर विष्णुवंशोद्भवयादवकुलकमलकलिकाविकासमास्करयादवनारायण सामंतपितामह सामंतजमरा इत्यादिममस्त(४) निजराजावलीविराजितमहासामंत श्रीसेउणदेव विजयराज्ये तत्पाद-प्रासादा वाप्तमहामहत्तमः प्रतापसंतापितवैरिवम्गः (५) संग्रामशौंड ] शूरवैरिघटाविमर्दनकण्ठीरवः अनवरतदानार्दीकृतदक्षिणकर प्रकोष्ठः निशिनिस्तृश ( निस्त्रिंश) विदारितारा(६) तिकरिकुंभस्थलगलितमुक्ताफलमंडितरणांगण ( रणांगण ) मनस्विनीमानो न्मूलनकंदर्पः दप्पधिर्मरं (र) हितः सौ (शौ) योदार्यदयादाक्षि(७) ण्यधर्मगुणसत्योत्साह मंत्रशीलसंपन्न [:] प्रचापालनानंदशत्रुपराजयानंतोषित कीर्तिप्लावितदिग्वलया' अनेकराजनीतिशा 1 इस वाक्य का ठीक अर्थ नहीं निकलता। यदि 'पराजयाम' के बाद 'छ लुप्त हुमा मान लें, तो 'शत्रुपराजयानंदतोषित' ऐसा पाठ होगा और जिसका ठीक अर्थ भी निकलेगा। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ६. से उणचन्द्र (द्वितीय . ) शक ६६ १. ... ... जैन- शिलालेख संग्रह *** *** ... ( १३ १ ) सेडणचन्द्र (तृतीय) शक १०६३. [ IA, XII, P. 126-128 ] ३१८ कसलगेरी - संस्कृत तथा कचड़ । - [ शक १०६४= ११४२ ई० ] [ कसलगेरी ( देवलापुर परगना ) में, कल्लेश्वर मन्दिर के सामने के पाषाण पर ] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाऽनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् ॥ भद्रमस्तु जिनशासनाय सम्बधतां प्रतिविधानहेतवे । अन्यवादिमदहस्तिमस्त कस्फोटनाय घटने पटीयसे ॥ स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यादवकुलाम्बरधुमणि सम्यक्त्व चूड़ामणि मलेपरोळ गण्ड कोतु नङ्गलि - गङ्गवाडि-नोळम्बवाडि-तलेकाडुउच्चङ्गि-नवसे- हानुङ्गलु-गोण्ड भुजबळ वीर-गङ्ग-होयसळविष्णु वर्द्धन- देवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि प्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कता रं सल्लुतमिरे तत्पादपद्मोपजीवि । स्वस्ति स्वस्तिळकै शुभैश्शुभतमैः पुण्याहवैः कीर्त्तयां | स्थाप्यन्ते चित-पाश्व निपादपङ्कबटळे श्री ही धृतिर्द्धार्यताम् । त्वं दत्तं देयातु देव-देवभुवने मुक्तयङ्गनावल्लभो Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसलगेरी के लेख सामन्तं जय-वीय-वर्द्धनकरं सोमं स्थिरं जीयातु ॥ उदेयं गेय्वमृतं (1) सुबिम्ब भुवनक् कुत्साहमं माक्कु 'बिन्दु तज्जननिगाचन्द्रार्क तारं यशस्प्रतरं केमिगे तन्देगे तन्न बाहुबलदिं दोर्दण्डदर्पिष्ट रं तदिदं सौ ळने सीद अदपिदं बेङ्कोण्डनी-सामन्त सोमं घराचक्रदल ॥ प्रळय-प्रक्षोभ - वाताहतदे कदडि मर्यादेयं दाण्टि घात्रीतळकत्यन्तदौवन को पाटोपवेशं करिमगे चोळबळमल्लकल्लोळ मप्पन्तु पिरिदे घळ बन्दु बिट्टम् । ह्रदुवन के यो वीर-पेमडि देवम् ॥ मदगन्देभमदान्ध वारिचयदिन्देय्तदुदाबीडना । बिडलासान्दु दासान दुलु वीरगनेने भीमाटवी हृदु-स्थान-नदी-तीरमन् । अरदे साल्दमोघसरलिदेच्चनाकरियं करियय्कणम् ॥ वोदविद-मददिन्दिरदेय्तरे बीडनदरे कुम्भस्थळमम् । बिरियेच्चु कोन्दनेन्दडे करियय्कणनेम्बुदातनं नगमेल्लम् ॥ ४३ अन्तु बीर- गङ्ग-पेमडि हृदुवनकेरेंय कदुलेय तडि विडदु चातुर्दन्तवलं बेरसु चोळन मेले नडेयुतं बन्दिरे काडेने बीडं कविये पाय वुदं कण्डु अय्कणं करियनेच्चडे कलुकणिनाडावं करियरकणनेन्दु वीरपट्टमं कट्टि सुखदिन्दिरे । करियर - सावन्तन । पिरिय- मगं भागनातनग्रतनूजं सुरघेनुकल्पवृचद । दोरेयेनिसिद सुग्ग- गौण्डनदिरद गण्ड |! एने गल्द सुग्ग- गऊण्डन । तेनेयं सावन्त - सोमनाहवभीमम् । बिनपादकमळ | बिननाथस्नपनचलपवित्रितगात्रम् ॥ मदवदशतिनायकरना वोळ तरिदिकि कीर्त्तियम् । नेरेये दिगन्तरं मेरेदुदारते सिंहनाददिन्द् । ओदविद-भीम-सूद्र कनो धनञ्जय - रामनो दुन्दुमारणो । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ जैन- शिलालेख संग्रह नळ - नहुषादि सोमदेवनेने सोवण धन्यनो पन्नगे-वैनतेयनो ।। मारन सतिगं सीतेगे । रेवतिगनु (रु) धतिगे अत्तिमब्वेगे सदृशं पेळ । सारगुणं सोमन सतिगुदारगुणं निन्वन्नेयराम मारवेणी-धारिणियलु || आतन सतियं पोलिपडी । भूतळदोळ रूप अजवनितेगे रतिगन्त् आ-सति पाटियेनि । प बिनतु-पाद-भक्ती माचले - नारि ॥ आ-मारखे सोमनोडने लीलेयिं... उळर कुल-ललेनेयेनिसि जळचर-निचयनिचित-कुन्द - कुटु-मळ-बदन - वन- दवतेये वन-लक्ष्मये कल्प - वरुवेनिसि बहु-पुत्रियरं पडेदु जिन- जननियेने निधक्काधारी- भूतेयु आहायभय-भैषज्य-शास्त्र- दीनविनोदेयु जिनगन्धोदकपवित्रीकृतोत्तमाङ्ग यु बिनसमयसमुद्धरणेयु पारिश्व-देवपादाराधयुमप्प | बिनपति दैव पोरेदाल्दने होय्सळविष्णुभूप सन्ननुते मारे माखले गुणान्वितेयर्त नगनपुत्ररेन्द् | अनुपम - खट्ट देव कलि-देवने सन्दू अनुपम - कीर्त्तियं नेरें ये ताल्दिद-भव्यने सोवणनी-घरित्रियलु || स्वास्ति समस्त गुणसम्पन्ननुं विबुधप्रसन्ननुं आहाराभयभैषज्यशास्त्रदानविनोदनुं चिनगन्धोदकपवित्रीकृतोत्रमाङ्गनुं बिनसमय समुद्धरणनुं तोडल्दर डोङ्कियु तोडरे ब- गण्डनं नुडिदु मत्तेननुं परनारी- पुत्रनुं पार्श्व - देव पादाराधकनुमप्य कलुकणिनाडाव सामन्त-सोवेय-नायकं भानुकीर्त्ति सिद्धान्त-देवर गुड्डु कलुकणनाड् आल्वं हेब्बिडिरूवडियलु उत्तु गचैत्यालयवं माडि श्री पाख देवरं प्रतिष्ठे माडि श्रीमूलसंघ- सुरस्ट (स्थ ) गणद ब्रह्मदेवर कालं कच्चि धारापूर्ककं माडि कोट्ट देवर अङ्ग-भोगक्कमा हारदानक्कं बसदिय बीर्णोद्धारक्कं बिट्ट दत्ति शक- वर्ष २०६४ नेय दुन्दुभि-संवत्सरद पौष्य-मासदुत्तरायण-संक्रमणपञ्चमी - बृहस्पति) वारदन्दु बसटिगे वायव्यद देतेयलु अवहनहळळय सीमान्तर वेवेन्दडे (अन्तिम ८ पंक्तियोंमें सीमाकी चर्चा है, और इसके बाद अन्तिम पद्य ) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसलमेरीके लेख [ उसी पाषाणके बायीं ओर-] स्वस्ति कल्कणि-नाड एक्कोटि-जिनालय वेन्दु समे...रू कूटि कोट्ट हेसरु ।। स्वस्ति स्वारि-माचोज कलुकणिनाड आचार्य कलियुग-विश्वकर्मा [जिनशासनकी प्रशंसा । जिस समय (अपनी हमेशाकी उपाधियों सहित ), भुवबल वीर-गङ्ग-होयसळ. विष्णवर्द्धन-देवका विजयी राज्य अपनी वृद्धि पर था:-तत्पादपद्मीपञ्चीवी सामन्तसोम था ( उसकी प्रशंसा )। जिससमय वीर-गङ्ग पेाडि चोल राज्य पर आक्रमण करनेके लिये हृदुवनकेरीमें कदुले नदीकै किनारे-किनारे जा रहे थे, एक जंगली हाथी भागता हुआ आकर सेना पर टूट पड़ा । अय्कणने उस हाथीको अपने बाणोंसे मार दिया, जिसपर कलुकणि-नाड्के शासकने उसे 'करिय-अय्कण' की उपाधि दी। करिय-अय्कणका सबसे बड़ा पुत्र नाग था, उसका ज्येष्ठ पुत्र सुग्ग-गऊण्ड था, उसका पुत्र सामन्त-सोम था। उसकी मारय्वे और माचले नामकी पलिया थीं। मारय्वे की बहुत-सी पुत्री हुई, पर माचले के पुत्र हुए, जिनमें ज्येष्ठ चट्टदेव और कलि-देव थे। कलुकणि-नाडके शासक, सामन्त-सोवेय-नायक ने (अपनी बहुत-सी उपाधियों सहित ), जो कि धार्मिक जैन और भानुकीर्ति-सिद्धान्तदेवके गृहस्थ-शिष्य थे, हेबिदिसाडिमें एक ऊँचा चैत्यालय बनवाया और उसमें पाव-जिनकी स्थापना करके पूजा-सेवाके खर्चके लिये, मन्दिर की मरम्मत तथा आहारदानके लिये, श्री मूलसंघ तथा सूरस्ट (स्थ) गणके ब्रह्मदेवके पादों को प्रक्षालनपूर्वक 'अरुहनहल्लि' नामक गांव टानमें दिया । चिनालयका नाम 'कल्क ( कलुक ) णि का एकोटि बिनालय' रक्खा था। शिल्प का नाम माचोज था। यह कलुकणि-नाड का आचार्य, कलियुग का विश्वकम्मा था।] (EC, IV, Nagamargala U., no, 94 and 95] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह ११ अय्यन-सिंगः सकळ-गुण-तुङ्गः । रिपु-मण्डळी (ळि) कभैरवः । विद्विष्ट-गज कण्ठीरवः । १२ इडुवरादित्यः । कलियुग-विक्रमादित्यः । रूपनाययणः । नीति-विचित-चा१३ रायण. | गिरि-दुर्ग-लङ्घनः। विहित-विरोधि-बंधनः। शनिवारसिद्धिः। धम्मैकबुद्धिः। महा१४ लक्ष्मीदेवी-लन्ध-वरप्रसादः । सहज-कस्तूरिकामोदः । एवमादि१५ नामावली-विराजमान श्रीमद्-विजयादित्यदेवः । वल्वाड-स्थिर शिबिरे सुख-संकथा-विनोदेन राज्यं कु१६ वा॑णः । शक-वर्षेषु पञ्चषष्टय त्तर-सहस्र-अमितेष्वतीतेषु प्रवत्त मान-दु: १७ दुमि-संवत्सर-माघ मास-पौर्णमास्यां सोमवारे । सोमग्रहण पर्व-निमि१८ त माजिरगेखोलानुगत-हाविन-हेरिलगे-ग्रामे । सामन्त-कामदेवस्य हडप १६ वलेन श्री-मूलसङ्घ-देशीयगण-पुस्तक-गच्छाधिपतेः क्षुलकपुर-श्री रूप नारायण-नि२० नालयाचार्य श्रीमन्माधनन्दिसिद्धान्तदेवस्य प्रिय-च्छा [त् ] त्रेण । सकलगुणरत्न-पात्रेण । २१ बिन-पदपद्म-भृङ्गेन । विप्रकुल-समुत्तुङ्ग-रङ्गेण । स्वीकृत सद्भावेन । वासुदेवेन २९ कारितायाः वसतेः श्रो-पार्श्वनाथदेवस्याष्टविधार्चनार्थ । तच्चैत्यालय खण्ड२३ स्फुटित-जीर्णोद्धार्थ । तत्रत्य-यतीनामाहारदानार्थ च । तत्रैष ग्रामे २४ कुण्डि-दण्डेन निवर्तन-चतुत्य-भाग-प्रमितं क्षेत्र। द्वादश-हस्तसम्मितं गृह-निवेशनं २५ च । तन्मानन्दिसिद्धान्तदेव-शिष्यानां माणिक्यनन्दिपण्डित देवानां । पादौ प्रक्षाल्य धारा-पू Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोल्हापुर के लेख 就變 २६ र्व्वकं सर्व्वनमस्थं सर्व्व- बाधा - परिहारमाचन्द्रार्कतारं सशासनं दत्तवान् ॥ २७ तदागामिभिरम्मद्वंश्यैरन्यैश्च । राजभिरात्मसुख - पुण्य-यशस्तन्तति-वृद्धिभिः । स्व २८ दत्ति - निर्विशेषं प्रतिपादनीयमिति । शान्तरसक्के ताने नेलेयाद २६ जिन प्रभु तत्र दैवमश्रान्त - गुणक्के ताने नेलेयाद तपोनिधि माघनन्दि सैद्धान्तिक - · ३० योगी तन गुरु । तन्नाधिपं विभु कामदेव - सामंतनिदुत्तमत्वमिदु पुण्यमिदुन्नति वासुदेवेन || भावार्थ [ यह शिलालेख कोल्हापुर शहरके शुक्रवार दरवाजेके पासके जैनमन्दिर के सामने एक पत्थर पर उत्कीर्ण है । शिलालेख में शीलदार कुलके महामण्डलेश्वर विजयादित्य देवके एक भूमिदान का उल्लेख है । पहले के दो श्लोकों में जैनधर्मके यश की गाथा गाई गई है । तत्पश्चात् ३-१५ तक की पंक्तियोंमें दाताकी निम्नलिखित वंशावली और उसका वर्णन है - शीलदार क्षत्रिय वंशमें जतिग नामका एक युवराज था, जिसके चार लड़के, गोङ्कल गूवल, कीर्त्तिरान, और चन्द्रादित्य थे । राजपुत्र गोकुलका लड़का मारिसिंह था । उसके पुत्र गूवलगङ्गदेव, बल्लालदेव, भोजदेव, तथा गण्डरादित्य-देव थे और गण्डरादित्यदेवका पुत्र महामण्डलेश्वर विजयादित्यदेव था । उनके ये पद थे- 'नगरपुरवराधीश्वर, श्री शिलाहारनरेन्द्र, निजविलास - विजित देवेन्द्र, जीमूतवाहनान्वयप्रसूत, शौर्यविख्यात, सुवर्णगरुड़ध्वज, युवतिजन -मकरध्वन, निर्दलित- रिपुमण्डलीक वर्णं, मरुवङ्क-सर्प अप्पन सिंग, सकलगुणतुङ्ग, रिपुमण्डलिक-भैरव, विद्धिष्टगज कण्ठीरव, इडुवरादित्य, कलियुग - विक्रमादित्य, रूपनारायण, नीतिविजितचारायण, गिरिदुल 1 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह धन, विहितविरोधिबंधन, शनिवारसिद्धि, धम्मैकबुद्धि, महालक्ष्मीदेवी - लब्धवरप्रसाद, तथा सहबकस्तूरिकामोद ।' पंक्ति १५ - २६ में विजयादित्यने, अपने बळवाडके निवासस्थान पर आरामसे राज्य करते हुए, सोमवार के दिन चन्द्रग्रहण के अवसरपर दुन्दुमिवर्षकी माप महीने की पूर्णिमा तिथि सोमवारको भूमिदान किया । यह दुन्दुभिवर्ष शक वर्ष १०६५ के बीत जाने पर ही लगा था। जमीन कुण्डी नामक देशी माप से चौथाई निषर्तन थी । उसी सालमें १२ हाथका एक मकान भी अर्पण किया था । मीन और मकान दोनों बाजिरगखोल नामके जिलेके हानि हेरिलगे गाँव थे । यह एक मन्दिरको दान किया गया था जिसे माघनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य तथा कामदेव - सामन्तके अधीनस्थ वासुदेवने बनवाया था । यह दान मन्दिर के जीर्णोद्धार तथा वहीं रहनेवाले मुनियोंके लिये आहारदानके प्रबन्धके लिये था । मात्रनन्दि सिद्धान्तदेव क्षुल्लकपुर ( कोल्हापुर ही का दूसरा नाम ) के रूपनारायण जैनमन्दिर के पुजारी ( या पुरोहित ) थे, मूलसंघ, देशीयगणके पुस्तकगच्छ के प्रधान थे । उनके एक दूसरे शिष्य माणिक्यनन्दि पण्डितदेव थे । इस दानके करते समय इन्हीं पण्डितदेवके पादका 'प्रक्षालन किया गया था । इस दानको सब करों और बाधाओंसे सदैवके लिये मुक्त किया गया था । २७-२८ की पंक्तियों में भविष्य में होनेवाले राजाओंसे प्रार्थना की गयी है कि वे इस दानकी हमेशा रक्षा या सन्मान करते रहें, क्योंकि यह उन्हीं एक का किया है। और यह शिलालेख अन्तमें पुरानी कर्णाटकलिपिमें वह कहते हुए समाप्त होता है। : शान्तरस प्रधान चिन देव ही मेरे देव हैं, अश्रान्त गुणवाला तपोनिधि, योगी मानन्दिवैद्धान्तिक ही मेरे गुरू हैं और कामदेव सामन्त ही मेरे राजा या मालिक हैं।' ] [ EI, IV. No. 27, T and A. ] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतावारका लेख ३२१ मसावार । - [ शक १०६५ = ११४३३० ] [ मत्तावार ( चिकमगलूर परगना ) में, पार्श्वनाथ मन्दिर के एक पाषाण पर ] स्वस्ति शक वरुपद सामि ६५ सन्द रुधिरोद्वारि (य) - संवत्सर दिरेशनिवारदन्दु य बुध जकवे गन्ति हेमोरेय मन्तिकापुरदिन्द पुरबेदलु । सुरत देवेन्द्र बुधम् ॥ श्रावकर तोयेतर बु- । धाव ळ परमोंपकारि मति चतुर कळा- । कोविदर बन्धु जन-मा- | निदान-पथरण्य सु-कवि-देवेन्द्र-बुषम् ॥ गोजड - वेग्गडेय गुरुगळ, देवेन्द्र पण्डितरिगे अवर मदमाळिये देक्कन्वेय निषदिय कल्लं मत्तवारद गामुण्ड बूचि वेग्गडे नारणवेग्गडेय्यं पडिकर-माडुव माबलय्य नु निलिसिदरु [ ( उक्त मितिको ) गौजके वेमाडेके गुरु देवेन्द्र पण्डित की पत्नी देव का स्मारक - पाषाण मत्तावार के गामुण्डोंने खड़ा किया था । ] [ Ec, VI, Chik magalur tl, no 162 ] ३२२ हिरे आवली - संस्कृत - तथा कचड़ भितचंद्रमखिलमन्यचन ' ... ... [ लोरव परगना, हिरे-आवकी-गांव ] [ ध्वस्त जैन वस्तिके पास २५ वें पाषाणपर ] स्वस्ति समस्तसुरासुरमस्तकुमकुटांशुनाळवळ घोतपद प्रस्तुतचिन धर्मं श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलानं । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं बिनश| सनं ॥ ५७ ... मस्तं Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह स्वस्ति समस्तमुवनाश्रय श्रीपृथ्वीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वरं परमभट्टारक सत्याश्रयकुळतिळकं चाळ क्याभरणं श्रीमजगदेकमालदेव ... निर्मळकीर्ति ... चोच्चंड ... ... मंडितवीरश्रीयं निळे सळे नेगई रजेय .. नुर्विगे .. समुद्रदि ... ... ... विपुळकष्टम तिरुतिप्प ... वनेक चळ क्य-पेर्मचमूप ...॥ श्रीजगदेकमल महीनाथन लक्ष्मिगे रम्य हर्म्यदिभ्रानितमष्टळगं-मिवदळे निप्पमैमेयं साजदेताळिद तत्पतिगे वार्द्धिवरं नेळनं निमिर्चिराराजित पट्टसाहणियोलोळ दोरे बम्मणदण्डनाथनोळ ॥ ... दळ सैरिपु-यकेरगदो ळ पं मीरे ताप्रभावदंदे किडलीय-युगंदे यापुर्दे नाडेरदंदिनं तन्नुडि नन्नियागि नडेदोर्ड स्वामिसंपत्तिगास्पदवाद अनेक विक्रमविलास योगदंडाधिप ।। ॥ चित्तदलुमल्लदेतन्न । सत्यद गुणविल्ल धनदे नीरेरिकरं। नित्तरिसि मूरुलोकम् नुत्तरिसितु निन्न कीर्तिलतेयुकृतियु॥ कंद ।। अय्दं जिनपदगणेगे। मेरदेगेयदे मनद धृतिय कामिनियरोळ-1 तेरिद ... ... बेससे.." सुलु । मयदुनमल्लरस क '' नाहवरामं ॥ शंकरदेवतनूजनु। किकरनेनिसिई स-णदान्वयदोडेयं । शंकिसदे धर्मदोळवं । शंकाधिगुणंगळे ." यरेयिसिदं ॥ स्वस्ति समस्तप्रशस्तिसहितं श्रीमन्महाप्रधानं योगेश्वरदण्डनायकं बनवले पनि सिरमनाळ तमिरे जिवळिगे एप्पत्तर अधिकारि पेगडे मदुन' माल्लिदेवं । श्रीमच्चाळक्य विक्रमवर्षद दुंदुभि संवसरद पुष्यसुद्ध सोमवारदंदुत्त Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे-श्रावलीके लेख रायणसंक्रांतिय पर्बनिमित्त दंडनायकगे बिनपंगेय्दु श्रीमदवलिय पार्शदेवगर्गे कारगुलियबयल साल माविनल्लि बिट्ट केयि ... दुण्डिय गलेयत्नु कम्म 5-1 स्वस्ति समस्तजिनपादाभोजवरप्रसादरुमप्प मुद्दगाकुंडनुं (others named) अक्कसालेखगरणियोल ... प्रतिष्ठेयं मडि समस्तप्रजेगलिई । स्वस्ति यमनियमखाध्यायध्यानधारणमौनानुष्ठान जपगुणसंपन्नरप्प । श्रीमूलसंघद सेनगणद पोगरि गच्छद वीरसेनपंडितदेवर सहधम्मिंगळप्प माणिक्यसेन पण्डितदेवर कालं कचि धारापूर्वकं माडि सर्वनमश्यमागि कोहरु । ई धम्मव प्रतिपालिसिदर अनन्तपुण्यमनेटदेवरु इदनळिदबरु अधोगति इळिवरु ।। (हमेशाका अन्तिम श्लोक) [काल सन् ११४२-४३ ई० । दुन्दुभि वर्ष, पुष्य शुद्ध सोमवारकी उत्तरायण संक्रान्ति । यह लेख पश्चिमी चालुक्य राबा बगदेकमल द्वितीय के राज्यका उल्लेख करता है और उसके बनवसे-१२००० के प्रदेशपर शासन करने वाले योगेश्वर दण्डनायक सेनाध्यक्षकी तारीफ़ करता है। पेगडे मय्दुन मल्लिदेव सेनाध्यक्षकी अनुमतिसे बिडवलिगे-७०के राज्य पर शासन कर रहा था और इसने आवलीके भगवान् पार्श्वनाथको एक भूमिका दान दिया था। एक और दान, संभवतः एक जैन मन्दिरको मुद्द गावण्ड तथा और दूसरे लोगोंके दारा किया गया था ( इसकी विगत लुप्त है)। ये लोग जैनधर्मके पक्के भक्त थे । यह दान वीरसेन पण्डित देवके सहधर्मी माणिक्यसेने पण्डितदेवके पाद-प्रक्षालन पूर्वक किया गया था। वीरसेन पण्डितदेव मूलसंघ, सेनगण और पोगरि गच्छके [EC, VIII, sorat tl. no 125 ] ३२३ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कबद। [शक १०६८%D१११५ई.] [देखो, जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह ३२४ यहादहलि = संस्कृत का काद। [वर्ष क्रोधन = १५४ ई. (ल. राहस)] [बावधि (मल्खीकरी प्रदेश) में, गाँवके दक्षिण-पूर्व में, ध्वस्त बस्तिके पासके पाषाण पर] श्रीमत्परमगम्भीरस्यावादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनन् । यस्य सद्धर्ममाहाम्यात् सौख्यं जग्मुर्मुनीश्वराः । तस्य श्रीपार्श्वनाथस्य शासनं वर्द्धतां चिरम् ॥ जयति विगत-संख्याराति-भूपाल-भूमिध्वच-गन-तुरगादीन् संविचित्याग्रहीयः । साळ-समय-धर्माचार-शौर्योरु-विद्वद्गुण-मणि-खनि भूभृत् पोसळ-क्ष्मापतिस्सः ।। श्रीकान्तानेत्रनीलोत्पलवदनसरोबात-स-स्मेर-लीलालोकं लोकत्रयोज्जृम्भितविशदयशश्चन्द्रिकादोःप्रतापव्याकीर्ण त्यक्त-युक्त-क्रम कळिन-कुभृच्चक्रखेद-प्रमोदश्रीकं श्रीविष्णुभूपं बेळगुगे बगम राजमार्तण्डरूपम् ।। जळधि-व्यावेष्टितोर्वीपतियेनिसि सुखं बालो चन्द्रार्क तारं । तळकार्ड कोण्ड-गण्डं निगुलर पदेयंकूडे बेङ्कोण्ड-गण्डम् । तळवारल तळ त भूपालर हेडतलेयं थोप्येनल होय्द गण्डम् । बलवद्राज्यङ्गलं तबलगिन मोनेयोळ पारदु कटकोण्डगण्डम् ।। सलेमलेयादियागे निम्ग्गिडबहमनावगम्महाब्ळ-पद-धातदिन्दरेदु सण्णिसुत्न डेतन्दु तन्दु तन्न दौर . बदलि को किरिय मीसेगळं ससिक्ते विष्णु-दोर Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यल्लादहल्लिके लेख ब्बलदले कित्तनोत्तिरिसि कऊङ्गिन तेगिन वेङ्गिन नन्दनगळ ॥ स्वस्ति समधिगत पञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वर द्वारावतीपुरवराधीश्वर । यादवकुलाम्बरच मणि । मण्डलीक-चूडामणि । श्रीमद्अच्युत-पादाराधना-लन्धनिष्णु-प्रभावम् । दिक्पालक-पराक्रमाक्रमाक्रमण-पटु-पराक्रमुक-स्वभावम् । शत्रु-क्षत्रिय कलत्र-गर्भसव-सम्पादक-गभीर-शङ्ख-नाद । वासन्तिका-देवी-लब्ध-वर-प्रसाद । हिरण्यगर्भ-तुलापुरुषादि-महा-क्रतु-सहस्र-सन्तर्पित-पितृ-देव-गुरु-सम ... निरुपम-क्षत्रगुण-निर्जित-विसाप-विष्णु-वीर-विजयनारायण पुराधरख्यात-देव-बुळबुळ.चळकुळ (कुळ ) यादवळधि-विष्णुसमुद्र विलास-मुद्रित-मही-लोकन् अविकरण चातुर्य-चतुरानन । चतुर्वेदपाडित्य-मण्डितगोष्ठिषडानन समरमुखगृहीताहितमहीकान्तकामिनीजन-मुखनिरीक्षणक्षणकृतसूर्यनिरीक्षण नृसिहध्याननिश्चलीभूत-निर्मळचरित्र पराङ्गनापुत्र | सकळजनसत्यनित्याशीर्वाद-सामर्थ्य सम्पादितकल्पायुरारोग्याभिवृद्धियुक्त दुद्धरसमरकेळीसंसक्त टोबळावळे पदुश्शीलाश्वपतिगजपति प्रमुखराज-लोकनियनिर्दळनोपानिताश्वगनादिनानाविधरत्ननिचय-रुचिरलक्ष्मीविलासम् । सरस्वतीनिवासम् । चोळकुलप्रलय-भैरवम् । चेरम-स्तम्बरम-राजकण्ठीरव । पाण्ड्यकुलपयोधि बडवानल | पल्लवयशोवल्लीपल्लवदावानल । नरसिंहवम्मसिंह सरभ निश्चल-प्रतापाधिपतित-कळपाळादि-नृपाल-सलभम् । निज-सेना-नाथ-निलित जननाथपुर जगद्-दारिद्रय-विदारण-प्राण-कारण्य-कटाक्ष-निरीक्षण प्रत्यक्ष-पझे क्षण-चतुस्समुद्र-मुद्रित-वसुमती-मनोहर-लक्ष्मी-वल्लभ । भयलोभदुर्लभ । नामादिसमस्त-प्रशस्ति-सहितम् श्रीमत्-कञ्चि-गोण्ड विक्रमगङ्ग वीर-विष्णु-वर्धनदेवरु गङ्गवाडि-तोम्बत्तरु-शरीरनुं । नोळम्बबाडि-मूवत्तिट- सिरमुं। बनबसेपन्नि- सिर । हलसिगे-पन्नि सिरमुवेरडरु-नूवरं दुष्टनिग्रह-शिष्टप्रतिपालन-पूर्वकवेक-च्छत्र-च्छायेयिन्दाळ दनामहानुभावनिं बळिय । कन् ॥ तन्देयल अच्छोदित-तेर्ट- । दिन् दवे नेगल्दादिरासिब-पडविगे समनेम्ब। ओन्दु-विभव-प्रभावते- । यिन्दं नरसिंहनरसु-गेय्युत्तिईम् ।। वृ०॥ हिमदिं सेतु-वरं तोलल्दु नेलनं निष्कण्टकं मादुव- । ळि ळ महोग्राचियोळान्तिदिदिदटिं चङ्गाल्वनं कोन्दुवा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह समभावळियं हय-प्रततियं चेम्बोङ्गळ नूत्नरत् " नमुमं कोण्डु नृसिहं-भूपळे यं दोस्-स्तम्भदोळ ताल्दिदम् ॥ व || अन्तु समस्त-मण्डलिक-सामन्त सेनानाथ- परिजन परिवृतनागि दोरसमुद्रद वीडिोळ समुत्तु सिंहासनासीननागि सुखसङ्कथाविनोददिं राज्यं गेय्यु - तमिरे तत्पादपद्मोपनीवि । स्वस्ति समस्तराज्यभर निरूपितमहामात्यपदवीप्रख्यातं शक्तित्रयसमन्वितं श्री-वीर- विष्णु व र्द्धन- देव- सप्ताङ्ग- लक्ष्मी-रक्षणाङ्ग- (र) रक्षक सत्य- शौच-स्वामि-हिता दि - सद्-गुण-शिक्षकं चतुर्वेदमहादाननिरतं श्रीमदभिनवभरत श्री वीर विष्णु वर्द्धनदेव भुज्यविनयमण्डितमानवाकारचक्रम् । स्वामि-समादेश- साधितसकलदिकचक्र । कौशिक कुलाम्बर दिवाकरम् । सम्यत्वरत्नाकर । नामादिसमस्त प्रशस्तिसहितम् श्रीमन्महाप्रधानम् । ६२ वृ० || कुडे नृपमेरे होय्सळ-महीभुजनवर्कर दुर्केयिन्दे तां । पडेदन शेषराज्यकरभारधुरन्धरनेन्दु तन्त्र-ग गडेतन निरन्तरवेन प्रभु शक्तियनान्त पेम्र्मे नूर् डि मिगिला-वोगळ वेनुन्नतियं विभु-देव-राजनम् ॥ अन्तु पति- हितनुं सकळ - नियतनुवेनिसिद देव-राजन गुरुकुलुवेन्तेन्दोडे । श्लो• ॥ जयत्यमरन । गेन्द्रपूजिताङ्घि युगं प्रभोः । वर्द्धमानजिनेन्द्रस्य शासनं कर्म्मनाशनम् ॥ अन्तु श्रीवर्द्धमान- स्वामिगळ दिव्य-तोर्थदोळ केवलिगळ श्रुतके वलिगळ बुद्धिप्राप्त अन्य परम- मुनिगळ, सिद्ध साध्यरुमागे तत्तीर्थसामर्थ्यमं सहस्रगुणं माडि समन्तभद्र- स्वामिगळ, बकलङ्कदेवरुं । गृपिञ्छाचाय्यं ( । व् ) आदियागे पलम्बरुं श्रुत-घररु सन्द बलिक्के श्रीमूलसङ्घद श्री कोण्डकुन्दान्वयद देशियगणद पुस्तक- गच्छद विशिष्टदोळगे सागरनन्दि सिद्धांत-देवरभिनव-गणघररेनिसिदरवर शिष्यर नन्दि-मुनि-पुङ्गवरवर शिष्य तर्क- व्याकरण - सिद्धान्ताम्बुरुहवन-दिनकररुमेनिसिद श्रीमन्-नरेन्द्रकीत्ति- त्रैविद्यदेबवर सधर्मं षट्त्रिंशद्गुणमणिमण्डनमण्डितरु पञ्चविधाचार - निरतरुमप्प श्रीमन्मुनिचंद्र भट्टारकर श्रीपादारविन्दाराधक । ु Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह नियत-स्याद्वादविद्याविभवभवनमागि नित-दोष- । यमप्युद्यत्तपोलक्ष्मिगे सले नेलेपागि रूढाकलङ्का-1 न्वयदोळ भव्याळिगेल्लं मोदलेनिसि कर पेम्पुबेततु पेमा। डिय वंशं लोकवं कीर्तियोळ, बेळगितत्तुज्वळाचार-सारं ॥ अस्कर ॥ नय-विनयमननुकरिसुवननु । नयदि तेचोधिकनेने नेगई पेमाडिय पेमगने मी-। मय्बनातन चित्त-प्रिये देवलले पति-भ-। क्तियोळा-सीतेगमरुन्धतिगमेणेयेनिपळ ॥ अवर्गे मगं समस्त-गुण-रत्न-सुधाम्बुधि मसवि-सेहि भूभुवन-विनूतनातननुनं नेगर्दै प्रभु मारि-सेट्रि बान् । धव-जन-सर्व-भव्य-जन-कल्प-महीकहना-महात्मनी । तवद-विभूतियं पडेदुदहतेयं घरेयोळ निरन्तरम् ॥ दोरसमुद्रद नडुविदु । मेरु-महीधरमेनल्के माडिसिदं श्री-1 मारमनुत्तुङ्ग-बिना-। गारमनिंदु विश्वकर्म-निमितमेनिसल ॥ आ-विभुविनणुग-दम्म । गोविन्दं मन्दरावनीघर-धैर्यम् । श्री-वनिता-बल्लभना-1 गोविन्दनवोल महीमनःप्रियनादम् ॥ वसुधेगे कौस्तुभमेनली- । बसदियनी-मुगुळियल्लि सद्भक्तियिनेत् । तिसिदनेने मत्ते गोविन्द-सेटियं पोगलादप्परे बुध-निधियं ॥ भू-विदितने भीमय्य म-हा-विभवे पुत्रि नागियकनुमिवरी-1 गोविन्दन जिन-गृहकति- । पावन-चरितर् निरन्तरं पडि सलिपट ।। अवरप्र-तनूजमय-नय-शीलनप्रतिम-धर्म-सहा (नि) यानरातिपूज्य-डुजयनखिलेष्टशिष्ट-बन-रक्षण-दक्षन. "सरं नेगळद महा-प्रभु वेडदे पुण्डा-विहि-सेट्टिय गुण" "मै पोग [D] ला-चतुरास्यनु... ... ... "युतं मायोपायक्के पेसबतिधन्य स्वस्ति य... ... ..सनेनल नाकि सेहिया..........."रापेम्पुमं निमिचि गोत्र-पवित्रनाद गोविन्द... ... ... .."समन्तभदस्वामिगळ ....... ... .. वाचार्यरि कनकसेन-पादियज-देवरि धनपाळ भट्टारकार Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगुलू के लेख मनधारि-स्वामि ... देवरि बन्द द्रमिळ श्री... "कसेन - भट्टारकरिं वासुपूज्य - सिद्धान्त- देवरि तर्काविळ - बहु-भङ्गो-संगत- श्रीपाळ- त्रैविद्य-गद्य-पद्य वाचो विन्यास निसर्ग-विजयविलासम् ॥ सच्चरित्र - पवि • विद्या संशुद्ध-बुद्धये । ते नमः ॥ 'त्रैविद्य-देवरि श्री ·· वित्तयमो षट् ... विद्वज्जन- प्रपूज्याय वासुपूज्याय इन्तु गल्ते वेत्त तत्र गुरु-कुलद पेम्पं नेगळि गोविन्द सेट्टि माडिसिदनिन्तीजिनालयम् ॥ ... ......... 1919 ... मनु-चरितर समस्त - भुवन -सावनीय - जिनेन्द्र-धर्मं - त्रा- 1 रिनिधि सरोजिनी - प्रभव-राग-विवर्द्धन्य- राजहंसरण | णनुमनुजन्मनुं गुण-युग्गुणवजन - पारिजात रा- । मनिमडियागियुं भरतराज - चमूपनुमेम्बुदी-जगम् ॥ भारतदोळ कानीनु- । दारतेयोळ धर्म-नन्दनं सत्त्वदोळा- । चारदोळ सिन्धु-नन्दन | भरत -राज-दण्डाधीशम् ॥ ई- गोविन्द - जिनालय के प्रभव-संवत्सरदुत्तरायण संक्रान्ति व्यतीपातदन्दु रदलि... आगि श्री-नारसिंह-होयसळ देवं श्रीपाळ- त्रैविद्य-देवर शिष्यरप्प वासुपूज्य-सिद्धान्त - देवर कालं कच्चि धारापूर्व्वकं श्रीमदमहारं मुगुळि - यलि बिट्ट वृत्तिय सीमा-सम्बन्धि हिरियकेरेय केळगे गद्दे ( आगेकी चार पंक्तियों में दान का विशेष वर्णन है ) आ-बेद्द लेयोळगागि देवर सोडरिंगे गाणदलर -वाने ष्णेयूरोळगाव बण्डमारे वडहं गोण्डु विशद वण-सिद्दायवित्तुवति ऐदु-पणवं महाजनं कोडुवरिन्तिनितुवं मूर्वान्तर्ध्वम्र्महा जनंगळ, धारापूर्वकं माडि को हरू ( आगेकी चार पंक्तियों में कुछ परिचित वाक्यावयव तथा श्लोक है ) ई-धर्मवर्नादितेळे [ते] य नरकं पुगुर्व केरेय म ... डिमेयं ता- कहिसिद केरेर्याल कण्डुगगद्देयं देवरिगे बिट्टनु || अशेष-महाजनङ्गळ मत्तद- केरेपति कण्डुग गद्दे ये .. ... बिहरु | कळलु मू-कुळ भट्ट [ बिन-शासन की प्रशंसा । यह एल्कोटि-बिनालय है । राजा विष्णुकी प्रसंसा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह पिसने हिमालयसे लगाकर सेतु तक और सेतुसे लगाकर हिमालय तक तमाम शत्रु राजाओं को नष्ट कर दिया। विस समय धारावतीपुरवराधीश्वर, मलेय-चक्रवर्ती विष्णुवर्द्धन होय्सल देव शान्ति से अपने राज्य का शासन कर रहे ये:उनके चरण-कमलसे आजीविका करनेवाला, (अन्य-अन्य विशेषणों के साथ) अजितसेन भट्टारक का शिष्य महाप्रभु पेाडि हुआ। उसकी सन्तति निम्नलिखित थी: ( अनेक प्रशंसाओं के बाद ) पेाडि का ज्येष्ठ पुत्र भीमष्य था, उसकी पत्नी का नाम देवलब्बे था। उनके पुत्र मसणि-सेटि और मारि-सेट्टि थे। दोरसमुद्र के मध्यमें मारमने एक बहुत ऊंचा जिनालय बनवाया । उसका पुत्र गोविन्द था । उसने मुगुली में एक वसदि बनवायी, जिसके लिए भीमय्य और उसकी पुत्री नागियकने पूजा का सामान दिया। उसके दो पुत्र थे,-बिष्टि-सेट्टि और नाकिसेटि। उसके गुरु बासुपूज्य की परम्परा समन्तभद्र स्वामी से लेकर कनकसेन, वादिरान, धनपाल,.... कसेन, कलधारि,... 'वासुपूज्य.... और श्रीपाल से होकर आई थी। उनके पैरों का प्रक्षालन करके मुगुलि अग्रहार में नारसिंहहोस्खल देव ने गोविन्द जिनालय के लिये उक्त भूमिका दान दिया।] [ Ec, V, Hassn U., no 130.] ३२८ बस्ति;-कबड़-मग्न । [वर्ष प्रभव या पार्थिव (१)] बस्ति (चिनारळी प्रदेश ) में, जिन्नेदेवर बस्तिके सामने के मानस्तम्भ पर] स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वर त्रिभुवनमल तळकाडु-गोण्ड कोङ्ग-नङ्गलि-गङ्गनाडिनोणम्बवाहि-जनवासि-हानुङ्गलु-गोण्ड भुग-बल वीर-गज प्रताप-चक्रवर्तिः श्री Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्रावधानी-छोरसमुद्रदल्नु सुखसहयाविनोददिं राज्यं गेग्युत्तमिरे ॥ भीमन्महाप्रधानं हेगडे शिव-राज''नम्बिद्दडे सोमय्यतु भीमत-माणिकद ...... बिनालयक्के पार्थिवसंवत्सरद आषाढ़-सुद्ध-पाडिमि-आदिवार ... ... अतितिथियराहार-दानक माणिक्यदोळल माडि... ... .."चतुस्सीमेयलि गेदे गात्त कम्बल माळ गाळ नूळ .." तोरे मग होले मग यिनितुमं धारा-पूर्वक माडि कोट्टदत्ति बसडिगे बिट्टी-धर्म ..... करं सलिसुतिर्दवर्ग पुण्यं । ....... अळिदवर्ग । पसु ब्राह्मणन कोन्द गति समनिसुगुम् ॥ श्रीमतु माणिक्यदोळल मूलस्थ चन्दककोजन सुपुत्र परवादिःमलोज...... शासनम ....... बाळिसबदु । वीतराग नमोऽस्तु मङ्गलमहा श्री [जिससमय, ( अपने वैदिक पदों सहित ), प्रताप-चक्रवर्ती (१ नरसिंह-देव) अपने राज्यका सुख और बुद्धिमत्तासे शासन करते हुए राजधानी दोरसमुद्र में विद्यमान थे:-महाप्रधान हेगडे शिवराज ..... सोमय्प ने माणिक्य-दोळलु जिनालयको दान दिया। चण्डककोज, जो माणिक्यदोळलुका मुख्य आदमी था, के पुत्र परवादि मनोज इस शासनकी रक्षा करेगा । वीतराग को नमस्कार। [Eo, IV Krishnarajapet Tl, no 38 ] ३२६ ' खजुराहो-संस्कृत (विक्रम सं० २०१, माघ पदो) ॐ ॥ ग्रहपत्यन्वये श्रेष्ठिपाणिधरस्तस्य सुत श्रेष्ठि ति-(त्रि) विक्रम तथा आल्हण । बाममीधर ॥ संवत् १२०५ । माघ वदि ५॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ जैन - शिलालेख संग्रह लम्बी १ ही पंक्ति में है। इसके अक्षरोंका आकार श्रेष्ठी ( सेठ) पाणिधरके पुत्रोंका नाम दिया है । [ यह लेख मी २ इच करीब है इसका है इसमें उनके नाम है- त्रिविक्रम, आल्हण और लक्ष्मीवर । ] El, 1, no XIX no7 (P, 168 ) ३३० खजुराहो- संस्कृत जैन मन्दिरोंकी प्रतिमाओं पर से तीन शिलालेख [ बिना काल निर्देश का ] १ [ अ ] इपत्यन्वये श्रेष्ठ श्रीपाणिघर [I] [ यह अधूरा शिलालेख एक ही पंक्ति में है, जो कि ५ इञ्च लम्बी है । लगभग है इञ्च अक्षरोंका आकार है । ग्रहपति – अन्वयु । जैसे इस शिलालेख में है वैसे ही वह आगे दो शिलालेखों में भी आया है । [EI,I. P. 152.] ३३१ खजुराहो- संस्कृत [संवत् १२०५ = ११४८ ई०] [ इस शिलालेख के लेखक का पता नहीं है । इतना ही मालूम है कि यह संवत् १२०५ का है। ] [A. Cunningham, Reports, XXI, P. 68, 0, 8. ] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़के लेख ३३२ चित्तौड़ (राजपूताना);-संस्कृत-भग्न । [सं० १२०० - ११५० ई.] . पं० १. ओं॥ नमः सर्व शिा] य ॥ नमो. [स] प्ताञ्चिदग्व (ग्ध) संकल्प___ जन्मने । शर्वाय परमज्योति [द्ध] स्तसंकल्पजम्मने । जयतात्स मृडः श्रीमान् मृडा..... २. दनाम्वु (म्बु) जे। यस्य कण्ठच्छवी रजे से (शे) वालस्येव वल्लरी। यदीय शिखरस्थितोलसदनल्पदिव्यध्वजं समण्डपमहो नृणामपि विद् ३. रतः पश्यतां अनेकभवसंचित क्षमियतिं पापं द्रुतं स पातु पदपंकजानतहसि ___ समिद्धेश्वरः॥ यत्रोलमत्यद्भुतकारिवाचः स्फुर [न्ति चि]४. ते विदुषां सदा तत् । सारस्वतं ज्योतिरनन्तमन्तर्विस्फूर्जतां मे क्षतजाड्य__ वृत्ति । जयन्त्यजश्र (स) पायूष बन्दुनिष्यन्दिनोमनाः । कवीनां [सम ५. कीत्ती (ती) नां वाग्विलासा महोदयाः । न वैरस्य स्थितिः श्रीमान् न ___ जलानां समाश्रयः। रत्नराशिरपूर्बोस्ति चौलुक्यानामिहान्वयः ।। तत्रो६. दपद्यत श्रीमान्सद तम्तेजमां निधिः । मूलराजा (ज) महोनायो मुक्ता मणिरित्रोव (ज्ज्व) लः॥ वितन्वति भृशं यत्र क्षेम (म) सर्वत्र सर्वथा। प्रजा राजन्वती नून (नं) ज७. शेसौ चिरकालतः । तस्यान्वये महति भूपतिषु क्रमेण यातेषु भूरिषु सुपर्व पतेन्निवासं । प्रोणुत्य वाध्रयशसा ककुभां मुखानि श्रीसिद्धरा८. जनृपतिः प्रथितो व (ब) भूव ।। जयश्रिया समाश्लिष्टं ये विलोक्य समंततः । भ्रांत्वा जति यत्कीर्तिन () गा हे मरमंदिरम् ।। तस्मिन्नमासाम्रा६.बां (ज्यं) संप्राप्ते नियतेव्वसात् कुमारपालदेवोभूत्प्रतापाक्रांतशात्रवः ।। स्वतेजसा प्रसह्येन न परं येन शात्रवः । पदं भूभृच्छिरस्सूच्चैः कारि.. छूटे हुए मशर 'नीच' है। २. शेवंशात् ' पढ़ो। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह १०. तो बं (बं) घुरप्यलं ॥ आशा यस्य महीनाथैश्चतुरम्वु (म्बु) धिमध्यगैः । त्रियते मूर्द्धभिर्म () देवशेषेव सन्ततम् ॥ महीभृन्निकु (कु) जेषु शाकंभरी बरं ११. शः प्रियापुत्रलोके न शाकंभरीशः । अपि प्राप्तशत्रुर्भयात्कं प्रभूतः स्थितौ यस्य मत्तेभवानिप्रभूतः ॥ सपादलक्षमामर्द्य नम्र कृ १२. तभयानकः । [स्व] य [म] यान्महीनाथो ग्रामे शालिपुराभिधे || सन्निवेश्य सि (शि) विरं पृथु तत्र त्रासितासहनभूपतिचक्रम् । चित्रकू १३. टगिरिपु [sf] लशोभां द्रष्टुमार नृपतिः कृतुकेन ।। यदुच्चसुरसद्मा परिष्टात्प्रपतन्सदा । रथं नयत्यलं मंद मंद भंगभयाद्रवि. ।। य १४. त्सौधशिखरारूढ़कामिनीमुखसन्निधौ । वर्त्तमानो निशानाथो लक्ष्यते लक्ष्मलेखया ॥ प्रफुल्त ( ल्ल ) राजीवमनोहरानना विवृत्तपाठीन विलोललोच१५. ।' - त [ भृङ्गावलि रोमराजयो रथांगवक्षोरुहमंडल श्रियः ॥ परिभ्रमत्सारसहंसनिस्वनाः सविभ्रमा हारिमृणालवा (बा) हुकाः । वृ ( बृ )हर्तिवा (बा) मलवारि--- Y -- I १७. १६. -- मुदे सतां यत्र सदा सरोङ्गनाः ॥ स (सु) रभिकुसुमगंधा कृष्टमत्ता लिमाला विहितमधुररावो यत्र वाधित्यकायां । स्वलिततरणिभानुः सल्ल मयिषति शश्वत्कामिनः कामिनीभिः ॥ शुभे यद्वने शाखिशाखांतराले प्रियाः क्रीडया सन्निलीना निकामं । घने [ प ] - [ ] [ न ] नूगंधसक्तालयः सूव (च ) यन्ति ॥ प्राप कदापि न या हृदये शं सानुनयं समया हृदयेशं । यद्वनमेत्य सु[१] - १८. -- - 1. 1 महांके त्रुटित अक्षर संभवत: 'नाः । प्रम' हैं २. महाक त्रुटित अक्षर संभवत: 'राशयो' हैं । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिसोड़के लेख १६. [र] तरागं ॥ एवमादिगुणे दुर्गे स्वर्गे वा भुवि [ सं ] स्थिते । राजा विष्णुः परमीत्या संचरनिबलील२०. या ॥ ति.......................[ ता १] श्वर्यसंकुलम् । ददर्शागाचगंभीरत्वच्छं स्ववि मानसम् || निर्मलं सलिलं यत्र पि ब३ . जे नीलाब्ज ( ब्न ) राग [ भू] श्रियम् ॥ - २१. हितं [द्म]-~~ विमुच्य व्योम पातालरसा यत्र त्रिमागा । लोका-२२. न् पु [ नाति ]... -- ॥ भ्रामरसमर्चितं । श्रीसमिद्धेश्वरं देवं प्रसिद्धं -- २३. बगती 1 ते । त्रैसंध्य [ तू ] र्यनादेन ........... - कलि ( लिं) निर्भर्त्सयन्निव ॥ य [ त्स्त १ ] वस्याधिपत्येस्थान्पुरा भ२४. ट्टारिकात्त [ मा ।] [ वी ] नृपाभ्य [ १ ].. ॥ .. तस्याः शिष्याभवत्साध्वी सुव्रत वात भूषिता । गौरदेवीति वि [ ख्या ]... [ता ? ] कृतोद्यमा ॥ सु [ मनो ? ] - ता] ] ॥ २५. संसेव्या [ मा १ ]... यविनाशिनी । दुर्गा हि......... यत्तपः पावनं वीदय पवित्रीकृतसज्जनं । सस्मरुः पूर्व्वयमि... शिवं प्रपूज्य त [ प ] - [ ] स्योत्तरतटेऽ द्राक्षीन २६. ...[ म ] गमत्प्रभुः । प्रणम्य [ तावुभौ १ ] भक्त्या सि ( शि ) रसा ॥...[ तस्वां ] तः पूजार्थं हरपादयोः । कुमारपाल ।।......स्यां— देवोदामं श्री २७. टा दक्षिणपूर्वोत्तरपश्चिमतः सरःपाली भूणादित्य.. राज...दीपार्थं द्याणकमेकं सज्जनो यदात् दंडनाथ...... मेतद्दानम २८. श्री अ [य] कोर्ति शिष्येण दिगंव ( ब ) रमणेशिना । प्रशस्तिरीदृशी चक्र... रामकोर्तिना । संवत् १२०७ सूत्रधा....... १. इस पंक्तिके नीचे भी कुछ अक्षर खोदे गये थे; लेकिन प्रतिलिपि में वे बिलकुल पढ़ने योग्य नहीं हैं। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह [(२८ वीं पंक्ति में ) लेखका काल सं० १२०७ दिया हुआ है, बो, विक्रम संवत् मान लेनेसे, ११४६-५० या ११५०-५१ ई० ठहरता है; और इसका उद्देश्य चालुक्य राजा कुमारपालकी चित्रकूट पर्यंत, आधुनिक 'चित्तौड़गढ़', की यात्रा, तथा वहाँ उसके द्वारा उस समय पर्वत पर 'समिद्धेश्वर [ शिव ]' देव मन्दिर के लिये किये गये कुछ दानोंका उल्लेख करना है । “ॐ नमः सर्व्वज्ञाय” इन शब्दों के बाद, लेखमें पाँच श्लोक है । इनमें से शर्व, मृड, और समिद्धेश्वर के नामसे शिव परमात्माकी स्तुत करते हैं, जबकि अन्य दो सरस्वतीकी सहायताकी कामना, तथा कवियोंकी रचनाओंकी यशोगाथा गाते हैं । [ पं० ५ में ] लेखक चालुक्योंके वंशकी प्रशंसा करता है । उस अन्वय [ वंश ] में मूलराज राजा उत्पन्न हुआ था [ पं० ६ ], और उसके तथा उसके बादके अन्य राजाओंके स्वर्गारोहण के बाद राजा सिद्धराज आये [ पं० ७ ], जिनके उत्तराधिकारी कुमारपाल देव हुए [ पं० ६ ]। जब इस राजाने शाकम्भरी ( वर्त्तमान साँभर ] के राजाको हरा दिया [ पं० १० ] और सपादलक्ष देशको मर्दन कर दिया [ पं० ११ ], वह शाालपुर नामक स्थान में गया ( पं० १२ ), और वहाँ अपनी छावनी ( Camp ) डालकर वह चित्रकूट [[चित्तौड़गढ़ ] पर्वतकी सुन्दरता को देखने आया; वहांके मान्दरों, राज-प्रासादों, झीलों या तालाबों, ढाल और बंगलोंका वर्णन १३-१६ की पंक्तियों में है । कुमारपालने वहाँ जो कुछ देखा उससे उसका चित्त प्रसन्न हुआ, और उत्तर दिशा की तरफ ढालपर बने हुए 'समिद्धेश्वर' देवके मन्दिर में आकर [पं० २२] उसने शिव ईश्वर और उसकी पत्नीकी पूजाकी, और मन्दिरके लिये एक गाँव दान में दिया जिसका नाम सुरक्षित न रह सका [ पं० २६ ) । पं० २७ में अन्य दान [ एक 'द्याणक' या कोल्हू दिये जलानेके लिये, आदि ] बनाये गये हैं; और पंक्ति २८ बताती है कि जयकीर्त्तिके शिष्य रामकीर्तिने जो दिगम्बर सम्प्रदाय के मुख्य थे, यह 'प्रशस्ति' लिखी है, और लेखके उपर्युक्त कालका निर्देश करती है । ] [ EI, II, no xxxiil, T1-421-424] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैदालके लेख कैदाल-संस्कृत क्या काद। [शक १००१-११५० ई.] [कैदाळ (गूलरु परगना ) में, प्रसव गङ्गाधर मन्दिर में पाषाणों पर ] (पहला पाषाण)। बयन्ति यस्यावदतोऽपि भारती-विभूतयस्तीर्थकृतोऽपि...| शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकळात्मने नमः ॥ दिनकृत्-तेजक्के तेज समनेसबदटुवृत्त-कण्ठोरवकन्त् । एनसुं मादृश्यवार्पन्तमर-कुजके माषण्डलं नोळपडन्ता। द्यन-बाहाटोप-भीमार्जुन-नृग-नल-भूपालगेळ पाटियेन्टी-1 जनमेल्लं कात्तिसल धात्रगे पतियेसेद नारसिघ-तितीशम् ॥ स्वस्ति समधिरात-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलश्वर द्वारावती दुर-वराधीश्व यदु कुलाम्बर-द्युमणि सम्यक्त्व-चूड़ामणि श्रीमत्-त्रिभुवन-मल्ल तळकाडु कोगनङ्गलि गणवाडि नोळम्बवाडि-बनवसे · हानुङ्गल्ल -हलसिगे - बेळवोत. बुच्चङ्गि-गोण्ड भुजबळ-वीर-गङ्ग विष्णुवर्द्धन-श्री-नारसिंघ-देवरु दुष्ट-निग्रहशिष्ट-प्रतिगळनं माडि दोरसमुहद नेलवीडिनोळ सुख-संकथा-बिनोददि राज्य गेयुत्तमिरे तत्पाद-पद्मोपनावि ॥ स्वस्ति समधिगत-मञ्च महा-शब्द महा-सामन्तं वीर-लक्ष्मी-कान्तं नाल्वत-नाल्वर गण्ड मान्यखेड-पुर-बराधीश्वरं चतुर्मुख दायिग-गोन्दळ बडिवं तोडर्दर डोतिपदळरादित्यं मरुगरेनाडाळवं सामन्तगूळि-बाचिगे। जिन-पति कूतु बेळ्य सुख-सम्पदमं हरनोल्दु कीर्त्तियम् । कनक-सरोद्भवं वर-चिरायुवमिम्बिनलि ईगळन्युतम् । मनमोसेदोप्पुति सिरियं वर-बुध जयाभिवृद्धियम् । मनसिब-रूप-बाचि निनगीगे शशाङ्क-कुळाद्रियुलिनम् ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह सिंगद सौर्यवङ्गजन रूपु मुरारिय शक्तियागडुम् । पिङ्गदे कर्णनीव-गुणविन्द्रन लीले भुवन-राबनोट् । सङ्गळिसिदं पेर्मे सुरशैलद बिणपुवोषल्दु निन्दवी-। गगन पुत्रनोळ सुमट-बाचियोजित-सव्यसाचियोळ् ।। अस्पोळ चागद पेम्पिनि रबि-सुतं संग्रामदोळ् रामनिं । पिरियं सौचदोळलना-तनयनोळ सारश्यवे.......। निरुतं निर्मळ-धर्म-सनुवेळे योळ तानाद नाल्वत्त-ना-। ल्वर-गण्डङ्गिदिराम्य गण्डरोळरे विश्वम्भरा-भागदोळ् ॥ अदळ-कुळ-कमळ-हंसन-।। नदळान्वय-राज्य-भवन-मणि-तोरणन- । प्पदळर राम बात्रिय । विदिताम्नायमनलम्पिनिम् प्रकटिसुवे॥ श्री-रमणी-प्रियं जगदोबित-तेजनपार-पौरुषम् । वीर रस-प्रियं जसके नल्लनुदारनदेन्तु नोळ्पडम् । धारिणियल्लि ताने सुभटाग्रणि एम्बिनमोप्पिगोण्डदम् । वारिन-नाभनन्तरळ-वंश-कुळाम्बर-भानु बासयम् || बासणिसि जगमणोदिपम् । भासुरतरमेनिप कीर्ति-दुकुलदिनांत । सासिम॑डि भीमङ्गेने । बासेयनन्तेसेदनावनुर्ची-तलदोट् ।। आतङ्गे तनयनादं । भूतलदोळ् राम भीमनिन्दर्जुननिम् । मातेनो सुभटनधिक-वि- । नूतं तां नेगर्दनेळगे गहुद-गा। ओवदिदिरान्त वैरियन् । आवगवान्तिरिदु गेल्दु जयदुन्नतियिम् । रावणनि मिगिलेनिपम् । केकळमे बसदिनेसेद गदाङ्ग । अन्तेनिसि नेगर्दै गगन । सन्तति कलि-युग-धनायं कुल-तिलकम् । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैदालके लेख चिन्तामणि तानेनियम् । भ्रान्तिलदे बेळूर बनके नायक -बलच ॥ तत्-तनेयनान्त वैग्यि | नेत्तरना- भूत-कोटिगेषदुत्सवद्भिम् । गुत्तनुमनिळिमिदं बयद् । उत्तरदिं सुत्ति हरिव गङ्ग' घरेयोळ् ॥ मत्त-गन- वैरि निपं । चित्तरदिन्दान्त शत्रुगं रूपिनोळा- । चित्त नेळि गुण | दुत्तरदिं सुत्ति परिव गङ्गं नगदोळ | 11 अवन मगनधिक-त्रलनी- । भुवनक्काश्चर्यवागे तन्नेय सौय्यम् । नव-लंश्वर बसवेयन् । अवितथ वाक्यक्के ताने मोदले निसि || असलवेनिसिद कीर्त्ति । प्रसरतेयं तळे दु खेचरङ्गेणेयादम् । वसु • "पोगळल्के नायक । बसवं त्रैलोक्य-वीर मषेयुगे काव ॥ कुलवे सेयलु बलवेमयलु । चलवेसेयल तेजबेसे यलुब्र्बी- तळदोळ । कलि-बसवङ्गनुनयः । चलवषिवं तनेयनादनुत्सवदिन्दम् ॥ अट्ट कुणिदाडे रणटोळ | निदुर-गति तोढर्दरङ्कुशं रण- धीरम् । कहितरि भयं । बुदल चलवषिवनिषिवनान्तरि - बलवम् ॥ सामन्तं चलवर्षिवङ्गा-मद-करि-गमन तनेयनादं मुददिम् । भीम-भुज • अटळ | गर्म श्री - गङ्गनमळ-लक्ष्मी-सङ्गम् ॥ भीम भुन-बळदिं । रामङ्गेणे शौर्यदेळगेपि रुपिनोळा- । कामङ्गेणेयेनलो प्प | ई-महियोळ गङ्गनमळ-लक्ष्मी-सङ्गं ॥ आतन पराक्रममदेन्तेन्दोडे । • अदण्डरि नायकलवरन्दोन्दागि । मददिं निन्दोडवन्दिरं अवनवोळ् सामन्त-काळानलम् | मिदुळं नेत्तर धारे सूसे मडळाईय्यय्य जीयेग्निम् । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह • कदनोद्योगदे गङ्गनगेल्दनान्ता गति-सन्दोहमम् ॥ येडरिदरातियेम्बवन वंशमनुम - कुठारदिन्दवम् । कडिदु विरोधि-पर्व्वतमनागडे तन्न भुजा - "वज्रदिम् । किडिसि जयाङ्गना- रमणनूर्जित-गङ्गनिळा-तळाप्रदोळ् । तोडर्दर - डोडियाविदिनुन्नतिसं शशि-सूर्यरुलिनम् ॥ एरेदङ्गा-सुर-धेनुवं मिगुत्रनान्तर्गानियोळ रोषदम् । नरनिन्दं घन-शौर्य्यनङ्गभवनं रोडाडिपं रूपिनम् । पिरिपाळ शक- विळास दिभळनोडे नायत्त नालू- / वर गण्डं कलि- गङ्गनाविधिक सामन्त कण्ठीरवम् ॥ आतन सति बेनवाम्बिके । सीतेगरुन्धति रतिगे... | ख्यातिगे गुणदुन्नतिगं । मातेम् तां पिरिपवल्ते धात्री - तळदोळ् ।। कन्तु-शर-श (स) दृश-रूपिं । चिन्तामणि विबुध- जनकवू जनकं भ्रान्तिलम् । अमर्दु नेगल्द बेनकाम्बिकेयम् । 1 1 10. ● आ-दम्पतिंगळगे । हरिगं गोमिनि- कान्तेगं मनसिजं रुद्रङ्गे रुद्राणिगम् । परमोत्साहदे षण्मुखं जनि [[य] पन्ती - धीर-गङ्ग 1 लक्ष्मीपतियप्प श्री बेनविका- मादेबिग पुट्टिदम् । " हर-पादाम्बुज-त्रृ (भ्रं) ग- बाचय अदळ-कुळमेम्ब कुलदोळग् । उदयसिदं दिनपनन्ते तेजो निलयन् । कदन- धनञ्जयनहितर । मद- हरणं शूर- बचि तोडदर डोके ॥ तो विरोधिगन्तनु बेडिदवङ्गे कल्प-भूरुहम् । तडेयदे बन्दुकण्ड शरणार्तिगे वज्रद कोटेयेम्बुदी - 1 पोडवि निरन्तरं जसके नल्लननम्वुलनाभनन्ननम् । तोडर डोक्यं सुभट-बाचियनूर्जित - सव्यसाचियम् । अटळ - कुलाम्बर-घुमणि दायिगरनले गेल्द लीलेयिन्द् । ओदविद मान्यखेड- पुरदीशनुदारनपार - पौरुषम् | Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केदालके लेख “साहस- गङ्गनुत्रियोळ | कदन- धनञ्जय मदनन पिनिन्देसेद बाचिये धन्यनदेन्तु नोळ्पडम् ॥ तोडर गण्ड वैरिगळ गण्ड मदान्वर गण्ड बीदिन्द् । एडर्वर गण्ड मेच्चदर गण्ड पिसुणबर गण्डनेन्दुदम् । तोsयद गण्डनाव सोलद गण्डनदेन्तु नोरूपडम् | तोडर्टर दो बाचि निनगार होरे गण्डरिवा-तळा प्रदोळ " बुरदोळ् श्री-बधु कौस्तुभम्बोले सेवळ् बाग-बाणि• • • यिम् । परमानन्ददे वक्त्रदोळू तिलकमं पाल्तियैळन्तोल्दु तोळ् - बेरगं वीरर बीर-लक्ष्मि नयदि कूतिक्कु नात्वत्त-नाळ- 1 वर गण्डं कळि-बाचियोळ् सुबगनोळ सामन्त-सङ्क्रन्दनोळ् । हरियं मार्कोळुगु भयङ्गोळुविनं दिग्दन्ति-दन्तङ्गळम् । पिरिदावदे कि तोक्कवटटिं दिक्पाळ-सन्दोहमम् । करेदिन्तिन्तिग्विङ्गु तन्न बळाद नोळूपाग नाल्वत्त- नाळ - | वर- गण्डं कळिवाच - देवनाधिकं सामन्त-सङ्क्रन्दनम् ॥ घरे यी दिनेश सुनु-सदृशं त्यागक्के शौर्य्यक्के तान् । अरविन्दोदरनल्ते पाट निन-रूपि पुष्पायुधम् । दोरे तामादरेन के शौचदळ ताळिःई नल्वत्त-नाळ्- । वर गण्डं कलि-बाचि-देवने सेदं सामन्त-सङ्क्रन्दनम् ॥ भरदिन्दान्त विरोधियं रण-मुख व्यापारदोळ् तन्न दुर्- | द्वर-बाहा - बळदिं पडल्वदिसेयु भूताळियु काळियुम् । नोरे-नेत्तर-ण्णोणनेम्बिवं नोणोयुतन्तेर्द्वाडे नाळ्वत्त - नाळू- । वर गण्डं कलि-बाचि देव गेलुगु सामन्त-सङ्क्रन्दनम् ॥ सुर-भूजावळ पण्तुदेय्दे नयतिं घात्री - तळ+केम्बिनम् । निरुतं दान-विनोद कीर्त्ति निळयं वैरीभ-पञ्चाननम् | स्मर-रूपं करेदीवनावधिकं तानाद नात्वत्तनाळ - 1 वर - गण्ड कल्लू - बेचि देवनषिकं सामन्त-सङ्क्रन्दनन् ॥ ? ܟ ce Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह सामन्तं सुर-धनुवित्तु तणिपळ् विश्वम्भरा-भागमम् । .. सामन्तं रिपु-सैन्यमं तस्यिला-प्रत्यक्ष-वीरार्जुनम् । सामन्तं शरणेन्दवङ्गे दयेपि गन्भीर-रत्नाकरम् । सामन्तं कलि-बाचियामावधिकं वैरीभ-पञ्चाननम् ॥ मरुगरे-नाडाळवं गुण- । देरेयं सामन्त-बाचियदळर रामम् । मरुगरे-नाडोळगे हे- । ररिकेय कबाळदति धर्मोन्नतियम् ।। आ-करदाळद दिळासार्पदवदेन्तेन्दोडे । तुरुगिद मामरदि बेळेद् । एपिद सौगन्धि-शाळियिं पू-गोळदि । केरेयिं देवाळयदि । नेरे सोय्सि तोऱ्या लीले यिं कद्यालम् । विविधालङ्कत-देव-सौष-तळदिं वेश्याङ्गना-बाटदिम् । कवि-राज-प्रवरक्कळिं सुळिव नाना-य-चातुर्यदिम् । नव-देशीय-विळासदि सुबगिनिं करदाळमोप्पिप्पुदा-1 दिविजेन्द्रोन्नत-लोकमं नगुवबोल तन्नुघ-सौन्दर्यदिम् ॥ . घनदनुमनिळिप परदरि। मनुगळनिळिप मुनिगळिं बगेवागळ् । मनसिजननिलिप विटरिम् । बनितेयरिं नाडे सोगयिकुकरदाळम् ॥ (दूसरा पाषाण )। अन्तनेक-विळासकावास, सकल-लक्ष्मी-निवासमुमेनिसि सोगायिसुव कदाळदोळ । कन्द ॥ उरिसि जैन-भवनमन् । उद्धरिसि सि(शिवालयङ्गळं मुददिन्दन्त् । उरिसि विष्णु-गेहमन् । उद्धरिसिदनल्ते बाचि जसदुधतियम् ॥ सोगयिप कामधेनु चिन-शासन-लदिमगे कल्प मूरहम् । मृगघर-भूषणागम-तपस्विगे सिष-रस-प्रवाहमेम् । नेगेदुदु बुद-कोयिोने विन्तिसदीय महाशु-रत्नवा-। . Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैदालके लेख नगधरनागमशरिगमेन्दोडे बाचियिदेम् कृतार्थनो ॥ घरेगेसेव नाल्कु-समेपद । सिरि कल्यावनिरुहं बुध-जनकम् । दोरवेत्त पेपिनिन्दं । पिरियं धर्मावतार गङ्गन पुत्रम् ।। श्री-लीलायतनक्के ताने नेलेयायतेम्बोन्दु संसेव्यदिम् । नीलग्रीव-पदान्ज-भृङ्गनधिकं श्री-बाचि-दे, यश-1 लोलं वीर-गुणाम्बुरासि मुददि कय्टाळटोळ चेल्बिनिम् । कैलासक्केणेयागि माडिसिदनी गश्वरावासमम् ।। श्री-नारायण-गृहमं। श्री-नारी-रमणनदळ-वंश-कुलाम्बर-1 भानुनिसिई बाचिय- । नूनं माडिसिदनलुते तोडदर डोति ।। चलवरिवेश्वरमं गुण- । जलधि जय-श्रीगधिपं बुध-जनकं तां। बलियेनिप बाचि-देवं । कुल-नगम मिगुव पेम्पिनि माडिसिदम् ।। श्री-महिमं गुण निळयं । भीम-पराक्रमनु बाचि देवं मुददिम् । रामेश्वर-सदनमना- । हेमाद्रिगे मिलिदेम्बिनं माडळ सिदम् ॥ भारतदोहादुदीग सुरशैळविदेम्ब मनोनुरागदिम् । घरे पोगळ वन्तु सन्दटळ-वंश-शिखामणि बाचि देव ताम् । वर-जिन-मन्दिरङ्गळने माडिसि लोकदोळोल्दु कीर्तिगा-1 भ(मा)रतनो गुत्तनो शिवियो खेचरनो बलि चारुदत्तनो ।। रामन बाणदिन्दे लघुवादुदु नोर्पड मत्त-वानरर् । प्रेमदे पर्बत-प्रततियिटमे कहिद सिन्धु तन्ननी-। भीम-पराक्रम मुडदे कट्रिसिदोळिपन पेम्पिानन्दे ताम् । भीम-समुद्रवेळिपु [ दु] वाधिय गुण्पिन पण्पिनेल्ोयम् ।। उदधिय गुण्पगस्त्य-मुनि-पुङ्गवनिन्दमे निन्दुदागियुम् । मदनहर-प्रताप रघु-रामन रामन बाण-घातदिन्द ।। उरिदुददेवुदेन्दु सुभटामणि बाय पेम्पिनन्ददिन्द् । भदळसमुद्रवेळिपुदु तन महत्वदिनम्बुराशिय ॥ दिब्बूरं वैमाळिगे । सन्च-पदारबिन्दनदळर रामम् । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह टोर्-बळ-विभासि बाचम् । सब बाधं परिहारवेनिसिये कोट्ट । इन्तु चतुस-समय-धम्मोद्धार-धौरेयं श्रीमन्-महा-सामन्त-गलि-बाचि-देवननेकदेवालय-बसदि-विष्णु-गृहङ्गळं माडिसियु महा-तटाकङ्गळं कटिसियु स [श] कवर्ष १०७२ डेनेय प्रमोद-संवत्सरद फाल्गुन-मासदमास्ये. यादिवार-सूर्यग्रहण व्यतीपातदन्दु तम्मन्य सामन्त-गंगैयंगे परोक्षविनेयवागि श्रीगङ्गेश्वर-देव...यन पेसरलु देगुल माडिसि देवर प्रतिष्ठे माडियागङ्गेश्वर-देवरङ्ग-भोगकमष्ट-विधार्चने-तपोधनराहार-दानक्कं देगुलद खण्ड-स्फुटजीपणोद्धारक हिरिय-केरेय वेळो बिट गर्दै सलगे ३ मानियलु बिट्ट गर्दै सलगे ३ बेद्दले सलगे १ मन्नवायङ्गे दिबरं परोक्ष-विनेयवागि स-ब्राह्मणरिगे सर्वाबाधा-परिहारबागि धारा-पूर्वकं माडि भूमि-दानवं कोट्ट मत्तं श्री-केशव-देवरङ्ग-भोगकमष्ट-विधार्चनेगं ब्राह्मणराहार-दानकं देगुलद खण्ड-स्फुर-जीर्णोद्धारक दिबर केरेय केळगे किट गद्दे सलगे १० आगय बळिय तोण्ट बेईलेयुदं सलुबुदु मत्तं तम्म मुत्तय्यं सामन्तं चलबरिबङ्गे परोक्ष-बिनेयवागि कित्तळियलु चलबरेश्वरमेन्दाय(त)न पेसरलु देगुलवं माडिसि आ-चलबरेश्वर-देवरङ्ग-भोगक्कं अष्टविधार्चनेगं तपोधनराहार-दानक्कं देगलद खण्ड-स्फुटित-जाण्णोद्धारकमाकित्तगळिय केग्य केळगे बिट गर्दै सलगे ३ बेईले सलगे १ मत्तं तन मगळ कुमारि चेन्नवनायकितिगे परोक्ष-विनेय वागि श्री-रामेश्वर देवर देवालयमं माडिसि आ-देवग्ङ्ग-भोगक्कमष्ट-विधार्चनेगं तपोधनराहार दानक्कं देगुलद खण्ड-स्फुट-जीर्णोद्धारक हिरिय-केरेय केळगेयुम् गर्दै सलगे ३ मानियलु गर्दै सलगे ३ बेईले सलगे १ मत्तं रामेश्वर देवर नन्दा-दिविगेगे सर्व-बाधापरिहारवागि बिट्ट येत्तु-गाण १ मत्तं सामन्त-बाचि-देवन मनस-सरोवरालंकार राजहंसिनि ।। कन्द ॥ भूमिगे सरि पेम्पिन्द । कामाङ्गनेगधिकवेसेव शौचोन्नतियिम् । भीमले एन्दतिमुददिन्द् । ई-महि बण्णिपुदु वाचि देवन सतियं ॥ जिन-पतिदेय्य तन्दे कलि योद्देरे-नाकनोल्पनान्त तज-। बननि विनूते चिम्बले महासति गूळिय-वाचि-देव सज-। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैदाल के लेख I जन-नुत वीर तन पत्तियन्दोडे पोल्ववरार घरित्रियोळ् । वनितेय • भीमले यो ळूर्बित- पुण्य-गुणाभिगमेयोळ् ॥ रतिगं गोमिनिगं पावैतिगं मिगिलु सुबगिनिं सम्बदर्दि तान् । अतिशय - रूपोन्नतियिं । क्षितियोळे ले बान्चियरसि भीमले - नारि ॥ इन्तु गई महा-सौभाग्य- शील-सौन्दय्यं सम्वन्तेयप्पं परिवार सुरभि भीमवे-नायकितियों परोक्ष-विनेयवागि श्रीमन्महा सामन्त- वाचि देव भीम-जिनालय मेन्दु बसर्दियं माडिसियुं भीमसमुद्रमेन्दु कन्ने-गेरेयं कट्टिसियुमा-केरेय वेळगे भीमजिनालयद श्री चन्न पाथ्व - देवरङ्ग-भोगक्कमष्ट-विधानार्च्चनेगं ऋषियराहार- दान क बर्सादय खण्ड-स्फुट-बीर्णोद्धारक कोट्टु बिट्ट गर्छे सलगे ८ मत्तमा- भीमसमुद्रद होलदल्नु बेईले सगे २ मत्तं सम्यक्त्व-चूड़ामणियेनिमिद सेनबोव-मारमय्यं सामन्त- मूलि - बाचिदेवन कैय्यलु भूमियं पडेदु मुदुगेरे-गळद बागिनोळ मारसमुद्रमेन्दु कन्ने-गेयं कट्टिसि आ-केग्यं भीम - जिनालयढ शू- चन्न पार्श्वदेवरत-भागकमष्ट - विधार्च्चनेगं ऋपियराहार-दानक्कं वसदिथ खण्ड स्फुट-बीण्णोद्धाक्क को बिन्ति-मारसमुद्रमादियागि समस्त देवालय-विष्णु-गृह- बसदिगे बिट्ट-भूमियं कुरुक्षेत्र बाणरा (रणा) सि प्रयागे - अर्ध्यतीर्थ मेन्दु प्रतिपालिसुवुदु || मत्त || परमानन्ददे बाचि देवनभयं दिवू. लै गण्डुगम् । दो बेत्तग्गद गर्छे - बेईलयनन्ता- तोण्ट - सद्-गेहमं । स्थिर-तेजं कुर्डालन्तुदात्त-पडेदं चातुर्य्य - चन्द्रेश्वरम् | वर-विद्या-निधि बाचि-राजविबुधं चन्द्रार्करुळ्ळन्नेगम् ॥ सुरगिरिमुळ्ळिनं जलघमुळ्ळिन तारनगेन्द्रबुळ्ळिनम् । सुरनदिमुळ्ळिनं शिरियुमुळ्ळि नवग्गद सूर्यरु ळ्ळनम् । सुर-सभेमुळळनं वरदे भारतियुतारमुळ्ळिनम् । घरे शशिमुळ्ळिनं निळु के गूलिय- वाचिय धर्म-शासनम् ॥ ( वही अन्तिम श्लोक ) । [ बिस समय, द्वारावती पुरवराधीश्वर, यदुकुलाम्बरधुमणि, तलकाडु को नङ्गलि गङ्गवाडिनोलम्बवाडि बनवसे दानुङ्गलू इलसने बेल्वोळ और उच्चगि ર Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह पर कब्जा करने वाले भुजबल-वीर-गत विणुवर्द्धन नारसिंघ - देव, शान्ति से राज्य करते हुए, दोरसमुद्र के निवासस्थल पर थे: तत्पादपद्मोपजीवी मान्यरवेडपुरवराधीश्वर, अदल लोगोंके लिये सूर्य, मरुगरेनाका अधिपति सामन्त गूळ-बाचि था । उसकी प्रशंसायें, गङ्ग-पुत्रके रूप में उसका वर्णन | उसका पुत्र गुड्डद गङ्ग था । उसके कुलमें नायक बसव हुआ । उसका पुत्र गज था, जिसने गुत्तको हराया था । उसका पुत्र बसवेय था । उसका पुत्र चलवरिव था । उसका पुत्र गङ्ग था, जिसकी स्त्री बेनवाम्बिके थी, और उनका पुत्र मान्यरवेड-पुरका अधीश बाचय या वाचि था उसकी विस्तारपूर्व प्रशंसा । का मरु-नाका अधीश, अदल- राम, सामन्त-बाचि मरुगरे - नाड् के कयूदाल . ( कैदाल ) में अतीव उच्च धर्मका पालन कर रहा था । कयूढाळ की शोभा वर्णन । वहाँ उसने नि मन्दिर, शिव मन्दिर और विष्णु मन्दिर सभी को सहारा दिया । और वहाँ उसने यह गङ्गेश्वर मन्दिर, एक नारायण मन्दिर, एक चलवरिवेश्वर मन्दिर, एक रामेश्वर मन्दिर, और जिन मन्दिर बनवाये । तथा उसने भीमसमुद्र और अडळ समुद्र नाम के तालाब बनवाये । तथा दिब्बर ब्राह्मणोंको दिया । 1 इस प्रकार चार मतोंके धर्मको बढ़ाते हुए, सामन्त गूळ- बाचि - देवने, बहुत-से मन्दिर, बसदि और विष्णु मन्दिर, तथा बड़े-बड़े तालाब बनवा कर ( उक्त मितिको ), सूर्य ग्रहण के समय, अपने पिता सामन्त गङ्गेयकी मृत्युके स्मारक में, उनके नामसे एक मन्दिर बनवाकर उसमें गङ्ग श्वर-देवको स्थापना की, और मन्दिरकी मरम्मत, पूजा-विधि, तथा मुनियोंके आहार के लिये ( उक्त ) हिरियकेरेकी ज़मीन दी । इस तरह केशव देव, चलवरिवेश्वर-देव, रामेश्वर देवके लिये भी भूमियाँ प्रदान कीं । तथा अपनी पत्नी भीमले के नामपर - बिसका देव बिनपति था, , पिता याबरे- - नाक और माता चिम्बले थौं, भीम बिनालय नामकी बसदि बन - Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैदालके खेल वावी, भीम समुद्र नामका पवित्र ( Virgin) तालाब बनवावा और उस तालाबकी सारी बमीन चन-पारिक्ष्य देवके लिये प्रदान कर दी। तथा सेनबोव मारमय्यने, सामन्त गळि-बाचि-देवसे भूमि प्राप्त करके, मारसमुद्र नामका पवित्र तालाब बनवाकर भीम जिनालयके पार्श्व-देवके नाम कर दिया। इन विभिन्न दानोंको बाणार(राणसी, प्रयाग इत्यादि पवित्र तीर्थोके समान समझा बाय । ये सब दान विद्या-निधि मा (बा) चि-रजके अधीन किये गये थे। शासन हमेशा कायम रहे, इसकी कामना । [ Ec, XII. Tumkur TI., No. 9.] बामणी-संस्कृत और कमर। [शक १०१-१५० ई० ] १. स्वस्ति ॥ जयत्यमळ-नानार्थ-प्रतिपत्ति-प्रदर्शकम् । अर्हतः पुर [.] दे [व]२. स्य शासनं मोह-शासनम् ॥ श्री-शीलहार-बंशे जतिगो नाम [क्षि]३. तीशस्समनातस्तत्पुत्रौ गोकल गूवलो। तत्र गोकलस्य सू [नु] ४. रिसिंहदेवस्तदपत्यं गण्डरादित्यदेवन्तस्य नन्दनः । समधिग५. तपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वरः । नगर-पुर६. वराधीश्वरः । श्री शीलहार-वंश-स (न) रेन्द्रः । जीमूतवाहनान्वय७. प्रस्तः । सुवर्ण-गरुड़-ध्वजः । मरुवक-सर्पः । अय्पनसिंघ८.गः। रिपु-मण्डलिक-भैरवः । विद्विष्ट- [ग] ज-कण्ठीरवः । इड्डवरादित्यः । ६. कलियुग-विक्रमादित्यः । रूप-नारायणः । गिरि-दुर्ग-लंघनः । श१०. निवार-सिद्धिः । श्री महालक्ष्मी-लब्ध-वरप्रसाद इत्यादि-नामावलि-विराजमानः। ११. श्रीमद्-विजयादित्यदेवः । वळवाड-स्थिर-शिबिरे सुख-संकथा-वि१२. नोदेन विजय-राज्यं कुर्वन् । शक-वर्षेषु त्रिसप्तत्युचरसह- . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह १३. न-प्रमितेप्यतीतेषु अङ्कतोऽपि १०७३ प्रवर्तमान-प्रमोद-संवत्स १४. र भाद्रपद-पूर्णमासी-शुक्रवारे सोमग्रहण-पव-निमित्त १५. [क] गेगोल्ला तुगत-भडलूर-ग्रामे सणगमय्य-चं [4]१६. व्वयोः पुत्रेण । पुन्नकब्बायाः पत्या जेन्तगावुण्ड-हेम्म१०. गावुण्डयोः पित्रा चोधोरे-कामगावुण्डेन कारितायाः। १८. श्री पार्श्वनाथवसतद्देवानामवि [ घ र्चन-नमित्तं । वसतेः ख१६. ण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धारात्थे । तस्थित-यतीनामहा२०.र-दानार्थ च तस्मिन्नेवग्रामे कुण्डिदेश-दण्डेन निव२१. र्तन-चतुर्थ-भाग-प्रमित-क्षेत्रम् । तेनैव दण्डेन त्रिं२२. शस्तम्भ-प्रमाण पुष्पवाटीं । द्वादशहस्तप्रमाण२३. गृह-निवेशनं च स राना निज-मातुल-लक्ष्मण-सामन्त-विज्ञा२४. पनेन तस्यैव गोत्रदानार्थ श्री-मूलसंघ-देशीयग२५. ण-पुस्तकगच्छ-तुल्लकपुर-श्रा-रूपनारायण-चैत्याल[य]- . २६. स्याचार्य || भा-माधनन्विसिद्धान्तदेखो विश्व-मही२७. स्तुतः । कुलचन्द्रमु नः शिष्यः कुन्दकुन्दान्वयां२८. शुमान् ।। आप च ॥ रोदो-मण्डलमङ्ग किं स्व-बपुषा २६. ब्याप्नोति शक्रद्विपः किं क्षाराम्बुधिरावृणोति भुवनं गङ्गाम्बू ३०.कि वेष्टते । स्त्यानाऽयं प्रिय-सुस्थिरः समरुचत् कि सान्द्र-चन्द्रात३१. पो यकीयेत्थमनूदितक्कणमसौ श्रा-माघनन्दी जयेत् ।।त३२. न्मुनीन्द्रस्यान्तेवासिनामहनन्दि सिद्धान्तदेवानां यादौ ३३. प्रक्षाल्य धारा-पूर्वकं १०-नमस्यं सन्द-बाधा-परिहारमाच३४. न्द्राक्तारं स-शा [ स ] नं दत्तवान् । @॥ स्वदत्तां परदत्ता वा यो हरेत बसु३३.वरी । षष्टि वर्षसहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ॥ न विषं विषमि ५. त्याहुवस्वं विषमुच्यते । विषमेकाकिनं हन्ति देवस्वं पु Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. -पौत्रकम् । अपि च ॥ सवत्सां कपिलां शस्त्रया हत्वास्या ३८. मांस-शोणिते । गङ्गायां सोऽत्ति यो गृण्हात्यमुं धर्मोव्वरां ३६. नरः ।। तत्पातकफलेनासौ यावच्चन्द्रदिवाकरं । तावद्धोरतरं दुःख४०. मश्नुते नरकावनौ ॥ अन्यच्च ॥@॥ मातुस्सा-कपालेन सोऽत्ति मा४१. तम-वेश्ङ्ग[1] श्व-मांसं भिक्षया लब्धं गये (१) यो धर्मभहरः॥@n ४२. भद्रमस्तु जिनशासनाय ॥ सम्पद्यतां प्रतिविधानहेतवे । अन्य४३. वादि-मदहस्ति-मस्तक-स्फाटनाय घटने पटीयसे |@|अक्कसाले४४. सम्योजन पुत्र । अमिनन्ददेवर गुड्ड गोव्योजन खडरणे ॥@@@॥ सारांश यह शिलालेख एक पत्थर पर उत्कीर्ण है। यह पत्थर बामणी गांवके जैनमन्दिरके दरवाजे पर अवस्थित है। बामणी गाँव कामल शहरसे दक्षिणपश्चिम ५ मील पर है । कामल कोल्हापुर रियासतका एक मुख्य शहर है। इस शिलालेखमें शीलहार वंशके महामण्डलेश्वर विजयदित्यदेव के एक दूसरे दानका उल्लेख है। २-१० की पंक्तियों में दाताकी वही वंशावली और वर्णन है जो नं० ३२० के कोल्हापुरके शिलालेखमें है, सिर्फ इसमें दूरके अपने ६ सम्बन्धियों ( कोर्तिराज, चन्द्रादित्य, गूवल द्वितीय, गङ्गदेव, बल्लालदेव और भोचदेव ) तथा नौ अपने कम महत्त्वके विरुदों ( पदों) को छोड़ दिया है । पंक्ति ११-३४ में उल्लेख है कि अपने निवासस्थान बळवाइ में रहकर ही शासन करनेवाले विजयादित्य देव ने अपने मामा सामन्त लक्ष्मणके कहनेसे तथा अपने गोत्रदान के लिये, जब कि प्रमोद वर्ष चालू था, अर्थात् १०७३ शक वर्षके व्यतीत होने पर, भाद्रपद महोनेकी पूर्णिमा तिथिके शुक्रवारको चन्द्रग्रहणके निमित्तसे-एक भूमिका दान किया। यह भूमि कुण्डिके नापसे नापमें चौथाई निवर्तन थो। साथमें तोस स्तम्भ ( खम्भे) प्रमाण पुष्पवाटिका, १२ हाथका एक मकान भी थे। यह सब भूमि वगैरः "ण [क] गेगोल चिलेके मडलुर गाँवकी थी। इस दानका प्रयोजन यह था कि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह इससे चौधौरे कामगाकुण्डके बनवाये हुए उसी गांवके मन्दिर की पार्श्वनाथ भगवानकी अष्टविध पूजन होती रहे, जो कुछ मन्दिरके मकानका बिगाड़ हो वह सुधरता रहे तथा वहां रहनेवाले मुनिबनोंके लिये उससे उनके उपहारका प्रबन्ध होता रहे । यह दान शिलालेख नं. ३२० में वर्णित श्री माधनन्दि सिदान्तदेव के ही एक और शिष्य श्री अर्हनन्दि सिद्धान्तदेवके पैरोंका प्रक्षालन करके किया गया था। इस शिलालेखमें, नं० ३२० के कोल्हापुर वाले शिलालेखमें न मिलनेवाली एक नई बात श्री माधनन्दिसिद्धांतदेव के विषयमें यह है कि उन्हें यहाँ कुल चन्द्रमुनिका शिष्य तथा 'कुन्दकुन्दके अन्वय का एक सूर्य बतलाया है। अन्तमें पंक्ति ४३-४४ में पुरानी कन्नड़में यह बताया है कि इस लेखको सुनार बन्योनके पुत्र तथा अभिनन्दनदेवके शिष्य गोळोजने खोदा था । [ EI, III, No. 28, T. R. A.] ३३५ कोन्नूर-संस्कृत। -[बिना काल-निर्देशका, पर १२ वीं शताब्दिका मध्य ( कोलहार्म)1]-- ५६. मिथ्याभाव-भवातिदर्प-पर-तदुश्शासनोच्छेदकम् प्राशाज्ञा-वशवर्तमा६०. न-जनता-सत्सौख्यसम्पादकम् [1] नानारूप-विशिष्ट-वस्तु-परम-स्याद्वाद-लक्ष्मी पदम् जेनीयाज्जिन-राजशासनमिदं स्वाचार-सार-प्रदम् ॥ [ ४४] ६१. सिद्धान्तामृत-वार्द्धि-तारकपतिस्तर्काम्बुबाहपतिः शब्दो-द्यानवनामृतैक-सरणि योगीन्द्र-चूडामणिः [11 विद्यापर-साथ६२. नाम-विभवः प्रोद्भूत-चेतोभवः' जीयादन्यमता-वनीभृदशनिः श्री-मेघचन्द्रो मुनिः॥[५] इदे हंसी-बूंद-मीम्टल्बगेदपुदु ६३. चकोरी-चयम् चञ्चुविन्दं कर्दुकल्साईपुदीशं जडेयो-ळिरिसलेन्दिपं सेज्जेगेर ल्पदेदप्पं कृष्णनेम्बन्तेसेदु बिस-लसत्-कन्दली-कं1. 'भयो' पढ़ो। - Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोन्नूरके लेख ६४.द-कान्तम् पुदिदत्ती मेषचन्द्र-त्र (3) तितिळक-जगति-कीर्ति प्रकाशम् ॥ [४६ ] वेदग्ध्य-श्री-वधूटी-पतिरखिळ-गुणालंकृतिम्घ चं६५. द्र-विद्यस्यात्मजातो मदन-महिभृतो भेदने वज्रपातः।। सैद्धांतान्यू (व्यू ) ह-चूडामणिरनुपळ (म) चिन्तामणि६६. म्भू (भू ) बनानाम् योऽभूत् सौजन्य-रुन्द्र-श्रियमवति महौ वीरनन्दी मुनींद्रः ॥ [ ४७ ] यश्शब्दज्ञ-नभस्थली-दिनमणिः काव्यज्ञ-चूड़ाम६७. णिर्यस्तर्कस्थिति-कौमुदी-हिमकरस्तूर्य्यत्रयाब्जाकरः [1] यस्सिद्धान्त-विचार सार-विषणो रत्न-त्रयी-भूषणः स्थे६८. यादुद्धत-वादि-भूभृदशनिः श्रो-चोरनन्दि-मुनिः ॥ [ ४८ ] यन्मूर्तिजगतां बनस्य नयने कर्पूरपूरायते यवृत्तिर्विदुषां त६६. तेश्श्रवणयोर्माणिक्यभूषायते [1] यत्कीर्तिः ककुभां श्रियः कचभरे मल्लील तांतायते जेनीयाद् भुवि वीरनन्दि-मुनिपस्सै७०. द्धांत-चक्राधिपः ॥ [ ४६] * श्री-कोण्डकुन्दान्वयाम्बर-धुमणि विद्वजन शिरोमणि समस्तानवद्य-विद्याविलासिनी-विलास-मूर्ति श्री-धोरनन्दि-सै [द्धा]७१. न्तिक-चक्रवर्त्तिनु श्रीमन् महास्थानं कोळनूर महाप्रभु-हुलियमरसतुं मूरु पुर-पञ्च-मठ-स्थानङ्गळु ताम्र-शासन [ मं] ७२. नोडि बरेयिसिमेनल्का शासनदोन्तिटुंदन्ती शिलाशासनम बरेयि f[स् ] दरु [॥ ] मङ्गळ महा-श्री श्री श्री नमो'.....[] [ इस लेखमें (बो मूल लेख की पं० ५६-७२ तकमें है ), जैनधर्म तथा मेघचन्द्र-विद्य और उनके पुत्र वीरनन्दी इन दो मुनियोंकी प्रशंसाके बाद, बताया गया है कि कोळनूरके 'महाप्रभु' हुलियमरस तथा और लोगोंकी प्रार्थनापर वीरनन्दीने एक ताम्र-शासनको फिरसे यहाँपर शिला-शासनके रूपमें लिखवाया। इस ताम्र-शासनको इन लोगोंने स्वयं उनके पास देखा था। .. यहाँपर कुछ अक्षर (कमसे कम कः ) धिस गये हैं। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह श्रवणबेलगोलके एक शिलालेखसे हम जानते हैं कि माघचन्द्र - त्रैविद्यका स्वर्गारोहण बृहस्पतिवार, २ दिसम्बर १११५ ई० को हुआ था; और श्री पाठकके द्वारा प्रकाशित एक सूचना के अनुसार, वीरनन्दीने अपने 'आचारसार' ग्रंथकी समाप्ति उस तिथिको की है जिसे एफ़ कीलहॉर्नने यूरोपियन कलैण्डर के अनुसार सोमवार, २५ मई ११५३ ई० नियत की है। उपर्युक्त लेखके कथनानुसार इस लेखके पूर्वभाग ( पंक्ति १-५६ ) की जब नकल की गई थी और जब यह शिलालेख उत्कीर्ण किया गया था वह काल, उक्त दोनों मुनियोंके काल निर्णयके प्रकाश में, करीब-करीब १२ वीं शताब्दिका मध्य ठहरता है । [EI, VI, no 4 ( II part; line 59-72).] T L Tr. ३३६ लण्डन (हॉर्बिमन म्यूज़ियम ) संस्कृतं । सं० १२०८ = ११२ ई० [ जिन मिस्टर हॉर्निमन ( Mr. Horniman ) के म्यूज़ियम में यह मूर्ति-लेख मिला है उसकी मूर्ति उन्होंने म्यूज़ियम के क्यूरेटर ( Curator ) मि० क्विक ( Mr. Quick ) के कथनानुसार, सन् १८६५ में लण्डन में खरीदी थी :--Rh. D.] 1 मूर्ति जैनोंके बयालीसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ की है । चरण-पाषाणपर बहुत ही सुरक्षित तीन पंक्तियोंका एक लेख है । लेख नागरी अक्षरों और व्याकरण की अशुद्धियों से भरी हुई संस्कृत में है । लेख और अनुवाद निम्न है -- १. देखो Ind. Art, Vol. XIV. p. 14. श्री पाठकने जो मिति दी है वह यह है 'झक १०७६, श्रीमुख संवत्सर, सोमवार, द्वितीय ज्येष्ठ सुदी प्रतिपद ।' Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लण्डनके लेख लेख १. ॐ संवत् १२०८ वैशाख वदि ५ गुरौ ॥ मण्डिल पुरात् ग्रहपत्यन्वे (न्वये ) श्रेष्ठि-म उ-माहुल तस्य सुत श्रेष्ठि- श्री महीपति भ्रातु बाल्हे महीपति-सुत पापे कूके साहू देवू [ आल्हू १ ] २. विवोके सवपते सर्व्वे नित्यं ३. प्रणर्मात ( मंति ) स [ ६ ] ॥ अनुवाद : --- ॐ १ संवत् १२०८, बैशाख वदी ५, गुरुवारको । मण्डिलपुर ( बुन्देलखण्डका एक नगर ) से, ग्रहपति वंशके श्रेष्ठी माहुल; उसके पुत्र श्रेष्ठी महीपति, उसके भाई नाल्ह; और महीपतिके पुत्र पापे, कूके, साहू, देदू, [ आल्हू ? ], विवीके और सवपते ये सब मिलकर नित्य ( रोज़ ) इस प्रतिमाकी बन्दना करते हैं । [JRAS, 1898, p. 101-102 ] T. L. Tr. ३३७ महोबा - संस्कृत । [ [सं० १२११ = ११५४ ई० ] १०१ श्रीमान् मदनवर्म्मदेव राज्ये, सं• १२११, आषाढ़ सुदि ३, सनौ, देवश्री नेमिनाथ – रूपाकार लाखण । इस शिलालेखमें २ पंक्तियाँ हैं, जिसमेंकी नीचेकी केवल एक पंक्ति ही ऊपरके लेखमें आयी है । मूर्तिके चरण तल पर शंखका चिह्न है, जिससे जाना जाता है कि यह श्री नेमिनाथकी मूर्ति है । I [ A. Cunningham, Reports, XXI, P. 73, T. ] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह ३३८ होललफेरे, संस्कृत | वर्ष श्रीमुख [ ११५४ ई० (लु राइस) । ] [ होळकेरेमें, सेट्टर नागप्प से प्राप्त एक ताम्र पत्र पर ] श्रीमत् पञ्च-कल्याण-वैभवाय नमः ॥ श्रीमत्परम- गम्भीर - इत्यादि ॥ स्वस्ति श्री यम-नियम-स्वाध्याय-ध्यान- मौनानुष्ठान-जप-तप-समाधि-शील-गुणसम्पन्नमप्प ओ...... कडियाण-परिग्रहादित्यरुं मध्याह्न - कल्प वृक्षरुमप्प पारिश ( पाश्र्व ) सेन- भट्टारक-स्वामियवरु । होळलकेरेय श्री - शांतिनाथ - देवर बीर्णांलयमं...द्धारमं माडिसिदर || श्री-मूल-संघद् वोदण्ण- गौड-मुन्तादवरु माडिसिद् धर्म्मवु विघ्नवागिरलु आ-गौडर सत्-पुत्रराद सोमण्ण-गौड शान्तण्ण-गौड आदण्ण-गौड - मुन्तादवरु । प्रताप - नायक रिंगे नूरु-गद्याणवनिक्कि बेडिकोडुदु हिरिय- केरेय हिन्दण-तोटम् गद्देयुमं बेद्दलमं नम्मवर 'मनेय - काणिकेयुमं सर्वबाघा-परिहारखागि श्री-अमृत-पडिगे गुरुगळ आहार दानक्के शक वर्ष १०७६ नेय श्रीमुख संवत्सरद माघ-शुद्ध १० शुक्रवार बिट्ट दत्ति || यिदक्के देवता - महोत्सवद विवर । भाव- नाम संवत्सरद वैशाख-शुद्ध-तदिगे- सोमवार विमान-शुधि (द्धि ) वास्तु-विधि नान्दी- मङ्गल ध्वजारोहण भेरी-ताड़न अङ्कुरार्पण बृहच्छान्तिक मन्त्र- न्यास अङ्ग- न्यास केवल शानद महा - होम | महास्नपनाभिषेकके अमोदक - प्रभावने यन्नु कलश- प्रभावनेयन्तु माडिसि पुण्योपार्ज्जुनेयन्न माडिसिकोण्डरु । वर्षं प्रति अक्षय-तदि [ गे] यल्लि नडेयुव महोत्सव-प्रभावनेगे... अष्टाह्निक-पर्वगळिगे श्रवण- पौर्णमी- वुत्सवक्के भाद्रपद शुद्ध चतुर्द्दशि- अनन्ततोहि-कलश- प्रभावने महा-आराधने - मुन्तादक्के । कार्त्तिक-मासदल्लि कृत्तिकोत्सवक्के माघ-ब. चतुर्दशियल्लु विनरात्रे महोत्सवक्के । चतुस्-सीमे-विवर । तोटक्के मूडलु हिरे- केरे । तेङ्कलु हेद्दारि । पढुवलु नेट-कल्लु । बडगलु डुट्टरे । गद्देगळ चतुस्- सीमेगे नाकु दिक्किगु नाल्कु-मुक्कोडे सह नाल्कु-नेट कल्लु । बेदलु-भूमिगु १०२ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होलफेरे लेख १०३ इंदे-गुति | सुजनक यी धर्मव नडेसिकोन्डु बरुवहु । ( वे ही अन्तिम श्लोक ) शासन के भद्र ं भूयाद् वर्द्धतां चिन शासनम् ॥ [ पाँच कल्याण-वैभव जिसके होते हैं उसके लिये नमस्कार । ] बिन शासनकी प्रशंसा । स्वस्ति । साधुके गुणोंसे युक्त पारिश्वसेन भट्टारक- स्वामीने होळलकेरेके शान्तिनाथ - देवके ध्वस्त मन्दिरको फिरसे सुघरवाया था। श्री मूलसंघके बोद्दण्णगौड और दूसरे लोगों के द्वारा दिया गया दान जो रुक गया था उसके लिये उस गौडके पुत्रों (जिनके नाम दिये हैं) और अन्य लोगों ने १०० गद्याण सहित प्रताप - नायकको भेंट में देते हुए प्रार्थना-पत्र दिया, तब पारिश्वसेन- भट्टारक स्वामीहिरिय- केरेके पीछे की जमीन और लोगोंके घरों से मिली हुई भेंटे, सर्व करोंसे मुक्त करके, देवकी पूजा और गुरुओंके आहार- प्रबन्धके लिये (उक्त दिन ) दानमें दे दीं। इसके बाद देवता महोत्सवकी एक सूची और भूमिकी सीमाएँ आती हैं। वे ही अन्तिम श्लोक । ] [ EC, XI, Holalere tl., no. 1] ३३९ हेरगू - संस्कृत तथा कन्नड़ । - [ शक १०७७-११५५ ई० ] [ हेरगू (आलूरु परगना ), जैन-बस्ति के सामनेके पाषाणपर ] श्रीमत्पवित्रमकलं कमनन्तकल्पं स्वायम्भुवं सकलमंगलमादि-तीर्थम् । नित्योत्सवं मणिमयं नियतं जनानाम् त्रैलोक्य-भूषणमहं शरणं प्रपद्ये ॥ श्री - वीतराग ॥ श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्य - नाथस्य शासनं चिन-शासनम् ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह स्वस्ति समधिगत- पञ्च-महा-शब्द महामण्डलेश्वरं द्वारावती-पुरवराधीश्वरं यादव वंशोद्भव कोङ्ग नङ्गलि-गंगवाडि-नोणम्बवाडि- बनवसे-हानुंगल्लु- हलविणे - गोण्ड भुज-बलवीर-गंग जगदेकमल्ल होय्सळ-बीर-नारसिंह - देवरु श्रीमद्राजधानीदोरसमुद्रद नेलवीडिनलु दुष्ट-निग्रह शिष्ट-प्रतिपालनव माडि सुख-संकथा - विनोददिं पृथ्वीराज्यं गेय्युत्तमिरे तत्पादपद्माराधकं पर-बळ-साधक - नामादि- समस्तप्रशस्ति सहितं श्रीमन्महाप्रधानं हिरिय-हडवळं चाबिमय्यन नगर्चेयेन्तेन्दड़े । • इननं तेनदोळ् इन्द्रनं विभवदोळ् चाणक्यनं नीतियोळ् । मनुबं चारु-चरित्रदोळ्ं जळघियं गाम्भीर्य्यदोळ् धैर्य्यदोळ् । कनकाद्रीन्द्रमनेय्दे पोल्वनदटिं त्रैलोक्यमं मेचिदजुननं श्री - पडवल्ल चामनेन लिन्नेवष्णिपं बणिपं ॥ वर वनिता-जनङ्गळ मनं कुसुमास्त्र - शारक्के सब्दुषोकर-कर-पङ्कजं बहु- सुवर्ण-चयक विनाथ मन्दिरम् | स्थिरतर-राज्य-लक्ष्मिगेडेयादवु रूप - विलासदेऴ्गेयिम् । निरुपम-दान दिं पति- हितोन्नतियिं पडवळ्ळ चामन || अनुपममप्प बन्धु-निवहं निब- पक्षमनर्घ रत्न-म- । डन-तति पञ्च-वर्णमखिळो - भुजासिये चञ्चु दुष्ट-दु ज्वन-रिपु-भूभुनर्भुजगरागे नेगर्तेयनांत बिट्टि दे - । बन गरुडं समन्तेसेदनी-धरेपोळू पडवल्ल-चामणम् || इन्तु पोगचेंगं नेगर्त्तेगं नेलेयाद हिरिय- । हडवल्ळ-चाविमय् । यन सर्व्वांग-लक्ष्मी हिरिय-हडवळिति जक्कव्वेयर नेगर्तेय् एन्तेन्दडे | frei पूजि देवमोप्पुव जिनं सिद्धान्त चक्र ेश्वरम् । गुरु मत्ता - नयकीर्त्ति देव-यति ताय् आचम्वे बम्मय्यनुं । " प्रेमद तन्दे मिक्क सुभदिं लोकैक-रक्षा-क्षमम् । पुरुषं श्री-पडक्रूल-चामनेनलिं अक्कब्वेयिं धन्यरार् ॥ रतियाळु रूपं भा । रतियत्नळु वाग्विलासदिं सौष्ठवदिं । क्षितियनळु पेम्मँगरुन् । बतियुनल अक्किमध्ये कान्ता-रत्नम् । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हेरगुके लेख कोमळवागि ताने शुभ-लक्षण-युतमेनिप्प मूर्तियिम् । व्योममनेय्ये पनि दिगु-दन्वि-वरं निमिदिई कीर्तियिम् । श्री-मुखदिन्दमुद्भविप सत्यद मेल नुडियिन्दे गोत्र-चि-1 . न्तामणि जक्कियध्वे सले रखिसिदळ साचि-देवियन्ददिम् ।। बन्देरेये वन्दि-बनमा- नन्ददिना-क्षणदे कल्य-कुजदारवेयीवन्ददिनीवळ् बेळ पुड- । नेन्दु जक्कव्वे-देवि बगती-तळदोळ् ॥ तक्कन मिक्क सोर्मुडिय वृत्त-कुचंगळ..........'नो -। उक्कलरम्बिवेम्ब नगे-गङ्गळ रोक्कमेनिप्प होन-ब-। एणक्के विशेषमप्पधर-कान्तिय जक्कल-नारियोन्दु भा-। वक्के गुणक्के वाग्विभवदुन्नतिगार् दोरे पेण्डिरुवियोळ ।। बिन-राजामियनोप्पुवनेगळिं सद्भक्तियिन्दचिपळ । विनयं गुन्दडे-लोक-पूज्यरेनिसिर्पाचार्यरं प्रीतियप्प नवाज्यामृतदनदि तणिपुवळ श्री-जैन-गेहङ्गळम् । मनदुत्साहदे माळूपाळी-धरणियोन जक्कवेयिन्तप्परार ।। तळदोळशोकेयोप्पुव तळिर्मुख-पङ्कजदोळ् सरोजवासुळि-गुरुळोळियोळ् मधुप-संकुलमोळ्नुडिगळ्गे मिक्क-कोक्ळि-मर्रि यानदोळू गज-समुच्चयमुद्ध-पयोधरक्के पो-1 कलशमेनिम्पिवेन्दोरेये जक्कले-नारिय रूपिने गेयोळ् । रव अक्कम् ( अवरक्कम् )। जिन-राजननतिमुददिन्द् । अनेकवेनिपनङ्गळिन्दर्चिचसि सज् । जनरोळ मिगिलेने नेगळ्दा । विनयद कणि पद्मियक्कनेने मेच्चदराम्॥ . अवर गुरुगर्छ। सकळ व्याकरणार्थ-शास्त्र-चयदोळ् काव्यङ्गळोळ् मिक्कनाटिकदोळ् वस्तु-कवित्वदोळ् नेगल्द सिद्धान्तङ्गळोल् पारमा-। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह यिकदोळ "किकदोळ् समस्त-कळेयोळ् पाङ्गिन नडेय्चिकनादं मयकीर्ति-देष-यतिपं मिद्धान्त-चक्र श्वरम् ।। हेरगोळ्ळितेन्देल्लं । निरुतं बिनविसे केळदु बसदियनत्या-। दरदिन्दे माडि पक्कले । घरेयं धर्मक्के कोट्टु असमं पडेदळ् ।। अदेन्तेन्दडे शकर्ष १०७७ नेय युव-संवत्सरद पुष्यदमावास्ये आदिवाखुत्तरायण-संक्रान्तियन्दु भीमन्महाप्रधानं हिरिय-हडवळं चाविमय्यन साङ्ग-लक्ष्मी हिरिय-हडवळति श्री-मूल-संग (घ) द देशिय-गणद पुस्तक-गच्छद कोण्ड कुन्दान्वयदाचार्यरु श्री-जय-कीर्ति-सिद्धान्त-चक्रवर्तिगळ गुडि बकवेयक महोत्साहदि तावु हेरगिनल प्रतिष्ठेयं माडिसिद श्री-चेन्न-पार्श्वनाथ-स्वामिगळ श्रीपाद-पद्माष्ट-विधानक्कं उत्तुंग-चैत्यालयद खण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धारणकं रिषियराहार-दानक्कवेन्दु श्रीमतु हेरगिन प्रभुगळू-रोडेय-सोमनाथिमय्य विमय्य सिङ्गगावुण्डनोळगाद समस्त-प्रभुगळ समस्त-प्रधानर सनिधानदल श्रीमन्महामण्डलेश्वरनारसिंह-देवर्गे बिन्नहं गेय्दु हिरिय-करेंय कीलेरियल्लि कल्ल-तुम्बिन समीपदलु बिडिसिद गद्दे सलगेयय्दु वेहलेयल्लि स्थलवोन्दु। [जिस समय (अपने सर्वपदों सहित ) होयसल वीर-नारसिंह-देव अपने वासस्थल शाही नगर दोरसमुद्र में रहते थे और शान्ति एवं बुद्धिमत्तासे अपने राज्यका शासन कर रहे ये: उनके पादपद्मका उपजीवी पुराने सेनापति चाविमय्य थे, जिनकी प्रशंसामें कहा गया है कि वे बिट्टिदेवके गरुड़ थे। उनकी पत्नीका नाम जक्कन्वे था। उसकी बड़ी बहिन (उसकी प्रशंसा) पद्मियक्क थी। दोनोंके गुरु सिद्धान्त-चक्र श्वर नयकीर्ति-देव-यतिप थे। हरण की अच्छा स्थान होनेकी सबसे प्रशंसा सुनकर, नक्कलेने इच्छापूर्वक एक मन्दिर वहाँ बनवाया, और इसे भूमिदान भी दिया। इससे उसकी बहुत प्रसिद्धि हुई। (निर्दिष्ट मितिको ) महाप्रधान, पुराने सेनापति चाविमय्यकी पत्नी, श्रीमूलसंघ, देशियाण, पुस्तक गछ और कोण्डकुन्दान्वयके आचार्य नयकीर्ति-सिद्धान्त Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवती की शिष्या (भाविक ) बक्कव्वेने, बहुत हर्षके साथ भगवान् चेन्नपार्श्वनाथकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करबाके,-अष्टविध पूचनको चालू रखने, उसके ऊँचे मन्दिरकी मरम्मत आदिके लिये, और ऋषियोंको आहार-दान देनेके लिये, हेरगके सरदारोंकी उपस्थितिमें, महामण्डलेश्वर नारसिंह-देवसे प्रार्थना करके, (निर्दिष्ट) भूमिका दान दिया।] [EC, V, Hassan TI., No. 67.] ३४० खजुराहो-संस्कृत। [सं० १९=१५ ई.] [इस शिलालेखके भी लेखका पता नहीं है। श्री वीरनाथ ( महावीर स्वामी ) की प्रतिमाके चरण-पाषाणमें यह लेख अङ्कित है। शिल्पीका नाम कुमार सिंह ( या सिनहा ) लिखा हुआ है । ] [ A. Cunaingham, Reports; XXI, P. 68, P. A.) ३४१ महोबा-संस्कृत । [सं० २३= १९६ई.] "संवत् १२१३, माघ सुदि ५ गुरन् (गुरौ)" इस प्रतिमा पर चकोरका चिह्न है, इससे यह प्रतिमा सुमतिनाथकी है । लेख एक ही लम्बी पंक्तिका है। सबसे पहले उक्त कालका उल्लेख है। इसमें किसी राबाका नाम नहीं दिया हुआ है, और इसके अन्तम शिल्पी रूकार (रूपकार) बालनका नाम आता है। [ A. Cunningham, Reports, XXI, P. 78, 4. } Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह इग्निकररके कैपिडियोलादुदु तन बर्स जगक्के कैय्- । गन्नडियादुदेन्देसेदनो जगदोळ् जगदेव-भूभुवम् ॥ समदारात्याना-मङ्गळ-कटक-हटित्-कर्ण-पापहं वि-1 क्रमवी-काळेय-दोषापह"मळ-चरित्रं "विशिष्टे । ट-मनस-तापापहं तन्नतुळ-वितरणोद्यागवेन्दन्दे लोको-। त्तमनाद सिङ्गिदेवं जग-विरुदरळेवं समग्र-प्रभावम् ॥ अवरोडने पुटिदळु भू.। भुवनं वित्तरिसु वत्तिमब्बेयो पेळेम् । बवोलेसदळळिया दे। वि विशुद्धाचारदि विनिर्मळ-गुणदिम् ॥ रवर-पुरदोळ नेरे सेनुवपुरदोळ् माडिसिदळेसेव बिन-भवनमनन्त् । एरडमळिया-देवियवो-। लरसियरार् प्पुण्यवति [य] री-वसुमतियोळ ॥ . सले शोभाकरबागे सेतुविनोळत्युत्साहदिं भव्य-मण- । डळि बाप्पेम्बिन वोन्दे कण्ठदोळे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-निर्म्मल-चारित्र-गुण-प्रयुक्ते जिन-राजागारमं भक्तियिम् । अळिया-देवि समन्तु माडिसिदळुवी-स्तुत्यमं नित्यमम् ॥ चतुरे चतुर्विध-दानो-।। नतियोळ जिन-राव-भवनमं माडिसि भू-। मुत-कीर्ति होम्नेवरसन । सति बलिया-देवि नेगळ्दळवनी-तळदोळ ॥ भुष-बल-भीम भीम-सम-विक्रम कोङ्कण-रक्षपाल वि-। श्व-बन-विनूत निर्मल-कदम्ब-कुळोज्वळ गङ्ग-तुङ्ग-वं. शब-नृप-होन पोज-महिपाळन मम जिनेन्द्र-पाद-प-। का-मद-भन्न निन्नोरेगे वपुवनावनिळा-तळाग्रदोळ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेरेकेरीके लेख १२९ यी-दोरेय होन-नृपतिगव । आ-दुरित-विदूरे अळिय-देविगवोगेदम् । मेदिनि बण्णिसलखिळ-गु-। गोदधि जयकेशि-देवनेम्व कुमारम् ।। नेगळ्दा-श्री-जयकेशि-देवनमरी-सन्दोह-संभोग-का-। क्षेगे मेय्दन्दडे पेत्त-तायळिय-देवी-कान्ते मोहायदिन्-। दे गुणाम्भोनिधिगा-मगङ्गे विपुल-श्रेयो-निमित्तं जगम् । पोगळल सेतुविनोळु विनिर्मिसिदळुद्ध-श्री-चिनागारमम् ॥ स्वस्ति समस्त प्रख्यात-सीतेयु बिज्जल देव तनूबातेयुमप्प अळिया-देवि या शक-वर्ष १०८१ नेय प्रमाथि-संवत्सरद पुष्य-शुद्ध-चतुर्दशी-शुकपारवन्दु । उत्तरायण-संक्रान्तिय-पुण्य-दिनदोळ "गळिलळियादेवियरं होन्नेयरसरूं तम्म धर्मक्के बिट्ट भूमियावुदेन्दडे ( यहाँ दानकी विशेष चर्चा आती है ) मूल-संघद काणूर-गणद तिन्त्रिणि-गच्छद बन्दणिकेय तीत्यदाचार्य्यर् भानुकीर्ति-सिद्धान्त-देवर कालं कर्चि धारा-पूर्वकं माडि चारुपूना-निमित्तं कोहरु ( हमेशाका अन्तिम श्लोक)। [बिन शासनकी प्रशंसा ] जिस समय ( स्वाभाविक चालुक्य पदों सहित ) त्रिभुबन मजदेवका विजयी राज्य प्रवर्द्धमान था : तत्पादपद्मोवजीवी, पट्टि-पोम्बुच्चपुरवराधीश्वर, दक्षिण-मधुराका अधिनायक राय-तैलह (प) देव सान्तलिगे हजार पर शासन कर रहा था। राजा तेलशान्तरकी प्रशंसा। उसकी पत्नी अक्क्खा -देवी थी, जो नन्नि शान्तरकी छोटी बहिन भी । और उसके तीन पुत्र थे,-काम, सिंह, और अम्मण । सबमे बड़े कामकी प्रशंसा । उसकी पत्नी बिञ्जल देवी थी। इनके पुत्र जगदेव और सिनिदेव थे। उनकी प्रशंसायें। उनकी बहिन अळिया-देवी थी। उन्होंने सेतमें एक बढ़िया जिन मन्दिर बनवाया था। वह होन्नेयरसकी पत्नी थी। यह होन्नेयरस Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन-शिलालेख-संग्रह (अपर नाम होम पोन ) कदम्ब-कुलका प्रकाश, तथा गङ्ग-वंशमें उत्पन हुआ था। उस और अलिया-देवीसे जयकेशी-देव उत्पन्न हुये थे और उन्होंने सेतुमें चिन मन्दिर बनवाया था। तथा विज्जल देवीकी पुत्री अलिया-देवीने, (उक्त मितिको ), होन्नेयरसके साथ, इस मन्दिरके लिये ( उक्त ) भूमियोंका दान दिया। यह दान दो "सिवने" का था। यह दान उन्होंने मूलसंघ, काणर-गण तथा तिन्त्रिणि-गच्छके भानुकीर्ति-सिद्धान्त-देवके, जो बन्दनिके तीर्थके आचार्य थे, पाद-प्रक्षालनपूर्वक किया गया था। हमेशाका अन्तिम श्लोक ।] [EC. VIII, Sagar Tl., No. 150-] पालनपुर-संस्कृत तथा गुजराती । [सं० १२१७ = ११६० ई.] श्वेताम्बर सम्प्रदायका लेख। |EI, II, No. V, No. 10 ( P. 28), T. L, A.] ३५१ कबलो-संस्कृत तथा काड़ । झक १०८२-१६० ई. [काळी ( सकेपटण परगना ) में पुराने गांवकी जगह पर एक पाषाणपर] श्रीमत्परमगंभीरस्षाद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द-महामण्डलेश्वरम् द्वारावतोपुरवराधीश्वरम् । शशाकपुर-नि [वास वासन्तिका-देवी-लब्ध वर-प्रसादनम् । निवासि-दण्ड-खण्डित-प्रचण्ड-दायादनुम् । श्वेतातपत्र-शीतकिरण-विकसित-सफळ-जन-नयन-कुकळयन। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • कबलीके लेख निज-भुन-भुबंगराम-सन्धारित-वसुन्धरा-वळयनुम् । यदु-कुल-कमल-कमलिनी-कमनीय-तरुण-तरणियुम् । सम्यक्त्व-चूड़ामणियं । कनक-धारा-वर्ष-परिपूरित-सकळ-याचक-चातक-चक्रवालवच्छननुं । शार्दूल-लाञ्छननुम् । हर-हसित-विशाद-कीर्ति-वर्तित-ब्रह्माण्ड । मलेपरोट् गण्डन । मद-मुदित-मधुकर-निकुरम्ब-चुम्बित-कट-तट-विराजमान-सामनसमाजनुम् । मले-राज-राजनुम् । लक्ष्मीरमण-रमणीय-चरण-सरसिरह-संचरण-चतुर- . षट्चरणनुम् । निज-विजय-राज्य-राज-लक्ष्मी-मणिमयाभरणनुम् । सु-कवि-शुक्ति संकथाकर्णनोदीण-पुलक-दन्तुरित-कपोळफळकनुम् । नीसि-नितम्बिनी-ललाट-तिळक: नुम् । सु-रुचिर-चरण-नरवर-मणि-दर्पण-प्रतिळिल-विनत-रिपु-नृपोत्तमांगनुव् । अन्तु पोगळ्तेगं नेगळ्तेगं जन्म-भूमियागि । मददि मेलेत्तिदा-माळवन पदकमं कोण्डवं चक्रकूटम् । बेदरल बेङ्कोण्डु सोमेश्वरन करिगळं कोण्डवं माण्बने पेळदुदनेम्बो गेटवुदिल्लेन्ददिगननुरे बेडोण्डु कोण्डं जय-श्री-1 सदनं तद्देशमं तत्-तळवन-पुरमं निष्ण-विष्णु-क्षितीशम् ।। तळकाडोल सुकिदाडि तुङ्ग-नगवप्प उच्चगियं साईनाकुळ-चित्तं बनवासेयागे नडेदापि बेळवलं गोन्डु निशचलितं पेहोरेगेम् स-तोषदोसेदा-हानुङ्गलोदत्तु होय -1 सळ-भूपालन शौर्य-सिंहवसुहृद्-भूपर भयङ्कोळिवनं ॥ अन्तेनिसिदाश्चर्य-शौर्यदि कोङ्गु-नङ्गलि-गङ्गवाडि-नोणम्बवाडि-बनवासे-हानगल्लु-हलसिगे-बेळवलवोळगागि कञ्चियादि-यागि हेड्डोरे-पर्यन्तवाद स... सगळं दुष्ट-निग्रह-शिष्ट-प्रतिपाळनं माडि भुज-बल वीर-गङ्ग त्रिभुवनमल होसळविणुवर्धन-देव... ........... राजधानि-दोर-समुद्रदोळ सुख-संकथा-विनोददि राज्य गेय्युत्तमिरे तत्पादपद्मोपनीवि । सरसति निनगिनितु कळा-। परिणते नेगळ्वजितसेन महारकरिम् । दोरेवेत्तु देवियाद्विर् - पिरियतनं निनदल्तुदवर महत्वम् । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह सले सन्दा-योग्यतेय-अगलिसिद दुर्द्धर-तपो-विभूतिय पेन्बिम् । . कलि-युग-गणधररेम्बुदु । नेळनेळ्ळ मलिषण-भलधारिगळम् ॥ आवनविषयमो पटु-त-। र्काविळ-बहु-भंगि-संगतश्रीपाल। विद्य-गद्य-पद्य-व-। चो-विन्यास निसर्ग-विजय-विळासं ॥ आळापं बेड माण मार-मलेयदिरेले नी वाडि बन्दिपं भू-। पाळोद्यद-मौळि-माला-विळसित [............1 पदाम्भोज-युग्मम् । चोळ-क्षत्रादि-भूभृत्-सभेयोळु पलरं गेल्दु बेङ्कोण्डनी-श्रीपाल-त्रैविध देव पर-मत-कुधरानीक-दम्भोळि-दण्डम् ॥ जिन-धर्माम्बर-तिग्म- रोचि सु-चरित्रं भव्य-नी रेज-नन् । दन-मित्रं मद-मान-माय-विजितं चन्द्रप्रभेन्द्रात्मजम् । विनयाम्भोनिधि-वद्धनं जन-नुतं तानेन्दु संवर्णिसळ् । मुनि-नार्थ सळे वासुपूज्यनेसेदं सिद्धान्त-रत्नाकरम् ।। श्री-भूतबळि-पुष्पदन्त-भट्टारकरि । समन्तभद्र-स्वामिगछिन्दकलंकदेवरिम् । पक्रप्रोवाचायरिम् । वज्रणन्दि भट्टारकरि कनकसेन-वादिराज-देवरि । श्री-विजय-महारकरिं । दयापाळ-भट्टारकरि । श्री-वादिराजदेवरिन्द् । अजितसेन-भद्वारकरि । मल्लिषण-मलधारि-स्वामिगळि । श्रीपाल विद्य-देवरिम् । श्री-वासुपूज्य-सिद्धान्त-देवरिम् । उत्तरोत्तरमागि बन्द श्रीमद्रविळ - संघदरुङ्गळान्वयद गुड्डररुप भीमतु-नारसिंघ-होयखळगाण्डम् ॥ पदनरिदासे दप्पिसदे बेल्पर बेळ पुदनित्तु सद्गुणा- । स्पदनेनिसल्के निन्न पेसरेम् गळ होयसळ-गौण्डनेम्वुदे । ["] शिबियेम्वुदे रवचर-नायकनेम्बुदे चारुदत्तनेम्-। बुदे बलियेम्बुदे रवितनूभवनेम्बुदे गुत्तनेम्बुदे ॥ जिनपति-भक्तियान्त पति-भक्तिवुदारते शक्ति सजन-। ["] कृत-युक्तियय्दे गुणवरदे-गुणङ्गळनावगं पोग-। ल्दनवरतं निमि तिरे होयसळ-गौण्डिन चित्त-वार्षिवर Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेरेकेरी के लेख द्धन-कर-चन्द्र-लक्ष्मियेने बण्णिसलोप्पदे केळ्ळेगोण्डियम् ॥ कुल- धात्री धर-धैर्य्यनब्धि वर - गाम्भीय्यै समस्तावनी- । वळय-व्यापित-चारु-कीर्त्ति वनिता - कामं गुण- स्तोमनुब्नळ-वाणी-स्तन-हारनर्थ्यतिशयाधारं करं पेम्पनिन्त् । एळेयोळ तादिदतो जगन्नुत-गुणं श्री-कदम्ब-शेट्टि - प्रभु ॥ आतन चित्त- प्रिये वि- । ख्यातियनान्तद्रसुतेगमम्बुधि-सुतेगम् । सीता-वधुगं रतिगव- । देतेरदिं चट्ट्यिक्कन गळवे निपऴ् ॥ रतिगवरुन्धतिगं सर- सतिगं रेवतिगमेसेव पार्व्वतिगं श्री १२५ सतिगं समनेनिसि महा - । सति चट्टियक तोळगि बेळगि दळिळेयम् ॥ भावकनेन्दु सच्चरित्रनेन्दु समुन्नतनेन्दु सत्पुरुषनेन्दु समुज्ज्वळ - कीर्त्तियेन्दु सर्व्वावनि सन्ततं सले पो गळवुदु ननि-शेट्टियम् । लोक गावुण्ड माकवे गण्डगं हुट्टिद मगळु चट्टवे-गवुण्डिय मगं होय्सळ-गवुण्डं तम्मल्वेगे परोक्षवागि बसदियं माडिसिदम् । होयसळ - गवुण्डनुं ऊर समस्त प्रजे गावुण्डुगळु बिदुर्दु बसदिगं देवालयक्कं भूमि समानवागि बसदिगे उत्तरायण-संक्रमण व्यतीपातदन्दु अहोबल - पण्डित रिंगे कालं कच्चि धारा - पूर्वकं माडि कोट्ट गद्दे सलगे नालकु बेद्दले मत्तरु नाल्कु माने येरडु कळनोन्दु केरेय केळगण तोण्ट ओन्दु गाण ओन्दु || १०८२ नेय प्रमादि -संवत्सरद पोष्य- मास- उत्तरायण-संक्रान्ति व्यवीपातदन्दु- नारसिंह- होय्सल- देवर कय्यलु धारा- पूर्व्वकं माडिसि-कोण्डु बसदिगे भूमियं बिहरु || ( आगेकी चार पंक्तियोंमें हमेशा के अन्तिम श्लोक हैं ) कब्बळिय भूमि-पुत्रकरप्प गौडु - गळ पेसरं पेळवे ( कुछ नामोंके बाद ) समस्त प्रजे - येल्लविदुर्दु बसदिगे धारा- पूर्व्वकम्माडिदरु । इन्तिवरुभ्यानुमतदि बरेद नेल्कुदरेय-ऊरोडेय कलि- देवु माणि-वोज || [ बिन शासनकी प्रशंसा के बाद, विष्णुवर्द्धन के अनेक पद और उपाधियाँ । उसने मालवका केन्द्रीय नगर हस्तगत कर लिया; चक्रकूटको डराकर उसने सोमेश्वरके हाथियोंका पीछाकर उन्हें पकड़ लिया । अदिगका पीछा करके उसके देश तथा राजधानी तळवनपुरको अधिकृत कर लिया । इस राजाने तळकाडू, उच्चंग, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२॥ जैन-शिलालेख-संग्रह बनवासे, बेळवल, पेोरे और हानुजल सभी पर अधिकार जमाकर शत्रु-राषाओंमें भय उत्पन्न कर दिया। बब, भुज-बल वीर-गङ्ग त्रिभुवन मल्ल होय्सल विष्णुवर्धन-देव राजधानी दोरसमुद्रमें बैठकर शान्ति और बुद्धिमत्तासे रान चला रहा था : तत्पादपद्मोपजीवी,-अजितसेन-भट्टारक, मल्लिषेण-मलधारी (कलियुगी गणधर), श्रीपाल-विद्य-देव और चन्द्रप्रभके पुत्र मुनिनाथ वासुपूज्य-सिद्धान्त-देव थे। द्रमिल-संघके अरङ्गलान्वयका एक गृहस्थ-शिष्य नारसिंघ होसळगावुण्ड था। ( उसकी प्रशंसा )। उसकी पत्नी केल्ले-गौण्डि थी। कदम्ब-सेटिकी प्रशंसा, जिसकी पत्नी चट्टियक्क थी। नन्नि-सेटिटकी प्रशंसा । लोक-गवुण्ड और माकवेगवुण्डीकी पुत्री चट्टवे-गवुण्डीके पुत्र होय्सल-गवुण्डने अपनी माताकी स्मृतिम, एक बसदि खड़ी की, और उस नगरके समस्त प्रजा तथा किसानोंके सामने, ( उक्त कुछ भूमि बराबर-बराबर बसदि और मन्दिरको बांट दी । यह सब अहोबल-पण्डितके पाद-प्रदालनपूर्वक किया। और ( उक्त मितिको ) बसदिको वह सब भूमि दे दी जो उसे नारसिंह होय्सल-देवसे मिली थी। __ यह दोनों पार्टियोंकी सम्मतिसे नेल्कुदरेके प्रधान, कलिदेव-माणिवोचने लिखा [ EC, VI, Kadur, Tl., No., 69.] ३५२ पण्डितरहल्लि-संस्कृत तथा कबह । [विना काल-निर्देशका, पर लगभग ११६० ई० का] [पण्डितरहल्लि ( करडगेरे परगना ) में, मन्दरगिरि-जस्तिके प्राङ्गणमें एक पाषाण पर श्रीमत्परमगंभीर-स्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं निनशासनम् ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितरहल्लिके लेख नमो वीतरागाय । श्रीयं श्री-वक्षदोळ. सुस्थिरमेनिसि नगं बण्णिसल ताल्दि वीर-। श्रीयं दो-इंण्डदोळ सा (शा) स्वत (श्वत) मेने तळेदी-लोक-संस्तुत्य-वाणि । श्रीयं वक्त्राब्जदोळ वाग्-वरनेने मेरेदं यादवाम्नाय-राज्य-। श्रीयं स्वाङ्गीकृतं माडिद नृप-तिळकं नारसिंह-क्षितीशम् ॥ स्वस्ति समाधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलेश्वरं द्वारावती पर-वराधीश्वरं यादव-कुलाम्बर-धुमणि सम्यक्त्व-चूड़ामणि मलपरोळ-गण्डाद्यनेक नामावली-समालंकृतरम्प श्रीमत् ..."मल्ल तलकाडुकोङ्ग-नङ्गलि-बनबसे-उच्चलि-हानुङ्गल गोण्ड भुजबल वीर-गंग होयसळ-नारसिंह-देवरु श्रीमद्-राजधानि-दोरसमुद्रद नेलेवीडिनोळ सुख-संकथा-विनोददि राज्यं गेयुत्तमिरे त्तत्पादपद्मोपनीवि ॥ स्फुरदुरु-दीधिति-प्रकटितोन-भुज "विळासि-दुरघरतर-विक्रम-क्रमदोळादतिवर्तियेनल्के सन्दनी-। घरे पोगळल्के रूढिये "चमूपति-रत्नना-नृपे- । श्वरन नेगळते-वेत्त मनेगं मोनेगं नेगळदेक-मुख्यदिम् ॥ एरगदराति-राय'... 'परजोकेयप्पिनम् । किरिपि भुजासियं जसमनेण-देसेयानेय गोम्बिनोळ । • निरिसि समग्र-साहसमनी-धरयोळ् मेरेयुत्तमिर्प हेर्- । अरिकेय दण्डनाथनेरेयङ्गनेनल नेगल्दं धरित्रियोळ ॥ [स् ] वस्ति श्रीमन्महा-प्रधानं सर्वाधिकारि सेनापति-दण्डनायक एरेयङ्गमय्याळ पाद पद्मोपजीवि॥ स्थिरमेने गोत्र-मित्र-विबुधाश्रय' "मं निमिचि बन्- । धुर-महिमोन्नतिक्केगेडे यागिकरं चेलुवागि भूभृद्-उद्-। धुर-लकुमी-प्रधाननेसेदिभिमान-मन्दरम् । पिरिदेनिसिदनोश्खर-चम्पति मन्दरदिं निरन्तरम् ॥ मनिपनेन्न निन्न "नेगल्दिम्मडि-दण्डनाथनोल्द् । एन्नेय भाव नान् निनगे मावनेनेन्तुमवश्य-पोष्य." Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह • नदे सन्दविक्रमदळुक्यगुब्बिनोळाळदनीश्वरम् । .. .. तन्नदविन्दवादं परेय - चमूपन चित्त वृत्तियम् ॥ मत्तमा- प्रधान- चूडारत्नन विषयाधिकारि• • • नेगल्तेय पोगल्तेयं पेळवडे । करेag कामधेनुवेने धेनु पोलं सले पनि धान्यमम् । नेरदळर्दर्घमुमळतेयुं पिरिदादुददेन्तु नोळपडम् । तेरे विपरीतवित नुडियोळ्तो दळिल्लेन • "श्वरम् । मल-मण्णे- तेङ्गरे-ने गळतेय- कल्वळियेम्ब नाळू गळम् ॥ कन्दिरे मुं चिरन्तनर जीणें- जिनालयं मोद - गोण्डु निरन्तरं मेरेये माडिसि रूढ़ियनीतनन्ते कम्कोण्डवनावनीश्वरने धर्म-गुणोन्नतनानि भूमण्डलमावगं स - फलमादुदेवं द्विज-वंश-मण्डनम् ॥ आ - महानुभावन सति । लावण्याम्भोधिय वे । ला-वन-वन -लते - सुधाब्धि-संभव-लक्ष्मी | देवतेयेन सुवल ईश्वर - | देवन वधु माचियक्कन बळात्नम् ॥ आ-पुण्यवतयन्वय- प्रभावमेन्तेन्दडे || श्रीगे निवासबागि पेसर- वेत्त नेगळ्तेय नाकि सेट्टिगम् नागवे तनूभवनगुर्विन सोहणि विट्टिगाङ्गनाभोग- पुरन्दरङ्गे सति चन्द्रवे तत्सुते माचियक्कनेन्द् । आगळ मक्करिं विबुध-मण्डलि बण्णिसलोप्पि तोरिदळ ॥ निरुपम - कीर्त्तियं तळेदु मेम्गे ताय् - मनेयागि सत्-कळा-1 घर- मुखियाद चन्द्रदेगे पेर-म्मगळागि समस्त-लोकमम् । पोरेदनमोघनीश्वरनोळिर्देनुतुं तरुणी - विलासमम् । धरियिसि पुट्टिदळू लकुमि देविये माचवेयेम्न नामदिम् ॥ द्विगुणिसुतिप्पुंदाद दर -हास - विळास - नवीन - चन्द्रिका- । प्रगुणगुणङ्गळिं कुवळयक्के विळासमनेन्दोंडुद्ध-ली- । लीगे नेलेयाद माचलेयनून - लसद्-दनेन्दु 5-1 १२८ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पण्डितरह ल्लिके लेख दिगे नेगळिदन्दु-मण्डल दोळि कळमनीगलागुमे ॥ कळ नसलो रे... .......। जल्पर मातिरखि पोलरीश्वरनेम्बी-1 कळूर-महीमनप्पिद | कल्प- लता - ललिते "माचिपक परमाप्तं जिननासनिन्तु जनकं श्री - विङिगाङ्कं गुणो-1 रतन चन्दकब्बे येनिसिद्द - माचियक सद्-1 गुरुगळ् पोस्तक-गच्छ देशिय-गण-श्रीकोण्ड कुन्दान्वयो -1 द्धरणर् ग्गण्डविमुक्त-देब - मुनिवर श्री-मूल- सङ्घोत्तमर् ॥ अन्तनून-गुण-रत्न-मण्डनेमुं चातुर वर्ण समुदयैक- शरणेयुमेनिसि नेगल्द श्रीमत्पेर-गडिति माचियक्कं श्री-मय्दवोळत दिव्य-तीर्थदोळ् सत्-धम्र्म्मापंचेयिम् । दुशित विमान । नाडेयु मिगिलेनिसि नेगळ्द जिन-मन्दिरमं । कूडे घरे पोगळे माचवे । माडिसिदलगण्य- पुण्य- युवती रत्न ॥ अन्तु माडिमि || श्रा-बधु-माचवे सले प- । द्मावतिगेरेयेम्ब केरेय कट्टिसि कोट्टळ् । भाविसे बसदिगे तन्न य । शो-वधु दिग्-वधुगळोडने नलिदाडुविनम् || मत्तमा-तीर्थद बसदिय देवरिगे मुन्न नडेव वृत्तिय सीमा -सम्बन्धमेन्तेन्दडे ( यहाँ दानकी विशेष विगत आती है ) मङ्गळ महा श्री । ( वही अन्तिम श्लोक ).... [ बिन-शासनकी प्रशंसा । जब भुजबळ वोर- गङ्ग होयसळ नारसिंह- देव, शान्ति और बुद्धिमत्तासे शासन करते हुए, राजधानी दोरसमुद्र में विराजमान थे :- तत्पादपद्मोपजीवी, - ( प्रशंसा सहित ) दण्डनाथ - एरेयङ्ग था । दण्डनायक - एरेयङ्गमय्यका पादोपजीवी ईश्वरचम्पति था । वे दोनों आपसमें श्वसुर और दामाद थे । ( उनकी प्रशंसायें ), और उसने जिनालयकी मरम्मत करवायी थी । उसकी ( ईश्वर चमूपतिकी ) पत्नी माचिक थी, जो नाकि-सेट्टि और नागवेके पुत्र साहणि-बिट्टिगके चन्दवेकी ज्येष्ठ पुत्री थी; उसकी प्रशंसायें । जिनपति उसके इष्टदेव, पिता ब्रिट्टिग, माँ चन्दिकन्बे थीं । माचियक के गुरु पुस्तक-गच्छ, देशिय गण, कोण्डकुन्दान्वय तथा मूलसंघ के गण्डविमुक्त-देव-मुनि थे । Ε Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह ३६७ अगाडि-कचड़ भग्न । वर्ष तारण [ = ११६४ ई० (लू० राइस)।] [अङ्गडि ( गोणीवीडु परगना ) में, पाँचवें पाषाणपर ] ... ... ... ... ... .. श्री स्वस्ति समस्त-भुवनाश्रयं श्री-पृथ्वी वल्लभं महाराजाधिराज परमेश्वरं परम-भट्टारकं यादवकुलाम्बर-बुमणि सम्यक्त्व-चूड़ामणि मलेराज-राज मलेपरोळ गण्ड गण्ड-भरुण्ड कदन-प्रचण्डन सहाय-शूर सनिवार-सिद्धि गिरि-दुर्ग-मल्ल चलदङ्काम... ... ... ... ... ...'वीर-विजय नारसिंहदेखनुम् ॥ तारण-संवत्सरद चैत्र-सुद्ध.............. ''अन्दु सोसेवर पट्टणसामि नागि-शेटिटय... ... ... ... .."मय्यतुं... ... ... ... ... माडिद बसदि इदके कोट'. ... ... ... .. ..बिट्ट दत्ति । [(अपनी उपाधियों सहित ) वीर-विजय-नरसिंह-देवने ( उक्त मितिको ) उस 'बसदि' के लिये जिसे सोसवूर के 'पट्टण-सामि' नाग सेट्टि [ के पुत्र ]....." मय्यने बनवायी यां, दान दिया।] [ EC, VI, Mudgere tl., no 15.] ३६८ गिरनार-संस्कृत। -[शक १२१२-११६५ ई० - यह लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका मालूम पड़ता है। [ Revised Lists art. rem. Bombay ( ASI, XVI), p. 369, 20 27, t. and tr.] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरनारके लेख ३६६ गिरनार-संस्कृत। [सं० १२२३ % ११६६ ई.] नं० ३६८ के अन्तका लेख है । उसीका अन्तिम भाग है । [op. cit. p. 369, 20 30, tand tr.] ३७० बवागञ्ज ( मालवा);-संस्कृत । [सं० १२२३% १६६ ई.] मन्दिरके पूर्वकी ओर यस्य स्वब्जतुषारकुन्दविशदा कीर्तिर्गुणानां निधि: श्रीमान् भूपति वृन्दवन्दितपदः श्रीरामचन्द्रो मुनिः। विश्वमाभृदखर्वशेखरशिखा सञ्चारिणी हारिणी उर्व्या शत्रुजितो जिनस्य भवनव्याजेन विस्फूर्जति ॥१॥ रामचन्द्रमुनेः कीर्तिः सङ्कीर्ण भुवनं किल । अनेकलोकसङ्घर्षाद् गता सवितुरन्तिकं ॥ . संघत् १२२३ वर्षे भाद्रपदवदि १४ शुक्रवार । लेख स्पष्ट है। [.JASB, XVIII, p. 950-952, no 1. t and tr.] बवागञ्ज मालवा; संस्कृत । [सं० १२२३ = १६६ ई.]] मन्दिरके दक्षिणकी ओर। ॐ नमो वीतरागाय ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह आसीद्यः कलिकालकल्मषक रिध्वंसैककंठीरवो वेनक्ष्मापतिमौलिचुम्बितपदः यो लोकमन्दो मुनिः शिष्यस्तस्य ससर्वसङ्घतिलकः श्रीदेवनन्दोमुनिः धर्मशानतपोनिधिर्यंतिगुणग्रामः सुवाचां निधिः ||१|| वंशे तस्मिन् विपुलतपसां सम्मतः सत्त्वनिष्ठो वृत्ति पापां बिमलमनसा त्यज्यविद्याविवेकः । रम्यं हर्म्य सुरपतिचितः कारितं येन विद्या शेषा कीर्त्तिर्भ्रमति भुवने रामचन्द्रः स एषः || संवत् १२२३ वर्षे | स्पष्ट है। [JASB, XVIII,p. 951-952, no 2, t. and tr. ·} ३७२ कम्बदहल्लि - कन्नड़ । [ शक १०८६=११६७ ई० ] [ कम्बदहल्लि ( बिण्डिगनबले प्रदेश ) में, जैन बस्तिके रङ्ग-मण्डपमें ] स्वस्ति श्रीयुतमूलसंघमदु तां शङ्घ गणं देसियम् । पोस्थत्र गच्छ मदन्त्रयं बेळे समं तां कोण्डकुन्दान्वयम् | भू-स्तुत्यं इनसोगे-दिव्य-मुनिगं पादार्चनक्कं कळाभ्यस्तरणं नि-शवर्गभिदु तां श्री पार्श्व-दान-स्थळम् ॥ घरे तन्नं बणिस बिण्डिगनबिलेयोळ् आ-नेम-दण्डेश- दिक्-कुञ्मरनय्यं पेट्ट- तायू मुद्दरसि विमळ - गङ्गान्वय-ख्यातेयागल् । दोरे वेत्ती- पार्श्व-देव- प्रभु कलि-युग - भीमाई - गेहादि - जीर्णोद्धरणं गेय्दावगं सोभिसे सीधे-वेसनं गय्सिदं पुण्य- पुञ्ज ॥ सले देव क्षेत्रदोळ् बिण्डिगन विलेयो पित्तु-नाल-कण्डुगं नीरगेलनन्तव्यत्तरं बेदलेयनति-गळं नम-मन्त्रीश- पुत्रम् । • Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्बदहल्लिके लेख १४५ कुलकं तां पार्व-देवं सले कलि-युग-भोमाई-सत्-पूजेगोल्दीये लसवंश्यङ्गे दिव्य-बाते-समितिगे विद्यार्थिगुत्साहदित्तम् ॥ शक-वर्ष १०८६ त्तेनेय सवजितु-संवत्सरद माघ ०५ शुक्रवार. दन्दु पाश्व-देव चतुर्विध-दानके बिट्ट दत्ति ।।। यही स्थान है जो पार्श्वने श्री मूलसंघ देशिय-गण, पोस्तक गच्छ और कोण्डकन्दान्वयके हनसोगेके दिव्य मुनिके चरणोंकी पूजाके लिये. विद्वानोंके लिये तथा निववंशजोंके लिये दिया था। पार्श्वदेव-प्रभुने,-जिनके पिता नेम-दण्डेश ये और माता मुहरसि थीं जो विमल गङ्ग वंशमें प्रख्यात थी,-विण्डिगनविलेके जैन मन्दिरको सुधरवाया, और उसके लिये कुछ जमीन अपने वंशों के लिये, दिव्य व्रतियों के लिये, और विद्यार्थियोंके उपयोगके लिये दी।] [ EC, IV, Nagmangala TI. No. 20 ] ___३७३ बन्दूर-संस्कृत और कबद [शक.६०%81६८ ई.] [बन्दूर (जावगल्लु परगने) में, जैन-बस्तिके स्वरूपर एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। जयति सकळविद्यादेवतारत्नपीठं हृदयमनुपलेपं यस्य दीग्घे स देवः। जयति तदनु शास्त्रं तस्य यत् सर्व-मिथ्यासमय-तिमिर-हारि ज्योतिरेकं नराणाम् ।। श्रीकान्तयंदु-कुळरत्नाकरदोळ कौस्तुभादिगळ बोल पललं । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह लोकोपकार-परिणत-। रेकीकृत-सकल-राज-गुणरप्पिनेगम् । सळनेम्बनागे यादव-। कुळदोळ पुलि पायै कण्डु मुनि पुलिय पोय । सळ एने पोटदुदरि पोय-। सळ-वेसरबनिन्दवागे तदंशजरोळ ।। विनयं प्रतापमेम्बी-1 जननायोचित-चरित्र-युगदिं जगमं । जन-नयनबेनिसि नेगळ्टं। विनयादित्यं समस्त-भुवन-स्तुत्यम् ।। आतङ्गति-महिमं हिम। सेतु-समाख्यात-कीर्ति सन्मूर्ति-मनोजातं मर्दित-रिपु-नृप- । जातं तनुजातनाटनेरेयक-नृपम् । बल्लिदरवनीपतिगळो-1 ळेल्लं धर्मार्थ-काम-सिद्धि-वोलवनी-। वल्लभरातन तनयर् । आहाळं विहि-देवनुदयादित्यम् ॥ मूवररसुगळोळे तां। भाविसे मध्यमनदागियुं नृप-गुण-सद्-। भावदिनुत्तमनादम् । भावि-भवद्-भूत-निष्णु विष्णु नृपालम् ॥ मलेयं साधिसि माण्डने तळवनं काञ्ची-पुरं कोयतूर। म्मले नाडा-तुळुनाडु नीलगिरिया-कोळालवा-कोन गलियुच्चंगि-विराट-राज-नगरं वल्लूरिवेल्लं भुजा-।। बलदि लीलेये साध्यवादुदेणेयार् विष्ण-क्षमापाळनोळ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दूरके लेख अन्तेनिसिद विष्णु मही- । कान्तन तनयं नयानुरूपोपायम् । सन्तत - भुज- प्रतापा- 1 क्रान्त परं नारसिंनाहव-सिंहम् ॥ आनारसिंह नृपतिय । मानस-कळ-हंसे पट्ट-माडेविगे-धा- | त्री-नुतेगेचल- देविगे । नाना-गुण-गद कणिगे चिन्तामणिवोल, ॥ सकळ कळा - परिपूर्ण । १४७ सकळो नयन-सुख- दन- कळङ्कं तान् । अ- कुळिनपूर्ण्य - नव-सी-| करं बल्लाळ - देवनुदयं गेय्दम् || विनय-श्री-निधियं विवेक निधियं ब्रह्मण्यनं पूर्ण-पु- । ण्यननुद्दाम-यशोत्थियं जित-जगत्-प्रत्यत्थियं सर्व-सन्- । जन-संस्तुत्यननुद्भव - वितरण श्री विक्रमादित्यनं । मनुजेश र् मलेरान - राजननदेम्बल्लाळनं पोल्वरे ॥ स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महामण्डलेश्वरं । द्वारावतोपुरवराधीश्वरम् । यादवान्वय-सुधा-वार्धि-वर्द्धन - माकर - सान्द्र चन्दरम् | विभवाधरीकृतामरेन्द्रम् । वासन्तिका देवी - लब्ध-वर प्रसादम् । विरचित - वीर वितरण -विनोदम् । रिपु-राजकदली- षण्ड-खण्डन- प्रचण्ड-मद-वेदण्ड । मलपरोळ्- गण्ड-मण्डळिक-गिरि-वा-दण्ड | गण्ड- भेरुण्ड । रण-रंग-घीर । जगदेक- वीरक्क- नामादि- समस्त - प्रशस्ति सहितम् । तळकाडु-को-नङ्गलि - गङ्गवाडि-नोळम्बवाडि - हुळिगेरे - हलसिंगे - बनवसे- हानुङ्गल् गोण्ड भुज-बल वीर - गङ्ग- प्रताप होयसळ बल्लाळ-देवं दोरसमुद्रद नेलेवीडिनोळ् सुख-संकथा - विनोददिं राज्यं गेय्युत्त मिरे तदन्वय-गुरु-कुळ-क्रममदेन्तेने । श्रीमद्-द्रमिक सङ्घेऽस्मिम्म न्दि संघेऽस्य यङ्गळः । - अन्वयो भाति योऽशेष-शास्त्र- वारासि पारगैः ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह श्री-वर्द्धमान-स्वामिगळ धर्मतीर्थ प्रवर्तिसुल्लि गणधर रनिसिद गौतम स्वामिगळिन्दं । भद्रबाहुभट्टारकरिन्दं भूतबळि-पुष्पदन्त-स्वामिगलिन्दम् एकसन्धि-सुमति-भट्टारकरिन्दम् । समन्तभद्रस्वामिर्गाळन्दम् । भट्टाकलंकदेवरिन्दम् । चक्रग्रीवाचार्यरिन्दं । वज्रन्दि-भट्टारकारन्दम् । सिह जन्याचारिन्दम् । पर-वादिमल्ल-श्रीपाळ-देवरिन्दम् । कमकसेन-श्रीवादिराजरिन्दम् । श्रो-बिजय-देवरिन्दम् । श्री-वादिराज-देवरिन्दम् । अजितसेन-पण्डितदेवरिन्दम् । मल्लिषण-मळधारि-स्वामिर्गाळन्दनन्तरम् । तमगाशा-वशमादुदुन्नत-महीभृत्-कोटि तम्मिन्दे बिण्य । अमर्दत्ती-धरेगेरदे तम्म मुखदोळ पट्-तर्क-वाराशि-वि-। भ्रममापोषन-मात्रमादुदेनलिं मातेनगरत्य-प्रभा-। वमुमं कीळपासित्तु पेम्पिनेसकं श्रीपाल-योगोन्द्ररं ॥ अवरम-शिष्यर ।। श्रीपाळ-त्रैविध-विद्या-पति-पद-कमलाराधना-लब्ध-बुद्धिः । सिद्धान्ताम्भोनिधान-प्रविसरदमृतास्वाद-पुष्ट-प्रमोदः। दीक्षा-शिक्षा-सु-रक्षा-कम-कृति-निपुणः सन्ततं भव्य-सेव्यः । सोऽयं दाक्षिण्य मूत्तिजगति विजयते वासुपूज्य-व्रतीन्द्रः॥ अवर गुडडुगळू रत्न-त्रय-समनितर्ष"देवनातन वधु सावियकम् ॥ अवर्गे तनूभवं जित-मनोभव-रूप-नपार-पौरुषम् । विविध-कळा-विळास-भवनं प्रभु बेळ्ळिय-दासि-सेट्टि भू-। भुवनमनेटदे राक्षसुव दानद-धर्मद पेम्पिनि सुधा-। पर्णवदेणेयप्प कीत्तियनुपाबिसिदं विबुधैक-बान्धवम् ।। पडेवं सद्-धर्म-मर्यादेयोळे परदु-गेयदर्थमं न्यायदिन्दम् । . पडेदस्य देवता-पूजेगे बसदिगे शिष्टेष्ट-दानक्के निश्चम् । कुडे मत्तं तम भाग्यं तव-निधियेने नीळदुमि कैगण्मे पेम्पम् । पडेदं देसं वियन्मण्डप-कळित-यश:-कल्पवल्ली-विलासम् ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दूरके लेख । आतन सति बोकियक ॥ अवर सोदरळियन्दिर् हेगडे मादिराजनुं संकर-- सेटियां ॥ आ-बेल्लिय-दासि-सेटि दोरसमुद्रदल माडिसिद होयसळ-जिनालयक्के बिट्ट बन्दबुरदल्लि माडिराजनुं सङ्कर-सेट्टियं माडिसिद पार्च-देवर्मो बसदियं पुष्पसेन-देवाडिसिदरादेवरष्ट-विधार्चनेगं ऋषिगळाहारदानक्कं बीर्णोद्धारकवागि वासुपूज्य-सिद्धान्त-देवरु अवर शिष्य पुष्पसेन-देव माडिराजनुं संकर-सेट्टियं समस्त-प्रजे-गावुण्डुगळं सरागदिन्दा-चन्द्राक्कं नडेवन्तागि शक-वर्ष १०९० त्तोन्दनेय सधारि-स्वत्सरदुत्तरायण-संक्रमण-ग्रहण-व्यतीपातदन्दु धारा-पूर्वकं बिट्ट तळ-वृत्ति ॥ (आगे की ६ पंक्तियोंमें दानकी विशेष चर्चा है ) सुङ्कद हेगडेगळ बिट्ट नन्दा-दीविगेगे कै-गाण वोन्दु इन्तु वासुपूज्य-सिद्धान्त-देवतम्म शिष्य वृषभनाथ-पण्डितगिनितुवं धारा-पूर्व के कोट्टर ( वे ही अन्तिम वाक्यावयव और श्लोक) विद्य-देव-शिष्यम् । देवार्चन-दान-धर्म-निरतं सततम् । देवव्रत-परिशुद्धम् । भू-विदितं पुष्पसेन मुनि-जन-विनुतम् ।। [ सर्व प्रथम जिन शासनकी प्रशंसामें दो श्लोक है। पहलेकी ही तरह होयसल राजाओंकी उन्नतिका वर्णन । विष्णुके विषयमें कहा गया है,-मलेको अधीन करके क्या वह चुप रहा १ तळवन, काञ्चीपुर, कोयटूर, मलेनाड, तुळुनाड , नीलगिरि, कोळाळ, कोड, नाल, उच्चंगि, विराट्-राजा का नगर, वल्लर,-इन सबको अपने भुजाबलसे, लीलामात्रमें जीत लिया। जिस समय ( अपनी सर्व उपाधियों सहित ), होय्सल बल्लाल-देव दोरसमुद्रमें निवास कर रहे थे:-उसके 'गुरुकुल' को परम्परा निम्नभांति थी: द्रमिलसंघान्तर्गत नन्दिसंघमें एक अरुङ्गळ-अन्वय है, उसमें बड़े-बड़े शास्त्रपारग विद्वान् आचार्य हो गये हैं। वर्धमान स्वामीके तीर्थमें क्रमसे इन लोगोंके द्वारा धर्मतीर्थका विकास हुआ,-गणधर गौतम स्वामी, भद्रवाहु-भट्टारक, भूतबलि Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह और पुष्पदन्त-स्वामी, एसन्धि सुमति-भट्टारक, समन्तमंद स्वामी, भट्टाकलंक-देव मीवाचार्य, वनन्दि-भट्टारक, सिंहनंद्याचार्य, परवादि-मल्ल भीपाल-देव, कमकसेन भी वादिराज, श्री-विनय-देव, श्री-बादिराज-देव, अजितसेन-पण्डित-देव, और मल्लिषेण-मलधारि-स्वामिः तदनन्तर श्रीपाल-योगीन्द्र हुए (इनकी प्रशंसा)। इनके मुख्य शिष्य बासुपूज्य-बतीन्द्र हुए ( इनकी प्रशंसा )। इनके गृहस्थ-शिप्य, रत्नत्रयके समान, ब 'देव, उसकी पत्नी सावियक, और इनका पुत्र ( प्रशंसा पूर्वक ) वेल्लिमें दासि-सेटि थे। इसकी पत्नी बोकियक थी . इन दोनोंकी बहिनके लड़के हेगड़े मादिरान तथा संकर-सेटि थे। ___ बन्दवुरमें मादिराज और संक-सेटिने पार्श्व-देवके लिये एक मन्दिरका निर्माण कराया, और पुष्पसेन-देवने पार्श्व-देवकी मूर्ति बनवावी । उन देवकी अष्टविध पूजनके लिये, मुनियोको आहार देनेके लिये, तथा मन्दिरकी मरम्मत के लिये,वासुपूज्य सिद्धन्ति-देव, उनके शिष्य पुष्पसेन देव, मादिराज, संकर-सेट्टि, तर. सभी प्रषा और किसानोंने ( उक्त मिति को) ग्रहण के समय, ३३ बिलस्तके एक डण्डेसे नापकर भूमि-टान किया ( भूमिका वर्णन)। 'मुङ्क' (या चुङ्गी )के हेगडेने हमेशा जलनेके लिये एक हाथकी तेलकी चक्की दी। इस तरह यह सब वासुपूज्य-सिद्धान्त-देवने अपने शिप्य वृषभनाथ-पण्डितको सौंप दिया । हमेशाकी तरह अन्तिम श्लोक । पुष्पसेन-मुनिकी प्रशंसा । ] [ EC. V, Arsikere Tl., No. 1. ] ३७४ बिजोली;-संसहत । [सं० १९९९% ११.० ई.] लेख श्वेताम्बर सम्प्रदाय का मालूम होता है। [JASB, LV,p.21-32, Trp. 40-48, 0.] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ निर्देश वहीं, परभव मग १०० ई. (ल. राइस)] [समछि (हदिवार प्रदेश) में, चाकेशपके मन्दिरकी दीवा-सम्मके आपर] ... ... ... अति पूजित-यति बर्द्धमान अपश्चिम-तीर्थनाथ ‘भमान्मना दिश... .. पततं......... श्रीमदमिल-संघेऽस्मिन्नन्दिसंघेऽस्यहङ्गलः। अन्वयो माति निस्शेष-शाल चाराशि-पागैः॥ (दूसरी तरफ़ )........... अजितसेन-देव-मुनिपो ह्याचार्यतां प्राप्तवान् । [इस लेखमें द्रमिलसंघान्तर्गत नन्दिसंघके अरुङ्गल अन्वयकी तारीफ है। इस अन्वयमें प्रायः सभी आचार्य या मुनि 'निश्शेष-शास्त्र-वाराशि-पारग थे।....... मनिवसेन-देव मुनिने आचार्य पदवी प्राप्त की।] जि [EO, III, Nanjangud TI., No. 138. ] सुनोगेरी-संस्कृत [विना कार-निर्देशका, पर संभवत: लगभग 1.ई.(१)] [हुमीगेरीपुर (रेगुन्डी तालुक) में, बसन मन्दिर के सामनेके स्तम्म पर) श्रीम... .."सर्व ने .. सायया मतेय मण्डद्या... ...नित्य पूजाण आसीत् संयमिना पृथ्व्यां होमेनान्यन्महातपः । तच्छंशिना शील-स्तम्भो जिनचन्द्रेण निर्मितः ॥ [इस पृथ्वी पर पशु-यज्ञके सिवाय संयमीके द्वारा प्रत्येक महातप विद्यमान था; इसी बातको सर्वविदित करानेके लिये जिनचन्द्रने यह पाषाण-स्तम्भ खन किया था।] [EC, III, Kandya., Ti., No. 34. ] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર जैन - शिलालेख संग्रह ३७७ तेबरतेप्प-संस्कृत तथा क 1101 f [ ठेवलेपमें वीरभद्र मन्दिरके सामनेके पाकाणंपर ] $ श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोघलानम् । यात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन - शासनम् ॥ सागर-वारि-वेष्टित समस्त घरा-रमणी - घन-स्तना- | भोग विदेम्बिनं विदित- विस्तृत - सारताराम हारदिम् । नागरखण्ड - पत्र-परिवेष्टन्दिम् जन-नेत्र-पुत्रिका । रागमनत्तु माणू दुदे मनस्-सुख-दं बनवासि मण्डळम् ॥ बळसिद नन्दनावळिगळ शुक-सङ्कुळदि पिकाळियिम् । बळेदेरगिई शाळि - वनदिं भ्रमराळियिनिक्षु वाटियिम् । तिळगोळदि लता - भवनदिं कमळाकरदिं कुमुद्वती- । कुळदिनिम् मनङ्गोळिपुदो सततं बनवासि मण्डळम् ॥ अदनाळ्नखिळ-रिपुनृप- । मद-मद्देननस्थिगमं पदेदीवम् । पद - नत-रक्षा-दक्षम् । विदित-यशं सोवि-देव-भूतळनाथ ॥ आ- कादम्ब - कुळ-तिळकन विक्रम- प्रक्रमवेन्तेन्दडे || अदम्य के बीरहिदनुछिदु कुम्बिक्के विद्विष्ट भूपर म्मद चिदिक्के शेषाक्षतमनो से वरोति के सर्व्वस्वमं व- । दिकं तदिक्के मारान्तवनिप-सतियर् कण्ण-नीरिक्के पूण्डिक्किदना - बङ्गाळव घात्रीपतिगे निगळवं सोवि-देव- क्षितीशं ॥ (क) | मदवदरातिथं तविसलग्गळ-गण्ण कडम्ब-रुद्रम्- | Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवर तप्प के लेख बुदे पेरू-मण्डळिक - गण्डर दावणियेम्बुदे दिटक्क । अदिग्दराति- मण्डलिक-भैरव नेम्बुदे सोवि-देवनेम्- । बुदे निगळं कमल - नृपनेम्बुदे सत्य-पताक नेम्बुदे ॥ क || पर-नृप-बन्धकने गण्- । डर दाणि कलिये मण्डळिक - भैरवनेम् । स्थिर - सत्य - वाक्यने हुसि - । वर शूलं सोवि-देवननुपम-भावम् ॥ नागरखण्डं बनवसे | आगिक्कुं भूषण- बलन्तदरोळांगम्- | बागि सले तेवरतेप्पम् । नाग - लता - पूग-त्रन दिन सदळवेसे गुम् ॥ आ-तेवरतेप्पदधिपति । भूतळपति सोषि देव-पद- युगळ-सरो- | जात-मद-मधुक ं वि- 1 ख्यात- यश बोप्प - गौण्डनाहव- शौण्ड || वृत्त || अमरेज्यं मन्त्रदोळ् शौचदोळमरनदीनं प्रना - पाळन-प्र- । क्रमदोळ् घर्म्मात्मत्वं सप्रभुतेयोळमळा जेक्षणं निश्चयं ताने मही-लोकाग्रदोळ गावण - कुळ - तिलकं बोप्प- गावुण्डनेन्देन्- | दुमनस्- सम्प्रीतित्रिणिपुदखिळ घरा-चक्रवानन्ददिन्दं ॥ आ-तेवरतेप्पदधिप- । ख्यातिय नानेननेननभिवण्णिसुवेम् । भूतमेताने बणिपुद् । ईतने गुणियेन्दु बोप- गौडनननिशम् ॥ आ - विभुविन सति लक्ष्मी- 1 देविगे सौभाग्य-भाग्य-लक्षण-गुण-खद्- | भावाकृतियिन्दं मेल् । સર Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन-शिलालेख संग्रह सिवान्ताम्भोनिषान-प्रविसरदमृतास्वादपुष्ट प्रमोदः । दीचा-शिदा-सुरक्षाक्रमकृविनिपुणस्सन्ततं भव्य-सेव्यः सोऽयं दाक्षिण्य मूर्तिर्जगति विजयते वासुपूज्य-अतीन्द्रः॥ भीमतु-पक्षणवि-देवर शिष्यरु मुगुन्यि पारुश्व-देवरु रुषिरोवारि-संवसरद माद्रपद-ब १३ ब्र॥... ... ... ... लेख स्पष्ट है। [EC. V, Harsam TI., No. 128.] का-संस्कृत तथा काद। [शक १.६५% १७६ई.] [जै. लि. सं०, प्र. भा.1 ३८२ दोहदा-संस्कृत-मग्न [श्वेताम्बर सम्प्रदायका लेख] [IA, X, p. 168, t.] ३८३ [ निर्देश रहित, पर १७४०१ (लू. राइस)।] [भाबु में, पस्त बस्तिमें एक सम्मेपर] अनुपम-पुण्य-भाजने चिनेन्द्र-पदान्ज-विलीन-चित्ते पा-1 वन-सु-चरित्रे हयंते महासति तनक्सान-कालदोळ् । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करडालुके लेख १६ मनुव-मनोमनं करेदु खूपय-नायक केम्मगेन नीम् । कनसिनोळप्पड नेनेयदिर्नेने सास्वतमप्प धर्ममम् ॥ धर्ममनागळं मुददे माल्पुदु माडिदोडप्युदाबुदा- । धर्मदिनेम्बेयप्पोडे सुरेन्द्र-नरेन्द्र-फणीन्द्र-राज्यमन्- । तोर-म्मोदलप्पुदागि कडेयोळ् वर-मुक्तियनीवुदन्तरिम् । धर्म दनागु सत्य-निधि बूवय-नायक बेडिकोण्डे नाम् ॥ एनगनुमोदन-पुण्यम् । निनगं निस्सीममप्प पुण्यं सागुम् । मनमोसेदु माडिसोन्दम् । जिन-गृहमं बूवि-देव धर्म-धुरीणा ॥ एन्देन्दळेन देवर-। नेण्टङ्गं नीने पूबिसि चिकयनम् । कुन्दि करिगन्द दन्ता-1 नन्ददे रक्षिपुदुपेक्षे गेयदडे दोषम् ॥ तदनन्तरमभिषवमं । मुडदि चिन-पतिगे माडि गन्धोदकमम् । सदमळ-चरित्रे कोण्डळ । बेदरिपेनघ-बलमनेम्वी-मनदुत्सवदिम् ।। तोरेदु बिनेन्द्र-चन्द्र-पद-सन्निधियोळ् पद-पञ्चकङ्गळम् । मरेयदे भोरेनुचरिसुतुं नेरे सुत्तिद मोह-पाशमम् । परिदु जगजनं पोगळे हयंले नारि समन्तु सैय्पु कण - । दरेदवोलेम् समाधि-विधियिन्दिरदेरिददळिन्द्र लोकमम् ।। बरवं केळ्दमरावती-पुरद-देवी-सङ्गुळं बन्दु नू-। पुरमम्मुत्तिन हारमं कटकम केयूरमं वज्रदुङ्गुरमं माणिकदोलेयं तुडिसि बेगं देवि नीनेरु रा-1 ग-रस... ...मिगली-विमानमनेनुत्तं तन्दवर स्सादिर ।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M जैन - शिलालेख - संग्रह फेरि विमानमं बरे सुराङ्गनेयर् नळि - तो [ळ].. तोरुविनं महोत्सवदे सेसयनिक्के सुरानक स्वनम् । मीरे घनाघन - ध्वनियनेत्तिद सत्तिगे चन्द्र- बिम्बमम् । बीरे विलासदि बिडिदु चामरमिकि समन्तु पोकळा- 1 नीरे महानुभावे सति इस- देवि सुरेन्द्र-लोकमम् ॥ [ ( प्रशंसा सहित ) महासती हलेने अपनी मृत्युके समय, अपने पुत्र वय - नायकको बुलाकर कहा, स्वप्न में भी मेरा ख़याल न करना, लेकिन धर्मका ही विचार करना । हमेशा धर्मं करो, क्योंकि ऐसा करने से तुम्हें इनाम ( जिनके नाम दिये हैं) मिलेगा। हे बूवि-देव ! यदि मुझे और तुझे दोनों को पुण्योपार्जन करना है, तो बिन मन्दिर बनवाओ । मेरे देवके मित्रोंका ( १ ) हमेशा आदर करना और अपने लघु चाचाका हमेशा खयाल रखना । इसके वाद, बिनपतिपर लेप करके उसने चन्दनका जल लिया इस निश्वयसे कि वह अपने तमाम पापोंको घो दे। तब, जिनेन्द्रके चरणोंकी उपस्थितिमें, बिना भूले पाँच शब्दों ( पञ्च नमस्कार मंत्र ) को बहुत जोरसे उच्चाचरण करते हुए, जिन इच्छाओंके बालसे वह घिरी हुई थी, उसे तोड़ते हुए, स्त्री हर्य्यलेने, समाधिके आश्रयसे इन्द्रलो कमें प्रवेश किया । ] [ EC, XII, Tiptur Tl, No. 93 ] ૩૮ करडालु, क वर्ष जय [ = ११०४ ई० १ ( लू. राइस) । ] [ करडालु, ध्वस्त बस्तिमें एक सम्भेपर ] श्री चान्द्रायण - देवर स (थ) तपत्र - नमदिं खरोवर- कुलं मेरु प्र- कूट- प्रमोन्- | ..... ... ... - हरिहर-देवि ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नतियिन्दद्रिजेयिं मदेभ-घटेयि सैन्यानि सन्-मार्ग.......। ....काव्य-निक्यमेन्तेसगुमेन्ती लोकदोळ लोक-सं-1 स्तुत चन्दायण-देवरिन्देसेगुवी-श्री-कोण्डकुन्दान्वयम् ।। एरेव बुधाळिगाभित-चनकनुरागदोदित मत्तवा-। . दरिसुव दानदिन्दे सुर-भूवमनेळिपळेन्दे बष्णिकम् । परम-जिनेन्द्र-पाद-कमळाचन-निमा-भक्ति-युक्तेयम् । हरिह-देवियं नेगळ्द शासन-देवियनी-घरा-तळम् ॥ वर-जय-(स) वत्सरं विनुत-जेष्ठ-युत सित-पक्षमष्टमी-। परिगतमिन्दुवारदोळनिन्दित-पञ्च-पदङ्गळं सुखोत्- । कर-निळयङ्गळं नेरेये तन्नोळे... . "सुतुं समाधिथिम्। हरिहर-देवि-विश्व-विबुध-स्तुतेयेरिददळिन्द्र-लोकमम् ॥ निरुपमेयं चरित्र-युतेयं वनिता-जन-रत्नेयं मनो। हर-जिन-मार्ग-बारिनिधि-चन्द्रिकेयं सुकृतक-पुजेयम् । पर-हित-चित्तेयं वगेयदन्तकनेम्ब दुरात्मनोय्दनी-। हरिहर देवियं विवुध-वन्दितेयं भुवनाभिरामेयम् ॥ जिनेश्वर नमो वीतरागाय शान्तये नमोऽस्तु । [ कौण्डकुन्दान्वयके चन्द्रायण-देवकी प्रशंसा,-चिनकी पृहस्य-शिष्या हरिहरदेवी थी। उसकी भक्तिकी प्रशंसा । ( उक्त सालमें), पञ्च-नमस्कार मन्त्रका उच्चारण करते हुए, समाधिके द्वारा, उसने इन्द्रलोक प्राप्त किया। जिनेश्वर, वीतराग और शान्तके लिये नमस्कार हो । [EC, XII, Tiptur, TI, No, 94.] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन-शिलालेख संग्रह ३५ हेगा-संस्कृत वाम। वर्ष जय [..(० राईस)] स्वस्ति भीमन्महामण्डलेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वर कोजु-नङ्गलि-गङ्गवाडिनोणम्बवाडि-बनवसे-हानुङ्गलु-गोण्ड मुनवल वीरगगनसहायशर निश्शङ्क-प्रताप होसळ-श्रीषलाळ-देष दोरसमुद्रद राबधानीयल्लि सुख-सङ्कथा-विनोददिं पृथ्वी-राज्यं गेय्युत्तमिरे जयसंवत्सरद पुण्यदमावासे-मंगळवार-व्यतीपातउत्तराषाढा नक्षत्रदन्दु हेरगिन वसदिगे मोदनु गद्यान १ बकं बळि-सहित्वागि गद्याणविपत्त-नाल्कक्कं भूमियं धारापूर्वकं माडि बिट स्थल हिरिय-फेरेय किन्न यललु बिटिग-गट्टवोन्दु ऊरिन्द हुडुवण होलदखि बेदले नास्वत्तेरडु गेण गळेयन्नु कम्भ ३२३ बिट दचि ॥ गतलील लाळनाळम्बित-बहळ-मयोग-वरं गूजरं सन । धृतशूलं गौळनङ्गीकृत-कृशतर-सम्पल्लवं पल्लवं चू-। णित-चूळ चोळनादं कदन-वदनदोळ् भेरियं पोय्सेवीरा-। हित-भूभृज्वाळ-काळानळनतुलबलं धीरस्यल्लाल-देवम्। मनमोल्दुद्यद्यशश्श्रीपति नेले मोदलागल सल्वन्तेरळ-पोन्। ननपारौदार्य-पर्युपतनुमुदषियं मेरुवा-चन्द्रनुं निल-। विनक्स्युत्साइदिन्दं पेरगिन चिनगेहक्के बिट्ट पुरन्त्री। चन-लीलानङ्ग-रूपं मयन-वय-भुजं वीरबहाल-देवम् । अतिशोभाकरमाप विष्णुबिन वक्षस्थानदोळ् लक्ष्मियुन् । नति वेत्तिर्पबोलिक्के कीर्चि-युतनोळ श्री-चामनोळ द्धि से। गत-सत्वबहु-पुत्ररं पोतं जबब्वे चन्द्राकर । दितियु मेरु-नगेन्द्रमुल्लिनेगमि मदं शुमं माळम् ॥ इक्नीकन्ददिनेदे पालिदिवमिष्टात्य-संसिद्धि है। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेगूरके लेख भविकु कोण्डहिदझे गड़े गये केदारं कुरुक्षेत्रमेम्ब् । इवरोळ पेसदे पावर गोरवरं गो-वृन्दमं पेण्डिरम् । तवे कोन्दिक्किद पापमेग्दुगुमर्व बीळगं निगोदालोळ ।। वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् । षष्टि-वर्ष-सहस्राणि विष्ठायां वायते कृमिः ॥ [इस लेखमें बताया गया है कि जब ( अपनी उपापियों सहित) होसल बल्लाल-देव शाही नगर दोरसमुद्र में था, और शान्ति से राज्य कर रहा था( उक्त मितिको ) हेरगूकी बसदिके लिये ( उपर्युक) भूमि-दान किया । (उतकी प्रशंसा, जिनमेंसे एक यह भी है ) बब वह प्रयाण करता था, वो लाल, गुर्जर, गोल (2), पल्लक, और चोल राजाओंको भयका सञ्चार हो पाता था। [ EC, V, Hassan, TI., No. 58.] विजोको-संस्कृत [सं० १२३९% ०५ई.] लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका मालूम होता है। [JRAS, 1906, p. 700-701.] ३८७ क्यावनहलि-सब। मन्मवर्ष [ . ० (खू० पाइस)] [न्यातकारिक (सावनहरि नाजुके) में, कोदाराम मन्दिके पत्थर पर] __ श्रीमत्परमगम्भीर-स्थाद्वादामोघलाम्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। स्वस्ति भीमन्महामग्लेश्वर तळाडु-गङ्गवाहि-नोणम्बवाडि . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह गोण्ड भुष-बल वीर-गङ्ग असहायर निःशङ्कप्रताप होयसळ-पीरबज्ञानदेव भीमद्-रावधानी दोरसमुदद नेलवाडिनलु सुक (ख )-संकथा-विनोददि राज्य गेबुत्ति() मन्मय-संवत्सरद मार्गसिर सु१ आदिवारदन्दु श्रीयादवनारायण-चतुर्वेदि-मङ्गलदल श्रीकरणद कलियणन कोडगेयोळ अय्यत्तु-कोळग गद्देय साहिर-कोळग बेदलेयं श्रीकरणद हेमाडे यण्णन कय्यनु बल्लाळ देगे कपद होन कोट सर्व-बाधा-परिहारवागि कोडहाळ-बसदिगे चन्द्राक्क-तारम्बर सल्वन्तागि धारापूर्वकं माडि येयण बिट दत्ति । [विस समय होयसळ वीर-वल्लाल-देष रावधानो दोरसमुद्रमें रहते हुए शासन कर रहे थे, उस समय कोडेहाल-वसदिके लिये कुछ जमीन यादवनारायण अग्रहारमें खरीदी गयी थी और वह बिना किरायेके दी गयी थी।] [ EC, III, Srirangapatan Ti., No. 148 ] ३८८ . श्रवणबेलगोला-संस्कृत क्या कसद । [शक १.११% 14ई० (कीकहान)] [.शि० सं०, प्र० मा०] ३८६ एलेवाल;-कार-मग्न [ 11-२३७६.] [पोय, मानव मन्दिरको पास पवागपर] ............ सेतु ।। ... .........सोकदिन्द सिद्दु. ... .. ..'मागपमिककदि बम्बीरदिन्द ... ... ... ण्डं बनियिसे नन्दनबनदिन्दन ... ... .........पनी-वनप ... ... ... ... मागवण्डद Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलेवाल के शेख ............ बरिसि चन्दादित्यागळन्ने चिर-लग्नं बरे-पट ..........लि धारिणियोळु च्चोद्यमेनलु कडम्ब... ...."धिपति सोयि-देव भूपति-तिळकं बन-नुत-कदम्ब-वंशस. ... तिकडु बिरुदरु विरुदं बिट मेयिबतिक्कू कदनक्किन ... ... ... ... ल्लं यिदे पुल्लं कर्धि नीरं पुगुतरल पेण्णागि पुत्तेरुगं ... ... ... ... यि-देव-प्रतापम् ॥ अदटर बेर कित्तु सुभटोत्तमरं बेदर् ....... । .............. णनेम्वुद-। ल्लदे रण-रङ्ग-शूद्रकन साहस-भीमन सोयि ......। ... ... ... ... नं सले विश्व-धात्रियोळ ।। बनवसेनाधिकारं । जन-नुत- .....। ............ लन्तामान् । तनदन्दं-पडेद विक्रमादित्य ऋषम् ।। वीरारातिग ..................। ... ... सले शील्टु नुङ्गि नोणेगं दोर-द्दण्ड-चण्डासियिम् । भोरेन्दा...... ... ... ... ...| धीरोदात्तन ण्णिकुं बुध-बन श्री-विक्रमादित्य : ...॥ ... ... ... ... निटदे हरवे कोणम् । बेडगिन गणवाडि तळनाडे ... ... ... | ... ... ... .."बेसनेन्नद भूभुजरारु कप्पमम् । कुडदवनीशर ... ... ... ... ... त्रियोळ ॥ स्वस्ति समस्त-प्रशस्ति-सहितं श्रीमन्-महा-म ... ... ... ... ... से पनि - सिरमनाळत्तं सुख-सङ्कथा-विनोददि राज्यं ... ... ... || ... ... ... ... ... ... ... ... ... ...। ... .. ... एलेवल्लि कौड नारक-फलम् । रायदे ........... ... ... ...। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह 'सत्-पक्केज षण्डङ्गलि कुवलयदिं नाग-पुन्नागदिन्दम् । ...... " तिळक-श्री-चम्पकामोददिनेसगु सदा भागवल्लि- बिलासम् । म्राज्य - लक्ष्मी निवासम् ॥ १७२ ... ... ... ... ..... गावणिग-कुलदे पुट्टिद । भाविसे फेरेय ... 480 410 ... ... ... ... य पोगळे पुट्टिद । केवळ देकि-सेट्टि वुध-सुर-भूज ॥ 000 ... ... सका ...... 488 ... ... ...... बिङ्कवेळम्बळ्ळिपोळम् । भोने बिन- गृहमम् माडि कीर्त्तिय ..... ... ... 1! ति गुरुवी-भानुकोचिं- वतीन्द्रम् | ... ति गुरुवी-भानुकीर्त्ति वतीन्द्रम् । जननि प्रख्यातेयादी दम् । तनगन्ता - पत्नि गङ्गाम्बिके बन-नुत-नी शङ्क-गावुण्ड मावं । जन-वन्दे लक्ष्मी-विळासम् ॥ फेरेयम- सेट्टिय सुतरेम् । किरु-कुळरे केतमरल ... ... ... सेट्टि कृतार्थम् । ... ... ... ......... 1 कल्प महीजम् । नेरेयेसेगं देकि-सेट्टि यनुबरु घरेयो । पाद-सरोब- भृङ्गनम् | ... 930 ... सु-कवि-जन-स्तुतं विबुध-कल्प- महीयन बष्णिकुं स 68. 930 ... शा- करि-दन्तव मुट्टो पर्व्वगुम् । ॥ विकसित-भव्य-पच- दिवाकरनेन् न-पद-पच-भङ्गम् । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिन-महिमोत्तुंग विश्व - लक्ष्मी-सङ्गम् । बिन-महिम ...... ... जिन-समय- वार्धि - हिमकर । बिन-मत-ल ... ... ... ... ... एलेवालके लेख ... नम - निदानं तनगेने । न त नी दे कि सेट्टि धारिणिगेसेदम् ||! दडे || ...... 'देकि-सेड्डि कीर्त्ति - विळासम् ॥ .. 200 अवर गुरु ... ... ... कुन्तल - गौड़ - माळव-जजा हुति - दोहळि पोहियाण या । विदर्भणदिन्दे बन्दु सै- | द्धान्तिक - पद्मणन्दि- सुतनी - मुनिचन्द्रनोलेय्दे 'यिन्तु हरेदत्तु समस्त - घरा-तळा प्रदोळ. ॥ । ...... .... 888 अतितीवानल - काळकूट तनं माणदे बिननुङ्गिदुद्- | 'नाडिव कन्दर्पे बरत्कम्मने । वी- । बलुगे -तप-श्री-मुनिचन्द्र देब-मुनियङ्गक्कुं पेरङ्गक्कौमे ॥ आरवडे भेश्वङ्कम् । गणित- स्थिति तत्- | 1 ... 1 बारह सारतर - सूक्ष्म-तत्त्व-वि- । चारं मुनिचन्द्र यतिगे हस्तामलकम् ॥ अवर तेन्दडे ॥ ....... ... ... श्रीमन्मूल-पदादि-सङ्घ- तिळके श्री कोण्डकुन्दान्वये । कानूर् नाम- गणो 'तिन्त्रिणीकाहये । शिष्य : श्री मुनिचन्द्र देव यमिनः सैद्धान्त - पारङ्गमो । श्रीयाद् ... श्री भानुकीर्त्तिम्मुनिः ॥ ... r. १७३ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैन-शिलालेख-संग्रह उरमोग्र-ग्रह-शाकिनी-विहग-भूत-प्रेत ...ग-मी-। कर-भेता ... ... ... गणं भू-चक्रदोळ् तोरलु । द्धरिसित्तन्तदे यन्त्र ओदिदुदे मन्त्र कोट्ट बेर् त्तन्त्रव-1 चरि सैद्धा ... ... ... " नि नाथोग्राशे सामान्यमे ॥ स्वस्ति श्रीमत् स (श)कनृप-कासातोत-संवत्सर-सतंग...भवेनेय २०६६ नेय श्रीमत्-कळचुय्य-भुन-बळ-चक्रवर्ति राय ... ... नेय हेमळम्कि संवत्सरद ज्येष्ठ-सुद्ध-दशमियादिवारदन्दु ... ... ण-सङक्रान्ति-व्वती ... ... ... थियोळ श्रीमद्-एळम्बल्लिय देकि सेट्टि तन माडिसिद शान्तिनाथ ... .... उदिय खण्ड-स्फुटित ... ." यर-जीयराहार-दानकं चातुर्वण श्रवण-संघक्केन्दु भीमन्मूल-संघद काण्ग ... .' गच्छद कोण्डकुन्दान्वयद नुन-वंशद क्षीर-जळ-माळातिश्य (शय )-त्रयोस्कृष्टानादि-संसिद्ध ... ... पुराधिनाथ-श्रीशान्तिनाथ घटिकास्थानद मण्डलाचारिप श्री-भानुकीर्ति-सि ... ... कालं कचि धारा-पूर्वकं माडि गोळिकेरेय बयललु ( यहाँ पर दानको विगत दी है) अन्ता-स्थानमं तम्म शिष्यरप्प मंत्रवादि-मकरध्वज श्रत ... ... रिंगे कोहरु ॥ ( हमेशाके अन्तिम श्लोक और वाक्यावयव )। [(शिलालेखका अधिकांश मिटा हुआ है)। नागवल्लि-कुल और नागरखण्डका वणन । कदम्ब राबा सोयि देवकी प्रशंसा । बनवसे-नाइका शासन विक्रमादित्यको मिला था, जिसे हरवे, कोंकण, प्रसिद्ध गङ्गवाडि, और तु .. के राजा आकर भेंट देते थे। विस समय, अपने समस्त पदों सहित, महा-म [ण्डलेश्वर ] ... बनवसे १२००० पर शासन कर रहे थे :-नागवल्लिके आकर्षणोंका वर्णन । गावणिग कुलमें उत्पन हुआ केरेय [ म-सेटि ] था, जिसका पुत्र देकि-सेहि था । सङ्कगवुण्डने देकि-सेष्टि के साथ मिलकर एलम्बळ्ळिमें एक विनमन्दिर बनवाया । उसके (सङ्कगवुण्डके ) भानुकीर्चि-बतीन्द्र गुरु थे, मा प्रसिद्ध ... ..", पल्ली गङ्गाम्बिके Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलेवाल के लेख और उसका श्वसुर विश्व-विण्यात ......था। केरेयम सेष्टिके केवमल्ल और देकि सेटि पुत्रों से देकि-सेटिकी जैनधर्मके महान् संपुष्टिदाताके रूपमें प्रशंसा । मूलसंघ, कोण्डकुन्दान्वय, काणर-गण, तथा तिन्त्रिणिक-गच्छके मुनिचन्द्रदेवके शिष्य भानुकीर्ति-मुनिकी प्रशंसा ( जैसा कि क्रमाङ्क ३७७ वे शिला. लेखमें है। (उक्त मितिको ), एलम्बळ्ळि देकि सेट्टिने, अपने द्वारा बनायी हुई शान्तिनाथ-बसदिकी मरम्मतके लिये, जीयस् तथा श्रवणोंकी चारों जातियों के भोजनप्रबन्ध (या आहार-दान ) के लिये, शान्तिनाथ-घटिका-स्थान-मण्डळाचार्य भानुकीर्ति-सिद्धान्त-देवके पाद-प्रक्षालन-पूर्वक,-( उक्त ) भूमिका दान दिया। और वह 'स्थान' उसने अपने शिष्य मन्त्रवादी मकरध्वनको अर्पण कर दिया। हमेशाके अन्तिम श्लोक । ] [ EC, VIII, Sorab, TI., No. 384.] हेरगू-संस्कृत तथा कार। वर्ष दुर्मुखी [ १७७ ई. (बु. राहस)] स्वस्ति श्रीमतु-दुम्मुखि-संवत्सरद चैत्र-सुद्ध-दसमी-सोमवार-दन्दु हेरगिन चेन्न-पारिश्व-देवर नन्दा-दीविगेगे श्रीमतु सङ्कद हेगडे हेरगिन बाचरस-गट्टियरसबम्म-देव-बल्लय्यङ्गळ सुङ्कवं विट्टरु एत्तु-गाण ओन्दक्कं आ-तेल्लिगर मने-देरे ओन्दुवं ऊरोडेय-नारसिंगण्ण मार-गवुण्ड सेनबोव-सोमय्यनोळगाद समस्त-प्रजेगळि१ बिट धर्म ।। [(उक्त मितिको ) चुङ्गीके अध्यक्ष (नाम दिया है ) ने हेरगूके भगवान चेन-पारिश्व ( पाव ) के हमेशा बलनेवाले दीपके लिये चुङ्गीके दाम छोड़ दिये । और चौकीदार ( Headman ) सेनबोव (जिन दोनोंके नाम दिये हैं) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह और समस्त. प्रथा एक बैलके कोल्हूका कर तथा एक वेलीके घरका कर देती थी (१)।] [EC, V, Hassan, Tl., No. 59.] ३९१ अजमेर-प्राकृत । [सं० १२३४ = ११७७ ई.] संवत् १२३४ जेठ सुद १३ बुधदिने साधुवुल्हा पुत्रवान हालू पार्श्व (ख) नाम बेवपाल प्रणमतिमिहा। अर्थ स्पष्ट है। [ JASB, VII, p. 52, No. 3, t.] ३९२ खजुराहो -संस्कृत । [सं० १२३४७.ई.] [यह लेख किसी जैन प्रतिमाके अधः पाषाणपर उत्कीर्ण है और खजुराहो में पाये जानेवाले जैन-शिला-लेखोंमें सबसे पीछेके ( उत्तरवर्ती ) कालका है। ] [A. Cunningham, Reports, XXI, p. 69, b, a.] ३९३ भवणबेलगोला-संस्कृत तथा काद। [वर्ष हेवणन्ति = 100ई०१ (सू० राइस)] . [.शि.सं., प्र. मा.] Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ हटणके लेख ३४ 394 इटण-संस्कृत तथा कार। [शक... 10t.] [हण ( नेप्लीकेरी परगना) में, वीरभद्र मन्दिर के पास एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगम्भीरस्यावादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ श्रीपति-जन्मदिन्देसेव यादव-वंशदोळाद दक्षिणोरब्वीपतियप्पनोर्व सळनेम्ब नृपं सळेयिन्दे कोपन- । द्वीपियनोन्दनोज़ मुनि पोयसळ येन्दडे पोय्दु गेल्दु दिग्व्यापि-यशं नेगळते-बडेदं गड पोसळनेम्ब नामदि । स्वस्ति श्रीजन्मगेहं विधृत-निरुपमोदात्त-तेजो-महोत्रम् । विस्तारान्त:-कृतोवी-तळमवनत-भूभृत्-कुल-त्राण-दक्षम् । वस्तु-बातोद्भव-स्थानकममलयशश्चन्द्रसम्भूतिधार्मप्रस्तुत्यं नित्यमम्भोनिधि-निभमेसेगं पोयसळोज़श-वंशम् ।। अदरोळ कौस्तुभदोन्दनय-गुणमं देवेभदुद्दाम-सत्वदगुर्व हिमरश्मियुज्वलकलासम्पत्तियं पारिनातदुदारत्वद पेम्पनोव॑ने नितान्तं ताळ्दि तानस्ते पुट्टिदनुवृत्त-तामो-विभेदि विनयादित्यावनीपालकम् ॥ कन् ॥ विनयं बुधरं रजिसे । धन-तेजं वैरि-बलमनजिसे नेगळ्दं । विनयादित्य-नृपालकन् । अनुगत-नामार्थनमल-कीर्ति-समर्थ ।। बुध-निधि विनयादित्यन । वधु केळेयम्बरसियेम्बोळात्मास्यविभाविधुरित-विधु परिजन-का-। मधेनु नेगळ्दळ सुशीलगुणगणघाम ।। आ-दम्पतिगे तनूभवनादं तनगेरंगदरि-नृपाळरनं भो... "द वोळेरगिपोनाहव- मेदिनियोळे नेगलदनेदेयनेळेगरयाम् ।। वृ॥ आतं चालुक्य-चक्रेशन बलद भुजा-दण्डमुद्दण्ड-भूप १२ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन-शिलालेख-संग्रह मर्दियतेन्दोडे चतुस्समुद्रपर्य्यन्तं बरं नडवन्तागि १२० नूरिप्पत्तेतुकत्ते-कोण-मण्डिमैत्र-दोणि-दुर्गि-गळ-पथमत्रेयळ नडेवई मुङ्क-परिहारबागि कोहर् मत्तं शासनपरिहारिगरेनदे वोक्कल लोन्दु पणवं बिट्टर ।। यिन्ती केयि-मने-तोर-मुख्य-समस्त आय-दायवेक्षम सर्वबाधापरिहारवागि धारा-पूर्वक माडि बिटर् ॥ स्वस्ति श्रीमत्कोण्डकुन्दाचार्यान्वयद श्री-मूल-संघद देशीय-गणद पोस्तकाच्छुद श्रीकोलापुरद निम्ब-देव-सावन्त मडिसिद श्री रूपनारायण-देवर बसदिय प्रतिबद्धमप्प तेरिदाळद गोङ्क-जिनेन्द्र-मन्दिरक्के कोलापुरदगत्येश्वरद कणगिलेश्वरद महालक्ष्मी देविय गोकागेय महालिङ्ग-देवर यिन्ती घटिक-स्थानदाचार्यरु मुख्यएळ -कोटि-पुव-संख्यात-गणगळ महामण्डळियागि तेरिदाळद मूल-स्थानद कलिदेव-खामिगे प्रतिबद्धं माडि आ नेमिनाथ-स्वामिय प्रतिष्ठाकालदला गोर-जिनालयदाचार्य्यरप्प प्रभाचन्द्र पण्डित-देवरिगिदेम्म जोग-वट्टिगेय स्थानमेन्दु बोगबटिगेय निक्किदर् ॥ बसदिय मेले शूद्रकन सिंहद चक्रद चिह्नमेम्बिई तिमुळद घण्टेयं परेय नागदेनिष्पवनेळ-कोटि- तापसर्गे महा-विरोधि-यवनीश्वरवैरियेनुत्तविक्किदम्मिसुगुव जोग-वटिगेयना मुनि- संकेय कोटि-तापसर ।। [IA, XIV, p. 14-26, (line 56-88)] t.and. tr. ४०३ श्रवणबेल्गोला-संस्कृत तथा कसा। [शक ११०४ = ११८१ ई.] [जै. शि० सं०, प्र० मा.] ४०४ श्रवणबेल्गोला-कवर। [बिना का निर्देशका] [१० मि.०, प्र० मा. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवणबेल्गोलाके लेख ४०५ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कचर। [बिना काल निर्देशका [जै० शि० सं०, प्र. भा०] ४०६-४०७ श्रवणबेलगोला--कचड़-भग्म । [बिना काल निर्देशका] [जै० शि० सं०, प्र० भा. ] ४०० चिक्क-मागडि;-संस्कृत तथा कन्नड़ । [शक [ १०४ = ११८२ ई.] [चि गरिमें, बसवण्ण मन्दिरके प्राङ्गणमें एक स्तम्भ पर श्र मत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ श्रीराषिप्पुदु धर्मदिं नियत-धम्मै शान्तियिं शान्ति-वि-! स्तारं कुन्यु ... ... ........... ... ... । .... यकर विनुत-धर्म शान्ति सत्-कुन्थुवेम्ब- । ई-रत्नत्रय-देवरूजितमेनल दीर्घायुमं श्रीयुमम् ।। प्रकटं व्याप्त ... ... ... ... खरूपं नित्य-भावं विकर- । त्रिकमावेष्टित-मारुत-त्रितयवा-षड-द्रव्य-सम्पन-व-1 तकमोप्पि?दु नोडे नाडेयुवधो-मध्योर्ध्व-लोक ...। .." लोकक्केसेदिप्युदन्तुभय-कम्मोद्योग- निर्माण-सल्-। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह ..... लीलं द्वीप - समुद्र-वर्ग-बळयीभूत-प्रभूत स्थळी- । माळाळ भू-रमणं जगद्धितनी महत्रक्केनल्केम् । डुवोप्पं बेत्तुदो तां लवण-चलधि रन्नम्मणल लक्ष्मि नीर्- । वेण्णोडरिप्पा- कल्प वृक्ष-प्रसव देवेळ्वेनोळूपम् ।। १८८ कं ॥ वार्-वळय-निकरबेम्बा - । नीर्वेलियनडुवे नेदु जम्बू-चिह्नम् । सार्विनवीप्सित- फळमम् । पार्विनवेळेगिम्बिदाय्तु जम्बू द्वीपम् ॥ इदुम्ब निदु सुरोरुहौदार्य्यदिन्दिन्त् । इदु राजद्वैय्र्यदिन्दिन्तिदु जनित-बिन-स्थान-भोग्योपयोगा- । भ्युदय - श्री लीलेयिं राचरसन तेरदिन्दुन्नतत्वक्के पक्का - । दुदेवेनुत्तं चन्द्र-सूर्य्या रारानिसिक्कुम् ॥ दोरेवेत्ता मे विन्तेङ्कण-देशेगोळदेनोळ पुवेत्तिदर्द्धडो श्री । भरत क्षेत्रं करं तुम्बिगळ मधुर-मन्द्र स्वरोद्गीतदि मे । ल्ले-रलिंगळ्ळाडुवेल्लेल्लेलेम पुष्यङ्गळि हण्ण-गोञ्चल्- । वेरगिन्दं चूनवल्ली- विततिगळे सेदा-लास्य-सारस्यदिन्दम् ॥ कं ॥ श्रीमजनदिं सुमनो । घामतेयिं भ्रमर -शोभेयिं कर्णाट- । सीमेयना - भरत -श्री- । तोपुं नाडे कुन्तळ - देशम् ॥ वचन || मत्तमल्लि बनद कोण्टेयुं गुणद व्यवहारमुं बिनदद व्यवसायमुं रसद तोरेगणिनेसेव केळी-वनङ्गळु बिरयिगळ कामनयिक केरेयं गोण्डि ळीळेयिं नेरेदकमळिनिगळं वसन्तकेळिगे समेद पोण्डोणिगळ-गोण्डळमुं धर्म्मक्के नेर्म्ममुं भोगक्कागरमुमाद घटिका - स्थानमुं रत्न - समृद्धिगे सोल्तु स मंगळ गोण्डुदेनिप परिखेयिं राजमण्डलसमाजमेनिप कामिनीयर मुख- कमळ-निकरमुं प्रम नगर - खेड-खण-मडम्ब - द्रोणा मुख- पुर- पत्तन- राजधाविगळ बन मेखि नोळू वडवति मेरेदु नव - विषमागि तोप कुन्तळ - देसक्के ॥ ... ... ... ... ... ... ... Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक-मागाडि लेख | क || क्रमदिं विक्रमदिंदा | न-मनोहर-वृत्तियिं वाळुक्य नृपाळो - । तमरात्म - कीर्त्तिया भू- । रमणिगे मुत्तुगळ तोडवेनल प्रियरादर् ॥ चालुक्य भूभुजर्दिवि । केळियोळिरे पेरगे नेरेये काम्पुवोलिईर् । भू-वधुगे रवरं । सोबुत्तं तैखनाल्दिदं नेरे घरेयम् ॥ अवर्दा- तैलङ्गे सत्याश्रयने मगनवङ्गात्मजं विक्रमन् तान् । अवनिन्दन्तय्यणं तां किरियने जयसिंहाङ्कनुं तम्मनन्दा - | वमनं तत्सुतं तत्-तनयनेसव सोमेश्वरं तन्महीशं । गे सळं पेमडि- देवं मगनवन मगं ताने भूलोकमल्लम् ॥ समनिसितवज्जे जगदे । कमलनिसिई पुत्र-रूपदे तेजो- । रमणीयतेयवननुजम् । रमणं मेरेदं जगक्के नूर्म्मडि-तैलम् ॥ बळिकं नलविं साईल | चाळका राज्य-रामे बिज्जळोवींपतियं । कळचूरि- तिळकननेम् पेङ । गळ चित्तं होसतनरसुतिपु॑दु होसते ॥ वृ || दाडेगळुष्टिवङ्गे रणदोळ् सले मूडुववेरिदानेयोळ कोडुगळण्टु मत्तेरडवसदन्न ग डोळवन्तवन्य- नृप-रक्त5- विसिञ्चनवेन्दराति । sts निल्वनावनेनुतिदु बिजलनं जगज्जनम् ॥ असि लते कूडे गण्डु मगुळ्दत्सहितावनिपाळ-भूमि- पेण् । मसगिदुदखदान्तवरोळा-सुर- कान्तेयगन्ति-बेटवु- । व्ववेनित्ति कादिदेडे नेत्तर- जोगिने केसोरन्तेयम् । पसरिसितेन्दु बन्दु शरणेम्बुदु बिज्जलनं द्विषजनम् ॥ बळेदन्ता-बिज्जळङ्गेन दटेसे दुदो पेळ, सिंहलाधीश्वरं बे- 1 तळिगं नेपाळकं पट्टिवळनडपदाळ केरळं गुजरं कं- । मळिगं मत्ता- तुरुष्कं कुदुरे बेसदवं लालनादच्चुळातं । ...... १८५६ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह 1 हेयं पाण्ड्य कलिङ्ग करि-परिचरनागाळवेसेङ्गेय्ये निच्चं ॥ जगमं सम्प्रीतिथिं बिज्जल-नृपतिय तम्मं भुला - गदिमै । ळुगि- देवं पाळिसुत्तं मेरेद बळिकवा-बिज्जळोवश-पौत्रम् त्रिगुणीभूत-प्रतापं तळेदनेळे य • कन्दार-क्षोणिपं तन् । जगती- नाथानुतातं बळिकमवनियं तादिदं सोवि-देवम् ॥ क्रमदिं कर्णाटमं कुन्तळमनोलविनिं तीळिद तळकसि रम्यां । गमनिम्बिम्बिम्बिपोळ्पं पडेदु पृथुल खाटक्के काञ्चीप्रदेश- । * क्के मनम्बेत्तेयदे रागं बुदिद-कर- सरोजातमं नीडिया-रा- । यमुरारि - दोणिपं मेदिनियनिनिसु वन्देक-भोग्यक् के दन्दम् ॥ आतन तम्मनूर्जित-गुणं विभु-मैलुगि- देवनादिदम् । भू-तळ बळि+कमवनिं किरियातनेनिप्पनादोडम् । ख्यातिथिना वल्ते हिरियातनेनल घरे शङ्कमोप- । व्रात-नुतं घरा-बळयमं परिरक्षिसुतिर्द्दनोळ् मेयिम् ॥ २६० कं ॥ शङ्कन कीर्त्ति प्रभेयिन्- | दं कामिनि भमि गौर - रुचियिन्दे सेम् । शङ्किनियादळो गीता- । लङ्कृत-नाना- विनोद - विळ सित-गतियिम् ॥ . वृ ॥ सवनार् निश्शक मल्ल - क्षितिपतिगे तच्चक्रियिन्द बळिक्का । हवमल राय- नारायणनधिक गुणं शङ्क-भूपानुजं भू- । भुवनाराध्यं घरा-मण्डलमनतुळ-दोर्दण्डदिन तादिदं नोळ- । पवर्गेक-च्छत्रमं मेस्सिरि मेरेविनेगं प्राज्य-साम्राज्यदिन्दं ॥ क्रमदिन्दा- विजळोचपतिगे पडेदु सप्तांग- सम्पत्तियं म- । त्तमदं तच्चक्रियिन्दित्तलुमोदविद रानावळी - ळीलेगं तन्- । दुमिदे सप्ताङ्गमं काणिसिदनेने जगं मन्त्रदिं तन्त्रदिं वि- । क्रमदिं श्रीयिं सदाचारदिनोसेदेसेदं रेचि दण्डाधिनाथम् ॥ कळचूर्य्य- क्षितिपाळ राज्य-लते पर्व्वल तन्न दोष - शाखेयं । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक-मागाडिके लेख १६१ विळसन्मन्दर-सानुगं विबुध-सेव्यं विस्तृत-च्छापन-1 स्खळितौदार्य-विळास-मासि सुमनस्-संपूर्णनुयद्यश:-। फदि रेवण-दण्डनायनेसेदं लोकैक-कल्प-द्रमम् ।। निननं तन मनमं मन:-प्रकृतियं सद्-विद्येया-विद्येयम् । तनुवन्ता-तनुवं विळासवदनुघल-लक्ष्मिया-लदिमयम् । विनुतौदार्यवदं बगं जगमनिम्बिी-कीर्तियालिङ्गिसल । . जन-वन्द्यं विभु-रेचिराबनेसेदं चारित्र-रत्नाकरम् ।। कवि-तति बल्मेगोलगिसे कामिनियर सोबगिङ्गे सोले वेळ - । पवर्गलुदार-वृत्तिगोलविं नर-शासनवागे राज्यमुद्-।। भवदिनोचि जैन-समयाम्बुधि कीत्ति-सुधांशुवि पोदळ-। के बडेये रेचिराजनेसेदं जसदि वसुधैक-बान्धवम् ॥ नडेद-नेलं रणोव्वरयोळन्तनितुं तनगज-पुजरिम् । पडेद-नेलन्दलेम्बनसिंगन्य-नृपाळरनिक्कदुन्ते किळ । तडे कडु-दोसवेम्बनसहं मिगे बेङ्गुडे पट्ट ताने बेङ । गुडुववो लेम्बनेनदटनो कलि-रेचण दण्डनायकम् ॥ अनुपम-दान-शौर-रण-शौर्यमने-बोगळ्दप्पेनाम् द्विषज-। जनपरोळोन्दुवच्चरसियर्गे सयम्बरवागे सग्गदोळ । जनियिसितिन्द्र-भूरुहके तोरणदिन्तविलेम्बुदेय्दे मे-1 . दिनि वसुधैक-बान्धव-चमूपति रेचणनेम् कृतार्थनो ॥ पेडे-वणि शेषनोळ सरसिजोदरनम्बुधियोळ मृगाङ्कवन्द् । उडुपनोद्रिजार्द्धवभवाङ्गदोळा-मद-लुब्ध-भृङ्गविर-। प्पेडे दिगि-भङ्गळोळ कुरुपु दोपिनेगं बगमं मुसुङ्कितिङ - । गडलेने कीर्ति रेचनेसेदं बसदि वसुधैक-बान्धवम् ।। श्रीवच्दं सिरियिं समृद्ध नेसेवा-नागाम्बिका-सूनु-भो- । गावासं वसुधैक-बान्धवनुदारं स्तुत्य-गौरी-सुख-। श्री-विष्टं वृषभध्वज-प्रियतम नारायणात्मोद्भवम् । . Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ . जैन-शिलालेख-संम्ह भावं बेत्तिरे चेल्वनेन्देनिसिदं श्री-रेचि दण्डाधिपम् ॥ तरदि देशमळु श्री-कळचूरि-कुळ-चक्रेशरि पेत्तुदी-ना-। गर खण्डकस्थिवट्टा-नृपरोळ पडेदिम्बिन्दबाडिर्पना-रे-1 चरसं तानेन्दोडे-वण्णिपुदो निसदवी-देशदिन्दोळ्मेयं बि-। त्तरदि पकेज-रूपं बनवसेयादरोळ श्रीय-वोलिप्पुदेम्बेम् ।। कुसुम-रनं रसावळि ताळर् सोव डाडुव कीर-जाळवेम्ब् । एसकदे चल्वुवेरिद-नेलं नेले-वेचिद पूगोळम्बिसुर्- । प्पेसगद-नुण-बिसल सुळिव कम्मेलगैक्षिसे हच्चनोप्पुवा- । गसवेसेयल्के नाडेसवुदेन्तु बसन्तद सृष्टियेम्बिनम् ।। कं ॥ आ-नागर-खण्डमना.। ल्पा-नृप-विनुत-कदम्बरन्ता-नृप-स- । न्तानाम्बुजदोळे सकल-क-। ळा-निळयं ब्रह्म भूभुजं बनियिसिदं । आ-विभुविङ्गं चट्टा-1 देविगवुदायिसिदनखिळ-नीति-क्रम-सं-। भावित-राजाचार- । श्री-वधुगेसेयल्के शौर्यदोप्पं बोप्पम् ॥ मेदिनिगे बोप्प-देवनित् । आदुदु हगे हुगद बाळ बाळ्वेलियवङ्ग् । आदळ वल्लभे विनुत-1 श्री-देवियवर्गे पुट्टिदं सोम-नृपम् ॥ वृ ।। नुडिगललन्दे मृदु-नुडि सत्य-पताकनेनिप्पुदोप्पिद-। दृदि निगळंक-मलनेने राजिपुदोजे कडम्ब-रुद्र नेम्ब-। ओडेतनवं नेगळिचदुदु गण्डस्डावणियेम्ब-नाममम् । पडेदुदु सोम भमिपन शौर्य-गुणावलियेम् कृतार्थनो ॥ निनगन्ता-काममीगळ केळेयनेनिपुदं तोप्युंवोलेम्मनेर्चे-1 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक-मागाडिके लेख २६३ चु नितान्तं निन्न पादक्केरगिपनेनुतं कान्तयम्जोले कादगा-1 नन-कारमोर-द्रवं पट्टिद निगळ्द चाकावनङ्गके सेवा-। चनितारागम्बोळागळ मेरेवुदनुदिनं सोम-भूमीश-पादम् ।। मुनिदोडे-सोम-भूपनर्माग डेया-बनवासेयन्तदन्त् । अनितुमदीगळातन भुजासि-लता-वृत्तवास्तु पोक्कुसिल्-। किनोळिरे पोलदेन्दधितरोडि तमुद्रद वेळेगण्डु तान् । अनुमिसि बेळेगोण्डु सुखमिर्परिदेनदाटङ्गे नोन्तनो । विरुदर् ब्भीतोबिपाळर् म्मदन-परवशीभूतेयर विद्येयुळ्ळर् । श्शरणेन्दर स्सेवकर ब्बेळपवगोंल्दीवनी-सोम-भमी-1 श्वरनेन्दु रागदि सङ्गतमनभयमं बेटवं दृष्टियं सत्-। इरवं सम्प्रीतियं बेळपुदनेने जनवौदार्यदि वर्यनादम् ॥ तोळ तोडणुं मच्चिपेर्डे-वत्तुंगे चुम्विसुविम्बु सोम-भू-। पाळनोळेक-भोग्यवेनिसल तनगागिरला-स्थळाळम् । पाळिप कापु बीर-सिरि लक्ष्मि सरस्वतियेन्दे सैरिपळ । मेळिसलीवळे पेररनेन्देने लञ्चल-देवियोप्पुवळ ॥ एनिपा-दम्पतियोल्मेगळिसलोप्पं प्राज्य-साम्राज्य-का-। मिनि माडल बिगियप्पनेस्तरे परोर्वीपाळरि कप्पविन्त् । इनिसु माडदिरल्के दुष्ट-तति तप्पं पुट्टिदं बोप्पनेम्ब्- ॥ इनेगं बोप्प-नृपाळनप्रतिम-पुण्यं राजिसित्तुवियोळ ॥ के ॥ ई-बोर्प देवकिगाद्-। आ-बोप्पं तप्पदप्पनरिदेम् कीर्ति-। श्री-बाय-देरेदोडे काणल्क् । ई-बन्दुदे भुवन-निकर वेने पेसर्वडेदम् ॥ ॥ नगेयल्तेयेमे यिकतिई-हदिनेण्ट-अक्षोहिणी-सेनेगन्दु । उगुरिं सत्त हिरण्यकाक्षकनेनिप्पङ्गन्ददेम् बिट-कङ्ग । अखिदन्ता-भयदिन्दे बेन्द मदनबन्दा-महाभागरण- । मुगेयेन्दी विभु-बोप्प-देवनलेवं सत्त्वाधिकान्यौषमम् ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह कदन की डेपोळुळ्ळ मिन्न दयेयेकिन्तोम्र्मेयुं तोरदी- । मदन- क्रीडेोळुत्तुदं मरेद# नीर्-वोक्कडं नाण पुत्त्- । उदलोन्दिर्द्दडवितोर्ड तलेयने सम्प्रीतिथं तो रेयेन्द् । ओदविं मेळिने कान्तेयर् ग्मे रेवनी - श्री-बोप्प - भूपाळकम् ॥! क || सिरियिन्दोप्पुव बान्धव- । पुरातन राजधानियन्ता - पुरदोळ । सुर- खचरोरग-मर्षि-मकु- । ट-रचित - पद - कान्ति शान्तिनाथं मेरेवम् ॥ वृ ॥ पाळभिषेकवन्ते नितदादडवल्लयदृश्यमप्प पू- । माले पदक्के नानुवरविकिदोडं निमिर्बुष्ण-तोयदिम् । लीलेयि मज्जनकरेये वामदे शीतळवागि बर्पवेम् । सालवे शान्तिनाथन महा-महिमत्वमनोल्दु बष्णिसल || कं || एनिपास्थानाचार्य्यम् | १६४ मुनिवितं भाकीर्त्ति सिद्धान्ति जगन्- | जन- वन्द्यं निच-गुरु-कुळ- । वनज-विकाशमनो उच्चुयं तपदिन्दम् ॥ अलर्दुददेन्तेनला - गुरु- । कुळवा - गौतमनेनिप्प गणधरनिन्दित् । वलनेक- मूलसंघा- । विळ-यति-पतियाद कोण्डकुन्दान्यदोळ | 11 श्री-रावणन्दि - सिद्धा- । साराव-सरोवर तोडबेनिपं वाक- । श्री-रम्प - पद्मणन्दि-त- । पो-रमे पिडिदिई पद्ममेने तच्छिष्यम् ॥ तन्मुनि-नाथन शिष्यं । मन्मथ - सह वादङ्गना-रति सुखमम् । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक-मागाडि लेख सन्मुनि-सद्गुरु- कुवलय- । भृन्मति पोसतेनिसि नेगळ्दना-मुनिचन्द्रम् ॥ वृ || लोकमनावगं बेळगिदं नसदिं मुनिचन्द्र-देखन- । प्राकृत- जैन-योग-निळयं प्रकटीकृत [त]त्व-निर्णयम् । स्वीकृत-शब्द-शास्त्रनुररीकृत-तर्क-कळा-कळापन - रीकृत-काव्य-नाटकनघः कृत-मीनपताक-विक्रमम् ॥ कं ॥ तच्छिष्यं प्रकटीकृत-कीर त्ति-च्छत्रं भानुकोर्त्ति क्राणुर-ग्गण-भू- । मिच्छन तिन्त्रिणोक-सु- । गच्छं श्री- नुन-वंशनेसेदं नगदोळ ॥ वृ ॥ शान्त रसीत्थ- मूत्तिं दिगिभ - ब्रज- मस्तक - वर्ति-कीर्त्ति सैद्- । घान्तिक चक्रवत्ति जिन-पाद- निधान-सु-दीप-वत्ति चै । रन्तन - जैन- योगिसम-वर्त्तियेनल मुनि भानुकीर्त्ति पेम् - पं तळेदं स्व-मन्त्रि - गति धूर्त्त - जन कतिवर्त्तियेम्बिनम् ॥ नियतं तन्मुनिनाथ - शिष्यनेसेदं सन्मार्ग-सम्पत्तियिम् । नय कीर्त्ति - प्रति - नायकं विबुध-वाडा- दायकं जैन-त- । - यथार्थागम कायकं कृत-यशस - संस्नायकं ध्वंसिता- । भय - निस्यन्दित- पुष्पसायकनुदप्रौढार्य-सन्दायकम् ॥ `कन्द || अन्तेसेदाचार्य्यवळिय्- । इं तिळिदागमङ्गळं जिन - समयोच- । चिन्तामणि सं ( शं) कर-सा- 1 मन्तं शान्तियने माडि शङ्करनेनिपम् ॥ विदित-पराक्रमनेनिपा । कदम्ब-नृप-तिळक बोप्प-देवन राज्या- । भ्युदयके ताने मोदलेनि । सिदना - सामन्त-शङ्करं नयदिन्दम् ॥ १६५ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह सामन्त- शङ्करनिन्दुद्- | दामते-बडे दिई नण्डु-वंशद सिरि मुन्नू - | ए- माल्केयेम्बोडन्वय- । १६६ रामेगे तोडवादन मळ-सङ्गं सिङ्गम् ॥ सिङ्गल कान्तेय ते सिरियात्तन केसर-माळेयम्ब चेल् - बिडे गोण्डु माळनवर्गाटनवङ्गेणेयागे माणिक्कअ गुण-युक्ति-कान्तेयवर्गिम्बिने पुट्टिदने छने छके-गौ । खङ्गनुबातना - केरेयमं मेरेदं स्तुति-जीवनोदयम् ॥ कं || अनुदिनमवरिच्छा - जनि- । IT त- फलं बळये तन कालगळनाथ । सि नितान्तं के रेयमना- । दन रेसव्वे नलळाळु नलविम् ॥ वृ ॥ अवरिगबुदात्तनप्पने निसिद्द - बोपगावुण्डनु - दुद्भवमुँ तानु-वुदात्त-वृत्तियुमन्नौदार्य्यमुं पेम्योप्पबुदा गरे पुट्टि कीत्ति-पडेढं तन्निच्चेवोळ चाकि-गौ- । ढि विमूताङ्गच-वाद्धियोळ पडेये सत्-पुण्याङ्कनं सङ्कनम् ॥ वर- वनिता - वशङ्करन राति-नृपाळ-भयङ्करं बिने । श्वर-यति- किङ्करं स्वपति-चित्त-मदंकरनिष्टवर्ग-शं- | करनखिळार्थ-शास्त्र-सु-दढ़करनात्म-सुखंकरं मनो- । हरनेने शंकरं पडेदनोप्पे चरित्रदोळं र्त्तियम् ॥ दिन मे दान- केळि समयमे तनगेन्देम्बिनं नीतियेवम् । तने गेन्दा गिद्द वेदेम्बिनबरि-कुळवेल्लं स्व खड्गाहतं -शा- । किनियर्मेन्दादुदेन्देम्बिन बोडमेयदल्लं जगत्-पोषणक्कम् । बिनवा- सामन्त-सुखं नेगळदनेळेगावात वागल्के तनिम् ॥ पथिकङ्गिष्टाङ्गे शिप्टंगघननेनिपवङ्गात्ति-यादङ्गे नित्या । तिथिगाळ्गन्य मान्यङ्गववनिवेळेय होङ्गे भार - ... ... ... Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक-मागाडिके खेख २४ अथितञ्जन्तेम्बवनेनेनुतेनुदिसिदङ्गार्गवोल्दित्तु दौस्थ्य-1 व्ययेयं माणिप्पनेम् मान्तनद कणियो सामन्तरोळ संकराकम् ।। पति-मन्त्र-प्रौढ़िसेवक-तति निरहङ्कारम मान्यरोळ्यम् । क्षिति-सन् मर्यादेयं बन्धुगळनुदिन-सन्-मानवं धाम्मिक सन्मतियं कान्ताबनं मेबळियनखिळ-बन्दि-बब धा-1 ... ... बण्णिकुं पुण्यद तवरो दिटं नोडे सामन्त-शकम् ॥ कं । करेयेनिप सुरभिगेलेगळ । मरेयेनिसिद कळप-वृत्त-फळ-ततिगेमेये । करेव ... ... ... दारते । मेरेवुदु सामन्त-शङ्करनोळ नवरतम् ।। वृ॥ विनेय-रसङ्गळि तणिपि याचकरं मनेगोरदु सन्ततं । कनकद बाडनित्त मिगे सोक्किसि सेयर ... ... ...। ....... आ मारुगोण्डवर नालेगेयं प्रभु-शंकरं यशो। घननेनिसिद्दनल्लदोडे मारुवरे रसना-निकायमम् ।। कं । एनिसिद शङ्कर साम-। न्तन कान्तेय ... ... यिन्दुणे सस्या-1 वनि जक्कणव्वेयु का-। मन सिरि कं-देरदम्बिने सोगेयिसिदर् ।। शान्तेय सूनु शङ्करतनूभवनुद्ध-कदम्ब-रुद्र सा-। मन्त ... ... समय प्रणतं वसुधैक-बान्धवङ्ग। अन्तेसेदाप्त-मन्त्रि विभु-बोपनोउचिदमोळमेगोप्पमम् । शान्तते दानवण्मु चरितं सिरि कोमळ रूपवोप्पिरल् ।। ...... न देवतेयेन्दु । एने नेगळ्दा-जक्कणवे-तनुर्वि मनादि । मनसिचन जिननु तन्न् । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह इनियङ्गभय-भव-सुखवदेने करवेसेटळ ॥ चिन-समय-भक्तियि स-1 ....... सुपुत्रग्विरिनेणे शा। सन-देविगे वल्लभन-। त्यनुवशनी-जक्कणब्बे-गिदुवे विशेषम् ।। आ-अक्कणव्वेयर-त-। नूनं मेरेदं जगक्के सुजन-मनोजम् । पूजि .... ... ...। ... ... सकळ-गुण-निकर-धामं सोमम् ॥ वृत्त ।। तनु पुण्योदय-शोभितं निमिदंतोळोदार्य-रम्यं मुखम् । जन-सम्मोहन-सत्य-बृत्त वलगन् दाक्षिण्य-दीर्घा ... । ....... ति रूपके यथा रूपं तथा शीलवेन्द् । एने सामन्त-ललाम-सोमनेसेदं सौन्दर्य-चातुर्यदिम् ॥ करदिन्दं तेगेयल सशक्ति नी ... ... बन्दा ": । र-पुत्रं-नुत-जक्कणव्वेय मगं कण्ठीरवारोहरण- । करेवं सोम-सहोदरं शिशुतेयोळ मुहय्य मुद्दय्यना-1 दरदि कळप-कुजतमं पडेवनेन्दा-चूतमं वर्द्धिपम् ।। कं ॥ अन्तेनिसल शङ्कर-सा-। मन्तं सकळत्र-पुत्र-बान्धव-मित्रा-1 नन्त.वयनेसेदं निश्- । चिन्तं धर्मार्थ-काम-वर्ग-सुमार्गम् ॥ अनुपमिताश्चर्य शा-। न्तिनाथनेन्दा-स्थळानुबन्धदिनिम्बिम् । जिन-ग्रहमं मागुडियो । विनुतं सामन्य(त)-शङ्करम्माडिसिदम् ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक-मागारिक लेख वृ || प्रतिविम्बं पद- त्रातमं कळेबुदा-रङ्गके कम्भके हृद्गतमं माळूपुदु शालभञ्जिवेगळं चित्रिप्पदा -मित्ति-सन्- | ततियं बङ्गम- चित्रदिन्देने जनं सामन्थ- शङ्कं जगन्- । नुतमं माडिसि बिनेन्द्र-गृहमं मागुण्डियोळ, रागदिम् ।। आ भुवनैक-मण्डन- बिनालयमं नलेविन्दे नोडि सू भरणाहयं बलिपुरि-त्रिपुरान्तक-सूरि-संस्कृतम् । शोभिसुतिदी बसदि तीर्थंकर शिव-सत् पदस्थरेन्द् । [ आ-भुवनैक-मण्डन-जिनालयमं नलेविन्दे नोडि सू - 1 भरणाहयं बलिपुरि- त्रिपुरान्तक-सूरि संस्तुतम् । शोभिसुतिर्बुदी - बसदि तीर्थंकर र सूशिव-सत्पदस्थरेन्द् | १ ] आ-भव-भावदिम्मुनिवरं स्थळ - वृत्तियनित्तनुत्तमम् ॥ कं || स्थिरवागिरित्तनडकेय । मरनय्नू रुळूळ-तोण्टवा - पूडोण्टम् । बेर सुभूमि मत्तर । वरे गद्देयदोन्दु - गाण वेन्दिन्तिनितम् ॥ वृ || अन्ता-धर्मनिकायमं सुळिस्तं न्यायार्जित-द्रव्यदिन्द् । अन्तीवृत्तखिळाशेयं सदुपभोगानीकमं भोगिसत्तू / अन्ता-शङ्कम-देव-चक्रि नवेद बल्लाळ - भूपाळनम् । सन्तं तन्न पदाब्ज-सेवेगे-दरलू शौर्यार्णवं घूणिस । कं ॥ नडेदातन लक्ष्मिय् क्यू- । पिडिदोड गोण्ड खिळ-दण्डनाथ समेतम् । नतन्दु वाणगुन्दद । नडे-वीडन इर्द्दनथियिं पल- देवसम् ॥ इरे रेवण-दण्डाधी । श्वरं बिनेश्वर - पदाभिवन्दने एन्दोप्पू- । हरे बन्द मागुडिगा । दरदिं भी बोप्प-भूप शङ्कर सहितम् ॥ T Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन-शिलालेख-संग्रह (चौथी बाजू) स्वपरमतविकासश्श्रीसुतेः कण्ठपाशो नमितमुनिगणेशः भव्यबोधोपदेशः। श्रुत-परम-निवेशश्शुद्धमुक्त्यङ्गनेशः जयति वर-मुनीशस्सरिचन्द्रप्रभेशः॥ समयदिवाकरदेवो तच्छिष्यः परम-तार्किकाम्बुज-मित्रः चन्द्रप्रभमुनिनाथो कृत्वा सल्लेम्वनं शुभतनुत्यागम् ॥ शाके सायक-खेन्दु-भूमि-गणिते-संवत्सरे शोभकुन्नाम्नोष्टे कुजवार-शुद्ध-दशमी-प्राप्तोत्तराषाढ़के । मासे भाद्रपदे प्रभातसमये चन्द्रप्रभाख्यो मुनिस्सन्यसने समाधिना सुमरण से ..' गणी द्रागभूत् ।। यस्यार्यस्य गुरुस्सतां गुणगुरुस्त्रविद्यविद्यानिधिः ख्यातोऽसौ समये दिवाकर इति स्यादीक्षया शिष्यकैः । तैर्दत्तं सकलं .." त श्रुतगुणं रत्नत्रयाख्यं क्रमाद् भाराष..त्य-समाधि ... पातिश्चन्द्रप्रभाख्योऽभवत् ।। य ... ... ... दशविधो धर्म क्षमा ....... कर गणागमे परिणतिस्साहित्य ... ... ... भ्राजन्ते स भवान् समाधि-विधिना ... ... चायों दिवं यातो ध्यानबलान्वितः "" ...रागद्वेषमोहास्थिरः॥ यस्तस्वो ... ... ... ... वर्द्धन-विधुः कामेभ-कण्ठीरवा भीमद्-द्राविड़संघभूषणमणिस्सगानचिन्तामणिः । धृत्वा चारुतपश्चरित्रममलं स्मृत्वा बिनामिद्वयं कृत्वा सन्यसनं बिनालयगतो तन्द्रप्रमस्सन्मुनिः ॥ लोके दुष्टखानाकुले हतकुले लोभातुरे निष्टुरे सालङ्कारपरे मनोहरतरे साहित्य-लीलाधरे। भद्रे देवि सरस्वती गुणनिधिः काले कलौ साम्प्रतं Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसवनपुरके लेख कं यास्यस्यमिमान रत्न निलयं चन्द्रप्रभायै विना ॥ साहित्योतपादपं चितितले दुष्कर्मणा पातितं । वाग्देवी - पृथु-वक्ष- मण्डनमहो सन्धि निर्नासितं । सर्व्वशागम-सार-भूधरमिंदं द्वषेण निर्लोठितं । श्रीचन्द्रप्रभदेव-देव-मरणे शास्त्रार्णवं शोषितम् || મ नमोऽस्तु [ इस लेख में द्रमिल-संघगत नन्दि- संघके अरुङ्गल - अन्वय की समन्तभद्र -मुनीश्वरसे लेकर चन्द्रप्रभ- मुनिनाथ तककी पट्टावली या शिष्य परम्परा दी हुई है। वह क्रमसे इस प्रकार है : १. समन्तभद्र मुनीश्वर - वारणासी ( वाराणसी = बनारस) में राजाके सामने विपक्षियोंको हराया । २. कुमार सेन - दक्षिण में आकरके उनकी मृत्यु हुई, परन्तु मृत्यु के बाद भी उनकी कीर्त्ति सारे भारतमें सूर्यकी तरह प्रकाशित हो रही थी । ३. गुरु चिन्तामणि - चिन्तामणि काव्यकी रचना की थी। बिनभक्तों के लिये वास्तवमें ही 'चिन्तामणि' थे । ४. चूडामणि - चूड़ामणि काव्यकी रचना की थी, जिसमें काव्यगत अक्षङ्कारोंका वर्णन था । वे वास्तवमें विद्वच्चूड़ामणि थे । ५. मुनीश्वर महेश्वर — इन्होंने महान् सत्तर ७० शास्त्रार्थों में विजय पायी थी । उनके पैर ब्रह्म- राक्षस भी पूजते थे । ६. शान्तिदेव मुनीश्वर - दिशाओंके अन्ततः तपसे समुद्भूत उनकी कीर्त्ति फैली हुई थी । वे बहुत शान्तमूर्ति थे । ७. अकलङ्कदेव – उनकी कीलिका वर्णन कौन कर सकता है । इनके प्रबल विजयी शास्त्रार्थों से बौद्ध पण्डितोंको मृत्युतकका आलिङ्गन कराया गया था । ८. • पुष्पसेन मुनि - यह अकलङ्गदेवके साथी ( सघर्म्मा ) थे । १४ .1 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह ११० ६. दिगम्बर विमलचन्द्र ---ये बड़े भारी तार्किक पण्डित थे। शैव, पाशुपत, तथागत (बौद्ध) कापालिक और कापिल मतोंका बुरी तरह खण्डन करते थे । अपने घरके द्वारपर उनके लिये चैलेज लिखकर टाँग दिया था । १०. इन्द्रनन्दि मुनीन्द्र - इन्होंने 'प्रतिष्ठा - कल्प' और 'ज्वालिनी- कल्प' अन्योकी रचना की थी । ११. परवादिमल— इन्होंने कृष्णराजके समक्ष अपने नामका निर्वचन इस तरहसे किया था : गृहीतपक्षसे इतर 'पर' है, उसका जो प्रतिपादन करते हैं वे 'परबादि' हैं, उनका जो खण्डन करता है वह 'परवादि-मल्ल' है; यही नाम मेरा नाम है, ऐसा लोग कहते हैं । १२. इससे आगेका शिलालेखका बहुत-सा अंश घिसा हुआ है : मलधारि और इमिल संघ के नाम मिलते हैं । १३. तत्पश्चात् अजित सेन - पण्डित और चन्द्रप्रभ, जिनके शिष्य अजितसेन देव थे, की प्रशंसा आती है। इसके बाद समय-सभा में दिवाकर-सूर्यके समान समयदिवाकर के शिष्य सूरि चन्द्रप्रभकी प्रशंसा आती है । १४. चन्द्रप्रभ-मुनिनाथने सल्लेखना व्रत धारणकर शकवर्ष ११०५, शोभ- कृद्वर्ष, मंगलवार, भाद्रपद शुक्ला १०, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में, प्रभातसमय में देहो - सर्ग किया ।] [ EC, III, Tirumakudlu Narasipur tl., no 105. ] ४११ अळेसन्द्र-संस्कृत और कन्नड । [ शक ११०२११८३ ई०] [ मळेन्द्र (नलीफेरी प्रवेश) में, गाँव के मुख्य प्रवेशद्वार के दक्षिण की तरफ पढ़े हुए पाषाणपर ] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अळेपन्द्र के लेख २११ श्रीमत्परमगम्भीरस्यावादामोपलाञ्चनम् ।” जोयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। वीतराग । स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वरं द्वाराक्तीपुरवराधीश्व . यादवकुलाम्बरामणि सम्यक्त्वचूडामणि वासन्तिकादेवीलब्धवरप्रसाद मलेपरोळु गण्डाद्यनेकनामावलीसमलङ्कतरप्प श्रीमन्त्रिभुवनमा विनेयादित्यहोयसळ कोहगदाळ्वखेडद बयल्नाड वळेकाड, साविमलेयिनोळगाद भूमियेलम दुष्टनिग्रह-शिष्टप्रतिपाळनेयिं । सळनेम्बनागे यादव- । कुलदोळु पुलि पाये कण्डु मुनि पुलियम्पोय । सळ येने पोरदुर्रि पोय-। सळ वेसरवनिन्दवागे तदंशबरोळ्॥ कन्द ।। सळ-नृपनि बळियं यदु-। कुळ-बीरप्पलबरोगेदरवर अन्वयदोळ् । बळवद्विरोधिभूभृत् । कुलिशं जनियिसिदनेसेये विनेयादित्यं । बलिदडे मलेदडे मलेपर । तलेयोळु बाळिदुवनुदित-भव्य-रसवसदि । बलिपट मलेयद मलेपर । तलेयोळु कैयिडुवनोडने विनेयादित्यम् ॥ आ मण्डलेश्वरन मनोनयनवल्लभे। __ परिचनकं पुर-अनकं परमार्थं ताने पुण्य-देवतेयेनलेम् । धरेयो नेगळ्दळो केळेयब- । बरसि बनाराध्ये भुवन-वनितारनम् ॥ अन्त रिबरं सुखसङ्कथाविनोददि सोसवर नेलेवीडिनोळु राज्यं गेप्युत्तमिर्दाकेळेयल देवियरु मरियाने-दण्डनायकनं तन्न तम्मनेन्दु रक्षिसि विनेयादित्यपोय्सल देवरु तानुमिर्दु मर्रियाने दण्डनायको देकवे दण्डनायकितिय कन्यादानं माडि आसन्दि-नाड सिन्दगेरेयं प्रभुत्वसहितं नेलेयागि शक-वर्ष ९६७ नेय सर्वजित् संवत्सरद फाल्गुण-सुख-तदिगे सोमवारदन्तु कन्या-दान, भूमि-दानमुमं धारा-पूर्वकं कोटु स्व-धर्मदिं रक्षिसुत्तमिरे । धरणिगे नेगळ्दा-पोयसळ-। नरपतिग कमनकम्बुकन्धरे केळेरबब्बरसिगमुदियिसि नेगर्दै । परित्रियोळु वोर-गानेरेयापम् । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह आ-विभुगं नॆगळ्द्धेश्चल- । देविगमुदियिसिदरदटरेने बझाळ- | क्षमा-वल्लभ विष्णु-धरि- । श्री वल्लभ सुभरनुदित नुदेयादित्यम् ॥ एनितित्तडमेनिंतिरिदंडम् । अनितोपुं कूपमप्पुवे पेरंगकेम् मने नोड दिटरे बळ्ळा- | ळ-नृपाळने चागि वल्लु-देवने बीरं ॥ अन्तुं सुख-संकथा-विनोददिं श्रीमद्राजधानी बेलुहुर-बीडिनो राज्यं गेय्युक्तं इदुर्दु मरियाने दण्डनायकन द्वितियलक्ष्मी-समानेयरप्प चामये- दण्डनायकितिगं पुदि पम-देवि खामल- देबि बोप्पा- देवि परिन्ती-मूवुरुं शास्त्रगीत-नृत्यदत्तु प्रवुडेयरुं मूर्ख - राय-कटक- पात्र जस-दळेयरेनेसि बळ येला - मूवरु कन्यकेयर नोन्दे-ह सेयो बल्लाळ-देवं विवाहमाडि सक वर्ष १०२५ मेय सुभानु- संवत्सरद कार्त्तिक शुद्धदशमि- बृद्ध (स्पति) वारदन्दु मोलेवाज़ - रिणक्के मरियाने दण्डनायकङ्गे सिन्दगेरेय एरडनेय-पर्यायटलु प्रभुत्व-सहितं नेलेयागि पुनर्द्धारपूर्वकं को सलित्तमिरे । २१२ तुळु-देशं (चक्र) चकगोहं तळवनपुर उच्चंग कोळाल एळुमले वञ्चि कबिसु हडिय घट्ट बयल नाडु नीला-दुर्ग रायरायोत्तमपुर तेरेयूकयतूग्र्गोण्डवाडिस्थळवं अ-भङ्गादि गेल्दळ - भुज-बळातोपदि विष्णु-भूपं ॥ अरि नृपरं तङ्गडदु बेलियनिक्कि पटु प्रतापवुरब्बिरे तळकाड बीड- गडिदल्कुरें सट्टु तुरङ्गदश्चि-सञ्चरणदिनु वीर रसदिं हदनाडे कूडे वित्तिदम् । सु-रुचिर-कीर्त्तियं नृप-सिखामणि साहस- गढ़-होयसळम् ॥ स्वस्ति श्रीमतु कश्चि-गोण्ड विक्रम-गङ्ग विष्णवर्द्धनदेषं दोरसमुद्रद नेलेवीडिनोळु पृथ्वी- राज्यं गेय्युत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीविगळण हिरिय-मरियाने दण्डनायकन मय्दुननप्प गङ्गराजदण्डाधीशम् । बिनालय-कोटियं क्रम मचिन-मातवतिर लिची बेट्टिरे मुनिन्ते परें मात्तिवत् Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ॰सन्द्र के लेख युत्तम पात्र-दानटोटवं मेरेधुत्तिरे गङ्गवाडि-तोम् भट्टरु-सायिरं कोपणवादुदु गङ्गण-दण्डनाथनिम् ॥ तत्तनय ॥ कदनदोळान्तरं गेळुवडेम् गळ निन्न पेसावतारियेम् बुदे बुध-बन्धुवेम्बुदे बनाग्रणियेम्बुदे बोप्प-देवनेम्बुदे कलियेचि-राब-विभुवेम्बुदे गङ्गन गन्ध-हस्तियेम्बुदे रण-स्ङ्ग-पाण्डु-सुतनेम्बुदे वैरि-घरट्टनेम्बुदे ।। आतन मटदुनरु संस्त (समस्त ) राज्यभरनिरूपितमहामात्यपदवीप्रख्यातरुमभिजातरं श्रीमदर्हत्परमेश्वरपदपयोबषट चरण । रत्नत्रयालङ्कतकमप्प श्रीमन्महाप्रधानं मरियाने-दण्डनायक श्रीमदादि-भरतेश्वर नेनिप भरतेश्वर-दण्डनायकतुं तम्मोळभेद-भावदिं गुणि-गुण-स्वरूपरागि । उन्नतवंशनुत्सव-कुलोत्तम भद्र-गुणान्वितं जगत्सन्नुतदानयुक्तविभवं मरियाने रिपु-अभेदनोत्पन्न-जयाभिरामनेनगीतने नच्चिन पट्टदानेयेन्द। एम् नेरें नच्चि माडिदनो विष्ण-नृपं धबिनी-पतित्वमम् ॥ जिनपति देववात्म-जनकं-प्रभु पेगडे देचि-राजनोळ. पिन कणि तन्न ताय नेगळ्द नागल-देवि चमूप-वक्त्र-चन्दन-तिळकं [...] मरियाने चमूपति नाथनिन्तु सजजन-विनुतान्वयोन्नतिये जकल-देविये धन्ये धात्रियोळ् ।। तोळतोळगि बेळगि कीर्ति-। वळयदिनळवट्ट विष्ण-भूपन राज्यस्तळके मिसुपेसेक-हेमद । कळस केवळमे भरत-दण्डाधीशं । कान्तं श्रीभव्यचूडामणि भरतचमूनाथनाटयन्तिक-श्रीकान्तं त्रैलोक्यनाथं परम-चिनने देवं समम्पस्त-सद्-सिद्धान्तं श्रीमाघनम्दिनतिपति गुरुगळ् तन्दे मारैयन् एन्दन्द् । एन्तुं तां धन्येयेन्दी-हरियलेयेने भूमण्डलं बिच्चळिक्कुम् ।। एणिकेय लोकद-गणिकेयर । एणेयरु नोडे चिक-हरियळे गारुम् । गुणदोळु शासन-देवियर् । एणेयप्परु भरत-राननाङ्गनेजम् ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह इन्तु पोगळ्तेगे नेलेयाद कौण्डिल्य-गोत्रट डाकरस-दण्डनायकन एचवदण्णायक्रितिय मकालु नाकण-पण्डनायकनुं मरियाने दण्डनायकनुं अवर मकल जायण दण्डनायकनातन सति हम्मबे दण्णायकितियु डाफरस-दण्डनायक आतन-सति दुग्गब्बेदण्णायकिति अवर मकळ मर्रियानेपण्डनायकन भरतिम्मेय-दण्डनायकनुमवर तङ्गे। जिन-पद-पद्म-भक्त सुचरित्र-नियुक्ते विनीते माचि-राबन सुते काव-राजन मनः प्रिये चाकलेसद्वधूचनानन-विळसलामे मरियानेय सद्भरतेश-दण्डनायन किरि-दङ्गे मन्मथन विक्रम-लक्ष्मियोलादमोप्पुवळ ॥ श्रीमत्काञ्चि-गोण्ड विक्रम गङ्ग विष्णवर्द्धन-देवनन्वयट मरियाने-दण्डनायकनुं भरतण-दण्डनायकनुं सर्बाधिकारिगळं माणिकभण्डारिगळं प्राणाधिकारिगळं आगि सुखदि सलुत्तमिरे । विष्णवर्द्धनदेवं श्रीमद्राजधानि-दोरसमुद्रद नेलेवीडिनो पृथ्वो-राज्यं गेय्युत्तमिरे उत्तरायण-संक्रमानटोळ "नदोळ तम्म मगनं विट्टि-देवन हेसरनिटु १००० होन्नं पाद-पूजेयं कोटु आसन्दि-नाड सिन्दगेयुमं बाय-वेण्णेगे बग्गवळ्ळियुमं कलिकणि-नाड दिण्डिगनकर्रेय प्रभुत्वमुमं विट्टि-देवन स्वहस्तदि धारा-पूर्बकं हडदु सुखदिनिरे । जनियिसिदं विष्णु-मही- । शन वधु लक्ष्मा-देविगनुपम-नारसिंघा-। वनिपं नतरिपुभूपा- । ळ-निकाय ललाट-तटाघट्टित-चरणम् ॥ श्रीमन्महा-मण्डलेश्वर नारसिंघ-देवरु राज्यं गेयुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीविगळू महाप्रधान मरियाने दण्डनायककै भरतिमेय-दण्डनायकरूं तम्मन्वयद सिन्दगेरेय बमावळ्ळिय दडिगनकरेंय प्रमुस्वके ५०० होन्नं पाद-पूजे कोटु नारसिंघदेवर कैयनु पुनईत्तियामि हबदु सुखन्दिनिरे । काल-निभ-प्रतापि नरसिध-महीपतिगं मदेम-लीलालस-याने कम्युनिभकन्धरे एचल-देविगं जय-। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असम्छक लेख २१ भी-ललनेशनीतनेने पुटिदज्जित-पुण्य-मूर्ति बना . लाल-नृपाळकं समदवैरिमहीभुखदभचनम् ॥ कलिकालदत्रपुत्रप्रबळतरदुराचारसन्दोहदिन्दम् । पोले पोईल पेसि बेसत्तळबलिद मही-कान्तेयं रक्षिसल्काबलबादं ताने बन्दित्ववतरिसिदवोला-चीर-चलाल देवम् । कुलनात्याचारसारं नृपवरनुदयं-गेयदनाश्चर्यसौर्यम् ॥ श्रीमन्महामण्डलेश्वरन् असहायशूर निरंशङ्कप्रताप होयसळ -वीर-बल्लाल-देवर तत्पादपद्मोपनीविगळप्प श्रीमन्महाप्रधानं भर्यतम्मस्य दण्डनायकरं श्रीममहाप्रधान बाहुबलि-दण्डनायककै सर्वाधिकारिंगळु माणिक-भण्डारिगळं प्राणाधिकारिंगळुमागि सुखादिं सलुत्तमिरे। भरतचमूपतिगमुचितान्वय-चारु-चरितदोप्पुवाहरियले दण्डनायकितिगं गुणरत्नपयोधि पुटिदम् । परिचित-नीति-शास्त्र निखिळास्त्र-विशारदनिष्ट-विशिष्ट-भासुर-निधि बिहिबनखिळावनि-मण्डन-मौलि-मण्डनम् ॥ सेनापति मरियानेगे । भानुगे कानीननाद बोल सुतनादम् । भानु-सम-द्युति विबुध-नि- । धानं गुणरत्नराशियप्पं बोप्पम् ।। मर्रियाने दण्डनायङ्गरिविन कणियेनिसि पुट्टिदै जन-विनुतम् । करमरयिल्लद बसदि । नेरेंदं जित-वीर-वैरि हेगडे-देवम् । मरत-चमूपन पुत्रं । पुरुषार्थम्बोधि मान-कनक-नागेन्द्रम् । पुः 'खचर मनु-मुनि- । चरितं मर्रियाने देवनदटर गोवम् ।। अनुपम-दण्डनाय-भरतात्मजे भू-तुत- ... नेचि-राजनङगने विभु-राय-देव मरियानेगळम्बिके सिन्दघट्टदोळ् । धनतर-कूट-कोटि-युत-पार्श्व-विनेश्वर-हम बमनबन-नुतमागे माडिसिद शान्तन-देवि कृतात्थे धात्रियोळ् ॥ जिन-धननिगेणेये बम्मवे । बननि गड तण्डे नेगळ्द हेगडे-पार । अनुनयदे पुत्रनादं । दिन-पतिगे ... ." निप-तेबदातं शान्त । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह तङ्गेयक हेमन देवि बुग्गिन-देवियरु । भरत-चमूपनि पिरियना-मरियाने-चपना-मू-। वर गं महाप्रभु महागुणि वीर्य्यद धैर्यदागरं । भरत-चमूपनङ्गभव-रूपनपास्त-रवि-प्रतापनुद्घराळवि विक्रम-क्रम-विनिर्जित-शत्रु-पराक्रमाक्रमम् । अन्तेनिप भरतसेना-1 कान्तन कडु-होम्न कान्ते चले भू-च- । क्रान्त-स्थापित-शशि-मणि- । कान्ति-लसत्-कीत्ति-मूर्ति सति रति-यनम् ॥ भरत-चमूपगे तम्मं । स्थिर-गुणनभिमतनेने बाहुबलि-दण्डेशम् । पुरुषार्थ-सार्थ-तीर्थ । पर-हित-विद्याधरेन्द्रनिन्द्रेज्य-निभम् ॥ आ-विभुविन सति नागल-देवि जगरख्याते सीते पत्ति-हितदिन्दम् । भावभवाङ्गने रूपि । भाविसे तां बान्मेयिन्द लक्ष्म्येनिप्पल ।। ओदवद-रूपिनिन्दे नयदिन्द् 'नोडुव कण्ण बेतां । पदेदनुरागदिन्द चमूपति भरतनेम्ब महा-गजेन्द्रमम् । पुडिदळु तन्न यौव्वनद कम्बदे (आ-) बाचले नारि । पदे जिनभक्ते पुण्यवति दान-विनोदे पतिव्रता-गुणि ॥ बेसनं बाळ-भूपम्बेससे भरत-दण्डाधिपं रामादि वा-। यु-सुतं रामायिन्दं नडव-तेरंदे बीळकोण्डु सामग्रियिन्दन्द । असुहृद्देशाङ्गळं केसुरिगे धेरैये बिट्टन्ते निष्कण्टकं भू- । प्रसरं तानास्तधीशङ्गेनिसि पगेय चिन्तिल्लदन्तागे कोण्डम् ।। ताङ्गदे युद्ध-रङ्गदोलिदिचुक्ने ... ... गदिम् । .... मलेवन्दडवन ... ... ओन्दे थटि वीररम् । तुङ्ग-मुखासियं तबिसि विक्रम-लक्ष्मीगे गण्डनाद पेम्पिले बगजनं पोगळ्बुद्दी-भरतेश्वर-दण्डनायन !! कुदुरैयनेताहणिगघियनोय्यने नीडे वैरिगन् । कदन-परामसपरिदु बेटमनेरिंदरदुदिक्किदर् । नदिगोडाळिगढ़ ने कच्चिदरेग्दे हुसने Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असन्के लेख २७ २१७ रिदरिदु दण्डनाय भरतात्मक बाहुबलि ... ... करो। नाभि-सुत-सुतर तेरेदेस- । नाभिगळ् आदि-प्रभाव-चरितप्रमवर । श्शोभित-शुभ-मति-युतर- । सोभितरी-भरत-बाहुबलि-दण्डेशर् ॥ स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वरं तळकाडु-कोङ्ग-नङ्गलि-बनवसे-उच्चङ्गि-हानुनलुगोण्ड भुजबळ वीरगङ्गान् असहाय-शूर शनिवार-सिद्धि गिरि-दुर्ग-मल्ल चलदकराम निश्शंकप्रताप होयसळ-वीर-बल्लाळ देवरु श्रीमद्राजधानि-दोरसमुद्रद नेलेवीडिनोळु सुख-सङ्कथाविनोददि पृथ्वी-राज्यं गेय्युत्तमिरे शक-वर्ष ११०५ मेष शुभकृत्संवत्सरद मार्गशिर-शुद्ध-पाडिव सोमवारदन्दु कुमार-वीरनारसिंघ देवं जन्मोत्सव-महा-ढानटोळ तम्मन्वयद सिन्दगेरेय बळ्ळवळिय कलुकणि नाड वडिगणकरेंय अणुवसमुप्रद प्रभुत्वनुमं अणुवसमुद्रदल कन्नेबसदियागि माडिसि आ-बसदिगं चाफेयनहळ्ळिय बसदिगं देवपूजे आहारदानं नडवन्ताणि सेसेयं तेत्तु अणवसमुद्रद सिद्धायद मोदल होनोळगे इप्पत्तु-होन्न बळिसहित नाल्वत्तु-होन्नं ग्वाण-सहित गळिहि श्रीमन्महाप्रधान भरतिमय्य दण्डनायकरु श्रीमन्महाप्रधानं बाहुबलि-दण्डनायकरुं बळ्ळाल देवन श्रीहस्तदलु धारा-पूर्वकं हडदु श्रीमूलसंघ देशियगण पोस्तक-गच्छ कोण्डकुन्दान्वय इङ्गळेश्वरद बळि कोलापुरद सावन्तन-बसदिय प्रतिबद्ध श्रीमाघनन्दि-सिद्धांत-देवर शिष्यरु श्रीगंधविमुक्त-सिद्धांत-देवरु अवर शिष्यरु श्री-देवकीर्तिपण्डितदेवरु अवर शिष्यरप्प श्री देवचंद्र-पण्डितदेवगै शक वर्ष ११०६ नेय शोमकृत्संवत्सरद पुष्प शुद्ध दशमोसोमवारद उत्तरायण-संक्रमण-महादानदलु धारा-पूर्बकं माडि काट्ट दत्तिगळ वृत्ति ॥ ( आगेकी ६ पंक्तियोंमें दानकी विशेष चर्चा और हमेशाकी तरह अन्तिम वाक्यावली तथा श्लोक हैं) [इस लेख में सबसे पहले जिनशासनकी प्रशंसा है। वीतराग । ( अपने पदों सहित ) त्रिभुवनमल्ल विनेयादित्य-होसळने कोङ्कण, आम्बखेड, बयलनाड् , तलेकाह और साविमलेसे घिरी हुई तमाम भूमिमें दुष्टनिग्रह-शिष्ट प्रतिपालन किया था। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन-शिलालेख संग्रह __ यादव शमें सळ हुआ था। एक चीतेको किसीपर शिकार करनेके लिये उछलते हुए देखकर और किसी मुनिके यह कहनेपर कि "मारो (पोय ) सळ ?" सळने इसे मारकर 'पोसळ' नाम प्राप्त किया था और यह नाम आगे चलकर उसके तमाम वंशका द्योतक हुआ। यदुवंशमें सळके बाद बहुत-से प्रबल राजा हुए, उन्होंमें एक विनेयादित्य हुआ। उसकी रानीका नाम केलेयब्बरसि था। जिस समयमें दोनों (विनेयादित्य और केलेयबरसि ) सोसवोरुमें रहते हुए सुख और बुद्धिमत्तासे राज्य कर रहे थे शक सं० ६६७ में केलेयल-देवीने पर्रियाने दण्डनायकसे देकवेदण्डनायकितिको व्याह दिया और भेंटमें आसन्दिनाड्के सिन्दगेरीको उसे दिया । विनेयादित्य पोयसळ और रानी केळेयब्बेसे राजा वीर-गङ्ग-एरैयङ्ग उत्पन्न हुआ । वीर-गङ्ग एरेयङ्ग और एचल-देवीसे बल्लाल, विष्ण और उदयादित्य उत्पन्न हुए थे । बल्लाल या बल्लु-देवकी प्रशंसा । जिस समय बल्लालदेव अपनी राजधानी बेलुहरुमें रहकर सुख-शान्तिसे राज्य कर रहे थे, मरियाने-दण्डनायककी दूसरी पत्नी चामवे दण्डनायकितिसे पदुमलदेवी, चामलदेवी और बोपदेवी उत्पन्न हुई थीं। बल्लालदेवने इन तीनों कन्याओंका विवाह एक ही मण्डपमें शक सं० १०२५ में विभिन्न तीन राजाओंकी रावधानियोंमें कर दिया और उनकी दूध पिलाई (wet nursing ) की तनखाके रूपमें द्वितीय पीढ़ीके मर्रियाने-दण्डनायकको पुनः सिन्दगेरीका स्वामित्र दे दिया। - रावा विष्णुने तुलुः देश, चक्रगोट्ट, तळवनपुर, उच्चगि, कोळाळ, सप्तमले, बल्लूर, कश्चि, कोजु, हडिय-घट, बयल-नाड, नीलाचल-दुर्ग, रायरायपुर, तेरेपूर कोयत्तर और गौण्डवाडि-स्थल, इन सब प्रदेशोंको बीता था। साहस-गङ्गहोय्सजने विरोधी राबाओंका नाश करके तलकाडको (खादके लिये ) बलाकर घोड़ोंके खुरोंसे उसे बोतकर अपने बीरसकी नदीसे उसे सींचकर अपने यशके अच्छे बीचसे इसे बोया । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. जैन-शिलालेख संग्रह बीणोंडारके देवरष्टविधाचने... ... ... ... ... ... ... .."ब्राह्मण... ... ... ... ... ... ... .. कोन्द पापक्के... ... ... ... ...( हमेशा की तरह अन्तिम श्लोक ) स्वस्ति श्री समस्त-कोटि-जिनालयं भद्रमस्तु जिनशासनाय॥ [बिन शासनकी प्रशंसा। विस समय, ( अपने पदों सहित ), होयसळ वीर-बल्लाल-देव हेदुरे (कृष्णा नदी ) तक उत्तरकी ओर पृथ्वीको स्वाधीन करके सुख और शान्तिसे राज्य करते हुए अपने निवासस्थान दोरसमुद्रमें थे:-तत्पादपद्मोपजीवी होरलाधिकुलाग्रणी एक गोरव-गखुण्ड थे। उन्होंने तिप्पूरमें एक जिनालय बनवाया । वह मन्दिर द्रमिलसंघ, नन्दिसंघके आरुङ्गल अन्वयका था। जिनालयकी मरम्मत तथा पूजाके प्रबन्धके लिये उसने मदहल्लि गाँव का, बसदिके उत्तरकी औरकी जमीन सहित, दान किया था।] [EC, IV, Guudlupet, tl., No. 27.] ४२६ हलेबोड-कचड़। वर्ष नल [ शक १११८= ११९६ ( कीलहान )] [पार्श्वनाथ पस्तिके प्रवेशद्वारके पासके एक पाषाणपर] श्रीमत्परमगंभीरस्पादादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथप शासनं जिनशासनम् ॥ श्रो-मूलसंघ क्रमलाकर-राजहंसो देशीय-सद्-गणि..."रावतंसः । बीवाजिनेन्द्रसमयार्णव-तूर्ण-चन्द्रः श्री-वक्र-गच्छ-तिलको नि-बालचन्द्रः॥ स्वस्ति' भीमद्-मुबबळ-चक्रवर्ति यादव-नारायण-वीर-बलाल-देवर् सुख-संकथाविनोददि राज्यं गेय्युत्तमिरे। नळसंवत्सरद कार्तिक-शुद्ध-पडिव-बृहस्पतिवा Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलेबीडके लेख २११ रवन्दु श्रीमन्महा-बहु-व्यवहारि कवरमयन देवि सेष्ट्रियरु माडिसिद श्रीशान्तिनाथ-देवर बसदियूर-कोरबुरेय कालुहल्लि माचियहल्लिय पमतिगट्टष इटगेय मल्लरसय्यंगण मक अप्पय्य-गोपय्य-बाचय्यङ्गळु आ-शान्तिनाथ-देवर बसदिय परिसूत्रदोळगण तम्म माडिसिद पट्टशालेय श्री-मल्लिनाय "वरष्ट-विधा चनेगं खण्ड-स्फुटित-जीणोद्धारक ऋषियकळाहार-दानक्क पर्चदिनपूजेगं भीमन्महामण्डलाचार्याण्डविय बाळचन्द्र-सिद्धान्तदेवर शिष्यर् रामचन्द्र-देव अरुवत्तु-गद्याण होन्नं क्रयवागि कोट्ट कोण्डरा-बम्मतिगद सीमा सम्बन्धवेन्तेने (आगेकी ३ पंक्तियोंमें सीमाकी चर्चा है ) आ-केरेयनिप्पत्त-होनं को कट्टिसिदर् देवर नित्य-पूना-क्रममेन्तेने ॥ (आगेको ६ पंक्तियोंमें दानकी चर्चा है ) इत्ति नितुमं सर्व-बाधा-परिहारवागि श्री-शान्तिनाथ-देवर वसदिय-आचार्यरारोरिहरिद्दवरुं कोरडुकेरेय गौडुगळु ऊररुवत्तोक्कलु अरुवण्णवोळगाद अन्यायवेनु बदडं तावे तेत्तु सलिसुबरु ई-धर्मवं नरवरंगळारैय्दु प्रतिपाळिसुवरु ॥ (हमेशाका अन्तिम श्लोक ) मंगल महा श्री॥ [इस लेखमें सबसे पहले मुनि बालचन्द्रकी प्रशंसा है। वे मूलसंघ, देशियगण और वक्र-गच्छके थे। जिस समय यादव-नारायण वीर-बल्लालदेव शान्ति और बुद्धिमत्तासे राज्य कर रहे थे:-( उक्त मितिको ) बहुत पुराने व्यापारी कवडमय्य और देवि-सेटिने शान्तिनाथ-देवकी बसदिके लिए कोरडुकरेके एक छोटे गांव माचियहल्लिके बम्मटिगट्टको बनाया और इटगे मल्लरसय्यके पुत्र अप्पय, गोपय्य और बाचय्यने, शान्तिनाथ-बसदिके घेरेके अन्दर अपने द्वारा बनाये गये पटशाले के मलिनाथ-देवकी अष्टविध पूजाके लिये, महामण्डलाचार्य माण्डवि बालचन्द्रसिद्धान्त-देवके शिष्य रामचन्द्रदेवको ५० होन्नु देकर उस बम्मटिगट्ट ( उसकी सीमायें) खरीदकर भेंट कर दिया, और २० होन्नु देकरके एक तालाब बनवा दिया। इस दानकी रक्षा शान्तिनाथ बसदिके आचार्य, कोखकरेके किसान, और गांवके ६० कुटुम्ब करेंगे।] [EC, V, Belur, tl., No. 120] Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह चिक्क-मागडि;-संस्कृत व्याकर [संभवतः छगमग १२१२(१).] [चिजमागडि में, बसवण्ण मन्दिर के प्राङ्गणमें एक खम्मे पर] (पूर्व मुख) स्वस्ति श्रीमत्-प्रताप-चक्रवर्ति यादव-नारायण होय्सल-वीरबल्लाळ-देव-वर्षद २३ नेय ॥ दोरेवेत्ताङ्गिर “सरं नेगळद-मास श्रवणं शुद्ध-वा-। सरम देरिसि शुक्रवारमु..."पुष्य-बस-सा-1 ध्य""सु बहयाषाढ़......... "परं वि...."सत्करणं तैतिलमि'...."न्दिद विभातं कूडे पु.."यिम् ॥ जिन-वाक्यामृत-सेवयिं मनद मिथ्यात्वामयं पिङ्गे द-। र्शन-संशुद्धते-वेत्त चित्तदोदविन्दन्तर्मही ..प्ति। अनितुं तनविक्लवेम्' ''बगेयं बिट्ट कुश-"त्म-शु-।, द्ध-नयं तन देव ताळिद गुणमं जकव्वे निश्चसुतम् ।। मति-बिन-पाद-पङ्कघदोळ अन्वितमातुदु दृष्टि नासिका- । ग्रतेयोळे निन्दुवागम-पदङ्गळनालिसुतिर्दुवागळुम् । श्रुति-युगळं"दृष्टि-युत-सन्यसनं नेरेदोप्पे नाक-सं-। गति-वडेदळ समाधि-विधियिं वरे अक्कलेयेम् कृतार्थेयो । सले भानु-ज्योतियिन्दं विकचिसियदरोळ् देव-देवेशनं निश्- । श्रळमागिर्द 'सन्तोषदोळे जिनपनं बानिसुत्ता-सता-को-। मळे बिल् चक्कियकं तनुवनुळिदराप्पोळवरेम्वन्तु तन्नम् ।। क्षयमं मिथ्यात्व-कर्मकमर्द गुणद सम्यक्त्व-स.."सम्व-। दियुमं मुम्मण्डि देश-श्रुतमननितुर्म कोण्डु निमोहे ताय-तन् । देयुमं बिट्टन्दे सन्यासमनमळिनवं पून्दु जैनेन्द्र-पाद-। दयमं चित्तसि बकवे दलेसे...........। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक-मागडिके लेख २३३. ""त-दर्शने विस्तारित-सु...........-कळेवर पकाले नारिखना..... ति............"नेनेयुत बकले तनुवं बिटागवन्ते सुकुम "सुषाशन-पूज्यसमवशरणमननाकुळं पोक्कु बिननभिवन्दिसुव........ (दक्षिण ओर) श्रीमत्पुण्य-फलादभूद् भुवि सुता सामन्त-मुख्यस्य या सा सर्वश-पदारविन्दमसकृत् सम्पूज्य भक्त्यादिशत् । शुद्ध-ध्यान-विशोधि-बोधित-मनःपूर्व समाधि-क्रमैस् साश्चय स्यवति स्व-देहमणुवच्छी-जक्कलाम्बा सती। चित्तं विस्तार्य पुण्याश्रव-करण-विधौ सर्व-कर्माणि नाशी-। कत्तुं त्यक्त्वा विमोह समयमुपशमं प्राप्य चात्मोपयोगम् । सुद्ध-ध्यानामृताम्भ:-प्लुत-म"जिनेन्द्रस्य पादारविन्दम् प्रस्थाप्यालोक्य देहं त्यवति तृणमिव श्रीमती जक्कलाम्बा ॥ नित्यानन्द-सुखामृताम्बुधि-पय:-पूर्वावगाहोत्सुका स्वाल्मानुष्ठित-सम्यमात-विळसत्-सम्यक्त्व-पोतेन या । संसारार्णव-पारमाशु तरणोद्योगं समुत्पादिनी चित्रं देव-गति प्रति त्यति किं देहं तु जक्काम्बिका ॥ निखिल-वनज-वल्ली-पुष्प-माला-कदम्बैः घृत-दधि-वर-दुग्धैराभिषिच्यार्य तीर्थान् । न भजति हृदि तृप्ति अषकलाम्बा स्व-देहात् समवशरण-नाथं द्रष्टुकामा प्रयाति ॥ दानान्वितेति गुण-रत्न-विभूषितेति शान्तेति सन्द-बनतासु दया-परेति । जैनागमोक्त-चरितानुगतेति भव्यः के न स्तुवन्ति भुवि अक्कल-योषितं ते ॥ (पश्चिम ओर ) श्री-विबुधेन्द्र-वन्दित-जिनेन्द्र-महा-महिमा-ना-शची-1 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह देवियेनिप्प अक्कल-महा-सतियुद्ध चरित्रमं कला- । श्री- विभवङ्गळं विविध- दानमनात्त- जिनेन्द्र-भक्ति-सं- । भावित - सत्-समाधि-मृतिथिं सुकृतात्थिंगळारी कीर्त्तिसर् ॥ वनिता-भूषणे सच्-चरित्रवति ताय् लच्छब्बे सामन्त-मण- I डन-मुहं जनकं विनूत भरतं कान्तं सुतत्त्वोपदे- 1 शनना-श्रीमदनन्तकीर्त्ति - मुनिपं पूज्यं बिन-स्वामियेन्द् । एने चक्क ...... वंश-शील - सम्यक्त्वं जगत्-पावन ॥ २३४ ••डिगे बिनाग बिनमतं मतिगा-बिन-सू सत्पदम् । नडेोडनाडिया ने जिनोक्कियनोदि तदागमार्थमम् । नडे तिळिदन्ते मुक्तिगिरदेदिप शील-गुण-वताध्वदोळ । नडेडेगेय्दवाल्के गड अक्कले नारि महेन्द्र-कल्पदोळ ॥ नेरेये मुनीन्द्ररुं पोगळूदणं तले दुगे परिग्रहङ्गळम् । तोरे गृहीत -सन्यसनदिं निन- बान्धव- मोह पाशमम् । परिदु सुवृत्ते अक्कले महा-सति चित्तमनाप्त-तत्त्वदोळ नरिसि समाधियिं नेरेये साधिसिदऴ् सुर-लोक-सौख्यमम् ॥ तळर्दिरदेक- पार्व-नियम- स्थिति दृष्टि सु-नासिकाग्रदिम् । कळिवेडे बल्पु बलि करदे मेय् मिडुकाडदे जैन-भक्ति सञ्- । चाळिस माणदुच्चरिति पञ्च-पदङ्गळगनात्म-तत्त्वदीळ | लसिद सत्-समाधि-विधि जक्कले नारिगिदेक-लावणम् ॥ ( उत्तरकी ओर ) श्री- जिनेन्द्र ॥ त्यक्त्वा देहं विमोहाद् व्रत - गुण-चरित-श्रेणि-निश्रेणि-मार्गाद् आप स्वर्ग-दुर्गा निच-भजन- बलादेव यत् तद् गृहीत्वा । याहं जक्काम्बिकास्मिन् दिवि दिविजवारोऽभूवमात्म- प्रसादाद् इत्थं तुष्टाव गत्वा समवसरण - भूस्थं नतेन्द्र जिनेन्द्रम् ॥ चिन नाथाभिषवङ्गळि बिन-गुण-स्तोत्रङ्गळिन्दं बिनार्- | ...... .... Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक-मागरिक लेख २३१ नेयिन्दं जिन-मत्तियि चिन-मुनीन्द्राहार-दानङ्गळिम् । जिन-वाक्यार्थ-विचारदिन्दलेदु मिथ्या-मार्गमं तत्त्व-मावनेयिं पेटमरत्वदिन्देरगिदळ जकब्धे जैनावि योळ् ।। तत्वमना-जिनेन्द्र-मतदिं तिळिदुज्ज्वळमाद शुद्ध-हष्टित्व-गुणार्कनिन्दलरे शील-गुण-व्रत-वारिजाळि मि-1 थ्यात्व-तमस-तमं परेये सत्पथ-वर्तिनियागि शुद्ध-सं-1 वित्वदिनेरिददळ नेगळ्द बकले नारि सुरेन्द्र-लोकमम् ॥ ललित-पतिव्रताचरण-चार-नटी-सलिल-प्रवाहदिम् । कलि-मलमं कळल्चि निज-निर्मळ-कीर्ति-लता-वितानमम् । बळेयिसि-शील-शालि-बनम परिवर्द्धिसि पुण्य-नन्दनङ् । गळने निमिचि जक्कले वलं पडेदळ सुमनो-विभूतियन् ।। परिकिसि सद-बुधर् प्पोगळे तन्न चरित्र-गुणाङ्क-मालेयम् । विरचिसि सुप्रबन्धमने दिक्- कुळ-भित्तिगळोळ तेरळिच मुं-। बरेदुदनीगळा-दिबिज-लोकदळोप्पुव लेख-जाळदोळ् । बरेयिपनेन्दु जकले महा-सतियेरिदळल्ते सग्गमम् ।। पुगेयवसर्पण भरतदायेंयोळन्वितमाद भोग-भू-। मिगळ विरामदोळ् सुकृत-दुष्कृत-वर्तनेयागि सन्द का। ल-गत-च"तु " ळन्त्यदोळे पञ्चम-कालदोळेन्दिदन्द..। महात्मरोळ् गुणमे जक्कले-नारियोळुत्तरोत्तरम् ।। [प्रताप-चक्रवर्ति-यादव-नारायण होय्सल वीर-बल्लाल देवके २३३ वर्षमें उक्त मितिको जिसका बहुत विस्तृत वर्णन है, परन्तु जो बहुत घिस गया है । जकव्वे ( बकले ) ने समाधिमरण धारणकर स्वर्ग प्राप्त किया । (सम्पूर्ण लेख उसकी भक्ति और तपकी प्रशंसासे भरा हुआ है, कुछ भाग संस्कृत में है और कुछ कन्नड़में है )। उसकी माता लपव्वे, पिता मण्डनमुद, Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६. जैन-शिलालेख-संग्रह पति विख्यात भरत, तप-साधक उपदेष्टा (गुरु) अनन्तकीचि-मुनिपः। उसने अपना बोवन, शील और उपाधियां पद्यमें गुत्थित करा लीं थीं। [ EC, VII, Shikarpur, th., No. 196,] ४२८ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा काद। [शक १.१ १११६ ई.] [जै०शि० सं, प्र० भा०] ४२९-४३० श्रवणबेल्गोला-कन्नड़ । [बिना कालनिर्देशका ] जै० शि० सं०, प्र. मा०] अद्रिः-संस्कृत तथा कमाई । [शक १११६=११६७ ई.] [अग्रिमें, बन-शकरी मन्दिरके सामनेके पाषाण पर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ स्वस्ति श्री-पृथ्वी-वल्लभं महाराजाधिराज परमेश्वरं परम-मट्टारकं यादव-कुळाम्बरधुमणि सम्यक्त्व-चूडामणि मलेराव-राज मलपरोळ गण्ड कदन-प्रचण्डनेकानवीरनसहाय-शूर शनिवार-सिद्धि गिरिदुर्ग-मल्ल चलदक-राम निश्शंक-प्रताप चक्रवर्ति होसळ-वीर-बल्लाल देवर राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्क-तारम्बरं सलत्तमिरे ।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्रिके लेख २३७ भुवनं भू-चक्र-चक्रायुधनेने नेगळ्दै वीरवलाळनुवी-। स्तवनीय-प्रांशु-मत्स्प-च्छवि सुचरित-कूर्मोदयं सार-सरि-। य विळासं विक्रम-श्री-नरहरि-परम विक्रम राम रामो-।। त्सव-रामानन्दि विद्या-सुगतर्मात-कलि-प्राभव-प्रौढ़-तेलम् ॥ बळवद्-बल्लाळनुग्राहव-पटह-रवं कर्णवन्ताये विद्युत् (विद्विट् )कुळ-कान्ता-कर्ण-पुत्रं केडवुदणकवल्तोन्दे केळ विस्मयं कणमलरि बाष्पाम्बु कय्यि कडगवडिगळि नूपुरं वक्त्रदिं सुय । तले-कटिं माले-वूवाकेगळ गळकदि बिळवदुत्तार-हारम् ।। जित-धात्री-चक्र चक्राधिप नृप-वर बल्लाळ केळ् निनु ओळान्तु-1 द्धत-वीराराति-यूथं विगत-विभत्रमागिद्दडं रजिजकुं वि- । श्रुत-नाना-वाहिनी-सङ्कळ-परिगत-शोभानुकूल्यं सदा-से-। वित-राजद्राज-वंशं सकळ-कवि-निकाय-स्वनाकीर्ण-कर्णम् ।। एनसुं तीव्र-प्रतापक्कगिदु दिनकरं मित्रनागिपं ने। हने राजं राज-नामं तनगे पगेयेनिप्पुम्मळं पेचि कन्दिर-॥ प्पनवं मत्तावनण्मं मेरेवनदटनिं तोर्पना महोग्रा-1 रि-नृपाळं विश्व-भू-चक्रदोळेले चलदिं वीरबल्लाळ निन्नोळ ।। आनोलविन्द बण्णिसदडेम् गळ दक्षिण-चक्रि युद्धदोळ । तानसहाय-शूरनेनिपुतियं रिपु-राय-सेवुणा-। नून-गधाश्व-सद्भट-बळझळनारदोन्दे-मेय्योळोन्द्-। दानेयोळोक्किलिकिद पराक्रमदुन्नति ताने हेळदे ।। व।। अन्ता-प्रताप-चक्रवर्तियेनिसिद धीरं वीर-बल्लाळ-देवं निज भुज-बळदिन्दुण्डिगे साध्यं माडि चलदिन्दाळ्द पलवू देशङ्गळोळ ॥ वृ।। पलवू पूर्ण-तटाकदि बलेद-नाना-शालि-केदारदोळ्- । पोलदिं वारिज-षण्डदिं परिमळ-प्रान्ताळि-माळोद्घ-पु-1 ष्पलता-सङ्घळदि फलोन्नमित-चूतादि-क्षमाजङ्गळिम् । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैन-शिलालेख संग्रह नेलेयागिप्पंदु मन्मथाङ्गे वनवासी-देशवेत्तेत्तलम् ।। का। एने नेगळदा-बनवासी-। वनिता-मुख-तिळकवेनिप जिड्डुलिगेयना-। नृपाळ-प्रकरद शौ-। र्य-निधान-स्थानमेसेवुदुखरेय पुरम् ॥ वा। अदेन्तेन्दडे ॥ सरसिब-वक्त्रदि कुमुद-लोचनदि विळसल्लताङ्गदिम् । सुरुचिर- पल्लवाधरदिना-शुक-भावण्डदिन्दे मल्लिका-। परिमलदि मदाळि-कुळ-कुन्तळदि वन-लक्ष्मि-रूपनुद्-। धरेय पुरोपकण्ठ-बनदोळ् पडेदोप्पुवळावळाव-कालमुम् ।। मत्तमल्लि ॥ सले तत्-पुराधिनाथर् । पलरुं मुन्नेगळदरवरोळतुळिज-शौर्यम् । चलदयि-गण्डनेनिपोळ्। गलि बट्टीगनिरिव बिटिगं पेसर-चडेदम् ।। परियिटटु वरि-भूपा-1 ळर पुरवं सुटु हरिव कञ्चिगनादम् ।। बिरुदि तन्नृप-तनयम् । घरेयोळ जयदुत्तरंगनपगत-भङ्गम् ।। गा-कुलोत्तमं मरेयनेरिद मेयूगलि मारसिंग-भू-। पंगे तनूभवं नेगळ्द कीर्चि-नृपाळकना-नृपङ्गे पु-। अं गड मारसिंगनवनग्र-तनूभवमेन्दोडानदा-1 वङ्गणे माळ्पेनप्रतिम-रूपननेक्कल-देव-भूपनम् ॥ आ-नेगळदेक्कल-देव-म-i हि-नायन तङ्गे दसवमरसन सति धा-। त्री-नुते घट्टल-देवि क। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्रिके लेख २३६ ला-निधि पडेदळ पवित्र-पुष-त्रयमम् ।। पर-भूपाळ-पुर-त्रिनेत्रनेरग-मापाळकं वैरि-दुर्- । घर-दैत्य-प्रकर-प्रताप-हरणोद्यत्केशवं केशवम् । सरसोदार-कवित्व-तत्व-चतुरास्यं सिंगदेवं महा-। पुरुष--पुरुषत्वमं तळेदरन्ता-मूबरूं भूवरर् ॥ अवरोळ पिरियनेनिसि ॥ मरेदुं पर-सतिगर-। करोलच्युतनल्लदन्य-देय्वार्पम् । मरेयिप निज-धन-लोभक। एरगनेरगनेरग-नृपनेने नेगळ्दम् ।। एने नेगळदेरग-नृपाळकन् । अनुज कोळाल-पुरस्वराधीश पा-1 वनतर ननिय-गङ्गम् । विनुत-गुणोचेंगनवनी-पति नरसिंगम् ॥ आ-विभुविन सति तकमा। देवि मुकुन्दङ्गे लक्ष्मि परमेष्ठिगे वा-1 णी-वधु रुद्रङ्गद्रिजे। देवेन्द्राङ्गेसेव-सचिथेनल्पेसर्-वडेदळ ॥ आ-रमणी-विशाळ-विनुतोदार-पद्यदोळजगर्भनन्त् । आरमणी-निजामळिन-गर्भ-पयोधियोहिन्दु रागदिन्छ । आ-रमणी-लसजू-बठर-बाह्रवियोळ सुरसिन्धु-जं स-वि-1 स्तारदे पुटुवन्ददोळे पुट्टिदनेक्कख-भूमिपाळकम् ॥ अदेन्तेन्दोदे ॥ स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलेश्वरम् कोळाळपुर वराधीश्वरं गङ्ग-कुल-कमल-मार्तण्डं विरुद-मण्डलिक-शरभ भेरुण्डं जयदुत्तरंग ननिय-गङ्गं विराचित-मयूर-पिञ्छध्वज भूप-रूप-मकरध्वजं श्रीमदच्युत-चरणालिप्त Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२४० जैन-शिलालेख-संग्रह चन्दनचञ्चितानं विप्राशीर्वाद-सत-सहस-सम्भृत-शेषाक्षत-पवित्रीकृतोत्तमाङ्ग भूमिकन्या-वर्णान-दान-विनोंदं सकळ-बन-मनोहलादमेनिसि देक्का -देवन प्रतापमं पेवडे ।। जवनं नक्कुलिप कडङ्गि सिडिल माक्कोळवनामीळ-का-। ळ-विषोग्राहियनेत्ति मारिडुवनौव-ज्वळे यं मर्गिपम् । तविपं तीव्र-निषाटदग्गळिकेयं तानेन्दोडिन्दुक्किनि-। क्कुवमारान्तपरेक्कल-क्षितिपर्न संग्राम-रङ्गाप्रदोळ ॥ दवरूपं रिपु-काननक्के पवि-रूपं शत्रु-शैळक्के बा-1 डव-रूपं [ ] विषद्र्णवक्के निज-तीव्रात्युग्र-कोप-प्ररू-। पवेनल पोङ्गि कडङ्गि निन्दतुळ-बाहा-गबदिन्दाम्परार् । अवनीपाळकरेक्कल-क्षितिपनं संग्राम-रङ्गाग्रदोळ् ।। इंवेसेगोळ्वुदेनो सुभटोत्तमनेक्का -देवनिष्टरोळ । नम्बुगे दप्पिदन्दु पर-कान्तेयोकोळ्[ द् ] ओडगूडिदन्दु लो-1 बम्बिडिदर्थदत्तळिपिदन्दिदिरान्तडे कोल्लदन्दु केल । . अम्बुधि मेरेयिं तोलगुगं तळणु नेळेयिं सुराचळम् ।। तक्कतनक्के मिक्क पर-कामिनियर्कळनेम्म तङ्गेयेम्म् । अक्कनेनुत्ते नम्बे मोरेगोण्डोडगडुव साधु-गळ्ळरे-। तक्कुपायोग्यवा-महीपरेम् गळ पोल्वरे शौचदेळोयिन् । एक्कल-भूपनं पर-वधू-विनुतोदार-पद्म-गर्भनम् ॥ गति-भावं चारि सूत्रं निरिसळवि बळं काङ्क बल्योजे कायपुन्नति गाढं लागु बेगं तेरपु पसरवारैके तेरके कर्पङ - । कितवाकारं तडे कित्तडवेनिप भृगु-प्रौदियिं कोल्वनुग्रा-। हितनं मारङ्कवं मामलेदडे चलदिन्देक्कल-क्षोणिपाळम् । भा-नृपाळनन्वयागत-प्रधानरोळ ॥ स्तुति-बेत्तं विश्व-लोकोनत-वितरण-शील रिपु-क्षोणिपाळ- । प्रतति-प्रख्यात दण्डाधिप-कुळ-विळयोदन-काळ मही-बन् Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्रिक लेख दित-भास्वत्-सच्चरित्र-व्रत-युत-गुण-लोळं जगत्-सेव्य-भव्यप्रतिपाळं स्वीकृत-प्राकट-वर-बुध-बाळं चमूनाथ-माळम् ॥ आ-विभुविन सति-मा-। देविगमोगर्दै प्रताप-निधि वैरि-बय-1 श्री-वरनहित-वनोद्यद्-। दावानळनप्प बोप्प देव चमूपम् ॥ एरेदाथि-चयक्के कळप-कुनविप्पन्तिप्पनं बोप्पनम् । वर-वंशाम्बुधि-वर्द्धनके शशियिप्पन्तिप्पनं बोप्पनम् । आ-सेनापति-सति-जिन-1 शासन-देवते समस्त-चतुर्कोटि कळोद्-। भासित-पद्मावति बग-1 ती-संस्तुतेयेनिप बोप्पियक्कं नेगळदळ ।। आ-दिव्य-सतियेनिप बो। प्पा-देविराममळ-कीति-बोप्पङ्गं पुण। योदयांदनोगेटनमृत-म-। होदधियो सोमनेगेव-तेर्दैि सोमम् ॥ धरे बण्णिापुदु मन्त्रि-बोप्पन तनूजारामनं प्रेमदिम् । निरवद्यामळ-नामनं प्रणुत-विद्ध [त् स्तोमनं प्रोल्लसद्-। वर-नारी-ज..-कामनं विनय लक्ष्मी-धामनं भव्य-बन्। धुर-धर्म-ब्रत-नेमनं बहु-वळा-निस्सीमनं सोमनं ॥ सरि-चकोर-सोमननवद्य-कळागम-सोमनुद्धतो- । गारि-सरोज-सोमनात-निम्मळ-वंश-पयोघि-सोमना-1 चार-वन-प्रबर्द्धन-वसन्तक-सोमनशेष-भव्य-हृत् । कैरव-सोमनेन्दनिप सोम-चमूपनिदेनुदात्तनो ॥ आ-महिमास्पदनेनिसिद-1 सोम-चमूपङ्गे पति-हितारुन्धति सु-। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन - शिलालेख - संग्रह प्रेमान्विते सतियादळु | लोबल - मादेबि ससिंगे ससि - लेखेयवोलू ॥ पडेमातेम् विळतत्कळा - परिणतं विद्या-गुणोद्भासि हेगू- । गडे-सोमं पति सामिवञ्चकर गण्डं दण्डनाथं नसक्कू । ओडेयं श्री महादेवनात्म - सुतनेन्दन्दिन्दु मत्तन्यरार् । प्पडेदर् स्सोमल देवियन्ते सतियर् स्सौभाग्यमं भाग्यमम् || एने गळूद मंत्रि-सोमन । वनितेगे पति-हितेगे सत्-कुल- प्रभवेगे सन् - 1 जन-नुते - सोवल-देविगे । तनयर् म्महदेव-राम-केशव रोगेदर् ॥ आ-मूवरोळं मध्यमन् । ई - महियोळु ताने पलरोळुत्तमनेनिपम् । रामं यशोभिरामम् । सोमात्मन नमळ-धर्म-कर्म-प्रेमम् । पर-सेना - जय विक्रमोन्नतियोळा भीमनुं रामनुं । धरणी स्तुत्य-कळा-विळा सदोदविन्दा - सोमनुं रामनुम् । वर - नारी -जन- मोहनाकृतियोळुद्यत्-कामनुं रामनुम् । सरियेन्दी - बगवेग्दे बणिपुटु कीर्त्ति प्रेमनं रामनम् ॥ श्री - रामननुजने निखिदन् । आ-राम- चमूपननुबनुरु -लक्ष्मण - वि- । स्तार - सुमित्राधिक- पुण्- | यारामं केशवं जगज्जन- विनुतम् ॥ एरेदन्दागळे माणिपं बुध - विपत्-संक्लेशवं केशवम् । बिरुदिन्दान्तरनेदिपं स्फुरदरण्योद्देशवं केशवम् । शरणागेन्दडे नीडुवं बहळ - बाहा - पाशवं केशवम् । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैन - शिलालेख - संग्रह १४ सरसी- सन्दोहदिम् सारसोन्मद-भृङ्गि पिक-कोक- के कि- शुंक-संघानीक- शाकुन्तनाददित्तम् गणिका - विनोद-कृत-वीणा-नाददिदोप्पुगुम् ॥ व ॥ अन्तपरिमित-के · १५. दार-भूमियुमपारजलाश्रयाभिराममुं बहुजनाकीर्ण-मुममेय-गणिका-निवासमुमगणितवणिग्ननाश्रयमुमेनिसि शोभानिवासमागे || १६ वृ || अवतरिसिर्द्दनलि रबताचलदि गिरिजा समेतमुत्सवदोळे सोमनाथनखिला मरमौलिविनद्धरत्न संभव किरणप्रभापटलपुञ्जपरागपदान्बन थियिन्द १७ वनत-भाक्तिकाभिमतसिद्धि फलोदयकल्पभूरुद्दम् ॥ क|| आ सोमनाथपुर-संवासितरोळु ब्रह्मपुरिंगळोळ् विप्ररोळा व्यास-शुक-वामदेव- पराशर - कपिलादि-सहन - १८ न्नेगळ्दम् ॥क|| श्रीवत्स गोत्रनुब्बींदेवनुतं निखिलवेदवेदाङ्गविदं पावनचरित्रगुण सद्भावं पुरुषोत्तमं द्विजोत्तमनेनिपम् || || आ विमन सति सीतादेविगवा [स] त्य १३ तपन-सतिगं गुण-सद्भावदे पद्माम्बिके सले पावन - सुचरित्रे पतिहित त्रतेयेनिपळ ॥ आ दम्यतिगळ् पलकाल वनपत्यरा गिद्दन्दु देवसं नापुत्रस्य लोकोस्ति येव वेदवाक्यमम् ति २० [ हिदु ] || || पुत्रात्र्त्यवागि सत्यपवित्राचरणं नेगळदपुरुषोत्तमनापत्त्राणनीशनेन्दु कलत्रान्वितनागि शम्भुवं पूजिसिदन् || || अम्नेगमित्त दिविज - दनुजबृन्दवन्दित-पादारविन्द २१ [ नप्प ] महेश्वरं कैलास-पर्व्वतद रम्यभूमियोळु केशव वासवाब्जभवरोलागिसलसंख्यातगणपरिवृतनुमासहितं वोडोलगदोळु सुखसंकथा २२ विनोददिन्दमिरे नारदनेम्ब गणेश्वरनिन्तेन्द || || ओहिल दास चेन्नसिरियाळ हलायुध बाणनुद्भर्देहदोळोन्दि बन्द मलयेश्वर केशवराजरादिया गहि Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्लूरके लेख २५३ २३ क-सौख्यमं बिसुटसंख्यगणं निजवाद भक्ति-सद्गेहदोलिल्लिरुलु समयमुत्कटवादुवु (दु) जैन-बोखरोळळ ॥ एम्बुदु महेश्वरं दर-हसित-वदनारवि२४ दनागि वीरभद्रनं नी मनुष्य-लोकदोळु निन्नंशदोळोर्बणं पुट्टिसि पर-समयगळं नियामिसेम्बु, वीरभद्रनुं पुरुषो२५ त्तम-भट्ट, स्वप्नदोळतापस-रूपदि बन्दु पुत्रं पर-समय-नियामक निमगे पुगुमेन्दु मत्तमिन्तेत्तेन्द ॥ श्लोक ॥ जैनमार्गेषु ये या२६ ता बहवो दक्षिणापथे ते। दूषिता भवन्तु सर्वे रामेण तब सूनुना ॥ कला एन्दु व ( प ) रम-प्रसाद-माडि पोपुदुं पुरुषोत्तम-भहरु २७ कि (क ) तार्थरागि सन्त:-बट्टु मगनं पडेदु बातकर्मादि-क्रियेगळं माडि देवतोद्देशदि रामनेन्दु पेसरनिट्टरातनुं तन्न दिव्य-जन्मानुरूपमा२८ गे शिव-योग-युक्तनागि निस्पृह त्रि ( वृ) त्तियिं चरियिमुत्तुम् ॥ कन्द ।। ___ एकाग्र-भक्ति-योगदिनेकाकियेनल्के सन्दु शिवनं पिरिदप्पेकान्तदोळाराधि२६ सियेकान्तद-रामनेम्ब पेसरं पडदम् ॥ ३ ॥ सततं सन्दु शिवागमोक्त-विविध क्षेत्रङ्गळोळु शाम्भवायतनानेक-नदो-नद-प्रकरदोळु गौरि (री) वरांघ्रिद्व' ३० याश्रित-वाक्कायमनोनुगं चरियिमुत्तुं बन्दुः कण्डं सुराञ्चितनं दक्षिण-सोमनाथ ननघौष-त्रासियं प्रीतियिम् ।। व ॥ अन्तु बन्दनवर३१ त-विनमदमर-वर-मौळि-मणि-किरण - मञ्जरी - रञ्जितामियुग्मनप्प हुलिगेरेय सोमनाथननाराधि-सुत्तमिप्पुदुमा परमेश्वरं प्रत्यक्षवागि । ३२ अत्र श्लोकद्वयम् || अब्बळरु-वर-ग्रामं गत्वा राम ममाश्या [1] तत्र वासं कुरु स्वस्थं यज मां भक्ति-योगतः ॥ जैनैः सह विवादं च शङ्का हित्वा कु३३ रुष्वय । स्वशिरोपि पणं क्रि (कृ) त्वा पुत्र त्वं विजयी भव ।। एन्दु सोम १ अधिद्वय । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन-शिलालेख-संग्रह नाथ-देव.ससिदडेकान्तद-रामय्यनब्बळूर ब्रह्मेश्वर-स्थानदोळु निस्पृहवृत्तियिन्द मिरे ॥ क । (1) ३४ यु (उ) लिदड्डि-बन्दु जैनपलरन्ता सङ्क-गौण्ड-सहितं पिरिदुं चल दिं ___ कैवारिसिदोंलगदे बिन दैवनेन्दु शिव-संधियो ॥ व ॥ आदं केळदे कान्तद-रामय्य३५ नति-ऋद्धनागि शिव-सनिधियोळन्य-देवता-स्तवनं माडलागदेण्दडदं माणदे नुडियुत्तिरलिन्तेन्दम् ॥ ३ ॥ जगमं माडवनावनावनावनदना३६ पत्का [ल] दोळ्कावनि मिगे कोपं तनगागे संहरिसलावं दक्षणा शम्भु सर्व गनिहन्ते गत-प्रभाव-वैभाव संसारदोळ, बिदु दंदुगदोळ ब? तपक्के सार्दु ३७ सुखमं पोर्पिनुं देवने || क ॥ हरनन्तिरीवने निम्मरुहं मुं-कोट्टिटाबुदाबुदु मुन्न हरनोळ पडदरनेकवरमं बाण-दिनिशाळ-मक्त-गणङ्ग ॥ क ॥ एने जै३८ नरेङ्गनी मुम्निन हितरं हेळलेके निम्नय सि (शि ) रमं बनमरियलरिदु कोट्टातनोळि पडे नोने भक्तनातने देवम् ॥ ॥ एनलेकान्सद-राम मनसित-रिपुगित्त तलेय ३६ नाम् पडेदडे नीवेनगीव पणमदेनेने मुनिदेन्दर्जिनन किन्तु शिवनं निलिपेवु ॥ क ।। एने कुडुवुदोलेयं नीवेनगेन्दित्तोले गोण्डु शिरमं तां भोङ्केनबरिदु कुडुव पददो४० ळु शिवनं सानिध्यमाडि रामं नुद्धिगुं ।। वृ ।। उडुगदे शंभु नीने शरणेम्न ददं मनमन्यबा (भा) वदोकोडर्दडमी कि (कृ) पाणमुखदिं तले पोगदे निल्कदलदि११ इंडे शिव निम्न मुसडिगुरुळुगेनुतं कलि रामनार्दु केयिाडदरिदिक्कलारयिसिदं शिरमं शिवननि-युग्मदीळ ॥ ३ ॥ अरे-गाय-गोण्डने कित्तु नोडिदने कूपङ्ग४२ कि मैपि ( मेय् ) गाग्दने सेरगं पाईने बाळगे भक्तरेनुतं बल्लाळ राम Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ अन्लूरके लेख स्व-कन्धरमं चक्कने हुल्लं कटनरिवन्तक्केशदिन्दागळन्तरिदीशाज्रियोति [कि शंकर- ] गणकानन्द४३ वं माहिदम् ॥ ॥ अरिद तलेयेळ-देवसं बरेगं मेरदिं बळिकवित्तं हरना दरदिं तले कलेयिलदे तिरवादुदु लोकवळि (रि) ये रामं पडेदं ।। || बेर४४ गागि जैनरेल्लं मरिगि जिन-प्रळे (ळ ) यवेम्बुदं माडदिरिम्नेडेरगि कावि डिये माणदे बरसिडिळन्तेरागि जिनन तलेयं मुरिदम् ।। १ ।। बडिगोण्डोम्बने सोक्कि बाळे४५ वनमं काडाने पोक्कन्तिरलु कडगलु कापीन बोररं तुरुगर्म सामन्तरं तूळदु मार्पडेगळु जैनर मारि बन्दुदेनुतुं बेङ्गोटु पोगलु जिनं कडेवंनं बडि दल्लि कैको४६ ळिसिदं श्री-वीर-सोमेशनं ॥ ॥ अदनेल्लं नेरे पोगि विजयण-महीपाळले जैनक्कळक्किवदिं पेल्दु विरोधवागे पिरिदुं दूरुत्तिरतु कोप-दुर्मदना विजण भूभुवं मुनिसिनिम् ४७ रामय्यनं कण्डु नीनिदनन्यायमनेके माडिदेयेनल्कोटोलेयं तोरिदम् ।। क ।। अवरित्त योलेयिदे नीनवपरिसुवुदिक्कु निम्न भण्डारदोळिम्४८ नवरोडविरलियिन्नोड्डुवुदापडे निम्न मुन्दे बिनरं पलरम् ॥ [व] । अन्त प्पडी तलेयनरिदवर कैयोगोड्डुवेनवरदं सुटिम्बळिकवां पडुवेनेनगाने सेज्जेय-बस४६ दि मुख्यवागियेन्नुरुव ( एन्तु-नुरु-) बसदिय जिनरं पलरनोड्डुवुदेने विज्जण राय नामी कौतुकर्म नोडवेवेन्दु बसदिगळ पण्डितरुमं जैनरुमं करदु नीमप्पडे ५० बसदिगळं पण-माडि ओलेयं कुडिवेन्दडवरावी-मुन्नोडद बसदिय दूरल बन्देवल्लदिनोड्डि जिन-प्रलयं-माडलु बन्दवरल्लदेने विजण राय नक्क नीविम्नुसि Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैन - शिलालेख - संग्रह ५१ रदे पोगि सुखदिनिरिवेन्दवरं कछिपि रामय्यं गळिगेतरुवरिये जयपत्रमं कोट्टम् ॥ वृ ॥ अरि-राय-क्षितिभ्रं - नगारियरिरायाम्भोषि-कुम्भोद्भ५२ वं अरि-रायेन्धन - तीव्र - वह्नि अरि-रायानङ्ग-माबेक्षणं अस्नियोग्र-भुखङ्ग-भूरि गरुडं श्री-बिज्जर्ण वैरि-राज-रमाकर्षण-दोलितासि सुहृदं कीर्त्यङ्गनाभं ॥ ५३ चोलननिक्कि लालनन धक्करिति स्थिति-हीन- माडि नेपाळननन्धनं तुळिदु गुज्जरनं सेरेमिटट्टु खेदि-भूपाळन मैमेयं मुरिदु वङ्गन बीसिसि कादि कोन्दु बं ५४ गाल-कलिंग मागध-पटस्वर-माळव-भूमिपाळरं पालिसिदं धरा वळवमं कलि बिज्जणराय - भूभुजम् ॥ क || कोडदोळगे पुट्टि कडलं कुडिदं घटयोनि पुट्टि कलचूय्य ५५. रोळोगडिसदे च (चा) लुक्यरन्वय-गडलं कुडिदुक्कु सजनं बिज्जजनोळ ॥ व || स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वरं । कालञ्जर-पुरवराधीश्वरं [1] सुवर्ण-वृष ५६ भ-ध्वजम् । डमरुग-तूर्म्य-निर्धोषणम् । कलचूर्य-कुल-कमल-मार्त्तण्डम् । कदन-प्रचण्डम् । मोने-मुट्टे - गण्डम् । सुभटरादित्यम् । कलिगळङ्कुशम् । गज-सा ५७ मन्त- शरणागत- वज्र-पञ्जरम् । प्रताप- लङ्केश्वरम् । पर-नारी-सहोद, म् । स (श) निवार-सिद्धि | गिरि-दुर्गागं- मलम् | चलदङ्करामम् । निस्स (श्श ) इ-मल्लनिखिल - नामादि-स ५८ मस्त - प्रशस्ति- सहितम् । श्रीमतु विज्जणदेवं रामय्यङ्गळु माडिद परमसाइसकम् निरतिशयवप्प मा ( म ) र्हेश्वर - भक्तिगं मेच्चि वीर-सोमनाथदेवर देगुल ५६ द माट- कूठ - प्राकार' - खण्ड-स्फुटित - बीर्णोद्धारक्कं देवरंगभोग-नैवेद्यक्कं बनबसे-पन्निचसिरद कम्पणं सचलिगेय् एप्पत्तर मन्नेय चट्टरसनुमा (मन् ) कम्पणदग्रायित-प्र १ यहाँ भी सदाकी भाँति 'प्रासाद' पाठ होगा । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदरके लेख ६० भु-गोण्हुगळुमं मुण्डिदु भीमदु-बिल्जनदेवं सळिगेवेपत्तरोळगे मळ. गुन्ददि तेङ्कण गोगावेयेम्ब ग्राममं प्रसिद्ध-सीमा-सहितं त्रिभोगमुमै ६१. श्रीमदेकान्तद-रामय्याळ कालं कच्चि धारापूर्वक माडि कोट्टु प्रति पालिसिदम् ।। ओम् [a] श्री-नुत-कीर्ति-विक्रमदोळोन्दिद सोम कुकभूषणं तानेनिपी। ६२. चलुक्य-नपरन्वयदोळु वसुधाधिनायराख्यान-पराक्रमलिये धात्रिपरा हृतेयागे तैलप ताने चलुक्य-धात्रि-कुलशैलनेनलु मुददिन्दे तादिदं । ६३. अन्ता तैलपदेवङ्गे सत्याश्रयदेवनेम्ब मगं पुट्टिदं तत्तन विक्रमदेवं तदनुजं दशवम्मदेवनातन मगं जयसिंगराय-नातन मगनाहव६४. मनातन मगं त्रिभुवनम पांडिरायनातन मगं भूलोकमल सोमेश्वरदेवनातन मगं प्रतापचक्रवर्ति जगदेकमलनातन तम्मं त्रैलो६५. क्यमल्ल-नूमडि-तैलपनातन मगं त्रिभुवनमल्ल-सोमेश्वरदेवनातन पराक्रम-प्रभावमेन्तेन्दडे ॥॥ कोडुळ अ-मदेभबोन्देरडेनल्केम्बत्तमोड्डा गिरल्कोडि६६. टानदे तल्तु कादि गेल्दं ( लदं ) कोडिळ्ळदोन्दानेयिं नार्ड बीडनिभङ्गळं तुरगमं सोमेश्वरं बिल्लमं नोडल्का कळचू(चु) H-वंशमनदं निमूळवं माडिदै ॥ व ।। द (1) ६७. रे निम्सापल्यवागलु सिरि निजवस (श) दि सन्दुदारक्के तानागरवागलु कीर्ति दिग्पाळक-निकर-मुख-आदेशवागलु जया-सौन्दरि निच्चन्तोळ बाळं सेरे-विडिदिरे साम्राज्यमं ताळ्दिदं दु६८. द्धर-शौर्य वीर-सोमेखरनहित-वधू-नेत्र-नीरेजसोमं ॥ अन्धतमवेनिप कळचुर्य-आन्धं ममुळल्के तम्न जेतदे धरेगनुबन्धं तम्नोळे सले सम्म१७ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन-शिलालेख- संग्रह ६६. घिसे चालुक्य राष-सोन नेगल्दम् ॥व ॥ अन्ता त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वरदेवं सकल-चमूनाथ-शिरोमणियुं चालुक्य-राज्य-प्रतिष्ठापक . नप्प कु ७०. मार-धम्मपर्नु तानुं सेलेयहळ्ळिय-कोप्पदोळ सुखसंकथा-विनोद दिनिर्दोन्दु देवसं धर्म-गोष्टि (ष्ठि) योलिर्दू पुरातन-नूतनरप्प शिवभकर गु७१. ण-स्तवन-माडुत्तमिदं कान्तद-रामय्याळब्वलूर-लिद्दल्लि जैनरेल्लं नेरदु बन्दु महाविवादम्माडि नी तलेयनरिदु-कोण्डु शिवन कैयोळ्पड देयप्पडे जिन७२. ननोडेदु शिवनं प्रतिष्ठे-माडुबेन्दोडुमनोड्डियोलेयं कोटडेवरु कोटोलेय कोण्डु तन्न तलेयनरिदु-कोण्डु शिवङ्गे पूजे माडि बळिका तळेयं येळ७३. देवसके मुन्निनन्ते तलेयं' पो (१)ले-वीळवन्तु पडेदु बिज्जण-देवन कैय्यलु जय-पत्रवं पूजे-सहितं कोण्डुदुमं चिनननोडेदु बसदियाळिदु बिनु७१. टु नेलनं डिसि२ वीर-सोमनाथ-देवरं प्रतिष्ठेमाडि शिवागमोक्तवागे पर्वत-प्रमाणद देगुलमं त्रिकूटवागे माडिसिदरेम्बुदं केळदु त्रिभुवन मज्ज-सो७५. मेश्वरदेवं विस्मयं-बि (ब) टु नोडुवयियिं बिन्नवचलेयं बरयिसि बरिसियवरनिडिर्-गोण्डु तन्नं मनेगोड-गोण्डु पोगि पिरिदुं सत्कारदिं पूजि७. सि श्रीमद्-वीर-सोमनाथ-देवर देगुलद माट-कूटप्राकार-खण्ड-स्फुटित-जीणों• द्धारकं देवर अङ्गभोग रङ्गभोग-नैवेद्यक्कं चैत्र इस सबकी बनावश्यक पुनरावृत्ति मालुम पड़ती है। .. २ मापद मिहिमि ।' ३ 'वर' या 'पाप' पदो। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्लूरके लेख २५५ ७७. पवित्र-वसन्तोत्सवादि-पर्वगळिगक्नदान-विद्यादानकं बनवसे-पनि सिरद कम्पणम् नागरखण्ड-वेपत्तरोळगण अन्बलूरना देवा वूराग७८. लु-बेळ कुवेन्दु परमभक्तियिन्दा कम्पणद मन्नेय मल्लिादेवनं मुन्दिट्टा वूर मेलाळिके-मन्नेय-सुङ्क दण्डदोष-निधिनिक्षेप-सहितवागि एकान्त७६. दरामय्यङ्गळ कालं कञ्चि पूर्व-प्रसिद्ध-सीमा-सहितं त्रिभोग-सहितं धारा पूर्वकम्माडि परमेश्वर-दत्तियागे (गि) तात्र (ताम्र)-शासनम कोट्टानेयनेळि (रि) सि मे८०. यिसि परम-भक्तियिं प्रतिपाळिसिदम् [1][u] श्रीकण्ठ-पदाम्बुखमन नाकुल-चित्तदोळे पूजिपं शिव-समय-प्राकारनेळ (नि) सि सले नेगळ् देकान्तद-राम-नीश८१. भक्ति-प्रेमम् ॥ ॐ [1] श्रियं दीर्घायुवं कीर्तियननुदिनवू माळके गीर्वाण वृन्द-ज्यायं श्री-वीर-सोमं विधि ( ५ ) त-हिमकरं कामदेवजुदार-श्री-युक्त५२. गद्रिना-सम्मित-सित-जरळालोल- विस्तार- लीला-नेय (त्र) आबेकोद्ध (१) त-श्री-ललित-रति-काळा-लास्य-शैलूष-वेषं ॥ स्वस्ति समधिगतपञ्च महाशब्द-महामं८३. डलेश्वरं वनवासि-पुरवराधीश्वरं जयन्तो-मधुकेश्वर-देव-लन्ध-वर-प्रसाद विद्वज्जनालादकं मयूरवर्माकुलभूषणं कदम्ब-कष्ठीरवं कदन प्रचण्डं साह८४. सोत्तुङ्गं कलिगकुशं सत्य-राधेयं शरणागत-वज्र-पञ्जरं याचक-कामधेनुक्त्यि खिळ नामावळि-सहितनप्प श्रीमन्महामण्डलेश्वरं कामदेवरस८५. पानुङ्गल्ल्यनूरं दुष्ट-निग्रह-शिष्ठ-प्रतिपालनदिनाळुत्तमिई-ब्बलूर वीर-सोमनाप देवरं बन्दु कण्डु रामव्यङ्गळु शिवागवा (म)-विधा८६. नदि माडिसिद पर्वतोपमानमप्य देगुलमं कण्डवरु माडिस साहसमं स-विस्त केळदु मेच्चि परम-प्रीतियिन्दोड-गोण्डु पोगि Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जैन-शिलालेख संग्रह ८७. पानुहब नेलेवीडिनोळू प्रधानर तार्नु मनुकेय-मण्डलिक-सहितं सुख____सङ्ख्या-विनोददि कुल्लि? परम-भक्तियि वीर-सोमनाथ८८. देवगै पानुजम्-अयनूररोळगण कम्पणं होसनोड् पट्टरोळगे मुण्ड गोड समीपद जोगेसरदि बडगण मलवळियेम्ब ग्राममं प्रसिद्ध-सी८६. मा-सहितवागि त्रिभोगाभ्यन्तरं नमस्यमाडिया देवर देगुलद खण्ड-स्फुटित जीर्णोद्धारकं देव-रङ्गभोग-रङ्गभोग-नैवेद्य [कम ] चैत्र६०. पवित्र-वसन्तोत्सवादि-पर्वगळ्गमनदानक्कवेन्दु रामथ्याळ कालं कर्चि धारा-पूर्वकं-माडि-परम-भक्तियिं कोट्ट धर्ममें प्रतिपालिसिदम् । (1) स्वस्त्यस्तु ओम् ॥ ६१. इन्ती धर्मङ्गळं प्रतिपाळिसिदवरु श्री-वारणासि प्रयागे कुरुक्षेत्र अग्ध्यतीर्थ श्रीपर्वतादि-पुण्य-क्षेत्रदल्लि सायिर कविलेगळ कोडं ६२. कोळगुवं होनोळकटिसि चतुर्वेद-पारगरप्प सु-बाह्यणों सूर्यग्रहण सोमग्रहण व्यतीपात-संक्रमणादि-पुण्य-कालदोलिवधि-युक्तवागे कोट्ट ६३. प (फ) लवं पडेवरु ई धर्मवनळिदवरा गङ्गे वारणासि कुरुक्षेत्र-प्रयागादि पुण्य-क्षेत्रङ्गळोळा कविलेगळुवं ब्राह्मणरुवं कोन्द पापम पडेवरीयर्थ सं६४. देह विल्लेम्वुदं मुन्नं मनु-वाक्यङ्गळु (ळं) पेळगुं। श्लोक ॥ बहुभिर्वसुधा भुक्ता राबभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ गण्यन्ते पांसवो भूमेर्गण्यन्ते वृष्टिबिन्दवः । न गण्यते विधात्रापि धर्म-संरक्षणे फलम् ॥ स्वदत्ता परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धराम् । षष्टि-वर्ष-सहस्राणि विष्ठायां बा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भन्थरके लेख ६८. यते कृमिः ॥ कर्मणा मनसा वाचा यः समयोप्युपेक्षते। सभ्यस्तयैव चाण्डालः सर्व-धर्म-बहिष्कृतः ॥ कुलानि तारयेत् कर्चा सप्त सप्त च सप्त च ।। अधोवपा तयेद्धता सप्त सप्त च सप्त च ॥ श्लोक ॥ अपि गङ्गादितीर्थेपु हन्तुगामयवा द्विजम् (0) निष्कृति (6) स्यान देवस्व-ब्रह्मस्व-हरणे नृणाम् ॥ सामान्योयं धर्म-सेतु तृपाणाम् काले-काले पालनीयो भवद्भिः (1) सर्वानेतान् भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामचन्द्रः॥ स्वस्त्यस्तु मंगलं च । श्रीश्च ॥ ओम् ६६. ओम् [I] हरनोळतवनिधियन्ताम् दरवुरविल्लेनिसि पडेदु देगुलवं पुरहरन कैळासदन्तिरे वीरचिसिदं शम्भु-भक्ति-धामं रामम् ।। वृ ।। देगुलकेन्दु भक्त१००. जनवादरदिन्दिदिरेई कोट्टड (दं) हागवनादडं कळदुकोळ्ळदे बेडदे नाडे द्वे (दै) न्यदि पोगि नृपाळरं शिवननुग्रहवक्षयवागे माडिदं देगुल [व] म् हदिगेणे१०१. थागिरे रामनिदेम् कि (कृ) तार्थनो ॥ ॥ केशवराजचमूपं शासनवं पेळदनन्तदं तिहि निरायासने बरदनीशन दासं शिव-चरणकमल-शरणं सरणम् ॥ ॐ [1] १०२. स्वस्ति श्रीमतु-हर-धरणी-प्रसूत-मुक्कण्ण-कादम्ब- [वंश] बनवासि पुरवराधीश्वर श्री-मदु (धु) कनाथदेवर दिव्य-भी-पाद Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैन-शिलालेख-संग्रह १०३. पद्माराधकरूं मजिदेवरायरू नागरखण्डेय... ... ... .. रिगे-नाडुम... ... १०४. ... ... ... ... .""कोटरु ॥ [ इस प्रकाशित अमिलेखकी कहानीका संक्षेप इस प्रकार है: कुन्तल देशके आलन्दे ( या आलन्द ) नामक नगरका निवासी श्रीवत्स गोत्रका पुरुषोत्तमभट्ट नामका एक शैव ब्राह्मण था। उसके राम नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कालान्तरमें, शिव की अधिक भक्ति करनेके कारण, इसका नाम 'एकान्तद-रामय्य' पड़ गया। उसने बहुत-से शैव तीर्थ स्थानोंकी यात्रा की। और अन्तमें वह हुळिगेरे ( लक्ष्मेश्वर ) आया बाँकि दक्षिणका सोमनाथ' इस नामसे प्रसिद्ध एक शैव मन्दिर था, इसके बाद अन्लूर वहाँ कि, जैनधर्मके एक मज़बूत गढ़ होनेके सिवाय, ब्रह्मेश्वरके मन्दिरमें एक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली शैव केन्द्र भी था। अब्लूरमें वह जैनोंके साथ विवादमें फँस गया । जैनोंने वहाँ शङ्कगौण्ड नामके ग्रामणीके अधिनायकत्वमें उसकी भक्तिका अन्त कर दिया। कुछ शर्त रक्खी गई और यह एक ताड़-पत्र पर लिख दी गई। शर्त यह थी कि हारनेपर जैन लोग अपने जिन देवकी जगह शिवकी प्रतिमा स्थापित कर देंगे। एकान्तद-रामय्य शर्तमें विजयी हुआ। इस पर जैनोंने उपर्युक्त शर्तनामेकी शर्तोंका पालन करनेसे इन्कार कर दिया। तब जैनोंके रक्षक, घुड़सवार, सरदार, तथा उनके सैनिकोंके विरोधमें होते हुए भी, उस अकेलेने जिनको उठाकर (फेंककर ) वेदीको ध्वस्त कर दिया, और, जैसाकि आगेके लेखसे प्रकट होता है, उसकी जगह पर पर्वत सरीखा एक 'वीर-सोमनाथ' नामसे शिवालय खड़ा कर दिया। इसपर जैन लोग बिजलके पास गये और उससे एकान्तदरामय्यकी शिकायत की। राजाने एकान्तद-रामय्यको बुलवाया और उससे प्रश्न किया कि उसने जैनौका यह भयंकर नुकसान क्यों किया। इसपर एकान्तदरामम्यने वही ताइ-पत्र वाला शतनामा पेश कर दिया, और बिजलसे उसे अपने खजानेमें जमा कर देनेको कहा तथा यह बात भी कही कि अगर जैन लोम अपने Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ ८०० मन्दिरों को जिनमें आनेसेज्जेयबसदि भी शामिल रहेगी, शर्तपर लगायें तो वह फिरसे वही चमत्कार' (fest) दिखलायेगा जिसे कि उसने अभी हीं दिखलाया था । इस दृश्यको देखनेकी इच्छासे बिजलने जैन मन्दिरोंके जितने विद्वान् थे उन सबको बुलाया और उसी शर्तनामकी शर्तको दुहरानेके लिए अपने तमाम मन्दिरोंको शर्तपर रख देनेके लिये कहा। जैनोंने यह कहते हुए कि वे अपनी शिकायतकी क्षतिकों मिटाने के लिये उसके पास आये हैं न कि उस क्षतिको और बढ़ाने के लिये, दूसरे बार की इस परीक्षाको माननेसे इन्कार कर दिया । इसपर बिजलने उनका उपहास किया और यह शिक्षा देते हुए कि इसके बाद तुम लोगोंको अपने पड़ोसियोंके साथ शान्तिसे रहना चाहिये, उन्हें बरखास्त कर दिया, और एकान्तद-रामय्य को खुली सभामें जयपत्र दिया । तथा, fae अद्वितीय साहससे एकान्तद- रामय्यने अपनी शिवभक्ति प्रकट की थी उससे प्रसन्न होकर, उसने उसकै पैर घोये और वीर-सोमनाथ के मन्दिरको गोगाव नामका गाँव, जो बनबासी १२००० में सत्तलिगे-सत्तरके मळुगुण्डके दक्षिणमें है, दानमें दिया । इसके बाद लेख कहता है कि जिस समय पच्छिमी चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्त्य और उनके सेनापति ब्रह्म शेलेयहळ्ळियकोप्पमें थे, एक आमसभा की गई जिसमें पुराने और नये शैव-सन्तों के गुणका वाचन किया गया था । जत्र एकान्तद-रामय्यका किस्सा उससे कहा गया तो सोमेश्वर चतुर्थने एक पत्र लिखकर एकान्तद-रामय्यको अपने पास अपने राजमहलमें आनेके लिये कहा । वहाँ उसने उसके पैर धोये और उसी मन्दिरको स्वयं अब्लूर ग्राम ही भेंट किया । यह अब्लूर - ग्राम नागरखण्ड -सत्तर में है जो वनवासी बारह हजारमें है । और अन्तमें, महामण्डलेश्वर कामदेवने उस मन्दिरको बाकर देखा, सब कहानी सुनी, १. यह चमत्कार और कुछ नहीं सिर्फ कटे हुए सिरको जोड़ देना है। एकान्तद-रामय्यने अपना सिर काट दिया था और फिर शिवको कृपाले उसे पुनः जोड़ दिया था । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन-शिलालेख संग्रह एकान्तद-रामय्यको हान्गल बुलाया, और वहां उसके पैर धोये और मजवल्ली नामका गाँव मन्दिरको दानमें दिया। यह मशावली गांव पानुजल-पांच सौ में होसना-सत्तरमें मुण्डगोडके पास भोगेसरके दक्षिणमें है।] [ EI, V, No. 25, E.] ४३६ [विना का निर्देशका ] १. श्रीब्रह्मेश्वर-देवरखि एकान्तद-रामय्य बसदिय बिननोडुवागि तलेयनरिदु हडेद टावु ।। संक-गावुण्ड बसदिय नोडेयलीयधे (दे) आळू कुदुरेय्.." २. नोडिलु एकान्तद-रामय्य कादि गेल्दु जिनननोडेदु लि [ङ्गमं प्रतिष्ठे. माडिदम् ॥] अनुवाद :-ब्रह्मेश्वर भगवान् के पवित्र मन्दिरमें, बत्र कि एक मन्दिरके 'जिन' शत (दाव) पर रख दिये गये थे, एकान्तद-रामय्यने अपना सिर काट डाला और इसको फिरसे प्राप्त कर लिया ! जब सङ्कगावुण्डने उसे ( एकान्तदरामय्यको ) मन्दिर या वेदीको ध्वस्त नहीं करने दिया और अपने आदमियों तथा घुड़सवारोंको ( उस वेदीकी रक्षाके लिये)... ... ... ... एकान्तद-रामय्यने लड़ाई लड़ी और उसमें विजय प्राप्त की तथा 'जिन'को भग्न करके 'लिङ्ग' की प्रतिष्ठा की। [EI, V, No. 25, F.] कम्बेनहलि संस्कृत तथा काद। - [बिगा माड निर्देशक [*०शि०सं०, प्र.मा.] Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दलिकेके लेख २६१ ४५८ वन्दलिक संस्कृत या काद [विना का निर्देशका, पर संभवतः लगभग १२०० ई.] [शान्तीरवर बस्तिके रमण्डपके दक्षिण-पश्चिम सम्मे पर] (पश्चिम-मुख ) स्वस्ति श्रीमतु अभयचन्द्र-सिद्धान्ति-देवगळ् शिष्यरु "कन अदर मुरारि देव-दान-प्रतिपालक-वंशोद्भवरु चारकीर्ति पण्डित-देवर हिरिय-महळिगेय पञ्च-बस्तिय जीर्णोद्धारव माडिदरु । आ-स्थानक्के अरसिन्दलु नाडिन्दलु बिडिसिकोण्ड वृत्ति आसाळुगुप्पेय बस्तिगे पूर्व तोडगि सन्दु बहुदु । बलेयगारु । बाळेयहळ्ळि । तगुडवतिगे यी-मूरु-ऊरु सर्वमान्य अरसियकेरेय केळगे ताळुगुप्पेय गऊडुगळ बिट्टदु ४ हाद। मुरवत्तूर गौडुगळु वीर गौण्डन केरेय केळगे बिटदु ४ हाद। विदळ २ सासव हेरुबडे १० येत्तु हदिनेण्टु कम्पण-दनु सलुऊदु । बत्तियकेरी सर्वमान्य । बलेयगारलि गुरुगळु बिट भूमि अखिय मूलस्थानके ४ हाद । हच्चड २० मान्य येत्तु हच्चड सर्वमान्य समेय-समुच्चयद भोगवटिगेय पञ्च-बस्ति यी-धर्मक्के ... ... रुदरखन हदिनेण्टु समेबवु कर्तरु ॥ श्री श्री [स्वस्ति । मुरारि-देवके दानके प्रतिपालक वंशमें उत्पन्न, अभयचन्द्र-सिद्धान्ती देवके शिष्य चारुकीर्चि-पण्डित-देवने हिरिय-महलिगेकी पञ्च-बस्तिको सुधारा । रावा और नाड्से बो दान पहले ताळगुप्पेकी बस्तिके लिये मिला था, अर्थात् बलेयगारु, बळेयहल्लि और तगडुवनिगे, ये तीन गांव, सब करोंसे मुक्त, उस मन्दिरके लिये भी लागू हो सकते हैं । (उक्त) कुछ भूमि भी दानमें दी थी। इस गुणी कार्यके लिये १८ जातियां प्रबन्धक हैं । ] [ EC, VII, Shikarpur, tl, No. 227. ] Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P जैन-शिलालेख संग्रह ५३९ नितूर-कबद। [विना काल-निर्देशका, पर लगभग १२००० का] [नितूरु (गुडिव परगना ) में, आदीश्वर बस्तिकी उत्तरीय दीपाळमें एक पाषाण पर] भी-मूल-संघ-देशिय-गण-पुस्तक-गच्छ-कोण्डकुन्दान्वयद श्री (य) अमयचन्द्रसिद्धान्तिक चक्रवलिंगळ प्रिय-शिप्यगगमाम्बुनिधिगळं सकळ-गुणाकळितक्रमप्प बाळचन्द्र-पण्डित-देवर प्रिय-गुड्डियरु ।। विनय-निधि माळियक्क । अनुपम-गुणमन्ते बामि-सेट्टिगळं ताम् । चिन-भक्तियिन्दे पडेदळु । जिन-भक्तप्पंडेव पडवुयोगळलळुम्बम् ॥ शोळान्विने चौडलेगं । माळवेय तनूज मलि-सेट्टिगे सुतेया-। व्याळ-गन-गमने पनले । बाळक-माळिक्य मल्ल-माळात्मजरुम् ॥ मुळिदु बवं माळवेयुमन् । उळिहदे सोसे चौडियकानं माडिपलु स्त्री-। कुळ-साहस-षड्-गुणदोन्द्- । अळव समाधियोळे मेरेदु मुडिफ्दिरलुते ॥ माळव्वेयुं चौडियसनुमेम्बिबर निषिधि ॥ [ श्री-मूलसंघ, देशिय-गण, पुस्तक-गच्छ और कोण्हकुन्दान्वयके अभयचन्द्रसिद्धान्तिक-चक्रवर्तीके शिष्य बालचन्द्र-पण्डित-देवकी प्रिय गृहस्थ-शिष्या,माळियक्के थी। चौडले और माळवेके पुत्र मलि-सेटिकी पद्मले और मलम दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थी। बब यम ( मृत्यु ) ने क्रुद्ध होकर, मालवेको न बचाकर, उसकी पुत्रवधू चौडियक्कको भी मारा वह समाधिको प्राप्त हुई, और स्त्रियोचित भक्तिके ६ गुणोंको प्रदर्शित कर दिवंगत हुई। यह स्मारक (निषिधि) माझन्वे और चौडियक्क दोनोंका है। [ECXII, Gubbitl., Nob] Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्तरुके लेख २० [विमा काल-निर्देशका, पर संभवतः १३..ई. .] [मिसूरु ( गुब्वि परगना ) में, आदीश्वर बस्तिकी उत्तरीय दीपाळमें एक पाषाणके बायी ओर की तरफ ] माळब्बेय मग वामि-सेट्टिय मदवळिगे बूचब्बेय निषिधि ॥ [माळव्वेयके पुत्र बामि-सेटिकी पत्नी बूचग्वेकी निषिधि (स्मारक) यह है।] [E C, XII, Gubbi tl., No 6] ४४१ नितूरु:-कबद । [विना का निर्देशका पर संभवतः १२००ई०१ का] [नित्तन ( गुब्बि परगना ) में, आदीश्वर बस्तिको उत्तरोय दोवाल में एक पाषाणके दाहिनी ओर] माळव्येय मळिळ-सेट्रिय तन्दे गुणद बेडङ्ग मनि-सेट्टियुमातन प्रिय-पुत्र माळेग्यनुमेन्द् इबर निषिधि ॥ [मालम्बेके पिता मलि सेट्टि, और मल्लि-सेट्टिके प्रिय पुत्र माळय्य दोनोंकी स्मारक यह है। [E.C., XII, Gabbi, tl., No.71 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैन-शिलालेख संग्रह कडकोला-काद। वर्ष खर [=ी या पी. (डीड)।] [१] श्रीमत्-खर-संवत्सरदन्दु [२] कसेय-ऐचि-सोदि[] य म[४] गचंदयन निषिधिगेय क [५] ल् [ ] उ॥ अनुवाद-श्रीवाले खर संवत्सरमें, व्यापारी) कत्तेय-ऐचिसेटि के पुत्र चन्दयके निषिधिगे' का पाषाण । [IA, XII, P. 101, No 3 ] t. and tr. ४४३ सिग्गाम्बे ( जिला धारवाद कर वर्ष व्यय [1वीं या १३वीं शताब्दि ई. (हीट )।] [धारवाड़ जिलेमें बढापुर तालकाका तालुका स्टेशन सिग्गाम्वे है । यहाँके कलमेश्वर मन्दिरके सामनेके स्मारक पाषाण पर यह अभिलेख है।] [१] स्वस्ति श्रीमत-व्यय-संवत्सरद मार्ग[२] सि (शि) रब ११ सु(थ)। देसी (शी) य-गणद बाळचं. [३] विद्यदेवर गु[इड सप (१) रसिंगि-से [८] टि [४] यफ स्वर्मा-प्रासनादनु ॥ अनुवाद स्वस्ति १ देशीयगणके बाळचन्द्रविद्यदेवके गुड (शिष्य या अनुयायी) (ब्यापारी) (१) सबरसिङ्गिसेटिने, शोभनीक व्यय संवत्सरके मार्गशिर ( महीने ) के कृष्ण पक्षकी एकादशी, शुक्रवारको स्वर्ग प्राप्त किया। [IA, XII, P. 102, No, b.] t. and tr. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एहोलेके लेख एहोले-कम [विना काहानिर्देशका, १२वीं या वीं ई. शताब्दि (लीड).] [१] भी-मूलसङ्घ-बलो (ला) कारगणद कुमुदन्डुगळ गुड ऐचि-सेट्टि [२] यर मग येरम्बरगे-नाड सेटिटगुत्त रामि-सेष्टियर निषीधि । अनुवाद रामिसेटि जोकि एरम्बरगे' चिलेका सेविगुत्त था-श्रीमूलसडके बलो (ला) कारगणके कुमुदन्दु का गुड्ड (शिष्य ) था; और ऐचिसेटि (व्यापारी) का पुत्र था, उसकी यह निषोधि ( निषघा ) है। [ई ए०, १२, पृ० ६६] ४४५ गिरनार-संस्कृत भग्न । [विना काल-निर्देशका लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका है [Revised list and Rem. Bombay ( ASI, XVI) p. 351-352, No 8, t. and tr.] रायबाग, संस्कृत। [शक २१-१२०..] [एक बेजका मय पता नहीं है। इस शिलालेखका प्रारम्म उस राधा कृष्णके वर्णनसे शुरू होता है, जिससे रटबंश यशस्वी हुआ था। तदनन्तर राजा सेनका वर्णन है, जो रट्ट राजाओंकी सूची में 'सेन' नामधारी राबाओं में द्वितीय संख्याका सेन है। इसके बाद १. यह नाम 'एम्बिो ' भी किसाना सकता है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह वंशावली (Genealogy) कार्तवीर्य चतुर्थ और मल्लिकार्जुन तककी दी हुई है। कार्तवीर्य चतुर्थका समकालीन एक राजा यादववंशी रेब' नामका था। इसके बाद लेख में कुछ दोनोंका उल्लेख आता है वो 'दुर्मति संवत्सर' शक १९२४ में किये गये थे। दान करने का दिन वैशाख शुदी पूर्णिमा, शुक्रवार 'व्यतीपात' का समय था। ये दान राजा कार्तवीर्यदेवने अपनी माता चन्द्रिकामहादेवीके द्वारा बनाये गये रटोंके जैन मन्दिरके लिये तत्कालीन गुरू शुभचन्द्र भट्टारक देयके लिये थे। सीमाओंके निर्धारण में बहुतसे गांवों और शहरोके नाम आये हैं। [JB. X, P. 183, No 9, 8.] रोहो-संस्कृत तथा गुजराती [सं० १२५१-१२०२ ई.] लेख भग्न है और श्वेताम्बर सम्प्रदायका मालूम पड़ता है। [EI, II, No. 5, No 12 ( P. 28-29 ) t, and tr.] ४४८ बन्दलिके:-संस्कृत तथा काद। . -[ शक ११२५=१२०३ ई.[बदलिकमें, शाग्वीश्वर नस्तिके सामनेके पाषाण पर ] ...: कवि-निवह-स्तुतं नेगळ्द रेष-चम्पतियिं बाळकमा। भुवनदोलिन्तनन्त-चिन-धर्मबद्धरिपर्द्ध-रेचनम् । सुविदितमागे बान्धव-पुराधिप शान्ति-बिनेश-तीर्थमम् । कपडेय बोप्पनुद्धरिसिदं यदु-बल्लम-राज्य-भूवणम् ॥ होली के शिलालेखमें भी रेउव' नाम आया है। पर यहाँका रेन्ब उस रेग्यसे मिव (जे. एक मीट)। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदलिकेके लेख. २७१ मडगिडलेन्देम् धनम। पडेवने नाळ-देरद दानमं माइलुकेन्दोडमेयनजिपनारिम् । कडु-जाणं भव्यरोळगे कवडेय वोप्पम् ॥ श्रीमत्परमगंभीरस्यावादामोधलाग्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ।। वसुधा-कान्तेय कुन्तलोपममेनिप्पी-कन्तख-क्षोणियम् । पेसवेत्ता-नवनन्द गुप्त-कल-मौर्य-दमापरळ्दर् जस-। जसदाण्मर कलि-रट्टराळदरवरिं चालुक्यरळ्दर व्वळिक । एसेदि-कळचूय्य वंशजरोळाळ्दं बिजल-क्षोणिपम् ।। अल्लि बळिके घरेयोळ । बलिदरं तरिदु निज-भुनासिथिनटं । बळकाळ-नृपं घरेयं । सालीलेयिनाळ्दनरिवळ-देशं पोगळल् ॥ आतन वंशावतारमेन्तेने ॥ वृत्तम् ।। कृष्णन नाभि-पङ्कजजनप्यजनिं वोगेदत्रियत्रिबम् । विष्णुवदाभासिं ससि पुटिदनातन वंश-सम्भवम् । विष्णु-पराक्रमं पुरु पुरूरवना-नहुषं ययाति राजिष्णु यदुत्तमं क्रमदे तत्तदपत्यरेनल्के पुट्टिदर् ।। सळनादं यदु-वंशदोळ् मुडदवं वासन्तिका-देविया । चळनाराधनेयं प्रोणर्चि शशकोघद्-ग्रामदोळ् पायदोडा-। गळे तां पेट-न्बुलि पोसळेन्दु सेळेयं जैन-तीन्द्रं जपत्।। तिळकं कोटोडे पोय्ये होयसळ-वेसर तानादुडी- धात्रियोल् ॥ से सिन्दद कावागिरे। मुळिसिन्दं पारद पुलिये पुलियागिरे ताम् । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन - शिलालेख - संग्रह तोळतोळ तळ्दपुदु यदु-तृप-1 बळदो पुलिये सेव - सिन्दवन्दिन्दित्तलू || सळनिन्द बळिकं नृपाळवरनेकर य्यादवेशर म्मदी -1 तळमं पाळिंसिंदर् न्बळिके विनयादिस्य पुत्रं जगत् + तिळकं नुमेरेयङ्गनादनेरेयङ्गङ्गोप्पे बल्लाळनुम् । विलसद् विष्णुबु मर्क- तेनुदयादित्याकनुं पुट्टिदर् ॥ अवरोळ् रपि विष्ण-बर्द्धन - नृपङ्गादं सुतं मेदिनी । धवनप्पा - नरसिंह - भूपनदटं तन्नारसिंहङ्गमुत्- | सवदिन्देवळ-देविगं यदु-कुल- प्रोत्तंसनादं सुतम् । भुवनानन्दन - मूर्ति कीर्त्ति निळयं बल्लाल-भूपालकम् ॥ निरिदिदिरान्तवरं निन- । चरणक्केर गिदरनोसेदु रक्षिसि घरेयम् । परिपाळितं सुख दिन्द् । इरे विजयसमुद्रदलिया- बल्लाळम् ॥ धरणी-कान्तेय मुखदन्त् । - इरे बनवसे-नाडु रञ्जिसुवुददरोळ् मा । गर-खण्ड तिळकदवोत् । परिशोभिपुदाव- कालमं सिरियोदविम् ॥ ऊरूनन्दनदि लता-भवनदिन्दुरूटा कङ्गळिन्द् । ऊरूर्त्तळ्तेले-वळ्ळियि कोळगळिन्दूरूर पळो जनदिन्द् । ऊरूर कन्बिन तोण्टदिं कळवेयिन्दूरूर् प्रजा - वातदिन्द् । ऊरूर् देव-गृहङ्गळिं विनुषरिन्दूरुर् करें रञ्जिकुम् ॥ परलोळ् परुसं घेनूत्- । करदोळ सुर-धेनु नन्दनदोळमर-कुलम् ॥ करमेसेवन्तिरे सले ना- | गर-खण्डदोळ सेवुदेसेव बान्धव-नागरम् ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दलिकेके लेख वृ || अदुबळसिद्द नन्दनदिनम्बुष- षण्डादिनोळ-बुंगिनिम् । पुडिदेले-वळ्ळिषि बेळद-शाळिमिनोपुव कोण्टेयिं समन्त् । ओदविद-लक्ष्मि विभवदिं विळसवनदिं सु-देव-गे- 1 हद कडु - चेल्विनिन्दमळका-पुरमं नगुतिप्दोम्युम् || अदनाळ्वं प्रजे मेच्चे गण्डनदटं कादम्ब-बंशोद्भवम् । मुडदं सोम नृपात्मजातने निसिद्द - बोप्प देवने पुह् । इद सत्पुत्रननून-शौर्य्य-निळयं कन्दर्प- सन्- मूर्त्तिय- । भ्युदयालङ्कतनात्त-कीत्ति रमणं श्री ब्रह्म-भूपाळकम् ।। आ- बन्दणिकेय शान्तिनाथ - देवर मण्टपमं माडिसि कवडेय बोप्पि-सेहियरु - नमस्यमं माडिदम् ।। नागर-खण्डदोळ् हरन वक्त्रदवोल् नेगळ्दग्रहारमय्द् । आगळुमोप्पु निखळ - वेद-पुराण- सुनीति शास्त्र तर्क- । आगम-काव्य-नाटक-कथा-स्मृति-यज्ञ - विधानमं मनो । राग दिनोदुवोटिसुवशेष - महाजन दोन्दु-प्पोषदिं ॥ प्रत्येक - वृहस्पतिगळ । नित्यानुष्ठान - चारु चारित्र - परर् । स्सत्य-युत र तेजदोळा- । दित्य-सट्टशर लिपि मानवेल्लं ॥ केरेयूर शम्भु - देवनेय् । अरितक्कं सकळ -विद्वेगळ्गं सले कण्- । दरखीयेनिसिप्पंनवनम् । नेरे पोललु नेरेयनबनुमा भारतियुम् ॥ उरदे बज्जु-धर्म्मदोळगं नयदिं नडेयुत्तमिपरम् | तरिदु सु-धर्म्मदिं नडेवरं प्रतिपाळिप सेडिकवेयककरिन-सुत पुण्य-निधि शंकर-सेडिगे सेट्टि-गुत्तरार् । प्पेररेणे सत्यादिं विभवदिं नुत- शौर्यदिनुद्य धैर्व्यादिम् ॥ १८ २७२ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन-शिलालेख संग्रह तनगय्यं शहरं तजननि नेगळ्द जम्वेयाप्तं जिनं सन्। मुनि-वन्धं मानुकीर्चि-अति-पति गुरु बजाळसनाळदं विनेपर । सनगिष्टर् कान्ते नच्याम्बिके सति सति-नुते अकम्बे समवेगळ् नन्दनेयर बल्लाळ-देवं सुलनेनेयेसेदं वीर-सामन्त मुहम्॥ कविगळ मुद्दनाभितर मुद्दननायर मुद्दनिष्टनप्प। अवर्गळ मुद्दनथिंगळ मुद्दनेडर-न्नेले-गोण्ड शिष्ट-बान्घवरेसेवोन्दु-मद्दनेनसं परिकारद मुद्दनङ्गनानिवहद मुद्दनेयदे सलियं प्रभु-मुद्दनिळा-तळाग्रदोळ् ॥ स्वच्छतर-कीचियिन्दम् । कच्छवियूरडेय पिटियरसं जगमम् । प्रच्छादिशिदनवनवि-1 तुच्छरेनिप्पूरडेयरदेम् पेळेणेये ।। सागर-वळयित-धरणीभागदोळत्युन्नतिकेयिं बल्पि सत्-१ त्यागदिनरि वन्देणेये। बेगूर प्रमुगे माळ-गौडङ्गन्यर् ।। सोगयिप्प कण्णसोगेय। नेगळ्दिरकाटिंगौडनरितवनापम् । मृग-रिपु-विक्रमम नेरे। पोगळल्का-बलबभवनुमेना (६) पने ।। मळवलिखा येरह-गौडङ्ग। एळेयोळ् समनप्परुण्टे सत्यदिनरिविम् । वीळसत्-त्यागदिनत्युन्। ज्वळ-कीर्तियिनधिक-शौर्यदि सद्-गुणदिम् चलद नेले चागदागरं। . अलघु-गुळगळ निधानमरितद तवान् । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदलिकेके लेख રા. ज्वळ-कीर्तिय करवेनिपम् । . सले इलरिं दबकर सोम-गवुण्डम् । मुददे मुनिचन्द्र-सिद्धान् त-देवळ्करिण-शिष्यरनुपम-विद्यर् म्मद-रहितर स्सलेनेगळ्दर् । विदित-गुणर् मालिकोर्चि-सिवान्तशर ॥ अवरानन्दन-नन्दनन् । अवनी-संस्तुत्यमेनिप काणूर्माण-कैरख-चन्द्रनेनिसि नेगळ्दम् । विवेकि शुभचन्द्र-विनुत-पण्डित-देवम् । मळिनते इल्लद कुन्दम् । तळेयद सले राहु-पीडे यैदद दोषा-। वळियोळ् परियिसदस्ता। चळकेळसद चन्द्रनेनिसुवं शुभचन्द्रम् ।। बन्दणिकेय तीर्थवना। नन्दाचार्य्यरवोलुद्ध रिसिदं बगदान। नन्दकर-ललितकीर्तिय । नन्दन शुभचन्द्र-विनुत-पण्डित-देवम् । कुसुम-बातदोळम्बुज पळधियोळ् दुग्धाब्धि ताराळियोळ् । ससि चिन्तामणि कल्गलोळ तरुगोळ कल्पोन्धिपं रलदोळ् । मिसुपा-कौस्तुभमोप्पुवन्ते बिन-योगि-बातदोळ् रञ्जिरम् । जसदामं शुभचन्द्र-देव-मुनिपं कानूगणोबारकम् ॥ इम्ति चित्रमेम्बिनेगमेरदे मोसर प्योरससे पाल्नाळोरअन्तिरे पुत्तिनोळ् पुगे बलातिशयं नव-पुष्प-मालिकासन्ततियिन्दमादतिशय-वेरसोप्पुव शान्तिनाथ-ती स्थान्तर-पारिपत्यदेसेवं शुमचन्द्र-मुनीन्द्रनोर्मेयुम् ।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह श्रीमद् चल्लाळभूपाळकन विनुत-सन्-मंत्रि विप्रान्वयान्वस्तोमोद्य-भानु नारायण-पद-कमल-इन्द-मनं यशश्-श्रीघाम साहित्य विद्याधरनखिळ-गुणालंकृतं मान्तन-प्रो-। हामं श्री-मल्लानी-बन्दणिकेयनोलविं पालिसुत्तिपनोलिपं ॥ कडिवं मारान्तरं वेगदे करगिसुवं शत्रु-सैन्यङ्गळं सङ । गडकेलं धैर्य-वर्ण-क्रमणसेये तां तोरवं कीर्तियल्दम् । कडु-चेल्वप्पन्तिरस्योत्तुनखिळ-दिशा-दन्ति-दत्तङ्गळोळ् नोळ्पडे सन्तं कम्मटकन्तोडेयनेनिसुवं मला पण्डाधिनाथम् ॥ आ-कम्मद श्री-मल्लन प्रधाननेनिप ॥ वृ॥ अलरे विरोषि-सन्तमसमळिकरेयाटविकोद्ध-कैरवम् । सले पोडल्देय्दे सजन-बिसं प्रविकासमनेय्दे रागमग-। गळिसिरे मित्र चक्र चयदोळू बेळेयं नुत-विश्व-धात्रियम् । सललित-मूर्ति कीति-निधि सूर्या चमूपति सूर्यनन्ददिम् ।। अन्तु पोगळ्ते-वडेदधिकारि मल्लिा-सेट्टियकं दिन-वंश-कमळ -सूर्य-नप्प सूर्यदेवन यम-नियम-स्वाध्याय-ध्यान-धारण-मौनानुष्ठान-जप-समाधि-शील-सम्पन्नरप्प नागरखण्डदग्दग्रहारदशेष-महाजनङ्गळु सकळ-साहित्य-विद्या - विखासिनी - विलासमूर्तियेनिप केरेयूर यूरडेयं शम्भुदेव स्वच्छाच्छ गाङ्गाम्भ-सदृश-कीसिं-वल्लभनेनिप कच्छावियूरडेय विहियरसनुं बण जु-धर्म-वार्द्धि-वर्द्धन-चन्द्र-लेखेयेनिप त्रिभुवनमा सेलिकम्युं वदपत्यं शौर्य-निधाननप्प शहर सेट्टि, सकळयाचक-जन-मनोभिलषित - फळ-पदामर-कुच - सहक्षनप्य शंकर-सामन्यानन्दननन्दनं भव्य - वन - बान्धवनप्प नाळ - प्रभु सामन्त - मुरम्यनुं रत्नत्रयाभरण-भूषितनप्य बेगूर माळ गौडनुं देव-द्विन-गुरु भक्तनप्प कण्णसोगेय परकाटि-गौडनुं निखिळ-गुणाळंकृतनप्प मळबल्सि-परह-भौरन विनेयगुण-निधाननप्पब्बलूर खोम-गौडनुमिन्तिनिवळं मुख्यवागि नागर-खण्डवेप्पत्तर समस्त प्रभु-गावुण्डुगळे कस्यसमिद्? . सकवर्ष ११२५ सखे रुधिरोद्वारिसंवत्सरदुचरायण - संक्रमण - निमित्तवागि बन्दणिकेय भी - शान्ति Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदलिपके लेख नाथ देव - रभिषेकाष्ट - विघाचने - पूजा - विधानोचित-जयकं अलिय पात्रपाळकं खण्ड-स्फुटित वीर्णोद्धारक्कं चातुर्वर्णदाहार-दानक्कमेन्दखिय तीाचार्य शुभचन्द्र-पण्डित-देवर कालं कचि सर्बाबाध-परिहारवागि तम्मनितलं धारापूर्वकं माडि बिट्ट दति येन्तेदडे दण्डियहल्लियुं बावळियुं गङ्गळळ्ळियुं स्थळवृत्तियु ऊरूरलु नन्दादीविगेगे नाल्कु-पणमं मुद्देय-सावन्तं चिक्क-मागुण्डिय बडगणोणियि पडुवन्तु ५०० मरद अडके-दोट, इन्तिनितुमं बिटरु धम्मदिं प्रतिपाळिसुवन्तप्पवरु गङ्गेय तडियत्नु सहस्र-कविले यं नवरत्न-भूषणं माडि सहस-ब्राह्मणरिगे दानं माडिद फल-वीधर्मक्कळिवनन्नयमं मनडोळ चिन्तिसिदनावोनावननितु-कविलेयुमननितुब्राह्मणरुमं गाङ्गेय तडियोळळिड पाप ॥ ( हमेशाके अन्तिम श्लोक )। [विख्यात रेच-चमूपति; उसके बाद यदुवल्लभराज्यभूषण, बान्धव-पुराधिप कडवे बोप्पने शान्ति-जिन तीर्थ ( बन्दलिके ) की उन्नति की ।' जिनशासन की प्रशंसा । कुन्तल-देश नव नन्दों, गुप्त-कुल मौर्य राजाओं; इसके बाद पराक्रमी रहो; इसके बाद चालुक्यों; तदनु कलचूरि-वंशके राजा बिजल द्वारा शासन किया गया। तत्पश्चात् इस देशपर राजा बलालने शासन किया। उसके वंशका अवतार ( परम्परा):- होय्सल राजाओंका उदय और बल्लाल तककी वंशावली ही वर्णित है वो पिछले कई शिलालेखोमें बा चुकी है। पृथ्वी रूपी स्त्रीका बनवसे-नाड चेहरा था, जिसमें नागर खण्ड तिलकके समान मालूम पड़ता था। इसके कुओं, बगीचों और तालाबों इत्यादिका वर्णन | नागरखण्डमें उत्तम बान्धव-नगर चमक रहा था। इसके आकर्षणोंका वर्णन । इसके शासक कदम्ब-वंशके थे; वे सोम-राजाके पुत्र बोध-देव थे। उनका 1. यह सब शासनके पूरे लिखे जाने के बाद जोड़ा गया मालूम पड़ता है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैन-शिलालेख-संग्रह ब्रमभूपालक नामका लड़का था। कबडेय बोध-सेट्टिने उस बन्दिभिकेके शान्तिनाप-देवके लिये एक मण्डप खड़ा किया और विधिपूर्वक यह उसे समर्पण कर दिया। नागरखण्डमें, हरके मुखोंके समान, पांच अग्रहार थे, बिनसे ब्राह्मणों के वेद आदि विद्याओंके पढ़ने-पढ़ानेकी ध्वनि निकलती थी। वहाँ के ब्राह्मणोंकी प्रशंसा । केरेयूर शम्भु-देवकी समस्त विद्याओंमें अद्वितीय निपुणता । सेटिकन्बेके पुत्र बनञ्जु-धर्म-निवासी संकर-सेटिकी; सामन्त-मुद्दकी, जिसके पिता शंकर, मां जक्कव्वे मित्र जिन, गुरु भानुकीर्ति-अतिपति थे, शासक बल्लाल, पत्नी लच्चाम्बिके, पुत्रियां चक्कव्वे और मल्लब्बे, पुत्र बल्लाल-देव था, कच्छवियूरके मालिक बिट्टियरसकी; बेगरके प्रभु-माळ गौडकी; कण्णसोगेके एरकाटि-गौडकी; मळवळ्ळिके एरहगौडकी; तथा अब्लूरके सोम-गौडकी प्रशंसामें श्लोक । मुनिचन्द्र-सिद्धान्त-देवके प्रिय शिष्य ललित कीर्ति-सिद्धान्ती थे। उनके पुत्र, काणर-गण समुद्रके चन्द्रमा, शुभचन्द्र-पण्डित-देव थे। उन्होंने शान्तिनाथ तीर्थ '(बन्दलिके) का प्रबन्ध अपने हाथमें लिया। राजा बल्सालका प्रसिद्ध मन्त्री मल्ल या कम्मट मल्ल-दण्डाधिनाथ था। उसने बन्दलिकेकी बहुत प्रेमके साथ रक्षा की थी। उसके पराक्रमकी प्रशंसा । उसका मंत्री सूर्य-चमूपति था । नागरखण्ड सत्तरके इन सब मुख्य-मुख्य व्यक्तियोंने. प्रजाने और किसानोंने (उत मितिको ) तीत्थंके पुरोहित शुभचन्द्र-पण्डित-देवके पाद-प्रक्षालनपूर्वक 'उक्त) दान दिया। [ EC VII Shikarpur tl No 225 ] PHATA. 112501 (203 - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलहोलोक लेख २७९ लाहोली;-कान [ R१२०४ ई.] लेख-परिचय . यह लेख कलहोलीके एक पुराने मन्दिर-जो कि अब एक लिङ्ग-मन्दिरके रूपमें, जैसा कि इस भागके सभी जैन मन्दिरोंका हुआ है, परिवर्तित है-के पाषाण-तलसे लिया हुआ है। कलहोली बेलगाँव जिलेके गोकाक तालुकामें है । इसका पुराना नाम कलपोडे है। हम देखते हैं कि रट्टोकी राजधानी इस समय वेणप्राम, आधुनिक बेलगाँव थी। सबसे पहले राजा सेनका वर्णन आया है, जो शि• ले० नं० १३० में द्वितीय क्रमपर वर्णित है। इन दोनोंके इस ऐक्यका कथन आगेके किसी भी अन्य आधुनिक शिलालेखमें नहीं दिया गया है, लेकिन कालोंकी तुलना इस निष्कर्ष पर पहुँचाती है । दूसरे, शि० ले. नं० १३० की ३८वीं पंक्तिका 'बृहद्दण्ड, 'विशेषण इस शिलालेखकी चतुर्थ पंक्तिमें सेनके लिये दिये गये प्रथम विशेषणसे मिलता-जुलता है । इसमें सेनके बादसे तीसरी पीढ़ी तकका उल्लेख है। और अन्तमें कुछ दान आते हैं, जो शक ११२७ ( ई० १२०५६ ) में, कार्तवीर्य चतुर्थकी आशसे सिन्दन कलपोडेमें बने हुए जैनमन्दिरकी ओरसे किये गये थे। यह गांव उन गांवोंमें से एक या बो कुरुम्बट्ट 'कम्पण' के नामसे विख्यात थे। यह कुरुम्बेट कुण्डी-तीन हचार बिलेमे शामिल था। लेखसे पता चलता है कि कार्तवीर्य चतुर्थको अपने शासनमें अपने छोटे भाई 'युवराज' मल्लिकार्वानसे सहायता मिलती थी। प्रसंगवश लेखमें एक यादव सरदारोंके कुटुम्बका भी उल्लेख आता है बो उस समय हगरटगे बिने पर शासन कर रहे थे। आजकल यह किस चिले 1. जिसके पास बदी मारी या शक्विशालिनी सेना हो। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जैन-शिलालेख संग्रह या स्थानका नाम है, इसका पता नहीं चलता। यादव कुटुम्बकी वंशावली यो दी है: रेख, जिसका विवाह होलादेवी से हुआ था. ब्रह्म " " चन्दलदेवी से ,, . राजा प्रथम , , मैळलदेवी से , . चन्दलदेवी, चन्द्रिके, सिंह, या सिंगिदेव, या चन्द्रिकादेवी भागलदेवी से विवाह हुआ। राजा द्वि०, चन्दलदेवी, और लक्ष्मीदेवीसे विवाह. राजा प्रथमकी पुत्री चन्द्रिकादेवो रट्ट सरदार लक्ष्मण या लक्ष्मीदेव प्रथमको पत्नी हुई, तथा कार्तवीर्य चतुर्थ और मल्लिकार्जुनकी माता हुई । उल्लेखित दानप्रदत्त जैनमन्दिरको राज द्वितीयने बनवाया था। मन्दिरके गुरू मूल कुन्दकुन्दाम्नायकी हनसोगे शाखाके थे, उनमेंसे तीनके नाम यहां दिये हैं:-मलघारी, उनके शिष्य सैद्धान्तिकनेमिचन्द्र, उनके शिष्य शुभचन्द्र थे। ___ओं नमः सिद्धेभ्यः [1] श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात्रै (३) लोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं [u] श्री जन्मभूमि वरसुरभूजं क्षीराम्बुरासि ( शी) यन्ते गभीरं श्री जैन शासनं सले रात्रिसुतिर्कमळ राजपूक्तिमहिमं ॥ विलसित विपुळामृत गोकुलदिदं सकलसत्य संपददि निर्मळवणं दिन्दे विधु मण्डलदंतिरे कूडिमण्डळं कण्मोळिकं ॥ अदनावं सेनं साहस भीमसेनन सकृविद्या विळासेन ना शानरि प्रियवल्लभं प्रथुसमें तीभ्रां (बां) शुतेचस्प्रभं नानादानि कीर्तगने का वीर्यनखिलोर्वीचक्रमं चकोतरे दोर्दण्डदोळान्तनच्युतगुणं श्रीप्टनारायणं मेरु नभस्तळं कळधि मु (म) पतियं नति सन्महत्व ( त्व) गम्भोरगुणक्के मवरिपुवेन्द मराद्रियनिक्के मेट्टिया नीरदमार्गमें पुदिदु वारिधियं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलदोली लेख २५ मिनेदाट कीर्तिया शारणों बंणिपुर पंपिन लंपिने कार्त्तवीर्यन भवितते निर्जितयशं परितर्जितराष्ट्रकंटकं निर्जितदुर्जयारिनिवहं कमळाधिपनन्ते दानि नागार्ज्जुननन्ते रावणविदारण कारपरामनन्ते मिक्वर्जुननन्ते रंचिपनिळेश शिखामणि मल्लिकार्जुनं ॥ श्रीचक्रवर्त्तितनुजे कळाचतुरे विशाळलोळलोचने येनिसिर्देचदेषि सतीत्वलोचने येने कार्त्तवीर्यवधू पेसबंडदेळू ॥ स्वस्ति समधिगत पंच महाशब्द महामण्डलेश्वरं चनूपपुर वराधि ईश्वरं त्रिवळीतूर्यनिषणं रट्टकुळभूषणं सिन्दूरलाञ्छनं सफळीकृतविद्वज्जनाभिवाञ्छनं वीरकथाकर्णनजातरोमांचं साहित्यविद्याविरिचं सुवर्णगरुडध्वजं सहबमकरध्वजं संग्राम कौतूहलीकृतगदादण्डं कदनप्रचंडं सिन्धुरारातिबन्धुरकबन्धनर्तनसूत्रधारं वैरिमण्डलिकगण्डतळप्रहारं परवधूनंदनं विभवसंक्रन्दनं सादसोत्तुंगं समाराधितमहासिंग निदु मोदलादनेकनामावळिविराजितं श्री कार्त्तवीर्यदेवं निधानुल युवराव वीर मल्लिकार्जुनदेव बेरसु वेणुग्राम स्कन्धावारदोळ् सुखदिं साम्राज्यलक्ष्मीयननुभवित्तमिरे || श्रीकवि विबुध श्रीरत्नाकळितं बळघियंददि यदुकुख लक्ष्मीकान्तं श्रितकमळानीकं इगरटगे नाडु जगदोळगेसेगुं || आ नाडनाळ्वं यदुवंशं श्रित राजहंस मेसेदिक्कु व्योमदन्तलियम्युदयं बेत्त करात्तमृतनुरुते जं कीर्तिभाजं समुद्यदिळेज्यं सुमनस्प्रपूज्यनमळस्वान्तं चितध्वान्तन्तेप्पिदनादं कमलाधिप प्रभुतेयिं श्रीरेब्बनुर्वीश्वरं ॥ आ रेल्वप्रभुबिंगमग्रत्रधु हीलादेविगं स्वान्वयोद्धारं घोरनुदारनुद्गुणसारं शुभदंभो घिगम्भीरं arraftaar स्थगितहारं सौख्यसंपादककाचारं ब्रह्मनवोलतर्क्यमहिमं ब्रह्मा पुट्टि || जळधिगभीरभृतभूमळय ब्रह्मगं मुन्चितबेलोपम चन्दलदेवीगमागेदं मण्डळनाथं राजनन्ददिं राजरसं । पुदिदिरे रागदिं सकळमण्डलमप्रतिमप्रसाद संपदमखिळाशेषळये पुरिसि जैनमतामृतार्णवं पडेदभिवृद्धियं तळेये तन पेसर्गनुरूप मागेयभ्युदयमनेोविन्दं विमळवृत्त विराजित राजभूभुखं ॥ क्षितिपतिराजराजन मनोरमे मैळलदेबि ता यशस्वति नुतियोग्य भाग्यवति दानदयावति सत्कळासरस्वति यभिरूप रूपमळभावति जैनपदाम्बुबाचेनावति पुरुपुण्य पुत्रवति रंबिसुवळ सुविधाळ शीळदिं ।। कुलविस्तारक राम राज बिभुगं श्रीरोहिणी मूर्ति मैळलसादेवी गा मनपतिहित श्री चन्द्रिकादेवी निर्मळ ६क्चन्द्रिकेयन्ते सिंहमहि साम्यम्बो Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह लादर्म्महीतळपूज्य र विबुधेज्यरुज्वळगुण श्रीकान्त रात्यन्तिकं । अनुपमशौर्यशाली यदुवंश शिरोमणि राबराजनन्दने विबुधाभिनंदने घटोदरसुस्थित सर्पदर्पं भुवने पतिचिन्तरंचने जगंनुत जैनमतामृताभिवर्धन करचारुचंद्रिके महासति चन्द्रिके धन्ये पात्रियोळ् ॥ श्रीपति लक्ष्मीदेवमहीवल्लभवल्लभे कार्त्तवीर्यं धात्रीपति मल्लिकार्जुन महीश्वर मातृ महासतीत्व सीतोपमे जैनपूजन सुरेन्द्रवधूपमे रूपकेतुकान्तोपमे रंचिपळ नेगळ्द चन्दळदेवि समस्तधात्रियोळ् । २८२ स्फुरितानमणि-प्रणतकटित प्रख्यातदानेन्द्र भूमि - दोवतळधारितुंगशिखर श्रीमद्भुजादण्डमं । दरदं वैरि बळाविषयं मथियिसुत्तद्यजय श्री वधू - वरनादं यदुवंशभाळतिळकं सिंहावनीपाळकं || सजलं गोण्डु समग्रसिंहमहिपं मेल्पा तिसल्पा बिमं । सबळं वैरिबलं जवंगे कबळं बेताळबावक्के कोटू ॥ पिरि श्रोणि बळारिगित्त बडिनं हादिर्द हईंगे नेदुर्दु । मृत्तिदबुत्तियेदोड हितम्ब्योलि महाम्परे ॥ वनपति सिंगिदेवन मनः प्रिये भागलदेवी भाग्यमेदिनि गुणयूथनाथ मुनिदान विनोदिनि संश्रितार्त्तिमेदिनि विबुधप्रमोदिनि कळागममेदिनी नित्यसत्यवादिनि दुरितापनोदिनि पतिब्रते पूजितरूपे रंचिपळ ॥ भोगपुरन्दरप्रतिम सिंहामहीपतिंगं बिनार्च्चनोद्योग सचेचरित्रवति भागलदेबीगनाद नात्मनं रागसमागमप्रद सुमूर्त्ति जयंत नतिप्रसिद्ध जैनागमवार्द्धिवर्धन कळानिधि राजरसं समंजसं ॥ बिनपूजाविबुधाधिपं विपुळतेनं प्राप्तधर्मप्रभावनयै पुण्यजनोसमं गुणगणांभोरासि वैरीप्रभंजन नवघनदं महीश्वरनेनिप्पी पेपिनिं लोकपाळनिळं राजिरसं जगद्ळयमं पाळि देनोप्पुदे । क्षिति सले कुत्तु कीर्तिपु मूर्ति मनोभवराजनं समर्थितविनगजनं यदुकुळामृत वारिधिराचनं समुन्नतिगिरिराजं गुणविराजितसिंहभूपति सुतराचनं विषमवाचि सुशिक्षप्पवत्सराजनं ॥ पिंगदवार्थशौर्यमसुनरलोक जगदळंगे राजंगे जगत्प्रमोदवन काम्युदयं यदुवंश संभवोत्तुंगगुणाच्युतंगे विजय प्रियवृत्तिनृपाळ सिंह जातंगे पराक्रमं पोसते बंणिसुबन्दु समस्त 1 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलहोली के लेख धात्रियोळ् ॥ द्यूतमृगप्पि मांसगणिकापरदारखळ प्रसंग चौर्यातुळ मलमेषखगयुद्धनिषिद्ध विनोदनोद्यत्तम्भूतळ नाथरप्परदु माण्दु जिनस्तवनार्च्चनाम होख्यातमुनीन्द्रदानरतप्परे राजनृपाळ निंनबोळ् ॥ सति चन्दव्यदेवि पतित्रते लक्ष्मीदेषिमेम्बरीर्वरू मवनीपति राजनृपन राणियरतिशयगुणयुतय रेनिसि नेगदगदोळ् ॥ स्वस्ति समस्तप्रशस्ति सहित श्रीमन्महामण्डलेश्वरं कुपणपुरवराधीश्वरं यदुकुळांवरद्युर्माणि बुधबनचिन्तामणि निजभुबासि निर्देळितरिपुनृपकंठकदळ नरलोकजगद्दळं अनवरत बिनसवन सुरभि सलिल पवित्रीकृतोत्तमाङ्गं धर्मकथाप्रसङ्ग बिनसमय सुधार्णवसुधाकरं सम्यक्त्वरत्नाकर ने निसि नेगल्द क्षत्रियमस्तकामरराजनृपं विभुसिंहसून रत्नं त्रयमूर्ति निम्मंळिन धर्ममेनुत्तदनोल्दु पेळूनवोल् घात्रिगे मिक्क कल्पोळेयोळेत्तिसिदं जिनशासतिगेहमं नेत्रविचित्रमं महिते ( र्ति ) रीट मनप्रतिकूटमं ॥ अन्तनन्तसुख श्रीकान्त ( तं ) शान्तिनाथ समुत्तुंग भृत्य निधानमं कनककळश मकरतोरण मानस्तंभविराजमाननं राजरसं सिंदनकल्पोळेयल्लि माडिसि तन्न गुरुगळं जगद्गुरुगळुवेनिसिद शुभचन्द्रभट्टारकदेव कोनवर गुरुकुलकममेंतेने || जयनिळय कुण्डकुन्दान्वय विश्रुत मूलसंघदेशि पूर्णोदय पुस्तक गच्छदोळतिशयमेने हनसोगेयेम्ब बळि बगेगोळिकुं । गुरुकुळतिळ कप्पविन चरितर्गुणभरितरल्लि नेगल्दव्वी जिंतस्मृर मलधारि मुनोंद्रर्च्चरणाम्बुजनतनरेन्द्ररपगततन्द्रर् ॥ पदनख संकुळं विषमबाणविषा हिमहाविषापहारद मणि नामदक्रमे मोहपटुग्रहभेदिमंत्र मंगद भटभाजमंजवरुना हरणौषधमेन्दोडेन नेम्बुदो मळधारि मुनिपोत्तम प्रभावतपःप्रभावमं ॥ शान्तरसावतार मळधारिमुनीश्वररय शिष्य सैद्धान्तिक नेमिचन्द्रगुरुधर्म्मरथ श्रुतवाद्धिं नेमिचन्द्रं तममं निवारिप कळागुणभद्रनमानुषामृतस्वान्त समन्तभद्रनेने बंणिसरारकळंक मृत्तनं । आ सैद्धान्तिक नेमिचन्द्रयतिवर्याचा शिष्यगुणावास श्री शुभचन्द्रभासुर यशोमहारक न्वीश्वाधात्रि संपूबित शीलधार करुदप्रानंगसंहारकर श्रीसद्दर्शन बोधमृत्त (धामृत पदवीविस्तार निस्तारकर || शुभचन्द्रं स्त्रगुणोल्लसत्कुवळयं श्रीचन्द्रिका शुद्धवृत्तिभवप्रभावदिं दिगम्बर श्रीवृद्धि में मण्डळप्रभुसंपूचितपादनुज्वळ गुणाढ्य शान्तरूपं कळाविभवात्युंनतवत्तनभ्युदययुक्तं माळूपदेनोपपदे || मारमदापहारिपरमोप्रतपश्शुभचन्द्र देव भट्टारकशिष्यरी लखित २८३ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह कोर्ति समुन्नतनामषेय भट्टारकरिन्दु सल्ललित कीतिंगळन्वित शान्तमार्तिगळ् सारचतुष्टयान्वयवेदिगळुत्तम सत्यवादिगळ् || स्वस्ति समस्त गुण संपन्नरुं भव्य प्रसन्नरु देविवन्दित पदारविन्द निवात्मभावना भिस्पण्ड (द) रुं श्रीराजनृपाळ सुप्रतिष्ठित शान्तिनाथदेवर बसदियाचार्यरुं मण्डळाचार्य्यरुमप्प शुभचन्द्र भट्टारकदेवभ भीकार्त्तवीर्य्यं देवं आ शान्तिनाथदेवरंगभोगक्कं रंगभोगकमा बर्सादय खण्डस्फुटित बीर्णोद्धारणकमलं मुनिचनंगळा हाराभय भैषज्यशास्त्रदानकं शकवर्ष ११२७ नेय रक्तातिसंवत्सरद पौष्य शुद्ध बिदिगे शनिबारदन्दुत्तरायण संक्रमणदति कुण्डि - मूरुखासिरद बळिय कुलंबे गंपणदोळगण सिंदनकल्पोळेयलिय कळगडियर सिन्दमऊण्डं मुख्यवागि हंनी माऊण्डुगल्छेये हन्नेरडु तप्पडिय कुचुम्मेह गोलिंदेरडु सहस्र कंब केयं धारापूर्वकं सर्व्वसमस्यवागि कोट्टन्त केय्य सीमे [1] ऊरिं बड कंकणनूर हेद्दारियिं मूडलविलहलद मुरुविनति नैरुत्य कोणल्नेट्ट कल्लति बडगमुखं बिळियबावियिं मूडलागि पडुवणसीमे नडियल्क भोरडियति वायव्यद कोणल्नेह कल्लल्लि मूडमुखं बडगण सीमे नडिंयलीशान्यद कोणल्ने कल्लल्लि तेंकमुखं पंचबसदिय मान्यदिं पडवळागि मूडणसीमे मडियल नविल इल्लदल्लि आग्नेयकोजलनेट्टे फलति पडुमुखं कणसीमे नविलहळ्ळं [1] आ बसदियिं संमन्यद मनेय निवेशनविंमोळनुं गेणु [1] बाचेयविडिय राजहस्तदला वसदियिं बडगळ् राजवीथियिं मूडल् वडुवणे क्केय हस्तं नात्वत्तु सिरिवागिल कलिं मूडळ् पंचबसदिय के रियलिगे बडगणेक्केय हस्तविपत्तार आ केरिथिं पडुवण भागं बिडिदु मूडणेय हस्त नाल्वत्तु तेंकणेक्केय हस्त ऐवत्तेरडा मान्य दोळगणंगडि नल्कु गाणवोन्दा बसदिय वणबेय निवेशनवस्दु [1] ऊरिं पडुबळ् हूदोंडद कंबं मूवतु [11] मत्तमा ऊर सन्तेयं माडल वेडिचे ळगले मुख्यवागि नल्कुंपट्टणद सेट्टिय महानाडागि नेरेदिति आ शान्तिनाथदेवर नित्याभिषेककमष्टविधार्च्चने गं सर्व्वबाधापरिहारखागि बिट्ट एत्तु कत्ते कोर्ण मोदळादवरवत्तु ६० ॥ मत्तुमेळुवरे हंनोन्दुवरेय समस्त मुंमुरिदण्डं मुख्यवागि नाडुगळ विहायद क्रममेन्तेन्दोडे [1] सकळघान्यमाउनु वन्दडं हेरैंगोंमनं [1] भंडिगे बळ्ळवेरडु [1] इसरकडके औदु [1] हेवेगेले नूरु [1] होवळकैय्यत्तु हाडक्के सोलिगे एण्णे उत्तेय होरे मास्तिक्के 1 २८४ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलहोली के लेख ૨૦૧ ओन्दु कट्टोले [1] किरुकुलमेनु मारिदडं सट्टुगाथं हिडिवत्ति [1] कण्पगे मडिके बन्दु । श्रमात मूर्ति तीर्थमहिमाविस्तारि धात्रीस्फुरत् । तेनश्वक्रधरं जगंनुतयश तन्नन्ददिंदेन्दु रा - || राजिप्पी जिन शान्तिनाथ नवनीनाथप्रणुतोदयं । राजक्ष्मापतिमीगे बेळ्प बरवं चन्द्रार्कतारांबरं ॥ ललित पदार्थांळकृतिगळिनोसर्व रसंगळिंदे बुधरोळ पुळकावळि सस्यमोगे ये कविकुलतिलकं शासनमनोल्दु पेटं पार्श्व ॥ बहुभिन्बसुधा दत्ता राबभिस्सगरादिभिः [1] यस्य यस्य यदा भूमिह (मिस्त ) स्य तस्य तदा फलम् ॥ गण्यन्ते पांसवो भूमेर्गण्यन्ते वृष्टिबिन्दवः [1] न गं (ग) प्यते विधात्रापि धर्म्मसंरक्षणे फलं ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां [1] षष्टिवर्ष सहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ॥ सामान्योयं धर्मसेतुन पाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः । सर्व्वा (व) नेतान्भाविनः पार्थिवेन्द्रान्भूयो भूयो याचते रामचन्द्रः ॥ मद्वंशत्वाः परमहीपतिवंशबा वा पापादपेतमनसा भुवि भूमिपालाः । ये पालयन्ति मम धर्ममिमं समयं तेम्यो मया विरचितां बलिरेष मूर्ध्नि । मंगळमहा भी श्री [I] अर्हते नमः । 1 [JB, X, p. 173-175, a.; p. 220-228, t.; p. 229-239, tr. ( ins. No. 5 ). ] ४५० पुरले - कन्नद - भग्न । वर्ष क्लास [ १२०४ ई० ( लू. राइस ) । ] [ वीर सोमेश्वर मन्दिरमें, किनके आसन-पाषाणपर ] रक्ताक्षि-संवत्सरद भाद्रपद शुद्ध १३ आ स्वस्ति श्री वीर-बळ्ळाळ ...... "दण्णायक देवरु [...] समुद्रद नेलेवीडिनलु सुखद राज्यं गेय्युत्तिरे श्रीमतु-महा प्रधान हिरिय- हेडेय-असवर मारय्यङ्गळ सन्निधानदलु" विषु.." ..हेम गावुण्ड हडवळकाळय्य गङ्ग-गावण्ड त्रप्प- गाण्ड गायि गावुण्ड माञ्चगावुण्ड लक्क-गावुण्डुगळु बयिचय्य होन्नय्य-मुख्यबाट समस्त - प्रभु गावुण्डुगळ .'......... Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैन-शिलालेख संग्रह तम्मगागि..."कुन्तलापुरदल्लि सदाचारय्यरम्प नेमिचन्द्र-महारक-देवरिंगे नाळ-प्रमु.........."सावन्त-मारग्यनु विचारिसि... 'काळ-पावुण्ड...... मयण पेम्म......दियरं कण्डु तव..........बरद शीलाशासन तोडदु बलात्कारदि तम्म भक्तियागे सलुत्त........ बेण्णवळिळ-यल्लि......"कोण्डु नाळ-प्रभुगळु अधिकारि सावन्त-मारय्यनुं मनद्धारेयागि नेमिचन्द्र-भट्टारकदेवर कालं तोळदु धारा-पूर्वकयागि....."शिला-शासनवं बरेदु बेनबसेय दोडिकेय. ( महेशाके अन्तिम वाक्यावयव तथा श्लोक) [(उक्त मितिको ) जिस समय वीर-बल्लाल-देव दोरसमुद्रके निवासस्थानमें था,-प्रधान मंत्री हिरिय-हेडेय-असवरमारय्यकी उपस्थितिमें, तमाम सरदार और किसानोंने (बहुत-सोंके नाम दिये हैं), कुन्तलापुरके आचार्य नेमिचन्द्र-भट्टारकदेवके लिये............":-सावन्त मारय्यने बांच-पड़ताल करके, बबर्दस्ती, उस लिखे हुए शिला-शासनको मिटवा दिया और अधिकारी सावन्त-मारय्यके साथ मिलकर, नाळ-प्रभुओने, नेमिचन्द्र-भट्टारक-देवके पाद-प्रक्षालन-पूर्वक.... एक शिला-शासन लिखवा करके दिया। [E C, VII, Shimoga tl., No 65.] मोग्ग-कला (बिना काल निर्देशका, पर गमग १२०९ ई.का] गोग्गमें, वीरमद् मन्दिरके वाजेके साँचके दोषों भोर ] (बाई ओर) माडिसिद जिनालयमव..... एल्जियुमिल्ल अरेनल । नाडे विराविसल बेळगवत्तिय-नाडोळनून-भक्तियिम् । कूडे विभूतियष्ट-विधार्चनेयेम्बिऊ कुन्ददन्तु कोण्ड-। आडुतविप्पेनिन्दुबेनसीचणन्तिरे भव्यनावव (न) म्॥ जरोळ वापदे बसदियन् । मोरन्तिरे माडि बेळगवत्तिय-नाडम् । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोमाके लेख २८७ पारिणिो नेगळ्द पोपण। ओरगे माडिदनुदानिधियीचरसन् ॥ (दायीं ओर ) एरेयन देववाददु तनय देखमदाऊदावनोळ् । नेरद गुणोनतिकेयदुतनय मिक-गुणोनतिके कण-। देरदडदाव धर्मवधिनाथनोळन्तदे तन्न धर्मवेन्द् । एसकदे मन्त्रियीचणन वलभ सोवल-देवि भाविपळ् ।। नगेनगे मोगवम्बुजभम् । मिगे मृग-बीक्षणमनीक्षणं मिगे मृगधरनम् । तेगळे मोख-कान्ति चेल्वम् । त्रि-गुणिसिदुदु निन रूपु सोवन-देवि ।। ईचणने बेळगवत्ति-नाइम ऐसा एक बिनालय बनवाया जैसा उस प्रदेशमें और कहीं नहीं था। और इस तरह बेलगवत्ति-नाड्को कोपणके समान बना दिया। मंत्री ईचणकी पत्नी सोवल-देवीकी प्रशंसा।] [ EC, VII, Shikarpur tl., No 317 ] ४५२ वकलगेरे-संकृत तयार [शक ११२०% १२.५० [ गेरे ( पगटे परगना) में, पाण-समाव मन्दिर बाहरी मांगनके एक पाषाण पर] नमः सिद्धेभ्यः ॥ भद्रमस्तु जिन-शासनाय । श्रीमत्-परमगंभीर स्थावादामोपलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं बिन-शासनम् ।। स्वस्ति श्री-पृथ्वी-बल्लभं महाराजाधिराच परमेश्वर परम भट्टारकं चालुक्यामरणं भीमद-भू-बछाम पेम्माविनयं कल्याणद नेले-वीडिनो ससाईसामियं दुष्ट-निग्रह-शिष्ट-प्रतिपालनं गेग्दु सुख-संकया-विनोददि राज्यं गेग्ये । स्वस्ति सम Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह द्वितीय शिलालेखके, जिसका ऐतिहासिक भाग पहले ही लेख- जैसा है, दान भी ठीक उसी काल, उसी व्यक्ति, और उसी कार्यके लिये किये गये हैं । पर इस लेखमें दान स्वयं वेणुग्रामकी भूमिके थे। इस लेखमें कार्त्तवीर्य तृतीयकी पत्नीका नाम पद्मावती दिया हुआ है। यही नाम दूसरे कन्नड़ लेखों में पद्मलदेवी' आता है। २६६ इन सब ऊपरके शिलालेखों परसे निष्पन्न रट्टोंकी वंशाबली इस प्रकार प्रतिफलित होती है: [ यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि वंशपरम्परामें सिर्फ एक जगह टूट आती है और वह शान्तिवर्मा और ननके बीच में है । ] मेर 1 पृथ्वीराम पिट्टग, नीजिक या नीबियब्बे से विवाहित · शान्त, या शान्तिवर्मा, चन्दिकम्बेसे वि० • दावरि, या डायम नन्न काच वीर्य प्रथम या कत प्रथम कन्नर प्रथम, या कन्न प्रथम 1 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नकैर द्वि०, या कन्न द्वि० बेलगाँव के लेख एरेग, पाएर 1 सेन प्रथम, या काळसेन प्रथम, मैलादेवी से विवाहित कार्त्तवीर्य द्वि०, या कत्त द्वि०, भागलदेवी से वि ' सेन द्वि०, या काळसेन द्वि०, लक्ष्मीदेवी से वि 1 कार्त्तवीर्य तृ०, या कत्तम, पद्मलदेवी या पद्मावतीसे वि० 1 लक्ष्मण, या लक्ष्मीदेव प्र०, चन्दलदेवी या चन्द्रिकादेवीसे वि० अङ्क कार्त्तवीर्य चतुर्थ एचलदेवी और ( १ ) मादेवीसे वि० | लक्ष्मीदेव द्वितीय २६७ मलिकार्जुन Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह निम्नकोष्ठक से अब तक के आये हुए रहोकी ऐतिहासिक कालावलीका पता एक ही बारके देखने में लग जायगा :--- किसके अधीन REE टुका नाम पृथ्वीराम •• शान्तिवर्मा · · कार्त्तवीर्य प्रथम.. अङ्क कन्न द्वितीय कात्तवीर्यं वि० ... सेन द्वितीय • • कार्त्तवीर्य चतुर्थ, और मलिकार्जुन राष्ट्रकूट कृष्णराज जो शक ७६८ तथा शक ८२५ में शासन कर रहा था । चालुक्य तैलपदेव द्वितीय, शक ८६५ से ६१६. चालुक्य सोमेश्वरदेव प्र०, शक ६६२ १ ६६१ ? चालुक्य सोमेश्वरदेव प्र० चालुक्य सोमेश्वर द्वि०, शक ६६१ १ ६६८, और चालुक्य विक्रमादित्य द्वि०, से १०४६. चालुक्य विक्रमादित्य द्वि० का पुत्र जयकर्ण | बादमें स्वतन्त्र | शक ६६८ स्वतन्त्र अकेला कार्त्तवीर्यच. वही ... लक्ष्मीदेव द्वितीय...वही • ........ ... इन शिलालेखोंसे विदित काल लगभग शक८०० शक ६०३ शक ६७१ शक १००६ शक १०१० लगभग शक १०५० . शक ११२४ और ११२७ शक ११४१ शक ११५१ [ JB, X, p. 184-185, No 2 II and 12, ] a. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोगका लेख २६४ पाण पर गोग्गा-कार-मग्न । [का लुप्त-पर लगभग १२०० ई.] [वीरभद्र मन्दिरके पास के एक तीसरे पाषाण पर ] ( अग्रभाग घिसा हुआ है):"नेक-ऋषिय ... ... ... वैशाख सुद्ध ५ बृ... ... ... .."अदके सीप बडगल्... ... .''वण तुम्ब केळगे पडुवल्लु'.. ......... ... 'मत्तर १....."ब ५० अदके चतुस्सीमे नट्ट कलु... ... ... ब ५ देवर नन्दा-दिविगेगे गाण १ हत्तेत्तिन बकलु... ... ."हुडिके-देरे हडियदे ग असगर वोकलु १ यिन्तिनितुम सुङ्क...........विरुपय्यङ्गनु विट दत्ति समस्तप्रजेगळिई कोट्ट धान्यव ग नेख्नु को २ नवणे को २ एळु को १ यिन्तनितु धर्ममं श्रीमतु सोवल-देवियरु ई..... कन्यादान माडि वासुपूज्य देवर काल कञ्चि धारा-पूर्वक माडिदरु यिन्ती धर्ममं नाग-गौडन् । 'नय-प्रमेतेयागि प्रतिपाळिसुवरू। ( हमेशाके अन्तिम श्लोक)। [(प्रथम अंश नष्ट हो गया है, और उसका अधिकांश मिट गया है) विरूपय्यके द्वारा भूमिका दान। वासुपूज्य-देवके पाद प्रक्षालन-पूर्वक सोवलदेबीके द्वारा ( उक्त ) अनेक तरहके घान्यका दान, तथा एक कुमारीकी भेंट । इस पुण्यकी रक्षा नाग-गौड, अपनी आँखको ज्योतिकी तरह, करेगा। हमेशाका अन्तिम श्लोक । [ EC, VII, Shikarpur tl., No 321 .] ४५६ गोग्गा काद-मग्न । [शक m २०८ ई.] [गोग्गमें, वीरभद्र मन्दिर के पास के पाषाण पर] ऊपरका भाग मिट गया है)... ... ....... अच्छरिये ......... .. बुद्धि Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.० जैन-शिलालेख-संग्रह ... ... .... .. भोच्चण्ड ... ... .बीरस्वळळाल... ... ... अरसंक-कर ....... ....... वोळगागनेक......... चटरस... ... आ-दम्पतिगळ पुण्यदिन् । आदं मगनधिक.. ... ... । ...............) ... ... ..."विख्यात-सन्धि-विग्रहि यीच ॥ अभ्याहारादि-शास्त्र......। शुभ-चारित्र ङ्ग] हिन्दं पर-हित-गुणदिन्दं ब्रताचार दिन्दम् । शुभ..." "उर्वी-नुतं कीर्ति-कान्त-। प्रभु-मन्त्रोत्साह-शक्ति-त्रप-युतनधिक सेव्य...। पति-हिते सीतेयन्ते जिनपार्चकि तेवकियन्ते भतृ'-सम्युते गिरिचातेयन्ते... ..'लक्ष्मियन्ते सु-। बते नेगळद तिम्मवे....."न्विते वाणियन्ते तान् ।, अतिशयस इई.. ... ."अङ्गने सोवल-देवि धात्रियोळ् । .."सति पद्मसंभवनोळद्रिजे चन्द्र "नोळ् । परम सुख-प्रशस्ते सिरि विष्णुविनोळ नेलसिष्प माल्केयिं ॥ स्थिरतर..... ."सोचलदेषि मनोनुरागदि । निरुपम-सन्धि-विग्रहि-सिखाणियोचनोळी.... ...॥ [(लेखका प्रथम अंश नष्ट हो गया है, और उसका अधिकांश मिट गया है)। ईच और उसकी पत्नी सोमल-देवीकी प्रशंसा। उनके गुरु-परम्परा (गुरुकुल ) की तारीफ-लेखमें सिर्फ चन्द्रप्रभाचार्यका नाम रह गया है। महामण्डलेश्वर मलि-देवरस सन्धि-विग्रही मंत्री एचकी पत्नी सोक्ग-देवीने, अपने छोटे भाई ईचके मर जाने पर, एक बसदिका निर्माण किया, भगवान शान्तिनाथकी अष्टविध पूषनके लिये, और मन्दिरकी मरम्मतके लिये, ( उक्त मितिको ) चन्द्रग्रहणके समय, ( उक्त ) भूमिका दान किया।] [ EC, VII, Shikarpur tl., No 320. ) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरबके लेख ४५७ सोरबा-संकृत तथा काद। -[शक ११३० (१)=१२०८ ई.][सोरबमें, वण्डावती नदोके पूर्वी किनारे पर अवभूत-मण्डपके स्तम्भपर ] श्रीमत्परमगंभीर स्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रेलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ।। अम्बुधि कमळाकरदोळ् । जम्बु-द्वीपाजदोन्दु-कणिकेयेनिकुम् । पोम्बेदरिं तेलु। चेम्बेर्टेसळेनिपुदल्ते भारत-क्षेत्रम् ।। भरत-श्री-भूषणदन्त। इरे कुन्तण-देस मल्लि नायक-मणियन्त् । उरुतर-शोभा-विक्रमकरमेने बनवास-देसमोळुपं पडेगुम् ॥ तद्देशाद्यनेक-जळनिधि-वळय-वळयित-देशाधिपति । यी-वसुधाग्रमं यदु-कुळङ्गे सळंगे कुडल्के कुर्नु प-1 द्मावतियं सुदच-मुनिपर बरिसल पुलियागि बप्प्दुम् । भाविसे नोडि पोय शळयेनळ मुनिपर स्सेळेयिन्दे पोय्दु तद् देविगे शौर्य्यमं मेरेदु पोसळ-नाममनान्तना-नृप । अन्तु सुदत्ताचारियर् प्पनावती-देवियिं पदेदित्त'... 'रदिं तदन्वयदोळनेकर मुदितोदितमागे राज्य गैद बळिय ॥ उदयिसिदनमृत-वार्षियो। ळ उदयं-गेय्दमर-भूजमेन्बिनेगं चेल्वओदविरे बल्लाळ-नृपम् । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह यदु-कुलदोळु विशद कीर्त्ति दानाभरणम् । धुर-रङ्गं नृत्य-रङ्गं पर-नृपति-कपाळाळि ताळाळि नन्दञ्चरियर्कळ पाडुवर् तद्विजय रूह-यशं दुन्दुभि-ध्वानमागुन्त् । इरे विद्विष्टवनिपालक-निकरद रुण्डङ्गळि ताण्डवाडम्- | बरमं माळपोळ पनि नट्टविगनेनिसिटं बोर-बल्लाळ-भूपम् ॥ पगेवर पेण्डिर कण्णिन्द् । ओगेदञ्जन पङ्किताम्बुविन्दं वेलकम् । मिगुवुदु विचित्रमिन्तिदु । गर्दोळु बल्लाळ भूप एने नेगळ्द बल्लाळदेवं दोरसमुद्रद नेलेवीडिनो सुख-संकथा-विनोददि राज्यं गेय्युत्त मिरे || ३०२ दोरेयेने कोकण बनवा - से- रोहणाचळद पुरुष-कान्ता विवुधोत् । -निन - विशद-यशम् ॥ कर - रत्न ङ्गळ कणियेने । f निरन्तरं तोळगि बेळगि राजिसुतिकुम् ॥ तद्ग्रामाधिपति ।। वनवास-देश-भ - भूषण-1 नेनिपं गावुण्ड-मण्डनं-दिक-कान्ता - स्तन मण्डल - परिशोभित- 1 घनतर तदपत्य || र-तेज:- प्रकाश-घुशृणं मसणम् ।! बु-नदी-प्रोङ्ग-रङ्गद्-हळ-लहरिकान्दोळनोद्भूत-संघा । त-नमेरुद्यतान्तावलि - वळयित - डिण्डोर - पिण्ड- प्रभा-मण- । डन पाण्डु-प्रौढ़ कीर्त्ति प्रसर-विसरितोब नभश्चक- दिक्च-1 क्र-निकायं तानेनिप्पोन्देसकदिनेनसुं कीर्त्ति गावुण्डनादम् ।। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरवके लेख मनमोल्दुबैरे कीर्तिकुं मसण-गावुण्डोत्तम-प्रेम-नन् । दननं वन्दि-बनार्थितार्थ-फळदं प्रत्यक्ष-कल्प-द्रु-नन्दननं दुर्जन-दर्प-खण्डनननुर्बी-जात-गाउण्ड-मण-। डननं कीर्तियनिन्दु-कुन्द-हर-हासोद्भासि-सत्-कीर्त्तियम् ।। आर्तीव दानिय घरे। कीर्तिकुमभिमान-मूर्तियं धन-तेजस-। स्फूर्तियनी-प्रभु-मण्डन-।। कीर्तियनङ्गभव-मूर्तियं प्रियदिन्दम् ।। तदपत्यरु ।। सोम जननयनोत्पळसोमं मसणं विरोधि-जन-हृत्-रवषणम् । श्री-महित-महादेवम् । प्रेम-महादेवनल्ते रामं रामम् ।। आ-कीर्तिगावुण्डनणुगिर्नाळयम् ।। विततैवर्य्यन माधिनाथ-विभवं-राज-प्रियं बाहिनीपति भोगीश्वर-भूषणं नुत-वृषाङ्क केशव-प्रेम-वि। श्रुतनेम्बोळपेनसुं विराजिसे महादेवं महादेवनेम्ब तदीयाङ्कमनन्वितार्थमेनळर्थ-ब्यक्कियं माडिदम् ॥ सुमनो-भूधर-राजितं विपुळ-शाखं बन्धुर-स्कन्ध-मूर्त्ति महीजात-वरं सु-पत्र-निचय-स्तुत्यं घरा-शेखराङघि महोदारि दलेम्ब तन्नेसकदिन्दं भव्य-कल्पावनी-1 जमेनिप्पं विबुध-स्तृतं विभु-महादेव चमूपोत्तमम् ।। ओदवल् कण्णिडे मळू पोगे रवि लोकक्केयदे कण्णागि तान् । उदयं-गेय्देवोलिन्दु रेचरसनिन्द्रत्वक्के पक्कागे काणदे मुन्दं देसेगेट जैन-जनक्कैल्लं लोचनं तानेनल्क् । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह उदयं-गेय्दनिला-तळ-स्तुत- महादेवं चमूपोत्तमम् || कवि - रिपु गुरु गुरु-रिपु भृगु -। ववरेवरेनल घरित्रि कवि-गुरु- बनतोद्भवमोदवे मन्त्र-गुणमोप्-। पुवुदु महादेव - दण्डनाथोचमनोळ् ॥ अन्तु कीर्त्ति - गावुण्डं तन्नळिय महादेव - दण्डाधिनाथनं तदपत्यरुं बेरसु || समलित-गुण-गुणगणं भी- । वल्लभनभिमान - मूर्त्ति कीर्त्ति वधू- धम्- । मिल-विराजित-मल्ली- । ३०४ फुल्लै श्रेष्ठि- प्रतान-मण्डन भल्लम् ॥ एने नेगळ्द मल्ले - सेटिंग । मनुपम - चरित्र - सीते माचाम्बिकेगम् । अनियिसिदं सुकृतं सञ्- । नियिसे निज - कुलके नेमनखळ - ललामम् ॥ नेगळ्दर् ग्गुरुगळ् गुणच्चन्- | -गणि-वक्षसंग (घ) काणूर-गगणदोळ । सोगयिसुव नुन्न- वंशदो- 1 सेवररागे नेमन भिजन - रामन् ॥ • पर-हित- मूर्त्ति भव्य-जन- कळप-कुजं विभु नेमि-सेहि बिन् तरदोळे कूडे जिड बळिगे - नाड एडे-नाडे निसिप्प नाळू गबोळ् । परम - जिनेन्द्र गेहमन ने कमनुद्ध रिसुतमित्तलुद्- | धरिदिनुत्तरोत्तरमेनलू निज- कीर्त्ति - लता - वितानमम् ॥ कोड कणि-पुर- लक्ष्मिय मेय्- । दोडवेनिसिरे नेमि-सेट्टि विभु माडिसिदम् । कडु - गोवि कीर्त्ति-लते दाङ- । गुडि विडुविने शान्तिनाथ - जिन-मन्दिरमन् ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोर के लेख मनमत्- प्रतिकृतिनिम् । तनु सु-तदिं धनं जिनेन्द्रालयसञ्- । जनन - क्रियेविन्दति - पा । बनमागिरे नेमि-सेटिट नेगळ्दं जगदोळ् ॥ ३०५ अन्तु नेमि- सेट्टि सक-वर्षद [ साविरद ] नूर मूवतेमेय विभव-संवत्सरद जेष्ठ शु १० शुक्रवारदोळ शान्तिनाथ देवर प्रतिष्ठेयं माळूप कालदोळ् कीर्त्ति गावुण्डनं तत्तनून तनळिय महादेव - दण्डनापकनुं, परिवृत मागिरलु देवरष्ट - विधाचर्च्चनेगं ऋषियराहारदानकं कोट्ट गद्दे कम्म ५० वरद-श्री कण्ठ-प्रति- । परिक्किदर् शान्ति- [ जि ] न-गृहाचार्य्यग्गप्- | इरे योग-पगेयना - 1 दरदिन्दं वज्रपञ्जरमनिक्कुववोलु ॥ यिदु बोग- वट्टिगेयनान्- । तुदु मद्-धर्म्मन् दलेन्द-संख्यात-गणा- । त्युदित-यश र प्रतिपालिप- । रुदात्तदी - शान्तिनाथ - जन-मन्दिरमम् ॥ [ जिन शासन की प्रशंसा । लम्बूद्वीप, उसमें भरतक्षेत्र, उसमें कुन्तण देश, उसमें बनवास - देश | जिस समय उस तथा समुद्र- परिवेष्टित अन्य देशों का अधिपति यदुकुलके सळको यह मुख्य क्षेत्र देना चाहता था, सुदत्त मुनिपने पद्मावतीको एक चीतके रूपमें प्रकट करवाया । पद्मावतीको चीतेके रूपमें देखते ही, उन्होंने सलसे - • कहा 'पोय् सल' ( सल, मारो ); जिसपर उसने चीतेको सल ( डण्डे से ) मारा और देवी पद्मावतीको उसके साहसका प्रदर्शन कराया, और इससे राजाका नाम 'पोरस' पड़ गया । २० Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह इस तरह सुदत्ताचार्यके पोयसळ राज्यकी नीवं गेरनेके बाद उस वंशमें बहुत-से राधा क्रमशः हुए। जिनके बाद रावा बल्लाळ उत्पन्न हुआ, उसकी कीर्तिकी प्रशंखा। विस समय बल्लाळ-देव दोरसमुद्रके निवास स्थानमें था और सुखसे राज्य कर रहा था: कोडर्माण क्षेत्रका वर्णन । उसका अधिपति मसन था। पुत्र, (प्रशंसा सहित ), कोर्षि-गावुण्ड था। उसके पुत्र मोम, मसन, महादेव और राम थे। उसका दामाद महादेव दण्डनाय था; ( उसकी प्रशंसाएँ )। मल्ल-सेट्टि और माचाम्बिकेसे नेम अपन हुआ था, जिसके गुरु मूलसंध तया काणर-गण के गुणचन्द्र थे। नुन्न-वंशके नेमि-सेटिने बिळिगे-नाई तथा एडे-नाड़ में कई बिनेन्द्र-भवन बनवाये थे। कोडकणिमें उसने शान्तिनाथजिनालय बनवाया था। इस प्रकार नेमि-सेटिने ( उक्त मिति को' ) शान्तिनाथ-देवकी प्रतिष्ठाके समय, कीर्ति-गावुण्ड, उसके पुत्र तथा दामाद महादेव-दण्डनायकसे परिवेष्टित होकर ५० दण्ड प्रमाण धान्य-क्षेत्र भगवानकी अष्टविध पूजाके लिए तथा अषियों के आहारके लिये दानमें दिया। और श्रीकण्ठ-बतिपने शान्ति-चिन मन्दिरके पुधारीको एक योग्य स्थान दिया। [EC, VIII, Sorab, tl., No. 28 ] 1-'शक-वर्षदनूर-पूववेनेय,' इसमें हजारकी हेल्या खुस है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवेरीके लेख ४५८ अनवेरी, संस्कृत तथा कबद भग्न । वर्ष प्रजापति [ १२.ई. (ल. राइस)।] [अनवेग (होळखूरं परगना ) में रंगप्पाके खेत में पड़े हुए पायाणपर ] स्वस्ति श्रीमतु .." यणन्दि-भट्टारक-देवरु अर्हन्त-बोवि-सेट्टि श्री-मूलसंघसुर · गण मार-सेट्टिय मग बिट्टि-सेट्टि धर्मवं ... माडिसिद ... प्रजापति-संवत्सरद चैत्र-शुद्ध १० सोमवार श्रीमतु होय्सण-वीरबहानदेव पृथ्वी-राज्यं गेट्नुत्तिरलु कळु .." तिप्पयने ... ... २० कम्त्र केय्य ... 'पूर्वक माडि भूमि ...... . ... ... ... ... ... ... ... .... लाउछनम् । बीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ ( अन्तिम श्लोक) [कुछ सेट्टि लोगोंने ( जिनके नाम दिये हैं ), ( उक्त मितिको ),... यनन्दि-भट्टारक-देवको, जब कि होय्सण बीर-बल्लाल-देव दुनियापर शासन कर रहे ये, दान किया। जिन शासनकी प्रशंसा । हमेशाके अन्तिम श्लोक । ] [EC, VII, Shimoga tl., No103.] ४५९ बन्दति-संस्कृत तथा कार-भग्न । वर्ष भीमुख [ १२१३ ई. (लू• राइस)।] [बन्दवि में, शान्तीरवर बस्तिके उत्तरकी ओरके द्वितीय पाषाणपर ] श्री-मूलसंप-बलधौ समुदत्य नित्यम् काणगणोज्ज्वल-सुधाम्भसि लिन्मिणीक-। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जैन-शिलालेख-संग्रह गच्छाच्छके ललितकीर्तिमुनेविनेयः आशाम्बर-श्रियमभाच्छुमचन्द्रदेवः ।। वर्ष-श्रीमुख-मास-चैत्र-सित-पक्षाच्चैः-चतुर्यो-दिने वारे चान्द्र [...] महति नक्षत्रेऽश्विनी-संशिके। दैने ज्योतिषि कृत्तिका .." परि ... सौभाग्य-योगे वणिगनामाद्योत्करणे स्व " य शुभचन्द्राख्य-व्रती योगतः ॥ सन्यस्य सर्व-सङ्गानि पठन् पञ्च-पदानि च । समाहितो निववृते शुभचन्द्र-व्रतीश्वरः ॥ भरताधीश्वरनिन्दमन्द-शुभचन्द्राभिल्यनिन्देन्दु भा-। सुर-जैन-बतिनाथनप्प विदितानन्दाभिधाचार्य ...। ... ... शुभचन्द्र-देव-मुनियिन्द ... आदुदत्यूजितम् । सुर-राज्योर्जितवप्प ... ... ... बगत्पावनम् ।। बन्दणिके मठाधिपति-शान्ति-जिनावसथाग्रदो जगम् । ब ... ... मण्टपमनोप्पिरे मासिसि तन कीर्ति-या-1 नन्द ... नाडे भू-भुवन-मण्टपडोळ .. .. ...। सन्द समाधियन्द ... ... ना शुभचन्द्र-संयुतम् ॥ श्री [श्री-मूलसंघ, क्राणूर -गण तथा तिन्त्रिणीक गच्छके, ललितकीर्ति-मुनिके आशाकारी, शुभचन्द्र-देव थे। ( उक्त मितिको ) वह स्वर्ग गये। “सन्यसन' ( समाधि या सल्लेखना ) में सब कुछ गकर, पांच शब्दों ( परमेष्ठियोके वाचक ) को उच्चारण करते हुए, उनका मरण होगया। भरतेश्वरसे लेकर ... ... ... ... ... बन्दणिकेके मठाधिपतिके लिये ... ... ... शान्ति बसदिके सामने एक मण्डप खड़ा किया गया था। [ EC, VII, Shikarpur tl., No 226.] Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जैन-शिलालेख-संग्रह ४६८ दानसाले-संस्कृत तथा कसद-भग्न । १८०? -[.. ... =लगभग १२२०.] [दानसालेमें, उत्तरको ओर, बस्तिके पासके एक समाधि-पाषाणपर]. श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।। बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। नमो अरिहन्ताण ।। स्वस्ति श्रीमतु शक वर्ष ११४ .. नेय सावधारिसंवत्सरद काचिक-सुद्ध १० सोमवारदन्दु श्रीमन्महामण्डलेश्वरं कलिगणंकुस मण्डळ-महीपालन सर्वाधिकारि-पद्मप्रम-देवर गुड्ड वैजण-सेनबोवन पुत्र बह-सेनबोवन तम्मचळिग-सेनबोषनु निनायु...'' सानमनषिदु ।। पोरेदा ... ... ... अगे पर-मण्हळद महीपाळभिप्राय (२ पंक्तियां नष्ट हो गई है ) सुखदिं वैवण-सेनबोव ।। तनुजातं ... ... ... कादम्बलिग यिन्ती ... ... ... सहितं मन्त्रि ... ... .... दियकोगेद ... ... .. (बिन शासनकी प्रशंसा। स्वस्ति । ( उक्त मितिको ), चलिग-सेनबोव,-जो वैवण-सेनबोक्के पुत्र बरल-सेनबोक्का छोटा भाई और महामण्डलेश्वर मडल-महिपालका सर्वाधिकारी पद्मप्रभ-देवका गृहस्थ-शिष्य था,-अपना अन्त समीप बानकर, ... ...... ..."कादम्बलिगमें .......... स्वर्गको गया। [EC, VIII, Tithahalli tl., No. 191.] ४६९ पुरले,कार। -वर्ष विजय [१२१०ई० ? (ल. राइस)।] त्य, पब सेट्टिके सेतो स्तम्मपर] Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व- मुख पुरले के लेख व्यय-संवत्सर-पुष्यद । बहुळद बारसिय कुजन वारदोळ् सद्- | विनय-निधि बाळचन्द्र | सु-समाधियं मुडिपि नाकमेय्दिदनीगळ् ॥ अतिथिगम् ... | प्रतिभा प्रागल्भ्य मनु-मुनिग् I रुत-वाडिगळ दानम- । वतिशयमी - बाळचन्द्रनुळळन्नेवरं ॥ ळले बुध-समिति सिश्टर | बळगं मेल्मल्लने मरुगे दान - विनोदम् । प्रल - प्रक्षोभवोल । कळि श्री बालचन्द्रनभिनव - चन्द्रम् ॥ पश्चिम मुख मनमं निपमिसल रियर । त्तनुमं तो मुनि मुनिये | मनमं तनुव नियमिस । लनुदिनमी नेमि देवनोर्व्वने बल्लम् ॥ ... ३१६ [ ( उक्त मितिको ) विनयनिधि बालचन्द्रने समाधिमरण किया और स्वर्ग प्राप्त किया । ( उनकी प्रशंसा ) | मन और काय दोनोंके दैनिक नियमनमें, नेमि देव ही अकेले योग्य हैं। ] [ EC, VII, Shimoga tl., No. 66.] ४७० सौदचिकन | [ शक ११५१ = १२२६ ई० ] शिलालेखका परिचय यह शिलालेख कुन्तलदेशके अन्तर्गत कुण्डी जिलेके अधीश्वर राष्ट्रकूट वंश के लक्ष्मण या अक्ष्मीदेव प्रथम के प्राथमिक वर्णनके बाद लक्ष्मीदेव द्वितीयका वर्णन करता है। ल० द्वि. कार्त्तवीर्य अतुर्थ और मादेवीका पुत्र था । इस तरह यह लेख और शिला लेखों की अपेक्षा रट्टोंकी वंशावलीको एक कदम Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह और आगे बताता है। यह कार्तवीर्य चतुर्थकी द्वितीय पत्नी होनी चाहिये, क्योंकि शि० ले० नं० ४४६ में उसकी पत्नीका नाम एचलदेवी दिया है। तत्पश्चात् हम देखते हैं कि सुगन्धवर्ति बारह का शासन लक्ष्मादेव चदर्थकी अधीनता में रट्टोंके राजगुरू मुनिचन्द्रदेवके द्वारा होता था, आर मुनिचन्द्रके सहायको या परामर्शदाताओं में शान्तिनाथ, नाग और मल्लिकार्जन थे। मल्लिकार्जुनकी वंशावलीके देनेमें स्थानीय दो महत्वशाली वंशोका विशेष वर्णन है-१८ गाँवोंके वृत्त ( समूह ) के अधिपति ( इन गांवों में बनिहट्टि मुख्य था जो आजकल बामखण्डीके पासका एक छोटा शहर मालूम पड़ता है), और कोलार के अधिपति ( आजकलका कोर्ति-कोल्हार जो कलाद्रीसे नातिदूर कृष्णाके किनारे है)। कोलारके वंशमें पुरुष-उत्तराधिकारीके न होनेसे वहाँका अधिपतित्व विवाहके द्वारा बनहट्टिके अधिपतियोंके वंशमें चला गया। कोलारके अधिपतियोंका वंश गृहपति वशिष्टके वंशसे शुरू होता है, और उसमें निम्न नामोंका वर्णन आया है : मादिराज प्रथम । भूतनाथ बिजियन्वे मादिराब दि० . गौरी मादिराब द्वि० अपने छोटे भाइयोंके साथ-बिनके नाम नहीं दिये हैंयुद्ध में मारा गया था। उसकी मृत्युके बाद उसकी बहिन बिजियव्वेने शासन-सूत्र अपने हाथमें ले लिया और कुछ समय बाद इसे बनिहटिके मल्लिकार्जुनके साथ गौरीके विवाहमें दहेजके रूप में दे दिया । बनिहट्रिके शासकोंके वंशका नाम 'सामासिग-वंश' था और यह अत्रि ऋषिसे प्रारम्भ होनेवाले इन्दुवंशकी एक Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौंदन्तिके लेख १९१ शाखा थी । इस खानदानकी वंशावली, जिसमें ६३वीं के सिराज के पुत्र मादिराज का भी नाम आ जाता है, निम्नभति है : रुद्रभट्ट श्रीधर तृतीय महदेव तृतीय २१ कलिदेव 1 श्रीवर प्रथम | महदेव प्रथम I श्रीधर द्वितीय, या सिरिपति 1 महादेव द्वितीय, मायिदेव, या महदेवनायक मलिकार्जुन, मलिदेव, या माप, गौरी के साथ विवाह 1 के सिराज, या केशव राज माळलदेवी, माळले या मालियग्वे के साथ विबाहित 1 मादिसन चतुर्थ चन्द्र मादिराज तृतीय Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन-शिलालेख संग्रह जैसा कि अपर निर्दिष्ट है, यह खान्दान भट्टसे शुरू हुआ। इसके बाद लेखमें बताया है कि किस तरह केसिराज, श्री-शैलके मल्लिकार्जुन देवकी वेदीके 'लिग की तीन यात्रा और वहां कठिन व्रत धारण करनेके बाद, पवित्र पर्वतकी चट्टानसे बने हुए 'लिङ्ग को अपने साथ लाया और उसे सुगन्धिवर्ति नगरके बाहर नागरकेरें तालाबके पास अपने पिताके नामपर बनानेवाले मलिकार्जुन देव या मल्लिनाथ देवके मन्दिरमें स्थापित किया। बादमें इस मन्दिरके उच्च-पुरोहितका पद उसने लिङ्गय्य, लिंगशिव, या वामशक्तिके पुत्र देवशिव, उसके पुत्र वामशक्तिको दे दिया। इसके बाद लेखमें इस मन्दिरके लिये भूमि और उसके दशवे अशके कई दानोका उल्लेख आया है। ये दान सर्वधारो संवत्सर, शक वर्ष १९५१ में, राजगुरु मुनिचन्द्रकी आशासे किये गये थे। उस समय शासनकर्ता बेणुयाम राबधानीमें महासामन्त राजा लचमोदेव थे। अन्तमें इस लेखके लेखकका नाम मादिराव दिया है । यह केसीराबका पुत्र था। ___ समस्तुंग शिरश्चुम्बिचन्द्रचामरचारवे [1] त्रैलोक्य नगरारम्भमूलस्तम्भाय शंभवे ॥ ईगे निरन्तरं सुखमनाश्रितर्गी गिरिजाधिनाथनु/गगनेन्द्रिनानळमरुत्सलिलात्मवराष्टमूर्तियं रागदे लोक यात्रेमे निभोगिसि तन्न मनोनुरागदि भीगिरियोळ् विराषिप सदाशिवनी विभु मल्लिकार्जुन । वधिमृतावनिमध्यद कनकाद्रिय तेंकदेसेय भरतवनियोल बनपदमेसेपुदु कुन्तळवेनसु सोगयिसुवुनि कूण्डीदेशं [1] आ देशाधि ईश्वरं वक्ष्मणनृपनेसेदं तत्सुतं कार्तवीर्यगादळ महादेवि तां श्रोसतियवर्गे जगजात विद(ज)नकाहार्द ( पेळ्के ) ळ विद्विद् क्षितिपति निवहक्कुन्बेगं पुढे तद्रामादिक्षोणि ईश शौर्य सकळगुणयुतं पुट्टेदं लक्ष्मीदेवं [1] सुकुमाराकारने श्रीसतिगुदयिसिदं धारणोचक संरक्षकने श्रीकार्तवीर्यावनिपतिसुतने रट्टवंशो द्भवं राजकदाळ्सम्सेव्यने भाविसुवडे निदि लक्ष्मोदेवं प्रभावाधि(कने) तिमांशुवंश प्रकटित विमवं नोपंडो समीदेवं ॥ इदमोघं राष्ट्रकूटान्वयनतळबळं लक्ष्मीदेवं सुरूपन्वदोळ्ध (तेन्दोळ् शौर्य्यदो ) खिलबनानन्ददोळ् भायोळी. दायंदोळा कन्दर्पनं भानुवननिलबर्न रोहिणोनाथन पूर्वदिशाकान्तेशनं कणेननतिशयदि पोस्तु विख्यातिवेत्तं आ रट्टराज्यमं विस्तारिसि नलविन्दे रट्टराज्य स्थिर Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदत्तिके लेख ३२३ निस्तारक नेनिपं लक्ष्मीनारीथं रट्टराजगुरु मुनिचन्द्रं [11] कुमुदानन्दतेबिन्द बोन्दि मुनिचन्द्रं शत्रुभूभृन्मुखान्ममनिप्पोंडिप तेजदिदे मुनिचन्द्र बान्धियं क्रमदिं दिक्तटमं प ंचलेविनं पेच्चेप्प तन्नोन्दु विक्रमदिदं मुनिचन्द्रनिन्तु मुनिचन्द्रं चन्द्रनामान्वितं [I] गुरुवादं कार्त्तवीर्य्यक्षितिपतगेनसुं मन्त्रदिं ताने शिक्षा गुरुवाद शस्त्रशास्त्रस्थिरपरिणतेयोळ् लक्ष्मीदेवंगे दीक्षागुरुवादं प्राज्यराज्यापहरणदे परक्षोणिपाळर्मोनल्वे दुशब्दं वाय्चवाय्तलदे वरमुनिचन्द्रगिर्दे देसेगास्ते [] धरणीशाप्रणि कार्त्तवीर्य्य सुतनप्पी लक्ष्मीदेवंगे सुस्थिरवप्पंतिरे घात्रियं नयदिनेकायन्त्तमं माडिदं वरबाहाळदिं ( विरो ) घिनृपरं बैंकोण्डनी वाणसा भरणं श्रीमुनिचन्द्रदेवन सुहृन्मातंगकण्ठीरवं [I] आर्थ्य सचिवरोळतिचातुय्यै रहोब्बीप प्रतिष्ठाचार्य कार्यधुरन्धर तेयोळौदार्य्यंदोळारिंदवधिकनी मुनिचन्द्र [I] आ मुनिचन्द्र देवमल मात्यरिळास्तुतरिष्ट चिंतामणिकामराजतनयं करणार्याणि शान्तिनाथनुद्दामपराक्रमं नेगळ्द कूण्डिय नागानुदारचामलक्ष्मी महिमावळम्वन सुखानुभवं मले मल्लिकार्जुनं [II] एने नेगळ्द मल्लिकार्जुन ननुपम वंशावतार मेन्तेने चतुराननन सभेयलि पूज्यं मुनिसप्तकमदरोळत्रिमुनिवरनधिकं ॥ ( आ ) मुनि मुख्य कान्तेयनसूये पतिव्रते वोल्दु धर्ममं काममनर्थमं परमसंपदमं पुरुषंगे माडे तरका (मि) निगदरा हरिहरान्नभवसुतरत्रिनेत्रदिं सोमन जन्मवाय्नुद इन्तकुल किदुकुलं वरित्रियोळ् [11] घरेडुिवंशमेने विस्तरखं तळेदत्रिगोत्रदोळू वरविद्यापरिणतरिळामरपलेवरोगेदरवरोळतो रुद्रभट्टकवीन्द्रं [1] तन्नय वंशजक्कळ रुदिंगळोबुद्ध कवीशरप्प वाक्योन्नतियं सरस्वतियिनूपदिनेंटरो ं प्रभुत्वमं कन्नरनिंदवन्दु पडेढ़ दोरेमा कविताविळास दोन्दुनतियोळ् प्रभुत्वद नेगर्चेयोळा विभु रुद्रभट्टनोळ् [11] आ सुकवि रुद्रभट्टनिन सोमकुलाख्यनेनिसुब त्रिकुलं सामासिग कुलवेनिसिद्दन्ता सन्कुलदोळगे पुट्टितमतिचरित्रं || अदरोळ् निज रामाक्षरविदे सासिर पोंगे कोट्टदं बिडिय नितुदिनं पडेद रुद्रटनेम्बी पडेमातं रुद्रभट्टमुन्र्बी (वीं) बनदिं नुतसामासिग वंशदोळतुळबळ लवरादरवरोळ् भुवन स्तुतनेनिसि विभुतेवेत्तुं न्नतिवडेदं विमलकीर्तियं कलिदेवं ॥ तदपत्यं बनिहट्टिनामपुर मुख्याष्टादशक्कं प्रभुत्वदिना श्रीधरनोप्पुवं तनुजनातगादनुग्रन्तुखास्पदनप्पं महदेवनातन सुपुत्रं श्रोषरं विक्रमोन्मदनध्पं महदेवनेत्र सुतनागल् Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ जैन - शिलालेख - संग्रह लीलेवेतिप्पिनं ॥ गगनसरोबर पुरदवरिगमा सिरिपति गवागे वैरं होलवे रेगे सिरिपति तत्पुरवासिगळिं यमपुरमनेमिन्ट रणमुखदोळ || जनकं शत्रुशराळिगळगे गुरियागळ् तान केळदु भोंकने देशान्तरमेदुर्दु पोगि रविसंख्याब्द' बरं द्वीपदोळ् न सांदिसि तन्दु भूपतिगे कोट्टा शत्रुवं कोप दुनिदिं गन्धगजंगळिं तुळिदु कोन्द भांयिदेवोत्तमें || मुं जमदग्निरामन खिलक्षितिनाथर निप्पतोन्दुळ्सुमांचन गाळियन्ते तबे कोन्दुवोली महादेवनायकं कुंबरदिदे वैरिकुलमं तवे कोन्दु पितंगे माडिदं तां अवदानविक्रियेगळं बनिहट्टि समुद्भवेश्वरं || शरणागतरं रक्षिप विरुदं घरे पोगळे हगवदोळ् सीयल कळ्करेनिप मातंगरनन्दुरियोळ् तां पोक्कु कायिद ना महादेवं ॥ शरणागतरं रक्षिसि परबळमं गेय्दु मान्यरं मनिसि दिक्करि वेरवायतियं विस्तरंसिये महादेवनायकं घरेगेसेढं || एनिसि महदेवनायकन पुत्रर् श्रीधरं मल्लिकार्जुननुं चन्द्रनुमेम्ब मूवरोगेदर्त्तत्पुत्ररोळ वंशवर्धनमुं पुण्ययशोवर्धनमुमागळ् तन्नोळा मल्लिकार्जुन नात्मीय कुळान्वषण्डनमार्त्तण्डं करं रंचिपं ॥ गुणनळदिं तेनद बलुकणि बुध शिष्टेष्टजन मनोरथ चिंतामणि सामासिगवंशग्रणियेने विभु मल्लकार्जुनं रजिसु || एने पंपुक्ते मलिदेवन पुण्यांगने पितृ द्विनाभरसंपूजनरते पतिहिते गौरी वनिते तदंगनेय कुलमन भित्रणिसुवे ।। मुनिसप्तकदोळ् पेंपिगे नेलियिनिप्पं वशिष्ठमुनिमुख्यं तन्मुनिगोत्रदोदयिसि कोलारनगरविभु मादिराज पुण्यचरित्रदोळेने माळलदेवि भुवनवन्दितेयाद । पतिहितवप्प चारुचरितं पतिभक्तियोळौदिदा मनं पतियने बणिनोन्दु वचनं सति लक्षणविन्नु तन्नोळूजितवे ने फेसिजन मांगने माळलदेवि गोत्रसन्नुते वरपुत्रपौत्र बहुसंततिथिं घरेयोल चिराचिकुं ॥ मनेयोळगेनुळ्ळडविल्लनुतं स्वयमर्थभूरियागुत्तिर्पगनेयम्मळिलदेविय विनयाम्भोनिधिय गुणदोळेन्तेणेयप्नर् ॥ मनेयोळगुळ्ळुडं मडगे तत्पतिगं मनेभक्कलिंगवेळळनितुवनिकला इदे केलं कडे युं सुडेनल्के जीविपगेनेयरनॅ कुलांगने भरन्देनलक्कुमे केसिराजनंगने पतिभक्ते चारू गुणयुक्ते कुलंगने भूतळा प्रदोळ् ।। मनेगी बन्दरे बिटुमरेनलोथिंगोडि होगियडगुव समुखं तनगादडे नीवारेम्ब नलेयरि मांळियव्वेगेन्तेणेयप्यर् ॥ कुटिळे कुमामों कुत्सिते कुरूपि कुभाग्ये, कुशीले, जि लंपटे, शठे धूर्ते दुग्गुणि दुरन्विते दुर्जने दुष्टे कण्टेयेम्ब टमटकार्त्तितियरे Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदन्ति के लेख ३२५ -गुणदोळ् सले माळियव्वेयंगुटके णेयाग रेन्दो डितरांगनेयर्भुवनांतराळ्दोळ् ।। पुरुषरमेळिदवं माळ्वरिदु हिरिदागे बगेव पररं मायावरणटोळेसगुन सतियद्दौरेये हेल् - माळियबेयो कुत्सितेयर असवने गंगलक्के तलेमागिलेगच्चने नोडली इलिंगोसगेगे नोपिंगंगडिगे वाडिन सन्तेगे बायिनक्के पोपेसकदे पाम्बगेळ् नेरेवरं कुलनारियरेम्बुदे विचारिसे पतिभक्तिवेत्तेसेव माळलदेवियनल्लदन्यरं । गाळुतन दिदे पुरुषरने बिदवं माळूपं दुच्चरित्रेयरं वाचाळेयरं कण्डघर्ताति माळलदेखिय गुणानु कथन दे डुगुं || पति बसदक्कुमिन्नुतमगेन्दु दुरौषधमं प्रयोगिप क्रितकेयरन्तयिन्दे परुषर्क्षय कामळे पाण्डु गुल्मदिंद तिकृषरागे विच्चळिसुतिप्पवरेन्त् कुलांगजनं पतिहिते माळियव्वेये कुलांगने वार्षिपरीत धात्रियोळ कृतयुगचरितद् सतिगुणवतिशयदिं तन्नोळिकुवेने नेगळ्द महासति माळलदेखि पतिवृते मलिदेवत सुनननि रचिसुति ॥ जननुते माळलदेवियननुपम गुणवतियनी महासतियं कण्डनितरोळमरकदीसेवनेय फसप्राप्तियेन्दडे वण्णित्रुदो । अत्रिमुनिन्द्रपत्नियनसूये पतिवृतवृत्तियिंदे लोकत्रयवेद्दे वाणिसे विरिंचेयनच्युतनं त्रिनेत्रनं पुत्ररेनळ्के पेत्तळेसवीयुगदोळ् पतिभक्ति तन्न चारित्र दिनत्रिगोत्रदोळगुण्डेने माळशदेवी रेपि ॥ कुलवधुविन नडवळियोळ् कुळमुं पतिव्रतागुणदिदं नेलसिक्कुमेम्बुदिदु माळलदेविय चरितदिंदे धरेगतिविदितं । जननि महापतिवृत्ते वशिष्ठकुलो द्भवे गौरि मल्लिकार्जुन नभवान्श्रीपंकरुहषट्चरणं पितन प्रतानुजर्बनधिगभीरनप्प महदेवमा विभु मादिराजनुं वनिते विनूते माळलेयेन विभु केशवराजनोपुवं ॥ वचन || आपुण्यांगनेयर शिष्टकाम भोगंगळननुभविसुतं मल्लिकार्जुनंनु मादिराननुमेम्बीपुत्ररं पडेयलवरीरुं श्रीरट्ट राज्यप्रतिष्ठाचार्यनुं अरिविरुदमण्डलिकनवराजनुमप्प श्रीमद्राजगुरुगळ् मुनिचन्द्र देवरनोलगिसि कूण्डि मूरु सुसाखिरद बळिय बाडं श्रीमद्राजगुरुगळ् मुनिचन्द्र देवराळ् के वार्ड सुगन्धवर्चि हन्नेग्डुमं - तदाज्ञेथिं प्रतिपालिसुर्त्तामरसा कंपणद मोदसु बारं पट्टणं सुगन्धवर्त्तिय विद्वासमेन्तेन्दढे || होइवोळलो विरानिसुव चूतवनं गिरसंकुलं फलं दुसुगिदनारि केरवनवोप्पुवशोकवनं शिवालयं मिसुप चिनेन्द्र गेहमेत्रिवितिवलन्दव शेषसौख्यदोन्नेसे दु सुगन्धवत्ति सले कृपिड महीतळदोळ बिरामिकुं । पन्नीमाऊण्डुगन्तत सत्वप्रता Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ जैन-थिलालेख-संग्रह पगुणगण निळयर्सनुत चरित कीर्ति महोम्नतरप्रतिमरा स्थळकषिपतिगळ् आ स्थल दोळ् ॥ आराधिपनभवनन सुरोरबखचरामरेन्द्रवन्दितपदपंकेरुहननर्थियिं कोलारद विभु केसिराजनमळचरितं । विदितं भीपर्वताधीश्वरन चरणम काणली केसिराज मुददि नेसेदं घरेयोळ् ॥ सुतनादं मादिराचं गमळ चरितन्त भूतनाथं यथोरंजित रप्पय्वस्तुततप्रभु गोगे दरिळास्तुत्यरन्तय्वरोळ् सन्नुतनादं मादिराजं सेणसुवबर गंडळगे गाळं प्रतापोनंतनेन्दुर्वी अनं वर्णणेसि पेसेवडेदं तेबदोंदेळ्गेयिंदं । शरणागतवनमं नित्तरिपेडेयोळ् वज्रपंजरं तानेने डोंकरमादिराज विभु तोडर्दर् डोंकेनिप्प बिरुदनिरदेत्तिसिदं ॥ इरे कोलारदोळा समानविभुपुगर्वत्तिलोपार्तता तुरचेतर्मरेवोक्कडन्तवरनाद कादु तानुग्रसंगरदोळ् सानुजनेयिद् वीरसिरियं पंचत्वमं पोईि विस्तर देवानकऊण्मे दिव्यगतिवेत्तं धात्रि बाप्पेम्बिनं । आ मादिराबनग्रजे भूमिस्तुते बिज्जियन्वेयनुजर महिभोदामभुमनन्प्रतेयन्त माळ्केयिनधिकबागे नडे. यिमुतिई ।। सले कोलारदोळ प्रभुत्ववेसे गुं तेनामदोळ मादिराबळ सत्पुत्रियन्त प्रभुत्वसहितं श्रीगौरियं पोष्मे मंगळतूर्य्य विभु मलिकार्जुन नोवेळिप बिजियन्वे प्रभुत्वलताविस्तरयागे तां नेरपि चिन्तोत्साहम ताळिददळ || इन्तप्प विभवदि पैपं तळेद महाप्रसिद्धवंशजे गौरीकान्ते निब कान्तेयेने चैरन्तनरोळ् मल्लिकार्जुन समविभवं ।। आ दंपतिगढ़ मुखदिनिरे ॥ पिन्त्येपात्तं तदीयप्रभु तेयेनिसुवष्टादशग्राममुं दौहित्रं तां मादिराजंगद इनमरे कोळारदोन्दु प्रभुत्वं पुत्र श्रीगौरिगं मल्लपविभुगोगेदं केसिराजं लसच्चारित्रं श्रीशैलकन्या पति पदनखचन्द्रांशुचंचकोरं ।। सात्विकदादिनन्दे परमेश्वरनी गिरिजेशनेम्बुब तत्वविचारादेदे इदु नम्बिद निश्चळमत्तियिन्दे शान्तत्वमे रूपगोण्डु मुदमानविषाददोळेंददिर्प शूरन्वदोळी घरावळयदोळ् विभुकेशवराजनोप्पुर्व ॥ परक्तिकळिपदेयं परवधुविंगेनवेइकम माडदेयं हरचरणपरिणतान्तःकरणतेथि केसिराबने कृतकृत ॥ एने नेगळ्द केसीराजन वनिते नुतागस्त्यगोत्रसंभवे पुरुषंगनुवशपोपनि ता रक्षिसुवनिबरोळं. पिन्ते रोगादिगळ तोसिडोद भक्ति वारे दिडवेनलम कूत्त तत्पुत्र वर्मा पदुळं निश्चित विष्वनिरिसिदनधिकं धात्रिगाश्चर्यमागळ ॥ मतमा तीर्थयात्रेयोळ् । तनु गाई परिचर्यम मुददे माडम्बाब्दब्दोगे तबनेर बादोंड गुडि बप्पवर्ग काक Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोदत्तिके लेख ३२७ प्राप्तिपन्दादो डोरकमे सावन्तवांगळागदेनिपी वीरवृतं मालिकार्जुगदेवं दयेगेय्यली प्रभुगे सडं केशवंगुनीयोळ्॥ इन्तिवादियागिरनन्तवीरवृतंगलिं श्रीशैळद मल्लिकार्जुन देवर मूरुसूळ दर्शनं माडि तस्पीतियिं पर्चतलिंगमं तन्दु कुण्डि मूलुसासिरद बलिय कपणं सुगन्धपत्तिं हन्नेरदर मोदळ बार्ड श्रीमद्रावगुरुगळ मुनिश्चन्द्र देवराल केवाडं पट्टणं सुगन्धवर्षिय होळकोळम मागरकेरेयसि तन तन्दे मल्लिकार्जुन पेसरोळ् श्रीमल्लिनाथदेवर प्रतिष्ठेयं माडि॥ स्वस्ति समधिगत पंचमहाशब्द महामण्डलेश्वरं सचनप्परवराधीश्वरं गोवळीतूर्यनिग्घोषणं कुल भूषणं सिंधूरलाञ्छनं शशिविशदयशोलाञ्छनं सुव्वर्ण गुरुडध्वज विदग्धमुग्धांगनामकरध्वनं वैरिवळवीरवृकोदरं परनारिसहोदरं मण्डलिकगण्डतळप्रहारि उद्दण्डरिपुमदनिवारि साहसोत्तुगं बोप्पनसिंग नामादि समस्तप्रशस्तिसहितं श्रीमन्महामण्डलेश्वरं लमोदेवरसर् वेणुप्रामेय नेले वीडिनळ सुखसंकथाविनोददिंदनवरत राज्यं गेग्युल्तमिरे शकवर्ष १९५१ नेय सर्वधारि संवत्सरद आषाढदमवासे सोमवारदन्दिन सर्वग्रासिसूर्य ग्रहण दुत्तमतिथियोळा मल्लिनाथ देवर अङ्गमोगरंगभोगक्कं खण्डस्फटितजार्णोद्धारकं श्रीमदाजगुरुगळ मनिचन्द्र देवर कोहकेय्यन वर नियामदिंदा सुगन्धवर्सिय हेनीवर गाऊण्डगळ वर्प पडुवणं होळनोळ् मुलुगुन्दवळ्ळिय होळवेरेय हनिमत्तर मान्यद होलवेरेयिं तेकळ हमुडिय दारियि बडगळ् कडिमण्ण कोळिनलळेन्दु सर्वसमस्यमागि कोट केयि कंबवरुनूरु ६०० सिरिवगिळि पडुवळ राबबीदियिं पडुवण केरियोळ् राबहस्तद सेक्कय्यगळ इप्पत्तोन्दु कैनीळद मनेय कोटर ।। मत्तमा हीनीवर गावुण्डगळ् मुख्य समस्तप्रजेगळे देवर नित्योपहारकेन्दु चन्द्रार्कस्थायियागि मेटेगोळगव कोटर्॥ मत्तमाहन्नीवर गाऊण्डगळ् कौदिय मादिगाऊण्डर्नु पंचमठतपोद्यनस एण्डहिटु सहित बिई सभेय समक्षदलि कडसेय नागगाऊण्डनु मोदलूर गौडुवान्यदोळगे तन गौडुमान्यं काळेयवळनहरळहसुगेयजिमा गौडमान्यद कोलिनलळेदु सन्चसमस्यमागि कोटकेयि कम्बविन्नूरु २००, [1] मत्तं ।। स्वस्ति समस्त भुवनविख्यात पंचशतवीरशासनलब्धानेकगुणगणाळंकृतसत्यशौचाचारचारचारित्रनयविनयविज्ञानवीरावतारवीरवणम्बुसभयधर्मप्रतिपाळकरप्प सुगन्धवर्तिय हबीऊम्दुगळ मुख्य Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह स्थाठसमस्त नरवर मुम्मुरिदडंग सन्तेय देवस महासभेयागिर्दु तम्मोलेक्यमतवागि आं मलिनाथदेवरिंगे बिट्ट आयवेन्तेन्दडे [1] एळेस हेलिंगेनूरेळेय कोट्टर् होत्तलिंग ऐश्वत्तेलेय कोट्टर् [1] अरोळगेयुं सतेयोळगेयुं माळव. धान्यवर्गदलुं भत्तवसरदलं सट्टगवत्तवकोट्टर |] पसारकरडडकेय कोट्टर [1] अल्ल ब्बेल्ल अरिसिन मोदलागि किरिकुळवेल्लवं पसारकोन्दोन्दु कोट्टर् [1] हत्तिय पसारके हिडिवत्तिय कोट्टर [ 1 ] मतमा देवर नन्दादीविगेगेय्वत्तोकळ् गाणक्के सोहिगण्णेय कोट्टर् [1] बेऊरिन्द बन्ध मा व एण्णेय हाडकेयद्देष्णेय कोटर आस्थळद अय्सावन्तर् । देवरग्पणिय बिन्दिगेगे आवलेगळन कोट्टर। मत्तवन्यूवर बाडुकाय माबुव बल्लगेरडु सूड हेचिंगे नालक काय कोटर [ 1 ] बोव क्कट तन्दु मारुव बाडुकायिगे तिचे सुंकव कोटर ॥ मत्तमा देवगर्गे एळरावेव हनीवर गावुण्डगळ् तम्मूर तेकष्ण होलनोळ् सवत्तिय तम्म होलन सीमेयोळ् सिरिवारेमे होद हेब्बेटेयिं मूडळ कद्धिगुरुहल्लारं बडगळ नविलगुन्द गोलिनलळेदु सर्व समस्यवागि कोट्ट केयि मत्तनाल्कु ४ अयुग्यगल हनिकैनीळद मनेय कोटर । मत्तं बेट्टसुरद मेनेय सिंदर भैलेय नायकर्नु अ स्थलदलुवाऊण्डु गळं तम्मूरि तेकण होळनोळ कदिगुरुहमळदिं तेकल नविलुण्द गोलिनलळेदु सर्वमसमस्यमागि कोह केयि मत्तनाल्कु ४ अयिगय्यगळ हनिकैनीळद मनेय कोट्टर ।। मत्तमा देव; हूलिय माणिक्य तीर्थद बसदियाचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तिदेवर महधमिंगळाप शुभचन्द्रसिद्धान्तिदेवरं या प्रभावन्द्र सिद्धान्तिदेवर शिष्यरप्प इन्द्रकीर्तिदेवर श्रीधरदेवर मुख्यवा संघसमुदायंगळं आ माणिक्य तीर्थद बसदिय स्थलं हिरिय कूवियल आलियकवावुण्डगळ् सहितबिटुं आ ऊरि तेकददेसेयल नजियचट्ट गौडन बळबोळगे नेमणन केयिं तेकल उरुगोळनहोल सीमेयं मूडल नविल्गुन्द गोलिनलळेदु. सर्वसमस्यमागि कोट केयि मत्तनाल्कु ४ अमिगग्यगळ हनिकैनीळद मनेय कोटर । मत्तमा देवणे श्रीमदनादिय पिरियग्रहारं हसुर्बियंन्नूमहाजनंगळु हनीवावुण्डुगळं तम्मूर तेकण घेस्सगेरियिं तेकल समन्धवतिय सवणुबेलद होलवेरेयिं पडवल तम्म बासिगवाडद पडुवण हेम्जसुगेय स्थळदोळगे सोगळद दिगीश्वरदेवर फोललळे सर्वसमस्यमागि कोट केयि क मून्नूरु ३०० [३] Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदतिके लेख .. मत्तं श्रीमुनोन्द्रदेवर आयद चटिभरगर बिनपदिं गाणायदायकारदल्लि सोमवार प्रति वोन्दु मेल्लगे एण्णेयं कोट्टर। इन्तिनितुमना कोलारद केसिराज मुगन्धवर्षिय नागरकेरेय श्रीमति नाथदेवरिगे बृत्तियं पडेदु आकेरेय कट्टिसि-सुत्तलु मारवेयनिटु तमाराधिसुव मालेय शुद्ध शैवमामिगळप्प तन्न गुरु भागिगळ शिष्यर वामशक्तिनामाभिधेयरप्प बल्लिटगेय श्रीमूळस्थानदाचार्यलिंगय्यंगळिगी स्थानमं धारापूर्वक कोटनवर वंशानुकथनमेन्तेने ॥ आ मुनि दुर्वासान्वयनेभातनुपहतनेन्दु दिव्यम्बिडिदा वामशक्तिवृतीशं भूमिस्तुतनेनिसि जयसि पेसवंसेदेसेदं तत्तनयAवशिवरुदात्तयशसंकलशास्त्र संपन्नसद्वत्तस्त्रभुबोपार्जितवृत्ति समाज व्वीराजिसिदरुचरेयोळ् तदपत्यलिंग शिवविदितशिवा गमररतर्य गुणगणनिलयर्सदमळ चरित श्रीशैळदभवनं भक्तियुक्तवादाघिसुवर ।। सिंगननाराधिपर्ड श्रीमल्लिनाथपदसरसिजदोळ भृगनवोलेसेवनेन्दु मनंगोण्डा केसीराबन वर्गिदनित्तं । ततशासनार्थवप्पी क्षितियं विभवोनंति संततवोदितोदित वक्कुं प्रतिपाळिसलोल्लदन्दिनसुगतिगिळिगुंगये वारणासि कुरुभमि येनिप तीर्थगगळल्लि गोकुलयं तन्नय कुलमं ब्रह्मणरं दयेगिडे कोन्दनितु पापमिदनळियलोडं ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां । षीष्ठवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ तंनित्तुद मेणन्यकुलोन्नत रित्तुदुमनवनियं धर्मात्मळं मन्निसदळिदा मनुज मुन्नं क्रिमियागि बळिके नरककिळिगं ॥ मद्वंशना परमहीपतिवंशजा वा पापादपेतमनसा भुवि भावि भूपाः। ये पालयंति मम धर्ममिदं समनं तेषां मया विरचितांजलिरेष मूनि ॥ तानोसगिसिद नृपकुलटा नृपरकम्य भपरक्की बर्मक्के नुमनळिवं तारदडा नृपरिगविन्दे सुगिन्द क-न्दिप्पे इदा केसिराजन वचन ॥ एसेवी शासनम विरसि बरेदं पूर्व जन्मदोल सुकृतमनर्जिसि केसिराजविभुविन सिसुवेनिसिद मादिराजनाविभुमतदिं ॥ ई धर्ममं सुगंधवतिय हेनीवर्गाऊण्डुगर्छ प्रतिपाळिसुवर् ।।] [JB, X, p. 176-179, 2, p. 280-272, tip. 273 286, tr.( Ins. No 7.).] Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह पर्वत आबू-संस्कृत [सं० १२८७=१२३० ई.] श्वेताम्बर सम्प्रदायके लेख [EI,VIII, No 21, No 1. f.-P., t. aud tr. ] ४७३-४७४ पर्वत आबू-संस्कृत [सं० १२८८=१२३. ई.] श्वेताम्बर लेख। [ EI, VIII, No 21, No 12, t. and [ EI, VIII, No 21, No 40-11 and 13-18, t.] ४७५ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कार। [वर्ष सर, शक १११३ - १२० ई. (कीच्हौने)] [ जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग) ४७६ गिरनार, संस्कृत। [सं० १२८८-२९ ई.] श्वेताम्बर सम्प्रदायका लेख। [ Revised Lists ant. rem. Bombay (ASI, XIV), p. 328-331, No. 1, t, and tr.] Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्टनिडुगल्लुके लेख १३२ १ गिरनार:-संस्कृत । [विना काल निर्देशका] श्वेताम्बर सम्प्रदायका लेख । [Revised Lists., p. 357-358, No. 21 & 22, t. and tr.) ४७८ माण्टनिडुगनुः-संस्कृत + काद [शक ११५ = १२३२ ई.] [निडुगलु-बेष्ट ( निहुगल्लु परगना ) में, जैन बस्तिमें एक पाषाण पर ] स्वस्ति श्री जयाम्पुदय.." न शक-वर्ष १९५४ नेय नन्दन-संवत्सरद भाषाद-शुद्धाष्टमी-आदिवारदन्दु नेमि-पण्डितर मकळीबसदिय वृत्तियं धारापूर्वकं पडेदरु मङ्गळ महा श्री (५२) उसी पाषाण पर श्रीमत्परमगम्भीररस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ स्वस्ति समस्त-वसुमती-मारधौरेय-दोईण्डरुमधःकृतोद्दण्डरुं मार्तण्ड-कुळ-भूषणरुममभिसम्पात-भीषणरुमोरेयूर-प्पुरवराधीशरुमेनिप्प चोळावनीशरोळ् ।। मङ्गि-नुप-स्नु बम्बि-न। पं गोविन्दरननवनिमोळनना-1 तजुद्रविसिद मोग न। पं गौरव मेरु वर्म-नृपनं पडेदम् ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैन - शिलालेख संग्रह कलि-बमं नृपतिगं बा - देवि गवुदित-भद्र-लक्षण-वक्षस् । -स्थळक निरुळ धारा 1. तिळके नळ - नहुष- भरत चरितं नेगळ्दम् ॥ हरि गोवर्द्धन गोत्रमं दशमुखं रुद्राद्वियं राम किं 1 कररुमाचळ - कोटियं रविसुतं तेर्-गालियं पूण्डु दु - र्द्धर-संरम्भदिनन्दु मेट्टि किळे नोन्दायासविन्दारितु - वर्धरेगी-दक्षिण बाहु-सङ्गदिनिरुङ्गोळ- क्षमापाळन || कुळिकन लवलविके लया -1 नळनुरुवणि सिडिल सडगर मिल्तुविन | भगळिके जवनुज्जगं माप 1 ओळेवुदिरुङ्गोलनानिगेत्तिद बाळोळ् ॥ अन्तु नेगळ्द निगलंक -मां परनारी- सहोदरन स्वत्तनावर मण्डळिकर तलेगोण्ड मण्डद्दण्ड मण्डळिक दानव-सुरान्तकं रोद्दद गोवं बाण्डर बावं खड्ग-सहदेब देव-देव-सदाशिवपादाब्ज-सेवा-समुन्मिषत् प्रभाव निरुङ्गोळ-देवं राज्यं गेय्युतमिरे तत्पाद - पद्मोपनीवियप्प गङ्गय नायक चामाङ्ग नेगबुद्भविसि गयन मारेयं श्री-मूल- संघद देशिय गणद कोण्डकुन्दान्वदय पुस्तक- गच्छद वाद-वळिय श्री - वीरनन्दि - सिद्धान्त चक्रवर्त्तिगळ शिष्यराद मेदिनीसिद्धर पद्मप्रभ-मलधारि देवर चरण - परिचर्येयिं पर्याप्त कामितराद नेमि पण्डितरिनङ्गीकृत-बखनादम् | आगि || I काळाजन वेम्बुदिरु - गन गिरिदुर्गावन्तदभ्रङ्क - भीळतर- चूळवदरुत् । ताळतेयने नोडि धात्रि निडुगलेन्दुम् ॥ भा-कुकी ळद बदर-त । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्टनीडु गल्नुके लेख टाकट दक्षिण-शिलाग्रदोळ् पाश्र्व-जिन ।। न्याकोसि-बसतियं प्रिय -1 लोक गङ्गेयन मारनिदनेत्तिसिदम् ।। इदु जोगवट्टिगेय बस। दि दला-चन्द्राकविं सनातमविं सल -1 वुदु पञ्च-महा-शब्दवद् । इदकें पालिसुवरिनसङ्ख्यातळ् ॥ स्वस्ति निरस्ततम-कमठानेक-वैकुणिनप्प पार्श्व-जिनेश्वरन दैनन्दिन-सपाकार्यकं महाभिषेककं चातुर्वर्ण-दानक्कं गङ्गायन मारेयर्नु नारि वाचलेयुवाचन्द्र-तारमिनित्तने सलुपुदेन्दो डिरहोळ-देवं धारा-पूर्वकवित्त दत्ति ( दानको विगत तथा वे ही अन्तिम वाक्य और श्लोक )। (प्रथम लेख) [स्वस्ति । ( उक्त मिति को ), नेमि-पण्डितके पुत्रने इस क्सदि की भूमि प्राप्त की। (द्वितीय लेख) जिन शासनकी प्रशंसा। स्वस्ति । चोळ राजाओंमें, मङ्गि-नृपका पुत्र बप्पि-नृप, (और ) गोविन्दरका पुत्र इरुङ्गोळ हुआ, जिसके भोग-नृपका जन्म हुआ था, जिसके बम्म-नृप हुआ। जिससे और बाचल-देवीसे इरुगोळ (प्रशंसा सहित ) उत्पन हुआ था। बब (अपने पदों सहित ), इरुङ्गोळ-देव राज्य कर रहा था. तत्पादपमोपजीवी गड्यन-भारेय गङ्गेय-नायक और चामासे उत्पन्न हुआ था। इसने नेमि-पण्डितसे व्रत लिये थे। ने. प. को पद्मप्रभ-मलपारि-देवसे मनोभिलषित अर्थकी प्राप्ति हुई थी। प० म० देव श्रीमूलसंघ, देशिप-गण, कोण्डकुन्दान्वय, पुस्तक-गच्छ तथा वाणद-बलियके बीरनन्दि-सिद्धान्त-चक्रवर्तीके शिष्य थे। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह काळाखन हरुकोळके पहाड़ी किलेका नाम था। यह देखकर कि इसकी चोटियां बहुत ऊँची है, लोगोंने इसका नाम निडुगळ रख दिया। उस पर्वतके बदर तालाबके दक्षिणकी तरफ एक चट्टानके सिरेपर गङ्गेयन मारने पार्श्व-चिन बसति खड़ी की थी। इसीको 'बोगटिगे बसदि' भी कहते थे। पार्श्वनाथ-बिनेशकी दैनिक पूजा, महाभिषेक करनेके लिये, तथा चतुवर्णको आहार दान देनेके लिये गङ्गेयन मारेय तथा उसकी स्त्री बाचलेने इरुङ्गल-देवसे आ-चन्द्र-सूर्य-स्थायी दान करनेके लिये प्रार्थना की और उसने तब यह (उक्त) भूमियोंका दान किया; तथा गङ्गेयनमारेयनहल्लिके कुछ किसानोने मिलकर बहुतसे (उक्त) अखरोट और पान प्रति बोझपर दिये: पैलिके किसानोंने भी कोल्हुओंसे तेल दिया । वे ही अन्तिम श्लोक । ] [ EC, XII, Pavagada tl., No. 51 and 52 ] ४७९ गिरनार;-संस्कृत। [सं० १२८८-१२८१ = १३.] श्वेताम्बर सम्प्रदायका लेख । [ Revised List ant. rem. Bombay ( ASI, XV1), p. 361, No. 3A, t. and tr.] ४८० पर्वत आबू:-संस्कृत। [सं० १२६० - ११३३१०] श्वेताम्बर लेख। TEL, VIII, No. 21, No. 19-23, t.] Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलूराके लेख የቅ ४८१ परा, संस्कृत । [शक ५६ % १३५ ई.] [फाल्गुण सुध नीतिमा' बुधे] [१] स्वस्तिश्री शाके ११५६ बयसवदरे ( संवत्सरे) श्रीर्द्धना ( श्रीयर्द्धना) पुर। जभा - बनि राणगिः। तत्पुत्रो म्हानुगिः स्वणा वल्लभो बगतोप्यभूत् ॥१॥ ताम्यं (भ्यां) बभूवुश्चत्व (त्वा) ः पुत्राश्चश्वरादयः। मुख्यश्चक्र श्वरस्तेषु दा[न]धर्मगुणोत्तरः ॥२॥ [२] चैत्यं श्रोपावनायस्य गिरौ वा (चा) रणसेविते । चक्र श्वरोसजद्दानाद्धृ ( ना ?) ताहुती च कर्मणां ।।३।। बहूनि बिबानि जिनेश्वराणं (णां) महाति (हान्ति) तेनैव विरच्य सर्वतः। ओचारणाद्विर्गमितः सुतीर्थतां कैलासभूभृद्भरतेन यदत् ।।४॥ [३] घम्मैकमूर्तिः स्थिरशुद्धदृष्टि हृद्योसतो (१) वल्लभकल्पवृक्षः। उत्पद्यते निर्मलधर्मपालश्चक्रेश्वर पञ्चमचक्रपाणिः ॥५॥ शुभं भवतु ॥ फाल्गुण त्रितीयां बुधे अनुवादः स्वस्ति भो ? शक सं० ११५६, बयसंवत्सरमें। श्री (व) र्द्धनापुरमें राणुगिने बन्म लिया था, उसका पुत्र म्हा (गा) लुगि था जिसकी पत्नी स्वर्णा थी और जो जगत्को भी प्यारा था। २. उनके चश्वरादिक चार पुत्र हुए। इनमें चक्र श्वर मुख्य था, वह दानधर्म गुणमें सबसे आगे था। . १. तृतीया । २. भगवानला इसको • छात्रीझता हंत्रवि. पढ़ते हैं। ३. भगवानलाल इन्द्रजी इसे 'दोनो सतो' पढ़ते हैं। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जैन-शिलालेख-संग्रह ३. चारणोंसे सेवित इस पर्वतपर उसने श्री पार्श्वनाथका विम्ब बनवाया, (प्रतिष्ठित किया ) और इस कृत्यसे उसके कर्मोंकी निर्जरा हुई। ४. जिस तरह भरतने कैलास पर्वतको पवित्र तीर्थ बना दिया था, उसी तरह उसने इस पर्वतपर चिनेरवरों के विशाल-विशाल बिम्बोंको बनवाकर इसे एक सुतीर्थक रूपमें परिवर्तित कर दिया था। ५. धम्मैकमूर्ति, स्थिरशुद्धदृष्टि, दयावान, सतीवल्लभ ( अपनी पत्नीके प्रति एकनिष्ठ), दानादि गुणोंसे कल्पवृक्षके समान चक्रेश्वर निर्मलधर्मका रक्षक बन बाता है, पांचवां वासुदेव । शुम हो । फाल्गुन ३, बुधवार । [ Ing. Cave-tamples of western India, p. 99-100, t. and tr.] पर्वत बाबू;-संस्कृत। [सं० १२५- १२३६ ई.] श्वेताम्बर लेख। [RI, VIII, No. 21, Nos 24-31, t.] ४८३ दिनमाल ( Dilmal ); संस्कृत वा गुजराती। [सं० [२]१५ (१) = १२१८.] श्वेताम्बर लेख। [EI, II, No. b, No. 4, (p. 26), t. and tr.} Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेरेरो-हवा तमान। [शक २६.] [उसी बस्तिके दक्षिणके समाधि-पापाणपर] श्रीमत्-परमगंभीरस्यावादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ।। स्वस्ति श्रीमतु कुमार पण्डितर गुड्डि पेक्कम-सेट्टिय हेण्डति गुण-गण सम्पन्ने शीलवतियप्प मजम्वे शक-यर्ष ११६१ नेय विकारि-संवत्सरद मार्गशिर-मास बहु-पक्षद प्रयोदशि वृहस्पतिवारवन्दु दान-धर्म-परोपकारनिरतेयागि समाधि-विधियिं सुर-लोक-माप्तेयादळु केलासे सोवोजन माब्दि । [कुमार-पण्डितकी गृहस्थ शिष्या, पेकन-सेट्रिकी पत्नी, मलवेके जैन-विकिपूर्वक किये गये समाधिमरणका स्मारक । केलसे सामोबने इसको बनवाया। [ EC, VIII, Sagar, tl., No. 181.] कोरप्राम-संकृत। [सं० १२१५२ ..] श्वेताम्बर लेख। [ EI, I, No. XVII (L. 118-110), t.and tr.] पर्वत मार-संमत। [सं० Ram श्वेताम्बर लेख। [EI, VIII, No. 21, No. 38, t.] २२ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह रोहो-संस्कृत तथा गुजराती । [सं० १२१६ - १२१२ ई.] श्वेताम्बर लेख । [ EI, II, No. V, No. 14 (p. 9), t. and tr. ] ४८८ लियालमेटा-संस्कृत। [सं० १३०० = १२४३ ई.] श्वेताम्बर लेख। [ ASI, XVI, P. 253-254, t. ] ४८९ हेरेफेरी संस्कृत तथा काद। [सक ११-१२१३ई.] [इसी बस्ति तस्की मोरके समाधि-पावायपर ] श्रीमत्पवित्रमकलङ्कमनन्तकल्पम् स्वायम्भुवं सकल-मङ्गळ-वस्तु-मुख्यम् । नित्योत्सवं मणिमयं निलय बिनानाम् त्रैलोक्यभूषणमहं शरणं प्रपद्ये ॥ . . स्वस्ति श्रीमतु शुभकीर्ति-पण्डित-देवर गुद्धि पेकम-सेट्टिय मगळु कामव्वे सकळ-गुण-गण-सम्पन्ने चालवति शह वर्ष ११६४ नेय शुभकतु संवत्सरद Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फडकोलके लेख श वैशाख-मास-शत-पक्ष-बिदिगे-बृहस्पतिवारदन्दु आहाराभय-भैषज्य-शास्त्र-दाननिरतेयागि सन्यसन-समाधि-विधियिं सुरलोक-माप्तेयादळु ॥ सोयोजन बेस [शुभकीर्ति-पण्डित-देवकी शिष्या, पेकम-सेट्टिको पुत्री, काम वेका भी वैसा ही स्मारक । सोवोजका कार्य । ] [EC, VIII, Sagar tl., No. 162. ] ४९० कडकोता-काद। [शक १८= १२३६ ई.] 1 १ ] स्वस्ति श्रीमत्-यादव-रायनारायण बु (भु)जबल-प्र[२] ताप-चक्रवत्ति सिंहणदेव र] वर्ष ३७ परा[३] भव-संवत्सरद मार्गशिर सु (शु)ध(द) पंचमी त्रि(ब)ह[४] स्पति कारदलु सूरस्थगणद मूलसंघद यो नन्दि[५] भट्टारकदेवर गुड्ड कडकुळद सावन्त-बो. [१]प्पगोड हेगडे सोमय्यनु समादि (घि) ई (यि) म् [७] मुडिपि स्वर्ग-प्राप्तनाद [न] [।) मंगळ-महा-श्री [1] अनुवाद:-स्वस्ति ! यादवोंमेंसे श्रीवाले रायनारायण भुजवल प्रताप-चक्रवर्ती सिंहणदेवके ३७व वर्ष, पराभष-संवत्सरके मार्गशिर (महीने) के शुक्लपक्षकी पंचमी, बृहस्पतिवारको सूरस्थगणके मूलसंघके भीनन्दिभट्टारक देवके शिष्य या अनुयायी; तथा कडकुळ' के सावन्त-बोप्पगौडके हेमाडे सोमय्यने पूर्ण इन्द्रियविरतिकी हालतमें मरणकर स्वर्ग प्राप्त किया। मंगल-महा-श्री। [IA, XII, P. 100, No. 1. t. and tr.] ..'खरें शिकावेजोंमें यही नाम करकोळ' पाया जाता है। २. मैनेवर। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. जैन-शिलालेख संग्रह ४६१ ऊदि-कार भग्न । [वर्ष दुन्दुमि (१) [दिने, वन-शारी-मन्दिरके मार्गके एक पाषाणपर ] (प्रथम अंश मिट गया है )... गतिनयनेश-रखेय शकाव्दद दुन्दुमित नाम-संवत्सर'वर-ज्येष्ठमासद सितेतर-पक्षदोळू द्वितीब-सन्नुतमर्कवार मनुव ...तां बसवले लोक-विश्रुते 'दळ समाधि-विर्षाियन्दमनिन्द्र-निवास-सौख्यमम् ॥ नन्दिदेव-पद-युग-सरसिरुहद पञ्च-पद-विनुतान्तःकरणे-महादेव-विभु-विधु वरसूरस्यमणे सुगतिय नडे पडेदळु ॥ सुररो? पुष्प-वृष्टिय-। नेरदागळे सुरिये देव-दुन्दुभि-रवमम् । बरदोलेसेयल्के बस्यो । सुर-लोकवेरिददळु महोत्सवदिन्दम् ॥ नमो वीतराग ॥ [लेख स्पष्ट है। इसमें भी समाधिमरण धारणकर सुगति-प्राप्तिका उल्लेख है।] [EC, VIII, Sorab tl., No, 142. ] ४९२ मणताकार पदाभव = ( )] [जै. शि. &, प्र. मा०] [ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरनार के लेख TR गिरनार - संस्कृत । [सं० १३०१ = १२३८ ई० ] श्वेताम्बर लेख | f - Revised Lists ant. rem. Bombay ( ASI, XVI ), p. 358, No. 23, t, and tr.] ४६४ हुम्मच; कद-भग्न । [ शक ११०० = १२४८ ई० ] [ पद्मावती मन्दिर में, प्राङ्गण में दूसरे पाषाण पर ] भद्रं भूयाजिनेन्द्रस्य शासनायाध - नाशिने ॥ [ सोमयके पुत्र प्राप्तिका उल्लेख है । ] ... स्वस्ति श्रीमत् स ( श ) क- वर्ष ११७० नेय लवंग-संवत्सरद पुण्यशुद्ध-पञ्चमी- बृहस्पति वारदन्दु श्रीम • सोमयन मग ... वसेन डे वेगडे-त दलिय समुदायमं - सेवितनुमागि व्रतारोपणमं माडिकोण्डु समाधि - विविधिं मृडुपि सुर-लोक प्राप्तनाद मङ्गळ महा श्री श्री मं करदु समस्त ... ... ...... डे वेगडे के लिये एक समाधिमरणपूर्वक सुरलोक [ EC, VIII, Nagar tl. No. 50] ४९५ मलालकेरे, संस्कृत तथा कार । शक ११७०=१२४८ ई० ] [ जै० शि० सं० प्र० मा० 丁 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन - शिलालेख - संग्रह ४६६ हीरे हल्लि - संस्कृत और कर भग्न । - seating [ शक ११०० = १२४८ ई० ] [ हमें मलेश्वर मन्दिर की दक्षिणी दोबालके एक पाषाण पर ] ' श्रीमत्परम गंभीरस्याद्वादामोघला लाञ्छनम् । यात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ नमोऽस्तु ॥ श्रीमत्-पोरसळ -वंशदति विनयादित्याख्यनादं यश:- / प्रेमं तन्नृप-पुत्रनादनेरेयङ्गोन्वीश्वरं तत्सुतम् । भूमिपालक - मौळि - लाळित पदं श्री विष्णु-भूपाळनुद्- । दाम-स्व-क्रम - विक्रमार्जित -नय-भ्राविष्णु विष्णूपमम् ॥ मलेयेलं वसमाग्तदोन्दे तळकाहुँ कोयटूर् को नं- | गति काली-पुरी गङ्गवाडि पेसर्वत्तुङ्गि बळ्ळारे बेळ- । वल-नाडा-राचनूर्मुडुगनूर्व्वल्लूरिवं कोण्ड तोळ् । वलदिं पोल्ववरारो पेळू भुज-बळ - भ्राजिष्णुर्वं विष्णुवम् ॥ आ - विष्णुवर्द्धनम् । भावोद्भव -राज्य-लक्ष्मियेनिसिद लक्ष्मा - । देविगमुद्भवसिदिनक- । नी- विभुत- नारसिंहनाहव-सिंहम् || आ - विभुवन पट्ट-महा- 1 देवि मही- देवि विदित-यादव - लक्ष्मी- 1 देवि जय-देवियेच- । देवि जगत्ख्याते सीतेगेने गुण-गणटिम् ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होरेहलिक लेख.. आ-नरसिंह-देवंग पट्ट-महा-देवियेनिसिदेवत-देविगम् ॥ . .. .. :: .. सकल-कला-परिपूर्ण। सकलो/-नयन-सुखदनकलई तान् । अकुटिळपूर्व-नव-सी-1 तकरं बल्लाळ-देवनुदयङ्गग्दम् ॥ चोळम्मुत्तिरे पन्नेरळ-बरिसेकं कोळपोस्ते तां पोदनेम्ब् । आळापं बरे साल्ददोन्दु मोळनं मेल-डे ... उच्चंगियु। पेळासाध्यवदादुदेन्दु दिविज ... घर वि. ये ब-। लामाळ्दं गिरिदुर्ग-मल्ल-वेसरं बहान-भूपालकम् ॥ सानिवारदन्दे पाण्ख्या-1 वनिपन सप्ताङ्गमेरदे सिद्धिसिदुदरिम् । सानिवार-सिद्धि-वेसरं । जनपति बल्लाल देवनेसेदिरे तळेदम् ॥ स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलेश्वरम् । द्वारावती-परवराधीश्वरम् । त्रिभुवनमल तळकाडु-कोगु-नङ्गलि-गंगवाडि-नोळम्बवाडि-बनवसे-डुलिगेरेहानुङ्गल-गोड भुवबळ वीरगङ्गनसहाय-शूर सनिवार-सिद्धि गिरि-तुर्मा-मल्ल चलदङ्क-राम निश्शङ्क-प्रताप होयसळ-चीर-बल्लाळ-देवरु दोरसमुद्रद नेलेवीडिनलि सुख-संकथा-विनोददि पृथ्वीराज्यं गेटपुत्तमिरे । वृ॥मले नाडन् तुल-नाडनग्गड बयल-नाडं लसच्चोड-मण डलमं पेदोरे मेरेयागे बडगल श्री-विष्ण-भूपङ्गे भूतलनं साघिसि कोटु माण्डु रणदोळ् मारन्तरं कोन्द दोर्. ब्वळदि द्रोह-घरट्टनेन्दु पेसर्वृत्तं बोप्प-दण्डाधिपम् ॥ श्रीमन्महाप्रधानं हिरिय दण्डनायकं द्रोह-घरट-बोम-देवं आसन्दि-नाड कोण्डलियं तन्न हेसरि द्रोहघरट्ट-चतुर्वेदिमङ्गलमेन्दु पेसरनिटू भुवन-वीरावतारमेम्ब तन्नपेसगनुरूपमप्पन्तव्यतिर भरणवागिं सर्व-नमस्यवागि बिटुना-महारहारद अशेष-महावनङ्गळुम् । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Iw कोण्डलिन माचनं भून मण्डल - विदितं समस्त-शास्त्र-विचारा -। सति-मतिमद्-नाह्मण मण्डलिटरसी-खण्ड- चण्डांशु-निभं ॥ भूतेय नामक । ख्यातं कटकेक-रह-श-तळारम् । जैन-शिलालेख-संग्रह भूतल - विदितं तत्तनु - बात बाळ-नृप कुमारं मारम् । व ॥ इन्तिनिबरुविद्दु तम्मूरिन्दं बडगण चकवेगेरेयं केम्बणनके रेवली - श्री वरं माडवेळ केन्दु प्रात्थिसि काळ-गवुण्डन तम्मनप्प होन- गवुण्डन नक-गवुण्डिय भगनप्प महाप्रभु आदि गण्ड सन्तेयं को डायय्यनुं तन्न तम्म माडि-गवुण्डनुं मार- गवुण्डनुं अवर मकळं माच-गवुण्डनुं मार- गवुण्डनं नाक- गवुण्डनुं चिकमारेयोगागि कार्ड कडिदु कन्नेगेरेयं कट्टिसि वरं माडिदरु || आ. यप्पन अन्वयवेन्तेन्दोडे । - गण्डम्मुत्तेय | ...... "हिरियय्यम् । सचित सद्-गुण-गण-मणि । सञ्चय व्दि होम्न- गौडण्डं जनकम् ॥ आ-नेगळ्द होन-गवुण्डन । ... ... आदि गवुण्डुन ताय् ताम् । भू-नु-पतिब्रता गुणे | खानकियो अक-गण्डि गुण-निधिये ******... *** परागळिगे पालम् । पट्टिमाचमन - वारिवागिरे नचम् । इस-गालदोळ् अ । ... ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..." सनदिनारादि-गौण्ड ... ...॥ केरेयं कटिसुति'तु-। मरवष्टगेयिग्नुितिपदेसे ........। ... ... ... ... ... ... ...| ... ... ... ... ... उज्जुगवेन्दुम् ।। ..... ... ... ............ || इसिदर मोगमं नोडम् । इसिवु नीरळ्के यि कण्ड ....। ... ... एनिप ............। वसुधेयोळान्नोपडादि-गौडण्डन दोरेयर् ।। अन्तेसेडादि-ग [व] ण्डन । कान्ते मनः कान्ते नाग-गावुण्डि जगत्- । कान्ते पति-भक्ति-गुणदिन्द् । अन्तिल्लद जसदिनेसेदळवनी-तळदोळ् ॥ बन्दर् बिदिनरेन्दन्द् । ओन्दिद सन्तोषदिन्द सासिरकं कय- । सन्ददुणलु बड्डिप-गुण-1 दिन्दं पेळ नाग-गौण्डि ... ......॥ ... ... ... ... ... ... ... ...। ... ... भू - । मण्डलदोळगिन्नु नोन्त कान्तेषरोकरे ॥ अवरिवर्ग पुष्टिंद । "माच-गौडण्डनातन तम्मं । भुवनाधार ...... य-। नवननुबरु ..." चिक-मारेयनेम्बर् ।। अवरोळगे ... ... भुवन-हितं भाव-गौण्डनेम्ब महात्मम् । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૧ नवसे यिनोपिन्दाद् ि। इवन - बोला णिगळेनिसि नेगळूदं बगदोळ् ॥ "I मत्तवधिक - वलदिं किरिदलु ... ... ... • निपं समस्त पुरुषा- ! - निधानं माच - गौण्डनस्थि - निधानम् ॥ मार-गौण्ड ......... ...... 800 वारिनिधि-वेष्टितो विँयो । ळारं तन्नन्नरिल्लेनिप्पं गुणदिम् ॥ लोकापकार-कारण- । क-कमव ..... ... जैन - शिलालेख संग्रह निधानम् ॥ मातृ-पितृ भक्त नखिळ- । ख्यातं पुण्य-क ... नी-लोकदोळगे लोकं बडेवं ॥ त्रिमूर्ति I धर्म-तीर्थं प्रवर्त्तिसुत्र ...... ... क तम्मनम्मङ्गणुगम् ॥ आदि-गौण्डन गुरु-कुळ- क्रमवेन्तप्पुदेन्दडे । श्रीमद्-इमिळ द्रस्यामिन्दि 1 ... ... .. ... ... • वारिसि पर वृन्द- वंद्य श्री पादरशेष-शास्त्र-वाद्धिंग गुण- घनं श्री वासुपूज्य मुनि ...... वादीश्वर हित - व्यापार देवर- शिष्य पेरुमाळे - देवरिगे ' न्तोषेद बसदि माडिसि श्री- देवर-प्रतिष्ठेयं माडिसि आ - देवरष्ट विधार्च्चनेगं रिषियराहार-दानवकं खीणद्वाक्कं नडवन्तागि बिट्ट तळ-वृत्ति ( आगेकी ५. पंक्तियों में दानकी चर्चा है ) सक-वर्ष ११७० प्लव-संवत्सरदुत्तरायण-राण-व्यतीपातदन्दु तेनेय रायण......R Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीरेहल्लिके लेख ३४७ कोण्डलियशेष महावनङ्गळु आदि-गौण्डनु माडि कोटक मङ्गल महा भी (हमेशा का अन्तिम श्लोक) नमोऽस्तु वीतरागाय ।। [ इस लेखमें आदि-गवुण्डने अपने गुरु पेरुमाळे-देवके लिये एक विशाल बसदि बनवायी और उसके लिये (उक्त) कुछ भूमिका दान दिया, और ( उक्त मितिको ) आदि-गवुण्ड, और उसके पुत्रों तथा गाँवके ४० कुटुम्बोंके साथ कोण्डलिके सारे ब्राह्मणोंने उस भूमि तथा मन्दिरको पेरुमाले-देवको समर्पण कर दिया।] [ EC, V, Belur tl., No. 138. ] ४६७ हुम्मच, संस्कृत तथा कद-भग्न । [शक ११७२% १२५० ई०] [पभावती मन्दिर में, एक पाषाण पर ] बरमसेन... नाय "स्वस्ति श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ स्वस्ति श्रीमत्-स (श)क- वर्ष १९७२ नेय कीलक-संवत्सरद शुद्धभावण-दशमी-शुक्रबारदन्दु श्रीमन्महामण्डलेश्वर श्री-ब्रह्मा-भूपालकन सचि ... . ... ... ... ... .... ... ... ... ब्रह्मय-सेनबोवन प्रिय-पुत्र पारर्व-सेमचोर ... ... ... ... ... ... माडि ... .. ... ... ... . ... ... सुर-लोक-प्रापितनादम् श्री ( बाकीका पढ़ा नहीं जा सकता है)। [ महा-मण्डलेश्वरब्रह्म-भूपालके मन्त्री ... ... .. ब्रह्मय्य-सेनबोवके प्रिय पुत्र पार्श्व-सेनबोवने 'समाधि' की विधिसे स्वर्गलोक प्राप्त किया।] [ Ec, VIII, Nagar tl, No. 58] Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जैन - शिलालेख संग्रह ४९८ श्रवणबेलगोला, संस्कृत तथा भग्न । [ बिना का निर्देशका ] [ जै० शि० ॐ०, प्र० भा० ] ४६९ इलेबोड; - संस्कृत और क [ शक ११७७ == १२५५ ई० ] इलेमी से कमी हुई पत्तिहलिमे, पार्श्वनाथ बस्विके बाहर की दीवाल के पाषाणके एक ओर ] श्रीमत् - सम्पक्त्व - चूडामणि सत-नृपना - वंश - सिंहासनस्थम् । सोमेशं नित्यनप्पन्तोसेदु विजय-तीर्थाधिनाथङ्ग नाकुम् । सीमा-संस्थानदोळ् मुक्कोडे यसेविनेगं नट्ट्टु धर्म्मक्के कोट्टम् । . भूमीत्वके तान्दरिपुव तेरदि तत्सुतं भारसिंहम् ॥ शुकवर्ष ११७७ नेय मानन्द- संवत्सरद मार्गशिर-ब १ बृचन्दु श्रीमत् प्रताप-चक्रवर्त्ति होयसळ-श्री-वीर- मारलिंग- देवरस० बोप्प-देव-दण्णायकर बसदिगे विजयं गेय्दु श्री विजय पार्श्व-देवरिगे काणिकेयनिक्कि आ-नसदिय मुण्डण शासन व कण्डु तम्मन्वय राजावळियनो दिसि - गोडुत्तविद्दवसरदोळु आ-शासनस्थवह देव-दानद क्षेत्रदोळगे मय्दुनं पद्मि-देवरु बट्टाख कट्टि मनेय माडि आ बठारलु हलवु वस्सदिन्दषु हालागि विद्दुदनु केळि तग्म अन्वयद धम्मँवोप्पु कारणवागियु श्रीमतु प्रताप - चक्रवत्ति - होयसळ - श्री-वीर-सोमेश्वर-देवरसर राज्याभ्युदयत्रहन्ताभियुः पूर्व्व देसे पनि देवन बठारवनु बी नट्ट कलिन्दोळगणभूमिसहित मयिदुन'मनेयमाडि आ-विषय- पार्श्व-देवन भी कार्यव नडिसुवन्तागि साधे - परिहारवांगि आ-चन्द्रार्कस्थायियागि सलुबन्तागि अन्दिन ...... ... Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलेव डके लेख धनुस-संक्रमणदल्नु आ-देवर सनिधियनु आ-कुमार-नारसिंह-देवरु तम्म श्रीहस्तदलु पुन-[]-धारेयनेरेदु कोहरु मङ्गल महा श्री भी श्री [१२६ ] आनन्द-संवत्सरद फाल्गुन व २ बु । बन्दु श्रीमतु प्रताप-चक्रवत्तिकुमार-नारसिहदेवरसरु तवगे उपनयनवादल्लि बोप्प-देव-दण्णायकर बसदिय भी-विजय-पार्श्व-देवर श्री-कार्यके आ-चन्द्रार्क स्थायिागि नडवन्तागि हिरियकेरेय केळगे केम 'द साल-माविन गटिनोळगे कोळद-होनयन पट्टशालेगे कल्ल नटु बिट्ट भूमियिन्द मूडलु गद्दे गुम्मेश्वरद कोळगदानु गद्दे सलगे नाल्कुवम् धारा-पूर्वक माडि सर्व-बाधे परिहारवागि कोहरु ( परिचित अन्तिम श्लोक) मंगळ कहा श्री श्री श्री [सलके वंशमें सोमेश हुआ। उसका पुत्र नारसिंह था। सोमेशकाः विजय-तीाधिनाथ ( दण्णायक ) बोपदेव था । ( उक्त दिन) प्रताप-चावति होयळ बीर-नारसिह देवरसने बोपदेव-दण्णायककी बसदिका निरीक्षणकर बसदिका. पूर्व 'शासन' देखा और अपनी वंशावली पढ़ी। उसने अपने साले या ीषा पझि-देवके द्वारा बनवायी गई चहार-दीवारी और एक मकानको, बो कि ध्वस्त हो गया था, सुधरवाकर धनुस-संक्रमणके समय में विषय-पार-देवकी सेवामें अर्पण कर दिया। [१६] कुमार नारसिह देवरसने ( उक्त मितिको ) अपने 'उपनयन' संस्कारके समय ( उक्त ) कुछ दान दिये। . [EC, V, Belur tl., No. 125 and 126.] Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह [वर्ष आनन्द = १२५५ ई. १ (लू. राइस)।] [पमावती मन्दिरके प्राणमें, पाषाणपर] भी-मूलसंघ-देशी-गणद ... ... दु-विष-देवर गुड्ड ... ... ... जननी बालचन्द्र-देवर गुड्डि व्रत-शील-गुण-सम्पन्ने सोयि-देवि आनन्द-संवत्सरद पुष्य मास-पाळ-पशमि-बुधवारदन्दु समाधि विषियिं मुडिपि सुर-लोकव सूरे गोण्डळु माता कामाम्बिका श्रीमान् .." माघवाहयः । पुत्री सोमाम्बिका तस्याः सोयि-देवी ... ज .. || कवित्वे गमकिल्वे च वादित्वे वाग्मिता-जये । विष-वासचन्द्रस्य सहक्षो नास्ति नास्ति हि ॥ मङ्गळ मा श्री [श्री-मूलसंघ और देशो-गण के ... दु-विद्य-देवके गृहस्थ शिष्य ... की मां, बालचन्द्र-देवकी गृहस्थ-शिष्या सोयि-देवि, ( उत मितिको ), समाधिकी विपिसे मर गयी और स्वर्गलोकको प्राप्त हुई। उसकी माँ कामाम्बिका थी, पिता माषव, तथा पुत्री सोमाम्बिका थी। कवित्वमें, गमकित्वमें, वादित्वमें, वाग्मिता तथा वयमें त्रैविद्य-बाळचन्द्रके समान दुनियाँमें कोई नहीं है, कोई नहीं है । ' [ EC, VIII, Nagar tl., No. 53.3 श्रवणवेल्गोला-काद। [वर्ष नक= १२१५ ई० (ब. राइस.) जै०शि० सं०, प्र. मा०] Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 चिक-मार्गाटके लेख चिक्क-मागड, अग्न । [ संभवतः कगभग १२२६ ई० ] [ चिक-मागडिमें, बस्ति के पास के पाषाणपर ] ५०२ स्वस्ति श्रीमतु यादव - नारायण भुजबल - प्रताप चक्रवतिं श्रो-कन्दार देवन ११ नेय बल संवत्सरद त्र - बहुळ- अमवासे-बजुवारदन्दु मुडिय सा... "वन्त सन्यसन- समाधियं माडि सुगति प्राप्तनादं मङ्गळ महा श्री श्री गज सैलेन्दु-शशांक कार्त्तिक कृष्ण पक्षमेने हिमना प्रपष्ट देवर गुड्डनेसेव शान्त मनदोळु ता पञ्च-पदवं चिन्तिसुत्त परिवारं बन्धु - जनमुमाश्रित- जनमुं निलेदेखसं शनिवार उत्तरायण स ... ... ...... ... ... ... ... ... मरमु नवरनु सामन्त ... पुरुष-निघाननं सकळ - भोगियनाश्रित कल्प वृक्षनम् । नर- सुर- धेनु वन्दि- सुर-भूज नवीन- मनोज-रूपन / गुरु-पद-भक्ति ळू प्रभाव-साबन्त मुब्बन वो देन करुणि विघात्रमूल पद- लोभिगळिं ... ... ... ... ३५१ ... स्वर्ग-न 'आप्त-जनं शरणिमदेन्दु··· बुतिहरु । मु ( बाकीका मिट गया है ) । भुखबल- प्रताप - चक्रवर्त्ति कन्दार-देवके ११वें [ स्वस्ति । यादव- नारायण वर्ष में, मुडिके सा ••• 'वन्तने, 'सन्यसन' महोत्सव की (विधि) को करते हुए, सुखी हालत प्राप्त की । उसकी और भी प्रशंसा । ( शिलालेख बहुत घिसा हुआ है । ] 1 [ EC, VII, Shikarpar tl., No. 198 ] Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह [ वह शिलास बहुत-कुछ बिसा हुआ है । ) जिन - शासनकी प्रशंसा । बम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र और कर्णाटक विषयको प्रशंसा २५२ बहुत राष्ट्रों का स्वामी, लङ्केश्वर, यादववंशीय राजा रामचन्द्र थे । उसकी उत्पत्ति । जयसिंह नामके कोई राजा थे। उनके पश्चात् [ कन्दर राय ] और उसका भाई महदेव था । कन्दर रायका पुत्र रामदेव हुआ । 1 तत्पादपद्मपचीवी कूचि-राम था, और राजगुरु बिन मट्टारक-देव थे। उनकी उत्पत्ति । वीरसेन और जिनसेनाचार्यकी परम्परामें १ गुण-भद्र-योगी और जिन - सेन-योगी हुए। इसके बाद महसेनके पुत्र मुनि पद्मसेन यतिपकी प्रशंसा. आती है । उक्त मुनीश्वरके चरणोंका भक्त कूचि-राम था। उसकी उत्पत्ति | वह सिं [ह] देव और झाम्बिकाका पुत्र था, उसका छोटा भाई चट्ट था, पत्नी मा ( या. लक्ष्मी ) थी। उसकी पत्नी लक्ष्मीदेवीकी प्रशंसा । उसका पुत्र वोणदेव था, जो चमसेन मुनिके चरणोंका भक्त था । • पापा- देश मध्यमें स्थित बेतूर की प्रशंसा । माचिके पुत्र हरिप-गौड, माकडे पुत्र योग-गौड, तथा सोमके पुत्र राम - गौडका उल्लेख और पब उस कूचि - राजको बेतूर तथा दूसरे गाँवोंका घेरा मिल गया, और म उसकी श्री स्वस्थ हो गयी, पद्मसेन भट्टारककी सम्मतिसे, उसने लक्ष्मीजिनालय खड़ा किया। और कूचने यह मन्दिर भी मूलसंघके सेनगणके पोगलेछको दे दिया । - कूचि-रामने ( उक्त मितिको ) वीर- महदेव-शयके शुभ हस्तोंसे अग्रहारके रूपमें, लक्ष्मी बिनालयके लिये, हुणिसेयइति प्राप्त करके तथा १२ होन्नुपर काम करनेवाला एक श्रोत्रिय सदाके लिये नियत कर, उसे पद्मसेन - महारक -देवके पाद-प्रचालन पूर्वक, उस जिनालयके पार्श्वनाथ देवके लिये एक शासन (लेख) द्वारा सौंप दिया । तथा, गौढ लोगोंके साथ-साथ चलकर, उठने एक दुकान तथा सुपारीका एक बगीचा भी दिया । [EC, XI, Davangere tl., No 13] Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवणवेलोलक लेख १२ [शक श्रवणबेल्गोता-संस्कृत साकार। ( ठीक १५१) = १०३ ० (सीहोर्न)] [. शि. सं., प्र. मा.] ५१३ चिक-मागडि; काद-मग्न । [बिना काम-निर्देशक [चिक मागडिमें, वस्तिके पासके पाषाण पर ] स्वस्ति भीमतु यादव-नारायण प्रताप-चक्रवर्ति ... ... ... देवर वर्षद-२८ मेव शरिसंवत्सरद कार्तिक ... ... चिकमामडिय अमलाले पम्मान ....... बदिर ... .. गति ... ... ... ... ... ... ... .......... .... ... ... ... ... ... ... नेरदे पुष्टु सत्-पुरुष-सिंघनुदात्त-निकि सपरित पडेद समाधिषम् ॥ पडेदु समाधियनिन्नोर ...। पडलदमर-पुरकेगगि देव-निकायम् । गेडेगोरे मुर-मुखम। पदै गन्मोज अम-बिन-मावनेयिम् ।। [जुनार बम्मोधके लिये उसकी समाविका प्रदर्शक यह लेख है। [EO VIL, Shikarpur tu, No.100 ] Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह हलेबोड-काद। [-1103:२७४ ई० ( चोव्हॉर्न )], [ आदिनाथेश्वर बस्तिके पास-बस्तिहल्लिमें ] श्रीमन्नेमिचन्द्र-पण्डितदेवरु श्रीमद्वाळचन्द्र पण्डित-देवरु केळिहरु सारचतुष्टयादि-ग्रन्थगळ व्याख्यानम माडिदपरु* (बायीं ओर ) स्वस्ति श्री मूलसंघ-देशिय-गण-पुस्तम-गच्छ-कोण्डकुन्दान्वयदिनळेश्वरद बलिय मो-समुदायमाघनन्दि-मद्वारक-देवर प्रिय-शिष्यहं श्रीममिचन्द्र-मधारक-देवरु श्रीमदभयचन्द्रसिमान्त चक्रवर्तिगळंदीचा-गुरुगळं श्रुत-गुरुगळमागे तप [स् ] श्रुतजलिं बगदोळ् विख्यातं-बेट्ट भीमद्वाळचन्द्र-पण्डित-देवर सक-वर्षे ११६७ नेय मावसंवत्सरद भाद्रपद शुद्ध १२ बुधवार मध्याह-कालदो यमगे समाधियन्दु चातु-वणिंगळगरिपि नीवेसार धाम्भिकरप्पुदेन्दु नियामिसि क्षमितव्यमेन्दु सन्यसनपूर्वकं सकळ-निवृत्तियं माडि पल्यंकासनदोळि१ पञ्च-परमेष्ठिगळ स्वरूपम ध्यानिसुतं स्व-उमय-पर-समयंगळु मेच्चे उत्तम-समाधियं पडदक श्रीमद्रावधानीदोरसमुद्रद समस्त-भ-( दायीं ओर ) व्य-जन-माल कालोचितमप्प धर्मप्रभावनेयं माडि परोच-विनय-मागि गुरुगळ प्रविकृति-समन्वितं पञ्च-परमेष्टिगळ प्रतिमेयं माडिसि यथा-क्रमदिं लोकोत्तरमागे प्रतिष्ठेयं माडि पुण्य-दि-यशोइदियि माडिकोण्डक । भद्रमस्तु जयतु पिन शासनाप । श्री-जैनागम-वार्षि-वर्द्धन-विधुः कन्दर्प दोपहो । उपयुक्त पाषाण घिरे पर दो मूर्तियों पर पाक्षिा हुना। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हले बीड के लेख भव्याम्भोज-दिवाकरो गुण-निधिः कारुण्य-सौधोदधिः । स श्रीमानभयेन्दु-सन्मुनि - पति प्रख्यात - शिष्योत्तमो जीयात् कावनिशन्नित्वात्मानं रतौ बालेन्दु-योगीश्वरः ॥ पूर्वाचार्य-परंपरागत-बिन-स्तोत्रागमाध्यात्म-सचछात्राणि प्रथितानि येन सहसा भूवनिळा - मण्डले । श्रीमन्मान्य-भयेन्दुयोगि- विबुध-प्रख्यात सत्-सू नुना बाळेन्दु-ब्रतिपेन तेन लसति श्रो- जैनधर्मोऽधुना ॥ श्री बालचन्द्र पण्डित - देवाय नमः || दूसरा लेख ( उसी बस्ति में, समाधि - मण्डपके बायीं ओर ) श्रीमदभयचन्द्र- सिद्धान्त - चक्रवर्त्तिगळु व्याख्यानमं माडिदवरु ॥ श्रीमद्- बालचन्द्र पण्डित - देवरु केळिवरू । श्रीमज्जनेन्द्र - मुख-निर्गत-दिव्य वाणी यस्याननेन्दुमुपसृत्य विवर्द्धमाना । तं बालचन्द्र - मुनि पण्डित - देवमस्मिन् लोके स्तुवन्ति कवयः परमादरेण || कस्त्वं कामः क एते हरि-हर - विधि-विध्वंसकाः पञ्च- बाणा: कोऽयं धर्मः क एष भ्रमर-मय-गुणस्तेऽत्र किं योधुकामः । संख्यातीत गुणौघैर्ज्जगति दश-विधैश्चारु- धर्मैरनन्तैर्निळेन्दु-योगी लसति कुरु ततस्तत्पदाम्भोज - सेवाम् ॥ येनाधीतमतीत - बाघममितं स [ ज् ]- ज्ञान-सम्पादकम् शास्त्रं सर्व-जनोपकारि विहिताचारोचितां प्रेमतः । तस्मादनन्त-भन्य-कल-नरणेवळेन्दु-योगीश्वराद् आप्तं मुक्ति-सुखैक -साधनमनु प्रेक्षोपदेशादिकम् || ३६* Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह दचोऽयमक्षणदादि-पक्षमावीक्ष्य तत्क्षणे। प्रत्यक्षादि-प्रमाणेन मे बालेन्दु-सन्मुनिः ।। वर्वतां बिन-शासनम् । श्री-पञ्च-परमेष्ठिगळे शरण। श्री-बालचन्द्र-पण्डितदेवाय नमः ॥ [बालचन्द्र-पण्डित-देव 'सारचतुष्टय तथा अन्य प्रन्योपर टीका बनाते है (या करते है)। नेमिचन्द्र-पण्डित-देव सुनते हैं ( ऊपर पाषाणके माथे पर लिखा हुआ)। भी-मूलसंघ, देशिय-गण, पुस्तक-गच्छ, कौण्डकुन्दान्वय, इजलेश्वर-बलि, श्री-समुदायके माघनन्दि-भट्टारफ-देवके प्रिय शिष्य, नेमिचन्द्र भट्टारक-देव और अमयचन्द्र-सिदान्त-चक्रवर्ती उनके क्रमसे 'दीक्षागुरु' और 'श्रुतगुरू' थे,चान्य-पतिदेखने चतुर्वर्णों के सामने यह घोषणा की कि "(उक्त मितिको) मध्याह-कालमें मैं समाधि ( सोखना) ले लूंगा।" तदनुसार उनके समाधि मरण प्राप्त करनेके बाद दोरसमुद्रके भव्य लोगो (जैनों) ने उनके स्मारक के रूपमें उनकी (अपने गुरू की ) तथा पञ्च-परमेश्वरकी प्रतिमायें बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा बी। इससे उनका गुण और कीर्ति खूब बढ़े। १३२व लेखमें अभयचन्द्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती टीका करते हैं। बालचन्द्रपण्डित-देव सुनते हैं। इसमें बालचन्द्र-पण्डित-देव की प्रशंशा भरी हुई है। कामको भी उनकी सेवा करनेका आदेश इसमें दिया हुआ है। ] [ Ec, V, Belur tl. No 131 and 132] श्रवणवेल्गोला-काद। [वर्ष भाष= १२७४ ई० १ (ल. राइस.) [जै० शि०सं०, प्र. भा०] Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवणवेल्गोलाके लेख ३६७ भवणबेलगोलाकार। [विना मा निर्देशक [० शि०६०, प्र. मा. ] गिरनार, संस्कृत [सं० १३३५१२७६ ई.] श्वेताम्बर लेख। [ Revised Lists ant. rom. Bombay ( ASI, XVI), p. 363, No. 10, t. and tr.] ५१६ चिचौड़ (राजपूताना)-संसत ।। [सं० १३३०२७७ ई.] {कार चावडी मन्दिर के पास किले की दीवार में एक पुगने मन्दिर के उल्टे बनाये गये चौखट के उपरी मागपर] (९) (चिह्न) • ॥ स्वस्ति श्री-सं०-१३३४ वर्षे वैशाख सुदि ३ वु (बु) -दिवे श्री (वृहद-गच्छे सा० प्रल्हादक-पुत्र-सा-रत्नसिंह-कारित-श्री-शान्तिनाव-वेत्ये सा• समधा-पुत्र-सा-महण-भायर्या-सोहिणी पुत्री-कुम(२) -भाविकया मातामह-सा०-ठाडा-श्रेयसे देव-कुलिका कारिता ॥ [ लेखमें शान्तिनाथमन्दिरके प्राङ्गणमें एक छोटे मन्दिर ( देव-कुलिका) के निर्माण का स्पष्ट उल्लेख है।] [ ASWI, progress Report 1903-1904, p. 59, t. ] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैन-शिलालेख संग्रह ५२० श्रवणबेलगेला-काद। [शक १२००-१२७८ ई.] [जै० शि० सं०, प्र० भा०] ५२१ अमरापुर-संस्कृत तथा कबड़। [शक १२००=१२७८ ई.] [अमरापुरमें, तालाब के नष्ट बांध में एक पाषाण पर] श्रीमत्परम-गंभीर-स्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन (नन-शासनम् ॥ स्वस्ति समस्त-वसुमती-भार-धौरेय-दोर्-द्दण्डरं अधः कृतो-द्दण्ड6 मार्चण्ड-कुलभूषणरुमभिसम्पात-भीषणकमोरेयूरपुर-वराधीश्वरमेनिप्प चोळावनीशरोळ ॥ स्वस्ति श्रीमन्-महा-मण्डलेश्वरं त्रिभुवनमल भुज-बळ-भीम रोद गोव खड़ग-सहदेव अरूवत्तारु-मण्डळिकर तले-गोण्ड-गण्ड बण्टर बाब पर-नारी-सहोदर पडे मेच्चे गण्ड निगम-मन भीतरं कोल मरेवुगे कार शरणागत-वज्र-पञ्जरमसहाय-शूर येकामवीर निश्शंक-प्रताप-चक्रवर्ति वीर-दानव-मुरारि पिकलोण-देव-चोळ. महाराज श्री पृथ्वो-मिडगल्लु-नेलेवीडिनोळु नेलास सुख-सङ्कथा-विनोददि राज्य गेय्युत्तमिरलु शक-वर्ष ॥ १२०० नेय ईश्वर-संवत्सरद भाषादशुद्ध-पञ्चमो-सोमवारन्तु तैलङ्गारेय जोग मट्टिगेय ब्रह्म-जिनालयके मूल-संघ देशिय-गण कोण्ड-कुन्दान्वय पुस्तक-गच्छ यिङ्गळेश्वरद बळिय त्रिभुवन कीविराळर प्रधान शिष्यफ बाळेन्दु भवपारि-देवर प्रिय-गुहुर्नु सङ्गयन बोम्मि-सेटिगं मेळवेगं पुट्टिद मल्लि-सेट्टि तम्मडियहळ्ळिय एरेयगुय्यल तन्न एरडु-भागवू एरडु-सायिर-अडकेय-मरनु तैलोरेय बसदिय Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरपुरके लेख १६९ प्रसन्न-पाखदेवर प्रतिहस्तवागि मक-पर्यन्तं वृत्तिवन्तनेन्दु दक्षिण- पायदेशद दक्षिण-मधुरेस उत्तर-भागदल्लि पोन्नर "न्नति-सीमेय भुवनोकनाय-विषयद मुवलोकनायन वूर (पुर) बिन-ब्राह्मणरधि यजुर्वेददैत्रेयशाखे वशिष्ठ-गोत्र कौण्डिन्य-मैत्रा-वरुण-वैशिष्टमेम्न-अवरद दोपनायकङ्ग पोन्नब्वेगं पुट्टिद श्री-सयनगिरियु आ-चावेन्दु-मलपारि-देवर प्रिय-शिष्यनुमप्प चेपिले-हस्तल्लि आ-चन्द्राकै बरं तन्न मेळि-भागवनु धारा-पूर्वकं वृत्तियागि कोट । यिन्तप्पुदक्के साक्षि हदिनेण्टु-समय मल्लि-सेटि ओप्प श्री-वीतराग हदिनेण्टु-समयद ओप्प सदाशिव-देवरु (वही अन्तिम श्लोक) [जिन शासनको प्रशंसा। स्वस्ति । मार्तण्ड कुल-भूषण, ओरेयूर्-पुरवराधीश्वर, चोळ राजा थे,धिनमेंसे,—विस समय महा-मण्डलेश्वर, यिरुङ्गोण-देव-चोळ-महाराज अपने पृथ्वी-निडुगलके निवासस्थानमें ये: (उक्त मितिको,) तैलङ्गेरेमें बोगमटिगेके ब्रह्मचिनालयके लिये, (मूल संघ, देशिय-गण, कोण्डकुन्दान्वय, पुस्तक-गच्छ, और इनळेश्वर-बळिके त्रिभुवनकीर्ति-रावुळके प्रधान शिष्य) बालेन्दु मलधारिके प्रिय गृहस्थ-शिष्य, सङ्गायके (पुत्र बोम्मि सेटि तथा मेळन्वेसे उत्पन,-मल्लिखेटिने, तेलङ्गेरे बसदिके प्रसन पार्श्व-देवके लिये, तम्मडियहळ्ळि में सुपारीके २०.. पेड़ोंकेर हिस्से वैशानुवंश तक जानेके लिये अलग निकाल दिये तथा दीपनायक और पोनन्केसे उत्पन्न चेलपिल्लेको वे अपित कर दिये। ( यहाँ दीपनायकके शहर, खानदान आदिका परिचय दिया है।) चेलपिछे सयनगिरि और बालेन्दु-मलधारिका प्रिय शिष्य था । साक्षियों के हस्ताक्षर । ] शाप । [ EC, XII, Sira tl., No. 32.] - - - Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह कलस-बद। [शक १००-१२७.ई.] [दूसरे ताम्बेके शासमपर ] स्वस्ति श्रीमत्-पट्टद पिरिपरसि फळाळ-माहादेविया पृथ्वी-राज्यं गेयुत्तिरलु श-काल १२०० नेय ईश्वर-संवत्सरद वृश्चिक ३ मा १कळसनाथदेवरिगे बिनेश्वर-देवारगे मादेवसवागि कलसेट्टिय मादव दारेयनेरसिकोण्डा अकि मान २ नबन्तागि निमानिय मेगे कोडनिय नि ... क सहितौ गळ बिट्टि तेरुमा सलूब प १ दे आव त्यरूगडेयू अल अन्तप्पुद के साक्षि आ-मरसणिय नाळ कळसद हेवा वाळ ( औरों का नाम दिया है) कलसनाथदेवर अमृतर्याडगे अकि कुडते १ नील-कण्टकोबळ माकेयन कैयलि कोण्ड अलुगल-मकिय ... इलियहाळिय मेळे मुकिय तलेय गण्ण १ मेले न . अन्तप्पुदक्के साक्षि कळसद ग्राम आ-हेन्बारुवकळु। [विस समय अभिषिक ज्येष्ठ रानी कलाल-महादेवी पृथ्वीका राज्य कर रही थीं :-( उक्त मितिको ) बर कि यह कलसनाथ और जिनेश्वर दोनोंका महान् दिन स, कलसेटिके पुत्र मादवने, सर्व करोसे मुक्त, दो 'मान' धान्य (चावल) देनेके लिये ( उक्त ) दान दिया। साक्षी। उन्हीं देवताके लिये एक और भी ( उक्त भूमिका दान । ] [EC, VI, Mudgere tl., No. 67 1.] ५२३ गिरनार-संस्कृत। [सं० १३३५ - १२७८ ई.] श्वेताम्बर लेख । [ Revised Lists ant, rem, Bombay ( ASI, XVI ), p. 362-358, No. 9 (II part ), t. and tr.] Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेबीड के लेख ५२४ हलेबीड - संस्कृत और कन्नड़ । [ शक १२०१ = १२७६ ई० ] [ बस्तिहलिमें, शान्तिनाथेश्वर बस्तिके पहिले ही प्रतिमा पाचाणपर ] ( सामने ) श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामो लाग्छनम् । यात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ श्री संघ- रै कुभृति देशिय सद्गणाख्यकल्पापो लसति पुस्तक- गच्छ शाखः । श्री- कुण्ड कुन्द मुनिपान्वय- चारु-मूलः सारेङ्गळेश्वर-बळि प्र६ळोपशाखः ॥ इन्तु पोगळ्दे-वेत्त यति-सन्ततियोळ् कुलभूषणाख्य-सै - । द्धान्तिक शिष्यनूर्जित- जिनालय-कारक - निम्ब-देव-सा- । मान्तन सुव्रतक्के गुरु वागू- अनिता-पति माघनन्दि-सै । द्धान्तिक चक्रवर्त्ति येसेदं वसुधा-पति-राजि - पूजितम् ॥ नमो गन्धविमुक्ताय तच्छिष्याय विमुक्तये । विशुद्ध-जैन सिद्धान्तनन्दिने शुभनन्दिने ॥ तच्छिष्यक | धवळ - यशो - नीरञ्जित । भुवनं कवि-गमक- त्रादि- वाग्मि वितान । प्रवरं सार्थक निर-ना- । म-विलासं चारुकीर्त्ति पण्डित देवम् ॥ तच्छिष्यरु । कु-मतौघ-निवारकनम् । ३७१ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैन - शिलालेख-संग्रह नमस्करिपेम् बिनागमोद्धारकनम् । विमल - दयाचारकनम् । समुदायद माघनन्दि-भट्टारकनम् ॥ श्री नेमिचन्द्र भट्टारक-देवोऽप्यभय चन्द्र- सैद्धान्तोऽपि । इति शिष्याभ्यां गुरु-माघनन्द्यभूदधर्म्म- इव भ्याम् ॥ तदुभयरो अभयचन्द्र-सिद्धान्त - चक्रव ( दायीं ओर ) तिगळ महिमेयेन्तेने. । वृ ।। छन्दो - न्याय निघण्टु-शब्द-समयालङ्कार-षट् खण्ड-वाग्भू-चक्र ं विवृतं जिनेन्द्र-हिमवख्यात प्रमाण-द्वयी- । गङ्गा-सिन्धु-युगेन दुर्म्मत- खगोन्बभृद्भिदा यत् स्व-धी'चक्राक्रान्तमतोऽभयेन्दु-यतिपः सिद्धान्त- चक्राधिपः ॥ तदुभयमुं क्रमदि दीक्षा-गुरुगळं श्रुत-गुरुगळुमागे पेम्पु - बडेद । मालिनी ॥ नुत-गुण-मणि-कोशं कीत्ति वीवृतार्थं वितत-सदुपदेशं शस्त-बोध- प्रकाशम् । कृत-मदन-निवासं नौमि निम्र्म्मोहपाशम् हृत- कुमत-निवेशं बाळचन्द्र-प्रतीशम् ।। तन्मुनीन्द्र- शिष्यरु | स- विशेषागम-वाक्-सुघोषघमनीण्टल कोट्ट कार-त्रि- दोब - विकार छनेन्ति किल्तु विळसद्रत्नत्रयं रक्षया । विनयाळिगे कट्टि रक्षिसिदनी - सिद्धान्त - चक्र शनेम् । भव-रोग के सु-वैद्यनो भयचन्द्रं बाळचन्द्रात्मनम् ॥ सासिरदिन्नूरेरडेने - | या शक-वर्ष - प्रमादि-समदुर्ज्ज - लसन्मा- । सासित-पाद नवमी । शनिवार- त्रियामदोळ तन्मुनिपम् ॥ अरिडात्मीय- समाधियं तोरदु सर्व्वाहारमं देहमं । मेरेङक्षोभतैथं बर्गं पोगळे पर्यङ्कासन - प्राप्तियिम् । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलेबी के लेख नेरेवात्मोद्ध-कलांशुवं दिवदोळं तोप्पेन्दले म्बन्ददिम् । तरिखन्दं सूर-मन्दिरक्कमयच्चन्द्रं रुन्द्र सैद्धान्तिकम् ॥ मुददभयचन्द्र- सिद्धान्- | ति - देवरम्माद निसिघियं दोरसमु- । द्रद नवरङ्गळ् निम्मिति | विदित यश:- पुण्य-बुद्धियं कैकोण्डर् ॥ मंगलमहा श्री श्री श्री ॥ ૩૦૨ ( बायीं ओर ) श्री- अभयचन्द्र- सिद्धान्ति- देवर् तम्म शिष्य- बाळ चन्द्र-देवरिगे व्याख्यानं माडिदपe ।। श्री श्री [ इस लेखमें बालचन्द्रके श्रुतगुरु अभयचन्द्र महासैद्धान्तिक के समाच मरणका उल्लेख है । जिन शासनकी प्रशंसाके बाद श्री संघ ( मूलसंघ ) को एक पर्वत मानकर उसके ऊपर देशिय - गणको एकवृक्षकी उपमा दी है। इस कल्पवृक्षकी जड़ कुन्दकुन्दान्वय है, इसकी शाखाएँ पुस्तक- गच्छ है, और इसकी उपशाखार्थे इङ्गलेश्वर बलि हैं । इसी प्रसिद्ध परम्परा में कुलभूषण - सैद्धान्तिक, उनके शिष्य एक जिन मन्दिर के संस्थापक निम्बदेव - सामन्त हुए । उस सामन्तके चारित्र - गुरु माननन्दि - सैद्धान्तिक चक्रवत्ति हुए । एक गन्धविमुक्त हुए, उनके शिष्य शुभनन्दि- सैद्धान्त, उनके शिष्य चारुकीर्त्ति पण्डित देव, उनके शिष्य समुदायद - माघनन्दि भट्टारक थे । माघनन्दिके दो शिष्य हुए, नेमिचन्द्र भट्टारक- देव और अभयचन्द्र सैद्धान्ती । तत्पश्चात् अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की महिमाका वर्णन | ऊपरके ये दोनों बालचन्द्र-व्रती के क्रमसे दीक्षागुरु और श्रुतगुरू थे । बालचन्द्रके पुत्र अभवचन्द्र बालचन्द्रके शिष्य हुए। ( उक्त मितिकी) रातको अपने सल्लेखना के समयको जानकर, उसकी विधिको धारण करके अभयचन्द्र महासैद्धान्तिक दिवंगत हुए । ] 1 [ EC, V. Belur tl., No. 1183. ] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैन-शिलालेख-संग्रह m ५२५ कडकोल;-काड़। [शक १२०१=१२७१ ई.] किरकोळ गाँव के अन्दर हणमन्त या हनुमान मन्दिर के पास के ___ स्मारक पाषाण पर यह अभिलेख है] [१] स्वस्ति श्री स (श ) कवर्ष १२०१ प्रमाथि-संवत्स[२] रद भाद्रपद सु (शु)द्ध छ [८] टि सोमवारदन्दु श्रीम[३] न्-मूलसंघद पडुमसि (१ से) न-भट्टारकदेवर गु[४][] डि कडकोळद सावन्त सिरियम-गौडन हेण्डति [५] चण्डिगौडि सर्व-निवि ( वृ ) त्तियं कयि-कोण्डु स[६] माद्धि (धि ) यिं मुडिपि स्वर्गप्राप्तेयाद निषिद्धि ( घि) [७] य स्तम्भम् [ 1 ] मंगळ-महा-श्री-श्री-श्री [1] [८] हिर्य-चोप्पगोड चिक-बोप्पगोड चिक्कगोड [६] क (?) लिदेव रुषा ( ? ) घ ( १ ) धिरिदेव सुख्य हन्नेरडु-हि[१०] टु समस्त-प्रजे बसदिगे कोट्ट येरे मत्तरु १ । श्री[११] वान्य मङ्गल-महा-श्री-श्री-श्री [] 'अनुवाद-स्वस्ति ? पवित्र मूल मंघके पडुममेन-भट्टारकदेवकी गुड्डि (शिष्या या अनुयायिन ); ( तथा ) कडकोळके मावन्त सिरियमगौड की पत्नी चण्डिगौडिकी (स्मृतिका ) यह 'निषिधि'-स्तंभ है। उसने यह समाधि सर्व इन्द्रियों के विषयोंसे निवृत्त होकर तथा सर्व मांमारिक कार्यों का त्याग करके प्रमाथि संवत्सर-जो शक वर्ष १२०१ था-के भाद्रपट ( महीने ) के शुक्ल पक्षकी छठ, सोमवारको ली थी स्वर्ग प्राप्त किया था। मंगल और लक्ष्मी बढ़े १ १२ हिटठु तथा हिर्य-बोप्प गोड, चिक-बोप्पगोड चिकगौड, (१) ( कलिदेव, ( तथा ) रुवाघविरिदेक प्रमुख सब लोगोंने बसदिके लिये ? 'मत्तर' कालो-मिट्टो वाली भूमि दी। मंगलमहा-भी-श्री-श्री! [ IA, XII, P. 100-101. No 2. T and Tr] الالالالالالالالا Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक-मगलूरके लेख ५२६ चिकमगलूर-संस्कृत तथा काद। [शक १२०२१२८० ई.] [चिकमगळूर में, लालबागमें एक पाषाण पर ] श्रीमत्परमगंभीरस्यावादामोघ लाग्छनम् । बीयात् प्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् । श्रीमन्-नाळ-प्रभु सु-चरितनेने विनय-निधियु निर्मल-चित्तं प्रेमं बुध-बननिकरक्कालय वासुनेमं सकळ जनक्काधारं धार्मिष्टं वीरं धुरन्धरं पुरुषाकारं कामरूपं मसणगावुण्डनग्र तनूज सोम-नाम घरेयोळ् । मिन-समय वर्धि-वर्द्धन [ न् ] । अनवरतं चातु-वकितुं तणियम् । घन-महिम-श्रेयांम- मुनियगुडनु विनय-निधि चलदक-रामनेनिपं सोमम् ॥ आरडि-गौण्डे यन्वे । । । सारदे गुग-रत्न-भूमि-चिन्तामणिय ... । . . . 5 नोवं तावरे । तोरद ... सोम-गोण्डनेम्ब निधानम् । स्वस्ति परम-जिन-समय-समृद्ध रण-करण परिणतनुमेनिसिट श्री-मूल-संघद देशिगण-पोस्तुक-गच्छ हनसोगेय पळि कोण्डकुन्दान्वयद अयान्स-भट्टारक गुड्ड चिकमुगुळिय मसण-गौडनग्र-सुन सक-वरुस१२०२ नेय विक्रमसंवत्सरद श्रावण-शुद्ध-तदिगे मंगळवारदन्दु सोम-गौड समाधि वडदु सुर-लोक-प्राप्तनाट ई-निषिधिय कल्ल आतन मग हेग्गडे-गौड प्रतिष्ठे माडिद अष्ट-विधार्चने चविगे काबिय गुळिय गद्दे .." कोम्ब ५ ..." [जिन शासनकी प्रशंसा । मसण-गौडके पुत्र सोमकी प्रशंसा । चिक-मुगुळिके मसण-गौडके ज्येष्ठ पुत्र सोम-गौड, जो श्री-मूलसंघ, देशि-गण, पोस्तक-गच्छ, हनसोगे बलि तथा कोण्डकुन्दान्वयके श्रेयान्स-भट्टारकका गुहस्थशिष्य था, के समाधिमरण धारणकर स्वर्गबानेके बाद, उसका यह स्मारक-पाषाण Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैन - शिलालेख संग्रह उसके पुत्र हेगडे-गोडने खड़ा किया था। उस समय अष्टविध पूजनके लिये ( उक्त ) भूमिका दान दिया था । ] [ Eo, VI, Chikmagalur tl., No, 2] ५२७ श्रवणबेलगोलाक [ एक १२०३ ( ठीक १२०११ ) = ११८१ ई०] [ जै० शि० सं०, प्र० भा० ] ५२८ श्रवणबेलगोला -- संकृत तथा कार । [ शक १२०५ = ११८२ ई० ] [ जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग ] ५२९ गिरनार - संस्कृत | [सं० १३३३ = १२८२ ई० | श्वेताम्बर लेख | [ Revised Lists ant rom Bambay ( ASI, XVI ), p. 352-353, No 9 ( Ist parh ), t and tr. ] ५३० गिरनार - सस्कृत | [ सं० १३३० = १२८९ ई० ] श्वेताम्बर लेख [ Ant. Kathiawad. and kachh ( ASWI, II ), p. 169, tr. ] Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्ठकोटके लेख कण्ठकोट-संसह [सं० १४०% R .] श्वेताम्बर लेख। [ASWI, Selections, No. CLII, P, 64, a; p. 88, t. ( ins, No. 28).] सियाल-बेट;-संस्कृत। [सं० ११ १२८६ ई.] श्वेताम्बर लेख। [ ASI, XVI, p. 254, t.] ५३३ श्रवणबेलगोला-काद। [वर्ष सर्वधारी=झक १२१०-१२८८ ई० (कीकहौन)] जै. शि० सं०, प्र. भा०] ५३४ तवनन्दि;-कबड़। [वर्ष सधारी = १२८८ ई० १] [ववन्दिमें, किसेकी बस्ति दक्षिणको जोरके समाधि-पापाणपर ] स्वस्ति भीमनु सम्बंधारो-संवत्सरद आषाढ़ सुद्ध-तविगे-पृहस्पति-धारद भीमत काणूर-माणद माधवचन्द्र देवर गुड्डि श्रीमत् मालु-प्रभु माळि-गौरन Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जैन - शिलालेख संग्रह ५४७ हिरे आवलि; - कचद । [ वर्ष विकारी = १२६३ ई० १ ( लू• में बाषाण पर ] ...... [ हिरे-आबकिमें, ध्वस्त जिन बस्तिके सामनेके १२ स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वरं तुळुव-राय राय - बेण्टेकार मलेयमण्डलिक-मदेभ-कुम्भ - विदळन - वेदण्डारि-सदृश श्रीमन्महामण्डलिक कोटि-नायकन राज्या म्युदमदन्दु विकारि-संवत्सरद् श्रावण मास शुक्लपचापच मो- शनिवारदष्तु भी-ख-संघ देशी-गण-कोण्डकुन्दान्वयद समस्त -गुण-शाल-सम्पन्नरप्प गुणनन्दि भट्टारकर गुड्डि खण्ड-स्फुटित - जीर्ण- जिनालयोद्धरण- परिणतान्तःकरणनु आहाराभय-मैषण्य-शास्त्र-दान- विनोदनुं सम्यक्त्व रत्नाकरनु बिन-गन्धोदक- पवित्रीकुवोतमांगनुमप्प श्रीमन् - नाळ - प्रभु अवलिय शिरियम- गौडन सम्बंग-लदिम शिरियम-गौडि सकळ - सन्यसन - पूर्वकं समाधियि मुडिपि स्वस्तेयादळ | मङ्गल महा १ श्री राइस ) । ] [ लेख स्पष्ट है । १२६६ ई०; कोटि-नायकका राज्य था । ] [ Eo VIII, Sorab tl., No 122. ] ૮ इलेबीड - संस्कृत और कन्नड़ । [ शक १२२१ = १३०० ई० ] [ बस्तिष्टि में दूसरे प्रतिमा-पाषाण पर ] ( सामने ) श्रीमत्परमगं मीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । श्रीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलूराके लेख स्वस्ति भी मूल संघ - देशिय गण-पुस्तक- गच्छ कुण्ड कुन्दान्वयद पिङ्गलेश्वरद बळिय श्रो समुदायद माघनन्दि भट्टारकदेवर प्रिय शिष्य श्री नेमिचन्द्रभट्टारके-देवरु श्रीमदभयचन्द्र- सिद्धान्त - चक्रवसिंगळं विद्या-गुरुगळं श्रतगुरुगळुमागे तपश्श्रुतंगळिं जगदोळ् विख्यातियं पेट्ट श्रीमद्बालचन्द्र पण्डितदेवर प्रियाम - शिष्यरुमप्प श्रीमद्रामचंद्र - मलधारि-देवरु सक-वरुष-सासिरदिन्नूरिप्पत्तेरडनेथ सारि संबत्सरद-चैत्र -बहुल-तदिगे-बृहद्वारदपराहकालदोळेमगे समाधियेन्दु चातुर्वण्णंगळ गरिपि ( बायीं ओर ) नीमेलरुं घाम्मिंकरप्पुदेन्दु नियामिसि क्षमितव्यमेन्दु सन्यसनपूर्वकं सकळ - निवृत्तियं माडि पर्यङ्कासनदिं पञ्च-गुरु-चरण-स्मरणेयं माडुत्त दिवके सन्दरु । अवर तपो-माहात्म्यमेन्तेन्दोडे । नडेवडे बाहु- दुगड युगान्तरमं नेरे नोडदावगम् । नडेयद कामिनी-कन *मं सले शोकद कर्कसङ्गळम् । मुडियद हर्निशं विकथेयं मारेदाडद मोह- पाशदोळ् । तोडर मलधारिय श्रीमद्रामचन्द्र मलधारिदेवरु तम्म प्रियाप्र- शिष्यरु मप्प शुभचन्द्र-देवरिंगे - यो-मार्गोपदेशमं माडियरु अवरु केलिहरु | 888 0.4 विराचिकुम् ॥ ३८५ श्रीमद्- बालचन्द्र पण्डित - देवरु तम्म प्रियाप्र- शिष्यमरुप्प भीमद्- रामचन्द्र मलधारि-देवरिंगे सारचतुष्टयं मोडलाद ग्रन्थगळ व्याख्यानं माडिहरु अवरु केलिहरु || * यिन्तु पोगळ्ते-वेत्त श्रीमद्रामचन्द्र - मलधारि देवर प्रतिकृति - समन्वित - पञ्चपरमेष्ठिगळ प्रथुमेगळं श्रीमद्- राजधानि दोरसमुद्रद भन्यजनंगळु भाडिसि पुण्यवृद्धि - यशोवृद्धिय कैकोण्डरु || भद्रमस्तु बिनशासनाय मंगल महा श्री ॥ * ये दो प्रतिमाओं पर लिखे हुए हैं। २५ [ इस लेखमें रामचन्द्र - मलधारि देवके सल्लेखना - व्रत लेनेका उल्लेख है । रामचन्द्र - मलधारिदेव के गुरु बालचन्द्र- पण्डित देव, इनके गुरु माघनन्दि-भट्टारक Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ जैन-शिलालेख-संग्रह देव, बो मूलसंघ, देशिय-गण, पुत्तक गच्छ, कुण्डकुन्दान्वय, पिङ्गलेश्वर-बलि और धी-समुदाके थे। बा. प. दे. के विद्यागुरु नेमिचन्द्र-भट्टारक-देव और भत-गुरु अभयदेव-सिद्धान्त-चक्रबर्ति थे। रा. म० दे० के शिष्य शुभचन्द्र देव थे। इनकी प्रतिमा दोरसमुद्रके जैनोंने बनायी थी। [Es, V, Bel w tl., No I34] हलेबोड-काद। [विना काम-निर्देशका पर रुममग ३०.६.१] [हलेची से बनी हुई बस्तिहलिमें, पार्श्वनाथ बस्तिके बाहरकी दीवाक स्तम्म पर]. ईशान्यद-आदि-मोदलागि ईशान्यद हदिनैदु-कैयन्तरदलु आरंगय्युच्चेदट्ट शान्तिनाय-रेवरु भूमिस्थवागिहरु आवनानुं पुण्य-पुरुषं तेगदु प्रतिष्ठेय माडि पुण्यमं माडिकोळुवुदु ॥ [ईशान दिशा से शुरू करके, उससे (ईशान दिशासे ) १५ बिलस्तके अन्तरपर शान्तिनाथ देव, जिनकी. ऊँचाई ६ बिलस्त है, जमीनके अन्दर गड़े दुए है।कोई पुण्य-पुरुष उनको बाहर निकालकर, उनकी प्रतिष्ठाकर पुष्यका लाभ ले। [Eo, v, Belur tl. No 127 ] ५५० पर्वत आबू-प्रारत। [सं० १६०%११.६ई.] श्वेताम्बर लेख। [ Asiat, Res, XVI, P. 311, No xx, a.] Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होन्लेनहल्लिके लेख ५५१ होन्नेनहल्लिा-काद। [शक १२२५ = १३.३ ई.] [ होन्नेमाविक ( निवाणि प्रदेश ) में,बस्तिके प्रवेशके बायीं ओरके पत्थरपर] ___स्वस्ति श्री मूलसंघ देशियगण पोस्तकगन्छ कोण्डकुन्दान्वय हनसोगेय बळिय श्री बाहुबलि मनपारि-देवर प्रिय-शिष्य-रुमप्प श्री पद्मनन्दि-भट्टारक-देवर शक-वर्ष १२२५ शुमचतु-संवत्सरदन्दु होन्नेयमहरिहय बसदिय गन्धगुडियनु गद्याणं हदिनय्दनू कोटु माडिसिदरु (बाहुबलि-देवरु पारिल-देवर बरसिदर ) मङ्गळमहा श्री इवनळिदवरु नरकके लोहरु ।। [ पद्मनन्दि-भट्टारक-देवने, चो मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छ तथा कोण्डकुन्दान्वयके, और हनसोमेके बाहुबलि-मलधारि-देवके प्रिय शिष्य थे, होन्नयनहनि बसदिको १५ गद्याण' (गद्याण एक सिका (मुद्रा) विशेष है ) दिये और उसके लिये पगम-गुडि' भी बनवायी थी। (इस लेखको बाहुबलि-देव और पारिश्वदेवने लिखा या।)] PEC, IV, Hansur tl., No. 14] ५५२ श्रवणबेलगोलाकार। [शक १९५५=१३३ ई.] [जै० शि० सं०, प्र. भाग] Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह ५५३ गिरनार, संस्कृत [सं० १३००=१३.५. श्वेताम्बर लेख । [ Revised Lists ant. rem. Bombay ( ASI, XVI ), p. 362, No. 36, t. and tr.] पर्वत आबू-संस्कृत । [सं० १.१ = १५२२ ई.) श्वेताम्बर लेख । " [ Asiat. Res. XVI, P.3312, No XXII, a.] कुप्पटूला-संस्कृत तथा कार। वर्ष चित्रभानु [३१ ई. ( था .०२)(लू. राइस)] [पल्में, चौथे पाषाणपर ] श्रीमत्परम-गंभीर-स्यादादामोघ-लाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ द्वीपे जम्बूमति क्षेत्रे भारते श्रोधरा न्वते । चन्द्रगुप्तैन सु-क्षेत्र-धम्मगेहेन धीमता ॥ रक्षितो दक्षिणा-पा .... -जन-सम्पद्-विजितः। अरण्डैश्वर्य-निलयो नागरखण्ड-नाम-भाक् ।। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुप्पटूरके लेख खस्ति-भागस्ति विषयो विषयोऽखिल-सम्पदाम् । निलयो लय-राहित्यादासतां धीमतां सताम् ॥ तत्र ॥ नाळिकेराम्र-पूगा [...] चारामेण विराजितः । विद्यते कुप्पदराख्यो ग्रामो गोपेश-रक्षितः। तत्रास्ति पिराधीश-भू-सती-तिलकोपमः । जिन चैत्यालयो नाम कदन्यैः कृत-शासनः ।। तच्चत्य-पूजनोद्योग-चातुरी-वार्दि-चन्द्रमाः । चन्द्रप्रम इति ख्यातः पालनाथस्य बान्धवः ।। पितृ-दुग्गैश-निर्दिष्ट-गुरु पण्डित-सेवकः । वर्तमाने चित्रमानौ वत्सरे कातिकेच सः॥ मासे स कृष्ण-दशमी-तियो सोम-समाये। बारे दुरि-यम-राड्-दूत-ज्वर-गदार्दितः ।। आयु:-परिसमाप्तेश्च कृत-पुण्य-परिग्रहः । स-सुतः ... ... ... .. नित्य-सुखास्पदम् ।। श्री श्री [जम्बूद्वीप, भरतचेत्रमें श्रीधरपर्वतके पास नागरखण्ड नामका एक प्रदेश था। उसमें अनेक फल सहित वृक्षोंके बगीचों सहित, गोपेश द्वारा रक्षित कुप्पटूर् नामका गाँव था। उसमें राजा हरिहरकी भूमिमें एक चिन-चैत्यालय था, जिसमें कदम्बोंकी तरफसे एक शासन ( दान-लेख) मिला था। उस चैत्यमें पारवनाथके बान्धव प्रसिद्ध चन्द्रप्रभ थे बो कि एक पण्डितके गुरुये। (उत मितिको ) उसे यमराजके दूतोंकी तरफसे बुखार आ गया और अपनी जिन्दगीका अन्त करके नित्य सुखके स्थान ( अर्थात् स्वर्गको ) चला गया।] . [EC, VIII, Sorab tl., No. 263 ) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह हिरे-आलि;-कार। [वर्ष विजय = ११४६ ई. १ ( ल . राहस)।] [हिरे-आवडिमें, ध्वस्त जैन-बस्तिके सामनेके पाषाणपर] व्यय-संवत्सरद ज्येष्ट-सु ५ गु रामचन्द्र-मलपारि गुरुाळ गुड्ड अवलिय चन्द-गौडन मग राम-गौड जिन-पदवनयिर्यादद। [ लेख स्पष्ट है । १३४६ ई०; राजाका उल्लेख नहीं है। ] [ EC, VIII, Sorab tl., No. 123 ] तिरुमलै, तामिक। [?] १. स्वस्ति श्री [1] राजनारायणन् शंबुवराजक्कुं या२. ण्डु १२ वदु पोन्नूर मण्णपोभाण्डे ३. मगळ् नलाचाळ वैगैतिरुमलैक्कु एरियरुळ४. पाण्णन श्रीविहारनायनार् पोम्नेयिल्. ५. मायर् [1] धर्मायञ्जयतु [1] [यह लेख राजनारायण शम्बुवरानके १२ वर्षका है और बैंगै-तिरुमले, अर्थात् वैगेके पवित्र पर्वतपर जैन प्रतिमाकी प्रतिष्ठापनाका उल्लेख करता है। इस प्रतिष्ठापनाकी करनेवाली पोन्नूरकी निवासी मण्णे-पौनाण्डकी पुत्री नजाताल थी। [ South Indian ins.,I, No. 70 (p. 101-102) tatr.] Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे-भावलिके लेख ५५८ fet-arafa,—dega UM HUF | [ वर्ष विजय = ११५३ ई० (ल. राइस) । ] 1 [ हिरे-यावकिये, ध्वस्त जैन-बस्तिके सामनेके १० वें पाषाणवर ] श्रीमत्परम-गंभीर-स्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं बिन- शासनम् ॥ स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वरं अरि-राय-विभाडु श्री वीर हरियप्प-वोडेयर राज्योदयदन्दु विजय संवत्सरद पुष्य-सुद्ध ३० शु || श्रीमनाळुव-प्रभु रामचन्द्र- मलधारि-देवर गुड्डू सुरगियद्दळिय गोप-गौडनु मग अवलय कामगौण्डन मोम्म काम - गवुडन पञ्च - नमस्कारदिं मुडिहिद मङ्गल महा श्री [ लेख स्पष्ट है । १३५३ ई०; उस समय हरियप्प - वोडेयरका राज्य था । ] [ EC, VIII, Sorab tl, No. 110 ] ५५९ हिरे - आवलिः - संस्कृत तथा कार । [ शक १२७६=१३५४ ई० ] [ हिरे-मावकिमें, ध्वस्त जैन-बस्तिके चौथे पाषाणपर ] ३६९ श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वाटामोघलाज्छनम् । यात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् ॥ स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वरं अरि-राय-विभाडु हिन्दुब-राय-सुरताळ श्रीवीर-हरियप्प - वोडेयर राज्योदयदन्दु शक-वरुष १२७६ विजय- संवत्सरद पुष्यबहुळ तदिगे आ ॥ श्रीमनाळुव-प्रभु आवलिय काम-गौडन मग 'सिरियम - गौड Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन-शिलालेख संग्रह सिरिया-गौडन सुपुत्र मल-गौडनु सन्यासन-समाषियिं मुरिपि स्वास्तनादनु आतन अहिपेवकनु सहगमनदि स्वास्तेयादळु । मंगळ मा (महा) भी भी [अपरके उल्लेखोंके समान ही, महामण्डलेश्वर, शत्रु गवाओंका नाशक, हिन्दुव राधाओंका मुस्ताल, हरियप्प-वोडेयरके राज्यमें, स्वर्गगत मालगौड तथा उसकी मार्या चेन्नके, बिसने 'सहागमन' करके स्वर्ग प्रास किया, के लिये भी उल्लेख है।] [ EC, VIII, Sorabtl.. No. 104 ] ५६० मलेयूर,-संस्कृत तथा कार। [शक सं० ११०-१५५ ई.] [स्सी पहावीपर, बड़े गोड पत्थरके पूर्वको बोर] स्वस्ति समस्त-प्रशस्ति-सहितं श्री मूलसंघ देशिय-गण कोण्ड-कुन्दान्वय पुस्तक-गच्च हनसोगेय बळिय श्रीमद्-राय-राजगुरु-मण्डलाचार्य-समयाचरणरुमप्प हेमचन्द्र-महारकर शिष्यरु तेलुग आदि-देवरु ललितकीर्तिमहारकर शिष्यरु ललितकीति भट्टारकर शक परुष १२७७ मन्मयसंवत्सरद चैत्र-बहुळ १४ गुरुवारदल्नु तम्म निषिधि-निमित्वागि कनकगिरियल्तु माडिसिद विजय देवर प्रतिमेगे अवर मुख्यवाद आचार्य ओलगर मङ्गलमहा श्री श्री श्री [भी-मूलसंघ, रेशियगण, कोण्डकुन्दान्वय, पुस्तकगच्छ तघा इनसोगे-बळिके हेमचन्द्र-मटारकके शिष्य तेलुग आदि-देव और लालसकीर्ति भटारकके शिष्य ललितकी िमट्टारकने अपनी निषिधिके निमित्तसे कनक-गिरिपर विजय देवकी प्रतिमा बनवायी। ( EC, IV, Chamarajnagar t1, No. 158 ] Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कणवेके लेख ३६३ कण-संस्कृत व्याकर। [R R१.] [गवेमें, मनगदेके समीप, काजु-बस्तिमें एक पाणपर ] श्री-मून-संघदेशी। गण - क-गच्छ कोण्डकुन्दान्वयदोळ् । भूमियोळखिळ-कला। काम-करं चारकीर्ति पण्डित यतिपम् ॥ श्रीमत्परमगम्भीर-स्याद्वादामोपलान्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन बिनशासनम् ॥ स्वस्ति श्रीमन्महा-मण्डलेश्वरमरि-राय-विभाड भासेगे तप्पुव रायर गण्ड समुद्रत्रयाधीश्वर श्री-सङ्गमेश्वर कुमार भी-धीर-धुम-महारावर राज्य गेय्युतिर अवर कुमार विरुपण्ण-वोडेयरु मले-राज्यवनाळुवखि हरनाडोळगे तरताळ पाव-देवर देव-स्वद सीमा-सम्बन्धके आ-हेदर-नाडवह आस्थानद आचारियरु सरिंगळ कूडे संवाषव माडिदडे श्रीमन्महा-प्रधान नागण्ण प्रघानि-देवरसरू आ ... ... दा देवरसरू ... ... ... जैन-मापन आरगद चावरियल्लि मूरु-पट्टणद इलरनू हदिनेण्टु-कम्पणवनू करसि विचारिसि आ-नाडनोडम्बडिसि पडकोटु पूर्व-मरियादेयलि मूडलु बेट्ट तेङ्कल बेट्ट पडवलु हळ्ळि बडगलु होळे सीमेयागि पार्श्व-देवर देवस्ववेन्दु चतुस्सीमेयनु विवरिसि शक-वर्षे १२८४ शुभकत्संवत्सरद माघ-शुद्ध-पचमो-गुरुवाददलु आ-अरसु प्रधानरनू ( औरोके नाम दिये है ) तडताळनु आ-चन्द्रार्क नडव हागे शासनव नडसि कोट्टरू ( वे ही अन्तिम वाक्यावयव )! अक्षय-मुख-मी-धर्ममन् । इक्षिसि रक्षिसुव पुण्य-पुरुषाक्कुम् । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૬૪ जैन - शिलालेख - संग्रह भक्षिसुवातन सन्ता - | न द्रयमायु-दयं कुळ- यमक्कुम् ॥ श्री-मूहासंघ - देशिगणं- पुस्तक - गच्छ कोण्ड-कुन्दान्वय श्री- मूलसंघ, देशि गम, पुस्तक-गन्छ, तथा कोण्कुन्दान्वयमें चारुकीत्तिंपण्डित-यति थे । बिन शासनकी प्रशंसा । बिस समय महामण्डलेश्वर, संगमेश्वर के पुत्र वीर-बुक - महाराय राज्यका शासन कर रहे थे' हेदूर - नाड्के तडताळके पार्श्व-देव मन्दिरकी जमीन की सीमाओंके विषय में जब हेदूर-नाड्के लोगों और मन्दिरके आचार्यों में झगड़ा चल रहा था, - प्रधानमंत्री नागण्ण और अनेक अरसू लोगोंने, इसकी जांच-पड़ताल करके, फैसला कर दिया। और इस बातका शासन (लेख) लिख दिया । 1 [ EC, VIII, Tirthahalli 1., No. 197 ] ...... ५६२ हिरे आवलिः - कमर [ शक १२२६ (Sio), वर्ष पार्थिव = १३६३ ई० १ ( लू. राइस) । ] [ हिरे-महि में, ध्वस्त जिम-बस्ति के सामनेके द्वितीय पाषाण पर ] "श्रीमतु । विजयानगर - मुख्यवाद- समस्त पट्टणाधीश्वर श्री-अभिनव बुकराय राज्यं गेटवल । सकल-गुण-सम्पन्न सिद्धान्त - देवर गुड्डु । रत्न-त्रयाराधकरुम् । आवलिय बेख - गौण्डन सुत चन्द - गौण्डन तम्म । सक-वरुप १२२६ मेय पास्थिव संवदर ब १९ सोमवारदलु । सन्यसन-समाधि - विधि‍ि मुडिहि स्वर्ग-प्राप्तियादनु । मङ्गलमस्तु । मानव ...... लनु -1 मानदोळं नडिय बहूमोल्दा-तेरदिम् 1 ज्ञानगळ सलहुतिप्पम् | दान रतं रा • पुरकभिरामन् ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे - आवळिके लेख ३६५ [ बिस समय विजयनगर और दूसरे समस्त पट्टण ( नगरों ) का अधीश्वर, अभिनव-बुक - राय राज्य कर रहा था :-- सिद्धान्त - देवका गृहस्थ- शिष्य, आवळि बेच - गौडके पुत्र चन्द गौडका छोटा भाई, ( उक्त मितिको ), सन्यपन और समाधि - विविसे मरकर, स्वर्ग गया । उसकी प्रशंसा में श्लोक | ] [ Eo, VIII Sorab tl, No 102 ] ५६३ कुप्पहूरुः - संस्कृत तथा कक्ष । [ शक १२८१ = १३१७ ई० ] [ कुप्पटूरमें, जैन-वस्तिके पास के वीरकलू पर ] शक- कार्ल नव-वारण-द्वि-शशि-संख्योक्त-प्लवंगान्दत् - ॥ त्सुकदाषाढद मासदोळ् विधु-लसद् वारं समन्तोन्दिरत् । प्रगट - बेत्ततिसय्यत्रा श्रत- मुनि श्री पाद सेवा -रतर् । सु-कवीन्द्र-स्तुत देवचन्द्र मुनिपर स्वर्-लोकमं पोर्दिदर् ॥ श्रुत-मुनिगळ शिष्यर भू -। नुत-देशी- गणद देवचन्द्र- प्रतिपर् । यति-कुल- ललामरत्यूर् -1 जित-तेवरन्ने गदरादिदेवर गुरुगळ् ॥ श्रुत-मुनि-वल्लभेन्द्र-गुरु दीच्चेयनीयलदादियागतूर् -1 जि [त ]-गुण-शील-सच्चरि कूडि वेत्त् । अतिस (श) य - जैन-धर्म्मद निमियोलोन्दि विराबिसि दी -1 क्षितियोळु देवचन्द्र-मुनि-वर्य्यरुमागम को विदन्निंनम् ॥ जीर्ण-बिन-भवनम घरे । वण्णिसबुद्ध रिसि कीत्तियं तळेदरु सम् पूर्णतर-चरितरेनि [सि ] ई । अव - गम्भीर देवचन्द्र-अतिपर् ॥ नेगळ्दा मुनिपर् भव-मा- । लेगळिक सन्यसनदिं समाधियनेदिद्द् । ...... Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह अगणित-महिमेयोलोन्दिद | सु-ग [ ति ] यनान्तविनेय-वन-नुत-चरितर् ॥ श्रीमत्परमर्गमीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् || श्रुत-मुनि-वर्य्याद् भयात् पूज्य श्री देवचन्द्र-परम-गुरुः । सत्-तपो-निळयः ॥ तच्छिष्य आदिदेव ३६६ ... शुभमस्तु ॥ [ ( उक्त मितिको ) प्रसिद्ध श्रुतमुनिके चरणोंका उपासक देवचन्द्रमुनिपने स्वर्गलाभ किया । श्रुतमुनिके शिष्य संसार- विख्यात, देशी-गणके देवचन्द्र- प्रतिप यतियों के कुलमें तिलक-समान थे, वे आदिदेवके गुरू थे। उनकी और भी प्रशंसा, जिसमें कहा गया है कि उन्होंने एक ध्वस्त जिनमन्दिरका पुनरुद्धार करवाया था । श्रुतमुनि से सन्मानित देवचन्द्र थे जिनके शिष्य आदिदेव थे । ] [ Ec, VIII, Sorab tl., No 260 ] ५६४ हिरे आवलि - कमद [ वर्ष प्लवंग - १३६० ई० ( लू० राइस ) 1 ] [ हिरे व्यवखिमें, ध्वस्त जैन वस्ति के सामने हवे पाषाण पर ] स्वस्ति श्रीमतु प्लवंग-संबध्छुरद अस्वैम- बहुळ- ञ्चमी - शुक्रवारदन्दु श्री मूल संघद वारिसेन- देवर गुड्ड मसण-गौडन मग गोरव गौड पञ्चनमस्कार -समाधि-विधियिं स्वस्तनाद || " [ लेख स्पष्ट है । १३६७ ई०; राजा के नामका उल्लेख नहीं है । ] [Ec, VIII, Sorab tl., No 109] Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवणबेलगोलाके लेख ५६५ श्रवणबेलगोला - कचद । [ शक १२६०=१३६८ ई०] ५६६ कल्य; - संस्कृत तथा कन्नड़ । [ शक १२४० = १३६८ ई० ] [ कक्ष्य (सातनूर परगना) में, चिकण्णके खेवमें एक पायावर ] स्वस्ति समस्त प्रशस्ति-सहितम् पाषण्ड- सागर महा-बडबा - मुखाग्नि ओरङ्ग-राज-चरणाम्बुज-मूल-दासः । श्री - विष्णु लोक-मणि-मण्डप - मार्ग- दायी रामानुजो विजयते यति-राज-राजः ॥ ... ३६७ [ जै० शि० सं०, प्र० भा० ] शक वर्ष १२६० नेय कालिक संवत्सरद श्रावण-शु २ सो-चलु श्रीमन्महामण्डलेश्वरं अरि-राय-विबाद भाषेगे तप्पुव रायर गण्ड श्री-वीरबुक - रायनु पृतु ( थु ) वी राज्यवनाळुव कालदलि जैनरिंगे भक्तरिगे संवादवादक्षि आनेयगोन्दि- होसपट्टण- पेनगोण्डे-कळ्यहोळगाद समस्त - नाड जैनरु बुकगयङ्गे भक्तरु अन्यायदलु कोल्लुवदनु विन्नहं माडलागि कोविल तिरुमले पेरूमाळ्कोविलु- । तिरुनारायणपुर - मुख्यवाद सकलाचार्य्यं सकळ - समर्थगछु सकळ - सात्विक मोष्टिकरु तिरिर्माण- तिरुविडि तन्दवरु नाळ्वत्तेष्टु-तले-मकळु सावन्त - बोवर्कलु तिरुकुल- जाम्बवकुल- वोळगाद पदिनेष्टु-नाडा-भी-वैष्णवर कय्यलु महारायनु निम्म वैष्णव- दसनद मषेवोकेरुवेन्दु कोड-सम्बन्ध पञ्च- बस्तिगळलि कळस जगळे-जगटे-मोदलाद पञ्च महा-वाद्यऊ सलुऊटु अन्यरि Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ जैन-शिलालेख-संग्रह [गे] नरकूडदु जैन-समयके सलुबुदेन्दु ... ... ... ... वृद्धिपाद ( बायीं ओर ) श्री-वैष्णव-समय ................ यी-मर्यादे ... ... ... ... ... ओळगुळ बस्ति - श्री-वैष्णव ... ... ... ... नेटु कोट्टेवु ( बाकी का पढ़े बाने लायक नहीं है) रामानुज की स्तुति । ( उक्त मितिको), विस समय महामण्डलेश्वर वीर-बुक-राय पृथ्वीपर राज्य कर रहे थे :-जैनों और भक्तों (वैष्णवों ) में कोई विवादका विषय उपस्थित होने पर आनेयगोन्दि, होसपट्टण पेनुगोण्डे और कल्यह,' इन नाडोंके जैनोंने दुक-रायको इस बातका प्रार्थनापत्र देकर कि १८ नाडांके --वैष्णवोंके हाथोंसे जैन लोग अन्यायसे मारे जा रहे है,-महारायने (यह घोषणा करते हुए कि) "हम तुम्हारे वैष्णव दर्शनमें बाधक नहीं होंगे" निम्न हुक्म दिया :-कलश इत्यादि पांच बस्तियोंमें पांच महा वाच बच सकते हैं। और में वे नहीं बनाये ना सकते | वे जैन समय (या समऊ ) की है। श्री-वैष्णव समय, बो बढ़ गया है ... ... ... ... (बाकीका अधिकांश अपठनीय है )]। [ Eo, IX, Magadi tl., No 18] ५६७ पचिगनहलिए। मिति ( नम्बालगूर प्रदेश) में, पीके पास, मेमिवाय. बस्तिके उत्तर एक पावाण पर] श्रीमत्परमगम्मीरस्थादादामोघलाञ्छनं । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥१॥ ..जहाँ यह शिकावेस है, वहाँ बक्या मते हैं। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह बिस समय पेरुमाल - देवरस शान्तिसे सुखपूर्वक राज्य कर रहे थे, उस समय उन्होंने ‘त्रिजगन्मङ्गलम्' नामके चैत्यालयका निर्माण कराया, और माणिक्य-देवको प्रतिष्ठित किया; साथ ही हुल्लनहल्लि के प्राचीन मन्दिर 'परमेश्वर चैत्यालय' का भी बीर्णोद्धार किया, तथा दोनों चैत्यालयों में विधिवत् सतत पूजा चालू रहे, इसके लिये भूमिदान किया । 1 अन्तमें इन मन्दिरोंकी रक्षा तथा उनसे लगी हुई भूमिका जो गुणवान् आदमी रक्षण करेगा उसके लिए निरन्तर सुखकी मङ्गल कामना की गई है । ] ५७२ श्रवणबेलगोला - संस्कृत भग्न । शक १२६२ = १३७२ ई० } • [जै० शि० सं० प्र० भा० ] ४०६ ५७३ श्रवणबेलगोला -- कचड़ [ बिना कालनिर्देशका ] [ जै० शि० सं०, प्र० मा० 1 Ga हिरे - आवलि; — कश्शद । [ शक १२१८ = १३७६ ई० ] 1 [ हिरे-महिमें, ध्वस्त जिन-वस्तिके सामनेके छठे पाषाण पर ] स्वस्ति भीमतु शक वरुप १२९८ नळ -संवत्सरद आश्विन शु १२ गु श्रीमन्नाळ्व-महा-प्रभु आवलिय चन्द गौण्डन मग बेचि गौण्डनु रामचन्द्र Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे - आवलिके लेख मतधारि र गुड्डनु बेचि - गौण्ड नु वीर-बुक्क रायन राज्याभ्युदयदन्दु पञ्च- नमस्कारदिं मुडुपि स्वर्गस्तनादनु आतन किरिय-मदवळिगे आ-मुद्दिगौण्ड सहगमनदि बिरु मुक्तिप्राप्तरादरु आवलिय प्रभुगळ सन्तान मसणगौडन मग गोरव - गौड काल-गौड गोप-गौड चन्द गौड आ-चन्द्र-गौडन मग बेचि - गौड बू... गौडन मनेय गोरवोजन मग मादोज नागोज मादि निशितिय मङ्गळ महा श्री श्री श्री [ ( उक्त मितिको ), आवलि चन्द - गौडके पुत्र बेचि-गौड, बो रामचन्द्रमलधारिका गृहस्थ-शिष्य था - वीर - बुक्क - रायके राज्य में, पश्ञ्चनमस्कार पूर्वक मर गया और स्वर्ग गया । उसकी नवीन स्त्री मुद्दि - गौण्डिने 'सहगमन' किया, और दोनोंने 'मुक्ति' पायीं । आवळि प्रभुओंने (जिनमें कईओं के नाम निर्दिष्ट हैं ) यह स्मारक बनवाया । बनाने वाला गोरबोबका पुत्र मादोन नागोल था । ] [ Eo, VIII, Sorab tl., No 106. ] ५७५ श्रवणबेलगोला - कचड़ । [ वर्ष नक=== १३७६ ई० ( लू. राइस ) ] [ जै० शि० सं०, प्र० मा० ] ५७६ गिरनार - संस्कृत- भग्न | [ बिना काळ निर्देशका ] श्वेताम्बर लेख । ४०७ [ Revised Lists ant rem Bombay ( ASI, XVI ) p. 347-351, No 7 t. and tr. ] Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह ५७७ तवनन्दिकाड़-मग्न । [शक १०१३..] [वन्दिमें, सातये समाधि-पाषाणपर ] श्रीमन्महा-मण्डलेश्वर श्री-वोर-हरिहर-पय विषय-राज्यं गेय्युत्तमिति शक-वरुष १३०१ दनेय काळयुक्ताक्षि संवत्सरद श्रवण-शुद्ध १ शुक्रवारदलु श्रीमत्तनिधिय शान्ति-तीर्थकर-पाद-पद्माराधक- दासि-वेसि-पर-नारी-सहोदर श्रीमतु भीमनाव-महा-प्रभुतवनिधिय बोम्मणं मनेय ... ... नि श्रोरा ... ......... मलधारि-देवर प्रिय-गुड्डु ... ... ... (४ पंक्तियां पढ़ी नहीं जा सकती है)। [जिस समय महामण्डलेश्वर वीर-हरिहर-राय विजयो राज्य पर शासन कर रहे थे:-( उक्त मितिको ), तनिधि के शान्ति-तीर्थकरके चरणोंका पूजक, एक दासीके वेषमें, रा ....... मलपारि देवका गृहस्थ-शिष्य, आळव-महा-प्रभु तवनिधि बोम्मणके घरका पवित्र व्यक्ति,..............] [ EC, VIII, Sorab tl., No. 200.] तवनन्दि; काचा-भग्न । [शक १३.1३७६ ई.] [बन्दिमें ही, तीसरे समावि-पाषाणपर] भीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तवनन्दिके लेख श्रीमन्महामण्डलेश्वरं अरि-राय-विभाड भासेगे तप्पुव-रायर गण्ड हिन्दु-रायसुरत्राण पूर्व्व-दक्षिण-पश्चिम- समुद्राधीश्वर श्री वीर बुक्क-रायन कुमार श्री हरिहर ययनुराज्यं गेय्युत्तमिति ॥ स्वस्ति श्री जयाभ्युदय शक-चरुष १३०१ नेय 'काळयु [ फ्रि ]- नाम -संवत्सरद पुण्य ब ३ सोमवारदलु श्रीमाळुषमहाप्रभु प्रजे मेच्चे गण्ड अलिय हदिनेण्टु-कम्पणक्के शिरोमणि एनिए महाप्रभुगळादित्य तवनिधिय बोम्म- गोडनु सकल-सन्यसन - विवियि मुडिपि स्वर्ग प्राप्तनादनु || आतन गुणावलि एन्तेन्दडे || पारावार-त्रयाधीश्वरनतुळ-बळं-बुक्क-राय लोका- । विनय धर्मङ्गळं जैन-का धारङ्ग चारं ळे गड ...... कारं परस यादि देव परद दरिसिद जैननो कलि परम-निनेश्वर ... ... ... ... ... मर ... कीर्त्ति वृत्तं तवनिधि यधिपं ... माडि पुण्या- । बोम्मणं मेरु- धैय्र्यम् ॥ तान् पाकनिन्दु भक्ति यिम् । नेम्ब *** I दृढ़-चित्तनी तवनिधि प्रभु ब्रह्मनि क-लोकदोळ् । जिन-पतियन्तरङ्गदोळ्गर्पं ( बाकी का पढ़ा नहीं जा सकता । ) ... ... बगं ...... | You ... [ बिन शासनकी प्रशंसा । जिस समय, ( अपने पदों सहित ), वीर-बुकरायके पुत्र हरिहर - राय शासन कर रहे थे : - ( उक्त मितिको ), आळुव महाप्रभु, १८ कम्पणोंका शिरोरत्न, महा-प्रभुओंका सूर्य्य तवनिधि बोम्म - गौड 'सन्यसन' की विधिपूर्वक मर कर स्वर्गको गया । उसकी प्रशंसा ।] [ EC, VIII, Sorab tl., No. 196 ] Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ जैन - शिलालेख संग्रह ५७९ ऊद्रिः - संस्कृत तथा कचड़-भग्न । [ शक १३०२ = १३८० ई० ] [ अद्रि गाँवके मध्यमें एक पावाणपर ] श्रीमत्परमर्गंभारस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् || दिनु स्वामि- काय्यैव ! यैदि···रुतिरनु कण्डनी-मार्बलमम् । At as - खण्ड माडिद । यैदिद जिन-पाद-पद्ममं बैचप्पम् ॥ अन्ते ॥ वारिधि- परिवृत-वर-घर । णीरङ्गद-मध्यदमर गिरियि तेङ्कलु राराजिप - भरत - घरा- । नारी-भूषणमेनिष्प कुन्तळ - देशम् ॥ तां नेरे मेरेबुदु बमवसे । पनिच्छसिर समेतमदरोळ् में- । ... निवदिं पदिनेण्टेनिप् । उन्नत - कम्पणके राजधानियेनिक्कुम् ॥ मत्ता कम्पणनिचयम- । निचरोळं नेगळ्द हिरिय-विदरेय- नाड्- | उत्तममदरोल् सुख-सम्- | पत्ति - स्थानाभिवृद्धि बुद्धरे मेरेगुम् ॥ वृ॥ अदु नाना-देव- हर्म्यं प्रयुतवतुळ - वापी-तटा काञ्चितं सम्- । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्रिके लेख ४९१ पदमं ताळ्दिप्र्प-विप्राधरिवळ-बन-समेत लसत्पुष्पवाटीबिदितोद्यानादि-युक्तं प्रकट-कळम-जाळ-प्रपता ..... । तोप्पुदु सकळ-मुनि-प्रेम- धर्माभिरामम् ।। ....."एने मेरे उद्धरे..।। ..."नत-स्थळमागिरल्के तां सौन्दर्यदिम् । मनुज-मनोज बैचप्पन् । अनुपम-कीर्ति-प्रभावदिन्दोसे दिप्पम् ।। क्षितिनुत-शान्ति-जिन-क्रम-। शतपत्र-मधुव्रतं सुरञ्जन-मित्रम् । चतुरं बैचय-नायक-। न तनूनं रानिसिप्पनी- बैचप्पम् ॥ भू-देवाशीवादा। हा निव-शिर-करण्ड.........| .. दं वर्त्तिसे मेरेवम् । मेदिनि-मीसेयर गण्डनी-बैचप्पम् ॥ तदनन्तरम् ॥ विलसित-विजयानगरिय । नेलेवीडिनोळे वीर-बुक-राज-तनूजम् । बलि-निभ-हरिहर रायम् । सले राज्यं गेय्युतिईनति-मुददिन्दम् ॥ तत्पादपद्मोपजीवि॥ वृ॥ माधवराय अप्रतिम-तिय ना"'उ[दाग्र-साहसा- ! भोधिगळेन्दु रणद दन्तिगे.... मोरद-कालदोळ् । बोधन-रूपिनि "गोण्ड' "रणं.."बुद्धि-वि-। द्याधरर आक्षणं तो 'तोळेय... ... ... || Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जैन शिलालेख-संग्रह वर-वस्त्राभरण'.. ..... च्छत्रमं... ...। .... बातम ... ... ... सगळम् चामरो-। स्करमं कप्पुर दम्बुल-प्रकरम कोण्डा गीत । ष्ठुरदी-कोहण-देशजर रवळर् एनुत्तागेरडं माडदे ।। जल्लाम्बेयोळं धात्री। वल्लभ माधव निरुत्तरमझिं तर । रलल्लिं निलुतं बरल। एल्लर परेयल्के कण्डु कलि-बैचप्पम् ।। ॥ यमं देरेगेइं नेलक्किळिवुतं पारदेरि नोडुत्ते भल्- । लेयनुक्कैरिद ... ... ... तारुं तटुगुत्तुत्ते बल-। मेयोळड्डु बरुत्तिर्प कोङ्कणिगरं कीनाश-लोकक्के निश् । चयदिन्देग्दिसुतं पराक्रमयुतं बैचप्पनिन्तिर्पिनम् ।।' केलवर कोङ्कणिगर म्मार-1 म्मलेवदटिं बण्डु-ट्ट नेटने परितन्दु । अलगड्डणम चाळिसि । नेलनदिरलु ... ... ... मेयद ।। तलेयिन्दं ... सिडि ... तूळदाडि खङ्गांशु कनोळ् । किडि सूसित्तेम्बिन ... रदटिनि पाय्दु ... ... बन्- । दडे कट्टी-बैचपं माधव-नरपति नोडल्के सङ्ग्रमदिम् । किडि-खण्डं माडिदं मार्बलमनदटिनि भीमसेनोपमानम् ॥ आ-रण-रंगदोळ बिडदे कूगि नेगळद-वीर .. ...। ... .. बिटु नेटने समाधि-विधानमोन. चित्तदोळ् । मार-विरोधि ... .. नूर्जित-नाक-लोकमम् । सारिदनुत्तम-प्रभु-कुलाम्बर-चन्द्र-मरीचि बैचपम् ॥ निरुतं श्री-शक-सले सासिरद मूनूरोन्द रौदि-ब-। स्सरवैशाख-सित-त्रयोदशि-लसद्-भौमाह्वयं धार । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊद्रिके लेख ४१३ बरे बैचप्पनुदार-चारु-जिन-पदाम्भोज-सक्तं मनो-। हर रूपं वर-धात्रियोळ् मडिदु नाक-क्षेत्रमं पोर्दिदम् ।। [वैचप्पने किस तरह जिन चरणों का आश्रय लिया,इसका इस लेखमें वर्णनहै । भरत क्षेत्र-कुन्तलदेश-बनवसे १२०००-१८ कम्पण-उद्धरे-और उसमें बैचप्पका वर्णन | बुक्कराजके पुत्र हरिहर-राय विजयनगरीमें राज्य कर रहे थे। कोकणदेशसे लड़ाई का वर्णन । उसमें बैचप्प की जीत हुई।] [ EC, VIII, Sorab tl.,:No. 152 ] ५८० मलेयूर-कामद। [विना कार निर्देशका, पर लगभग १३८० ई.] [उसी पर्वतपर, पार्श्वनाथ बस्तिके प्राङ्गणमें दक्षिणकी मोरके पाषाणपर] बाहुबलि-पण्डितदेवरु । नयकोर्णि-प्रति-नन्दनं सकळविद्याचक्रवाहयं द्वय-भाषा-कविता-त्रिणेत्रनुरु-होरा-शास्त्र-सर्वतकम् । नययुक्तमवर-मूल-सङ्घदोडेयं देशी-गणाग्रेसरं । प्रियदं पोस्लुक ( पुस्तक ) गच्छ-पूर्ण-तिलकं श्रीकोण्डकुन्दान्वयं ॥ [बाहुबलि-पण्डित देव-नयकीर्ति-व्रतीके पुत्र, सकलविद्याचक्रवर्ती, दयभाषा कवितात्रिनेत्र, होराशास्त्रसर्वज्ञ, नययुक्त मूलरंघाधिपति, देशीगणाग्रेसर, पोस्तुक गच्छके पूर्ण तिलक और कोण्डकुन्दान्वयी थे। [ EC, IV, Chamarajnagar tl., No. 157 ] Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह ५८१ तिरुप्परुचिक्कुणूरु ( काञ्जीवरम् के निकट ) - वामिह । ( दुडुभि वर्ष = १३८२ ई० (हुआ) ] १—स्वस्ति श्रीः [ ।। ] तुन्दुभिवर्षं कान्तिगै मादत्ति । पूर्व्व-पत्तुतिङ्गत्-किळ - मै पौर्णे पेरताकात्ति २--नाळ् महामण्डलेश्वरन् मरिहरराज कुमारन् श्रीमद्- बुक्कराजन् धर्म आग वैचय- दण्डनाथ- पुत्रन् ३- जैनोत्तमन् इरुगप् [ प ]- महाप्रधानि ति [ रुप] व्यरुत्तिक्कुरू-नायनार त्रैलोक्य वल्लभकु पूजैक्कु ४- शालैक्कु तिरुप्पणिम् [कु] म् मावण्डूर्यब्लि महेन्द्रमङ्गलं नापकैल्लैयुं इटै-इलि पक्षिच्छन्दभाग चन्द्रादित्यवरैयुं नडक्कत्तरुवित्तार धर्मोयं जयतु [ काञ्जीवरम् के निकट तिरुप्परुत्तिक्कुण्डमें वर्धमान जिनमन्दिरके भण्डारकी उत्तर तरफकी दीवालपर नीचे की ओर यह तामिल तथा ग्रन्थ लेख उत्कीर्ण है । इसमें बताया गया है कि वैचय दण्डनाथ ( सेनापति ) का पुत्र इरुगप्प महामन्त्रीने मावण्डूर तालुकेका महेन्द्रमङ्गलं गाँव जैनमन्दिरको दानमें दे दिबा था | उसने यह दान हरिहर द्वितीय के पुत्र अरिहरराज, अर्थात् बुक द्वितीय, के पुत्र बुक्कराज के गुणके कारण किया था । अतः दुन्दुभिवर्ष, जिसमें दान किया गया था, १३८२ ई० से मिलना चाहिये । ] [ EI, VII, No. 16 A. ] Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस्तीपुरके लेख ५८२ बस्तीपुर - कवर । [ शक १३०५ = १३८३ ई० ] [ बस्तीपुर ( बळगुळ तालुका) में, सोमा-पाषाण पर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलान्छनम् । ૪૧ जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनम् ॥ श्री-मूलसङ्घ कानूर-गण तिन्तिणि गच्छ कोण्डकुण्दान्वयद भीवासुपूज्य- देवर शिष्यरु श्री सकलचन्द्र देवर तपद प्रभावमेन्तेन्दोडे ॥ स्थिरवाक्यं सु-व्रताम्भोनिधि सकळ जगत्-पावनं राजपूज्यं परम-श्री- जैन धम्र्माम्बर- दिनकरनुद्यत्तपोमूर्त्ति णा । भरणं त्रैविद्य-चक्र श्वर - विमल-पदाम्भोज-बिङ्गं बिनश्रीचरणालंकार - शीरुष (न) म् सुकविजन - यत प्-सन्मुनिं राजहंसं ॥ सोस्ति श्रीशकर्ष १३१५ नेय सुभकृतु-संवत्सरद श्रावण मास - सुद्द नाड्यआदित्यवार-सिंह-लग्नदनि कूरिगिहळ्ळिय प्रभु-गळु गौड -कुल- तिलकर मरेंहोक्कर-कावरु ं शिथिल-बेङ्कोम्बरु सत्यदति कर्णरुमप्प केत-गौड राम-गोड सम्बुव-गोड मादि-गोड मोदलाद समस्त गौडगळु बस्तिय प्रतिष्ठेय माडिसि बस्ति बडगण बिट्ट बेद्दलु को १० पारुष-देवर अमृतपडि ' देवोजन बहर मंगल महा श्री श्री श्री त्तक । [ मूलसङ्घ, कानूरगण, तिन्तिणि गच्छ और कोण्डकुन्दान्वयके वासुपूज्य देवके शिष्य सकलचन्द्रदेवके तपकी स्तुति या प्रशंसा है । कूरिंग (गि) हक्षिके गौड़ोंने एक पारुष-देवकी वस्ति ( मन्दिर ) बनवाई और उसे दान दिया । ] [ EC, III, Seringapatam tl. No. 144 ] ppp Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ जैन-शिलालेख-संग्रह हिरे-आवलि;-कना। [वर्ष उहारि = ११८९ ई. १ (लू. राइस)।] [हिरे भावडिमें, १२ पाषाणपर] स्वस्ति श्रीमतु रुधिरोद्गारि-संवत्सरद ज्येष्ठ शुध-पुण्णमि-सोमवारदन्दु श्री-मूल-संघद वीरसेन-देवर गुड मुद-गोड मगळ एकमतियवे पञ्चनमस्कार-समाधि-विधियिं स्वर्गस्येयादळु अचेयबे गौडि माडिसिद कलु ॥ बोपोहोज गेयिद कनु । [तेख पहिलेके ही लेखों के समान है, अतएव स्पष्ट है। सन् १९८३ ई. का है। किसी राजाका उल्लेख नहीं है ।] [ EC, VIII, Sorab tl.. No. 112 ] रावन्दूर-संसात और काद।। [शक १०=n .] [ रावन्दूर ( रावन्यूर प्रदेश) में, बस्तिके एक पाषाणपर] श्रीमत्-परमगंभीरस्यावादामोघलाम्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं बिन-शासनम् ।। स्वस्ति श्रीमद्-राय-राज-गुरु-मण्डलाचार्यरेनिसि श्री-मूलसंघदेशीय-गण पुस्तकगच्छु कोण्डकुन्दान्वय यिङ्गळेश्वरद बळि श्री मदमयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्चिगळ वत्-शिय्यरु श्री-भ्रुतमुनिगळु तत्-शिष्यरु प्रभेन्तुगळु अवर प्रियागशिष्यरु श्री-श्रुतकीति-देवरु शक-वर्ष १३०६ नेय रुधिरोद्गारि-संवत्सरद द्वितीय-भाद्रपद-ब ८ आदित्यवारदलु मुक्तिवधू-वक्षभरादर तत्प्रतिनिधियनु सुमति Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ गवन्दूरके लेख तीर्थकरनू ई-चैत्याल[य]द जीणोद्धारवनु अवर शिष्या मादिदेव मुनिगलु श्रुतगण-मुख्यवाद समस्तभव्यबनङ्गळु माडिसिद शासन वद्धतां बिन-शासनम् । [मूलसङ्घ, देशियगण, पुस्तकगच्छ, कोण्डकुन्दान्वय, और इंगुलेश्वर-बलिके अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य श्रुतमुनि उनके शिष्य, प्रभेन्दुके प्रियाय शिष्य-श्रुतकीति-देवके मुक्तिवधूके वल्लभ होने के बाद ( अर्थात् स्वर्गस्य हो बानेपर ), उनके शिष्य आदिदेव मुनि तथा श्रुत-गणके जैनोंने उनकी । तथा सुमति तीर्थङ्करकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा कर इस चैत्यालयको सुपरवाया । ] [ Eo, IV, Hunsur tl., No. 123. ] ५८५ विजयनगर-संस्कृत । [शक १.७=११८६ ई.] ( जैन मन्दिर के सामने दीपस्तम्भ पर) यत्पादपंकबरखो रखो हति मानसं । स चिनः श्रेयसे भूयाद्यसे करुणालयः । [१] श्रीमत्परमगंभीरस्यादादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं बिनशासनम् ॥ [२] भीमूलसंबनि नंदिसंघ [स्त ] स्मिन् बलत्कारगणोतिरम्यः । तत्रापि सारस्वतनाम्नि गच्छे स्वच्छाशयोऽभूदिह पसनदो॥ [३] आचार्य कुंड [कुंदा] ख्यो वक्रमीवो महामतिः । पलाचार्यों गृध्रपितच्छ इति नन्नाम पंचधा ॥ [४] केचित्तदन्वये चारुमुनयः रवनयो गिर्रा [1] बलघाविव रत्नानि बभूवुर्दिव्यतेजसः ॥ [५] तत्रासीच्चारुचारित्ररत्नरत्नाकरो गुरुः । धर्मभूषणयोगीन्द्रो भट्टारकपदाधितः ॥ [६] Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह भाति भट्टारको धर्म्मभूषणो गुणभूषणः । यद्यशः कुसुमामोदे गगनं भ्रमरायते ॥ [७] शिष्यस्तस्य मुनेरासीदनग्गलत शेनिधिः । श्रीमानमरकीर्याय देशिकाग्रेसरः शमी ॥ [ ८ ] निखपदमपुटकबाट घटयित्वानिलनिरोध [ तो ] हृदये । अविचलितबोधदापं तममरकर्त्तिं भजे तमोहरणम् ॥ [ ६ ] केपि स्वोदरपूरणे परिणता विद्याबिहीनांतरा योगीशा भुवि संभवंतु बहवः किं तैरनं तैरिह | धीर: स्कूति दुर्जयातनुमदध्वंसी गुणैरुज्जितेराचार्य्योमरकीत्तिशिष्यगणभृच्छ्री सिंहनन्दो व्रती ॥ [ १० ] श्रीधर्मभूषोजन तस्य पट्टे श्री सिंहनंद्यागुरास्तधर्म्मा । भट्टारकः श्रीजिनधर्म्महम्यंस्तंभायमानः कुमुदेन्दुकीत्तिः ॥ [ ११ ] पट्टे तस्य मुनेरासीद्वर्द्धमान मुनोश्वरः । श्री सिंहनंदियोगींद्रचरणांभोवषट्पदः ।। [१२] ४१८ शिष्यस्तस्य गुरोरासीद्धर्मभूषणदेशिकः । भट्टारकमुनिः श्रीमान् शल्यत्रयविवज्जितः ॥ [ १३ ] भट्टारकमुनेः पादावपूर्वकमले स्तुमः । यद मुकुलीभावं यांति राजकराः परं ॥ [ १४ ] एवं गुरुपरंपरायामविच्छेदेन वर्त्तमानायांआसीदसीममहिमा वैशे यादवभूभृतां [] अखंडितगुणोदारः श्रीमान् बुकमहीपतिः [१५ C उदयद्भूभृतस्तस्माद्गाबा हरिहरेश्वरः । कलाकलापनिलयो विधुः क्षीरोदधेखि ॥ [ १६ ] यस्मिन् भर्त्तरि भूपाले विक्रमाक्रांतविष्टपे । चिराद्राजन्वती हंत भव [ त्येषा ] वसुंधरा । [ १७ ] Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरके लेख ४११ तस्मिन् शासति राजेन्द्र चतुरम्बुधिमेखला । धरामचरिताशेषपुरातनमहीपतौ ॥ [१८] आसीत्तस्य महीनानेः शक्तित्रयसमन्वितः । कुलक्रमागतो मंत्री चैवदंडाधिनायकः ॥ [१६] द्वितीयमंतःकरणं रहस्ये बाहुस्तृतीस्समरांगणेषु । भीमान्महा चैच [५] दंडनायो जागर्ति कार्ये हरिभूमिभर्तु : ।। [२०] तस्य श्रीचैचदंडाधिनायकस्यो [ जि ] तश्रियः । आसी दिगदंडेशो नंदनो लोकनन्दनः ।। [२१] न मूर्ती नामूर्ती निखिलभुवनाभोगिकतया शरद्राजद्राकाविटनिटिलनेत्रद्युतितया । प्रभूता कीत्तिस्सा चिरमिरुगदण्डेश कथय त्यनेकांताकांतात्परमिह न किञ्चिन्मतमिति ।[२२] सद्वंशजोपि गुणवानपि मार्माणाना __माधारतामुपगतोपि च यस्य चापः । नम्रः पराविनमयभिरुगक्षितीश स्योच्च नाय रपतु शिक्षयतीव नीतिम् ॥ [ २३ ] हरिहरधरणीशप्राज्यसाम्राज्यलक्ष्मी कुवलयहिमधामा शौर्यगाम्मीर्यसीमा । इरुगपधरणीशास्सहनन्यायंवर्य प्रपदन [लि ] नभृगस्स प्रतापैकभूमिः ॥ [२४] स्वस्ति शकवर्षे १३०७ प्रवर्तमाने कोषनवत्सरे फाल्गुनमासे कृष्णपचे द्वितीयायां तिथौ शुक्रवारे ॥ अस्ति विस्तीर्णकर्णाटघरामण्डलमध्यगः । विषयः कुन्तको नाम्ना भूकांताकुंतलोपमः ॥ [२५] विचित्ररत्नाच त्रास्ति विजयाभिधं । नगरं सौपसन्दोह दशिताकाण्डचन्द्रिकं ॥ [२६] Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦ जैन - शिलालेख - संगह मणिकुट्टिमवीथीषु मुक्तासैकतसेतुभिः । दा[]][बूनि निरुंघाना यत्र क्रीडति बालिकाः [ ॥ २७] र्तास्मन्निरुगदंडेशः पुरे चारुशिलामयं । श्री कुन्थुजिननाथस्य चैत्यालयमचीकरत् || [ २८ ] भद्रमस्तु बिनशासनाय || सारांश इस लेख में २८ संस्कृत - श्लोक हैं और यह प्राचीन जैन मन्दिर के सामने दीपस्तम्भ पर खुदवाया है इस मन्दिरको आजकल 'गाणिगिट्टी' मन्दिर, यानी, " तेलिनका मन्दिर" कहते हैं। पहले श्लोकमें बिन, दूसरेमें जिनशासनकी मंगलकामना है । तत्पश्चात् एक जैन संघके प्रधान सिहनन्दिके आध्यात्मिकपूर्वजों तथा शिष्योंके वंशका वर्णन है । वह इस तरह है : : मूलसंघ 1 नन्दिसंघ बलात्कार गण 1 सारस्वतगच्छ 1 पद्मनन्दी धर्म्मभूषण प्रथम, 'भट्टारक' 1 अमरकीर्ति 1 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर के लेख सिंहनन्दि, 'गणभृत्' I भूष, 'भट्टारक' 1 वर्द्धमान I धर्मभूषण द्वितीय, उर्फ भट्टारकमुनि ४२१ लेखमें इन गुरुओंकी पदवियाँ ये लिखी हैं :- आचार्य, आर्य, गुरु, देशिक मुनि और योगीन्द्र | गुरुवंशावली के बाद ही प्रथम विजयनगर वंशके दो राजाओं, बुक्क और उसके पुत्र हरिहरका संक्षिप्त वर्णन है । बुक्क यादववंश के राजाओंमें उत्पन्न हुआ था । हरिहरका कुलकभागत मंत्री दण्डाविनायक चैच या चैचप था, जो बिन भक्त था । चैचका पुत्र दण्डेश या क्षितीश ( युवराज ) इरुग या इरुगप था, जो उपर्युल्लेखित सिंहनन्दि गुरूके सिद्धान्तोंका उपासक था ( श्लोक २४ ) । १३०७ [ अतीत ] शक में, क्रोधन संवत्सर में इरुगने विजयनगर में एक मन्दिर बनवाया और उसमें श्री कुन्थु-बिननाथकी स्थापना की । यह नगर कर्णाट प्रान्त के कुंतल जिलेमें था ( श्लोक २५ ) । ] नोट :- इस मंत्री इरुग या इरुगपने 'नानार्थनाममाला' नामक ग्रन्थ बनाया था, ऐसा ई० हुल्श, पी० एच० डी० महाशय के लेखसे मालूम पड़ता है । [ South Indian ins, Vol. I, No. 152. (p. 155-160)] Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨૨ जैन-शिलालेख-संग्रह ५८६ मसार-संस्कृत। [सं० ११४५=१३८६ ई.] [कृषभ चिहवासी आदिनाथकी प्रतिमाके चरण-पाषाणपरका लेख] १-सं० १४४३ ज्येष्ठ सुदि ५, गुरो महासारस्य च २-राजनाथ देव राज्ये काष्ठसंघे आचा३- ये कमलकोर्ति जयसरङ्गाचार्ज ४-* * वपुत्रल * * * यह लेख सं० १४४३में, सारंग ( या उसके सुत्र ) द्वारा एक प्रतिमाके समर्पणका उल्लेख करता है। समर्पण महासारके राजनाथ देवके राज्यमें हुआ। गुरु काष्ठासंघके कमलकीर्ति आचार्य थे। नं०२ [एक प्रतिमाके, जिसका चिह्न मिट गया है, चरण-पाषाणपरका लेख] १–सं० १४४३ समये ज्येष्ठ सुदि ५, गुरो २-राजनाथ देव प्रवर्द्धमाने' महासागस्य काष्ठसंघे मथुरान्वये ३- पुष्करगणे प्रतिथ वज कमलकोति देव ४-जैसवल वेसल रगचर्न * * * ५-पुत्र लक्म देव सम * * * ६-यन प्रतिष्ट * * इस लेख में पहलेके लेखके दिन ही एक प्रतिमाके समर्पणकी बात है। राजनाथ देव और उसके गुरु कमलकीर्ति का नाम स्पष्ट है। 1. सूबमें राज्ये छूट गया है। * * * Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसारके लेख न०३ [शंख चिह्नवाली नेमिनाथकी प्रतिमाके पीठ-स्थलपरका लेख] १-सं० १४४३, ज्येष्ठ सुदि ५, गुरो महासारस्य न (१) २-काष्ठसंघे अचार्च-कमलकोत्ति देव ३-जै महन्साचार्ज उदे सिदि उसी गजा और उसी गुरूके तत्वावधानमें उसी दिन नेमिनाथकी प्रतिमाका दान। [ A. Cunningham, Reports, III, p. 68-69 No. 1-3.] t. & a. ५८७ तिरुप्पत्तिक्कुण्रु;-संस्कृत । प्राभव (प्रभव) वर्ष = शक १३०१=३८० ई. (हुरुङ्ग और चीन)] श्रीमद्वैचयदण्डनाथतनयस्संवत्सरे प्रामवे संख्यावानिरुगप्प-दण्डनृपतेश्श्रीपुष्पसेनाजया ॥ श्री काश्चीजिनवद्धमाननिलयस्याग्रे महामण्डपं सङ्गीतार्थमचीकरच्च शिलया बद्धं समन्तात् स्थलम् ॥१॥ [ पूर्व शिलाले वाले मन्दिरकी वेटीके सामनेके मण्डपकी छतमें यह ग्रन्थलेख उत्कीर्ण है। इसमें शार्दूलविक्रीडित छन्दका एक ही श्लोक है। इसमें उल्लेख है कि प्राभव (प्रभव ) वर्षमें गुरु पुष्पसेनकी आजासे सेनापति वैचपके पुत्र उसी ( पूर्व वर्णित ) सेनापति इरुगप्पने उस मण्डपको बनवाया है बिसमें यह लेख उत्कीर्ण है।] [EC, VII, No. 15, B.] Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x२४ जेन - शिलालेख संग्रह ५८८ ऊद्रिः - संस्कृत तथा कन्नड़ । [ वर्ष विभव = १३८८ ई० ( लू० राइस ) । ] [ उसी तालाबकी मोरोके पासके पाषाणपर ] श्री - शान्तिनाथाय नमः । श्रीमत्परम- गंभीर स्याद्वादामोघलानम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं निन- शासनम् ॥ वर - वृषभ-तीर्थंकर गण- 1 घररेनिसिद वृषभसेन -मुनि-पुङ्गवरुद्- । धुर- वंश-सम्भवाचा - 1 यर पेम्पं पोगळलदिपने फणिरमणम् || आ-नियमाप्रणिगळु जिन । सेन - श्री वीरसेन र निपाचार्थम् । भू-नुत चरित्ररवरम् | बानिक विन्य-ननद पेम्यदाम् ॥ अमर्द तदन्वयदि बन् द मुनीश लक्ष्मिसेन भट्टारकरुत्- । तम-चरित्ररवर शिष्यरु | विमळ-गुणरु चन्द्रसेन - सूरिगळनघर् ॥ आ-मुनि-रावर शिष्यो- । दामरु मुनिभद्र देवरवर चरित्रम् | भू- महितमेन्दोडदनिन्न् । ए-मतो बण्णिसल्के वनावम् ॥ वृ ।। चेमममन्विनं विमल - कीर्त्ति दिगन्तमनेय्ददुव्विनम् । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊद्रिके लेख कामन चाप चापळते सावनमोप्पिदरं पोगळ्दपेम् । श्री-मुनि मद्र-देवर निळा-विनुतोरु-शुभ-स्वभावरम् । प्रेमदोळथिर्थमुमनीवरमुग्रतपः- प्रभावरम् ॥ मुनि मन्मथ-युद्धदोळ् निरुतमं तत्त्वार्थदोळ् भक्तियम् । चिन-पादाम्बुजदळ द्रवाघिकतेयं सच्चित्तदोळ देतेयम् । विनुताचार- चयङ्गळोळ् वचनमं वक्तृत्वदोळ् रुक्म रञ् । नेयं देहद कान्तियोऴ् निरिसिदर्वाक्यादि वर्णाह्वय र् ॥ कं ॥ हिसुगल्ल वसदियं मा । fsfe मुळुगुण्ड जिनेन्द्र मन्दिर के सुधा- | प्रसरमने सगिसि जसमम् । परिसि मुनिभद्र-देवरोळूपं तळेदर् ॥ न्यायोपायद हरिहर । रायं वर- विजयन गरियोळु नेलसिर्पन्द् । आयतिकेय सेन-गण- । ज्या मुनिभद्र- देवररनेरकदवर् ॥ इन्तेसेव तपश्चरणा- | नन्तरमाप्तागम-प्रभावमनेसगुत्- । तं तूदि दुरितमं निश्- । चिन्तक मुनिभद्र देव रिप्पनेवरम् || कालावसान-संस्थितिग् । आलम्बमेनिप्प निर्णयं दोरकलोडम् । शीलाचार-समान वि- । शाल मुनिभद्र-देवररितं बनिसल || नीरोळगण - तावरेयेले । नीरं पोरदन्ते बाह्य वस्तुवनेवम् । " Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह दूरं माडि बळ्ळिकम् । धीररु मुनिमद्र-देवरगणित-महिमर || वृ ॥ क्षमे निश्शल्यमेनुत्ते सन्यसनदिन्दात्म-प्रबोधादयम् । समसन्दोन्दिरे दिव्य-पञ्च-पद-चिन्ता-पंक्ति मुन्नेयदुवुत्- । तम-ताणक्कदु सञ्चितात्यमेने धर्म-ध्यान-मौनोद्यम- । क्रमदिन्द मुनिभव-देवरोडलि बेर्माडिदजीवमम् ॥ लसित-शकाङ्कमुद्घ-नभ-चन्द्र-पुरेन्दुविनिन्दे सोभिसल् । पेसर्वडेदोप्पि तोर्प विलसद्-विभवाब्दद चैत्र सुद्ध-ते। रसे शनिवारदोळ सकळ-सन्यसन-व्यसनं समाधि सन्- । दिसे मुनिमद्-देवरुरे सद्-गति सौख्यमनेरिददर निबम् ॥ क । लसित-मुनिभद्र-देवर। निसिधियुमनवर शिष्यरेने सोगयिप पारि-। सरोन-देवरे मा-1 डिसि कीर्तियनान्तरिन्तु कन्तु-विद्रर् ।। भद्रमस्तु जिनशासनम् श्री | वृषभ-तीर्थकरके गणधर वृषभसेन-मुनिप और उद्धर-वंशके आचार्योंकी कीर्तिका वर्णन कौन कर सकता है । इस वंशके आचार्योंके अग्रणी जिनसेन और वीरसेन थे। उस परम्परामें लक्ष्मीसेन-भट्टारक अवतीर्ण हुए थे, जिनके शिष्य चन्द्रसेन-सूरि थे। उनके शिष्य मुनिभद्र-देव ये: उनकी प्रशंसाएँ । उन्होंने हिसुगल बसदिको बनवाया था, और मुलुगुण्ड जिनेन्द्र मन्दिरका विस्तार किया था। जिस समय हरिहर-राय विजयनगरी में विराजमान थे, सेन-गणके युद्धजनोंने उस यतिके गुणोंको नमस्कार किया था। तपश्चरणके बाद उन्होंने बहुत समयतक निश्चिन्त जीवन बिताया। अन्तमें, उन्होंने अपना अन्त नवदीक बानकर, विहित विधिका अनुष्ठान करके उच्चावस्थाके लिये अपनेको तैय्यार किया, तथा Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे-आवलिके लेख ४२७ (उक्त मितिको ), 'सन्यसन' की विधिपूर्वक, प्राणोत्सर्ग करके शाश्वत सुखका आनन्द लिया । उनका स्मारक उनके शिष्य वा (पा) रिससेन-देवके द्वारा खड़ा किया गया था। बिनशासनका कल्याण हो।] [ EC, VIII, Sorab tl., No. 146] ५८१ हिरे आवलि;-काद। [सक ३111 ई.] [ हिरे-आपलिमें, १६ पाषाण पर] श्रीमद्-राय-रावधानि-हस्तिनापुर-विजयानगरि-मुक्षवाद । समस्त-पट्टणाधीश्वर । अश्वपति-गनपति-नरपति अरि-राय-तुरुस्क क)-विभाड। हिन्दूराय-सुरत्राण । भाषेगे-तप्पुव-रायर गण्ड । समस्त-भुवनाश्रय पृथ्वी-वल्लभ । महाराजाधिराजम् । श्री-वीर-बुक्करायन कुमार हरिहर-राय राज्यं गेय्युत्तमिप्प कालदलि महा-प्रधानि मन्त्रि-शिरोमणि मादरस वोडेयर काला स्वस्ति यम-नियमस्वाध्याय-ध्यान-मौनानुष्ठान-जप-तप-समाधि-शील-गुण-सम्पन्नरप्प श्री-मुनिभद्रस्वामिगळ गुड। आहागभय-शास्त्र-दान-विनोदनुं । रत्नत्रयाराधकनुं । जिनमाग-प्र-व-करनुमप जिड्डुलिगेय-नाडिङ्गे मुख्यवाद हिरियालय पुराधीश्वरनप्प भामना-महा-प्रभु काम-गोण्डन सुत्र कुल-दीपकनप्प । हिरियचन्दप्पन शक-वर्ष १३११ शुक्र-संवत्सरद कात्तिक-बहुल-रजनो-कुजवार-चतुशि- शुभ-दिनदलु सन्यसन-समाधि-विधियिं मुडिहि स्वर्ग-प्राप्तनाद ॥ क ।। कात्तिक-बहुळ-चतुर्दशि । कात्तिय मुनिभद्र-यतिय प्रियद गुड्डम् । मूत्तिय देहव तोरदन-। मूर्त्तद देवरने नेनेदु कीर्त्तिय पडेदम् ।। वोडने हुटिदरनेजर Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ जैन-शिलालेख-संग्रह कडु-मोहद मात-पितर-बन्धु-बनङ्गळ । यडवरियद मडदियरम् । कडु-गलितनदल्लि तोरेदु सन्यसनिन्दम् ॥ रबनि-कुजवार-शुभ-दिन । भनियिसिदं दैव-गुरुव व्रतगळनेल्लम् । सुजनत्वद चन्द्रमनुम् । गजजिसदे मडिहि स्वर्गमं नेरे पडेदम् ।। अण्ण चन्द्रमगे गोपय । पुष्यद सम्बळ बनिते राम-गौण्ड-गौण्डिय पुत्रम् । बण्णिसुव हरिहरायन । पुण्णिदन कालदल्लि शुक्लोत्सरदोळ ॥ गंगळ महा । श्री श्री [ लेख स्पष्ट है । हरिहर-रायके समयका है । ] [ Ec, VIII, Sorab tl., No 116] ५६० मुल्लूर-संस्कृत तथा कन्नड़ । [शक ३५ १३१४ ई. [मुख्लूस्में, बरित-मन्दिरमें चन्द्रनाथ बस्तिके पास ] स्वस्ति श्री शक-वर्ष १३१३ नेय प्रमोदूत-संवत्सरद वैशाख-शुद्ध ५... · रदल्लु श्री-मूल-संघ देसी-गण पुस्तक-गच्छद .... कोण्डकुन्दान्वयरार्थशुभेन्दु-कन्द- विजयकोचिं-देवर प्रि ... ... ... ... ल्लि देवरु ई-स्थानमं पडेदुद्धरिसिदरु श्री-राजा ... ... ... ... कोजाळ्व सुगुणि-देविय देहारद विजय देवर द्वारा ... ... स्व-जननि ... ... आ-पोचब्बरसिंगे पुण्यार्थवागि प्रतिष्ठेय माड्सि ... ... बिट्ट अरु अणिलवाडिय नेलबिहळ्ळियम् ( यहाँ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे-आवलिके लेख ४२६ दान और सीमाओंकी विस्तृत चर्चा आती है; और वे हो अन्तिम वाक्यावयव)। स्वस्ति । ( उक्त मितिको ), श्री-मूल-संघ देशीगण पुस्तक-गच्छ और कोण्डकुन्दान्वयके, आर्य शुभेन्दुकी सन्तान विजयकीर्ति देवके प्रिय.......लि-देव. को यह मन्दिर मिलनेके बाद इसकी पुनः स्थापना की। और राजा ... ... कोङ्गाळव सुगुणि-देवीने, अपने शरीररक्षक विजयदेवके द्वारा, इसलिये कि अपनी मां पोचबरसिके लिये पुण्योपार्जन हो सके, -(प्रतिमाकी स्थापना की और इसके लिये जैसे कि लेख में कहे गये हैं, सीमाओं सहित ) दान दिये। शाप ।] [ EC, IX, Coorg tl., No. 39 ] ५६१ श्रवणबेल्गोला-काद। [बिना कालनिर्देशका] ०शि० सं०, प्र० भाग) हिरे-आवलि, कबर। [वर्ष आङ्गिरस १३५३ ई. (ल. राइस) ] [हिरावलिमें, पाषाणपर] स्वस्ति श्रीमद् आहिर-सं [व] श्च (स) रद आन (षा)-सुध त्रयोदशेगुरुवार दन्दु। मूल-संघद शुभचन्द्र-देवर गुड अवलिय मसण गोडन मग गौरव-गोडन तम्म काळ-गोड समाधियिं मुडिपि स्वर्ग-प्राप्तनाद ।। [ लेख स्पष्ट है । राजाका उल्लेख नहीं है । ] [Eo, VIII Sorab ti, No 111] Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जैन-शिलालेख-संग्रह ५९३ हले-सोरव-संस्कृत तथा कबद । [शक सं० १३१७-१३१५ ई. ] [ळे-सोरबमें, उसके दक्षिण-पूर्वमें, तालाब के उत्तरीय नष्ट बन्ध के पासके समाधि-पाषाणपर] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलान्छन । बीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् || शक-वरुष १३१७ नेय भाव संवत्सरद भाद्रपद-ब ७ बु सोरब मालय-त्तम्म गाडडन मग तम्म-गऊड तनगे क्षय-व्याधियाद-निमित्त घट्ट केळगण नगिलेयकाप्याके होगि औषधिय माडिसिकोळतिरलागि रोग बिडदे सिद्धान्ति-देवरु पञ्च-नमस्कारद ध्यानदि जिन-चरण-से वेगैदिदनु । [जिनशासनको प्रशंसा । ( उक्त मितिको), सोरबके तम्म-गौडको क्षयरोग हो जानेसे घाटोंके नीचे नगिलेयकोप्पमें दवाई लेने के लिये गया। लेकिन कि बीमारी (रोग) उसे छोड़नेवाला नहीं था,-सिद्धान्ति-देवको आज्ञाके अनुसार, पञ्च-नमस्कारके उच्चारणपूर्वक, वह जिनके पाद-मूल में गया ।। [ Ec, VIII, Sorab tl., No 52 ] ५९४ हिस्भावली;-संस्कृत तथा कार। [वर्ष भाव=११५ ई. (ल, राइस)] [हिरे-मावलिमें, तीसरे पाषाणपर] श्रीमत्परम-गंभीरस्यावादामोघलान्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन बिन-शासनम् ।। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे-आवलीके लेख ४११ श्रीमद्-राय-रावधानि-हस्तिनापुर-विजयानगर-मुख्यवाद-समस्त-पट्टणाधीश्वर अश्वपति-राजपति-नरपति-अरिराय-विभाड ससस्त-भुवनाश्रय पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज श्री हरिहरराय राज्यं गेय्युत्तमिपनि तत्प्रधानि हरिय-रायन'.. कालदल्लि भाव संवत्सर-फाल्गुण मास-बल-एकादशी-बुधवारद...." कान रामणन सति कामीगोण्डि सन्यसनि-विधियिं मुडिहि स्वर्गस्थेयादळु ॥ वृ ।। सुपात वन्य-पार्श्व-जिन-पाद-सरोजद युक्त-कान्तियुम् । घर-नुत-राय-राज-गुरु सिद्धान्ति-यतोशने तन राध्यनुम् । भर ...न- नाड जिडडुळिगे आवलि-पुराधिप बेच-गौण्डनुम् । उरुतर-माम बोम्म नुमत्तेयु शोभिप कामि-गौण्डियुम् ।। कान-रामण [न] तियेने । दानटोळं धर्मदल्लि सन्यसनियम् । येनु तडावल्ल मुडिहिदम् । मान पतिव्रते नाकर्म नेरे पडेदन ।। मङ्गळ महा श्री श्री श्री ॥ [ जिन शासनकी प्रशंसा । जिस समय राबधानी हस्तिनापुर-विजयनगर और समस्त शहरों पट्टण ) का अधीश्वर, महाराजाधिराब हरिहर-राय राज्य कर रहे थे:- उसके मंत्री हरिहर-रायके समयमें, ( उक्त मितिको ), कान-रामणकी स्त्री काम-गौण्डिने, 'सन्यसन' लेकर, मृत्युको प्राप्त होकर स्वर्ग गयी। आगेके श्लोको में बतलाया गया है कि राजगुरु सिद्धान्ति-यतीश उसका पुरोहित था, जिलिगेनाड्के आवाल-पुर । अधिप बेच-गौण्ड चाचा था; बोम्मर उसकी सास थी।] [ Ec, VIII, Sorab tl., No. 103.] Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह ५६५ हिरेआला-संस्कृत तथा काद। [-शक = 10ई० ] [हिरेमावलिमें, २१ पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । चीयातू त्रैलोक्यनाथस्य शासन बिन-शासमम् ॥ स्वस्ति श्रीमन्महा-मण्डलेश्वरम् । अरि-राय-विभाड । श्री-वीर-हरियप्प-वोडेयर राज्योदयदन्दु शक-वरुप १३१९ धातु-सं-आषाढ़-शु०११ म हिर्य-विबुलिगेय-नाडोळ-गण हिर्यावलिय राम-गौडन सति माधवचन्द्र-मलधारि-गळ गुडि रामि-गौडि श्री-बिन-पदवनेरिददळू षडुःदरुशन-सम-शीलम् । दृढ़-वत-हढ़ ध्यान-मौन-दृढ़-गुण-चरितव । बिडदे श्री-बिन-पदान्जव ।। नेनऊत्तं यमि-गौडि स्वर्गस्तेयादळ् ॥ [लेख स्पष्ट है । हरियप्प-वोडेयके समयका है । ] [ EC, VIII, Sorab tl., No. 11] श्रवणबेलगोला-संस्कृत। [सक ३५० १३८ ई.] [*.शि० सं०, प्र० मा०] Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्पचके लेख २६७. हुम्मच;-संस्कृत तथा कार। [कार=सक १३२१=१५६६ ई.] [पार्वनाथ बस्तिके मुखमापके तीसरे पाषाणपर ] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ स्वस्ति श्रीमतु शक वरुष ( वर्ष ) सा १३२१ नेय बहुधान्यसंवत्सरद मानेंसिरसुद्ध ४ ... ... श्रावण-नक्षत्रद ... ... मलप्पगळ मग होम्बुच्चद यिं ... पायण्ण सकल-सन्यसन-सल्लेखन ... दणियं सरीर-भारमै बिटु स्वर्गस्तरादरु मङ्गळ श्री श्री [होम्बुच्चके पायण्णने सन्यसन और सल्लेखनाके द्वारा अपनेको अपने शरीर-भारसे मुक्त किया और स्वर्ग प्राप्त किया । यह उसीका स्मृति-लेख है।] [ EC, VIII, Nagar tl., No. 51, t. & tr.] ५९८ हिरे-आवलि;-संस्कृत तथा कथा । [सक १३२१-१६६ ई.] [हिरे-मावळिमें, पाँच वें पाषाण पर] श्रीमत्परमगंभीरस्यावादामोघलान्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं बिनशासनम् । स्वस्ति समस्त-भुवनाश्रय पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराजं अश्वपति गजपति नरपति पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-समुद्राधीश्वर श्रीमद्-गय-राजधानि-हस्तिनापुर-विजयानगरनुख्यवाद समस्त-पट्टणाधीश्वर श्री-हरिहर-राय राज्यं गेय्युत्तमिप्प कालदल्लि । २८ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जैन-शिलालेख संग्रह शफा वर्ष १३२१ नेय बहुधान्य-संवत्सरद आषाढ़ शुद्ध १२ बुधवारदुदय-कालदोळु श्रीमन्नाळव-महाप्रभु बिड्डुलिगेय-नाडिले मुख्यवाद आवलिय बन्द गौण्डन सति चन्द-गौण्डि सन्यसन-समाधि-विधियि मुडिहि स्वर्ग-प्राप्तेयादळु ॥ क ॥ वर-पार्श्व-जिनर चरणम् । उरुतर-श्री-विजयकीर्ति-चरणाम्बुजमम् । शरणेन्दु मनदि नेनेवुत । वर-वडदळ यिन्द्र-स्वामं सुखदिन्दम् ॥ नडव महा-लदिम-चौण्डक । यडवरिय ... ... ... आवलियोळम् । कडयिन्जद कीर्तिय ... ... । पडेद सति सतियरोळगे ... ... माद सतिय ॥ भद्रमस्तु ॥ मङ्गळ महा श्री श्री श्री [ यह लेख ऊपर के लेख नं. ५६४ से मिलता है, लेकिन चन्द-गौण्ड की पत्नी चन्द-गौण्डि, बिनके पुरोहित विजयकीर्ति थे, का उल्लेख है। [ EC, VIII, Sorab tl., No. 105 ] ५६४ अद्रि-संस्कृत तथा सा-मग्न [विना का निर्देशन, पर जगभग १५०० ई.] [अनिमें ही, एक दूसरे पापाणपर] श्रीमत्परमगम्मीरस्थादादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ स्वस्ति समस्त-भू-वळप-मध्यदोळ् इ[दु मेरु-पर्वतम्। . प्रस्थदि दक्षिणाभयदोळिHदु कुन्तळ-देश देशदोळ् । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्रिके लेख ४३५ स्व-स्थिरवाद बनवसेगवाभयमुं पदिनेण्टु-कम्पणम् । विस्तरदिन्व जिडडुळिगेगोप्पुव दर्पणवुद्धरा-पुरम् । उद्धरेयोळ बनिसिद्दम् । ... हात्तं बयिचपाल्म सिरियण्णम् । सद्ध मिंगळ सुर-द्रुम। ... ... ... सिष्टरं पालिसुतं ।। आतन सति चोडाम्बिके। भूतळदोळ् पुरुष-भक्ति बन्धुर्गाळत्सा- । मात्रदि पुर-जनवहुदेने। गोत्रं पेच्चुत्ते नडदळत्याश्चर्यम् ।। व ॥ अन्ता-सिरियण्णं ....... स्व-पत्नी-सहित-बन्धु-बान्धव ... परिजन-पुर-जनम पालिसुत्त सुख-संकथा-विनोददिन्दमिरुत यिरलु ।। वोन्दानोन्दु-दिनं अरुहत्-परमेश्वरं मुनिभद्र सिरियण्ण .." चिन्तानेयं माळप ... मुनिभद्र-देवगग्नेयोळ् । अनुवर्तिसिह गुड्डनातनेम् ... । ... ... ... ... ... ... ... तङ्ग । अनुमत-पदवीवेनेन्दु नेनेववसरदोळ् ।। अनु '' त्तदिं कुसुम-वृष्टिगळं सुरियल्के बेगदिम् । घन-व-भेरि-दुन्दुभि महा-मुरजं बहु-बाद्य-घोषदिम् । तन तनगाडि पाडुतिरे ... ... ... ... ...। जिन-पद-पद्ममं बिडद ... सिरियण्णनेम् कृतार्थनो ।। ( बाकीका पढ़ा जाने योग्य नहीं है)। [इस लेखमें बयिचप्पके पुत्र सिरियण्णने किस तरह जिन-चरणोंका आश्रय लिया, इसका वर्णन है। नं० ५७६ लेखकी ही तरह यहाँ भी उद्धरेका वर्णन है । इसमें बयिचपके पुत्र बिन-भक्त सिरियण्णने जन्म लिया था। उसकी स्त्रीका Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ जैन - शिलालेख - संग्रह नाम वरदाम्बिके (?) था । एक दिन अर्हत् परमेश्वरने (१) मुनिभद्रको यह बतलाया कि वे पूर्ण गृहस्थ- शिष्य सिरियण्णको एक सुखी अवस्था में पहुँचायेंगे । उस अनुकूल समय में, जब कि महा मृदङ्गके बाजे बज रहे थे, लिपट गया । कितना भाग्यशाली वह था ? ] [ EC, VIII, Sorab tl., No. 153] ५८० मलेयूर - संस्कृत तथा कचड़ । [ प्रमाथि वर्ष = १४०० ई० ? ( लू. राइस ) । ] [ उसी पहाड़ीपर, बड़े गोल पाषाणके पश्चिमकी ओर ] प्रमाथि वत्सरे ज्येष्ठ मासस्य श्वेत-पक्षके । पञ्चम्यां च तिथौ शुक्रवारे चन्द्रप्रभस्य तु ॥ प्रतिष्ठां कुरुते चन्द्रकीत्ति-योगी स्वयं मुदा । स्व-निषिध्यर्थं उद्दाम - जिन- धम्म- प्रकाशकः || रही थी और भेरी, हमेशा के लिये पुष्प वृष्टि हो साधु सिरियण्ण दुन्दुभि तथा बिन-चरणों में श्री- मूल संघ देशीगण पुस्तकगच्छ इङ्गलेश्वरद बळि कोण्डकुन्दान्वयद सम्बन्धिगळं भुत-मुनिगळ पद-पद्म-भृङ्गरं शुभचन्द्र-देवर प्रियाग्र - शिष्य श्रीमतु सकलकला- प्रवीणरुमप्प श्री - कोपणद चन्द्रकीर्त्ति देवरु माडिसिदरु श्री चन्द्रप्रभस्वामि- गळन्नु । [ सकलकलाप्रवीण, शुभचन्द्रदेव के प्रियाग्रशिष्य, मूलसंघ, देशीगण, पुस्तकगच्छ इड्डुलेश्वर-बळ तथा कोण्डकुन्दान्वय के श्रुतमुनिके पद-पद्म-भृङ्ग, कोयणके चन्द्रकीत्ति-देवने चन्द्रप्रभकी एक प्रतिमा बनवायी और उसकी, अपनी निषिषिके लिये, प्रतिष्ठा करायी। ] [ EC, IV, Chamrajnagar tl, No. 161 ] Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे-आवलिके लेख ६०१ हिरे-मावलि;-संस्कृत तथा काद। [शक १३२५ = १४०३ई. ] [हिरे-मावलिमें, १७ ३ पाषाण पर ] श्रीमत्परमगंभारस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ स्वस्ति श्रीमतु हरिहर-राय राज्यं गेय्वुत्तविप्प कालदलु ।। श्रीमन्नाळव-महाप्रभु अवलिय बेचि-गोण्डन महा-सति सक-वर्ष १३२५ दनेय स्वभानुसंवत्सर-भाद्रपद-बहुळ-सप्तमो-शुक्रवार-रोहिणी नक्षत्र-बेळप्प - जावदलु बोम्मि-गोण्डि सन्यसन-समाधि-विधविं शरीर-भार, बिटु स्वर्ग-प्राप्तियाददु । क॥ तन्नय दय्यं जिन-पति । तन्न गुरुं मारचन्द्र-मलधारि-देवर । तन्न पात बेचि-गौण्डनु । तन सुतं चन्द-गौण्ड अवलिपुरंशन् ।। यी-तेरद बन्धु-बळगद । ख्यातिय प्रभु-मनेगळेल तन्नवरेल्लम् । .... ताय गुणके पासटि। भू-तळदोळ बाम्मकङ्गे सरि दोरे उण्टे ।। बिनर नेनेवुत्त वचनदीळ । मनसिनोळं पुत्र-पौत्ररं तोरेवुत्तम् । येनगीग पञ्च-पदगळे । घनवेनुतले मुडिहि स्वर्मा नेरे पडेट ।। मङ्गल महा भी ओ॥ [लेख स्पष्ट है । हरिहर-रायका राज्य था। .. [EC, VIII, Sorab tl., No. 117.] Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ जैन - शिलालेख - संग्रह ६०२ श्रवणबेलगोला - कन्नड़ । - " [ वर्ष तारण = शक १३२६ = १४०४ ई० ( कीलहोर्न ) J [ जै० शि० सं०, प्र० भा० ६०३ इले- सोरवः - संस्कृत तथा कन्नड़ । [ शक १३२७ = १४०५ ई० ] [ हले-सोरबमें, उसके पूर्व में आञ्जनेय मन्दिर के पासके समाधि-पाषाणपर ] श्रीमत्-परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । स्नीयात् त्रैर्लोक्यनाथस्य शासनं जिन - शासनम् ॥ स्वस्ति श्री शक- वरुष १३२७ नेय पाथिष संवत्सरद प्रथम- आषाढ़ । ३० सु सोरबद महाप्रभु देव - राजन अर्द्धाङ्गि मेचकं जिन पदवने (स्टटट देन्तेने ॥ - कन् ॥ पोडविपर नेलेवी डिदु श्रु (ट्ट) उत्तर-पुर चन्द्रगुप्ति अदकाश्रयवी । एड-नाडु मोदल - कम्पण | कडेगं पदिनेण्टु नाडनार बणिपरो ॥ घनतर- तेजदेळ गेगेसदिप्पववेम् पदिनेण्टु कम्पणक् । अनितरोळोप्पु द्धय श्री - वनिता- सति बयिच - राजनोळ् । निसिदळिति बाळूद ळेड- नाड महा-प्रभु देव-राजनङ् - 1 ने एने मेचकं जिन पादाब्जमनेदिदवेम् कृतार्थेयो ॥ कन् ॥ अरुहत्-परमेश्वरनम् । स्मरसि महा- दुरित-दुर्घटङ्गळ काळदळ । गुरुगळ सम्बोधने उच्चरणेयले विदिदळु सु-समदि जिन-पदमै ॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे-आवलिके लेख ४३६ [चिन शासनकी प्रशंसा । ( उक्त मितिको, सोरब महाप्रभुकी अर्धाङ्गिनी मेचक चिन पदोंके पास गयी । उसकी प्रशंसामें श्लोक, जिनमें कहा गया है कि कि मठारह कम्पणमें उद्धरके बयिचि-राजकी पुत्री थी। १८-कम्पणमें पहिला कम्पण एडेनाड् था, जो कि बलवान् नगर चन्द्रगुत्ति पर आश्रित था।] [ Ec, VIII, Sorab tl., No 51.] ६०४ हिरे-आवलि,-संस्कृत तथा कचर। [शक १३२६=१४०७ ई.] [हिरे-आवलिमें, सात वें पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ स्वस्ति समस्त-भुवताश्रयं श्री-पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज भुजबल-प्रताप चक्रेश्वर श्री-वीर-हरिहर-रायन कुमार देव-रायरु पृथ्वी-राज्यं गेवुत्तमिर्प-कालदन्ति शक-वर्ष १३२६ सर्वधारि-संवत्सरवलु जिड्डुळिगेय नाडिङ्गे मुख्यवाद हिरि-आवलिय ग्रामल्लि श्रीमन्नाळ्य-महाप्रभु राम-गौण्डन सुपुत्र हारुवगौण्ड स्वर्ग-प्राप्ति आद ॥ वृ ॥ परम-श्री-जिन-राज देव मुनिपं वैराग्य-सम्पत्तिन्द । ... द श्री-मुनिभद्र-देव मुनियोळ् कैकोण्डुमिपीसेयुम् । बरेयुं बल्लमेयेन्दु वीरतनदिन्दाश्विन-भानुदिनम् । वर-मु ." त्याङ्गनेगक्कु हारुव-गौण्ड-प्रभु धर्मस्थ-कीर्ति ॥ अण्ण गोपण्णन तम्मनु । पुण्यद कणि धर्म-चिच सम्बारित्रम् । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y . जैन-शिलालेख-संग्रह पुण्यदनपवाकम् । बण्णिसली-हारुख-गौण्डगेयार घरेयोळ ॥ नोडिदडे मदन-सन्निम। रूढियोतिकोत्ति वेत्त सजन पुरु पम् । पाडरिदं हारुव-गौण्डम् । बेडिदवरिगन-होन्नु-वस्त्रवनीवम् ॥ जिनर नुडि विनर भावने । जिन-बिम्बकल्ददन्य-देय्वक्केरगम् । चिन-पद-नदिन-भ्रमरम् । जिन-धम्मोद्धार हरुव-गोण्डनुदारम् ॥ मंगल महा श्री श्री श्री ॥ [जिन शासनकी प्रशंसा । स्वस्ति । जिस समय, ( अपने पदों सहित ), वीर-हरिहर गयके पुत्र देव-राय पृथ्वीका राज्य कर रहे थे :-( उक्त मितिको ) हिरि-आवलिमें, बो कि जिड्डुलिगे-नाका मुख्य ग्राम है, शासक महाप्रभु रामगौण्डका पुत्र स्वर्गको गया। ___आगेके श्लोक बताते हैं कि उसके पुरोहित मुनिभद्र-देव थे, और उसके ज्येष्ठ भाई गोप्यण, तथा उसकी उदारता और बिनभक्तिको भी प्रशंसा की गयी है। [ EC, VIII, Sorab tl., No. 107 ] ६०५ कुप्पुद्धरु-संस्कृत तथा काद। [शक १९३० १४०८ ई.] [प्पद में, जिन-बस्ति के उत्तर-पश्चिमकी मोर के पाषाण पर] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह स्थान में थे: - जब वह देव राय राज्य की रक्षा करने में प्रसन्न था - प्रधान मन्त्री के पदको सुशोभित करते हुए, जिन-समय रूपी समुद्र के बढ़ाने के लिये पूर्ण चन्द्र ऐसा गोप- चमूप महान् निडुगळ् किले पर शासन कर रहा था । ] [ EC, XI, Hiriyur tl. No 28 ] ४४८ ६१० भारङ्गी; - संस्कृत तथा कचड़ । [ शक १३३७ = १४१५ ई० ] [ भारङ्गीमें, कल्लेश्वर- वस्तिके पाषाणपर ] खण्डितानङ्ग-राजस् स्तुत -हित-जिन - राजः प्राप्त सत्-पाद- पूनः । धृत- सगुण- समाजो वादिनं वादि ... ... राजोऽभून्नताशेष-राजः ॥ सरसि च सित - सरसिजमिव गगने विधुरिव हरिरिव हर-हसनम् । sa हलधर - रुचिरिव विलस ... मुनि-पति-वर - विशद - यशः ॥ तच्छिष्यो जयकीर्त्ति - नाम - मुनिपस्तत्पाद सेवा- रतः । सिद्धान्त व्रतीपो नताखिल-नृपस्सिद्धान्त - पारङ्गतः । तच्छिष्योत्तम - बुळ्ळ- गौड-तनुजः श्री - गोपिनाथोऽभवत् तच्छिष्यः स्वयमप्यभूत् स्व-जननी श्री माळि - गाघुण्ड्यपी ॥ क्रमदिन्दी येल्लर गुणस्तुति येन्तेन्दो डे 11 शेषोऽप्यस्तु सहस्र - रम्य - रसनस्स्तोत्रे समर्थो हि यो भूयो या धिषणा [ - ] श्री शारदाप्वस्तु सा । सोऽप्यस्त्वत्र गुरुर्गुरुस्मुर-ततेश्शुद्ध-बुध्या गुरुर् ... Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारङ्गीके लेख ४४E ध्वक्तं श्री-जयकीर्ति-वृत्तमशकन् नान्यः कथं मादृशः ।। यम-नियम-समेतो ध्यान-दग्धाघ-बातो जप-शत-विधि-तुष्टोऽभूदनुष्ठाननिष्ट: अनुगत-गुण-जालो वर्द्धितात्मीय-शीलो भुवि किल बयकीर्तिश्चारु-मूर्तिस्सु-कोतिः ।। टोक्षा-स्वीकारकालागत-नन-निवहे जात-तोरात् प्रभूतात् कीर्ति कुर्वत्यनूनं जय-जय-वचसा यस्य नुन्नाखिलार्त्तिम् । स नामास्यैव नामाभवदिति भुवने ख्यातिरासीदितीदम् जाने वक्तं तदीयानपगत-गणनान्नैव जाने गुणौघान् । तन्छिष्यः श्रुत-वार्द्धि-बर्द्धन-विधुस्सिद्धान्त-पारङ्गत: सिद्धान्तामिध-शुद्ध-नाम-सहितोऽभूछद्ध-विद्योद्यमः । बौद्धायुद्धत-वादि-बद्ध-नमनः सिद्धस्तुतौ तत्परस सिद्धेशश्च विशुद्ध-बुद्धि-सहितो हृद्योऽनवद्यो भुवि ।। यद्-वाणोमय-दर्पणे शुचि-गुणे धी-भस्म-सन्दीपनप्रक्षीणावरणादि-कल्मष-गणे सत्यं जगदपणे । भव्या-वीक्ष्य निज-स्वरूपममलं रत्नत्रयाकल्पकम् स्वीकृत्यामृतकामिनी निज-वशे कुर्वन्ति शोघ्र किल ॥ सिद्धान्तदेव-कर-पिञ्च्छमितीव भाति ॥ कि वर्णाभरणैस्सुवर्ण-रचितः किं मौक्तिकैनिम्मितैः किं नानामणि-निम्मितैरपि वरैर्मत्वेति मुक्तत्वा पुनः । सिद्धान्त-व्रतिपस्य मानसहितं वाणों सुवर्णोज्ज्वलाम् कर्णाकल्प इतीव शाश्वतिमां कुर्वन्ति सर्वे जनाः।। सांख्याः किंकरतामिताः किल पुनर्योगा नियोग किल चार्वाकाच वराकतां किल गता बौद्धाश्च दुर्बुद्धिताम् । भाडो भ्रष्ट-मतिः किलाभवदिमं प्राभाकरं वेत्ति कः तस्मात् को मदमातनोति पुरतस्सिद्धान्त-वादीशिनः ॥ २६ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संद स्याद्वाद-वाराकर-शीतभानोः सिद्धान्त - देवस्य मनोज्ञ - शिष्यः । अभूदसौ बुळ्ळप-गौड़-नामा चारित्र वाराकर-शीतरोचिः ॥ बिनेन्द्र-गन्धोदक-पूत-गात्री बिनाचना- पुष्प - निवास - मूर्द्धा । बिनाचना-चन्दन- कान्त-भालो बिनेन्द्र-मन्त्रालय - मानसाब्नः ॥ नित्यं विशुध्या कृत-धर्म-चक्रो नित्यं ललाटे कृत-धर्म- चकः । नित्यं मुदा पालित देहि चको नित्यं यश:- 9 - पूरित-भूमि-चक्रः ॥ दिनेदिने सम्भृत- धम- बुद्धिर् दिनेदिने वर्द्धित-दान- वृद्धिः । दिनेदिने वृत्त दयाभिवृद्धिर् दिनेदिनेवृत्त - हिरण्य- वृद्धिः || अमी गुणात्सन्त्यखिळे जनेऽपि सम्यक्त्व - रत्नाकरता तु नैव । सा बुळ्ळ-गौडे खलु सत्यमस्ति कौवा ततो वर्णयति प्रभुं तम् ॥ तत्पुत्रस्तत-सद्गुण-स्तुत- बिनस्सिद्धान्त-नाम्नो मुनेस् सिद्धान्तोद्भट-वाद्धि-वर्द्धन- विधोश्शिष्यः सुपुष्यद्दयः । सत्याब्जाकर- भास्करः प्रियकरश्चारित्र वाराकरः । श्री- पूर्णो भुवि गोपण-प्रभुरभूत् सम्यक्त्व-रत्नाकरः || सिद्धान्तदेव - गुरु पाद-पयोब-भक्तः । श्री-बुळ्ळ-गौड़-हृदयाम्बुज-भानु-बिम्बः । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारङ्गीके लेख सन्माल-गौडि-कर-पङ्कल-बाल-भृङ्गः। श्री-गोपणो निखिळ-वन्धु-मणीष्ट-सिन्धुः ।। कीर्तिद्दिकामिनीनां शिरसि वितनुते मल्लिका-पुष्प-शोभाम् तेजस्सीमन्तिनीनां विलसति विमले कान्त-सोमन्त-भूमौ । सिन्दूर-भीरिवाशा-परवश-विदुषां प्रीति-कृद् दान-सम्पद् वाणी पीयूष-साम्या समल-गुण-निधेगोपिनाथ-प्रभोःस्यात् ।। श्रीमद्-राय-राज-गुरु-मण्डलाचार्य महा-वाद-वादीश्वर-राय वादि-पितामह सकलविद्वरजन चक्रवर्तिगळप श्रीमदभयचन्द्र-सिद्धान्त-देवर प्रियान-शिष्यनह बुळ्ळ गौडन मग गोप-गोडनाव-पोरक्कधिपतियेन्दोदे ।। द्विपङ्गळोळगे जम्बू - द्वीपं देशाङ्गवोळगे कन्नड-देशम् । रूप-विभवदलि सत्या - लापदि सोगयिसुतमिर्पवतिमुदटिन्दम् ॥ अन्ता-जम्बू-द्विपदोळगण कर्णाट-विषयदोळगे ॥ फल-भरवाद शालि तळ्देरिद चूत-कुजालि तेङ्ग कण -1 गोळिसुव कौङ्ग पूत लते पू-गिड्डु पू.मरदोळि पल्लवङ् । गळ पोळोन्दि तां निमिर्व शाक-कुजं तिळि-नीग्गोळङ्गळिम् ।। सुललितवागि रञ्जिपुदु नागरखण्डमदेत्त नोपडम् । आ-नाडिङ्गे शिरो-विभूषणबेनल भारङ्गिचेल्वागि सु -1 ज्ञान-व्यापकरप्प भव्य-जनदि विद्वज्जनानीकदिम् । नाना-नीति-विदग्धरि धनिकरि तीविदर्दु लक्ष्मी-महा -1 स्थानं तन्नोळगिप्पुदेम्ब बगे-दोरुत्तिप्प्देल्लागळुम् ।। आ-पुरद मध्य-प्रदेशदो॥ ओळकोण्डभ्रमनेय्दे चुम्बिपुदय-भी-शलवा-भानु-मण - Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ जैन-शिलालेख-संग्रह उलवो येम्बवोलुन्नतोन्नतदोळा-चैत्यालयं चेन्न पोण -। गळशं रजिसे भित्तिगळ् पोळगु-दोरल्गा-महा-सद्मदोळ् । विलसत्पा-बिनेशनिप्नदरोळ देवाधिदेवेश्वरम् ॥ अन्ता पुरदधिपति भ । चिन्तामणि गोप-गौड सुत बुळ्ळप्पङ्ग । इन्तुदयिसि गोपण्णम् । कन्तु-समाकृतियोळाप्पुवं वसुमतियोळ् ॥ चिन-सद्-धर्ममनेल्लमं तिलिपि मत्ता-मूल-सन्मन्त्रमम् । नेनेवुत्तिाप्देनुत्तल च्चषिसिदं सिद्धान्त-योगीन्द्रना । तन कारुण्यमनप्पुकेय्दु मुददि सर्वज्ञ-पाटाब्ज-वन् । टनेयं माडुत धर्मदिन्द नडेवं गोपण्ण-भव्योत्तमम् ॥ गोपति-वाहन-प्रमेयनेळिस गोपति-वाहनांशुमम् । रूप-गिहल्के बवेडु गोपति-वाहन-कान्तियं महा । टोपदे ताने निन्दिसि मनोहरदेळगेयोळो पुतं बहु । द्वीपमनेट पबिदुदु गोपणनग्गद-कीर्ति पाण्डुरम् ॥ पुनः ।। अखण्डतर-पाण्डित्य-मण्डितानन-मण्डलः । पण्डिताचार्य-वर्योऽस्याखण्ड-श्री-कारण किल ॥ यत्-कारुण्य-कटाक्ष-वीक्षित-पुमान् लक्ष्मी-पतिस्थात् किल यत्-पादानति-मानितामल-मनास्सत्यं महेशः किल । तच्छी-पण्डित-देव संयत-कृपावाम: किलासौ प्रभुम् तस्मादस्य सु-गोपणस्य सुकृतं तत् केन वा कथ्यते ।। एको निवर्त्तयति दुर्गति-मार्म तो यम् अन्यो हि दर्शयति निति-वर्म यस्य । यौ पण्डित श्रुत मुनि मुनिपौ तयोस्तत् तद्-गोपणस्य मुनि पुण्यं अगण्यमत्र ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारङ्गीके लेख मन्ते ॥ जिन-पद- सरोब-भृङ्गम् | बिन-वाणी-वारि-धौत- कलिल-मलौघम् । बिन-मुनि-जन-पद-भक्तम् | विनयाढ्य गोप-गौडनखिळ-गुणाढ्यम् ॥ इन्तु कीर्त्तिगावासवादि ॥ पुनः || अन्यदा गुण- माणिक्य भूषणो गोपण- प्रभुः । मर्त्य-लोकोद्भवं सौख्यं साधितं भुक्तमुत्तमम् || तस्मादनेन भुक्तेन सुखेनालमतः परम् । स्वर्ग लोकोद्भवं सौख्यं भोक्तव्यमधिकं मया ॥ इत्थं स्वान्ते विचिन्त्येव गोपणो वासरे शुभे । पुरन्दर पुरं शीघ्र हन्त गन्तु-मना अभूत् ॥ शुभ-वासग्वदावुदेन्दोडे ॥ सप्तत्रिंशत् - समेत त्रि- शत- दश शतेव्दे शके मन्मथाब्दे मासे चाषाद-संज्ञे वर-गुरु-दिवसे सत् त्रयोदश्युपेते । कृष्ण पक्षे मनोज्ञे निखिल-गुण-गणो गोपणो भूषणात भोक्तुं वा स्वर्ग-सौख्यं सुर- पुरमगमद् दिव्यमव्याहत -श्रीः ॥ आतन समाधि-विधान मेन्तेन्दोडे || परम-जिनेन्द्र-मूर्त्तियने जानिसुतं हृदयाम्बुजातदोळ् । परम-जिनेन्द्र-मन्त्रमने बिहेयोच्चरित्त निष्ठेयिम् । बेरळ्ळोलोय्यनोय्यनेणिसुत्त पावधियागे देहमम् । त्वरितदि बिट्ट मुक्ति-वडेदं कलि-गोपणम् कृतार्थेनो || भद्रमस्तु || पूर्व्वस्मिन् शक-वत्सरे शुभतरे पक्षे च कृष्णेऽधिके मासे भाद्रपदेऽष्टमी तिथि युते श्री - भौमवारे वरे । ૪૨ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૪ जैन - शिलालेख - संग्रह आ-तारापति- भानु-भूघरर-धरा ताराम्बरं तिष्ट (ष्ठ ) तु श्री गोपीश-परोक्ष-शासनमिटं सत्कर्म्मणा स्थापितम् ॥ [ वादिराज मुनिकी प्रशंसा । उनके शिष्य जयकीर्त्ति मुनिप थे; उनके शिष्य सिद्धान्त- व्रतिप थे । उनके शिष्य बुल्ल-गौड, उनके पुत्र गोपीनाथ, और उसकी माँ मल्लि गाण्डि । इन सबकी क्रमसे प्रशंसा । उनके शिष्य ( प्रशंसा सहित ) सिद्धान्त - देव-मुनिष थे, जिनका मस्तक बौद्धों को चुप करनेके लिये हमेशा सन्नद्ध रहता था । सांख्य, योग, चार्वाक, बौद्ध, भाट्ट तथा प्राभाकर सभीको उन्होंने शास्त्रार्थमें जीता था । बुल्लप- गौड, तथा उनके पुत्र गोपण-प्रभु जो अपनी म मलि-गौडिके हाथमें मक्खीकी तरह था, की प्रशंसा । राय - राजगुरु - मण्डलाचार्य, महा-बाद-वादीश्वर, रायवादि पित. मह अभयचन्द्र- सिद्धान्त-देवका पुराना (ज्येष्ठ) शिष्य बुल-गौड था, जिसका पुत्र गोपगौड नागरखण्डका शासक था । नागरखण्ड कर्णाटक देशमें था । नागरखण्डका खास भूषण भारति था, जिसमे जैन लोग, विद्वान्, न्यायी एवं श्रीमन्त लोग भरे हुए थे। इसमें एक उत्तम चैत्यालय था, जिसमें पार्श्व जिनेश विराजमान थे, उस नगर ( भारङ्गि ) का शासक गोप-गौडके पुत्र बुल्लप्पका पुत्र गोपण था, जिसके दो गुरु थे, पण्डिताचार्य और श्रुत- मुनिप; इनमे से एक उनको अनीतिके मार्गसे हटाता था तो दूसरा अच्छे मार्गपर लगाता था । इस संसारकी अच्छीअच्छी वस्तुओंका उपभोग कर, परलोक के फलोंकी इच्छा से, ( उक्त मितिको ), गोपणने समाधिकी रस्म से शरीर त्याग किया, और 'मुक्ति' प्राप्त की । भद्रमस्तु | यह समय उसी शक कालका था, जिसमें यह पाषाण लगाया गया था । [ EC, VII, Sorab tl., No. 329.] Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरे - आवलिके लेख ६११ हिरे - आवलि, संस्कृत तथा कच्च । [ शक १३३६ = १४१७ ई० ] [ हिरे आवखिमें, ११ व पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोषलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् || ॥ श्रीमद्-राय-राजधानि विजयानगर- मुख्यवाद- समस्त पट्टणाधीश्वर श्री-वीरहरिहर रायन कुमार प्रताप देव रायनु राज्यं गेय्वुत्तमिर्प कालदति शक-वर्ष १३३९ नेय विलस्वि-संवत्सरद चैत्र- बहुळ १० गुरुवारहलु श्रीमत्-सेन गणाortre मुनि भद्र-स्वामिगळ् प्रिय-गुड्डु हिरि-अवलिये राम- गौण्डन सत्-पुत्र गोप-गौण्डनु समाधि-विधियिं मुडिपि स्वर्ग-प्राप्ति आद ।। वृ || वीर - विनेन्द्र-पाद- पङ्कब-भृङ्गनुदार-चित्तनुद्- । धारकनन्त-ज - जीर्ण-बिन- वासव निम्मित-दान- पारगम् । गोर - दासि - वेसि पर-नारि-सहोदर मार- सन्निभम् । अपारद-गोप-गौण्ड-प्रभुवं पुर बष्णिकृतिककुमागम् ॥ क । बसदि कलु - वेसनने सगिये । वसुधेयोद्धुं पुण्य कीर्त्तियं अवलियाळम् । दस- दिक्किनलि गोपणम् । पसरिसिदं राम- गौण्डनदेम् पवित्रनु ॥ YRK वृ || परमाराध्य जिनेन्द्रं गुरु ऋषि-निवहं राम-गौण्डात्मजातम् । निस्तं रामम्बिका जननि अनुबनुं हा रामावुण्डं गुणज्ञम् । पिरि अण्णं चन्द्रमाङ्क सरसिज मुखि गोवकं पत्नियेम्बळ् । पिरिदुं स्वग्र्गापवर्ग-प्रकरदोळे सेवं गोप-गौण्ड कृतार्थम् ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह क।। पोडवि-पति देव-गयनु । तडेयदे राज्यवनु आळव-कालदोळन्दुम् । बिंडदे बिन-चरण-सेवेय। कडु-गुणि गोपण्ण पडेदनुत्तम-गतियम् ।। गुत्तिय-राज्यद वोळगम् । उत्तमवेनिसिहुदु हिरिय-बिड्डुळिगेयोळम् । अत्युत्तम-हिरि-अवलिय। पेत्तनु प्रभु-राम-गौण्ड-सुत गोपण्णम् ।। गुरुगळु श्री-मुनिभद्र। धरिसिदमवरिन्द गोपणाङ्कनु व्रतमम् । नररोळगे पुण्यवन्तनु । पिरिदं स्वर्गापवर्गमं नेरे पडदम् ।। अळ बह-चैत्र-बहुळदि। बेळगप्पा-जावदलि गुरुवारदोळम् । विलसित-विलम्बि-वत्सरद-। ओळगादुदु दुण-योग गोपि-देवर्गम् ॥ दासी-वेसिय-रूपम् । व. 'धोई पिरिदेन्दु तो... अनि व्रतदिम् । मासिद-कीर्तिगाळन्दम् । लेसेनिसिये गोप-गौण्ड स्वर्गव पोकम् ।। मंगल महा श्री [इस लेख में वंशावलि वर्णित है । देव-गयका राज्य-काल था । [ EC, VIII, Sorab tl., No. 119] Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाटिकल्लुके लेख ४७ ६१२ हादिकल्लु-संस्कृत ग्था कमाइ-मग्न । [वर्ष हेमलम्बो = 1.ई. (ल. राइस)।] [हादिकालुमें, रते हकलके पासके समावि-पाषाणपर ] श्रीमत्परमगम्भीरस्यावादामोघलाग्छनम् । बीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। ... ... ... ... श्रीमतु हेव मोळम्बि-संवत्सरद आषाढ़-सु १ बृहस्पतिवारदन्दु श्री-गुणसेन सैद्धान्ति-देवर गुड्ड ... ... ... हादिगलगुडिययप्प-गौडन हेडति काळि गावुण्डि समाधि-विधियिं मुडिपि सुर-लोकप्राप्तेयादळु मङ्गल महा [जिन-शासनकी प्रशंसा । ( उक्त वर्षमें ), गुणसेन-सिद्धान्ति-देवके गृहस्थ शिष्य ... अयप्प-गौडकी पत्नी का ळ-गौण्डि समाधि-विधिके द्वारा मृत्युको प्राप्त हुई और स्वर्गको गयी।] [ EC, VIII, Tirthahalli tl., No. 121. ] ६१३ हिरे-आवलि;- काद-मग्न । [शक १३४३% ११२१ ई.] [हिरेवावलिमें, २० पाषाणपर ] स्वस्ति श्रीमद्-राजधानि-विजयानगर-मुख्यवाद समस्त ... ... श्री-वीर-प्रतापदेव-राय-वोडेयरु राज्यं गेयुत्तमिर्प कालाल शक-वरुष १३४३ प्लव-समाश्विन ब-६ सु हिरियावलिय गोप-गौडन मगनु भैरव-गौरनु पञ्च-नमस्कारदि स्वर्मास्तनादम् ।। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ परम-बिन- पार्श्वनाथन चरण ...... ...... बिन-रत्न ...... ... ... ... ...... ... जैन - शिलालेख संग्रह ... | चरण-कमल-पट्टम् । भरि (भैरव बिनदासन उदित- वीर-व्रतदिम् । ष्टनेन्दा- 1 विनयाम्बुधि भय (भैरवं पोच.म् ॥ पित गोपीनाथनेनिपनु । मल ...... ...... 000 ... माते सुत भैरप्प ... I भव्य ॥ मातेयु कचि-गौड मातेयु तनगम् । गुरु- पञ्च-पदव नेनेऊत । सु-रुचिर- सच्चित्तदिन्दनात्मन पिरिदप्प गतिय पडदम् । सणि भैरप्प I स्वर्गव पोकम् ॥ [ इस लेख में भी समाधिके स्मारकका उल्लेख है । देव राय के राज्यका काल है । ] [ EC, VIII Sorab tl, No 120] ६१४ हिरे आवलिः - कद-भग्न | [ शक १३४३ = १४२१ ई० ] [ हिरे - आवहिमें, १८ व पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाध्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं बिनशासनम् ॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलेयूर (रु)के लेख ४५६ श्रीमतु राबधानी-विजयनगर-मुख्यवाद-समस्त-पट्टणाधीश्वर श्री-वीर-प्रताप-देवराय राज्यं गेयिजत्तमिर्प कालदलि सकवरुष १३४३ नेय सार्वरि-सं [4] सर. फाल्गुण-सु. ४ सो श्रीमत्-सेन-गणाग्रगण्यरु मुनिभद्र-स्वामिगळ्गे प्रिय-गुड हिरिय-आवलिय बोच-गोडन सुपुत्र मदुक गोडनु समाधि-विधियिं मुडिपि स्वर्गाप्तियादम् मङ्गळ महाश्री श्री यी-[क] म माडिदातमी-ऊर पूर्विक मदोजन मग बनदोजन ॥ [ लेखमें स्मारकका उल्लेख है । देव-रायका राज्यकाल है । ] [ Ec, VIII, Sorab tl., No 118] पहला लेख मलेयूर (रु);-संस्कृत तथा कार। [शक १३४४१४२२ ई.] [ मलेयूरु (उय्यमबल्लि प्रदेश) में ग्राम-प्रवेशके एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभोरस्यावादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। स्वस्ति श्री शक-वरुष १३४४ नेय शुभकृत्-संवत्सरद भावण-शुद्ध १५ ल्लु श्रीमद्राजाधिराज-राव-परमेश्वर श्रो-बीरदेव-राय-महारायर कुमार श्री-बोर-हरिहर. रायरु सोम-ग्रहणदल्लु कनकगिरिय श्रो-विनय-देवर श्री-कार्यक्के सल्जुब अङ्गरङ्ग-भोग मोदलाद देवता-विनियोगक्के मलेयूर चतुस्सीमेयोलगाद तोट तुडिके गद्दे वेद्दलु सुवर्णादाय होन्नु होम्बार सुङ्क तळवडिके ग्राम्मद मणय वोसगे मदुवे क्षौर डलपे सरदि निधि निक्षेप जल पाषाण अक्षीणि आगामि मुन्तागि ऐनु ळळन्या स्वाम्य सादाय-सहित आ-मालेयरु-ग्रामवन्नु धारा पूर्वकवाद शासन-दत्तवागि वासुदेवर-करें-गहे स्थान मान्यगळ होर्रातागि बिट्ट दत्ति (हमेशाकी तरह अन्तिम श्लोक) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० जैन-शिलालेख संग्रह [राजाधिराज राजपरमेश्वर वीर-देवराय-महारायके पुत्र वीर हरिहरराय ने कनकगिरिके देव विजयकी उपासनाके लिये मलेयूर ग्रामकी सारी भूमिका दान किया। दूसरा लेख श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य वर्द्धता जैन-शासनम् ॥ स्वस्ति श्री जयाभ्युदय-शालिवाहन शक-वर्ष १३४४ सन्द वर्तमानशुभकृतु-संवत्सरद श्रावण-शु १५ आ लु कनकगिरिय श्री-विजय-देवरिगे श्रीमन्महाराजाधिराज रानपरमेश्वर श्री वीरप्रताप देवराय-महारायर कुमार हरिहररायर मोडेयरु आ-कनकगिरिय श्री-विजयनाथ-देवर अमृत-पडि अङ्ग-रङ्ग-भोग-वैभवक्के कोट्ट धर्म-शासन तमगे कोट्रिह तेरकणाम्बय राज्यकके सलुव कोलगणद भागेय मलेयर ग्राम १ र चतुस्सीमेयोळगल्ल गद्दे बेद्दलु तोट तुडिके आरु-वन्नु मेलु-ओन्नु अड-देरे कुम्बार-देरे कल्ल-मने कोड़ेगे देव-दान बिनुगु बेस-वक्कलु होन्नु होम्बळि होङ्गे हारा सुङ्क दण्णायकर स्वाम्य मुन्तागि प्राकु-मर्यादे ऐनुनळ सर्व-खाम्यवनु अनुभविसिकोम्ब मलेयर ग्राम १ र कालुल्लि हुणसूरपुरद ग्राम १ उभयं ग्राम २ कं हिरिय मनेय पट्टे प्रमाण ग २३० ( आगेकी १३ पंक्तियोंमें दानका विस्तृत विवरण है ) अक्षरदलु नृरिपत्त-ऐळु होनिन मलेयूर ग्राम १ न सोम-ग्रहण-पुण्य-काल शुभकृतु-संवत्सरद कात्तिक-शु १ आरभ्यवागि त्रियम्बक देवर सनिधियल्लि स-हिरण्योदक-दान-( दान -धारापूर्वकवागि धारेयनेरेदु आ ग्रामद चतुस्सीमेल्लि मुक्कोडय कल्लनु नेट्टिति को? (b) वागि आ-प्रामद चतुस्सीमेयोळगुल्ल अक्षिणी-आगामिनिधि-निक्षेप-जलपाषाण-सिद्ध-साध्य अष्टभोग-तेनम-स्वाम्य सर्व पृथ्वी समस्तबलिसहित देवर अमृतपडिगाज-रङ्ग-भोग-वैभवक्के धारयन्नु एर कोटेवागि आ-चन्द्रार्क-स्थायियागि चित्तायसुवुदेन्दु कोट्ट धर्मशासन-बिट दत्ति ( पूर्वकी तरह अन्तिम श्लोक ) कोलगणद वासुदेवरिगे मले (IIIa) यूरलि कोटिह वूरु-मुण्डाग केरेय केळगे Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ के लेख : चतुरसीमेयल्लि प्राकु-मर्यादि नीरु वरिद बेळव इष्टु गद्दे होते स्थान-मान्य पूर्व मर्यादि बर् ... ओप्प श्री विरूपाक्ष (कन्नड़ अक्षरोंमें) [इस लेखका विषय शिलालेख नं० १४४ (ए० क०, जिल्द ४ थी, चामराजनगर तालुका ) से भिन्न नहीं है। अतः १४४ और १५६ नं. के लेखोका विषय एक ही है। इस लेखमें भी हरिराय ओडेयरने कनकगिरिके विजयनाथदेवकी पूजा, सनावट और रथयात्राके लिये हुणुसूरपुर ग्राम सहित मलेयूर ग्रामका दान किया । यह टान त्रियम्बक-देवके समक्ष किया गया था। मालेयूर गांव तेरकृणाम्बे राज्यके कोलगणका था।] [ EC, IV, Chamarajnagar tl., No., 144 & 159.] ६१६ भवणबेलगोला-संस्कृत। [वर्ष शुभकृत्स क १३४४ ( कोलहौ )-१४२२ ई.] [. शि० सं०, प्र० मा०] देवगढ़;-संस्कृत । [सं० १४१ तथा शक १३४६= १0ई.] [ ललितपुर से लाये गये एक शिलालेख को नकल ] अषभ चयत संश्रीभद्बर्द्धमानमहोटये विपुलं विलसत्कान्तौ कान्तारन्येऽमृतसागरे। सुगत सुमतिमन्नणाङ्काकलङ्क सकौमुद वितनुते सतां शान्यै शान्ति भियं समतिं मयं ।।श+ + + + र्भुवः श्रोते नश्वरानुदयाय ते। तस्चिदुद्यज्ज्वलज्ज्योतिराहतं श्रेयसे भये ||२|| पायादपायात् सदयः सदा नः सदा शिवो यद्विशदो हिताप्तौ चञ्चच्चिदा-१ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - स६ ४६२ २-- नन्दविशुद्ध चन्द्रद्युतौ चकोरं स्यपि ( १ ) शुद्धहंसाः ||३|| श्रीशंकरं श्रीरमणाभिरामं + + +सलक्ष्मणमर्हणाई | जिनेन्द्रनन्दं घनटं सुमित्रमजातशत्रुं विभजे चकोरं ||४|| स्ववाममायामयमप्यमायं वामं लसलक्ष्मणमर्हणा है । सीतेशसुग्रीवमहार्हणा वन्दे - २ ३ – सहर्षे सहसैकशीर्षं ॥५॥ सशल्यदुःशासननाशहेतुमजातशत्रुं सहदेववर्थे । वन्दे विशालार्जुन सद्य + + नन्दत्स्तां कर्णकुलं मृगाङ्कं ॥ १६ ॥ वामयेधाष्टकं (?) स्वेन कर्माधाक्षीद् यरक्षरं ( १ ) | साधोद्धर्द्ध दुरेखं तम्हंलीये विलयश्रिये ॥७॥ विगर्जनागरजाङ्क - ३ ४ - मतिं तक्षकं नमः । दुर्घटं सुघटद्वर्द्धमान जैनमहोत्सवं ॥८॥ वदनपरगिरीशो ...वित्रिदशन वेत्रवत्या कलेर्यत् । प्रभवतु स मृगाङ्को प्यस्तदोपो ऽकलङ्कः । कुवलयसुखहेतुर्नः श्रिये शान्तिसोमः ॥६॥ योदीदहच्च तिलकेक्षण वह्निनेह कामं - ४ .... ५- अमीमरदरं जनकं तदीयं । शक्तयान्वितस्त्रिनयनोप्यपवामवामः शान्तीश्वरखिजगतां स शिवाय पदपद्मयुग्म उपास्महे तदहं मुदा यदमयमर्त्यभुजङ्गमनम्र मौलिकुलास्मन्त् ि। विदलतमालसमुझ सत्सुन खेन्दुमण्डल मण्डलीविगलांशुभिर्भवश्री - ५ ... ६ - मुषः शशिनोऽर्हतो भवसंभवे ॥११ क्षीरकर्पूरनीहार-हारहीरहरावरां कुन्देन्दुकुमु क्षीरसमुद्रसान्द्र विलसत्कल्लोलमालोज्जवलां श्रीसवर्षश सुधांशुमण्डलमिलत्स्वर्लाककल्लोलिनीं । विद्रावन् निजभक्तचेतसि समुन्मीलत्तमोपद्रवां वन्दे७- जाड्यभिदे मुदे च भगवदुवाणीञ्च सत्सम्पदे ॥ १ श्रीमूल-लक्ष्म्या नृपनन्दिग) संघे गच्छेपच्छे मदसारदाख्ये । चुणे बलात्कारगणे गरिष्ठे श्रीकुं· · ****** विनेन्द्रचन्द्रागमदुर्गमार्गो यस्योडुपं त्यत्र सतां हि वाचः | अद्याप्युदञ्चद्यशसामजस्वबन्धाश्च स धर्मचन्द्रः ||२ यस्याशागजकर्णकैरववना-७ ८- नन्दैकसत् कौमुदी कीर्तिनगन रामरेन्द्रभुवने जेगीयतेऽहर्निशं । धम्र्मेन्दुः Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ के लेख "विलसल सकलः कलङ्कविकलः स स्याच्छुधांशुभिये श्रीमूल दये ॥ ३ धम्मँ चन्द्रमुनीन्द्रस्य पट्टोत्कृष्टोदयाचले । यस्योदयोऽभवत्तस्य तमस्तोमापनोदिनः ॥ रत्नकोर्सेर्लसन्मूर्त्तेस्तिग्मांशोः क - = ... ૪૬૨ ६—मलोदये । सतामप्यपपङ्कानां तपसां स्युर्यशोऽशवः ||५ अद्याप्यन्वैर्जजम्भे चरणचयचितस्रम्भदम्भाद् यदीया ज्योत्स्नेवानुष्णरश्मेः क्षरदमृतमयी .....| समिनां पुण्यपुण्योपदेष्टा सुत्रा सप्तप्रतिष्ठासु च बिनशशिनो रत्नकीर्त्तिः प्रशस्त्यै ॥ २ रत्न कीर्त्तिपदाम्भो कमलालङ्कृतासने । ये नोद्यद्वावि सस्या ... ... ... ... १० - लासेन भारती भूषणायितं ॥ १ गद्दुर्वादिवृन्दाम्बुददलनविधौ योऽभवत्तीव्रत्रातस्त्वेकान्तध्वान्तभानुः कुवलयसुखकृद् यस्त्वनैकान्त द्रान्ताङ्को - सकलकलः शङ्करो + + वृत्तः स्यादुद्द वृद्धयै मूलसङ्ग्रामलकमलनिधौ श्रीप्रभाचन्द्रदेवः ॥ २ पदे ततो नमदशेषम होश भाललग्नानि यत् कमरस्तिलकान्यभूवन् - १० कलङ्कः ११ – कल्याणकारिकमलाकुच केलिदानि पापापहानि समभूदिह पद्मनन्दी ॥ १ कः ससर्त्ति साम्यत्वं सन्निधावन्ननन्दिनः । न न सम्ममे यस्य स || २ के के पुराणसारीण्यं शिष्यानाकर्ण्य कर्णयोः । श्रीपद्मनन्दिनः प्रापुः सस्मितां धर्मदेशनां ॥ ३ प्रेम्ना कज्जलितं विशच्छलभितं चेतोभुवा वति - ११ १२ - तं रागाद्यैः स्मयदूषितैः परमतैर्भस्यत्तमस्तो मितं । मावैः प्रस्फुटितं नयैर्विरन्वितं धर्मैः समुद्योतितं सत्पात्राम्बुबनन्दिदीपतपसि प्राग जैन धर्म्मालये ॥ ४ सै क + चलति सद्वंसत्यनुष्णा द्युतिः क्षीराम्भोध्यतिचन्द्रमत्य हरहः स्पर्द्धन्ति हन्तो अति । श्रीमानम्बुबनन्दिन स्त्रिभुवने जेगीयमाना न यै- १२ १३ - र्वाद्यत्सद्यशसा न केन सुनटी कीत्तिर्नरीनही || ५ ज्ञानार्णवः समयसार - गभीरशब्दसमक्षणः प्रणवलीनलयः प्रमाणः । सि भुवनोपकृत्यै .. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह ॥ ६ इन्द्रोपेन्द्र फणीन्द्रगोष्पतिमति यः कोऽपि धत्ते पुमान् मन्ये पङ्कननन्दिनो गणगुणान् वक्तुं न सोपीशते । संसारार्णवतीर्ण- १३ १४- यामलधिया सनौकया सन्मुनेर्निष्कल्लोलचिदम्बुघावचलया पद्मायित लीलया || ३ श्रीपद्मनन्दिगुरोः पदपद्मप धर्मोपलक्षितदिशा मारमनोभिरम्य: प्रोद्भेद्य कौमुदमरं शुभचन्द्रदेवः ॥ १ अथ ४६४ ... संवत्सरे रिमन् नृपविक्रमादित्यगताब्द १४८१ शा-१४ १५ – के श्रीशालिवाहानाम् १३४६ वैशाखमा सशुक्लपक्षीय पूर्णमास्यां गुरुवासरे । स्वातिनः (न) क्षत्रे । सिहलग्नोदये || अतिविक्र + +य्०दे चन्द्राद्रयधीन्दु वैशाखे पूर्णका मृगयोदये ॥ साकृष्टकृपाणपाणिविलसत्तीव्र तापानलज्वालाजालसमाकुलीकृतगना घीशा - १५. १६- घरीशैणपे | श्रीमान् मालवपालकेशकनृपे गोरीकुलोद्योतके निःक्रान्ते विजयाय मण्डप पुराच्छ्रीसाहि आलम्भके ॥ १... सुमण्डलमण्डमानाखण्डलबालकुल मण्डमपी + +न्ये । संनिर्ममे शिवशिरोमणिवन्मनोज्ञ सबोधिनः सुविधिना सुविधिः सुबोधः || १ सोऽभूत्तस्मिन् त्रिभुवनपालो भुवने १६ I ... १७ - लसद्यशः कलशः । योऽलं त्रिभुवनलक्ष्म्या लेभे गणगुणं गणा + रणं ॥ २ निर्टम्भः सम्भगर्नद् गजसकलकला + + लाङ्काकलङ्क विपुलयशसो यस्य चित्रं पवित्रं । तस्य श्रीपुण्यलक्ष्याखिल गुणनिलयो धीरधीरो गभीर: पुत्रो गोत्राभप + पममहिमनिषिर्धीरधीः साधुसाधुः ॥ ३ + + लबाल कीर्तिलतात्रि- १७ १८ - तानधारावरः सुसमयोप्यतमस्क कल्यः । सन्तापहारि कापसा भव 'वनिवि + देवः ॥ विद्युल्लतेच विमला • पतिव्रताङ्का सौभाग्यभूषरसुता नररत्नगर्भा तस्याम्बिका च वनिता वनिताम्बि ha ॥ ५ अभूदमसौम्यपि तयोपि तयोर्वागर्थयोरित्र होली सुनन्दनः श्रीमान् १८ ... ... 11. ...... Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५ देवगढ़के लेख १६--रसोत्साहाभिनन्दनः ॥ ६ बर्द्धमानार्थिनामर्थे वर्द्धमानान् मनोरथान् सार्थ यन्नर्थतः श्रीमान् होली कल्पाघिपायते ॥७ सन्मूलः सदलोल्लसत् ...... प्रशाखोच्छिखः श्लाध्य स्वच्छ कुलैः फलैरविकलः सुच्छायकायश्रियः । सन्तापेऽपि क्षपाकरः कुवलये श्रीहोलिकल्पाघ्रिपो जीयात्तर्जितदुर्जनोऽ र्जुनय- ६ २०-शोबासोऽर्कचन्द्रार्थिभिः (१)।८ अविकल्पलल्पलतया सुकान्तया कान्तया कान्तः । असकृत् सुकृतसमुन्नतधाराधरनिर्भरासारैः ।।६ यः कान्ता ++ न्नत ... . . . . . . कमलाख्ययाधनाख्यं धनदं सुधनञ्जयं साधुः ॥१० वधूधनश्रीफलमालयालं गल्हेशवंशानुजनन्दनैश्च सुवर्णरुक्माहिरमा- २० २१–गरैभिः सरत्नभूगजग्ठकुराग्यः ॥११ गाम्भीर्यजलदासये विचलता देवाचली माई नृत्यकार्तिककेकिकाय विगलप + + तं + दयः ... ... ... सटाभिततया सर्व सहत्वं घरा यस्मादेव मिता ददुः स जयतात् श्रीहोलि सङ्घाधिपः ॥१२ विस्मयन्ते धरित्राणि . . . . . . 'होलिसाधुना। य- २१ २२-यशोऽसदुग्धान्धौ वृपः कौमुदमेधते ॥१३ यद्यशो विष्णुनाप्युच्चैः कलावप्यकलाङ्कना । ++स भेशशेषत्वं विश्वविश्वमुपाददे ॥१४ + दैव + ति सुजनवाञ्छ ... ... णां । अनुभवति वांसि गुरुविश्व विस्मयति होलिकृती ॥१५ गुणवानपि धर्मात्मा वक्रः सद्धर्मजोपि यः । यद + सोमदो हो- २२ २३-ली ऋजुसन्थाप्यलोभमाक ॥१६ रोदसांवरसच्छुक्तासंपुराद् यदयशो लसत् मुक्ता मुक्त्यङ्गना मुक्ताहारं होल्या रसोईतात् ।।१७ सत्केतकीकु .. ... .. कारासंकास ... ... यशसात्ममयीकृताशः । सोल्लाससारसनि वासिमया महान्तो होलीश्वरोऽस्तु सधन जयसार्थवाहः ।।१८ नाको- २३ २४ - सि त्वमहं वृषस्तनुतनुः किं पुत्रपित्रोः शुचा सानन्दं वद सब किं मृगयसे भूयोवतारस्तयोः । त ++ कलौ वदाशु नृकवे किं वर्द्धमानेऽनये... . .." मद्र्पो... ... .. होलि सं + +रे ॥१६ ३० Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह श्रीहोलीकमलाकरे कुवलयं सत्कीर्तिकञ्चायते शेषेनालसि सद्दलीयति गजै दिक्षु प्रकाशीयति । मेरौ चित्रम- २४ २५-जात्र चित्रपि तन्मित्रास्तचिन्तापमृद यन्नालीयति सन्मरालति कलङ्की यत्र दोषाकरः ।।२० चन्द्रो निसिता +-तिप्रविकशद्र.. ... ..."जम्बालति । सिद्दीपत्यखिलाचलाचलविभुभं + + नन्तमितत्युद्यद्धोलियशोम्बुधौ सम ... .."धम्मकनौकेत्यहो । २६-- २१ तत्रप्यत्रैको हेतुस्तद् यथा तथा हि ॥ विविक्तः शक्तिमान् होली विविद्यश्वोक्तिमान है । इत्यावयोर्महान् स्नेहः सततं ववृधे बघाः ॥२२ येनाकारि मनोहारि पुरन्दर ... ... श्रीलजिनालयं ।। २३ सतां सन्तोषपोषाय श्रेयसे चात्मनः श्रिये । सुखाय विमुखाक्षाणां चेह स्नेहाय पश्यतां ॥२४ खण्डे भू +त+ शो.. २६ २७-तंसोभूत् साधुदेहाख्यः । वेदश्रिया स लेभे सुसुतं श्रीवल्लदेवाख्यं ।। स वल्लणश्रीरमणोपि सूनुं विचक्षणं लक्षणलक्षिताङ्गं । लेभे नृपं लक्षणपालदेवं देवा... ... ... श्रिया श्रीमत् क्षेमराजाभिवाङ्गनं । धर्मार्थ कामससिद्धिसाधकं भाग्यतोऽलमत् ||३ द्वितीयमद्वितीयोद्यत्प्रतापातापि-२७ २८- तद्विषं । + +भाग्धुराधूय्यवयं माधुर्यसागरं ।।४ नाम्ना देवरति सटो टयमतं सन्मयलक्ष्मीपति धर्मध्यानगतिं निरस्तकुमति यो नित्यमेवाददे। यश्चक्रे जिन+र्चनेऽचलरतिं स ... ... साधुबनेवि ||५ श्रेष्ठः पद्म श्रिया श्रेष्ठं स्ववंशाम्भोजभास्करं मनुं नयनसिंघाख्य लेभे रत्यामरावरं? ।।६ नृरत्नं रत्ननामानम. २८ । २६-यत्नाभ्यस्तपाद ? सुतमाप्य समस्तास्तकुमति स दिवं ययौ ॥७ अलभन्मल्ह णदेगनयारम्भाभयाङ्गजं चाथ । बालकलेशमिवालं कलया कलया... • 'पतिसङ्घनायो... दिल्हण देव्याभिनन्दितनन्दनः। अथ पद्मसिंहनन्दनमुख्यैरपि नन्दतानिशं ॥६॥ प्रतिष्ठयाति गारिष्ठयं यन्नामादेव देहिनां । तस्याब्जनन्दि- २६ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ के शिलालेख ४६७ ३० – नो मूर्त्तेः कः प्रतिष्टाघटामटेत् ॥ १ शुभसोमाज्ञया सोसौ तथापि गुणकीर्त्तिना । वर्द्धमानाभिधैः श्रीमद्वरपत्यादिभिर्बुधैः ॥ २ श्रीपद्मनन्दि दमवसन्तमहात्मने मूल्यन्विधाय विधिनाभिगतां प्रतिष्ठामेतां हि नन्दनसुनन्दन नन्दनाद्यैः ||३ सङ्घ श्वरः कुत्रलयेऽमल होलिचन्द्रः सङ्घदेश ३० ३१ — देवपतिवाक्पतिनेन्द्रमुद्रः | सन्मङ्गलैः सकलबन्धुजनो + वृ दैर्वर्षत् सहर्षमुपकारसुधाधारां ॥४ परोपकर्त्ता यो यद् यशा श्रीमान् सततधर्मात्मवृष्टि यो दानवारिणा । धत्ते स सत्यधम्र्मेश जीयाद्धोलो नरोतमः ||२ मोदत् कुवलयं यस्य यशस्तिलकमुत्तमं । दि- ३१ 1 ३२- दीपे उपमं सोमः स बीयाद्धोलिशङ्करः ॥ ३ प्रातः कालीयरागदलदखिलतमोरे गुरे पादपद्मत् पद्मा सिलचम्यास्तरुण चञ्चच्चान्द्रीयश्चाकलङ्क सकलकुवलये साधुतां होलिसाधोः || ४ अग्रोतकान्वये गर्ग गोत्रे हाटबुधाङ्गजाः बभू- ३२ ३३- वुः साधवः क्षीमाहरु गङ्गामराभिघाः ||५ तेषामाद्यात्मनस्तत्र वील्लोभूःपल्हिकाङ्गन हरुरत्नथियोः सूनुस्ततो भून्तरणः सुदृक् ॥२ नया ततः ॥ ३ समननि वसन्तकीययों वोल्हणवर्द्धमाननन्मा मृगयन् माताजयितश्रीक्षाल्हीचार्थ्याकरो हिमासबुधः ॥ ३३ ... ... ' ३४ – प्रशस्तिमुद्यद्वृषभार्हचन्द्रसान्द्रार्थतीयों + + धा चकोर: । सतां मुदे सत्कविवर्द्धमनो जिनं समाराध्य विवर्द्धमानं ॥ ५ श्रीवर्द्धमान विबुधाननपद्मचञ्चत् पीयू धारां पीत्वा द्रुतां श्रुतियुगाञ्जलिभिस्त्वमीमां नन्दस्तु संसुमनसः शुचिचञ्चरीकाः | ६ || शुभमस्तु सतां सदा || सुतश्चिरं नीयात् । रिपुनृपसिन्धुसवा विभू परमाहि आलम्मः || १ श्री साह्यालम्माधिपतनुजे रिभूपमौलिमाणिके । गर्जति गर्जनस्थाने ग + + गोरीकुलं कुवलयेस्मिन् ... ... ... ... सार इस शिलालेखको मिस्टर एफ़० सी० ब्लैक ( Mr. F. C. Black ) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह ४६८ ने ललितपुर जिले में पाया था। यह देवगढ़ के पुराने किले के भग्नावशेषों के ऊपर उगे हुए जाल में मिला था । मि• ब्लैकका अनुमान है कि यह शिनालेख किसी ध्वस्त जैन मन्दिरका है। ___ इस शिलाखण्डका माप ६ फीट २ इञ्च x २ फीट ६ इञ्च है तथा मोटाई लेख की भाषा अत्यन्त शब्दाडम्बर सहित है। लेखके करीबन मध्य में (पंक्ति १५ ) में दिया हुआ काल अक्षरों और अको दोनोंमें खूब संभाल के साथ दिया हुआ है। वह यह है ... "गुरुवार, विक्रम सं० १४८१ के वैशाख मासको पूर्णमासी तथा शालिवाहन (शक ) सं० १३४६ के स्वाति नक्षत्र और सिंह लग्नके उदयमें ।” गजाका नाम छोरी ( गोरी) वंशका शाह आलम्भक दिया हुआ है, यह मालव या मालवाका राजा (शासक ) था। श्री गजेन्द्रलाल मित्र, एल एल. डो, सो० आई० ई (Rajendralala Mitra, LL. D., C. I. E.) 3497 ale (पृ०६७ ) मे कहते हैं कि उन्हें इस नामके किसी राजांका पता नहीं है, लेकिन सुल्तान दिलावर गोरी ( Ghori) के द्वारा स्थापित मालवाके गोरी वंशमें द्वितीय सरदार सुल्तान हुशंग गोरो उर्फ अलप खाँ था, जिसने माण्डुका शहर बसाया, राज्यको राजधानी धारसे वहाँ हटायी, और १४०५ ई. से १४३२ ई. तक राज्य किया, और इसमें कोई संशयकी बात नहीं है कि इसी सरदारको संस्कृतमें 'आलम्भक' लिखा है। उमकी नयी राजधानीका नाम शिलालेख में मण्डपपुर दिया हुआ है। ते खका विषय होलो नामके जैन पुरोहित द्वारा पद्मनन्दि और दमवसन्तकी दो मूत्तियोका समर्पण है। यह समर्पण शुभचन्द्रकी आज्ञासे किया गया था। उनके नाममें कोई शाही विशेषण नहीं लगा हुआ है । लेखका प्रारम्भ बर्द्धमान नगरमें कान्तमें स्थापित होनेवाले वृषभ ( वृषभदेव, प्रथम तीर्थंकर ) की स्तुतिसे होता है। और इसका अन्तमें लेखकके अपने विषय Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ के लेख ४६६ के संक्षिप्त वर्णनसे होता है। बीचमें कुछ नामोंकी वंशावली आती है; वह इस तरह है :-१. सायंदेह, २. उसका पुत्र वल्ल देव, ३. उसका पुत्र लक्ष्मीपालदेब, ४. उसका पुत्र हेमरान, ५१, .. पद्मश्री, ७. रत्न, ८. रम्भामय, १०, पद्मसिंह । [ JASB, LII, p. 67-80 ] t. & tr. सरगूरु-संस्कृत और कन्नड़-भग्न । [ शक १३४६ = १४२४ ई.] [ सरगूरु ( सरगूरु प्रदेश ) में, गाँव दक्षिणकी ओर पञ्च-बस्तिमें एक पाषाणपर] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोवलाञ्छनम् । नीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ।। स्वस्ति शक-वरुष १३४६ नेय शोभकृतु-संवत्सरद वैशाख शु १३ गु। प्रचण्ड-टोर-दण्ड-मण्डली-मण्डन-मण्डलामण्डिताराति-प्रकाण्ड महा-मण्डलेश्वर समुद्र-दायाधीश्वर श्रो-मतु विजय-बुक-राय-राज्याभ्युदये श्रीमद्भगवद हत्परमेश्वर श्रीपाद-पद्माराधकरप्प श्रीमन्महाप्रधान बयिचय-दण्डनाथर पादपद्मोपजीवी होयसल-राज्याधिपति नागण्ण-वोडेयर ... इम्मितूर ........ ताप-हार हण्डलेगणाग्रगण्यर् अप्प श्रीमत्पण्डितदेव इवर शिष्या बयि-नाड महाप्रभु मस यहळिय कम्पण-गवडर तमगे स्वर्गापवर्ग निमित्यागि बेळगुळद श्री. गुम्मटनाथ-स्वामिगळ अङ्ग-रङ्ग-भोग-संरक्षणार्थवागि तम्म बय-नाडोळगण तोटहल्लिय ग्राम १ आ चतुस्सीमेयोळगण केरें गद्दे-बेहलु-तोट-तुडिके-कुळ होम्बाळ आय-होन्नु ... ... होन्नु हन्दलु-मित्र-होति मादार-तेटे-शुङ्क-निधि-निक्षेप बल पाषाण-मुन्ताद सकल स्वाम्यद कुळवनु रायरु दण्णायकर ... ... यलि नागण. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० जैन-शिलालेख-संग्रह ओडेयर कयिन्दवु बिडिसि धी-गुम्मटनाथ-स्वामिगळिगे आ-चन्द्राई सलु. वन्तागि गुम्मटपुरवेन्दु कोट्ट दान-शासन । स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां । पष्टि-वर्ष-सहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ।। अक्षयसुखमी-धर्ममनीक्षिसि रक्षिसुव पुण्य-पुरुपर्गक्कुम् । भक्षियिपातन सन्तानक्षयमायुःक्षय कुलक्षयमक्कुम् ।। (हमेशाकी तरह अन्तिम श्लोक ) [जिन शासनकी प्रशंसा । इस लेख में विजयी बुबारायने, स्वर्गप्राप्तिके लिये, बेळगुळ (श्रवणबेल्गोल ) के गुम्मटनाथ-स्वामी की पूजा एवं सजावट के लिये तोटहल्लि गाँव भेटमें दिया है । बुधाराय भगवटहत्यरमेश्वर का आराधक था। बयिनाइ , मसनहल्लि कम्पनगवुडका अधिपति था । तोटहल्लि गांवके साथ-साथ उसकी चारों तरफकी सीमाओंके अन्दरके तालाब, धान्य (चावल )-भूमि, सूखे खेत, बगीचा, भण्डार, आसामी, 'हाम्बलि', आयका रुपया," , छप्परखाने, " . .. निम्न श्रेणीकी चीजोपर कर, चुङ्गी, भूमि-भण्डार, निधि, रहन (निक्षेप), जल, पाषाण तथा पूरे स्वामित्व ( मालिक ) के जितने अधिकार हैं, वे सब दिये। इन चोनों को नागण्ण-ओडेयरके हाथ से दिलवाया तथा इन सबमें राजा तथा दण्णायककी भी आजा ले ली, जिससे कि यह सब दान तबतक जारी रहे जबतक चन्द्र और सूर्य गुम्मट स्वामीकी रक्षा करते हैं। आर गाँवका नाम गुम्मटपुर रख दिया। इस सबका उसने दान-पत्र ( शासन ) लिख दिया । ] [ EC, IV, Heggadaderankote tl., No. 1] - - - Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्गनाके लेख ६१६ वराङ्गना -- संस्कृत तथा कन्नड़ काल- शक सं० १३४६ ( A. D. 1424 ) ( साउथ कैनरा के Sub-Court में ) कन्नड़ लिपि में संस्कृत और कन्नड़ भाषा में तीन ताम्र पत्रों पर जो एक अंगूठीके द्वारा जुड़े हुए हैं । इस अंगूठीपर एक मुहर लगी है जिसपर एक जैनमूर्ति है । दानदाता विजयनगर के राजा देवराय है। दान का काल शक सं० १३४६ ( १४२४ ई०), क्रोधी संवत्सर है। इस ढानपत्र के वराङ्गनेमिनाथ मन्दिरको दान किया गया था । प्रकार टी हुई है : --- बुक्क महीपति 1 हरिहर 1 देवराय 1 विनय भूपति, नारायणीदेवी से विवाह किया ४७१ द्वारा वराङ्गनाका गाँव राजा की वंशावली इस देवराय शासनकाल उस राम के राज्यकालसे मिलता है जिसे बर्नेल Burnell ने (Sonth Ind. Paleography, p. 50 ) देवराज, वीरदेव या वीरभूपति बताया है । लेकिन उसके वंशजका नाम उक्त लेखक के द्वारा दिये गये नामसे Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह भिन्न पड़ता है । ( ८२, ८० अङ्कों से तुलना करो, जिनमें टी गई वंशावली इस दानपत्रगत वंशावली से मिलती-जुलती है। ) लेखकी भूमिका में कुन्तल देशकी राजधानी विजयनगर बतलाया गया है । ४७२ [ R. Sewell, Archaeslojical Survey of Southern India ( ASSI, II), p. 14. No 89, 8. ] ६२० विजयनगर - संस्कृत | [ शक १३४८ = १४२६ ई० ] A मन्दिर के महाद्वारके समीप बाय ओर । शुभमस्तु ॥ श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोलाञ्छनम् । या त्रैलोक्यनाथस्य शासनं निनशासनम् ||१|| श्रीमयादवान्ययार्णवपूर्णचन्द्रस्य श्रीgazastra [] पुण्य [परिंग ]- क परिणतमूर्ते हरिहर महाराजस्य पयावताराद्वीराद्देवराजन रेश्वराद्देवराजादिव विजय श्री चोरविजयनृपतिस्संवातस्तस्माद्रोहणादेखि महामाणिक्यकांडो नीतिप्रतापस्थिरीकृतसाम्राज्य सिंहासनः । राजाविराजराजपरमेश्वरादिविरुदविख्यातो गुणनिधिरभिनवदेवराज महारानी निजाज्ञापरिपालितकर्णाट देशमध्यवर्त्तिनः स्वावासभूतविजयनगरस्य क्रमुकपणापणवीभ्यामाचंद्रतारमात्मकीर्तिधर्म्मप्रवृत्तये । सकलज्ञानसाम्राज्यविराजमानस्य स्याद्वादविद्याप्रकटनपटीसः पार्श्वनाथस्थाईतः शिलामयं चैत्यालयमचीकरत् [ ।। ] देश: कर्णाटनामाभूदावासः सर्व्वसंपदां । विडंत्रयति यः स्वर्ग पुरोडाशाशनाश्रयं ॥ [ २ ] विजयनगरीति तस्मिन्न [ग] री नगरीति रम्यहम्यस्ति । नगरि (री) नगरी यस्या न गरीयस्येव गुरुभिरैश्वय्यैः ॥ [३] Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर के लेख कनकोज्वल सालरश्मिनालैः परिखांबुप्रतिबिंबितैरलं या वसुधेव विभाति वाडवानिवृतरत्नाकरमेखना परीता || श्रीमानुद्दामधामा यदकुलतिलकस्मारसौंदर्य मीमाधीमान् रामाभिरामाकृतिरवनितले भाति भाग्यात्तभूम [ । ] विक्रांत्यादिको मितघरणिभृत्पंकज श्रेणिविकक: ( 1 ) क्षोण्यां जागत्तिं बुक्कक्षितिपतिररिभूभृच्छिरछित्त्कः ॥ [ ४ ] तत्प्राप्तात्मावतारः स्फुरति हरिहरमापतिज्ञनिमारो दारिरफारवाराकरतरणवि [ धौ ] विस्फुरत्कर्णधारः । भूदानस्वणठानानुकृतपरशुधृ ( या 'भृ' ) पद्मिनीबंधुमूनुः स्फागकूपारतीरावळिनिहित जयस्तंभविन्यस्तकीत्तिः ॥ [ ५ ] तेनाजन्यरिराजलल्लन शिर स्तोमस्फुर - च्छेख प्रत्युप्तोपलदीपिकापरिणमत्पाद (ब्जनीराजनः | विद्वत्कैरवमंडलीहिमकरो [वि] ख्यात वीर्य्याकिर [ : ] श्रेयान्वीरस्मास्वयंवृतवरः श्रीदेवराजेश्वरः ॥ [ ६ ] तजन्मास्मिन्वदान्यो न [ ग] ति विजयते पुण्यचारित्रमान्यो दानध्वस्तात्थिदॆन्यो विजयनरपतिः खंडितारा [ ति ] सैन्यः । प्रत्युद्यज्जैत्र यात्रासमसमयसमुद्भूत के तुप्रसून [ स्फा ] य [ द्वा ] त्योपहत्या प्रातहतमितः ॥ [७] B. महाद्वारके दक्षिण ( दार्थी ) ओर । तस्मादस्मिञ्जितात्मा जनि नगति यथा जंभजेतुर्जयंतो राजा श्रीदेवराजो विजयनृपतिवाराशिराकाशशांकः । कोपापप्रवृत्तप्रबल रणमल द्विप्रतीपक्षमापप्राणश्रेणीनमस्थिन्निकचलन व्यग्रखङ्गोरगेन्द्रः ॥ [ ८ ] वीरश्री देवराजो विजयनृपतरस्तारसं जातमूर्तिभूविभाति प्रणतरिपुततेरात्तिं जातस्य हत्ती | - - ४७३ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ जैन-शिलालेख-संग्रह फरकोधेद्धयुद्धोद्धरकर टिघटाकर्णशूर्पप्रसर्पद् - वातबातोपघातप्रतिहतविमतादभ्रधृत्यभ्रसंघः ॥ [[ यद्धाटीघोरघोटीखुग्दालतधरारेण भिर्यिवह्न - म [स्तो ] मायमानैः प्रतिनृपतिगणस्त्रीदृशः साश्रुधाराः । प्रोद्यद्दपप्रभूतप्रतिभटसुभटास्फोटनाटोपजामद् . रोषोत्कर्षांधकारद्युमणिरुटयते देवराजे रवगेऽयं ॥ [१०] विश्वस्मिन्विजयक्षितीशजनुपः श्रीदेवगजेशितु. लक्ष्मी कीतिमिताहजं कल यते शौर्याख्यसय्योटयात् । आशा यत्र पलाशामुपगताः स्वर्णाचलः कणिका भृगा दिक्ष मतंगजा जलधयो माटबिंदूत्कराः । [१] विख्याते विजयात्मजे वितरति श्रीदेवराजेश्वरे कर्णस्यानि वर्णना विगलिता बाच्या दधीच्यादयः । मेवानामपि मोघता परिणता चिंता न चिताम []: म्वल्पाः कल्पमहीरुहाः प्रथयते म्वर्णेचिकीनीचतां ॥ [१२] सोयं कात्तिसरस्वतीवसुमतीवाणीवधूभिन्समं भव्यो दीव्यति देवराजनृपतिर्भूदेवदिव्यद्रुमः । यश्शौरि लियाचनाविरहितश्चंद्र : कळंको झितः शक्रम्सत्यमगोत्रभिद्दिनकरश्चामत्यथोल्लंघनः ॥ [१३] मदनमनोहरमूत्तिः महिळाजनमानमारसंहरणः । गजाधिराजराबादिमपटपरमेश्वर्गादनिनबिरुदः ॥ [१४] शक्तौ बुक्कमहीपालो दाने हरिहरेश्वरः । शौर्ये श्रीदेवराजेशो ज्ञाने विजयभूपतिः ॥ [१५] सोयं श्रीदेवराजेशो विद्याविनयविश्रुतः । प्रागुक्तपुरवीथ्यतः पर्ण पूगीफलापणे ।। [१६] Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरके लेख शाकेन्दे प्रमिते याते वसुसिंधुगुणेंदुमिः। पराभवादे कार्तिक्यां धर्मकीर्तिप्रवृत्तये ।। [१७] त्याद्वादमतसमर्थ [न] खतिदुर्वादिगम्वाग्विततेः । अष्टादशटोत्रमहामदगजनिकुरुंबमहितमृगराजः ॥ [१८] भव्यांभोरुहभानोरिंद्राटिसुरेंद्रवृंदवंद्यस्य । मुक्तिवधूप्रियभत्तः श्रीपार्श्वजि[ने]श्वरस्य करुणाब्धेः ॥ [१८] भव्यपरितोषहेतं शिलामयं सेतुमखिलधर्मस्य । चैत्यागारमचीकरदाधरणिधुमणिहिमकरस्थैर्यम् ॥ [२०] सारांश विजयनगर प्राचीन समयमें जैनियोंकी राजधानी थी। शक १२७६ ( सं. ११४२) से यादववंशी दि. जैन राजाओंका राज्य था। इस वंशकी वंशावली निम्न भांति है : १. यदुकुल के बुक्क २. उसके पुत्र, हरिहर (द्वितीय), 'महाराब' ३. उसके पुत्र, देवराज (प्रथम) ४. उसके पुत्र, विजय या वीर-विजय (पं. २)। ५. उसके पुत्र देवराज (द्वितीय), अभिनव-देवराज । अन्तिम महाराजा देवराजने अपने पराक्रमके कृत्य और अपना नाम अजरा-. मर करने के लिये अपने राजमहलके पास 'पान-सुपारी-वाचार' ( पर्ण-पूगीफलापण, श्लो० १६ ) नामक बगीचे में एक चैत्यालय ( चेत्यागार ) बनवाया और मन्दिर में श्रीपाश्वनाथस्वामीकी प्रतिमा विराजमान को ।। ____ नोट :-इस वर्णित विजयनगरके प्रथम या यादव वंशावलिके क्रममें बुकके पिता और बड़े भाई के नाम तथा वे शक मितियां, जिनका लेखमें कोई संकेत Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ जैन - शिलालेख संग्रह नहीं हैं और न यहाँ ही नीचे टिप्पणी में दी गयीं हैं, मि० फ्लीटके उसी वंश के कालक्रम क्रसे' उद्धृत की जाती हैं। वे इस प्रकार हैं : संगम 1 हरिहर प्रथम ( शक १२६१) बुक ( शक १२७६ [ चालू ], १२७७, १२७= १२६० ) 1 हरिहर द्वितीय ( शक १३०१, १३०७, १३२२. ) I देवराव प्रथम ( शक १३३२, १३३४.) 1 विजय I देवराज द्वितीय ( शक १३४६, १३४७,१३४८, १३५३ [चालू ], १३७१ [ South-Indian ins., Vol I, No I53 (p 160-167 ). ] 3 1 Jour. Bo Br. B. A. S. Vol XII. q. 339. २ यह मिति शि० ले ० नं० ५८५ की है। २ मि० सोवै ( Sewell ), Lists, Vol. I, p. 207, इस राजा के एक शिलालेख का उल्लेख करते हैं, जिसका मिती शक १३४० ( व्यतीत ) कही जाती है। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेगूरके लेख ४७७ ६२१ बेगूर;-संस्कृत तथा काद-मग्न । [ शक १३४६ = १४२७ ई. ] [ बेगूरमें ( बेगूर परगना), ध्वस्त जिन-वस्ति श्रवणप्पनदिन्नेमें पषाणपर ] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वाटामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। स्वस्ति शक-वरुप १३४६ नेय पराभव-संवत्सरदजु श्री-मूल-संबद देशोय-गगद कोण्डकुन्दान्वयद पुस्तक गच्छद ... ... ... श्रीमतु प्र ... ... .. सिद्धान्तिदेवर शिष्यरप्प श्रीम च्छुभचन्द्रसिद्धान्तिदेवर गुड्ड चकिमय्यन नागिय करियप्प -दण्डनायक, रप्प टण्ड ... ... ... ... मोरम-नाडाळ्वन्दे काटि ... .. कलियूरग्रहार कोट सर्व.बाध-परिहारबागि चोकिमय्य जिनालयं चन्द्रादित्यरुळनक सल्वन्तागि ... ... धर्मम नडमुवन्तागि ..... ... ... (वे ही शापात्मक वाक्य) श्रीम ... ... ... ... .... ण्डनायक चोकिमय्य ... ... ... ... ... रडु निलिसिदनु कलु ... ... मडिसिकोट ... ... [जिनशासनकी प्रशंसा । ( उक्त मितिको ), श्री-मूलसंघ, देशिय-गण, कोण्डकुन्दान्वय तथा पुस्तकगच्छके प्र... ... सिद्धान्ति-देवके शिष्य शुभचन्द्र-सिद्धान्ति-देवके गृहस्थ शिष्य किमय्यके (पुत्र) नागिय करियप्प-दण्डनायकने ... ... ... ... जब वे मोरसु-नाड् पर शासन कर रहे थे, कलियूर अग्रहारके लिये दान ( जो कि मिट गया है ) किया, ताकि चोकिमन्य जिनालय तबतक जारी रहे जबतक सूर्य और चन्द्रमा है । शाप] ( EC, IX, Bangalore tl., No. 82 ] Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह ६२२ गिरनार-संस्कृत । [सं० १९८५ = १४२८ ई०] स्वेताम्बर लेख। [Revised Lists ant, Bombay ( ASI, XVI), p. 354-355, No 12, t. & tr.] ६२३ आनेवाळु-संस्कृत और कचर। [ साधारण वर्ष ११३० ई० ( लू० राइस )] [आनेवाळ ( बेट्टदपुर प्रदेश) में, बस्तिके रण-मण्डपमें भीतर के दाहिनी ओरकी दीवाल पर] . श्रीमतु साधारण-संवत्सरद माग-सुध १० यलु बानेवाळ-विकण्णगौडर मचळ होनण-गौडा तम्म मग हुट्टिद बोम्मण-गोडरिगे पुण्यवागबेकेन्दु कट्टिसिद ब्रह्म-देवरु पद्मावतिय बस्तिय धर्म-शासन श्री श्री । [आनेवाळके चिकण-गौडके पुत्र होन्नण-गौडने अपनी चिरन्जीव बोम्मण्णगौडकी पुण्यकी प्राप्ति के लिये ब्रह्मदेव और पद्मावतीकी बस्तिको बनवाया । ] [ EC, IV, Hunsur tl., No. 62] १. कंसके शक नागरी अक्षरों में हैं। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकलके लेख ६२४ कारकल;-संस्कृत तथा काद। [ शक सं० १३५३ - १९३२ ई.] [गोमटेश्वर-मूर्तिस्तम्भके ठीक बॉयीं तरफ ] १. सूरितनु भैर२. द्रकुमार श्री पाण्ड्य ३. रायनिंदतिमु४. ददि । कारित गुंमट. ५. जिनपति चारु श्री मू६. ति कुडुगे निमगभिम७. तमं ॥ श्री पाण्ड्य राय जय [1] [EI, VII, No. 14. D.] [गोम्मटेश्वर-मूर्ति-स्तम्भके ठीक दाहिनी तरफ ] पंक्ति १. श्रीमद्देशीगणे २. ते पनसोगे वलीश्वरः । ख्या - ३. योऽभूललितकी४. याख्यस्तन्मुनीन्द्रोपदे५. शतः । स्वस्ति श्रीशकभूपते६. स्त्रिशरवनी (न) दो विरोध्या७. दिकृद्वर्षे फाल्गुनसौ. ८. म्यबारधवलश्रीद्वा६. दशीसत् तिथौ । श्री सोमा१०. न्वय भैरवेन्द्रतनु Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह ११. श्री वोरपाण्डयेशिना नि१२. माप्य प्रतिमाऽत्र पा. १३. हुपलिनो जीयात् प्र१४. तिष्ठापिता ॥ शकवर्ष १५. १३५३ श्री पाण्ड्य राय ॥ [शक राजाके विरोभ्यादिकृत् वर्ष, अर्थात् १३५३३ वर्षके फाल्गुन शुक्ला १२, बुधवारके दिन सोम वंशके मैरवेन्द्र के पुत्र श्री वीर पाण्डयेशी या श्री पाण्ड्यरायने यहाँ ( कारकलमें ) बाहुबलकी प्रतिमा बनाकर प्रतिष्ठित कराई । वह प्रतिमा नयवन्त रहे । यह कार्य उन्होंने देशीगण के पनसोगे शाखाकी परम्परामें होनेवाले ललित कीति मुनीन्द्र के उपदेश से किया । ] [ EI, VII, No. 14, C. IA, II, q: 353-354 ] श्रवणवेल्गोला-संस्कृत ।। [शक १३५५=१४३२ ई.] __ [जै. शि० सं०, प्र. मा.] ६२६ आनेवाळु-कबद । [कार-वर्ष प्रमादीव = १४३३ A. D. ] . [आनेवाळुमें ध्वस्त बस्तिकी छोटी सी जैन-प्रतिमाके पृष्ठपर ] प्रमादीच-संवत्सरद फाल्गुन-सु १०मी भानुवार अनन्तन प्रतिमे [अनन्तकी प्रतिमा ] [ EC, IV, Hunsur tl., No. 60, t & tr.] Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काफलके लेख ६२७ कार्कल–कन्द । [ शक सं० १३२८१४३६ ई० ] [ गोम्मटेश्वर मूर्ति स्तम्भके सामनेके ब्रह्मदेव स्वम्भ पर ] १. शकनृपन १३५८ राक्षससंवत्सर [द फाल्गुन शु २. १२ लु ॥ जिनदत्तान्वय भैरवतनय श्री [ वी ]रपां३. ख्यनृपतिगे वरमं । मनमोलदीय [लु ] नेल [ सि ] द ४. बिनभक्त ब्रह्मनीगे निमगभि [ मत ] मं ॥ 1 ३१ अनुवाद - शक नृपके राक्षस नामके १३५८ वें वर्ष में फाल्गुन शुक्ला १२ के दिन, जिनदत्तके वंशमें होनेवाले भैरव के पुत्र श्री वीरपाण्ड्य नृपतिकी प्रत्येक इच्छाको पूर्ण करने के लिये यहाँपर प्रतिष्ठापित, चिनभक्त ब्रह्म [ की प्रतिमा ] तुम्हारी [ प्रत्येक ] मनोकामनाको पूरा करे । [ EI, VII, No., 14 E. ] ६२८ देवगढ़ : -- संस्कृत | [सं० १४१३ तथा शक १३५८ = १४१६ ई० ] ( पंक्ति ५ ) - संवतु १४६३ शाके १३५८ वर्षे वैशाष ( ख ) - वि (व) दि ५ गुरै (रौ) दिने मूल नक्षत्रे ॥ ४८१ बृहस्पतिवार, ५ अप्रैल १४३६ ई० शक १३५८ -- देवगढ़ जैन शिलालेख । [ INI, Nos. 287 & 375. ] Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह पर्वत माधु-संत। [सं० ११ १..] श्वेताम्बर सम्प्रदाय का लेख । [ Asiat. Res., XVI, p. 313, No. XXV, a.] नागदा-संस्कृत । [सं० 1811३८ ई.] श्वेताम्बर लेख । [ Bhavnagar insoriptions, p. 112-113, t. & tr. ) गिरनार-संस्कृत। [सं० ११६६% १४३६ ई.] श्वेताम्बर लेख। [ Revised Lists ant. rem. Bombay ( ASI, XVI), p. 355, No. 13,a, t. & tr.] ६३२ राणपुर (जोधपुर जिला ) संस्कृत । [सं० ११५% १४४० ई.] [ Rbavnagar Inscriptions, p. 113-117, t. & tr. ] Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालियर के लेख -६३२ ग्वालियरः प्राकृत [ É• 1820=1880 f• ] ... ७ शुक्रे पुन श्री आदिनाथाय नमः ॥ संवत् १४६७ वर्षे वैशाख र्वसु नक्षत्र श्रीगोपालचल दुर्गे महाराजाधिराजरामा श्रोडुंग [र सिंहराज्य ] संवर्त्तमानो श्रीकाञ्चीसंघे मायू[थु]रान्वयो पुष्करगणभट्टारक भीग (गुणकोर्त्ति - देव तत्पदे यत्यः (शः) कोर्त्तिदेवा प्रतिष्ठाचार्य श्रीपंडित रघू (इधू) तेपं । आभाये (म्नाये) अग्रोत वंशे मोद्गलगोत्रा सा ॥ धुरात्मा तस्य पुत्र साधुस्रोपा तस्य भार्या नान्ही । पुत्र प्रथम साधु क्षेमसी द्वितीय साधुमहाराजा तृतीय असराज चतुर्थ धनपाल पञ्चम साधु पाल्का । साधुक्षेमसो भार्या नोरादेवी पुत्र - ज्येष्ठपुत्र भधायि पति कौल ॥ भ - भार्यां च ज्येष्ठस्त्री सरसुती पुत्र मल्लिदास द्वितीय भार्या साध्वीसरा पुत्र चन्द्रपाल । क्षेमसीपुत्र द्वितीय साधु श्रीभोजराजा भाषो देवस्य पुत्र पूर्णपाल ॥ एतेषां मध्ये श्री ॥ त्यादिजिनसंघाधिपति काला सदा प्रणमति ॥ ... अनुवाद - आदिनाथको नमस्कार । सं० १४६७ बे वैशाख सुदो ७, जब पुनर्वसु नक्षत्र उदित हो रहा था, और जिस समय महाराजाधिराज डूंगरेन्द्रदेव गोपाचल ( आधुनिक ग्वालियर ) के किले में राज्य कर रहे थे। तब काचो संघ के मयूर अन्वयके, पुष्कर गणके भट्टारक गुणकीर्त्तिदेव के बाद उनके पट्टाधीश कीर्त्तिदेव हुए। इसके बाद लेखमें पट्टाधीशके पदपर आसीन होनेवालो में प्रतिष्ठाचार्य पण्डित ( पुरोहित ) श्रीरघू, तत्पश्चात् पण्डित श्रीमाया नाम आये है। श्री भाया के पुत्र 'साधु' भोपा, उसकी पत्नी नन्ही थी। इसके बाद उनके पुत्र और पुत्रों की पत्नियों तथा उनके पुत्रोंके नाम आये है । अन्तमें Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह मायदेवके पुत्रका नाम पूर्णपाल बतलाया है। इनमेंसे आदिजिनसंघाधिपति काला' सदा प्रणाम करते हैं। [ JASB, XXXI, P. 404, a. . 422-423, t. & tr.] ६३४ पर्वत बाबू ;-संस्कृत। [सं० १४६७१४१० ई.] स्वेताम्बर लेख। [ Asiat. Res. XVI, p. 313, No XXVII, a.] ६३५ श्रवणबेलगोला;-संस्कृत। [वर्ष क्षय-शक १३६८१४४६ ई.(कीलहौन )] . [जै० शि० सं०, प्र० भा०] ६३६ म्यूनिवा-संस्कृत। [सं० १९०३-१४१६ ई.] [J. Klatt, IA,XXIII, p. 183, t. & tr.] -पयुक अनुवादकी शुद्धता बाबू राजेन्द्रकाल मित्रकी टिम सन्वे. हास्पद है। 'काका' माम उन्हें अशुद्ध मालूम पड़ता है। यह अनुवार बाकी Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्ट निगल्लुके लेख ६२७ माष्ट निडुगल्लु [ बिना काल-निर्देशका, पर लगभग १४५० ई० १ (लू. राइस) 1] [ निगह- बेहपर मळे-मल्लिकाज्जुन मन्दिरके पालके पाचाणपर ] श्री-मूल-संघद वृषभसेन -भट्टारक- देवर गुड वैश्यर रामि-सेडियर मग बिमी- सेट्टिय हेण्डति चन्द्रवेय निषिधि ॥ ↑ [ मूलसंघके वृषभसेन भट्टारक के गृहस्थ-शिष्य, वैश्य रामि-सेट्टिके पुत्र बिमोसेट्टिकी पत्नी चन्द्रवेका स्मारक यह है । ] [ EC, XII, Pavugada tl, No 56] ६३८ पर्वत आबू ; - संस्कृत [ सं० १५०३ = १४५२ ई० ] श्वेताम्बर लेख । [ Asiat. Res. XVI, p. 311, No XXI, . ] ६३९ टोंक) - संस्कृत ( देवनागरी लिपि ) [ काक-सं०] १९१० = १४५३ ई० ] टोंक (राजपूताना ) के नवाब के महलके पास बनवरी सन् १६०३ ई० में खुदाई होनेसे अचानक ११ जैन प्रतिमाएँ निकलीं। ये प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न ११ तीर्थकरों की हैं, जो पद्मासन स्थित हैं, गोदके ऊपर जिनके बाएँ हाथके ऊपर दाहिना हाथ है और दाहिने हाथकी हथेलीका मुख ऊपरकी तरफ है। ये * सब प्रतिमाएँ समानाकृति है, सिर्फ पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथकी प्रतिमाके ऊपर सर्पका फण है तथा और प्रतिमाओंपर उनके भिन्न-भिन्न लाञ्छन (चिह्न) Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेल-सार है। वे सफेद संगमरमरके पत्थर की बनी हुई हैं और अच्छी तरह सुरक्षित दशामें है। उनकी बनावट कुछ भद्दी है। तीर्थङ्कके नाम तो नहीं प्रकट किये गये हैं, पर चिह्नोंसे उन्हें मालूम किया जा सकता है । वे निम्नलिखित भाँति है :१. पानाय (२८ इचx २३ इञ्च) सप्तफणी सर्प सिर के ऊपर है, और सर्प चिह्न के तौरपर है। २. सुपार्श्वनाथ ( करीब २२४ १८ इन्च). पञ्च-फणी सर्प सिर के ऊपर । स्वस्तिक चिह्न । ३. महावीरनाथ ( करीब २२४१८ इञ्ज), सिंह का चिह्न है। ४. नेमिनाथ ( करीब १६४१५ इञ्च) शंख का चिह्न है। ५. अजितनाथ (करीब २१४१७ इञ्च ), हाथी का चिह्न है । ६. मल्लिनाथ ( करीब २१४१७ इञ्च ) कलश का चिह्न । ७. श्रेयान्सप्रभु ( करीब २१ x १७ इञ्च ) गेडे का चिह्न है । ८. सुविधिनाय (करीब २१x१७ इञ्च ), मछली का चिह्न । ६. सुमतिनाथ (करीब १८x१७ इञ्च ) चकवे का चिह्न । १०. पद्मप्रभ ( करीब १६४१३ इञ्च), कमल का चिह्न । ११. शान्तिनाथ ( करीब १६४१३ इञ्च), कच्छप ( कछुआ) का चिह्न । इन प्रतिमाओं के नीचे के पाषाणपर लेख है जो कि प्रायः मिलते-जुलते हैं और देवनागरी लिपि में भद्दे रूप से अशुद्ध संस्कृतमें लिखे हुए हैं। सबका काल संवत् १५१०, माघ शुक्का दशमी, तदनुसार रविवार १६ फरवरो,१४५३ ये सब प्रतिमाएँ जैनोंके दिगम्बर सम्प्रदाय की हैं । यह इस बात से प्रमाणित होता है कि सब के ऊपर 'मूलसंघ' लिखा हुआ है और सब नग्न है। लेखों के अनुसार, इन सबकी प्रतिष्ठा बापू नाम के एक धनिक, तथा उसके पुत्र खाल्हा और पाल्हा और उनकी क्रमशः सचिमणा, सुहागिनी (सुगनमी भी कहते Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्टनिडराइडके रोख ये) और गौरी नामक स्त्रियों के द्वारा हुई थी। ये लोग अपने को जिनचन का भक कहते थे और दिगम्बराम्नायी खण्डेलवाल पाति तथा पाकनीवाल गोत्र के थे। पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख बताता है कि ये पाषाण-लेख बारव के राज्यकाल में उत्कीर्ण किए गए थे। ये लङ्गरदेव उस समय के स्थानीय शासक रहे होंगे लेकिन इतिहास में उनका कोई पता नहीं चलता। उन प्रतिमाओं को संभवतः किसी मूर्तिभक्षक द्वारा आपत्काल प्राप्त होनेपर किसीने छिपाया होगा। __श्रीमान् नवाब महोदय ने इन ११ प्रतिमाओं को, अजमेर के गवर्नमेंट म्यूजियम के बन जाने पर उसे उन्हें टोंक स्टेट के उपहार के रूपमें भेंट देने का संकल्प प्रकट किया था। [Hiranand Shastri, A S P & U P annual Report 1903-1904 P. 61-62, 8.] ग्वालियर-प्राकृत। [सं० १६१०३५४ ई.] (१) सिद्धि संवत् १५१० वर्षे माघसुदि ८ (अ)टमै (म्यां) श्री गोपगिरी महाराजाधिराजरा(२) बा श्री ड(डु)गरेन्द्रदेवराज्या वर्तमाने] भीकाञ्चीसंघे माय (थु) रान्वये भट्टारक श्री (३) क्षेमकीर्तिदेवस्तत्पदे श्री हेमकीर्तिदेवारतत्पदे श्री विमलकीर्षि देवा ... ... ... (४) डिता ... ... सदाम्नाये अनोतर्वशे गर्गगोत्रे सा... ...त (५) योः पुत्रा ये दशाय भीवंद भार्या मालाही तस्य प्रबसाषेषार य... जीसा....."दु Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह (६) तीयसा० हरिवंदभार्या बसोधर हितये सघासा० तृती (७) यहेमा चतुर्थसा• रतीपुत्रसा० सह साप असे ए YEE ... ... 600 णसीसा ० • मु सा० धंसा सल्हापुत्र (८) तेषां मध्ये साधु श्रीचंद्रपुत्र शेषा तथा हरिचंद्रदेवकी भार्या (६) दीप्रमुखा नित्यं श्रीमहावीरप्रतिमा प्रतिष्ठाप्य भूरिभक्त्या प्रणमति ॥ (१०) अङ्गुष्ठमात्र प्रतिमां विनस्य भक्त्या प्रतिष्ठापयतो महत्या । फलं बलं राज्य ६४१ मारङ्गी; —— संस्कृत तथा च । [ वर्ष धातु = १४५६ ई० ( लू० राइस ) ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलान्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् । निरुपम - धातु-वत्सरद माघव-मासद शुद्ध सप्तमी - 1 रवरकरवारदोळ् दिनकरोदयवागद मन्ने सन्द सच्च् । चरिते जिनेन्द्र-इन्द्र-पद-पद्मननोप्पिरे चित्त वृत्तियोऴ् । रुयिसि नाडे भागिरथ ताळ्ळिायत-स्वर्ग-सौख्यमं ॥ ( ११ ) मनन्तसौख्यं भवस्य विच्छित्तिरथो विमुक्तिः || शुभं भवतु सर्वेषां ॥ अनुवाद - संवत् १५१० की माघ सुदिक्ष्मी को महाराजाधिराज राजा श्री डूंगरेन्द्रदेव के शासनकाल में काञ्चीसंघ के मायूर अन्वयके भट्टारक श्री क्षेमकीर्त्तिदेव हुए । उनके बाद हेमकीर्त्तिदेव तत्पश्चात् अ (वि)मलकीर्त्तिदेव हुए । ( शेष अपठनीय है। ) ( JASB, XXXI, p. 404, &.; p. 423–424, t. & tr. ...... Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारती लेख अभवं श्री - वीतरागं तनगे निनदोळं दैवमा-योगि ... | विभु सिद्धान्ताख्यराराध्यरु बिन-मत- वाराशि - संपूर्ण चन्द्रं । प्रभु बुळ्ळप्यं पितं भासुर - गुणवति मझब्बे तायेन्दोडी-सद्विभ नोन्तर् अरियिरे धरणी - चक्रदो भागीर् [ अ ] थि निरुपम - सौख्य यिप्प 11 ... भद्रमस्तु सुखमय . . . ... ... ... [ EC, VIII, Sorab tl, No. 331 ] ६४२ ... YEE [ भागीरथीका, जैन विधि - पूर्वक, मृत्युका स्मारक यह है। उसके पिताका नाम प्रभु बुल्लप्प, और मका मलब्बे था ] प्रीतियं ... चितौड़, संस्कृत | [ सं० १५१४ = १४५७ ई० ] [ एक चिकनी चट्टानपर जिसके बीच में चरण- चिह्न हैं और जिसके अन्तमें गणेश और भैरवकी मूर्त्तियाँ हैं । ] ( १ ) ॥ संवत् ५१४ ( १५१४ ) वर्षे मार्च (र्ग ) शुदि १ श्री भर्तृपुरीयगच्छे श्री चूड़ामणि- भर्तृपुर-महा-दुर्गे श्री-गुहिलपुत्रवि ( २ ) हार - श्री - बडादेव - आदिजिन -वामाने दक्षिणाभिमुखद्वारगुफा ( फा ) यामेकविंशति देवीनाम् चतुर्णाम् ... पा ( ३ ) लानाम् चतुर्णाम् विनायकार्ना च पादुका-घटित सहकार सहिता च श्रीदेवी- चिचोदरि - मूर्ति ( र्तिः ) स्था ( पिता ? ) (४) श्री भर्तृ ' गच्छीय-महा-प्रभावक श्री आनदेव-सूरिभिः || अस्यां मूर्ती सा० सोमा - सु० - सा०-हर पालेन मातृ-लोकपुण्योपार्जना व्यधीयत । (५) श्रेयसे Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह [ लेख स्पष्ट है । इसके अन्दर आये हुए 'भतृ पुर' से भरतपुरका संकेत होता है, क्योंकि यह भी एक 'महादुर्ग' कहा जाता है । चट्टानके मध्यमें चरणचिह्नोंके नीचे “श्री-बाशि (खि) णि" अक्षर खुदे हुए हैं ।] [ASWI, Progress Report 1903-1904, p. 59, t. ] ४६० ६४३ बवागञ्ज ( मालवा ), संस्कृत । [ सं० १५१६ = १४५६ ई० ] मन्दिर के दरवाजे पर | स्वस्ति श्रीसंवत् १५१६ वर्ष मार्गशीर्षे वदि ६ खौ सूरसेन - मेहमुन्दराज्यश्रीकाष्ठासङ्घ े माथुरगछे (च्छे ) पुष्करमणे भट्टारकः श्रीश्रीक्षेमकीत्तिदेवः व्रतनियमस्वाध्यायानुष्ठान- तपोपशमैकनियमभट्टारक श्री हेमकीर्त्तिदेव सच्छिष्य महावादवादीश्वर रायवादी पितामहसकल विद्वज्जनचक्रवर्त्तिनलः श्रीकमलकीर्तिदेवा सच्छिष्यविनसिद्धान्तपाठपयोधिनायकान्तरोपासीन मण्डलाचार्य श्री: रत्नकीर्त्तिना जीर्णोद्धारः कृतः बृहच्चैत्यालयपार्श्वे दशनिनवशतिकादा कारोपीता भट्टेश्वर द्वितीयसं डालुभाय्र्याखेतु द्वि (०) ना (०) पद्मिनी खेतुपुत्रसं० वादासं० पारस एतैः इन्द्रजितः प्रतिमां प्रतिष्ठाप्य नित्यमर्चयन्तो पूजयन्तों वा शुभं तावच्छ्रीसङ्घस्य । मन्दिर के उत्तरकी ओर । संवत् १५१६ वर्षे शिल्पनागसुतरसालाशिलप्डाला सूत्रशाला जीर्णो यतः । मन्दिरके पश्चिमकी ओर । आचार्यश्री रत्नकीर्त्ति पंडितपाहु । मन्दिर के दरवाजेके स्तम्भ पर । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बवामनके लेख बोगीचंगमयाउसबोतराउल । प्रतिमाके चरणपरसे। कण्ठस्नायसाधु चतुर विहतिहिलि साफसाला हइ प्रणति लेख स्पष्ट है। [ JASB XVIII, p. 951-953, No 3, t. & tr.] ६४४ पर्वत आबू-संस्कृव । [सं० १५१८ = १४६९ई.] श्वेताम्बर खेस। [ Asiat. Res., XVI, p. 298-299, Nos XIII & XIV, a. ] ६४५ गिरनार--संस्कृत। . [सं० १५२२११६५ ई.] [ नेमिनाथ मन्दिरके दक्षिणको तरफके प्रवेशद्वारके प्राङ्गणमें टूठे हुए खम्भेकी पश्चिमी दीवालपर] संवत् १५२२ श्री मूलसंघे भी हर्षकोर्षि श्री पनकीर्ति भुवनकीर्ति ... ... ... अनुवादः-सं० १५२२, श्री मूलसंघके श्री हर्षकीर्ति, पनकीर्ति, भुवनकीर्ति,. ... ... ... [ ASI, XVI P. 355, No 13, b.] । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ जैन - शिलालेख - संग्रह ६४६ भारङ्गी - संस्कृत तथा कचड़ । [ वर्ष पार्थिव = १४६६ ई० (लू. राइस) ] [ भारङ्गीमें, कलेश्वर-बस्तिके दूसरे पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाच्छनम् । श्श्रीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं बिनशासनम् ॥ स्वस्ति श्रीमति मूल संघ-तिलके श्री नन्दि-संघोभवे स्वच्चे (च्छे) पुस्तक-गच्छ्छ- शालिनि शुभे देशी- गणे यस्सुखी । स्याद्वादारि-नगाशनिर्गुण-मणि-श्रेणी-महीयः - खनिः श्रीमानेष चयत्यलं श्रुति-मुनिः कैवल्य- जन्मावनिः ॥ शिष्यस्तस्य मुनेस्तिरस्कृत - तमस्स्तोमः समुद्यंश्चिरात् स्याद्वादचलतश्चिदम्बरतले देदीप्यमानस्सदा । दीनं विश्वमिदं कृपामृतभरैरुज्जीवयन् पावनः चिह्नातीत-कलानिधिर्विजयते श्री देव चन्द्रो मुनिः ।। तच्छिष्योऽमय चन्द्र-यन्द्र- करुणा-सौधोल्लसन्निर्झरीसम्पूर्णा मल-मानसः कलि-युगे श्रेयांश्व गोपीपतेः । सूनुस्सूनृत-धर्म्म-कर्म्मणि रतः श्री - जैन-चूड़ामणिर् दूरं बुल्लप इत्ययं प्रभुर ख्यात्यात्मना शोभते । यिन्तु गळने वेत्ता- विभुवि ग्रामवावुदेन्दडे || • सारं गुचिसन्दु बपे पहिनेष्टुं कम्पणं भूमियोळ् । सारं नागरखण्डमन्तदोरोळिप-ग्राम- सन्दोहदोळ् । भारङ्गो पुरमब्ब- षण्ड- लसितं चैत्यालयानीक - वि- । स्ताद्यत्-कलशांशु-शोभित सारं यत्-संस्तुतम् ॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारङ्गीके लेख Y आ-पुरम भू-कान्ता-। नपुरमं नून-रत्नमय-गोपुरमम् । भूपति-सभाभिरामम् । गोप-प्रभु-सनु-बळळपाय पोरेवम् ।। कलियं माङ्करिसित तन चरित कल्यावनीबातदोळ । चलमं माडिदुदत्युदारते महा-धैर्य सुरो/नंदोळ् । मलेतत्तेन्दोडे बुळळप-प्रभुगे भन्याचारदि चागदिम् । विलसद्-धैर्यदिनी-घरातळदोळन्यर् प्पोललेनापरे ॥ के ॥ चागदे धन-रासियनुरु-। भोगदे तन्नायुरासियं समेयिसिदम् । त्यागं श्रेयांसनोळुरु-। भोग सुकुमारनल्लि समनेम्बिनेगम् ।। वे ॥ यिनितुं चोद्यमे राय-राज-गुरु-लोकाचार्यरास्थान-र- । चन-विद्विजन-चक्रिवर्तिगळनि दुर्वादि-मातङ्ग-भे-। दन-पञ्चाननरोल्दु बोधिसिदवर स्सिद्धान्त-योगीन्द्ररेन्द । एने बुळ्ळप्पनोळुद्ध-कीर्तियुमनूनाचार, धर्ममुम् ॥ चिरमल्लितनुवाप्त-पूजेयोदवं सत्-सेवेथ भक्तियिम् । गुरुगळ्गिम्मिगे माळपरप्परो पेरर् मेणागरो माळ्पेनाम् । चिरमं धर्ममतेन्दु कोट्टदके भू-दानङ्गळं दीगिर्घको-। करमं ऋट्टिसि बुळळप-प्रभुवदेम् धर्मकडोदनो । कं ॥ जिन-पद-युगदोळ् जिन-मुनि-। बन-सेबेयोचित-दानदोळ् सलियिसिदम् । मनमं तनुवं धनमम् । विनय-परं बुलपाऱ्यानचलित-धैर्यम् ॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन-शिलालेख संग्रह इन्तु मुखदिनिष्पन्नेगं समाधि-कालमत्यासन्नमागे !! ॥ विन-पतियं विनेश्वरन नाममना-जिन-नाम-सङ्खयेयम् । मनदोळमास्य-पङ्कजदोळं कर-शाखेयोळं समाधि सञ्। बनियिप कालदोळ् निलिसि सर्व-निवृत्तिगे सन्दु मुक्ति-सा धन-मननैदिदै त्रिदश-धाममनी-कमदिन्दे बुलळपम् ।। व ॥ अन्तु पञ्च-परमेष्ठिगळ ध्यानदिं तां पडेद समाधि-कालद जय-क्रम मेन्तेन्द्रोडे । अदु मूवत्तैदरिन्दं क्रमदोळे पदिनारागि मत्ताररोळ् सन्- । दुदु बन्दत्तैदरोळ् नाल्करोळेराडरोळिद्दोंन्दरोळ विन्दु नाकास्पदमं सैतित्तुदाप्त-सत्त्व-जय-विलसद्-बण्ण-सन्दोहमीयन्-। ददिना-जिहाग्रदोळ् सन्मतियिनेनलदेम् धन्यनो बुळ्ळपाय॑म् ।। सरिंगाणेम् घरेयल्लि चागिगलोळेनोल् पोल्के-वप्पन्नरम् । सुर-भूनं समनप्पोडप्पुददनां नोळपेम् समन्तेम्बवोल । घरेयोळ पोम्-मले सोई पाङ्गिनोळे चागं गेदु सोपानमाम् । इरे धर्म त्रिदिवक्के बुळ्ळपनमावासमं पोर्दिदम् ।। मान्यो राज-सभासु बुळळप-विभुर्यः पास्थिवे वत्सरे मासे भाद्रपदे त्रयोदशि-तिथौ पक्षेऽक्वारे सिते। , श्रीमत्पश्च-नमस्क्रियामय-सुषां स्वैरं पिबन् भी-गुरुन् ध्यांस ...." समाधि-विधिना स प्राप दिव्यं श्रियम् ॥ आ-कल्पं भुवि बुळळ [प] प्रभु-यशस् स्थाय्यस्तु सं ... ... ... ... ... इत्यचीकरदिमामस्मै निषद्यां कलाम् ॥ तत्प्रेमात्म ... ... नाथ-परमाराध्य ... ... ...। ....... ... चन्द्र-सूरिरनिशं जीयादिदं शासनम् ॥ वर्ष-सहस्रदोळ ... दश-स ... ... ... ........। वर्षमे पार्थिवं पुदिये भाद्रपदं वर-मासदोन्दु .. ... | Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्ङ्गीके शेख ... ... ... सित-प ... ... ... प्रभा-। कर-वर-वारमागे विभु-बुळूळपनैदिद ... ... ...॥ [चिन शासनकी प्रशंसा । मूल-संघ, नन्दि-संघ, पुस्तक-गच्छ, और देशि-गणके श्रुत-मुनिकी प्रशंसा । उनके शिष्य देवचन्द्र मनि थे । उनके शिष्य गोपिपतिके पुत्र बुकळप थे, जिन्हें अभयचन्द्रकी कृपासे यह अवसर प्राप्त हुआ था। जिस गांवका वह अधीश था, वह नागरखण्ड था, बो १८ कम्पण देशके गुतिका गांव था। इस नागरखण्ड के गाँवों में एक गांव भारङ्गि था, जिसमें उत्तमोत्तम चैत्यालय थे। बुञ्जप की प्रशंसा, जिसने भूमिदान किया था और ताळाब (दीम्धिका) बनवाये थे। अपना अन्त नजदीक नानकर, उसने सभी नियत विधियोको किया, और समाधि की विधिसे ( उक्त मितिको ) स्वर्गको गया । ] [ EC, VIII Sorab ti, No 330] पर्वत माबूर-संस्कृत । [सं० ११९५=१४६८ ई.] श्वेताम्बर लेख। [ Asiat. Res. XVI, p. 301, No. XVII, a.] ६४८ . पर्वत आबू,-संस्कृत। [सं० १५२६ - १७७२ ई० ] श्वेताम्बर लेख । [ Asiat. Res. XVI, p. 299, No. Xv, a.] Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ जैन-शिलालेख-संग्रह ६४९ संस्कृत तथा कन्जद । यिडुवणि; [ शक १११५ = १४०३ ई० ] [ बिवणिमें, पाश्वनाथ बस्तिके पाषाणपर ] श्री- पार्श्व तीर्थेश्वराय नमः निर्विघ्नमस्तु || श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् ॥ श्री पञ्च परमेष्ठिभ्यो नमः । नमस्तुङ्ग - इत्यादि ॥ स्वस्ति समधिगत-भु [व] नाश्रय श्री - पृथ्वी - मनो वलभ महाराजाधिराब राज-परमेश्वरनीश्वर-कुल- तिलक श्रीमन्महा - विरूपाक्ष - महारायरु राज्यवनु सुख - संकथाविनोददिं प्रतिपालिसुत्तमिद्दल श्रीमन्महा-प्रभु मलेय-लि-मार्त्तण्ड निडिग येण्डदण्डिगेय मनेयर गण्ड श्रीमन्महा - प्रभु अयिसूर मुन्दुमण्ण-नायकर वर- कुमार भैरण्ण-नायकर होरुगुप्पे- हेब्बयल - नाडनु प्रतिपालिसुतमिद्दल इडुबणिय बलिय-गौडर मग नगर-ठाविण आनेवळिगे अग्रगण्यरम्प कोडे हडप दीपमालेय कम्भ अङ्क-टेङ्के-मुन्ताद- तेज- मान्य-चनुळ्ळ हैवण्ण-नायकरु बुकण्णनायकर अळिय माळक-नायकितियर मग आहाराभय-भैषज्य-शास्त्र- दत्तावधा [त ] रुमप्प पारिस गौडरु तम्म बोडय भयिरण्ण-नायकरिगू तमगू पुण्य - वृद्धि - यशो - वृद्धयर्थ-निमित्तवागि तम्म दानमूलद-सीमेय यिडुवणेयोंळगे श्री - परिश्व-तीर्थङ्करचैत्यालयवनु माडिसिदनु तन्मुहूर्त्तके शुभमस्तु ॥ स्वस्ति श्री जयाभ्युदय शालिवाहन शक- वर्ष १३६५ नेय नन्दन - संवत्सरद वैशाख शुद्ध १३ यन्दु' सूय्यं-प्रतिष्ठेयाद घ २ ळिगेयल्लि चतुस्संघ-समन्वितदिं पञ्च-कल्याण - महोत्साहदि सुमुहूर्त्तदि श्री पार्श्व - तीर्थेश्वर प्रतिष्ठेयं भैरण्ण-नायकर कारुण्य - वर प्रसाददिं पारिजगौ[s]रु तम्मो डेरु भैरण्ण-वोडेयरिंग तनगू अभ्युदय - निश्रेयस - सुख-प्राप्ति - निमित्तवागि मासिदक्के भद्रं शुभं मङ्गलम् ॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यिडवाणिके लेख ४६७. स्वस्त्यनवरत-विनमदमरेन्द्र-मौळि-माणिक्य-मयूख-बालातप-विलसित-पादारविन्द श्रीमदनादि-ससिद्ध-प्रसिद्धरमप्प यिडुणिय श्री-पाश्व-तीत्थेश्वररिगे मलेय-हलिय मार्तण्डनिडिग येण्टु-दण्डिगेय मन्नेयर गण्ड उभय-नाना-देशिगळगे तवर्मनेयाद ऐश्वर्यपुर-वराधीश्वर श्रीमन्महाप्रभु भैरण-नायकर तम्म अम्म सिरु-मादेवियवरिगू तमगू तम्म कारुण्य-वर-प्रसाददि सेवेयं माडुत्तं यिद पारिस-गौडरिगू पुण्यवृद्धि-यशो वृद्धयर्थ-निमित्तवागि कोट्ट धर्म-शासनद भाषा-कमवेन्तेन्दरे । नाऊ आळत्तं यिद होर-गुप्पे हेब्बयल-नाडोळगण अप्पु-गौडन नक्कणन पाल कुळ ग २.२ अक्षरदलु यिप्पत्तु-यरडु-हणबिन कुळवनु श्री पाश्व-तार्थेश्वर नित्य-पूजामहोत्साहके अमृतपडि यरडु-होत्तिन हिरिय-देवर हाल-धारे मृत्युञ्जय-चक्र-पूजे पञ्चामृतद अभिषेक सिद्ध-चक्र-पूजे सिद्धर हाल-धारे अडके यले गन्ध धूप एण्णे वाद्य-मुन्ताद समस्त-पूजा-वेच्च के नाव सोम-सूर्य-ग्रहणदल्लि धारा-पूर्वकदि बिटु कोट योग २२ हणविन कुळ-स्थळद वृत्ति-भूमिगळ विवर ( यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा है ) यिन्ती-बृत्ति भूमिगळ चतुस्सीमेगाळन्दोळगाद मोदल सिद्धाय ई-मोदल सिद्धाय अदक बन्द अडके-यले-मुन्ताद होरगुप्पे हेब्बाल-नाडोपादियल्लि बन्द नाना-उपोत्र मुन्दे येनु बन्द हदिके-होदके-मुन्तागि एल्लववनू नाऊ नम्म स्त्रीपुत्र-ज्ञाति-सामन्त-दायादानुमतदिं नम्म स्व-रुचियिं चन्द्र-सूय-अग्नि-वायु-साक्षियागि..... पण मायकर वर-कुमार भैरण्ण-नायकरु बरसिकोट्ट शोला-शासनक्के मङ्गळ महा श्री श्री ( यहाँ हमेशाका अन्तिम श्लोक तथा दानका विस्तृत चर्चा आती है)। स्वस्ति श्री विजयाभ्युदय-शालिवाहन-शक-वर्षे १३९६ नेय विजयसंवत्सरद कात्तिक शुद्ध ५ बुद (घ) वारदलु स्वास्त श्रीमद्-वादीन्द्रविशालकीति-भट्टारक-स्वामिगळ वुप्रदेशदिन्द स्वस्ति श्रीम-महा-प्रभु-मुण्डु. वण्ण-नायकर कुमार भैरण नायकरु तमगे अभ्युदय-निश्रेयम-सुम्व-प्राप्ति-निमित्तवागि मळेयखेडद नेमिनाथ-स्वामिगळ नित्य पूजा-महोत्सवक बिट्ट धर्मशासनद क्रमवेन्तेन्दरे ( यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा आती है ) नम्म स्त्री-पुत्रशाति-सामन्त-दायादानुमतदिन्दलू नाऊ नम्म स्व-रुचियिन्द चन्द्र-सूर्य-वायु-अग्नि Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ जैन-शिलालेख-संग्रह साचियागि भैरण्ण-नायकर कुमार विम्मडि-भैरवेन्द्रनू बरद शिला-शासन के मङ्गल महा भी। (हमेशाके अन्तिम श्लोक )। इन्द्रः पृच्छति चाण्डाली किमिदं पच्यते त्वया । श्वान-मांसं सुरा-सिक्कं कपालेन चिताग्निना ॥ देव-ब्राह्मण-वित्तानां बलादपहरन्ति ये ।। तेषां पाद-रचो-भीत्या चर्मणा पिहितं मया ॥ (हमेशाका अन्तिम श्लोक)। [पार्श्व-तीर्थेश्वरको नमस्कार । यह निर्विघ्न होवे। जिन-शासनकी प्रशंसा । पञ्च-परमेष्ठियोंको नमस्कार । शम्भुको नमस्कार इत्यादि । ___विस समय महाराजाधिराज, राज-परमेश्वर, ईश्वर-कुल-तिलक, महाविरूपाक्ष महाराय शान्ति एवं बुद्धिमत्तासे राज्य कर रहे थे:-और महाप्रभु, अयिसूर मुन्दुवण्ण-नायकका पुत्र भैरण्ण-नायक होरुगुप्पे हेब्वयल नाडकी रक्षा कर रहे थेइदुर्वाण बलिय-गौडका पुत्र, जो नगिर-ठावुमें आनेवाळिगेमें अग्रणी था, हैवण्णनायक, तथा बुकण्ण-नायकका दामाद, मालक-नायिकतिके पुत्र पारिस-गौडने ताकि 'पुण्य और ख्याति स्वयं अपनी तथा अपने शासक भयिरण्ण-नायककी बढ़ सके,-अपने दानमूल सीमेमें इदुवणेमें पार्श्वनाथ-तीर्थङ्करका चैत्यालय बनवाया था। और ( उक्त मितिको ) (पूर्व विगतोंको दुहराते हुए ) भगवान्की स्थापना की गयी थी। (नाना उपाधियोंवाले ) इदुगणिके पार्श्व तीर्थेश्वरके लिये, ऐश्वर्यपुरवराधीश्वर, महाप्रभु भैरण्ण-नायकने, जिससे कि पुण्य और ख्याति अपनी माता सिरु-मादेवी तथा अपनेतक, और उसकी सम्पत्तिके दास पार्श्व-गौडतक बढ़ सके,-निम्नलिखित शासन (लेख) प्रदान किया; -यहाँपर दैनिक पूजा, महोत्सव, भेटें, तथा अभिषेक आदिके लिये तथा और भी खर्चोंके लिये, हमने Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ afe लेख ૪૬૩ सूर्यग्रहणके समय ( उक्त ) भूमियाँ, सूर्य और चन्द्रको साक्षी बनाकर दी हैं । हमेशाका अन्तिम श्लोक | पारिस ( पार्श्व ) - गौड तथा दूसरे गौडोंने ( जिनके नाम दिये हैं ) ( उक्त ) भूमियाँ प्रदान कीं ।] [ EC, VIII, Sagar tl., No. 60] ६५० गेडि; - संस्कृत - ध्वस्त । [ सं० १२३६ = १४७६ ई० ] श्वेताम्बर लेख । [ D. P. Khakhar, Report on remains in Kachh (ASWI, Selections, No. CLII), p. 88, No. 40, t. ] ६५१ भिलरी; -- संस्कृत और गुजराती । [सं० १५३८ = १४८१ ई० ] ( श्वेताम्बर ) [ J. Kirste, EI, II, No. V, No. 1, (p. 25), t. & tr.] ६५२ हरवे - संस्कृत तथा कश्चन । , [ शक सं० १४०४ = १४८२ ई० ] [ हरवे ( उय्यम्बळूिळ परगना ) में, शिवलिंगय्याके खेत के दक्षिणकी तरफ एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभारस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ स्वस्ति श्री शक- वर्ष १४०४ सन्द वर्त्तमान- शुभकृत् संवत्सरद चैत्र -शु ५ लु हरवे देवप्पाळ मग चन्दप्पनु तम्म कुल स्वामी हरवेय बस्तिय आदि- परमेश्वरन Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जैन-शिलालेख-संग्रह अमृत-पडि चातुव्वर्णद दान तदर्थवागि तगडूर प्रभुगळु एनेगे दानार्थवागि कोट क्षेत्रद स्थान-निर्देशद विवर । अरिन्द नैऋत्य-दिकिनल्लि विभूतिय लिङ्गप्पयगळ गद्दे होल ग ३० तेङ्कलु विभूति-नञ्जप्पन होल तोटदि पडुवलु येरे-होलक्के होह वोणियिं बडगलु शिवनैय्यन अडविं मूडण चतुस्सीमेयोळगाट स्थळ होल गद्दे अडके. तेङ्ग-एलेय-तोट ओळगाद क्षेत्रद सर्व मान्यवनू स्त्री-पुत्र-ज्ञाति-सापत्न-दायादाद्यनुमति पुरस्सरवागि आदीश्वरगे एनेगे धमर्थिवागि त्रिवाचा कोहेनु । ( हमेशाकी तरह अन्तिम श्लोक ) • [हरवे के देवप्पके पुत्र चन्दप्पने, हरवे बस्तिके अपने कुल-देवता आदिपरमेश्वरकी पूजा का प्रबन्ध करने, तथा चतुर्वर्णको दान देने के लिये, तगडूरके सरदारों के द्वारा दी गयी भूमिका, सूखे खेतों, धान्यके खेतों, सुपारी, नारियल और पानके उद्यानों सहित-जो कि इस भूमिमें लगे हुए थे, दान किया । यह दान उसने अपनी स्त्री-पुत्र-ज्ञाति-सौतेली स्त्रियोंके पुत्रों और दायादों (उत्तराधिकारियों ) की अनुमतिसे किया था। [EC, IV, Chamarajnagar tl., No., 189 ] चित्तौड़-संस्कृत । [सं० १९४३ तथा शक ११०८= १४८६ ई. ] [गोमुखके पासके जैन-मन्दिरका लेख जो कि एक चट्टानपर है, जिसमें ३ प्रतिमायें उत्कीर्ण है।] (१)॥ (चिह्न) ॥ संवत् १५४३ वर्षे शाके १४०८ प्र० मार्य( 1 ) शीर्ष वदि १३ तिथौ गुरु-दिने । श्री-चित्रकूट-महा-दुर्गे । श्री-रायमल्ल-राजेन्द्र-विजे (ब) य-राज्ये । सकल-श्री-सङ्घन । स-तीर्थ । श्री-स (सु)कोशलेश प्रतिमा कारिता । प्रतिष्टि(२) ता । श्री-खरतरगच्छे । श्री जिनसमुद्र-सूरिभि (भः) । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़के लेख ['रायमल्ल' स्पष्टतः वही राबमल्ल है बो कुम्भकर्ण का पुत्र है, और उसके लिये विक्रम सं० १५४३, इस लेख द्वारा निर्दिष्ट, सबसे पूर्ववर्वी मिति है । लेखमें खरतरगच्छके जिनसमुद्र-सूरि द्वारा सुकोशलेश या ऋषभदेव तथा अन्य तीर्थों (चो कि दो से अधिक नहीं हो सकते हैं, क्योंकि पाषाणपर उत्कीर्ण केवल ३ मूत्तियोंका ही उल्लेख है । ) की प्रतिमाओंकी स्थापनाका वर्णन है । ] नोट :-जिनसमुद्रसूरिके विषयमें जानने के लिये Ind. Ant. Vol XI. p. 249, No. 58 देखना चाहिये । [ AS WI, Progress Report 1903-1904, p. 59. t.] होगेकेरी;-संस्कृत तथा कन्नड़ । [शक १४०६=११८७ ई.] [ होगेकेरीमें, पार्श्वनाथ बस्तिके एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। श्रीमद्भू-भुवन-प्रसिद्धतर-जम्बूद्वीप-मध्यस्थ-तुङ - । गामाचल-दक्षिणान्स्य-भरता--खण्ड-नैऋत्य-दिक- । सीमोपाब्धि-तटोपकण्ठ-विलसद्-वर्णाश्रमाकीर्ण भू-। धामं तौळव देशमिप्युटिळेयो सप्ताङ्ग-सम्पत्तियिम् ।। अदरोळ् माङ्गल्यगेहं बहु-विध-विभव-प्रोल्लसच्चैत्यगेहम् । सुदती-सन्तान-जन्मालयमखिल-सुखि-त्यागि-भोगि-प्रवाहम् । मदवद्द -हत्यश्व-यूथ-प्रबळ-पटु-भटाकीर्णमुत्तुङ्ग-सौधोदय-राबद्-राज-संगीतपुरमदेशेयल प्रौढ़-सङ्गीयमानम् ॥ कवि-गमकि-वादि-वामि। प्रवेक सङ्गीत-विषय-साहित्य-रसो-। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जैन-शिलालेख-संग्रह द्भव-चतुर-संस्तुत-। विविध-कला-भङ्गि-संगि सङ्गीतपुरम् ॥ भद्रनाळ्वं साळुवेन्द्र-क्षितिपति रिपु-मत्तेभ-कण्ठीरवं शा-। रद-चञ्चञ्चन्द्रिका-निर्मळ-ललित-यशः-पूरिताशान्तराळम् । मदन-प्रध्वंसि-चन्द्रप्रभ-जिन-चरण-द्वन्द्व-संसक्त-चित्तम् । सुदती-नेत्रान्तरङ्गोत्सव-कर-निज-सौभाग्य-कन्दर्प-देवम् ॥ अन्तांतनखण्डित-प्रचण्ड-प्रताप-खर्व-गई-निज्जित-भीष्म-ग्रीष्म-मार्तण्ड-मण्डल नुमप्रतिहत-देदीप्यमान-निज-तेजः-पुञ्जनुं दन्दह्यमान-रिपु-वधू-हृदयतुं विशाल-माल-तल चोचुम्न्यमान-जिन-चरण-नख-मयूखनुं दुष्ट-निग्रह-शिष्ट-प्रतिपाळन-क्रिया परिष्ठy चतुर-चतुषष्ठि-कला-कलापर्नु रत्न-त्रय-मणि-करण्डायमानान्तःकरणतुं श्रीमन्महामण्डलेश्वरं श्री-साळवेन्द्र-महाराज निःकण्टकनागि सुखदि राज्यं गेय्युत्तम् ।। विनुत-प्रासाद-चैत्यालय-तल-विलसन्-मण्डपौधङ्गळि कञ्चिन-मान-स्तम्भदिन्दा-पुरद वनद विन्यासदि लोह-पाषाण-निबद्धानेक-बिम्बङ्गलिनुपकरण-व्रातदि नित्य-दाना. चनेयिन्दम् शास्त्र-दानं नेगळे नडसिदं धर्ममं शाहवेन्द्रम् ॥ अनितु राज-धर्ममं धर्मममं पालिसुत्तम् । बरे साळवेन्द्रन चित्तम् । परितोषमनेयिदुवन्ते सेवा-तत्-। परनागि भक्ति-भरदिन्द । हरे विगत-च्छद्म सुगुण-सद्म पनम् ॥ हितनीतं प्रिय-सत्य-वाद-निपुणं धर्मार्थ-सम्पादकम् । चतुरं सच्चरित्रं दया-हृदयं शास्त्रतानेम्मन्वया-1 गतनी पद्मण-मन्त्रियेन्दडे कुब्रिक्कोडल्के साल्वेन्द्र-भपतिया-चन्द्र-घराक्कमित्तनुरे मान्य-ग्राम-सम्पत्तियम् ॥ भीमद्-विश्रित-शालिवाहन-शकान्दं नन्द-खान्धीन्दु-संख्या-मानं नदेव प्लवंग-गत-पुष्य-श्याम-सत्-पञ्चमी । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगेकेरीके लेख स्तोमं गीष्पतिवारमोन्दिरे मनो-वाक्-काय-शुद्धं चतुस्सीमान्तोवियनष्ट-भोग-सहितं हेमाम्बु-धारा-युतम् ॥ प्रभुगळ पुर-जन-परिचन-1 सभासदमचे साळुवेन्द्र-नृपाळम् । विभवदि पद्मण मन्त्रिगे। शुभमस्त्वेदोगेयकेरेयनवनोल्दित्तम् ॥ अन्तु स-हिरण्योदक-दान-धारा-पूर्वकमागि कोट वोगेयकेरेय-प्राम-वोन्दर चतुस्सीमेयोळगण गद्दे-बेद्दलु-तोट-तुडिके-कळ-मने-कोठार-होन्नु-होम्बळि-वरि बङ्गु-काणिकेकड्डाय बेडिगे बिनगु-बेसवोक्कलु-अङ्क-सुङ्क-टङ्कसाळे-तळवारिके निधि-निक्षेप-जलपाषाण-अक्षिणि-आगामि-सिद्ध-साध्यमेम्बष्ट-भोग-सर्व-स्वाम्य-सादाय-प्राप्ति-सहित मागिया-चन्द्रार्क-स्थायियागि पद्मणामात्यननुभविसुवुदेन्दु कोट्ट सर्वमान्य-प्रामदान-शासन-वचनम् ॥ [ जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, उसमें तौलव-देशका वर्णन । उसमें संगीतपुर नगर तथा उसके राजा शाळेवेन्द्रका वर्णन । जिस समय महा-मण्डलेश्वर शाळवेन्द्र-महाराज सुखसे राज्य कर रहे थे:सुन्दर, ऊँचे-ऊँचे चैत्यालयों, मण्डपसमूहों, घण्टी सहित मानस्तम्भों और उद्यानोंसे सालुवेन्द्र धर्मको बढ़ा रहे थे। उनकी सेवामें तत्पर पद्म नामका व्यक्ति था। यह पद्मण ( पद्म ) हमारे खानदानमें से हुआ है अतः राजाने मन्त्री-पद्मणको ओगेयकेरे नामका गांव दिया। उस गांवमें बहुतसे शस्य (चावल) के खेत ये । ये सब उसने उसको दिये तथा इन सबका शासन (लेख) मी लिखकर दिया । [ EC, VIII, Sagar tl., No 183, Ist part ] Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ or जैन - शिलालेख संग्रह L होगेकेरी - संस्कृत तथा कन्नड़ । [ शक १४१२ = १४६० ई० ] [ होगेकेरी में, पार्श्वनाथ वस्तिके एक पाषाणपर ] नमस्तुङ्ग इत्यादि ॥ स्वस्ति श्रीमन्महा-मण्डलेश्वरं सङ्गि-राय-वोडेयरवर कुमार यिन्दगरस - वोडेयर संगीतपुर-बर- राजधानियलु यिदु हाडवल्लिय राज्य-मुन्ताद समस्तराज्यङ्गळनु सद्धर्म्म-कथाप्रसङ्गदिं प्रतिपालिसुतं यिईन्दिन शालिवाहन शकaar १४१२ नेय सौम्य - संवत्सरद कार्त्तिक- ब ७ शुक्रवारदलु श्रीमन्महामण्डलेश्वरं यिन्दगरस -वोडेयर निरूपदिन्द बोम्मण-सेट्ठियर मग पदुमणसेट्टियरु बरसिद धर्मशासनद भाषा क्रमवेन्तेन्दरे यिन्दगरस-बोडेयर कैयलु पदुमण-सेट्टि मूलवनु कोण्डु आळुत्तं यिद वोगेयकेरेय-बोळगे चयि ( चै ) त्यालयवनु कट्टिति पारिश्वतीर्थेश्वर प्रतिष्ठेयनु माडि आं-पारिश्व-तीर्थेश्वररिङ्गे प्रतिदिन त्रि-काल- अभिषेक पूजे मूरु कार्त्तिक- पूजे मूरु नन्दीश्वरद अष्टाह्निक - शिवरात्रे अक्षय-तदिगे श्रुत-पञ्चमी कैयकिय होथिर्वाह्न जीवदयाष्टमी कैयक्किय सूवति गर्भावतरण जल्मा ( जन्मा ) भिषेक दीक्षा कल्याण केवल -ज्ञान-कल्याण निर्वाण -कल्याणङ्गळेम्ब पारिश्व-तीर्थेश्वर पञ्च-कल्याण-मुन्ताद नैमित्तिकङ्गळल्लि माडुव अभिषेक पूजे-धर्म्मङ्गळ अङ्गरङ्ग-नैवेद्यंगळि रोन्दु-तण्डु-तर्पास्वगळ आहार-दान के पूजक भान्दारिगळु मालेयवर मुन्तादवरिगे विडिसि माडिद धर्मस्थळङ्गळ विवर ( शेषमें दानकी विस्तृत चर्चा आदि है ) । [ शम्भुको नमस्कार इत्यादि । जिस समय महा-मण्डलेश्वर सङ्गी-राय-वोडेयर का पुत्र इन्दगरस- वोडेयर् राजधानी सङ्गीतपुरमें था : ( उक्त मितिको ) महा-मण्डलेश्वर इन्दगरस - Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगेकेरीके लेख वोडेयरके हुक्मसे,-बोम्मण-सेटि के पुत्र पदुमण-सेटिने एक धर्म-शासन-पत्र लिखवाया, जिसकी भाषा इस प्रकार थी :-इन्दगरस-वोडेयरके हाथोंसे, पदुमण सेटिने अपने द्वारा शासित वोगेयकेरेके मौलिक अधिकारको प्राप्त करके उसने वहां एक चैत्यालय बनवाकर पावतीर्थेश्वरको विराजमान किया तथा पूजा और अभिषेक का प्रबन्ध करनेके लिये ( जिसकी कि विस्तृत सूची दी हुई है ) उसने (उक्त) भूमियोंका दान दिया । और इन सब लिखे हुए धर्मों को चैत्यालयके उत्तरमें बनवाये गये मकानमें सुरक्षित रक्खा । मेरे एक हजार वर्ष बाद मेरे पुत्र, मेरी पीछेकी पीढ़ी और सन्तान मकानपर अधिकार कर सकते हैं, लगानकी देखभाल करते हुए ( उक्त ) धर्मोंको सञ्चालित कर सकते हैं। प्रत्येक चीजका खर्च नियमित रूपसे व्यवस्थित कर दिया गया है। ( अन्तका लेख पढ़ा नहीं जा सकता।)] [EC, VIII, Sagar tl., No. 163, III part. ) बिदरूरु-संस्कृत तथा कन्नड़ । [शक १४१३ - १४६१ ई.] [बिदरूहमें, जनार्दन मन्दिरके ताम्बेके पत्रपर ] श्रीमत्परम-गंभीर-स्याद्वादामोघ-लाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ।। श्रीमत्-तोळवदेश-मिश्रित-महा सङ्गोत-सत्-पत्तने बाभातीन्द्र-महीन्द्र-चन्द्र-तनयः श्रो-सङ्गि-यजात्मजः । भास्वत्-काश्यप-गोत्र-सोम-खजः श्री-सराम्बोदर क्षीराम्भोधि-सुधाकरो नुत-जिनः श्रा-साळुवेन्द्राधिपः ॥ साक्षीकृत्य निष-प्रताप-दहनं गन्धर्व-पादाहतिप्रोमूतोदर-धूलिपाण्डवसन संयोज्य नीराजनम् । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.६ जैन-शिलालेख संग्रह खड्गाखनि-ब-विस्फुलिंग-निवहैर् द्विट-कष्ठ-भेदारवैः वाद्यानोम्मडि-साळुधेन्द्रनृपति झेर-श्रियं लब्धवान् ॥ असूत सूर्यो यमुनां पुरेति कथा पृथिव्यां प्रथिता तथापि। श्री-साळुवेन्द्रासि-दिनेश-पुत्री प्रताप-सूर्य सुषुवे विचित्रम् ॥ प्रताप-तयनोत्फुळळ-कीर्ति-कब्जेष्ट-दिग-दळे । तारोद-विन्दुके यस्य लेभे हंस-भियं शशी ।। विख्यातेम्मडि-साळवेन्द्र-नृपतेः श्यामासि-सोमोद्भवा मध्योन्मग्न-विराजमान-कमला प्रासूत * पत्यामहो । एकां शत्रु-करीन्द्र-मस्तक-गलद्-रक्तौघ-शोषा-नदीम् अन्यां श्री-विबुधेश-सेवित-तटीं सत् कीत्ति-भागीरथीम् ॥ पातालोत्पललोचना-कटि-तटे चञ्चदुकूल-द्युतिम् दिक्-कान्ताकुच-कुम्भयोः कलयते मुक्ता-कलाप-श्रियम् । देव-स्त्री-कुटिलालकेषु नितरां मन्दार-माला-विम् कीर्तिः कार्तिक-कौमुदी-प्रविमला श्री-साळुवेन्द्राधिप (:)॥ व्यानम्रामर-पद्मराग-मकुट-ज्योतिश्छटा-रक्षितौ पादौ यस्य सरोजयोः कलयतो बालातप-भी-युजोः। । शोभां वेणुपुराधिपः स भगवान् श्री-वर्द्धमानो जिनः पायादिम्मडि-साळवेन्द्र-नृपतिं भूपाळ-चूडामणिम् ॥ इत्याद्यनेक-बिरुदावळी-विराधमानसङ्गिराय-वोडेयरवर कुमार शुद्ध-सम्यक्त्वरत्नाकरनेनिसिद श्रीमन्महा-मण्डलेश्वर यिन्दगरस-वोडेयर संगीतपुरद राजधानियलिदु विदिखनाबु-मुन्ताद समस्त-राज्यवनु प्रतिपालिसुत यिद्दन्दिन जयाभ्युदय-शालिवाहन शक-वरुष १४१८ नेय वर्तमानके सलुव विरोधि * ऐसा ही मूल में शायद 'पुण्याकहो' की जगह ऐसा हो गया है। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिदलरुके लेख कृतु-संवत्सरद वैशाख-सुख ५ आदिवार दलु श्रीमन्-महा-मण्डलेश्वर इन्दगरस-वोडेयरु तमगे पुण्यार्थवागि बरसिद धम्म-शासनद क्रमवेन्तेन्दरे विदिसर बस्तिय वर्द्धमान-स्वामिगळ अङ्ग-रङ्ग-नैवेद्य-नित्य-नैमित्तिक-जिन-पूषाङ्गविनियोग-मुन्ताद-श्री-कार्यक्के पूर्वदलि बिडु-देवसवागि हिरण्योदक-धारा-पूर्वकवागि-आ-चन्द्रार्क-स्थायियागि सर्वमान्यवागि बिट्ट भूमिगळ विवर ( यहाँ दानकी विगत आती है ) ई-बिट-कुळ-स्थलगळ नीरञ्चु नेलनरकलु नट्ट-कल्ल तेगदगळु गडियिन्दोळगाद चतुस्सीमेगे बन्द मकि हक्कलु कानु काडारम्भ नीरु दारि निधिनिक्षेप-अक्षीणि-आगामि-सिद्ध-साध्य-मुन्ताद तेज-मान्यगळनुळ ई-कुळ-स्थळंगळ मेले काणिके कड्डाय बीडुगळ विराड-मुन्तागि आवौपुत्र-इल्लदे सर्वमान्यवागि आवर्द्धमान तीर्थ-करिगे हिरण्योदक-धारा-पूर्वकवागि आ-चन्द्रार्क स्थायियागि बिड्डुदेवस्व वागि शासनाङ्कितवागि नावु बिटु-कोट्ट धर्म-शासनद पट्टे यिन्तप्पुदक्के साक्षिगळु । आदित्य-चन्द्रावनिलो-इत्यादि ॥ ई-धर्मके आ रोब्बरु तप्पिदवरू ऊर्जन्त-गिरियल्लि सहस्रगो-ब्राह्मणर हतिय माडिद पापक्के होहरु यरडूवरे-द्वीपदोळगुळ चैत्य चैत्यालयदोळगुळ जिन-मुनिगळ वघसिद पापक्के होहरु (हमेशाके शापात्मक वाक्यावयव और श्लोक ) यिन्दगरस बरह। [जिनशासनको प्रशंसा। ___ तौलव देशमें, प्रसिद्ध सङ्गीतपट्टनमें काश्यपगोत्र और सोम कुलके महाराज इन्द्रके पुत्र सनि-राजके पुत्र राबा साळवेन्द्र शोभायमान था। वह बिनभक्त था ओर उसकी माता सङ्कराम्बा थी। इम्मडि-साळवेन्द्रके पराक्रमको प्रशंसा । उसके यशकी प्रसिद्धिका कीर्तन । . जिस समय इन और अन्य उपाधियों सहित, सङ्गी-राय-वोडेयरका पुत्र, महामण्डलेश्वर इन्दगरस-वोडेयर शाही नगर सङ्गीतपुरमें थे :-(उक्त मितिको), Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जैन-शिलालेख संग्रह पुण्यकी प्राप्तिके लिये, उसने निम्नलिखित दान दिया-चो दान बिदिकर बस्तिके वर्धमान-स्वामीकी ( उक्त ) उपासना और पूषाके लिये पहले दिया गया था और फिर छोड़ दिया गया था निम्नलिखित थे;-( यहाँ पूरी-पूरी विगत दी हुई है )। ये भूमिर्या, ( उक्त ) सर्व अधिकारों सहित, वर्धमानतीर्थकरके लिये दे दी गयीं थीं। ] [ EC, VIII, Sagar tl. No 164 ] मलेयूर, काद-भग्न । [शक १४१४ = १४९२ ई.] [उसी पहाड़ीपर, सम्पिगे-बागालुके पश्चिमको ओर ] शुभमस्तु शक-परिष १४१४ नेय वर्तमान परिधावि-संवत्सरद चैत्र-शु १ लू कनक-गिरिस्थ श्री विजयनाथ ... ... ... यक्के मलेय ... ... दिमण्ण-सेट्टिय ... ... ... हियरु कनकगिरिय ... ... समस्त ... ... १ के हत्तु होनिगे यरडु हण बड्डियलु कोट्टद्द अन्तरदलु इप्यत्तु होन्निगे वोप्पत्त ... ... ... १ के लक्ष ... ... ... खं, कोळगद ... ... ... दीप आरति-सेवे ....... [मलेयूरके दिमण्ण-सेटिके (पुत्र]... ... सेट्टिने कनक-गिरिपर स्थित विजयनाथदेवकी दीप-आरतिकी सेवाके शिवे, प्रत्येक १० होन्नुपर २ हणके व्याबके हिसाबसे, २० होन्नुका दान किया था।] [ EC, IV, Chamarajnager tl., No. 160 ] Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगेकेरीके लेख ५०६ ६५८ होगेकेरी;-संस्कृत तथा कचर। । शक १४२० = १४९८ ई.] [ होगेकेरीमें, पार्श्वनाथ बस्तिके पाषाणपर ] श्रीमत्पाव जिनेन्द्र-भक्तनमल-श्री-पण्डिताचार्य-सत्-। प्रेमोद्यत्-प्रिय-शिष्यनप्रतिम-नागाम्बात्मजं सद्-गुण-1 स्तोम-ब्रह्म-तनूबनुत्तम-सु-पद्मा-वल्लभं मल्लिका-1 कामं पद्मण-मन्त्रि-मुख्यनेसेदं साल्वेन्द्र-चित्तोत्सवम् ॥ जिन-पादानति मस्तकक्के जिन-बिम्बाळोकनं दृष्टिगा। जिन-शास्त्र-श्रवणं स्व-कर्ण-विवरक्के श्री जिन-स्तोत्रमा-। नन पद्मक्के चिदात्म-भावने मनकं पात्र-दानं-कर-।। क्के निजालङ्कतियागे पद्मण-महा-मन्त्रीशनेम् धन्यनो ॥ येनेगी-भूप-कृपावलोकन दिनेन्नी-पोष्य-वर्गक्के तक्क् । अनितुण्टी-धन-धान्य-सम्पदमदी साल्वेन्द्रनोल्देन्तु को-। ट्रनितं ग्राममनेन्तु धर्ममेनगा-चन्द्राक्कमप्पन्तु माळप-। इनिदोन्दे-कडे गण्ड-कजमेनितं निश्चरिसदं चित्तदोळ ॥ चिन-चैत्यावासमं माडिसि समुचित-सालादियिं कूडे पार्वेसन बिम्ब-स्थापनं गेयदनुदिनमेसेयल नित्य-पूजाभिधानम् । मुनि-दानं तप्पदोळ्यिन्दोगेयकेरेयोप्पन्ते तां कोह शा-1 सनम तच्छासन-प्रान्तदोळे बर्रासदं पद्मणांक-प्रधानम् ॥ शकाब्दे कालयुक्ते नरभट-गणिते १४२० चैत्र-काष्टमो सदर पुष्यज्ञे बीववारे गबरिपु-करणे शूल-योगे मनोज्ञे । निर्दोषे मीन-लग्ने सु-रुचिरमकरोत् पार्श्वनाथ-प्रतिष्ठाम् । श्री-पद्मोद्भासि-पद्माकर-पुर-वसतौ पद्मनाभ-प्रधानः ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० जैन-शिलालेख-संग्रह पल-कालं नित्य-पूषा-विधिगे मेषव तोण्टङ्गळं द्याणम तान् । ओलविं नन्दादि-दीप्ति-प्रमुख-सकल-दीपक्के नैमित्तिकक्कम् । स्थलमीयाष्टाह्निकादि-प्रमुख-तिथिगमीयापणं पात्र-दानम् । नेलेयप्पन्तावर्ग बेप्पडिसि बरसिदं वृत्ति यं पद्मनाभम् ॥ कं ॥ अपरिमितमुचितमेम्बीय- । उपकरणङ्गळने कोट टु वैदिक-लौकिक- । निपुणनं ई अद्मण-सचिवं । सुपरीक्षितमागि बरसिदं शासनमम् ॥ पद्मं विनमित-जिन-पद-। पड़ सजनरोळेसेव विगत-छिद्मम् । पद्मा-प्रिय-कर-गुण-गण-1 समं नित्य-प्रसन्न-निज-मुख-पद्मम् ॥ [पाय जिनेन्द्र का पूजक, पण्डिताचार्यका शिष्य, नागाम्न और ब्रह्मका पुत्र, पद्माका पति तथा मल्लिकाका प्रिय, साल्वेन्द्रका कृपापन, मुख्य मन्त्री पद्म था । उसकी जैन भक्तिका वर्णन । उसने एक जिन चैत्यालय बनवाया था, उसमें पाश्वनाथ भगवान्की स्थापना कर दैनिक पूजा और मुनियोंके आहार दानके लिये प्रबन्ध किया था। ( उक्त मितिको ), मंत्री पद्मनाभने पद्माकरपुरमें पार्श्वनाथकी स्थापना की, और इसमेंसे ( उक्त ) विभिन्न कार्योंके लिये अलग-अलग हिस्से निकाल दिये, और एक शासन लिख दिया । पद्मकी प्रशंसा।] [ EC, VIII, Sagar tl., No. 163. part II. ] शत्रुञ्जय-प्राकृत। सं० १५..( ....ई.) यह लेख श्वेताम्बर सम्प्रदाय का है। [G. Buhler, EI, II, No. VI,No. 117 (p. 88), ३.] Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वत आबूके लेख ६६० पर्वत आबू ; - संस्कृत । [ सं० १५६६ = १५०३ ई० ] श्वेताम्बर लेख । [ Asiat. Res., XVI, p. 298, No. XII, &. ] ६६१ श्रवणबेलगोला - कन्नड़ [ शक १४३२ = १५१० ई० ] [ जै० शि० सं०, प्र० भा० ] ६६२ बहादुरपुर ( जिला अलवर ); - संस्कृत [ सं० १५७३ = १५१६ ई० ] ( श्वेताम्बर लेख | ) I [ A. Cunningham, Reports, XX, p. 119 - I20] ६६३ ५११ मलेयूर; संस्कृत तथा कन्नड़ । [ शक सं० १४४० = १५१८ ई० ] पहला लेख [ उसी पहाड़ीपर, दोणेके उत्तर और बलि - कवलुके दक्षिण एक चट्टानपर ] श्री ॥ शाss व्योम - पाथोनिधि-गति-शशि-संख्येश्वरे आवणे तत्कृष्ण पक्षेऽत्र तद्द्वादश तिथि युत-सत्- काव्य-वारे गुरोर्मे । आम्रो कन्यकायां यदि पति-मुनि चन्द्राय्य वर्थ्याघ्र शिष्यो लेभे चेतः कृतार्हस्पद युग-मुनिचन्द्रार्ण्य वस्समाधिम् ॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैन-शिलालेख संग्रह तच्छिष्य-वृषभदास-वणिना लिखितं पद्यमिदं विद्यानन्दोपाध्यायेन कृतम् । श्री। [ यतिपति-मुनिचन्द्रार्यके मुख्य शिष्यने मुनिचन्द्रार्यके लिये समाधि बनाई। यह श्लोक उनके शिष्य वृषभदासने लिखा और इसको बनानेवाले थे विद्यानन्दोपाध्याय ।] दूसरा लेख [उसी पहाड़ीपर, सेनगण निषधिकी उत्तर-पूर्वकी चट्टानपर ] कालोन-गणद मुनिचन्द्र-देवर पाद अवर शिष्य आदिदास बरसिद [ कोल्लारगणके मुनिचन्द्र-देवके चरणचिह्न उनके शिष्य आदिदासके द्वारा स्थापित किये गये थे।] तीसरा लेख [ उसी पहाड़ीपर, मुनिचन्द्र-निषधिके एक पाषाणपर ] ईश्वर-संवत्सरद श्रावण-बहुल श्री-मूलसंघ-कोलाग्र-गणद मुनिचन्द्र-देवरिंगे निषिधि ... ... अवर पादवन्नु अवर शिष्य आदिदास भावियण्णगळु माडिसिदरु श्री श्री श्री श्रीमूलसंघ और कोलान-गणके मुनिचन्द्र देवका स्मारक। उनके चरणचिह्नोंकी स्थापना उनके शिष्य आदिदासने की थी। (यह कार्य ) आवियण्णके द्वारा संपन्न किया गया था। ] [ EC,IV, Chamrajnagar tl., no 147, 148 and 161 ] , इस रसोक का उपर्युक अर्थ गलत मालूम होता है। श्लोकार्य से तो समाधि लेनेवाले स्वयं मुनि चन्द्रार्य के प्रधान शिष्य थे, न कि प्रधान शिष्य ने मुनि चन्द्रार्य के लिये समाधि बनायी। 'समाधि लेने का अर्थ होता है 'समाधिको प्राप्त हुमा' न कि 'समाधि बनाई। इसका कर्ता भी अपशिष्यो है। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ teel कलमस्ति; -- संस्कृत तथा 收费建 I [ शक १४१२-१५२३ ई० ] [ कलबस्ति (बम्गुज्जी परगना ) में, कल-बस्तिके सामनेके एक पाषाणपर] श्री गणाधिपतये नमः । श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्चनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् ॥ श्रीमानादि-वराहोऽयं श्रियं दिशतु भूयसीम् । गाढमालिङ्गिता येन मेदिनी मोदते सदा ॥ नमस्तुङ्ग इत्यादि ॥ स्वस्ति श्री जयाभ्युदय - शालिवाहन शक वरुष १४५२ सन्द वर्त्तमान | विक्रतु-संवत्सरद । चैत्र-शुद्ध १० बुधवारदलु श्रोमतु अरि-राय- गण्डर दावणि बोम्मल- देवियर कुमार श्री-बीर भैररस वोडेयरु । कारकळद सिंहासनदति सुख-संकथा-विनोददिं राज्यं प्रतिपालिसुत्तिह कालदलि । अवर तनि काळत-देवियरु | बगुञ्जिप सीमेयनु स्व-धर्मदलु प्रतिपालिसुत्तिह कालदलु तम्म कुल - स्वामि कल बस्तिय पार्श्वन्तीत्थंकररिगे नित्य- धर्मक्के बिट्ट भूमिय क्रमवेन्तेन्दरे । तावु तम्म कुमारति रामा- देवि यरु | कालव माडिदलि । अवर हेसरलि । मादि धर्म्म ( यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा आती है ) मंगल महा श्री गोम्मरस बिट्ट इळि ... यी भूमियनु नावु नम्म बगुञ्जिय सीमेय पूर्व प्रधानिगळु महाजनङ्गल हलरु नाडु कोलबिलियर मुन्तादवर् समस्त साक्षियति स - हिरण्योदक-दानधारा - पूर्वकवागि धारेय-नेदु कोट्टेषु आ-चन्द्रार्क - स्तिरवागि कोट्टेषु । हरगोल बोणिय गदेय का बस्तिय देवर अमृतपडिगे पूर्वदल्लि बिट्ट दा नम्म क कालव दल्लि बिट्ट भूमि व ६ उभय बीजवरि रव ११ भूमियन देवरि बिट्टेषु इदके राणिक अन्तिम श्लोक ) SO बरसिद कल्ल - शासन ( हमेशाके ३३ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Stv जैन-शिल अनुगच्छन्ति ये पदे पदे ऋतु-फलं लभते नात्र संशयः ॥ 'तुकं कोकान्वितम् । [बिस समय बोम्मल देवीके पुत्र वीर-मैररस-वोडेयर कारकलकी गद्दीपर और उनकी छोटी बहिन काल-देवी मनुवि-खीमेकी रक्षा कर रही थी;उसने अपने कुल देवता कल्ल बस्तिके पारिश्व (पार्श्व ) तीर्थङ्करको दैनिक पूजाके लिये दान दिया । और जब उसकी पुत्री रामा देवी मर गई तब उसने अग्रलिखित पुण्य-दान किया : प्रतिदिन चावलकी २ अञ्बलि देना, पहिले मिले हुए ४० खमें भट्टके १५ ख और मिलाकर कुल ५५ ख; २ हमेशा जलनेके लिये दिये, और वार्षिक २४ ग धातुमें; साथियों के सामने ( उक्त ) भूमिका दान दिया । पाषाणका शासन उसीने उत्कीर्ण करवाया । ] [ Eo, VII, Koppa tl. No .47. ] ६६५-६६६ शत्रुंजय - प्राकृत | [ संवत् १५८७ और शक सं० १४५३ = १५३० ई० ] ये दोनों लेख श्वेताम्बर सम्प्रदाबके हैं । [G. Buhler, EI. II, No. VI, No. I ( P. 42–47 ), t.] ६६७ हुम्मच। [ बिना काल-निर्देशका, पर लगभग १५३० ई० का ( लू० राइस) । ] [ पद्मावती मन्दिरके प्राङ्गणमें एक पाषाण पर ] विद्यानन्व-स्वामिय । हृद्यौपन्यास-त्राणि घरेयोऴ् गेन्दुम : Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मच लेख माद्वादि-गजेन्द्रर | भेद्यो दुर-सिंह- क्षितियन्तेवोले से गुम् ॥ स्थितियोळ् विद्यानन्द ब्रतिपति- मुख्य- बात - वाणि विबुधर मनदोळ् । सततं रजिसुतिम् । ब्रति-विरहित-कान्त-रचित भाष्यद तेरदिम् ॥ विद्यानन्द-स्वाम्यन- । वद्योपन्यास - मुद्रे कविंगळ मनदोळ | सद्यं सुखकर बाणन । गद्यात्मक काव्यदन्ते रजसि तोक्कुंम् ॥ श्री- नजरायपट्टणद् । आ-नरपति-नञ्ज-देष-भूपन समेयोळ् । आ-नन्दन - मलि-भट्टो | दानमनुषे किडिसि मेषद विद्यानन्द || श्रीरङ्ग नगर कार्य्यन । पेरनिय मतमनदु विद्वत् सभेयोळ् । शारदेयं वस- माडिये । धारिणिगभिवन्द्यनादे विद्यानन्दा ॥ श्री- सान्तवेन्द्र-राजन | केसर - विक्रमन बङ्गरास्थानदोळिन्त् । ई-साहित्यमनुर्व्वरे । गोसिसुवन्तुर्दे वादि-विद्यानन्दा || श्री- सास्व-मति रायन । धूसरगेणेयेनिसि तो सासनदोळधिकरादर | जाणन सभेयोळू । ५१५ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ जैन-शिलालेख-संग्रह बासेयनु मनिसिदे वादि-विद्यानन्दा।। अर्णव-वेष्टित-वसुधा-। कर्णोपम-गुरु-नृपालनास्थानदोळेम् । कर्णाट-दक्ष-कृतियम्। वर्णिसि बस बददे वादि-विद्यानन्दा ।। वासव-समान-भाग्य- । श्री-साळव-देव-रायनास्थानिकेयोन् । पुसियेन्दखिळ-वायुरु-। शासनम गेल्दु मेच्चिदे विद्यानन्दा । नागरी-राज्यद राजर। .... लेनिसुव सभेगळलि विबुध-बातक् । अगणित-वाक्यामृतमं । सोगसिन्दीण्टिसिदे वादि-विद्यानन्दा ॥ कळशोद्भव-सम-शौर्यन । विळिगेय नरसिंह-भूपनास्थानिकेयोळ् । बेळगिदे जिन-दर्शनमम् । नाळिनाम्बक-सूनु-वैरि विद्यानन्दा॥ कारकळ-नगरदाण्मन । भैरव-भूपाल-मोळियास्थानदोळेम् । सारतर-जैन धर्मन् । ओरन्तिरे वेळगि मेषदे विद्यानन्दा ।। विदिरेय भव्य-बनङ्गळ । विदमल-चारित्र-भूष्य-हृदयर सभेयोळ । पडे सिद्धान्तित-मतमम् । मुडदिं प्रकटिसिदे वादि-विद्यानन्दा ॥ नरपति-मणि-मुक्ताचित-। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मायके लेख नरसिंह-कुमार-कृष्ण-रापन समेयोळ् । पर-मत-वादि-बन्दमन् । ओरसिदे वाग्बलदे वादि-विद्यानन्दा ॥ कोपण-मोदलाद-तीत्थंदोळ्। अपरिमित-द्रव्यदि देहाशा-विधियिम् । स्वपवर्माद फलकागिये। विपुलोदय माडि मेषदे विद्यानन्दा ॥ बेळगुलद गुम्मटेशन । चळन द्वयदल्लि जैन-संघक्के महा-1 क मुददे वसन-भूषण-1 कळधौतद मळेय कषद विद्यानन्दा ॥ श्रा-गेरसोप्पयोळगण । योगागम-वाद-सक्त-मुनिगळ गणमम् । राजदे पालिप कजकि-। दी-गुरु-कणियन्ते मेषदे विद्यानन्दा ॥ वृ ॥ वीर-श्री-वर-देव-राज-कृत-सत्-कल्याण-पूजोत्सवो विद्यानन्द-महोदयैक-निलयः श्री-सङ्गि-राजार्चितः । पद्मा-नन्दन-कृष्ण-ये-विनुतः श्री-वर्द्धमानो जिनः पायात् सालुक्-कृष्ण-देव-नृपतिं श्रीशोऽर्द्धनारीश्वरः ॥ श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलान्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन खिन-शासनम् ।। वर्धमानो जिनो जीयात् गौतमादि-मुनि-स्तुतः । सुत्रामार्चित-मादाबः परमार्हन्त्य वैभवः ।। स चतुर्दश-पूवंशो भद्रबाहुजयत्यरम् । दय-पूर्व-धराधीश-विशाख-प्रमुखार्जितः ।। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह तत्वार्थसूत्र - कर्त्तारमात्वाति-सुनीश्वरम् । श्रुतकेवलि-देशीयं वन्देऽहं गुण-मन्दिरम् ॥ श्री- कुन्दकुन्दान्वय-नन्दि-संघे योगीश- राज्येन मतां जाता महान्तो बित-वादि-पक्षाः चारित्र-वेषा गुण - रत्न-भूषाः ॥ सिद्धान्तकीर्त्तिर्जिनदत्तरायप्रणत-पादो जयतीद्ध-योगः | सिद्धान्त-वादी बिन-वादि- वन्द्यः पद्मावती -मन्त्र ती - कृतेज्यः ॥ बीयात् समन्तभद्रस्य देवागमन -संज्ञिनः स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलको महर्द्धिकः ॥ अलञ्चकार यत्सर्वमाप्तमीमांसितं मतम् । स्वामि-विद्यादिनन्दाय नमस्तस्मै महात्मने || यः प्रमाता पवित्राणां L विद्यानन्द-स्वामिनश्च विद्यानन्द-महोदयम् ॥ ११८ ... ... 000 विद्यानन्द स्वामी विचितवान् श्लोकवात्तिकालङ्कारम् । जयति कवि - विवुध-तार्किकचूडामणिरमल-गुण-निलयः ॥ माणिक्यनन्दी बिनराज-वाणीप्राणाविनाथः पर - वादि-मर्दी | चित्र प्रमाचन्द्र इह क्षमायम् मार्त्ताण्डवृद्धी नितरां व्यदीपित् ॥ सुखी न्यायकुमुद चन्द्रोदय-कृते नमः । शाकटायन - कृत्सूत्र - न्यास - कर्त्रे व्रतीन्दवे ॥ . Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यासं जिनेन्द्र-संच सकळ धुष-भुस पाणिनीयस्य भूमीन्यासं शब्दाक्तारं मनुष-तति-हितं वैष-शास्त्रं च कृत्वा। यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसोज्यपाद-। स्वामी भूपाल-वन्धः स्व-पर-हित-बचा पूर्ण-ग-बोषमतः ॥ . वर्धमान-भुनीन्द्रस्य विद्या-मन्त्र-प्रभावतः । शार्दूलं स्व-वशीकृत्य होयसळोऽालयदगम् ॥ होयसळान्वय-भूपानां वृत्त-विद्या-प्रदापिनः । श्रीवर्द्धमान-योगीन्द्र-मुखास्ते गुरवोऽभवन् । वासुपूज्य-वती भाति भव्य सेव्यो पुपाश्चितः । सिद्धान्त-वाद्धि-शीतांशुः ... -रित्राधार-विग्रहः ॥ रिपु-वर्द्धन-बल्लाळ-राय-बन्ध-कमाम्बुधः । अनेकान्त-नयोभासी श्रीपालो राजते सुखी ।। भूभृत्पादानुवर्ती सन् राज-सेवा-पराङ्मुखः ।। संयतोऽपि च मोक्षार्थी ... ... पात्रकेसरो॥ त्रिलोकसार-प्रमुख ...... . ... ..... भुवि मेमिचन्द्रः । विभाति सैद्धान्तिक-सार्वभौमः चामुण्ड-रायाच्चित-पाद पद्मः ॥ रेजे माधवचन्द्रोऽसौ निराकृत-मधूत्सवः । चैत्याश्रयी शुचि-तिस्सदा श्रावण-तत्परः ।। जीयादमयचन्द्रोऽसौ मुनिस्सिद्धान्त-बेदिताम् । चरमः केशवायेण ... ... सत्य-पाणाभयः ।। ... ... ... स-राध-सूर्यो दया-परः श्री- बयकीरि-देषः । विराबते शास्त्र-विदा वरेण्यः स:.."रमालिङ्गित-रम्य-गामा। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ ... ... शासन - श्रीमन् राबते जिनचन्द्रार्ण्य आचार्य व जैन- शिलालेख साह ... ... 8.0 सेन इवावनौ । यः ॥ ... ... ... विभाति विचिते इन्द्रनन्दो बिनेन्द्रोकर्सहिता - शास्त्र विद्-वरः ॥ वसन्त कोचिंवर्धन- देश - वासी विशालकोर्त्तिश्शुभको चिं-देषः । श्री पद्मनन्दी मुनि माघनन्दी || बटा - प्रसिद्धामल - सिंहनन्दी || " व्यतिभाते गुणाधीशो धीमान् चन्द्रप्रभो मुनिः । वसुनन्दो माधचन्द्रो वीरनन्दी धनञ्जयः । वादिराज धराधीश - वन्दितांत्रि - सरोरुहः || पट - तर्क- वादि - जनताभय-दान- दक्षः साहित्य-नन्दन - वना लि-विकासि-चैत्रः । श्री धर्म्मभूषण - गुरुम्मुनिराज सेन्यो भट्टारको जयति सत्कविता - कलेन्दुः ॥ राजाधिराज - परमेश्वर-देव-रायभूपाल-मौळि - लसदङ्घ्रि- सरोज-युग्मः | श्री- वर्द्धमान - मुनि-वल्लभ-मौरव-मुख्यः श्रीधर्म्मभूषण - सुखी बर्यात क्षमाढ्यः ॥ विद्यानन्द-स्वामिनस्सूनु-वर्य्यस् सञ्जातस्ते सिंहकीर्त्ति व्रतीन्द्रः । ख्यातश्श्रीमान् पूर्णं चारित्र - गात्रो दान - स्व-नु-मन्दार-देश्यः ॥ श्वेत वर्णांकुलो भूमौ सर्व्वदा मरुदाहृतः ।सुदर्शनो मेदनन्दी राजहंस परिष्कृतः ।। वर्द्धमानः प्रमाचन्द्रोऽमरकीर्त्तिगुणाकरः । ... Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचके लेख ५२२ विशालकीतिश्श्री नेमिचन्द्रसिद्ध-गुणा इव । बाभात्यश्वपतेहिने तत-नयो वनाळ्य-देशावृतश्रीमद्-दिल्लि-पुरेड-महम्मद सुरित्राणस्य माराकृतेः । निजित्याशु सभावनौ जिन-गुरुन्मौद्धादि-वादि-वचम् ओ-भट्टारक-सिंहकीर्ति-मुनि-रा' चैक-विद्या-गुरुः ।। विशालकीचिर्वादीन्द्रः परमागम-कोविदः । भट्टारको बलात्कार-गणाधीशो महा-तपः ॥ सिकन्दर-सुरित्राण-प्राप्त-सत्कारवैभवः । महा-बाद-जयोद्भूत-यशो-भूषित-विष्टपः ।। श्री-विरूपात-रायस्य श्री-विद्यानगरेशिनः । सभायां वादि-सन्दोह निजित्य जय-पत्रकम् ।। स्वीकृत्य च महा-प्रज्ञा-बलेन बुध-भू भुजैः । मतं सरस्वती-मूल-शासन वा सदोज्वळम् ।। देवप्प दण्डनाथस्य नगरे श्रीमदारगे। प्रकाशित-महा-जैन-धर्मोऽभूद् भूसुराञ्चितः ।। विशालकीर्तीरश्री-विद्यानन्द-स्वामीति ब्दितः । अभवत् तनयस साळ्य-मल्लिराय-नृपार्चितः ॥ आगम-त्रय-सर्वशः कवित्व-गुण-भूषितः । नानोपन्यास-कुशलो वादि-मेघ-महा-मरुत् ।। स्वामि-विद्यादिनन्दस्य भारती भाललोचनः । सूनुर्देवेन्द्रकाल्यो बातो भट्टारकाग्रणी।। श्रीमद्देवेन्द्रकीति-ति-पद-नख-झग-मञ्जरी मंगलं मे भूयात् तत्पादपार्श्वे मम नुति-विनमन्मस्तके मलिकामा । नेत्रे कर्पूर-पा वदन-सरसिजे स्फार-पीयूष-धारा कण्ठे मुक्ता-कलापस्त्ववयव-निकरे चन्द्र-युक-चन्दन-श्रीः॥ आनन्दधाभु-सलिलैरपि भावयिस्खा Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह भाल-स्थली-विरचिताअलि कुटमलेन । देवेन्द्रकीर्ति-चरणे मुखमप्पयामि कामातुरः कुच-भरे स यथा तरूण्याः ।। यत्पादाम्ब-नखेन्दु-कान्ति-लहरी-स्थानं जगत्पावनम् यत्पादान्बरबो-विलेपनमहो संसार-सन्ताप-हृत् । यत् कारुण्य-कटाक्ष-वीक्षणर्माप क्षीरोद-पट्टाम्बरम् यत् प्रेम् ... सुधाशनं भव-भवे सोऽस्तु प्रियो मे गुरुः ।। श्रीमान् देवेन्द्रकोर्तिय॑ति-पति-मुकुरो मन्त्र-वादीम-सिंहः साहित्याम्भोधि-सूटयों विमलतरतपः-श्री-समालिङ्गितानः । विद्यानन्दार्य-सूनुः कवि-विबुध-महा-पारिवाती विभाति प्रायो भूताचलेन्द्रः पर-हित-चरितः शारदा-कर्णपूरः ॥ श्री-कृष्ण-राय-सहजाच्युत-राय-मौलिविन्यस्त-पाद-कमलः कमनीय-मूर्तिः। देवेन्द्रकीर्ति-सुखिराड् बयति प्रसिद्धः स्याद्वाद-शास्त्र-मकराकर-शीतरोचिः ॥ श्रीमद्देवेन्द्रकीर्ति-व्रतिप जिन-मताम्भोधिनी-भासि-मानो द्विद्या-नाथ-पायोनिधि-विशद-शरत् ... र-पीयूषभानो। एनो-बन्धासिधेनो मयि कुरु करुणां वाक्-सुधा-कामधेनो विद्यानन्दार्थ सूनो गुण-मणि-बिलसद्-रोहणादीन्द्र-सानो ॥ वादावसान-विनमद्-वर-वादि-वक्त्र कलात-बात-मुदिताश्रुन-बिन्दु-वृन्दैः। मुक्ताफलैरिव मुहुः परिपूज्यमानम् । देवेन्द्रकोर्ति चरणं शरणं प्रजामि ॥ सन्मार्गासक्त-चित्तं कुवलय-बनितामोद-स-रि-हेतुम् सद-वृत्तं चारूपोधोव्वल-विवृष-नुतं सत्काळानामधीसम्। क्षोणीभूत्-तुङ्ग-मौळि-प्रणिहित-विलसत् पादमुन्वरसम् Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यानन्द-यतीन्द्रामृतकर श्रीतिमानः वादि- प्रोद्दाम-वाचा- तिर्मिर-समुदय-प्रचलद्वाल मात् त्रैलोक्यास्वधं गर्व-समर - विपिन- महा-दीप-तेजः कृशामा शास्त्राम्भोराशि-तारारमण- संदृश-देवेन्द्रकीय-मामुर् व्विद्यानन्दार्य्य-वय्यों वगति विजयते धर्म्म-भूमी सानुः ॥ साकारो वा भाति सौजन्य- राशि - सो वा मर्त्य-वेषस्समिन्वे । सञ्चारी वा सर्व्व-शास्त्र-प्रपञ्चः विद्यानन्द स्वामि-वर्य्यो विभाति ॥ का सर्व्वे विशदीकरोति विनतापत्थं भवेत् किं हरेः भुंक्ते पूत- हविश्व कः खग- मृगादीनां च को वाश्रयः । क्वास्ते देव-ततिः प्रथा क्व नु कुतस्सन्तो भजन्ते मुदम् विद्यानन्द-मुनावनङ्ग - विजयिन्युद्वीक्ष्यमाणे सति ॥ वित्यानं दमुनाः वनं गवि जयिनि ॥ देवेन्द्रकीर्त्तिर्जिन-पूजनेषु विशालकीर्त्तिर्विबुधाधिपेषु । विश्वावनी - वल्लभ- पूज्य-पादो विद्यादिनन्दो जयताद् घरित्र्याम् ॥ विद्यानन्द-स्वामि-शास्त्रोपमाये शेष शम्भु सेवते हार-भावात् । प्रायो लक्ष्म्यालिङ्गितांसं पुमान्सम् पङ्कत्वं प्राप्य साक्षादुपास्ते || म्याचिख्यासति वैदुषी-मर- लसद् - व्याख्यान- कोलाहले विद्यानन्द - मुनौ सभासु विदुषां कान्यस्य सूरेः कथा । खाद्योति किमुदेति कान्तिरुदिते राका- सुधायामनि प्रौढे भास्वति भासि माति ... हैवी कथं दीधितिः ॥ 重要事 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ जैन-शिलालेख-संग्रह वीर-श्री-वर-देव-राय-नृपतेस्सद्-भागिनेयेन वै पद्माम्बा ... गर्भ-वार्डि-विधुना राजेन्द्र-वन्द्यामिणा । श्रीमत्-साळुव-कृष्ण-देव-धरणीकान्तेन भक्तयार्चितो विद्यानन्द-मुनीश्वरो विषयते स्यादाद-विद्या-फलः ।। श्रीमद्विद्यानन्द-खामिनममराचलं मन्ये ।। द्विन-विबुध-कवि-गुरूणां सन्दोहस्सेवतेऽन्यथा कथं भुवने ॥ किं वाणी चतुराननः किमयवा वाचस्पतिः किन्वसौ विद्यानां विभवस् सहस्रवदनः साक्षादनन्तः किमु । इत्थं संसदि साधवस्समुदितास्संशेरते सादरम् विद्यानन्द-मुनौ बुधेशभवन-व्याख्यानमातन्वति ॥ यो विद्यानगरी-धुरीण-विनय-श्रो-कृष्ण राय-प्रभार आस्थाने विदुषां गणं समजयत् पञ्चाननो वा गजम् । सद्-वाग्भिनखरैरुदात्त-विमल-ज्ञानाय तस्मै नमो विद्यानन्द-मुनीश्वराय जगति प्रख्यात-सत्-कीर्तये ॥ . विद्यानन्द-स्वामिनोऽभूत् सघर्मा विख्यातोऽयं नेमिचन्द्रो मुनोन्द्रः। भूत-बाताम्भोज-वैकासकारो [...] शास्त्राम्भोराशि-संवृद्धिकारी ।। पोम्बुर्व्य-पार्श्वनाथस्य वसतिं श्री-त्रि-भूमिकाम् । कृत्वा प्रतिष्ठा महती सन्तनोति स्म भक्तितः ॥ विद्यानन्द-खामिनः पुण्य-मूर्तेः बीयात् सूनुश्श्री-विशालादिकीर्तिः । विद्वदन्यः सर्व-शास्त्रावतारो . माद्यद्-वादीभेन्द्र-संघात-सिंहः ।। वादि- विशाखकोषि-मुखि-राडू विबुष-स्तुत-सद्-गुणोदयः क्षमाधिप-संसदप्रतिम-वाक्य-निराकृत-सरि-सन्ततिः । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचके लेख ' स्यात्पद - लाञ्छनान्वित -जिनागम-भावन-पूत- मानसो भाति नृपाल - पूति-पदः स-दयो बित- पुष्पसायकः ॥ बीयादमरकीर्याख्य-भट्टारक- शिरोमणिः । विशालकीर्त्ति योगीन्द्र-संघर्म्मा शास्त्र - कोविदः || विशालकीर्सियोगीन्द्र भट्टोदय - महीभृतः । देवेन्द्रकीर्त्ति -सुखि-राड् बालार्क्स हव भासते || श्री भैरवेन्द्र बंशाब्धि-राज- पाण्ड्य नृपाचितः । जीयाद् देवेन्द्रकी विद्यानन्द -महोदयः || देवेन्द्रकी चिस्सिद्धार्थस् तद्वाणी प्रियकारिणी । मांस्तदुदितो वर्णी वर्द्धमानो न किं भवेत् ॥ निर्भग्नात्म-निबन्धनस्स-करुणो निर्व्वाण वाञ्छान्वितो बाह्यार्त्यावगमाभिलाष-रहितो दूरीकृतोत्कल्पनः । स्वच्छन्द-स्व ना भद्राङ्ग-लक्ष्म्या परम् चित्यां मत्त-महा-करीव जयति श्री - वर्द्धमानो मुनिः ॥ ख्यात-श्री-वर्द्धमानोऽभूद् वीत-संसार - विभ्रमः । ज्ञातानुयोग - शास्त्रार्थो जातरूपा ... स्वरुः ॥ यति ... ... ... ... ... ... नूत - सद्-गुण-सन्तान - पूत- चिद् - भावना - मतिः ॥ यति भुजबल - श्रीराय सञ्चयस्य बिन-पति-मत- बुद्धिः स्वर्ग- मोक्षैक-सिद्धिः । बन-हित- मित-वाणी - लुप्त-कन्दर्प-बाणी नव-तपन दन | 11 'दिन्द्रकोर्त्ति योगीन्द्र विद्यानन्द - महोदय । वर्द्धमान- बुधाराध्य भूयो भूयो नमोऽस्तुते || सत्पुत्रो - जननीं निदाघ - तृषितः शैत्यं नलं कामिनी कान्तं वारवधूः घनं यतिपतिः ... यितं चातकः । ... २५ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-पिलाल ग्रह मेघ भूरमणो बयं युधि यथा ध्यायत्याबान तथा विद्यानन्द-सुखीश्वरस्य चरणाम्भोचं मदीयं मनः । वन्दे पद्मावती देवी धारिणीन्द्र-मनः-प्रियाम् । भी-सिन्ध ... ... ... ... ... ... ... ...॥ देवेन्द्रकोत्ति-मुनिराज-तनूभवेन भी-वर्धमान सुखिना गदितानि भान्ति । पद्यानि सद्-गुण-युतानि महोज्वलानि विद्वत्-कवीन्द्र-गल-कर्ण-विभूषणानि । ...... दया धर्मस्तावत् सद्-धर्म-शासन । श्रीरस्तु जगतां राजा परां न्यायेन रक्षतु ।। भान्तु षड्-दर्शनान्यु ... ... ... ... || ( वही अन्तिम श्लोक )। वर्षमान-मुनीन्द्रेण विद्य ...... बन्धुना। देवेन्द्रकोर्ति-महिता लिखिता ... ... ... || । विद्यानन्द-स्वामीकी वाणीके तर्कसे वादि-राजेन्द्र भयभीत रहते हैं। विद्यानन्दि-अतिपतिके मुखसे निकली हुई वाणीको विद्वान् लोग भाष्य समझते हैं। उनके तर्ककी प्रशंसा । नजराय पट्टणके राजा नञ्ज-देवकी सभामें उन्होंने नन्दनमखि-भट्टका मुँह बन्द करके अपनेको 'विद्यानन्द' प्रसिद्ध किया। श्रीरङ्गनगरके कार्य ( प्रवर्द्धक ) यूरोपियन के मतको ध्वस्त करके एक विद्वत्परिषद्में उनने शारदा (सरस्वती ) को बुलाया था। उन्होंने सातवेन्द्र (या सान्तवेन्द्र) राजके अनुपद्रव दरबारमें दुनिया में प्रसार पा जानेवाली एक कविता पढ़ी थी। साल्व-मल्लिरायकी एक विद्वत्परिषद्में अच्छे वादियोंको परास्त किया। गुरु-नृपालके दरबारमें एक कर्णाटक ग्रन्यका निर्माण करके उन्होंने प्रसिद्धि प्राप्त की। साळव-देव-राय के दरबारमें सब वादियोंके सिद्धान्तोंको मिथ्या सिद्ध करनेमें उन्होंने महती सफलता प्राप्त की थी। नगरी राज्यके राजाओंकी सभाओंमें उन्होंने विद्वानोंको Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह वृ || समराम्भोराशियोळ् सुत्तव सुळिगळिवेम्बन्ते नीनेरिदश्वो । तमदिन्दं वेडेयङ्गळ पसरिसे रिपु-राजेन्द्ररेरिई मत्ते । भ-महा-बाबि-बजङ्गळ् पडगुगळत्रो लई ल्के नुङ्गुत्तमिक्कुम् । क्रमदिं त्वत्पादयुग्मं मकर-युगदवोल खाल्व-मझ - क्षितीश || श्रीमद्-भैरव-भूप- मेरुमनिशं - देवालयम् सदू - गो-मण्डलमा भ्रमत्यपि यं अस्पृष्ट्वा द्विजेशं करैः । तन्मन्ये तवक- प्रताप-सवितुः साम्यश्च साद्राम्बरो ना नामिति प्रकम्पित-तनुः सत्यापयत्यंशुमान् ॥ ५१६ ... अन्ततिप्रसिद्धराद युवराजरेनिसिद इ०र्व्वरळियन्दिरिं भक्ति-युक्तराद उळिद राजकुमाररिं दण्डोपनतनाद अन्य - मण्डलिक रिन्दोलगिसिकोळूपट्ट देव-रायं तुळु-कोङ्कणहै वे - मुन्वाद भूमण्डलमं भूमण्डलाखण्डल -नेनिसि आळुत्तमिरेम् । आ-पोळलोळ श्री देव-म- । हीपाल - सुपालितो रु-तेजो मान्य- । व्यापित - राज श्रेष्ठ र । मा-परिवृढनि नवण-श्रेष्ठि-वरम् ॥ आन कान्ते शील- गुणवन्ते कला-गुणवन्ते जैन-माग्आत चित्ते धर्म्म-पर-वित्ते बन-स्तुत वृत्ते सत्कुलख्यात सुरूपे सन्मति-कलापे विनिर्गत कोपे एन्दुधाश्री- तळमोप्पे देवरस्यिं पोगुगुं गुण-रत्न राशियम् ॥ अवरिरन्वयमन्तेन्दोडे ॥ श्रीमद्- राजाधिराजं बनवसि पुरवराधीश्वर कोण हैव राज्याधीशनप्प चन्दाऊरद कदम्ब कुल-तिलक कामि-देवमहाराजन दण्डाधिनाथ कामेय-दणायकन सु-पुत्र रामण - हेग्गडेगं रामकगं पुट्टिद अष्ट-पुत्ररोळगे अतिप्रसिद्धनाद योजन-श्रेष्ठिगे सङ्गणनं रामकनु मेम्ब इर्वरु कुलवधुगळादरवरोळ तङ्गणङ्गे रामण-श्रेष्ठियं रामकने कल्प- सेट्टियुमेम्ब तनुबरादरवरोळ् कूडि ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोवर्द्धनगिरि लेख कं ॥ प्रियतमेय दय्वदिन्दं । नयन-द्वयदिन्दे वक्त्रमोप्पुक्-तेरदिम् । यदङ्गदाने दन्त- । द्वयदिन्देसेवन्तेयोप्पिदं यो चौणम् ॥ व || अन्तेनिसिद योजण-श्रेष्ठी श्रीमदनन्तनाथन चैत्यालयमं क्षेमपुरदोळ् कट्टिसि अन्तमिलदिई कार्त्ति पुण्यक्के ने लेयागि अन्त्य - कालदोळ तन्न राष-श्रेष्ठि पदवियं तन पुत्ररिगोपिसि सुर- लोक-प्राप्तनादनित्तलु ॥ कं ॥ रामण-सेट्टिय तनुजम् । कामनिभं तम्मणङ्कनातन तनयम् । श्री-महित-नागपङ्कम् | મત્સ્ય भूमीश्वर- मान्यनादनैदे वदान्यम् ॥ व ॥ आ-भाग-सेट्टिय कुल-स्त्रियरारेन्दोडे सातमनुं नागमनुमेन्दु यिर्व्वरादरु नगरी - राज्यदोळ् प्रसिद्धमाद कुदुर-पुरदोळ् पुट्टिद सर्व्व-तेजो मान्यदिन्देसेब तोळहळ - बळिय आ - सातम्मगं हट्टिगन बळिय आ-नागप्प-श्रेष्टिगं तोटियण्ण-सेट्टियेम्ब सुपुत्रनादम् ॥ मत्तं नागमनन्वयमेतेन्दोडे || कं || यिदु सिरिगे तवर्मनेयेनि । सिद नगरी सीमेयाद मागोडोळ् पु हिद दण्डुर्वाळ सोबगिन । मोदले निसिदनल्ते नरस-नायकनेम्बम् ॥ पु- । अन्तेनिसिद नरसण-नायक्कं तन्न जन्म-स्थानमाद मागोडोळु चैत्यालयमं कट्टिसि श्री - पाखं तीर्श्वेश्वररनल्लि प्रतिष्ठेयम् माडिसि चतुर्विध-दानक्के यथायोग्यमागि क्षेत्रादिकमम् कोट्ट्टु पुण्यके भाजननादम् || मत्तमातन मोम्मगळु मारक्कनं हैवेराज्यक्के मुख्यवाद हरियय-सीमेगे बन्द अन्तरवयिल्लि हुट्टिद हट्टिगन-बळिय नेमण- सेट्टिगे कोडे अव वुट्टिद नागमनमा - नेमण-सेट्टि तन्न सोदरळिय नागप्प-सेट्टिगे धारापूर्वकं कोडे ॥ वृ ॥ पति-चितानुगुण- प्रवर्त्तनदिनत्याश्चर्य-सौ कय्य-सं- । युत-शीलोन्नतयि जिनेन्द्र-पद-पूजासक- सद्-भक्तियिम् । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह सततोत्साह - सुदानदि पर हित व्यापार- चातुय्यदिम् । क्षितियोळ् नागमनान्तळुत्तम - यशःसौभाग्यमं भाग्यमम् ॥ ५३८ कं ॥ - नागप्प-श्रेष्ठगम् । आ-नागम्मङ्गे पुट्टिदर् स्तरिर्व्वर् । भू-नुतम्बणेरम्बी- । दानोन्नत - भल्लि - सेट्टि येम्बी-पेसरिम् ॥ || अन्ता - नागप्प-श्रेष्ठ पुत्र- कळत्र - मित्ररोळ कूडि सुखदिनिर्द्दम् || ( पश्चिम मुख) मत्तमम्ब्वण-श्रेष्टिय कुल - स्त्रीयरा रेन्दोडे मन मनुं देवरसियुमेम्बिर्व्वरोळ् देवरसिय अन्वयमेन्तेन्दोडे ॥ घरेयोल नेगळ्ते-बडेद पिरि-योजण श्रेष्टीय पुत्र रामण-सेट्टिय सापत्नं रामक्काम्बा - गर्भान्धि-चन्द्रनेनिसिद कल्लप्प-श्रेष्टि दानबादि-सत्-कृत्यदि घरणियोळ् प्रसिद्धनादम् || कं ॥ कल्लप-सेट्टिय तनुजम् । पुल्लशराकार योजण-श्रेष्टि-वरम् । सहलित-यशं जिन-पद- 1 पल्लव- कमनीय-भक्ति-लतिकाब्बोगम् ॥ अन्ततिप्रसिद्धिनाद राज-श्रेष्टियाद योजण श्रेष्टिगे तोगरसियोळ् पुट्टिद होलेयबलिंग श्रेष्टनाद देवी -सावन्त वहुट्टिद बङ्कन बळिलोळु चैत्यालयमं कट्टिसि धर्म माडि प्रसिद्धनाद बिदरु-नाडिगे मुख्यनाद माधु-गौडन वह्नि वीरक्कनेम्ब कन्निके वधुवा आ-योजन - श्रेष्टि सुखदिनिरुत्तं तन्न पितृ कल्लप्प-श्रेष्टिय नियोगदिं क्षेम-पुरदोळु चैत्यालयमं द्वि-तलमागि कट्टिसि केळगण नेलेयोळ श्री - नेमीश्वरन प्रतिमेयं मेगण नेलेयोळु श्री-गुम्मटनाथन प्रतिकृतियं प्रतिष्ठेयं माडिसिद आ- योजनश्रेष्ट्रिय कीर्त्तिय मूर्त्तियन्ते पुण्यद पुब्बदन्तिर्दा चैत्यालयमेन्तेन्दोडे । वृ ॥ हरि-वंशारिष्टनेमि-स्थिर - निवसन दिन्दुर्ज्जयन्ताद्रियिं भा- । स्कर -रत्न-स्पर्श-कूपोन्नतियिननुदिनं रोहणावीन्द्रमं भा- । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोवर्धनगिरिके लेख ५३६ ५३६ सुर-सौधर्मागमर्षि-स्थितियिनमर-शैलेन्द्रमं सत्पताको । त्करदि नाट्याङ्गमं पोल्तेसवुदु भुवन-स्वामि-नेमीश-वासम् ॥ अन्वेसेव चैत्यालयमं कट्टिसि सुखदिनिरुत्तमायोजण-अष्टि तनगं वीरकंगं पुटिद सुतरोळ् । के ॥ संगरसनिन्दे किरियर्छ । मंगल-गुणि कल्लपाङ्गनिन्दं पिरियळ- । नङ्गन जय-सिरियन्ते म-। नङ्गोळिप नतक्कनेम्ब कन्या-रत्नम् ॥ व ॥ आ-कन्निकेयं बटकळद सेटिकाररोलु मुख्यनेनिसिद संघकोच्चं ... होळेयोळु चैत्यालयमं कटिसि दान-पूजादिगळिन्दति-प्रसिद्धयाद कञ्चधिकारिय पेण्डाति माळधिकारितिगे पुट्टिद पारिसणधिकारिय तङ्गे गुम्नट-देविगं पुट्टिद कश्चण-सेटिगे विवाह-पूर्वकं कोडे । कं ॥ आ यिरिंग पुट्टिद-। ळायत जलबाक्षि देवरसियेम्बळ ताम् । कायन-रायन मोह-स-। हायद शक्तियवोलेशेव रूपोन्नतियिम् ॥ आकेयनुजाते मदन-प-1 ताकेयवोल् जनद मनद कोनेयोल् निमिर्दा । लोके सुते पुट्टिदळ सी.। लोन्नते मल्सि-देवियेम्बी-पेसरिम् ॥ आ-(अ) नतक्कमिन्तोप्पुव पेण-मक्कळिवरं पडदु अवरिवरोळ् पिरिय-मगळु देवरसियम् । तनगण्णनागल वेडिद्द नागप-प्रेष्टिय मग अम्बुवण-श्रेष्टिगे विवाहपूर्वकं कुडे। कं । रतियु रतिपतियुं श्री सतियुं भीपतियुमिर्प-तेरदि भोग-। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૦ जैन - शिलालेख - संग्रह स्तितियननुभवित्तं बिन- । मतदोळति-प्रियरागि सुखदिन्दिर्द्दर् ।। . व ।। अन्ता- दम्पतिगळिवरुं सुखदिनिरुतमोन्दानोन्दु - दिवस वन्दना - भक्तियिं नेमिजिन चैत्यालय के बन्दु | वृ ।। जन-नेत्र-भ्रमरावली- कुसुमितोद्यानं मुनीन्द्रौघ-चि- । त-नवीनाम्बुरुह - प्रभात समयं विद्वजनस्तोत्र - दि - । ब्य-नदी-पूर-हिमाचलं निज-महा-सौन्दर्य्यमेन्देम्ब सन्- । जनता - संस्तुति निन्नोळेनमर्दुदै श्री - नेमि तीर्थेश्वर ॥ एम्बिवु मोदलाद स्तुतिथि नेमि स्वामियं स्तुतियिसि मुनि-वृन्दारकरं बन्दिसि बळियं अभिनव-समन्तभद्र-मुनियिं धर्मंमं केळदु मन दे गोण्डु आ-दम्पतिगळिर्व्वरुं तमगे पुण्यार्थवागि तमगे अजनाद योजण श्रेष्ट कट्टिसिद नेमोश्वरन चैत्यालयद मुन्द्रे मानस्तम्भमं माडिदयेवेन्दु गुरुगळिगे विन्नविसि तम्म गृहक्के पोगि तम्म बडवुट्टिदराद कोटण-सेट्टि - मल्लि - सेट्टि मुन्ताद बान्धवानुमतदि तम्म वोडेयनेनिसिद देव भूपालङ्गे ई - धम्मगावनेचरिति आ-महारानननुमतदिं चतुस्संघदनुमतदिम् ( उत्तर मुख ) शुभ-दिन-दोळ कांस्यमय - मानस्तम्भमं माडिसि दयेवेन्दु निश्वयि सिर्पन्नेगम् । कं ।। कमलिनियुं कुमुदिनीयुम् । क्रमदिं कासार-लक्ष्मिगुदयिपवोल् श्री- । सम- देवरसिगे पुट्टिद - | रममेने पद्मरसि देवरसियेन्दर् ॥ अन्तिर्वर - सुतेयरं पडेदु अदे-शुभ सकुनमादन्ते कांस्यमय - मानस्तम्भमं माडिसि आ-चैत्यालयद मुन्दे प्रतिष्ठेयं माडिसिदरु । आ-(मा) मानस्तम्भक्के कं ॥ पोन - कळसमने माडिसि । सन्नुत - पद्मरसि देवरसि इर्व्वर त्ताम् । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोवर्धनगिरिके लेख ५४९ उन्नत-मानस्तम्भकेय। उन्नतियागिप्प-तेरदे पदविन्दित्तर ।। आ-मानस्तम्भमेन्तेन्दोडे ।। वृ ।। भरदि जन्माब्धियं दाण्टिसुव वर-महा-धर्ममेन्देम्ब पोतक उरुकूप-स्तम्भमम्बाङ्कन विशद-यशः-पट्टिका-स्तम्भमेम्बन्त्- । इरे मानस्तम्भमा-कूटदोळेसेव चतुज्जैन-बिम्बाघ्रि-पूजा-। परिकीर्णास्फार-पुष्पाञ्जलियोलेशेवुदी-व्योम-तारा-कदम्बम् ।। श्रीमन्नेमीश्वरोद्यन-जिन-गृह-पुरतः प्रस्फुरत्-कांस्य-मानस्तम्भ सद्धेमकुम्भं शुभमभिनव सामन्तभद्रोपदेशात् । नागप्प-ष्ठि-पुत्रः स्फुरदुरु-विभवादम्ब्वण-भेष्ठि-वर्यः सद्-धर्म-च्छत्र-दण्डं प्रमुदित-मनसाकारयद् भूरि-शोभम् ।। अन्तु मान-स्तम्भमै माडिसिदरु ॥ [जिन-शासनकी प्रशंसाके बाद, नेमिनाथ भगवान्को नमस्कार और उनकी प्रशंसा । गुम्मटाधीश्वरसे रक्षा की कामना । अम्ब्वण श्रेष्ठीको नेमिचन्द्र जिनेन्द्र की ओरसे मङ्गल-कामना। __जम्बू-द्वीपमें भारत देश, उसमें तौलव देश; उसमें अम्बुनदीके दक्षिण किनारे पर क्षेमपुर है । उसमें गेरसोप्पे नगरकी शोभाका वर्णन । क्षेमपुर का अधीश देव-महीपति था। इस महाराज के वंशावतार का वर्णन:-क्षेमपुर में पूर्व में कई राजा हुए। उनमें एक भैरव-भूपति था। यह जिन धर्म रूपी समुद्र के लिये चन्द्रमा था। उसके छोटे भाई भैरव, अम्ब-क्षितीश तथा साल्व-मल्ल थे। इनमेंसे साल्वमल्ल यद्यपि सबसे छोटा था, तथापि सबसे महान् या । उसको सोम-वंश तथा काश्यप-गोत्र का बताते हुए उसकी प्रशंसा की गयी है। उसके बाद, उसकी बहिनका पुत्र देवराय नगर और राज्य का वैसा ही बराबरीका रक्षक रहा। उसकी बहिनका पुत्र साल्व-मल्ल रहा, जिसका छोटा Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ जैन-शिलालेख संग्रह भाई भैरवेन्द्र था । राबा साल्व-मल्लकी प्रशंसा । राजा भैरवकी मेरु-पर्वतसे उपमा देते हुए उसकी प्रशंसा । जिस समय देवराय, इस तरह अनेकोंकी भक्तिके साथ तुळु, कोकण, हैवे तथा दूसरे देशोपर राज्य कर रहा थाः -- उस नगरमें, राजा देवसे रक्षित, महाप्रसिद्ध, राजश्रेष्ठी अम्ब्वण-श्रेष्ठी रहता था। उसकी पत्ना (प्रशंसा सहित ) देवरसि थी। उनकी वंश परम्पराका वर्णन:राजाधिराज, बनवसि-पुरका मुख्य अधीश, कोंकण और हैव राज्यका मुख्य अधीश. चन्दाउर कदम्ब-कुल-तिलक कामिदेव-महाराज थे। उसके दण्डाधिनाथ कामेयटण्णायकका पुत्र रामण-हेगडे और रामक ८ पुत्र उत्पन्न हुए थे, जिनमें सबसे प्रसिद्ध योजण-श्रेष्ठी या, जिसका दो स्त्रिये तङ्गण और रामक थीं। पहिलीके रामण-श्रेष्ठी तथा दूसरीके कल्प-सेट्टि हुआ । इन अपनी प्रिय दो भार्याओं सहित योजण समृद्ध हुआ। इस योजण श्रेष्ठो क्षेमपुरमें अनन्तनाथ चैत्यालय बनवाकर तथा इसके अतिरिक्त और भी अगणित पुण्य प्राप्त करके अपना राज-श्रेष्ठिका पद अपने पुत्रोंको सौंपकर स्वर्गलोकको चला गया। दूसरी तरफ, रामण-सेटिका पुत्र तम्मन था, जिसका पुत्र नागप हुआ। उसके दो पत्नियाँ थीं, सातम और नागम । सातमसे हटिगमें तोटियण्ण-सेट्टि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। इसके बाद नागमका अवतार ( उत्पत्ति ) कैसे हुआ, यह बताया है। नागम और नागप्पसेटिसे दो लड़के उत्पन्न हुए थे, अम्ब्वण-अष्टिके मल्लम और देवसि नामकी दो पत्नियां थी। इसके बाद देवरसिकी उत्पत्तिका वर्णन है । जब ये दोनों अम्ब्वण-श्रेष्ठी और देवरसि पूर्ण शान्ति और सुखसे रह रहे थे, एक दिन वे नेमि-निन चैत्यालयमें आये, और नेमि-तीत्र्थेश्वरकी ( उद्धृत ) स्तुतिको दुहराते हुए मुनिगणका सम्मान किया। इसके बाद, अभिनव-समन्तभद्रमुनिसे धर्म सुनकर और इसे हृदयमें धारण कर गुरूको सूचित किया कि वे अपने पितामह योजन-ष्ठिके द्वारा बनवाये गये नेमीश्वर चैत्यालयके सामने मानस्तम्भ बनवायेंगे । इसके बाद घर जाकर, अपने भाई कोरण-सेट्टि और मल्लि-सेट्टि और Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोवर्द्धनगिरिके लेख ५४३ अन्य रिश्तेदारोंसे सम्मति लेकर इन्होंने इस पुण्य-कार्यको करनेका इरादा देवभूपालसे प्रकट किया। और महाराजकी सम्मति, चतुर्विध संघकी सम्मतिपूर्वक, एक शुभ दिन उन्होंने अपना इरादा पूरा किया तथा घण्टेकी धातु ( Bellmetal) का स्तम्भ बनवा दिया। इसी अन्तरालमें, देवरसिके पद्मरसि और देवरसि नामकी युगल पुत्री उत्पन्न हुई। उनकी ही ऊँचाई जितनी ऊँचाईका सुवर्ण-कलश चैत्यालयके सामने उस स्तम्भपर चढ़वाया । इसके बाद मानस्तम्भका वर्णन है। [ EC, VIII, Sagar tl., No. 55 ] ६७५ शत्रुञ्जय-प्राकृत । [सं० १६२० = १५६३ ई.] श्वेताम्वर लेख । ६७६ सिरोहो-संस्कृत। [सं० १६३४ = १५७७ ई.] श्वेताम्बर लेख। { H. H. Wilson, Asiat. Res., XVI, P. 316, No XLIII, a] ६७७ हेग्गेरे,-कन्नड़। [शक १५०० = १९७८ ई.] [हेग्गेरेमें, बस्ति के एक पाषाणपर ] श्री शुभमस्तु स्वस्ति श्री जयाभ्युदय-शालिवाहन-शक-वरुषङ्गळ १५०० मेले प्रमाधि-संवत्सरद माघ सुद १ लू श्रीमन्महामण्डलेश्वर ओपति Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैन-शिलालेख संग्रह राजगळ मग राजय्य-देव-महा-अरसुगळ कुमाररु वल्लभराज-देव-महाअरसुगळु तावु आळुतिद्द मगरनाड होयिसळ-राज्यक्के सलुव बूडिहाळ-सीमे योळगण बस्तिय जिन-देवरिगे कोट्ट भू-दानद हेग्गेरेय वस्तिय मान्यद जीर्णोद्धारद क्रमवेन्तेन्दरे गुचिय हरदर सूरय्यन मग चिन्नवरद गोयिन्द-सेट्टियु हेग्गेरेय बस्तिय देवर-मान्यव पालिसबेकेन्दु बिन्नह माडिकोळलागि आतन बिन्नहव पालिसलू तमगू अनेक-धर्माभिवृद्धियागबेकेन्दु हेग्गेरेय गौडनके रेय केळगण ( दानकी विगत ) अक्षरदल्लू हदिनैदु-कोळग देवदायमान्यद गद्देयनू यी-आरभ्यवागि प्रतिवर्ष प्रति-फलदल्लू नीर-सरदियलि कोटटु बहेऊ एन्दु श्रीपति-राजगळ वल्लभराज-देव-महा-अरसुगळू पालिस्त बस्तिय देवदाय भ-दान जीर्णोद्धारवह शासन ( वे ही अन्तिम वाक्य ) श्री हेग्गेरेय स्थळदलु काडारम्भद होल ख ४ [शुभमस्तु । स्वस्ति । ( उक्तमितिको ), महामण्डलेश्वर श्रीपति राजके पुत्र राजय्य-देव-महा-अरसुके पुत्र वल्लभराज-देव-यह अरसुने अपने द्वारा शासित मगर-नाड्में होय्सल राज्यके बूदिहाळ-सीमे में बस्तिके जिन देवके लिये निम्न शासन, हेगेरे बस्तिके 'मान्य' की पुनः स्थापनाके लिये प्रदान किया; गुत्ति हरदरे-सूर्यके पुत्र चिन्नवर-गोविन्द-सेटिने इस वातका प्रार्थनापत्र देकर कि हेग्गेरे बस्तिके देवकी 'मान्य' चालू होनी चाहिये, इस प्रार्थनापत्रको मान्य करनेके लिये, तथा अपनी समृद्धि के लिये, हम ( उक्त ) भूमियां जो कि कुल मिलाकर धान्यक्षेत्रके १५ कोळग ( एक नाप-विशेष ) होते है. फसलके समय जलका वार्षिक क्रम भी आजसे ही चालू करते हैं। वल्लभरान-देव-महा-अरसके द्वारा प्रदत्त, बस्तिके देवदायका प्रस्थापक भमिके दानका शासन ऐसा है । हेग्गेरे-स्थलम ( उक्त ) शुष्क भूमिका दान भी हुआ।] [ EC, XII, Chik-Nayakan halli tl., No 22.] Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रु के लेख ६७८ शत्रुञ्जय - प्राकृत | [ सं० १६४० = १४८३ ई० ] श्वेताम्बर लेख । ३५ T तारंगा - संस्कृत और गुजराती । [सं० १६४२ = १५८५ ई० ] श्वेताम्बर लेख [J. Kriste, EI, II, no v, No 29 ( P. 33-34 ),t. et. a. ] දිපුං कार कल ; --- संस्कृत तथा कन्नड़ । [ शक सं० १५०८ = १५८६ ० ] श्री वीतरागाय नमः ॥ श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । ीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥१॥ आचन्द्रार्क स्थिरं भूयादायुः श्रीजयसम्पदा । भैरवेन्द्रमहीकान्तः श्रीजिनेन्द्रप्रसादतः ||२|| अविघ्नमस्तु || भद्रमस्तु ॥ तीर्थौत्रः सुखमक्षयं च कुरुताच्छ्रीपार्श्वनाथो बल; कीत्तिं नेमिनिनः सुवीर - बिनपश्वायुः श्रियं दोलिः । कल्याणान्य-मलि-सुवत बिना [ : ] पोम्बुच्च पद्मावती; चाचन्द्रार्कमभीष्टदास्तु सुचिरं श्री -भैरव-दमानतेः ॥३॥ श्रीमद्देोगणे ख्याते पनसोगावलोश्वरः । ललितकीयख्यस्तन्मुनीन्द्रोपदेशतः ॥४॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह श्रीमत्सोमकुलामृताम्बुधिविधुः श्रीजैनदत्तान्वयः श्रीमद्भैरवराज तुङ्गभगिनि श्रीगुम्मटाम्बासुतः । श्रीमद्भोगिसुरेन्द्रचक्रिमहिम श्रीभैरवेन्द्रप्रभुः श्री रत्नत्रय भद्रघामचिन पानिर्माय्य संसिद्धिभाक् ||५|| श्रीमच्छालिशकाब्दके च गलिते नागाभ्रषाणेन्दुभिश्राब्दे सद् व्यय नाम्नि चैत्र-सित-षष्ठयां सौम्यवारे वृषे । लग्ने सन्मृगशीर्ष - भे चिरतरां श्रीभैरवेन्द्रेण ते श्रीरत्नत्रयभदधामजिनपा भान्तु प्रतिष्ठापिताः || ६ || જય जिनाय नमः ॥ स्वस्ति श्री [ ॥ ] शालिवाहन शक वर्ष १५०८ नेय व्यय संवत्सरद चैत्र शुद्ध षष्ठियु बुधवार मृगशीर्ष - नक्षत्रवु वृषभलग्नदल्नु कलियुगाभिनव-भरतेश्वरचक्रवर्ती गुत्ति हम्निन्वरगण्ड [ प ] त्ति- पोम्बुच्च पुरवराधीश्वर मरे - होक्करकाव मारान्तवैरि मम्नेय - राय-मस्तकशूल षड्दर्शन स्थापना चार्य सोमवंशशिखामणि काश्यपगोत्र पवित्रीकरणदक्ष 'पोम्बुच्च-पद्मावतोलब्धवरप्रसाद सम्यक्त्वाद्यनेकगुणगणालंकृत जिन-गन्धोदक- पवित्रीकृतोत्तमाङ्ग अरुवत्तार - मण्डलीकर- गण्ड होम्नमाम्बिका प्रियकुमार-भैररस-वोडेयर-अळियरेनिप श्रीमजिनदत्तराय - वंश-सुत्राम्बुधिपूर्णचन्द्र श्रीमद्वीर- नरसिंह- वङ्गनरेन्द्र श्रीगुम्मटाम्बा कुलदीपक- प्रियसूनु अरिराय-गण्डरडावणि श्रीमदिम्मडि- भैररसवोडेयरु तमगे अभ्युदय - निःश्रेयस- लक्ष्मी-सुख-सम्प्राप्ति-निमित्यागि कारकळद पाण्ड्यन गरियल्लि श्री - गुम्मटेश्वरन संनिधानदल्लि कैलासगिरिसन्निभ चिक्कबेट्टदल्लु ॥ श्रीकान्ताकुल वेश्म किं वरयशः कान्ताप्रमोदागरं भूकान्तारति सजयवधू- क्रीडास्पदं किं पुनः । स्यात्का रोज्ज्वल-सन्नयद्वयमयी श्रीभारतीरङ्गभूः स्वः श्री-मुक्ति-रमा-स्वयम्वरगृहं श्रीजैन गेहं वृषे || ७ | Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकल के लेख (न्तप्प सकलजनानन्दमन्दिरबाद सर्व्वतोभद्र चतुर्मुख रत्नत्रयरूप-त्रिभुवन/क-जिनचैत्यालयवनु रोद्दद-गोव निकलङ्क- मल्ल बन्टरभाव पर नारिसहोदर मुडिदु-भागे तप्पुव-रायर- गण्ड सुवर्णकलशस्थापनाचार्यरादकारण धर्म - साम्राज्य नायकरागि निपुण्यानुबन्धि- पुण्यद प्रेरणेयिन्द तमगु तज्जिनभवन प्रेक्षकराद सकलशीलगुणसम्पन्नराह चतुरसंघक्कू साक्षात्स्वम्र्मोक्षलक्ष्मीस्वयम्वरशालोपमन् आगि निम्नपिसि अनन्तसुखद सम्प्राप्तिनिमित्लागि । आ नाल्कु - दिक्किनल्लू अर मल्लि मुनिसुव्रत-तीर्थकर प्रतिमेगळनू स्थापिसि । आ पश्चिम- दिग्भागदल्लि चतुविंशति- तीर्थकर प्रतिमेगळनू हर्दिनाल्कु वोक्कलु स्थानीकरु नडसुत्र अभिषेकपूजे मृतादवक्कु (1) मीले नडव अङ्गरङ्गवैभवादिकंगळिगू आ भैररस वोडेयरु निज-सन्तोपदि [ द् ] राज्यवनाळुबाग आ त्रिभुवन- तिलक-जिनचैत्यालयदल्लि आ प्रतिष्ठा-समयद पुण्यकालदल्लि तमगे पुण्यार्थवागि मूड मुक्कडपिनहोळे | तेङ्क येम्णेय-होळे । पडुन पोळ्ळकळियद-होळे । बडग बलिमेयहोळे । ई नाल्कु-होळे गळनु मीरेयागुळ्ळ । निदि (धि) निक्षेप | अक्षिणि आगा ૪૭ २५. म्य । जल पाषाण । सिद्ध साध्यंगळेम्ब (1) अष्ठ-भोगंगळिगोळगाद वेळार - ग्रामवणू । अदरोळगे अकि मूडे ७०० नू । रंजाळ - नल्लूर सिद्धादल्लु ग २३८ २६. नू धारापूर्व्यकयागि आचन्द्रार्कस्थायियप्पन्ते देव मा. ड्] - कोट्ट धर्मक्षेत्र ( द ) विवर । आ क्षेत्रद चतुःसीमेयोळगल्ल हरवरि ( री ) मुम्तादनर २७. ल्लि सल्लुव गैणि- सिद्धाय बड्डिय-भट्ट हुरुळिय-अक्कि मोळक्के-कत्तिदअक्कि होम्न-ड्डियक्कि सह सल्लुव अक्कि हाने ५० र लेक्कद मूडे ७०० क्कं नल्लु २८. रु-रञ्जळदल्लि वोक्कलु-तार्क-णेयागि बिट्ट सिद्धाय ग २३८ वरहक्कू सहवाग नव धर्म | पडुवण- बागिलल्लि वोक्कलु २ क्के मूरु- होत्ति Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह २६. न देवपूजगे चरु हाने ६ मीलु चरु हाने ३ अक्षते - अक्कि हाने १ तोये पायस तुप्प कलसुमीलोगर ताळिल मुंताद पंच भक्षक्के अक्कि हाने २ ३०. कडुते २ अन्तु अक्कि हाने १५ कुडुते २ र लोकदल्लि वर्ष । इक्के अक्कि मूडे ११० [] उदयद पञ्चामृतदाभिषेकक्के ग ७ म २ पञ्चखज्जायक्के ग ७३ सिद्ध ३१. चक्रद आराधनगे ग १२ प ( फ ) ल- वस्तुविगे ग१ म २ बैगन हालघारेगे गई म ४ गन्ध-धूपक्के ग म ३ येम्ने हाड १२ क्के ग८४ अष्टाह्निक ३ क्के ग ३ ३२. वर्षाभिषेक इक्के ग ६ अन्तु ग ४७ ॥ @ ॥ बडगण - बागिल वोक्कलु २ क्के मूरु होत्तिन देवपूजगे दिन इक्के चारुविगे अक्कि हाने ( । ) ६ मीलु [ च ] रुविगे ३३. अक्कि हाने ३ अक्षतगे अक्कि हाने १ तोये पायस तुप्प कलसुमी लोगर ताळिल मुन्ताद पञ्चभक्षक्के अधिक छाने २ कुडुते २ अन्तु अक्कि ૧૪ ३४. दिन इक्के हाने १५ कुडुते २ र लेक्कदल्लि बर्ष (1) इक्के मूडे ११० [ । ] उदयद बैगिन हालघारेगे ग १३ म ३ पञ्चखजायक्के ग ७३ प (फ) ल-वस्तु ३५. विगे ग१ म २ गन्धधूपक्के म८ येम्ने हाद १२ क्के ग८ म ४ अष्टाह्नि ३ क् ग ३ वर्षाभिषेकक्के ग ६ अन्तु ग २८ म ७ ॥ ई लेक्कदल्लि मूड - बागल वोक्क आ-तेङ्क - बागिल वोक्कलु ३६. लु २ क्के अक्कि मूडे ११० ग २८ म ७ ॥ २ क्के अक्की (क्कि) मूडे ११० ग[२] ८७ अन्तु बागिलु ४ क्के वक्कलुक्के वर्ष ( 1 ) इक्के अक्कि मूडे ४४० ग १३३ ३७. म १ ॥ @ ॥ पडुव - बागिल येड - बलद गुण्ड २ क्के वोक्कलु इक्के चरुविगे अक्कि हाने ५ र लेक्कदल्लि मूडे ३६ अक्षतगे अक्कि मूडे ४ उभर्थ मूडे ४० हाल Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकलके लेख Ye ३८. घारे ४ क्के ग ३३ म १ फलवस्तुविगे ग १ म २ गन्ध-धूपक्के म ३ येते हाड ५ क् ग ३३ अष्टाह्निक ३ क्के म ५३ वर्षाभिषेकक्के ग १ अन्तु बग १० म १३ [ 1 ] ई लेक्कदल्लि ३६: बडग ( । ) मूड तेङ्कण गुंदङ्गळिगू । आ पडुवण तोत्थंकर ब्रह्म पद्मावति गळिगू सह वोक्कलु ५ क्के अक्कि मूडे २०० ग ५० म ७३ = उभयं वोक्कलु ४०. ६ क्के अक्कि मूडे २४० ग ६० म६ [] ब्रह्म पद्मावतीय ऐचरुविगे अक्कि मूडे ४ = अन्त वोक्कल १४ क्के अक्कि मूढे ६८४ ग १६४ ॥ @ ॥ दोळु-नागसर- कोम्बिनवर जन ४१. ६ का ३६ अडिपिन मूलितियर जन २ क्के अक्कि मूडे १६ बस्तियल्लिह तपस्विगळ् तण्ड ४ क्के शीतानिवारणेय - हच्छड ८ क्कं कैय्यक्किय तुम्बु सूत्र ह ४२. च्छड इक्कं सह हच्छड ६ के ग ५ म २ मण्डेय तोळवरे येम्णेय हाड २ क्के ग २ अड्डुगब्बु सोगेगे सह म ८ अन्तु ग८ = अन्तु अक्कि मूडे ७०० ग २३८ [ ॥ ] ४३. हिरिय-अरमनेय नाल्कु-चउ (वु) कद वोळगण बस्तिय चन्द्रनाथ स्वामिय अमृतपडिगे आरूरक्षण बजकळदल्लि बिळियर ४४. सर गुत्तु बिम्ननिन्द अक्कि मूडे २० बागिलरसर गुत्तु माण्डप [डि ] यिन्द अक्कि मूडे १० उभयं मूडे ३० नल्लूर ४५. त्रिविकरुपाण्डिय बाळिनल्लि ग ७३ बत्तिकोटिय-बाळिनल्लि ग ३ पं (जा) - ळदल्लि कम्बुवत्राळिनल्लि ग ७३ अन्तु ग १८ । गोवर्धनगिरियबस्तिय १. यह यहाँ और आगे भो जहाँ कहीं आये, विराम का चिह्न समझना चाहिये । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैन-शिलालेख संग्रह ४६. पारवनाथ(य)स्वामिय अमृतपडिगे मल्लिलद-कम्बुळदल्लि अक्किय मूडे ३० आ मीलण दडि-मरुगळल्लि मूडे ४ [नल्लूर नं० [बि ] बेटि नारणनल्लि ४७. अ [ कि ] मूडे ६ अं [तु ] मू [डे ] ४० [2] लवसेय सेटि-बेटिन हित्तिल [फ] लदल्लि [ग] ८ म २३ [॥] [इ ] दु पञ्च-संसार कालोरग-दष्ट-गाढ़-मूञ्छित-नाना-संसारि-जीव-प्रबोधनक४८. र-पञ्च-महा-कल्याण-[बी] जोपम [ बाद ] जिनमन्त्र-पूतात्मन । श्री वीतराग। येम्ब पञ्चाक्षरियनु पञ्चविशति-मल-विदूर-परम-सम्यग्दृष्टिगळाद कारण आ भैरर४६. स-वोडेयरे स्व-हस्तदिंद वो [प्प कोट्टु ] ददक्के इन्द्रवज्रा-[ वृत्त ] दिन्द [ चतुर्विंशत्य ] - क्षर-लिखित-पञ्चाक्षररूप-सर्वतोभद्र-चित्र-प्रबन्धदि [द ] रचिसिद चि [त् ] र५०. श्लोक ॥ श्री-वीत-वीरागत-वीग-वीतं श्री-राग-वीतं गतराग रागम् । . श्रीगं ततं रागतरांगरा [ङ्गं]| ___ श्री वीतराग तत-वी [ र]-गं तम् ॥ @ ॥८॥ [ मंगलाचरणके बाद इस लेखमें (श्लो० २ और ३ ) तीर्थंकरों, दो बलि (बाहुबलि ) और पोम्बुच्चकी पद्मावती देवीके आशीर्वादका दाता भैरव या भैरवेन्द्र, जिनको भैररस-वोडेय तथा इम्मडि भैररस वोडेय कर्णाटक गद्यमें कहा गया है, के लिये आह्वान किया गया है। इस सरदारको हम एकदम भैरव-द्वितीय कह सकते हैं। इन्हीं के मामाको इसी लेखमें ( श्लो. ५) भैरव प्रथम कह सकते हैं, जिनका नाम भैरवराज दिया है। आगे लेखसे पता चलता है कि ललितकीर्ति मुनीन्द्र, जो पनसोगे शाखा (गच्छ ) देशीगणके थे, उनके उपदेशसे भैरव द्वि० ने 'रत्नत्रय' (श्लो० ५ तथा ७ वे श्लोक के बादके कन्नड़गद्यमें ) मन्दिर, जिससे स्पष्टतः चतुर्मुख बस्तो का मतलब है, बनवाया था । श्लोक ६ तथा इसके बादके कन्नड़ गद्यमें Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिदरूरुके लेख मन्दिरकी नींव रखने और प्रतिष्ठाका दिन दिया है। वह दिन शालि - ( या शालिवाहन) शक वर्य १५०८, व्यय- संवत्सर, चैत्र शुक्ला षष्ठी, बुधवार था, उस समय नक्षत्र मृगशीर्ष या मृगशिरा तथा लग्न वृष या वृषभ था | श्लोक ६ के बाद के तथा ७ के बादके कन्नड़ गद्य में भैरव द्वि० की बिरुदावलि दी हुई है तथा मन्दिरका नाम त्रिभुवनतिलक - जिन चैत्यालय (७ वें श्लोक के बाद के गद्यमें ) दिया है, जिसको 'सर्व्वतोभद्र' और 'चतुर्मुख' कहा गया है । यह कार कल्लमें पाण्ड्यनगरी में श्रीगुम्मटेश्वरके सन्निधानवर्ती चिक्कबेट्ट टीलेपर बनाया गया था । पाण्ड्यनगरी, वर्तमान हिरियतडिकी तरह, एक दूसरी कारकलको पार्श्ववर्ती उपनगरी थी जिसमें स्वयं चिक्कबेट्ट टीला, जिसपर चतुर्मुख बस्ती बनी हुई है, स्तम्भीय गोम्मटेश्वरकी मूर्ति और इन दोनोंके बीच में से जाने वाली वह सकड़ी गली है जिसमें कुछ जैन गृहस्थोंके गृह तथा मठ अवस्थित हैं। ख्यातनामा गुम्मटेश्वरकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करानेवाले पाण्ड्यराय या वीरपाण्ड्य के नामसे यह नगरी प्रसिद्ध थी। आगे बताया गया है कि भैरव द्वि० ने मन्दिरके चारों ओर मुख्य दरवाजोंकी तरफ अर, मल्लि और मुनिसुव्रत इन तीन तीर्थङ्ककी मूर्तियोंको विराजमान करवाया, तथा इन्हींके साथ बीचमें २४ चौबीसों तीर्थङ्करों की मूर्तियोंकी यक्ष-यक्षिणी के साथ स्थापना की । आगे पंक्ति २२ से ४२ में तेळार ग्रामके दानका उल्लेख है, जिससे लगान के रूपमें ७०० 'मूडे' धान्य ( चावल ) की प्राप्ति थी । इसके अतिरिक्तरंजाळ और तल्लूर ग्रामों के 'सिद्धाय' ( अर्थात् चालू लगान ) में से २३८ 'गद्याण' ( या 'वह', पं० २८ ) भी मिलते थे । इस आमदनीसे मन्दिरकी पूजाका प्रबन्ध होता । नि पूजन करनेवाले १४ स्थानिकों ( पुजारियों ) के कुटुम्ब इसी काम के लिये नियत थे । प्रत्येक दरवाजेकी वेदी पर कितना खर्च होता था, यह सिलसिलेवार इस शिलालेख में दिया हुआ है। उससे पता चलता है कि सबसे अधिक खर्च पश्चिम दरवाजेकी वेदी पर होता था, क्योंकि वही मुख्य गिनी जाती थी। दूसरा इस दरवाजेकी प्रधानताका प्रमाण यह है कि उसी दरवाजेकी वेदी पर २४ तीर्थङ्कर विराजमान हैं। इस प्रधानताकी वजह ही ५५१ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ जैन-शिलालेख-संग्रह से उस पर ज्यादा खर्च होना भी स्वाभाविक था। माली और गायकों के (गन्धोंके लिये भी खर्च इसी आमदनीसे बँधा हुआ था। मन्दिरमें बसनेवाले ब्रह्मचारी इत्यादिको वर्ष भरमें ८ कम्बल शीतनिवारणके लिये मिलते थे और एक कम्बल दैनिक भात-भिक्षाके संग्रहके लिये । उन्हें आवश्यक चीजे, जैसे, तेल, साबुन- ईन्धन भी मन्दिरसे ही मिलता था। पंक्ति ४३-४७में दो और दानोंका उल्लेख है जो कि उसी भैरव द्वि. के ही किये गये मालूम देते हैं । (१) पहला दान 'हिरियअरमने' ( अर्थात् बड़ा महल ) के प्रांगणमें स्थित 'बस्ति' के चन्द्रनाथ के नित्य पूजनके लिये और (२) गोषधनगिरि के टीले पर स्थित • 'बस्ति' के पार्श्वनाथ के पूजनके लिये । अन्तिम ८ वें श्लोकमें पञ्चाक्षरी 'श्रीवीतराग' पर चित्रबन्ध शब्दालंकार है। इस लेखके परिचयमें श्री एच. कृष्णशास्त्री, बी. ए. ने अन्तिम चार पक्तियां (८ वे श्लोकके बाद ) मिटी हुई बताई हैं। ___दाता और भैरव द्वितीय सोमकुल, काश्यपगोत्र तथा जिनदत्त या जिनदत्तरायके वंशका था। वह गुम्मटाम्बा और वीरनरसिंह-वंगनरेन्द्रका पुत्र या। गुम्बटाम्बा भैरव प्रथमकी बहिन थी। भैरव प्र. 'होनमाम्बिका का पुत्र था । भैरव द्वितीयके बिरुद इसी लेखसे जानने चाहिये।] [ EI, VII, No. 101 मद्रासा-काद। काल -[ शक सं० १५१३ (१५६४ ई.] [साउथ कैनराके Sub-Court में ] खर संवत्सरमें, शक सम्वत् १५१३ ( १५६१ ई. ) में एक जैन-मन्दिरकी पूजाके प्रबधके लिए किलिग भूपाल नामके युवराजके द्वारा कनड़ प्रान्तमें भूमिदान । [ ASSI,II, p. Is, No. 91, a.] Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयके लेख ६८२-६८३ शशुञ्जय; - प्राकृत | [ स० १६५० = १५१३ ई० ] ( श्वेताम्बर लेख । ) ६८४ अनहिलवाड - पाटन; - प्राकृत | [ सं० १६५१ - १६५२ = १५४ - १३ ई० ] श्वेताम्बर लेख 1 G. Bubler, EI, I, No. XXXVII, (p. 319-324), t. et. a. ] ६८५ शत्रुञ्जय; - प्राकृत [ सं० १६५२ = १५६५ ई० ] श्वेताम्बर लेख । ६८६ अनहिलवाड-पाटन संस्कृत [सं० १६५९ = १५१५ ई० ] श्वेताम्बर लेख | ५५३ [J. Burgess and H. Consens, Art. of Northern Gujarat ( ASI. XXXII ) p. 44-45, tr. ] Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ जैन - शिलालेख संग्रह ६८७ सिरोही ; - संस्कृत | [ सं० १६५३ = १२६६ ई० ] श्वेताम्बर लेख । [ H. H. Wilson, Asiat. Res., XVI, p. 316, No. XLIII, a.) ६८८ कोप्प - संस्कृत तथा कन्नड़ । [ शक १५२१= १५६३ ई० ] [ कोप्प ( कोप्प परगना में ) पश्चिमकी तरफ खाली पड़ो हुई जमीनमें एक पाषाणपर ] श्री - वीतरागाय नमः । श्रीमत्परम-गंभीर-स्याद्वादामोघ लाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं निन - शासनम् || नमस्तुङ्ग इत्यादि ॥ स्वस्ति श्री जयाभ्युदय - शालिवाहन शक वरुष १५२१ सन्द वर्तमानविलम्बि - संवत्सरद चैत्र ब ७ चन्द्रवारदलु श्रीमतु दिल- बळिय मयिल-नायकर मदवळगे तळार वळिय दुग्गमन मग पांड्य-नायक अवर तम्म देरेनायकरु को पदल्लि पलित-साधन चैत्यालयवनु कट्टिसि प्रतिष्ठेय माडिसि अमृतपडिगे बिट्ट स्वास्ति-विवर ( यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा है ) भयिररस-वोडेयारु पारिश्वनाथ देवरिगे आ कोप्प आयदलि धारेनेरद क्षेत्रभूमिय बिबर ( यहाँ विशेष चर्चा आती है ) लिंगवन्तनादव अळुदिदरे श्रीपर्वतदलि लिङ्ग नङ्ग पापके होह विभूति - रुद्राक्षिगे होरगु नामधारि ... Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुप्पके लेख आगि आदव ई-धर्मके अळुपिंदरे तिरुपति-श्रीरज-विष्ण-कञ्चिलि स्वामि-सेवे अळिद पापके होहरु इष्टर बळिक अपिदरे एळनेनरकक्के इळिवरु इदु तप्पदु ( शेषमें साक्षियोंके नाम हैं ) पाण्ड्यप्प-चोडेरु कोप्पद-बस्तिगे धारेनेरडु मुदुकदानीलु गद्दे भूमि २ क्के गडि ख १. उलिगददेन्दु नरसोपुरद महाजनङ्गळ कय्य कयक्के कोण्ड कागलु-गोडलु कले ख १८ कारु १२ उभ ख ३० ... ४० भट्ट पारिश्वनाथ-देवर वोळ-भागस्तरादवरिंगे ... ... ( हमेशाके अन्तिम श्लोक) [(उक्त मितिको) करिदलके मयिल-नायककी पत्नी तळार-दुग्गम्मके पुत्र पाण्ड्य-नायक और उसके छोटे भाई देरे-नायकने कोप्पमें साधन-चैत्यालय बनवाकर और उसमें प्रतिमा विराजमान करके, पूजनके लिये निम्नलिखित सम्पत्ति दान में दी । ( बो जमीन दी उसकी यहाँ विस्तृत चर्चा है )। और भयिररस-वोडेयरने पारिश्वनाथ-देवके लिए कोप्पको लगानमेंसे निम्नलिखित जमीन दानमें दी । ( जहाँ जमीनकी कीमत दी हुई है )। लिंगवन्त और नामधारियोंके विरुद्ध भिन्न शाप । साक्षी। पाण्ड्यप्प-वोडेरने मुदकदानिमें कोप्पकी बस्तिके लिये ( उक्त ) और भी दान दिया तथा नरसीपुरके ब्राह्मणोसे खरीदकर कुछ और जमीन भी दान में दी।] [ EC, VII, koppa ti. No 50 ] ६८६ वेणर:-संस्कृत तथा काद। [ शक सं० १९२५ - १६०४ ई.] [गोमटेश-मूर्तिस्तम्भके ठीक दाहिनी तरफ ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शास [२] जिनशासनम् ॥ [१] Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ जैन-शिलालेख-संग्रह शकवर्षेष्वतीते[षु विषयाधिशदुषु । व [तमा] ने शोभकृति वत्सरे फाल्गुना [ख्यके ॥ ] [२] मासेऽथ शुक्लपक्षेद्धदशम्यां गु [रुपु ] प्यके । सुलग्ने मिथुने देशी [ गणांब ] र दिनेशितुः [1] [३|| ] बेळगुळाख्यपुरीपट्टक्षी [ २ ] iबुधिनिशापतेः । चारुकी]ि मु [ ने ] दिव्यवाक्यादेनूरपत्तने ॥ [ ४॥] श्री रायकुवरस्याथ जामाता त [ सहो ] दरी-। पाण्ड्यकाख्यमहादेव्याः [ सु] पुत्रः पांड्यभूपतेः ॥ [1] अ [नु ] न [स्ति मरा [जा]ख्यश्चामुंडान्वय भूष]कः । अस्था [प] यत्प्रति [ष्टाप्य] भुजबल्याख्यकं जिनं ॥ ६ ॥ शुभमस्तु ॥ [ इस लेखमें बताया गया है कि चामुण्ड ( प्रसिद्ध चामुण्डराज जिन्होंने श्रवण-बेल्गोळामें गोम्मटेशकी मूर्ति स्थापित की है ) के वंशमें होनेवाले विम्म. राजने पनूर (वर्तमान वेणूर ) में भुजबली (बाहुबली ) जिनकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करके स्थापना की। यह तिम्मराज पाण्ड्य नरेशका छोटा भाई, पाण्डयक रानीका पुत्र, तथा रायकुवरका जामाता था। उसने इस मूतिकी स्थापना बेल्गुळ (वर्तमान श्रवण-बेल्गोला ) के भट्टारक, बो देशोगणके थे, को आज्ञासे की थी। मूर्तिको स्थापना दिवप्त शक वर्ष शोमकद १५२५ के व्यतीत हो बानेपर फाल्गुन शुक्ला १०, पुष्यनक्षत्र, मिथुन लग्न था। [ EC, VII, No 14, F.] Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लेख ६९० वेणूर;-- कन्नड़ । [ शक सं० १५२६ = १६०४ ई० ] [ गोम्मटेश-मूर्तिस्वम्भके ठीक बायें तरफ ] १. श्री शकव [र्ष ] मंगणि [ से स] सिरदिं मिं२. गुदु लेकमु [ ल ] शतदिष्पता [२] नेय ३. शोभकृदन्दद फाल्गुनाख्यमासाथि ४. [ ] शुक्लपक्ष दशमी गुरुपुष्यद यु ५. [ग्म ] ल [ग्न ] दोळ् देशिगणा [ ग्र ] गण्यगुरु६. पंडित [व] न दिव्यवाक्य [ हिं ] ॥ [ १ ] राय ५५७ ७. कुमार [ नो ] पुर्वाळयं मयि पांड्य ८. कदेवि [य पुत्रनत्र ] सोमायतनं ६. श धु ] नुरुसाहसि पांड्यट१०. पानुबनुद्धदानराधेयनुदा - ११. र [ पुंजळि ] के पट्टवनाळ्व नृपाणि १२. तिमभूभुजं श्रीयुतनं प्रति [ ष्ठ ] १३. [स] [न] दिनिना [[म] न [नं [ज] न गुं [म] टेशनं ॥ [२ ॥ ] [ पहले शिलालेखकी तरह, इस लेखमें भी बताया गया है कि मूर्तिकी स्थापना तिम्मने की थी । इस लेख में पूर्व सम्बन्धोंके साथ-साथ तिम्मको सोमवंशका धुरीण तथा पुंजळिकेका शासक बताया गया है। समय इस लेखमें १५२६ ( शब्दों में ) शक वर्ष है, जबकि पूर्व लेख १५२५ अतीत वर्षका है । 'गुम्मटेश' बाहुबलीका ही नामान्तर है । ] 1 [ EI, VII. No 14. F. J Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ जैन - शिलालेख - संग्रह ६९१ मेलिगे, संस्कृत तथा कन्नड़ । [ शक १५३० १६०८ ई० ] [ मेलिगेमें, रङ्ग-मण्डपके दक्षिण-पश्चिम की ओर आदिनाथ बस्तिमें एक पाषाणपर ] श्रीमदनन्तनाथाय नमः श्रीमत्परमगंभीरस्याद्व।दामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् ॥ श्रीमद्गीर्वाण चक्रे फणिपति-मकुटोद्भासि माणिक्यमाला - । रोचिः - प्रक्षाळित श्री चरण- सरसिज - द्वन्द्व - बाभास्यमानः । मानस्तम्भाम्बुजाताकर-कलित - लसत् - खातिकाद्युद्ध-शोभोऽ सौ स्वान्त् सन्तोषयन् श्री- समवसृति-पति त्यनन्तो जिनेशः ॥ स्वस्ति श्री जयाभ्युदय - शालिवाहन शक- परुष १५३० नेय सौम्यसंवत्सरद मात्र शुद्ध १० आदिवारदलु || वृ ॥ निद्राभूत-महीश - वारिज-ततेः कुर्व्वन् विकास-श्रियम् सन्मार्गाम्बर- भासमान विसरत् तेना |नधिस्सर्वदा | वीर-दमापति-भूरि- कैरव - कुलं सङ्कोचयन् सन्ततम् श्रीमद्- वेङ्कट- देव राय - तरणिस्तीव समुज्जृम्भते || इत्याद्यनेक-बिरुदावळि विराजमानराद श्रीमद्- राजाधिराज राज- परमेश्वर श्रीवीरप्रताप श्रीमद्- वेङ्कटपति - देव - महाराय पेनगोण्डे सिंहासनारूढ़ रागि प्रतिपालिसुत्तिर्द्धं समस्त-राज्यङ्गळोळायतिश यमनुळवन्य- देशदोळु ॥ अन्तेसेववन्य- देशदोळ् । अन्तातीत प्रकार -शोभा-रुचियम् । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेलिगेके लेख ५५६ तां तळेदारगमेम्ब पु-। रं तोपुदु भुवनगिरिय मूडण-देसेयोळ् ।। आवोळलमाळवननेक चातुरी-धुरन्धरनाद बेहटादि-महीपाल नातन गुणकथनमेन्तेने ॥ श्री-रामा-रमणं विवेक-शरणं साहित्य-रत्नाकरम् । नारी-चित्त-मनोभवं बुध-नुतं सङ्गीत-गङ्गाधरम् । वैरि-बात-मदेभ-पञ्च-वदनं ....... .. ."। .... श्री-पति-वेङ्कटाद्रि-महिपं तानोप्पिदं धात्रियोळ ॥ मत्तमातन कीर्ति-प्रतापमेन्तेने ॥ उरगाधीश-महा-मणि-प्रभेयनिन्द्रोत्कुम्भि-कुम्भस्थळा- । त्कर-सिन्दूरमनीश-भाळ-नयनाग्नि-ज्वाळेयं तार-भू-। धर-गौरेयक-शृङ्गम सुरनदी-रक्ताम्बुमं गेल्दुदु । वरेयोळ सन्नुत-वेङ्करन्द्रन यशस्तेजः प्रभा-मण्डलम् ॥ इन्तनेक-गुण-सम्पत्-समृद्धराद वेङ्कटादि-नायकय्यनवरु कुळकाळाञ्चियागि नडसि कोण्डु बह बोम्मण्ण-हेग्गडेयातनेन्तपनेने कलित-गुण-निधि ..... । "शुरनुदधि-सम-गम्भोरम् । विळसद्-खोम्मण-हेग्गडे । पिळेयोळ् मुत्तरनाळदनुत्तमनेसेदम् ॥ आतनाळव सीमेयोळगण निडुवल-नाडिगे सलुव कोदूरपालोळगे मेळिगेयेम्ब .. .. तिर ........ राज-श्रीष्ठियातन गुण-कथनमेन्तेने ॥ शच्या सह सुराधीशो यथा भाति तथानिशम् । वर्द्धमान वणिग-मुख्यो नेमाम्बा-प्राण-कान्तया ॥ तत्सुतो बोम्मण-श्रेष्ठो निर्माप्य जिन-मन्दिरम् । तत्रानन्त-निनाधीशं संस्थाप्य ख्यातिमाप्तवान् ॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिल | लेख संग्रह मत्तमा- भव्योत्तमन परम - गुरुविन प्रभावमेन्तेने | श्रीमज्जैन-मता ब्धिवर्द्धन-सुधासूतिर्महीपालक- । व्रात- स्तुत्य-पदाम्बुकात - युगलो भव्यान्ज - भानूपमः । दुर-स्मर-ग-पर्व्वत पविर्माना का (क) ला कोविदो । विद्यानन्द - मुनीश्वरो विजयते वादीभ - पञ्चाननः || तच्छिष्य-परम्परायात बलात्कार - गणाग्रगण्य श्रीमद्-राय-राजगुरु वसुन्धराचार्य्यव महा-वाद-वादीश्वर राय - वादि पित मह सकल - विद्या माद्यनेकान्वर्थविरुदावळि - विराजमान श्रीमद्-देवेन्द्रकीर्त्ति भट्टारक-पदाम्भोज-दिवाकरायमान श्रीमदभिनव - विशालकीर्त्ति भट्टारक-देव-पद-पयोन - मत्त - मधुकरायमान प्रवीणबोम्मण श्रेष्ठीय तनूजातनेन्तिर्द्दपनेने ॥ तस्यात्मातो विख्यातस्सुकृती धामिकाग्रणीः । बोम्मणाख्यो वणिग्-मुख्योऽपालयत् तजिनालयम् ॥ नेमावा नाम तत्पत्नी व्रत- शील-विभूषिता । तयोः पञ्च सुता जातास्मराकारा गुणोज्वळाः || ५६० ....................... • आ - कुमारकरय्वरेन्तिदरेने । श्रीमजिन- पादाम्भोज - युगल - भ्रमरोपमः । भाति श्री बोम्मण श्रेष्ठी सत्य - शौच-गुणान्वितः ॥ यस्यानन्त - जिनेश्वरो निज - कुल-स्वामी त्रिलोकी - पतिर् विद्यानन्द - मुनीश्वरो निज- गुरुवदीम- कण्ठीरवः । ..त्तं परमं बिनेन्द्र-गदितं येनोरु तत्त्वं महान् सोऽयं भाति महीतले पदुमण श्रेष्ठी गुणानां निधिः ॥ श्रीमान् कुवलयाह्लादी कलानामाश्रयो महान् । सद्भिः परिवृतो भाति चन्दन-श्रेष्ठि- चन्द्रमाः ॥ सर्व्व-श्रेष्ठिषु रत्नत्वाद् दान-पूजादि सद्-विधौ । राजते माणिक श्रेष्ठी नाम्नान्वर्थेन पुण्य-भाक् ॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेलिगेके लेख ५६१ श्री जिनोदित सद्धर्म-कार्याणामादिमत्त्वतः । आदण्णाख्यो वणिग भाति नामान्वयें दधत् सुधीः ।। इन्तेसेव सकल-गुण-समन्वितराद मेळिगेय बोम्मण-सेट्टियर मक्कळ बोन्मणसेट्टियर (औरोंके नाम दिये हैं ) नाऊ तम्मोळेकस्तरागि नम्म अज बोम्मिसेट्टियर कट्रिसिद बस्तियनु सिलामयवागि कट्रिसि ॥ श्री-विश्वावसु-वत्सरे शुभतरे ज्येष्ठे च मासे सिते पक्षे सद्-दशमी-तिथौ सु-रुचिरे शुक्रे च वारे बरे । ऋक्षे चोत्तर-नाम्नि केसरि-महा-लग्ने प्रतिष्ठापितः पद्म-श्रेष्ठि-वरेण शास्त्र-विधिनानन्ताख्य-तीर्थेश्वरः ।। आ-श्रीमदनन्तनाथ स्वामिय नित्य-नैमित्तिक-पूजेगे । अमृतपडि । नन्दादीप्ति । अङ्ग-रङ्ग-वैभव-मुन्ताद समस्त-विनियोग-धर्म नडवदक्के बिट्ट भू-दान शासनद क्रम वेन्तेन्दरे ( यहाँ टानकी विस्तृत चर्चा तथा वे ही अन्तिम श्लोक आते हैं। मेलिगे बोम्मण-सेटर मकळ बोम्मण-सेटर पदुमण-सेटरु सि ( शि) लामयवागि कट्टि सद श्रीमदनन्तनाथ-स्वामि-चैत्यालयल्लि नडव धर्मद विनियोगक्के कोट्ट सर्वमान्यद स्वास्तेगे बरद शिला-शासन मुत्तूर हेगडेर वोप्पित बोम्मण्णमल्लण्ण वोप्य । [अनन्तनाथके लिये नमस्कार । जिन शासनकी प्रशंसा । अनन्त जिनेशकी स्तुति ।। ( उक्त मितिको ), बेङ्कट-देव रायको सूर्यकी उपमा। निस समय बेङ्कटपतिदेव-महाराय पेनुगोण्डेकी राजगद्दीपर बैठे थे, उनके सारे राज्यमें अवन्य-देश प्रसिद्ध था। उस देशमें, भुवनगिरिके पूर्वमें, आरग शहर था। उस नगरका शासक बेङ्कटाद्रि-महीपाल था। उसके गुणों का वर्णन | वेङ्कटाद्रि-नायकय्यका आश्रित बोम्मण-हेम्गडे या । उसकी प्रशंसा। वह मुत्तूरका शासक था। इसके एक स्थान मेळिगेमें, जो निडुवळ-नाडके कोडूरपाळमें था, राज-श्रेष्ठी वर्द्धमान था। उसकी प्रशंसा । उसकी पत्नी नेमाम्बा थी। उसके पुत्र बोम्मण-श्रेष्ठीने एक बिनमन्दिर बनवाकर उसमें अनन्त जिनकी प्रतिष्ठा Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ जैन-शिलालेख-संग्रह की। उसके गुरू विशालकीर्ति भट्टारक थे। ये विद्यानन्द-मुनीश्वरके शिष्य, बलाकारगणके प्रधान, राय-राजगुरु देवेन्द्रकीर्ति-भट्टारकके शिष्य थे। बोम्मण-श्रेष्ठीके पुत्र बोम्मणने मन्दिरकी रक्षा की थी। उसके पांच पुत्र थे।] [ EC, VIII, Tirthahalli tl., No. 168] ६६२-६६६ शत्रुजय-प्राकृत । [सं० १९७५ से सं० १६८३ = १६१६ ई० से १६२६ ई. तक ] श्वेताम्बर लेख । गिरनार-संस्कृत। [सं० १६८३१६२६ ई.] स्वेताम्बर लेख। [ ASI, XVI, p. 360, No. 31, t. & tr. ] ७०१ शत्रुजय;-प्राकृत। [सं० । [६]८४ = १६२.ई.] श्वेताम्बर लेख। ७०२ शत्रुजया-संस्कृत। [संवत् १६८६ व्या शक सं० १५५१] (बड़े आदीश्वर मन्दिरके उत्तर-पूर्वके छोटे आँगनमें, दिगम्बर जैन मन्दिरका यह शिखालेख है।) Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुसबके लेख ५. १. संवत् १६८६ वर्षे वैशाख सुदि ५ बुधे शके १५५१ प्रवर्त्तमाने भी ___ मूबसले सरस्वतीगच्छे २. बलात्का) रगणे श्री कुंडकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्री सकलाकोति देवास्तपट्टे म० भी भुवनकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ० भी तानभूषणदेवा३. स्तत्प? भ० श्री विजयकोचिंदेवास्तपट्टे भ० श्री शुभचन्द्रदेवात्तपट्टे भ० श्री सुमतिकोचिंदेवास्तत्पटे भ० श्री गुणकोचिदेवास्तत्पटटे भ० श्री वादिभूषणदेवास्तत्पटे भ० श्री रामकोतिदेवास्तपट्टे भ० श्री पानन्दिगुरूपदेशात् पातसाहाश्रीशाहा४. ज्याहां विजयराज्ये श्री गुर्जर देशे श्री ब्रह्मदावादवास्तव्यहुँबड़-शातीयवृहछा खीयवाग्वरदेशस्थांतरीयनगरनौतनभद्रप्रासादोद्धरणधार बाडा सं० भोजा भा० सं० लकु सु० संवस्ता भा० सं० लटकण भा० सं० ललतादे तयोः ५. सुत निजकुलकमलविकाशनैकसूर्यावतारः दानगुणेन नृपतिश्रेयांससमः श्री जिनबिबप्रति६. ष्ठातीर्थयात्रादिधर्मकर्मकरणोत्सुकचित्तसंघपति श्रीरत्नसी भा० सं० रूपादे द्वितीय भा० सं० मोहणदे तृतीय भा० सं० नं [2] रंगदे द्वितीयसुत संघवी श्रीरामजी भा० सं० केशरदे तयोः सुत संघवो ७. डुगरसो भार्या सं० डाडमदे द्वितीयसुत संघवो [रायव] जी भा० सं० गमतादे [एते सर्वे ] महासिद्धयोत्र श्री श [बुजयनाम्नि ] गिरी श्री जिनप्रासादे श्री शान्तिनाथबिंब कारयित्वा नित्यं प्रणमति । शुभं भवतु [1] [ भावार्थ-यह अभिलेख अहमदाबाद निवासी हुँबड ( हूभड़) बातिके किन्हीं सद्गृहस्थोंने, जिनके नाम इस अभिलेखमें दिये हुए हैं, खुदवाया है । इसमें उनके द्वारा इस शत्रुक्षय पर्वतपर श्री शान्तिनाथकी प्रतिमाके स्थापनकी खास बात है । यह बिंब प्रतिष्ठा संवत् १६८६, वैशाख सुदि ५, बुधवार, तथा शक सं० १५५१ के समय हुई थी। आम्नाय तथा भट्टारकोंकी परम्परा इस तरह चालु थी: Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ जैन - शिलालेख संग्रह मूलसंघ सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्द अन्वय, इसके बाद भट्टारको की परम्पराका क्रम सकलकीर्त्ति, भुवनकीर्त्ति, ज्ञानभूषण, विजयकीर्त्ति, शुभचन्द्र, सुमतिकीत्तिं, गुणकीत्तिं, वादिभूषण, रामकीत्तिं, और पद्मनन्दि । इस समय बाद - शाह श्री शाहाज्याहां (शाहजहाँ ) का राज्य प्रवर्तमान था । ] [ EI, II, p. 72. ] ७०३ शत्रुञ्जय; - प्राकृत-ध्वस्त । [ सं० १६८६ = १६२६ ई० ] श्वेताम्बर लेख । ७०४ नखोर ( Bihar Miridional ); – संस्कृत । [ सं० १६८६ = १६२ ई० ] श्वेताम्बर लेख । • [ H. T. Colebrook, Miscell, Essays, Vol. II ( 1837 ), p. 318-319, t et, tr; pl. VII, f.−4. ] ७०५ मलेयूर;— कन्नड़-भग्न | [ बिना काल-निर्देशका; लगभग १६३० ई० ( लू० राइस ). ] [ उसी पर्वतपर, पार्श्वनाथ वस्तिके प्राङ्गणमें पूर्वकी ओर एक पाषाणपर ] जीर्णोद्धारवनु माडि जिन-मुनिगर प्रतिनि अप्प तोरणस्तम्भदलि राय-करणिक देवरखरु तम्म पितृगळु चन्दप्पगू मायि• • "निलसि दीप-स्तम्भ तोरण मासि Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयूरके लेख ५६५ [ तोरणके स्तम्भोंको सुधरवाकर और उनपर बिन-मुनियोंके प्रतिबिम्बों की स्थापनाकर राय - करणिक देवरसने, अपने पिता चण्डप्प तथा के नाम पर, एक दीप-स्तम्भ बनवाया । ] ... ... [ EC, IV, Chamrajnagar tl, No. 156] ७०६-७०८ सरोत्रा; - संस्कृत और गुजराती । p [ सं० १६८३ = १६३२ ई० ] श्वेताम्बर लेख । [ J. Kriste, EI, II, No. V, Nos. 20-28 ( p. 31-33 ), t. et. &. ] ७०९ श्रवणबेलगोला - कन्नड़ । [ शक १५५६ = १६३४ ई० ] [ जै० शि० सं०, प्र० भा० ] ७१० इलेबीड; - संस्कृत और कन्नद । [ शक १५६० = १६३८ ई० ] [ पार्श्वनाथ बस्तिके आँगन में पाषाणपर ] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । नीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह नमन इत्यादि । पायादाया[स] खेद-लुमित-फणि-फणा-रत्न-निर्मान-नियंच- । छाया-माया पतङ्ग-द्युति-मुदित-वियद्-वाहिनी-चक्रवाकम् । अभ्रान्त-भ्रान्त-चूड़ा-तुहिनकर-करानीक-नाळीक-नाळ । च्छेदामोटानुधाव ... रथ-खगं धूर्जटेस्ताण्डवं वः ॥ स्वस्ति श्री जयाभ्युदय-शालिवाहन शक वर्ष १५६० नेगे सलुव ईश्वरसंवत्सरद फाल्गुन शुद्ध ५ यु गुरुवारदल्लु श्रीमद्धेलापुरी चेन वेङ्कटेखर-क्रम-कमल-युगळ ... स्थिर-राज-हंसगद वैष्णव-मतामृत-वाधि-प्रवर्द्धमानपूर्ण सुधासूति-बिम्बायमानराद प्रजा-पालन-मन्त्र-पालन-आत्म-पालन-कुल-पालन समञ्जसत्व-सप्तांग-राज्य-सम्पन्नराद कोट्टभाषेगे तेप्पुव धोरेगळ गण्ड दुष्ट-निग्रह-शिष्टप्रतिपालकराद सामादि-चतुरुपाय-संयुतराद । पञ्चाङ्ग-सन्मन्त्र-गुण-समेतराद । रिपुराय-शरभ-गण्ड-भरुण्डराद बीर-क्षत्र-चूड़ामणि | शरणागत-वज्र-पञ्जरराद । सिन्धुगोविन्द धवळांक-भीम मणिनागपुर-वराधीश्वर । बलिदु सप्तांग-हरण । तुरकदळ-विमाड इत्याद्यनेक-बिरुदावळी-विरानगानराद कृष्णप्प-नायक अय्यनवर कलि-कालाष्टम चक्रवर्ति वेङ्काद्रिनायक-अध्ययनवरु बेलर-राज्यवन्नु धर्मदि प्रतिपालिसुतं यिरलु हळेयबोड बिजय-पार्श्वनाथ खामिय बसदिय कम्भगळिगे हुच्चप्प-देवरु लिंग-मुद्रेय हाकलागि आ-लिङ्गमुद्रेयनु विजयप्पनु तोडेयलागि । सजन-शुद्ध-शिवाचार-सम्पन्नराद । देव-पृथ्वीमहामहत्तिनोळगाद अतिथिगळु । सूर्य्यन तेज चन्द्रन शान्त समुद्रद गम्भीर । नन्दिकेश्वरन प्रतिज्ञे कल्पवृक्षद फल बलिय वीरते रामन सयिरणे लक्ष्मणन हितकार हरिश्चन्द्रन सत्य कोट-भागे तप्पुवर मीसेय कोयिववरूं । नरनन्ते तीर्थ-सिंह ... मठ-मने-देवालय-बीर्णोद्धारक क्षमे-दयेवन्तरं विष्णुविनुपाय, ब्रह्मन चातुर्य हनुमन्तन शक्ति बाम्बवन युक्ति प्रहादन भक्ति नित्य-जप-शिव-पूजा-पञ्चाक्षरीमन्त्रालंकृतराद देव-पृथ्वी-महा-महत्तु यी-स्थळद हलेबीड बसवप्प देवरु पुष्पु. गिरिय पट्टद-देव-मुन्ताद देशा-भागद महा-महत्तुंगळिगे पेसर राज्यद जैन सेटि-गळु मावदईस्परमेश्वर पाद-पद्माराधकराद स्याहाद-मत-गगन-सूर्यराद आहा Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हले बीटके देख राभय-भैषज्य-शास्त्र-दान-विनोदरं । खण्ड-स्फुटित-जीर्ण-जिन चैत्यालयोनारकरूं बिन-गन्धोदक-पवित्रीकृतोत्तमानराद सम्यकलाबनेक-गुण-गणालंकृतराद हासनद देवप्प-सेट्टिय सु-कुमार-पाण्ण-सेहि-मन्ताद-समस्तक बिनहं माडिकोळलागि आ-महा-महत्तु एकस्थरागि वा सिकोण्डु कटुमाडिसिद विवर । विभूति-वीळ्यवन्नु माडिसिकोण्डु यी-विजय-पारवनाथ-स्वामिगे पूजे-पुनस्कार-अङ्ग-रन-वैभवदीपाराधने-अग्रयोदक-प्रभावना-मुख्यवाद जैनागमक्के सलुब धर्मव पूर्व-मर्यादेयल्लि आ-चन्द्रार्क स्थायियागि माडिकोळ्ळि येन्दु बेळूर वेङ्कटादि-नायक-अय्यनवरिगे सकल-साम्राज्याभ्युदयार्थ-निमिस्वामि आ-दोरेय दक्षिण-दोर-दण्डराद प्रधानवंशोद्धारकराद पद-वाक्य-प्रमाण-पारावार-पारङ्गतराद पर-पुरुषार्थ-परम-पण्डितराद । काळप्पय्य-मंत्रि-प्रियाग्र-कुमार मंत्रि-कुलान-गण्यराद कृष्णप्पय्यनवरु यी-धर्म-कार्यवनु कयि-विडिदु पुरो-वृद्धि गे सलिसलागि आ-महा-महत्तु बरसि कोट्ट शील-शासन यी-जैन-धर्मक्के आवनानोर्चनु विघ्नव माडिदरे आतनु तम्म महा-महत्त पडव कूडिदबनल्ल शिवद्रोहि जङ्गम-द्रोहि विभूति-इद्राक्षिगे तप्पिदवनु कासि-रामेश्वरादि तीर्थङ्गल लिङ्गक्के तप्पिदवरु यी-महा-महत्तिन प्पित ॥ वर्द्धताम् जिनशासनम् । [ यह लेख शक सं० १५६० के समयमें जैन और शैवोंके ऐक्यका तथा परधर्मसहिष्णताका एक खासा नमूना है। इसमें मंगलाचरणमें पहले जैनदर्शन की प्रशंसा है, फिर शम्भू ( महादेव ) को नमस्कार किया है । इसमें बताया गया है कि ( उक्त मितिको ) जब कृष्णप्प-नामक-अय्यका पुत्र, कलिकालका अष्टमचक्रवर्ती, वेङ्कटाद्रि-नामक-अय्य वेलर-राज्यकी न्यायसे रक्षा कर रहा था, तब हुच्चप्प-देवने हलेयबीडुके विजय-पार्श्वनाथ-बसदिके खम्भोंपर लिङ्ग-मुद्रा लगायी और विजयप्पने उसको तोड़ दिया, तब हलेबीडके देवपृथ्वी-महामहत्त, पुष्प गिरिके पट्टददेव, तथा देशभागके अन्य महा-महत्तुओंने मिलकर यह आशा निकाली कि जैन लोग चद्र, सूर्यके स्थायी होनेतक अपनी सब धार्मिक विधि कर सकते हैं। [ EC, V, Belur tl., No. 128.] Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ जैन-शिलालेख-संग्रह शत्रुक्षय-प्राकृत । [सं० १९९६=१६ ई.] श्वेताम्बर लेख । भवणबेल्गोला-संस्कृत। [शक १५६५=१६१३ई.] [जै० शि० सं०, प्र. भा०] ७१३ श्रवणबेलगोला;-मराठी। [शक १९७०=१६४८ ई.] [जै. शि० सं०, प्र. भा० । ७१४-७१५ शत्रुञ्जय;-प्राकृत । [सं० १.१० = १६५३ ई.] स्वेताम्बर लेख । सिरोही, संस्कृत। [सं० १७१६=१९६१ ई.] श्वेताम्बर लेख।. [ H. H. Wilson, Asiat. Res., XVI, p. 316, No. XLIII, a.] Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरोही के लेख ७१७ सिरोहो, संस्कृत | [ सं० १७२१ = १६६४ ई० ] श्वेताम्बर लेख | [ H. H. Wilson, Asiat. Res., XVI, p. 316, No. XLIII, &.] ७१८ श्रवणबेलगोला - कच्च । [ वर्ष सौम्य = १६६० १ ( लु. राइस ) ] [ जै० शि० सं०, प्र० भा० ] ७१६ मदनेः - कन्नड़ | [ शक १५१६ = १६७४ ई० ] [ मदने ग्राम में, ग्राम-प्रवेशके पास के एक पाषाणपर ] ५६६ श्री शक-वर्ष १५६५ नेय परिधावि-संवत्सरद पुष्य शुद्ध १० यति श्रीमतु-मैसूर देव-राज-औडेयरु बेळगोळ चारुकीप्तिं पण्डिताचार दान - शालेय जैन - संन्यासिगळिगे नित्य- अन्न-दान के सर्व्वमान्य- यागि धारादत्त - वाग को मणि- ग्रामवु मंगल महा श्री श्री श्री ॥ [ ( उक्त मितिको ) मैसूर के देवराज-वोडेयरने बेळगोळके चारुकीर्त्ति पण्डिताचार्यकी दानशाला के जैन - संन्यासियोंको आहार दान देनेके लिये मदणि गाँव दान में दिया । महान् सौभाग्य । ] [ EC, V, Channarayapatna tl, No. 273. ] Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० जैन-शिलालेख-संग्रह ७२० मलेयूर; संस्कृत वा कथा। [शक सं० १९९६ = १६७४ ई.]| [उसी पहादीपर, बलि-कलुके उत्तर-पूर्वकी नहानपर ] शाके द्रव्य-पदार्थ-भूत-धरणी-संख्या-मिते वत्सरे चानन्दे वर- पुष्य मास-सित-पक्षपञ्चमो सत्तियो॥ लक्ष्मीसेन-मुनीश्वरेण पर-दुर्वादीभ-सिंहेन वै हेमाद्रौ वर-पार्श्वनाथ-जिनपे दीक्षा श्रिता सत्फला ॥ विजयप्पय्य पाद बरसिदनु । [ लक्ष्मीसेन-मुनीश्वरने हेमाद्रि पार्श्वनाथ जिनालयके अन्दर दीक्षा ली । चरणचिह्न विजयप्पैय्यने स्थापित किये थे। ] [ EC, IV, Chamrajnagar tl., No. 149. ] ७२१ सिरोही;-संस्कृत। [सं० १.३६ - १९७६ ई.] श्वेताम्बर खेल। [H. H. Wilson, Asist. Res., XVI, p. 818, No. XLIII, a.] ७२२ प्रवणबेलगोलाकार। [स . १८.ई.] [ सं०, प्र. भा०] Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेळ्ळूरुके लेख ७२३ बेळ्ळूरु-संस्कृत और का। [बिना कालनिर्देशका, पर सम्भवतः लगमग १६८० ई० का ] [बेल्लूरु ( नेल्लीकेरी परगना ) में विमल-तीर्थकरकी बस्तिमें बरण्डाको दोवालपर] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोधलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ श्रीसमन्तभद्रमुनये नमः । श्रीमतु-डिल्ली-कोल्लापुर-जिनकञ्चि-पेमुगुण्डेसिहासनाधीशराद लदमोसेन-भट्रारक प्रतिबोधदिन्द श्री-मैसूर देवराजवोडेयरु धारा-दत्तवागि कोट क्षेत्रदल्लि स्वशिष्यरह हुलिकल्ल पदुमण-सेटर सुतराद दोड्डादण्ण-सेटर पुत्रराद सकरे-सेदृरु अभ्युदय-निश्श्रेयस-निमित्वागि आ-चन्द्राकवागि निर्मापिसिद विमल नाथन चैत्यालयवु श्री [जिनशासनकी प्रशंसा । समन्तभद्र-मुनिको नमस्कार । डि (दि) ल्ली, कोल्लापुर, जिनकञ्चि, और पेनुगोण्डेके सिंहासनाधीश लक्ष्मीसेन-भट्टारकके प्रतिबोधन ( सम्मति ) से मैसूरके देवराज-वोडेयरकी दी हुई जमीनपर हुलिकल पदुमण-सेट्टिके पुत्र दोडादण्ण-सेटिके पुत्र सक्करे सेटि-जो कि लक्ष्मीसेन भट्टारकके शिष्य थे-ने अपने अभ्युदयकी वृद्धि के निमित्त विमलनाथ चैत्यालय बनवाया था और यह कामना की थी कि यह चैत्यालय जबतक सूर्य-चन्द्र हैं तबतक इस पृथ्वीपर रहेगा। [EC, IV, Nagamangala, tl. No. 43 ] - - - Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह ३. भट्टारक श्री जगत्कीर्चिस्तत्प? भट्टारक श्री ललितको४. तिजी तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गोयलगोत्रे प्रयागन५. गरवास्तव्यसाधु श्रीरायजोमलस्तदनुजफेरुम६. लस्तत्पुत्रसाधु श्री मेहरचन्दत्तभ्राता सुमेरचन्द७. स्तदनुजसाधु श्रीमाणिक्यचन्द स्तत्पुत्रसाधु श्री हो८.रालालेन कौशांबीनगरवाह्य प्रभासपर्वतोपरि श्री६. पनप्रमजिनदीक्षाहान कल्याणकक्षेत्रे श्री जिन१०. बिंबप्रतिष्ठा कारिता अंग्रेजबहादुरराज्ये सु [शु ] भ[1] अनुवाद-शुक्रवार, मार्गशीर्ष शुकळा पष्ठी, सं० १८८१ के दिन, काष्ठासंघ, माथुरगच्छ, पुष्करगण, लोहाचर्यके अन्वय ( परम्परा ) में भट्टारक श्री जगत्कीर्ति उनके पट्टपर भट्टारक श्री ललितकीर्तिबी इनकी आम्नायमें अग्रोतक अन्वय (जाति) तथा गोयल गोत्रके प्रयाग नगरके रहनेवाले साधु ( साहु = सेठ ) श्री रायचीमल, उनके अनुज फेरुमल्ल, उनके पुत्र साधु श्री मेहरचंद, उनके भ्राता सुमेरचंद, उनके अनुन साधु श्री माणिकचंद, उनके पुत्र साधु श्री हीरालालने कौशाम्बी नगरके बाहर प्रभास पर्वतके ऊपर श्री पद्मप्रभ ( तीर्थङ्कर ) के दीक्षा कल्याणक क्षेत्रमें श्री जिन ( पार्श्वनाथ) बिंब प्रतिष्ठा कराई। यह काल अंग्रेज लोगोंके शासन का था [ १८२४ ई०] । [ EI, II, NoXIX, No3 (P. 244) ] श्रवणबेलगोला-बद। [शक ४८ = २७ ई.] [जै. शि० सं०, प्र० मा०] Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केलसूरुके लेख ७५८ केलसूरु - संस्कृत | [ काळ लुप्त, (१८२८ ई० १ लू० राइस ) ] [ केलसूरु ( केलसूरु परगना ) में, बस्तिके अन्दर की दीवालपर ] ... श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नमः । श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । यात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ स्वस्ति श्री शकवत्सरे त्रि...... षष्टि-त्रय - संख्ये स्थिते वर्षे सम्प्रति सर्वधारिणि सिते मासे तपस्ये तिथौ । सप्तम्यां गुरुवासरे मृगशिरो में योग आयु कर्णाटक नामदेशविलसन्मयस्थते ... शुभे ॥ श्रीमान् यो महिसूरुनामनगरे सद्रत्नसिंहासनासीन : पार्थिव चामराज-तनुभूरात्रेय गोत्रोदितः । कुर्वन् सन्निह दुष्ट-निग्रहमतशिष्टानुरक्षां च सुप्रेक्षावान् पृथुपुण्यराशिपि सत्पुण्योद्यमादि - क्षमः ॥ नानादेशनृपालमौलिविलसद्रत्नप्रभार्यक्रमांभोनो राज्यविचारणैकचतुरो भास्वान् वदान्याप्रणीः । तेजस्वी बिबुधौत्ररक्षणचण सुज्ञानलीलानिधिर्नानाशास्त्रविचारणी विनयते श्री कृष्णराजो नृपः ॥ तत्पादाश्रित- शान्त पण्डित- सुतश्श्रीवत्स गोत्रोद्भवो राजद्राजयस जः प्रविलसद्विज्ञापना कर्णनात् । दिव्ये हृद्यवधार्य पुण्यपुरुषस्तद्धर्मकृत्यं महान् सोऽसौ केलसुरु - नामनि पुरे चैत्याळयादि-स्थिताम् ॥ ५८१ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ जैन-शिलालेख-संग्रह श्री चन्द्रप्रभ-तीत्थकृद्विजयदेवज्वालनीदेविकाबिम्बानां ... ... पुनर्नवलसच्चित्रान्वितां शोभनाम् । प्राप्ताश्चर्यरसामकारयदपि श्रेष्ठा प्रतिष्ठा पुनः ... ... ... शुभ ... ... नाट-गुरुणा वक्तं यथैवन्मनः॥ श्री मङ्गलं भवतु । वर्द्धतां जिन-शासनम् । [चन्द्रप्रभ-जिनेन्द्रको नमस्कार । जिन-शासनकी प्रशंसा । कर्नाटक देशके महिसूर नामक नगरमें राना चामराजका पुत्र राजा कृष्णराज रत्ननटित सिंहासनपर बैठा । वह दुष्टोका निग्रह और शिष्टोंका पालन करता था। (उसकी प्रशंसा) उसने शान्त-पण्डितके पुत्र श्रीवत्स-गोत्रीय.......बके प्रार्थना-पत्रसे केलसुरके चैत्यालय में फिरसे तीर्थकर चन्द्रप्रभ, विजय-देव तथा ज्वालिनी-देविकाके बिम्बों ( प्रतिमाओं) को स्थापित करवाया। चैत्यालयको भी सुधरवाकर उसको फिरसे चित्रित किया था।] [ EC, IV, Gundlupet tl., No. 18 ] ७५९-७६३ शत्रुञ्जय--प्राकृत। [सं० १८८५ से १८८६ सक= १८२८ से १८२६ वक] श्वेताम्बर लेख। ७६४ नरसीपुर;-संस्कृत तथा कमर। [झक १७११८२६ ई.] [मरसीपुर ( नेम्मनहल्लि परगना ) में, शान्तय्यके खेतमें एक पाषाणपर ] भी दे शुभमस्तु । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरसीपुरके लेख ५८३ श्रीमत्परम-गंभीर-स्याद्वादामोध-लाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ।। स्वस्ति श्री विजयाभ्युदय-शालिवाहन शक-वरुष १७५१ विरोधि सं० कार्तिक-शु ५ भानु ॥ श्रीमद्राबाधिराज महाराज श्री कृष्ण-राज-वाडेयरय्यनवरु मैसूर-नगरदल्लि रत्न-सिंहासनारूढरागि पृथ्वी-साम्राज्यं गेम्वन्दु । दळवायिकेरेगे बन्दु इदु तपिशिकोण्डु अडविगे होद आनेयन्नु अप्पणे-मीरेगे गुण्डिनिन्द होडिशि हरिगे वपिस्त बगे हेग्गडदेवन कोटे अमलुदार शान्तय्यन मग देवचन्द्रयगे गिनामागि अप्पणे कोडिसिद्दु ताळोकु-पैकि सागरद होबळि वळित नरसिंहपुरद ग्रामदल्लि बेदलु कं गु १२-० वरहद भूमिगे चतु-दिक्किगू शोला-प्रतिष्ठे माडिसि कोदु यी-शिलेगे पश्चिम होलपारिगे तुण्डु सहा १ यिदके शेरिद अडु सह कुळ मोगचु कं० गु० १०-६ यी शिलेगे पूर्व इत्ति-होल १ के कुळ मोगचु के गु १-४ उमयं हन्नेरडु-वरहाद बेदलु-भूमिगे यी-कार्तिक-ब १३ सोमवारदल्लु शिला-प्रतिष्ठे माडि यीत यीतन पुत्र-पौत्र-पारम्पर्यवागि निरुपाधिक-सर्वमान्यवागि अप्पणे कोडिसिद शासना। [जिन शासन की प्रशंसा। जिस समय मैसूरकी रत्नजटित गद्दीपर बैठकर राजाधिराज महाराज कृष्णराज वोडेयरय्य इस पृथ्वीपर राज्य कर रहे थे:-एक हाथी दळवायिकेरीमें आया और बङ्गल में भाग गया। हाथीको मारकर राजाके पास लानेका हुक्म हुआ। हेम्गडदेवन्कोटेके अमलदार शान्तय्यके पुत्र देवचन्द ने यह काम सम्पन्न किया, तो उसे इनाम मिलने का हुक्म हुआ; और इनाम में उसे उपयुक्त तालुकेके सागर होबलि ( प्रदेश ) के नरसिंहपुर गाँवमें १२ वराह-जितने मूल्यकी सूखी जमीन दी गयी। इस भूमिको चारों ओर पत्थरोंकी निशानीसे अङ्कित कर दिया गया था। यह भूमि उसके पुत्रों, पौत्रों और सन्तान दरसन्तानके उपभोग के लिये बिना किसी बाधाके, सब करोसे मुक्त रूपमें दी गयी थी।] [ EC, IV, Heggadadevan-Kote tl., No. 61 ) Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ जैन - शिलालेख - संग्रह ७६५ शत्रुअय - प्राकृत । [ सं० १८८० = १८३० ई० ] श्वेताम्बर लेख | ७६६ श्रवणबेलगोला ; - संस्कृत | [सं० १८८८ और शक १७५२ = १८३० ई० ] [ जै० शि० सं०, प्र० भा० ] ७६७-७७७ शत्रुञ्जय - प्राकृत | [सं० १८८८ से सं० १८६३ तक = ई० १८३१ से १८३६ ] श्वेताम्बर लेख । ७७८ संस्कृत तथा कन्नड़ । मलेयूर; [ शक सं० १७६० = १८३८ ई० ] [ उसी पहाड़ीपर, चन्द्र प्रभ प्रतिमाके पश्चिम की ओरकी चट्टानपर ] श्री श १७६० । स्वस्ति श्री वर्द्धमानाब्दः २५०१ विलम्बि सं० वैशाख शु ३ गु । सा । देवचन्द्रनु पितृ - सन्तानमं बरसिद मङ्गलमहा श्री श्री श्री [ वर्द्धमान सं २५०१, शक १७६०, विलम्बि वर्ष में देवचन्द्र ने अपने पूर्वपुरुषों की परम्परा लिखवायी । [ EC, IV, Chamarajnagar tl., No. 154. ] Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सं० १८३७, शक शत्रुञ्जयके लेख ७७६७६२ शत्रुञ्जय - प्राकृत । १७६३ से सं० १३३६, शक १७८१ तक = ई० १८४० से ई० १८२६ तक ] श्वेताम्बर लेख । ७९३ कोथरा - संस्कृत | [सं० १९१८, शक १७८३ = १८६१ ई० ] श्वेताम्बर लेख । [ D. P. Khakhar, Report on remains in Kachh (ASWI, selectoins, No, CLII ), p. 75-76, t.; p. 91a ( ins. No. 1 ). ] ७६४-७६८ शत्रुञ्जय; - प्राकृत- 1 [सं० १९२१ से १६३० तक = ई० १८६४ से १८७३ तक ] श्वेताम्बर बेख । ७६६ शालिग्राम - संस्कृत और कन्नड़ । [ शक १८०० = १८७८ ई० ] [ शाळिग्राममें, अनन्तनाथ-बस्ति के सामनेके स्तम्भपर ] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् || स्वस्ति श्री विनयाभ्युदय - शालिवाहन शकाब्दः १८०० नेय ईश्वरसंवत्सरद माघ-शु ५ लु स्वस्ति श्री पेनगोण्डे-शेनगण-संस्थानद श्रीलक्ष्मीसेन भट्टारक-स्वामियवर शिष्यनाद यिदगुरु पट्टण-त्रु वीरप्पनवर कुमार अनवर कुमार हजूरु- मोतीखाने वीरप्प तम्म तिम्मप्प सह शालिग्राम Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ जैन-शिलालेख-संग्रह दल्लि यी-नूतनवाद चैत्यालय कट्टिसि श्री अनन्त-स्वामियन्नु स्वास्त्यक्षेत्र-सहित प्रतिष्ठे माडि विरुवदक्के भद्रं शुभं मङ्गलं श्री॥ जिन शासन की प्रशंसा । सेनगणकी संस्थान पेनगोण्डेके लक्ष्मीसेन भट्टारक-स्वामी के शिष्य यिदगूर के पट्टण-शेटिके पुत्र अण्णय्यके पुत्र वीरप्प और तिम्मप्प थे । तिम्मप्प छोटा भाई था। वीरप्प मोतीखानेके महलमें काम करता था। वीरप्पने शालिग्राममें इस नवीन चैत्यालय का निर्माण कराकर इसे अनन्तस्वामीको सौंप दिया। [EC, IV, Yedatore tl., No. 36 ] ८००-८०३ शत्रुञ्जय-प्राकृत } [सं० १९३६ से ११४३ तक=ई. १८८२ से १८८६ तक] श्वेताम्बर लेख। ८०४-८३० प्रवणबेल्गोला;-कन्नड़। [अनिश्चित कालके ] [जै० शि० सं०, प्र. मा०] ८३१ तिरुमलै;-तामिल। [काल अनिश्चित १ स्वस्ति श्री [॥ ] कडेकोट२ टूर तिरुमलैप्परवादिम३ ल्लर माणाकर अरिष्टने४ मि भाचार्य्यर शेय५ वित यक्षित्तिरु६ मेनि ।। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरुमलैके लेख १८७ अनुवाद - स्वस्ति ! श्री! कडैकोरके अरिष्टनेमि आचार्यने, जो तिरुमलैके परवादिमल्ल के शिष्य थे, एक यक्षी की प्रतिमा बनवाई । [ South Indian ins, I, No. 73 (p. 104-105) t. & tr. J ] १ श्री [ ॥ ] [ आ २ दिक्कुरवडगळ मा ३ णाक्कर नागणन्दि- क्कुरव ४ [ डि ] गळू शे [ य् ] वित्त ति [रु ] मेणि [ ॥ ] ८३२ कलु गुम लै; - तामिल | • [ अनिश्चित काल ] नूर् सिंगणं अनुवाद - (यह ) प्रतिमा आणनूर के पूज्य गुरु सिंहनन्दिके शिष्य पूज्य गुरु नागनन्दिने बनवायी थी । [ EI, IV, p. 136, No. 6.] ८३३ क || अकल ... बस्तीपुर, कन्नड़-भग्न । [ काल निश्चित नहीं ] [ बस्तीपुरके उत्तर में एक पाषाणपर ] वाक्- चन्द्रकीर्त्तियं धवळसे दिगम्बर । ... ... ........... भव्य - प्रकार-चकोरं नलेय | य कुटिल - वाइकन्य पदाम्भोजम् ॥ [ अकलङ्ककी प्रशंसा में ] [ EC, III, Seringapatam tl, No. 145. ] Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह ८३४ चिदरवल्लि, कन्नद । [ बिना काल - उल्लेखका ] [ चिदरबलि (सोसले परगना ) में, गाँव के पश्चिम बलगे रावळके खेतकी एक चट्टानपर ] अय-महित-कोण्डकुन्दा- | न्वय - सम्भव देशिकाख्य-गणदोल गुणिगळु । प्रिय-धर्म्मर् न्नेगळ्दरुपा । त्त-यशर् नन्दि- देवरी-वसुमतियोऴ् ॥ आ-गुणिगळ शिष्यन्तियर् । आगमदिष्टदोळे नेगळ्दु तपदोळ् सलेकालागमनरिदात्तति सन्द्- । ओगडिसदे नागि यब्बे - कान्तियरागळु || तोरि ... तप परिग्रहमं नेरे नोन्ताराधनातीत मनदोळ् पडङ्गल-नरिदोप्पुभक्तियिन्दमपत्य-श्रीकारियमनात्माम्बिकेंगे प्रत्यक्ष-परोक्ष तमय्दमसमान ग १८८ विनयमं मान्य- चरित [ देशिक- गण और कोण्डकुन्दान्वय नन्दि- देवकी शिष्या नागियब्र्बेकन्ति अपनी श्रद्धा और पवित्रता के लिये विख्यात थी । गृहीत व्रतोंकी परिपूर्णतापूर्वक स्वर्गवास हो जाने से, मातृक प्रेमके कारण, • माँकी स्मृतिमें... ] [ EC, III, Tirum Kudlunarasipur, tl., No. 133 ] ... ८३५ बेरम्बाडि; - संस्कृत- भग्न । [ बिना काक निर्देशका ] [ बेरम्बाडिमें ( कुतनूरु परगना ) मारी मन्दिर के पास एक पाषाणपर ] ओं नमोऽर्हते भगवते चण्डोग्र - पारिशव ( पार्श्व ) नाथाय धरणेन्द्रपद्मावती-सहिताय सव्र्वव्याधिहरं अळजुमोगे । परमेष्ठी • नाना श्री पञ्च ... ... Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेरम्बाडके लेख ५८६ [ ॐ । भगवान् अर्हत् चण्डोग्र पार्श्वनाथको नमस्कार हो । वे घरणेन्द्रपद्मावती सहित हैं । वे सब व्याधियोंको दूर करनेवाले हैं पाँच परमेष्ठी ...] [ EC, IV, Gundlupet tl., No. 96 ] ८३६ जव गल्लू:: -- कचड़ - भग्न । [ अनिश्चित कालका ] [ जगवलु ( जगवल्लु परगने ) में, जैन-मस्तिके पासके पाषाणपर ] स्वस्ति श्री कोण्डकुन्दान्वय देशी गणदमरवर मटारर शिष्यन्तिय अष्टोपवासदर क्रियागुणचन्द्र भटारर सघर्म्मगळु तोम्भत्तेळ वरिसा त वय्दुन बि • निसिधिय कानिरिसिद [ कोण्डकुन्दान्वय तथा देखी गण के अमरचर-भट्टारकी शिष्या, जो ( महीने में ) आठ दिनका उपवास करती थी और मुणचन्द्र भट्टारकी साथिन थी, ६७ वर्षतक । उसके बहनोई या सालेने यह स्मारक खड़ा किया । ] [ EC, V, Arsikere tl., No. 3. ] ८३७ -- कोलूरु :- संस्कृत तथा कन्नड़ । [ वर्ष विरोधिकृत् ] ... [ कोलूरुमें, कुमरि-हक्क लुमें पाषाण पर ] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलानम् । यात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् || स्वस्ति श्रीमतु आदिनाथ - देव पादाराधक सम्यक्त्व - रत्नाकर जिन-गन्धोदकपवित्रीकृतोत्तमाङ्गेयप्प राजियब्बे - हेम्गाडिति ४५ नेय विरोधिकृतु Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह संवत्सरद माघ सुध(ख)-पञ्चमी-वृहवारदन्दु कोळूरोळ सुर-लोक प्राप्तेयादळ ॥ सरस्वतिगण-पुत्र-सुमति-पण्डित-शिष्य रूवारि सोमोजन पुत्र दुमायन बेस [ इस लेखमें किसी भी सुरलोक प्राप्तिका दिन दिया है और कोई विशेषता नहीं है। ] [ EC, VIII, Sagar tl., No. 108 ] ८३८ हले-सोरब:-संस्कृत तथा कचड़ । [काल निश्चित नहीं] [हले-सोरबमें, उसी स्थानपर एक दूसरे समाधि-पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्यावाटामोवलाञ्चनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनम् ॥ [१] श्री हेमचन्द्र-देवर गुड्डनु दम गोडन निषिधि श्रो-बारागाय श्रीमतु यीकल माडिदनु सोरषद बयिरोजनु॥ लेख स्पष्ठ है। [ EC, VIII, Sorab tl., No. 53. ] ८३६ गिरनार, संस्कृत-मग्न । श्वेताम्बर लेख। [ ASI, XVI, P. 358, No. 15, t. & tr.] गिरनार, संस्कृत-भग्न । श्वेताम्बर लेख। [ ASI, XVI, p. 358, No. 17, t. & tr.] Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरनार के लेख ८४१ गिरनार ; - संस्कृत | [ दक्षिणी प्रवेश-द्वारके पासके गिरिनारी मन्दिरके मण्डपमें भूमि मलिके एक पाषाण- तळपर ] श्री सुभकीर्तिदेव साहुजाजासुत साहु तेनकीतिं देव । ५६१ अनुवादः - श्री सुभकीर्तिदेव और साहु जाजाके पुत्र साहु ते कीर्तिदेव । [ ASI, XVI, p. 356-357, No. 18. ] ८४२ भोलरी - संस्कृत और गुजराती । , [ काल अनिश्चित ] श्वेताम्बर लेख । [ J. Kirste, EI, II, No. V, No. 3 (p. 25-26 ) t. & tr.] ८४३ रामनगर (अहिच्छन ); संस्कृत | -- [ काल अनिश्चित ] रामनगर के पुराने किले से उत्तरकी ओर कुछ १०० ग दूरीपर और नसरतगञ्ज के पूर्व में 'कतारि खेरा' नामकी एक बहुत छोटी पहाड़ी है । यह ' कतारिखेरा' ' कोत्तरि खेरा' का अपभ्रंश ( बिगड़ा हुआ रूप ) मालूम पड़ता है । ' कोत्तरि खेरा' का अर्थ होता है 'मन्दिरका ढेर । यहाँ जनरल कनिंघमने खम्भेका कङ्कडका चोखूँटा पाया और एक छोटे मन्दिरकी करीब-करीब लुप्तप्राय दीवालें खोज निकाली थीं । उसने पहिले इसे कोई बौद्ध-मन्दिर समझा, परन्तु पीछेसे वहाँ सिवा एक बुद्ध-मूर्तिके और कुछ न होनेसे, यह खयाल छोड़ दिया । लेकिन पर कुछ नग्न मूर्तियाँ निकलीं जोकि दिसम्बर जैन सम्प्रदायकी थीं। इससे उसने जैन मन्दिर समझा । पत्थर के एक परिवेषक (Railing) स्तम्भपर, जिसमें ऐसी मूर्तियोंकी ६ कतारें थीं, निम्नलिखित समर्थक लेख मिला : • Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह महाचार्य इन्द्रनन्दि शिष्य महादरि पार्श्वपतिस्य कोतरि । " इन्द्रनन्दिके शिष्य महादरि, पाश्वपतिके मन्दिरको || " ५६२ यहाँ 'पार्श्वपति' से मतलब २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से ही है। एक दूसरी नग्न प्रतिमा के पाषाणपर 'नवग्रह' ये शब्द खुदे हुए थे, एक विशाल स्तम्भके खण्डपर उसके चारों ओर शेरके आकार बने हुए थे, जो कि महावीर स्वामीका चिह्न है । नैनों में 'अहिच्छत्र' अब भी एक पवित्र स्थान माना जाता है । इन लेखों के अक्षरोंसे जनरल कनिंघम अनुमान करते हैं कि यह मन्दिर गुप्तकालकी अवनति से पहले बना था । [ Art, Ins. N-W-PO (ASI, II), p. 28, t. & tr. ] ८४४ खजुराहो ; -- संस्कृत | [ काल अनिश्चित ] [ २१ नं० के जिन मन्दिर के द्वारके स्तम्भपर ] आचार्य स्त्री (श्री)- देवचन्द्र : (न्द्र) ख्रिस्य (शिष्य) कुमुदचन्द्र (न्द्रः) ॥ [ देवचन्द्र के शिष्य कुमुदचन्द्रका उल्लेख । ] [ ASWI, Progress Reports 1909-1904, 48, t. ] शि० ले ० ८४७ - संवत् १४६३ = १४३६ ई० १४६७ = १४४० ई० १५०५ = १४४८ ई० १५३६ = १४७६ ई० समास 93 22 " ,, ८४५-४६ जैसलमेर – संस्कृत | - [ सं० १४७३ = १४१६ ई० ] श्वेताम्बर लेख | 33 ८४८ ८४६ ८५० " 15 "" 4 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका (१) जैन-शिला लेख संग्रह भाग १-२ में संग्रहीत शिला लेखों के स्थानों की अकारादि क्रम से नाम सूची। नाम के पश्चात् लेख नम्बर समझना चाहिये। अङ्गदी १६६, १७८, १८५, १६४, आर्सी केरी ४६५ २००, २०१, २४२, ३६७, इसूर २२१ ३७८ उदयगिरि (उड़ीसा) २४५ अजमेर ३.६, ३६१, ४१३, ४१७ उदयगिरि (सांची ) ६१ ४१८, ४२१ उद्रि २६१, ४३१, ४६१, ५७६, अनगिरि ७६३ ५८८, ५६६ अञ्जनेरी ( नासिक ) ३१७ एचिगनहल्लि ५१७ अनवेरी ४५८ एलेबाल ३८५ अनहिलवाड पाटन ११६, ६८४, एलोरा ४१ ६८६ ऐहोले १०८, २४७, ४४४ अनेबलु ६२३, ६२७ कडकोल ४४२, ४६०, ५०८, ५२५ अबलूर ४३५, ४३६ कडब १२४ अमरापुर ५२१ कडूर १५० अथूणा २३६ कण्ठकोट ५१०, ५३१ अलहल्लि २५३ कदवन्ती १६३ अलेसन्द्र ४११ कणवे २३०, २३२, ५६१ अल्तम ( कोल्हापुर) १०६ कबली ३५१ आडूर १०७ कम्बदहल्लि २१६, २६४, ३७२ आबलवाडी ६६७ करडालु ३८३, ३८४ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) करगुण्ड ३४७ कलस ५२२ कलसगरी ११८ कलहोली ४४६ कलुचुम्बर १४४ कलुगुमले ८३२ फलभावी १८२ कल्य ५६६ कल्लबलि ६६४ कल्लूरगुड्डा २७७ कहायूं (गोरखपुर ) ६३ कांगड़ा १२६ कारकल ६२४, ६२७, ६८० कुप्पटूरु २०६, ५५५, ५६३, ६०५ कुम्तरहल्लि १६६ कुम्सी १४६ कूलगेरी १३६ केलसुरु ७५८ कैदाल ३३३ कोणूर (बेळगांव ) २२७, २७६ कोथरा ७६३ कोन्नूर १२७, ३३५ कोप्प ६८८ कोलूरु ८३७ कोल्हापुर ३०२, ३२० क्यातनहल्लि १२८, ३८७ खजुराहो १४७, १७६, २२५, ३२६ ३३१, ३४०, ३४३, ३४४, ३५६, ३६२, - ४४ खम्भात ५२६ गिरनार ११, १४१, ३४५, ३४६, ३६८, ३६६, ४४५, ४६४ ४७६, ४७७, ४७६, ४६३ ५१८, ५२३, ५२६, ५३० ५३७, ५४६, ५५३, ५७६ ६२२, ६३१, ६४५, ७०० ८३६,८४१ गुडिगेरी २१० गुण्डलूपेट ४२५ गुन्धी २४४ . गेदी ६५०, ७३७ गोगा ४५१, ४५५, ४५६ गोवर्धनगिरि ६७४ ग्वालियर ६३३, ६४० चत्रदहल्लि ३०० चल्य २८७ चामराजनगर २६४ चिकमगलूर ४१२, ५२६ चिस्कमागडी ४०८, ४२२, ४२३, ४२४, ४२७, ५०२, चिक्क-इनसोगे १७५, १६५, १६६, २२३, २३६, २४१, Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़ ३३२, ५१६, ६४२, ६५५, देवरहल्लि १२१ चिदरवल्लि ८३४ देवळापुर १२० चैतनाथ (ग्वालियर ) ०८ दोद्द-कणगानु १८० जवगल्तु ८३६ दोहद ३८२ जैसलमेर ८४५, ८५० धरमपुर ६०६ टोक ( राजपूताना ) ६३६ नडोले ३५७, ३५८ तगदुरा २६५ नन्दी (मॉण्ट गोपीनाथ ) ११८ तट्टेकेरे २१६ नरसीपुर ७६४ तवनन्दी ५३४, ५४०, ५६८, ५६६, नल्लूर १८३, १८४ ५७७,५७८ नाखौर ( विहार ) ७०४ तलगुण्ड ४१६ नागदा ६३० तारका ६७६ नाडलाई ६७२ तिप्पूर २६२ नित्तूर ४३६-४४१, ४६६ तिरुमलै १७१, १७४, ४३४, ५५७, निदिगि २६७ नेसर्गी ( बेळगांव ) २४६ तिरुप्परूत्तिक्कुणरु ५८१, ५८७ नोणमङ्ग ६०,६४ तेवर तेप्पा ३७७ नौसारी १२५ तेरदल २८०, ४०२, ४१४ पटना ७४२ दान साले २४८, ४५८ पण्डितरहल्लि ३५२ दावनगिरी (गेरी) २४६ पञ्चपाण्डव मलै ११५, १६७ दिळमाल ४८३ पालनपुर ३५० दिल्ली ( टोपरा) १ पुरले २६६, ४५०, ४६६ दीडगूरु ३५३ पेग्गूर १५४ दूबकुण्ड २२८ २३५ बक्कलगेरे ४ ५२ देवगढ़ १२८, ६१७, ६२८ बंकापुर १८७, २७२ देवगिरि ९७, १८, १०५ बड़नगर १२६ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दा लिके १४०, २०७, ४३३, ४३८ बेलूर ३०५ ४४८, ४५६ बेल्लुरु ७२३ बोगादि ३१६ बन्दूर १७३ बयाना ( राजदूताना ) १७६ बवागञ्ज (माळवा) ३७०, ३७१, ६४३ बलगाम्बे १८१, २०४, २०८, २१७ ४२०, ४५३ बसवनपुर ४१० बस्ती ३२८ ८३३ बस्तीपुर ५८२, बहादुरपुर (अलवर) ६६२ बादामी ३१२ बामणी ३३४ बाळ होन्नूर २३१ बिनौली ३७४, ३८६ बिदरे १५८८ बिदरूरु ६५६ बिलियूर १३१ ( ४ ४ ) बेगूर ६२१ बेतूर ५११ बेरवाड ८३५ बेलगाँव ४५४ बेळवत्ते ११६ बेळ होङ्गळक ३६६ बेलुरु १७२ भारङ्गी ६१०, ६४१, ६४६ भिलरी ( भीलरी ) ६५१, ८४२ मत्तावार २६२, २७३, ३२१ मथुरा ४, ५, ८ १०, १२-५२, ५४ ८६,८८,८६,६२, १६१, १७३, २११ मदनूर ( नेल्लोर ) १४३ मदने ७१६ मदलापुर २२४ महागिरि ६६८ मद्रास ६८१ मन्ने १२२, १२३ मर्करा ६५ कुल ३७६ मलेयूर ४०१, ५६०, ५८०, ६००, ६१५, ६५७, ६६३, ७०५, ७२०, ७५३, ७७६ मसार ५८६, ७५५ महोबा २५२, ३२५, ३३७, ३४१, ३४२, ३६०, ३६१, ३६५ माँण्ट आबू ४१५, ४१६, ४७१-४७४, ४८०, ४८२, ४८६, ५३६, ५५०, ५५४, ६२६, ६२४, Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८, १४४, ६४७,६४८, राजगिर ८७, ७३६, ७४३ राणपुर ६३२ मॉण्ट निडुगल्नु ४७८, ६३७ रामनगर ५३, ८४३ मॉण्ट शिवगंगा ३१५ रायबाग ३१४, ४४६ मॉण्ट सुन्ध ( राजपूताना) ५०७ रावन्दूर ५८४ माण्डवी ७४१, ७४४ रोहो ४४७, ४८७ मुगुलूर २६५, ३१७, ३२७, ३८. लक्ष्मेश्वर १०६, १११, ११३, ११४, १४६ मुत्तत्ति २७५ लन्दन ३३६ मुत्सन्द्र १७. शत्रुञ्जय ६५६, ६६५, ६६६, ६७५, मुल्लूर १७७, १८८, १६१, २०२, ६७८, ६८२, ६८३, ६८५, ६६२-६६६, ७०१-७०३, मूडहल्लि ३७५ ७११, ७१४, ७१५, ७२७. मूलगुण्ड १३७ ७३१, ७३४-७३६, ७३८ मेलिगे ६६१ ७४०, ७४५, ७४६, ७५४, म्यूनिच ६३६ ७५६-७६३, ७६५, ७६७यल्लादहल्लि ३२४ ७७७, ७६४-७६८, ८००यिडुवणि ६४६ ८०३ यीदगुरु ४३२ श्रवणवेल्गोला ११०, ११२, २१७, वराङ्गना ६१६ १५१, १५२, १५५, १५६, वरुण १५६ १५७, १६२, १६३, १६५, वल्लीमले १३३-१३६ १६८, १६६, २२६, २३३, विजयनगर ५८५, १२० २५४-२६१, २६८, २७०, धुद्रि ३१३ २७१, २७८, २७६, २८१वेणर ६८६, ६६. २८३, २८५, २८६, २६०, वैकुण्ठ ( उदयगिरि )३ २६६, २९८, ३०३, ३०४, Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६, ३१०, ३११, ३२३, सिरोही ६७५, ६८५, ७१६ ७१७, ३३५, ३४८, ३५४, ३५३, ७२१, ७३३, ३६२, ३६३, ३८८, ३६२, सुकदरे २७४ ३६५-४००, ४.३-४०७, सूदी ( धारवाड़) १४३ ४२८-४३०, ४६१. ४६३, सोमवार १६२, २३४, २३६ ४७५, ४६२, ४६८, ५०१, सोराब ४५७ ५०५, ५१२, ५१५-५१७, सोहनिया १४८, १५३ ५२०, ५२७, ५२८, ५३३, ५४३, ५५२, ५६५, ५७२, सौंदन्ति १३०, १६०, २०५, २३७ ५७३, ५७५, ५६१, ५६६, ६०२, ६०७, ६१६, ६२५, हट्टण २१८ ६३५, ६६१, ६६६-६७१, हट्ण ३६४ ७.६, ७१२, ७१३, ७१८, हन्तुरु २६३ ७२२, ७२६, ७३२, ७५., हरवे ६५२ . ७५२, ७५७, ७६६,८०४- हर केरी २२२ ८३० हलेबीड २६६, ३०१, ४२६, ४६६ सएड २४३ ५१४, ५२४, ५४६, ७१० सरोत्रा ७०६, ७०८ हलेसोराब ५६३, ६०३, ८३८ सरगूरु ६१८ हल्सी (बेलगांब) ६६, ६६-१०४ साबनूर २८८ सालिग्राम ७६६ हागल हल्लि ७२४ सिका ७२५ हायो गुम्फा ( उदयगिरि )२ सिम्याम्बे ४४३ हादिकल्तु ६१२ सिन्दीगरी ३०७, ३०८ हिरे-आवलि (हिरियावली) २८६, सियालवेट ४६२, ४८८, ५०६, ३२२, ५३५, ५३८, ५४१,५४४ ५४७, ५५६, ५८, ५५६, ८ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२, ५६४, ५७०, ५७४, हुनशी कट्टि (बेळगांव ) २६२ ५८३, ५८६, ५६२, ५६४, हेमोरी ३५६, ३६४, ५४५, ६७७ ५६५, ५६८, ६.१, ६०४, हेन्जाडे २५१ ६०६, ६११, ६१३, ६१४ हेमक्सी १६४ हीरे हल्लि ६६,५०४ हेरगू ३३६, ३८५, ३६० हुम्मच १३२, १५, १६७, १६८, हेरे केरी ३४६, ४८४, ४८६ २०३, २१२, २१६, २२६, होगेकेरी ६५४, ६५५, ६५० २३८, ३२६, ४६७, ४६४, होनर २५० ४६७, ५००, ५०३, ५०६, होन्नेन हल्लि ५५१ ५४२, ५६७, ६६७ होन्वाड १८६ हुलुहल्लि ५७१ होलल केरी ३३८, ४६० हुल्ली गेरी ३७६ होत होळलु २८४ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका २ [ विशेष नाम सूची ] इस अनुक्रमणिका में जैन मुनि, आर्यिका, कवि, संघ, गण, गच्छ, ग्रन्थ तथा राजा, रानी, गृहस्थों और सब प्रकार के नाम समाविष्ट किये गये हैं। नाम के पश्चात् अंक, लेख नम्बर समझने चाहिये । अ अकळङ्क ३०५, ३१३, ३१६, ३२४, ३२६, ३४७, ४१०, ५०३, ६६७, ७५३ अक्खादेवी ३४६ अग्रोतक ( अन्वय ) ७५५, ७५६ अङ्ग ३०५, ३१३ अङ्गड ३६७ अङ्गणि ३७८ अङ्गरन ३०५ अच्युत वीरेन्द्र शिक्यप ४०१ अच्युत राजेन्द्र ४०१ अच्युत राय ६६७ अजमेर ३०६, ३६१, ४१३, ४१७, ४१६, ४२१ अजयपाळ ३६१ अतिपाळनाथ ३१६ अजित सेन ( भट्टारक, पण्डितदेव ) ३०५, ३१६, ३२६, ३४७, ३५१, ३२७, ३७३, ३७५, ४१० अञ्जनगिरि ६७३ अखनेरी ३१७ अडळवंश ३१५ अतिगैमान् ४३४ अत्तिमब्बे ३२६ अदळ कुळ ३१५ अदळ जिनालय ३१५ अदळ वंश ३३३ अदळराम ३३३ अदळ समुद्र ३३३ अदलेश्वर - देवगृह ३१५ अदिग ३५१ अद्रि ४३१ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तकीर्ति ४२७ अरुनळ (अन्वय) ३ २६, ३४७,३५१, अनन्तवीर्य ३२६ ३७३,३७६, ३७६, ३८०, अनवेरी ४५८ ४१०, ४२५, अनहिळ वाड पाटन ६८४, ६८६ अरुहन हल्ळि ११८, अप्पग ३१३ अथूणा ३०५ क अब्लूर ४३५, ४३६ अनन्दि मुनि ३२४ अभयचन्द्र ( सिद्धान्त चक्रवर्ती-)४३७, अर्हनन्दि सिद्धान्तदेव ३३४ ४३६, ५१४, ५२४, ५८४, अहंसुगिरि ( पर्वत ) ४३४ ६१०, ६४६, ६६७ अळियादेवी ३४६ अभिनन्द देव ३३४ अलेसन्द्र ४११ अभिनव चारुकीर्ति ६७३ अश्वपति ६६७ अभिनव देवराज (देवराज II) ६२० असवर मारय्य ४५. अभिनव विशालकीर्ति (भट्टारक) ६६१ अहोबळ पण्डित ३५१ अभिनव समन्तभद्र ६७४ आ अमरापुर ५२१ अमितय्य ४५२ आचारसार ( ग्रन्थ )३३५ अमृत दण्डाधीश ४५२ आजिरगे खोल्ळ ३२० अम्बर ( नाम ) ३०५ क आदण्णगौड ३३८ अम्बिकादेवी ३४६ आदिदास ६६३ अम्मण ३४६ आदिदेव मुनि ५८४ अटकळ ३१८ आदिनाथ पण्डितदेव ७२४ अय्यण ४०८ आदि गवुण्डि ४६६ अवन्ति ३०५क, ३१३ आबू ४१५, ४१६, ४७१-४७४ अरसियकेरे (आर्सी केरे )४६५ ४८०, ४८६, ५३६, ५५०, ५५४ अरिष्टनेमि (आचार्य ) ८३१ ६२६, ६३४, ६३८, ६४४, ६४७ अरिहर राज ( बुक्क राज ) ५८१ ६४८, ६६०, Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनेवाळु ६२३, आन्ध्र ३१३ आलन्दे ४३५ आलूरु ३३६ आळोक ३०५ क आल्वखेद ३०८ ६२६ आल्हू ३३६ आल्हण ३२६ आसन्दिनाड ३०८ आस्त ४२१ आहवमल्ळ ३१७, ४०८, इरुगप्प ५८१ ५८७ इङ्गीळ ४७८ ४५२ इ इङ्गुलेश्वर बाळ ४११, ४६५, ५१४, ५२१,५२४, ५७१, ५८४, ६००, ६०३ tfs cesनायक बिट्टियराण ३०५ इन्दगरस वोडेयर ६५५, ६५६ इन्द्र ( महाराज ) ६५६ इन्द्रनन्दि ४१०, ६६७, ८४३ इरुग ( दण्डेश ) ५८५ ई ईन्चण ४५१ ईश्वर चमूपति ३५२ ( १. ) उच्चङ्गि ३०५, ३१८, ३५१ उच्छृणक ( नगर ) ३०५ क उज्जयन्त ३४६ उदयण ३०५ उदयचन्द्र ३४३ उदयादित्य ३०५, ३०८, ३२४, ३४७ ३७३, ३७६, ४११, ४४८ उद्दरे ४३१ उद्रि ४६१, ५७६, ५८, ५६६, उमक्के ३१६ मयन्वे ३१६ उमास्वाति ६६७ उर्व्वाडि ३१० उर्वीतिळक ३२६ एकान्तद रामय्य ४३५ एक्क गौड ४०८ एक्कळ ४३१ एक्कोटि जिनालय ३१८ एचव दण्डनायकिति ४११ एचळदेवि ३०८, ३४७, ३७६, ४४८, ३६४, ४११, ४७०, ४६६, Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १५ ) खरतरगच्छ ६५५ खरपुर ३४६ गण्डादि ३.८ गदानन्दी ३०६ गद्याण ३१२, ३३८, ६७३ गन्धविमुक्त ४११, ४२४ गन्धि सेट्टि ३६५ गागिदेव ३२७ गामुण्ड ३२१ गावणिग ३८६ गिरनार ३४५, ३४६, ३६८, ३६६ ४४५, ४६४, ४७६, ४७७ ४७६, ४६३, ५१८, ५२३ ५२६, ५३०, ५३७, ५४६ ५५३, ५७६, ६२२, ६३१ ६४५, ७००, ८३६, ८४० गङ्ग ३१३, ३१८, ३२८, ३१३, गङ्गकुळ ३०५, ३१३ गङ्गदेव ३२०, ३३४ गङ्गनाडि ३२८ गङ्गपुत्र ३३३ गङ्गप्पय ३०७ गङ्गवंश ३१३ गङ्गवाडि ३०५, ३०७, ३०८, ३१८ ३१६, ३२४, ३२७, ३३३ ३३६ गंगराज ( दण्डाधीश ) ४११ गणराज्य ३२६ गङ्गा ३०५ गङ्गाम्बिके ३८६ गङ्गेयन मारेय ४७८ गङ्गेश्वरदेव ३३३ गङ्गेश्वरावास ३३३ गडिमेन्दु देव ३१५ गडद गङ्ग ३३३ गएडम ४५२ गण्ड विमुक्त व्रतीरा ३०७,३३३ ।। गण्डणदीय देव ३१०, ३२४ गुड्डदगङ्ग ३३३ गुणकीर्ति देव ६३३, ७०२ गुणचन्द्र ३०६ गुणचन्द्र सिद्धान्तदेव ३५६, ३६४ गुणभद्र ५११ गुणसेन ५४२, ६१२ गुणसेन सिद्धनाथ ५०३ गुण्डलुपेट ४२५ गुत्त ३३३ गुप्तकुळ ४४८ गुम्मटपुर ६१८ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दिकब्बे ३५२ चन्द्र ४७० चन्द्रकीर्ति ५४५, ५७१, ६०० चन्द्रदेव (भट ) ४५३ चन्द्रप्रभ (मुनि) ३१७, ३५१, ४१० ४५६, ५५५, ६६७ ( १७ ) चन्द्रादित्य ३२०, ३३४ चन्द्रसेन सूरि ५८८ चन्द्रिका ( महादेवी ) ४४६, ४४६ चन्न पारिश्यदेव ३३३ चळवरिष ३३३ चळवरिवेश्वर देव ३३३ चलिग सेनबो ४६८ चल्लय्य हेमाडे ३७६ चाकि गौडि ४०८ चाणक्य ३३६ चाणिक्य ३०८ चान्द्रायण देव ३८४ चामवे दण्डनायक ३०८, ४११ चामराज ७५८ चामुण्डराज ३०५ क, ६६७, ६७६ चावळदेवी ३०८ चाविक गवुडि ३७७ चाविमय्य ३३९ चावुण्ड ३४७ चारुकीर्ति पण्डिताचार्य ४३८, ५२४, ५६१, ६७३ ७१६ चालुक्य ३१२, ३१३, ३१४, ३१६ ३२२, ३२६, ३३२ चालुक्यचक्री ११३ चालुक्याभरण ३०८ चिकमगलूर ३२०, ४१२, ५२६ चिक्कतायी ४०१ चिक्क मार्गाडि ४०८, ४२२-४२४, ४२७, ५०२, ५१३ चिरणराज दण्डाधीश ३०५ चित्तौड़ ३३२, ५१६, ०६४२, ६५३ चित्रकूट गिरि ३३२ चिदवल्लि ८३४ चिनकुरली ३२८ चिन्तामणि ४१० चूड़ामणि ४१० चेङ्गिरि ३०५ चेन्न पार्श्वनाथ ३३६ चेन्नवे नायक ३३३ चेर ३०५ चैच ( दण्डाधिनायक ) ५८५ चोघारेकाम गावुण्ड ३३४ चोळ ३०५, ३०८, ३१२, ३१८, ३१६, ३२४ चौण्ड राय ३४७ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) नरसिंह ३२४, ३३३, ३३६, ३५२ नारायण गृह ३३३ ३६७, ४५२ निगुलर ३२४ नरसिंग सेट्टि ३१४ नित्तर ३४७, ४३६४४०,४४१ नरसिंह वर्मा ३०५, २०८,३२४ नरसीपुर ७६४ निम्ब देव ४०२ . नरेन्द्रकीति-विद्यदेव ३२४ निम्ब देव सामन्त ५२४ - नाकण ३०८ निम्मडि दण्डनायक ३०५ नाकि-सेट्टि ३२७, ३५२, ३६७ . निवर्तन ३२० नाग ३१८ निरुगुएड नाड ३४७ नागगौड ४५५ नुन्न वंश ४०८, ४४८ नागरण ओडेयर ६१८ नूमडि तैळ ४०८ नागदा ६३. नागनन्दि ८३२ नेक्कळ ३१३ नागवल्ळिकुळ ३६६ नेगलु ३२७ नागवे ३५२ नेमदण्डेश ३७२ नागर खण्ड ३७७, ३८६, ४०८, ४४६ नेमिचन्द्र ( भट्टारक) ४५०, ६६७० नागर वंश ३०५क नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक ४४६ - नागियक्क ३२७ नेमि देव ४६६ - नाडवल सेट्टि ३०५ नेमिनाथ ३३६, ३३७, ३४६ । नाडाळव ३३३ नेमि पण्डित ४७८ नायक बसव ३३३ नेळ मङ्गळ ३१५ नारण वेमाडे ३२१, ३६४ नेल्कुदरे ३५१ नारसिध देव ३३३, ३३६, ३४७ नोणम्बवाडि ३०५, ३३६, ३२८ ३५२, ३६७, ४५२ नोडम्ब वाडि ३०५, ३०७, ३०८ नारसिंघ होयसळ गावुण्ड ३५१ ___३१८, १२४, ३३३ नारसिंह ३२७, ३७६, ३६४, ४११ ४४८, ४६६, ४६६ न्याय कुमुदचन्द्र ६६७ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) माणिक्य देव ४१८ मारिसेट्टि ३१६, ३२७ माणक्यदोळलु ३२८ मारुगोण्डी बसदि ३०५ माणिक्यनन्दि १२०, ३५६, ३६४ ।। माळ (चमूनाथ) ४३१ ६६७, ६६८ माळन्वेय ४४०, ४४१ माणिक्यसेन ३२२ माळियक्क ४०८ मॉण्ट निडुगल्लु ४७८, ६३७ माळवे सेट्टिकब्बे ४६६ मार्तण्ड देव ३१३ माळिसेट्टि ४२० माथुरगच्छ ६४३, ७५६ माळियक्के ४३६ मादरसवोडेयर ५८६ माळोज ३४७ मादिराब ३७३ मादुल ३३६ मादिराज (प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ) मीमांसक ३१६ ४७० मुगुळो ३२७ मादेवि ३३३, ४३१, ४७० मुळिय ३१६ मादेय ३२३ मुगुलूर ३५६, ३२७, ३८० माधव ३१६, ३४७ मुदुगेरे ३३३ माधवचन्द्र ५३४, ५६८, ६६७ मुनिचन्द्र ३१३, ३२४, ३७७, ३८८, माधवदण्डनायक ३६४ ५४० ४०८, ४३१, ४४८, ४६७ मान्यखेट ३३३ ___४७०, ५७१, ६६३ माबळय ३२१ मुनिभद्र देव १८८, ५८६, ६.१ मारगावुण्ड ५०८ मुम्मुरि दण्ड ४०८ मारचन्द्र मलधारि ६०३ मुद्दगावुण्ड ३२२ मारम ३२७ मुद्दरसि ३७२ मारसिग ३१३, ३२०, ३३४, ४३१ मुद्दन्वे ४२३ मारय्वे ३१८ मुद्दय्य ४०८ माराय ३०८ मुद्दगौड ४१२ मारसमुद्र ३३३ मुरारि देव ४३८ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मी ३०५ क वक्रग्रीवर्य ३१६ लक्ष्मीदेव प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ ४७० वक्रमीवाचार्य ३०५, ३४७, ५८५ लक्ष्मीधर ३२६ वङ्ग ३१३ लक्ष्मीसेन भट्टारक ५८८ ७२३, ७६६ वज्रनन्दी ३०५, ३७३, ३८०, ५०४ लक्ष्मीसेन मुनीश्वर ७२० वदिग ३१७ लच्चल देवी ४०८ वम्मळदेव ३४७ लच्छब्बे ४२७ वयळ नाड ३०८ लन्दन ३३६ वराङ्गना (ग्राम) ६१६ ललितकीर्ति ४४८, ४५६, ५६०, वराट ३१३ ६३४,६८० वर्धमान (मुनि) ५८५, ६६७ लल्लाक ३०५ क वर्धमान देव ३४७ लल्लुक ३०५ ' वर्धमान ( साधु) ४१३ लाखन ३२५, ३४१, ३३७ वळवाड (स्थान) ३२०, ३३४ लापू ६३६ वल्लभराज ६७७ लाहङ (साधु) ४१७ वशिष्ट (गृहपति) ४७० लाइड ३१७ वसन्तकीर्ति ६६७ लूङ्गर देव ६३६ वसुनन्दि ६६७ लोक गावुण्ड ३५१, ३७७ वस्तुपाळ ३६१ लोकनन्द (मुनि) ३७१ वाचरस ३०७ लोकायत ३०५ वाणद बलिय ४७८ लोहाचार्य (अन्वय) ७५६ वादिभषण ७०२ वादिराज ३१६, ३२६, ३२७, ३४७, ३७३, ५०३, ६१०, ६६७ वक्लगेरे ४५२ वादिराजेन्द्र ३०५ वक्रगच्छ ४२६ वादीभ सिंह ३०५, १२६ वक्रयीव ५८ वामन ३४० Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल त्रैविद्यदेव ३०५, ३१६, ३१६, ३२६, ३२७, ३४७, ३५१, ३७३, ३७६ श्रीमुख ३३८ श्रीवल्लभदेव ३२५ श्रीविजय ३२६ श्रीरङ्गनगर ६६७ श्रीराम ३१७ श्रीसमुदाय ५१४ श्रीसंघ ( मूल संघ ) ५२४ श्रुतकीर्ति ५८४ श्रुतमुनि ५६३, ६००, ००, ६१० श्रेयांसदेव ३२६ श्रेयांस भट्टारक ५२६ श्लोकवार्तिकालंकार ६६७ षडानन १०८ ( ३७ ) सकलकीर्ति ७०२ सकलचन्द्रदेव ४२४, ४३१, ५८२ सत्याभय ३१३, ४०८ सत्यभामा ३०५ सत्याश्रयकुल ३०८, ३१६, ३२२, ३२६ सपादलक्ष ३३२ सप्ताद्धलक्षभूमि ३५६ रखिङ्गि सेट्टि ४४३ समय दिवाकर ४१० समन्तभद्र स्वामी ३०५, ३१३, ३१६, ३२४, ३२६, ३३७, ४१०, ६६७ समिद्ध श्वर ३३२ सवगोन ३०७ सवपते ३३६ सरगुरु ६१८ सरस्वती गच्छ ७०२ सरोत्रा ७०६ - ७०८ सल ३७६ सहयाचल ३०५ संकयनायक ४२३ संकरसेट्टि ३७३ सङ्कगवुण्ड ३८६, ४३६ सङ्गिराय वोडेयर ६५४, ६५५, ६५६ संगीतपुर ६५४ - ६५६ संघवी ७०२ सागरनन्दि सिद्धान्तदेव ३२४, ४६५ साधा ३६१ साधु हालण ४१३ साधुसाल्हे ३४३ सान्तलिगे ३२६ सान्तबेन्द्र ६६७ सान्तियक्क ४२३ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) सीगेनाड ३१६ सीली ३०५ क सुकद हेग्गडे ३६० सुगन्धवर्ति बारह ४७० सुगुणि देवी (कोङ्गालव) ५६० सुम्गगौएड ३१८ सुग्गियन्बरसि ११३ सुन्ध (पर्वत) ५०७ सुदत्त मुनिप ४५७ सुमतिकीर्ति ७०२ सुमति भट्टारक ३७३ सुल्तान हुशंगगोरी ६१७ सूमाक ३.५ क सूरनल्लि ३२४ सूरस्थ गण ३१८, ४६० सूर्यचमूपति ४४८ सेउणचन्द्र (द्वितीय, तृतीय) ३१७ से उणदेव ३१७ सेटरनागप्प ३३८ सेन (राजा) ४४६,४५३ सेन (रह) ४४६ सेन (कालसेन) ४५४ सेनगण ३२२, ५११, ५३८, ६११ ७६६ सेन बोवमारय्यने ३३३ सेनुवपुर ३४६ सोम ३१३, ३६४, ४०८, ४४८ ४५७,५२६ सोमएणगौड ३३८ सोमदरणायक ४६० सोमदेव ४१८ सोमनाथ ३२४ सोमवे ४३३ सोमल देवी ४३३, ४५१, ४५५,४५६ सोमय ४६४ सोमय्य ३२८ सोमय्य (हेगडे) ४६. सोमेश ४६६ सोमेश्वर ४.८ सोमेश्वर तृतीय (चालुक्य) ३१४ सोमेश्वर चतुर्थ ४१५ सोवरस ३०७ सोविदेव २७७, ३८६,४०८ सोविसेट्टि ३६४ सोरब ३२२, ४५७ सोसेबूर ३०८, ३६७ सौगत ३१६ सौम्यनाथ ३.५ सौंदत्ति ४७० स्थिरमति ३०५ क Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) हल्लिय ३०७ हगरटगे ४४E हस्तिनापुर ५६४ हटण ३६४ हस्सन ३१६ हडपवल ३२० हर्षकीर्ति ६४५ हागल हल्लि ७२४ हनसोगे (बलि) ३७२, ५२६, ५५१ ५६. हादिकल्तु ६१२ हनसोगे (शाखा) ४४६ हानुङ्गल गोण्ड ३१८, ३२८ हनेयत्वे ३४७ हानुङ्गल ३०७, ३३३, ३३६, ३५१ हरवे ६५२ हाविन हेरिलगे ३२० हरि ३४७ हालू ३६१ हरियप्प वोडेयर ५५८, ५५६, ५६५ हिन्दण तोट ३३८ हरिहरदेवी ३५६, ३८४ हिमशीतळ ३१६ हरिहर राय ५५५, ५७७-५७६, हिरिय करे ३३३, ३३८ ५८, ५८६, ५६४, हिरिय केरेयकेलगण ३०५ ५६८, ६०१, ६.४, हिरिय दण्डनायक ४६६ ६०५, ६११, ६१५, हिरिय महलिगे ४३८ ६२० हिरे श्रावलि ३२२, ५३५, ५३८, हरिहर द्वितीय (बुक्क द्वितीय) ५८१ ५४१, ५४४, ५४७, हरिहरेश्वर ५८५ ५५६, ५५६, ५५८, हर्यले ( महासती) ३८३ ५५९, ५६२, ५६४, हलदारे ६७३ ५७०, ५७४, ५८३, हलसिगे ३०७, ३२४, ३३६, ३३३ ५८६, ५६२, ५६४, हलेवीड ४२६, ४९६, ५१४, ५२४ ५६५, ५६८ ५४८५६, ७१. ६०४, ६०६, ६११, हलेसोरब ५६३,८३८ ६१३, ६१४ ६०१, Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) हीरे हल्लि ४६६, ५०४ हेरगू ३३६, ३८५, ३८९ हुच्चप्प ७१० हेररिके ३३३ हुम्मच ३२६, ४६७, ४६४, ४६७, हेरेकेरी ३४६, ४८४, ४८६ ५००, ५०३, ५०६, ६६७ हेमाडे ३२८ हुम्बड बाति ७०२ हेता ३०५ क हुळियेर पुर ३५६ होगेकेरी ६५४, ६५५, ६५८ हुळिगेरे ४३५ होन ३२४ हुनुहल्लि ५७१ होन्न ३५६, ६७३ हुल्लीगेरी ३७६ होन्न गोडण्ड ४६६ हूबिन बाग ३१४ होन्नमाम्बिका ६८० हेगडि जक्कय्य ३५३ होयसल ३१८, ३२७, ३३६, ३४७, हेमाड ३१६ ४६५, ६६७ हेग्गेरी ३५६ होयसळ गावुण्ड ३५१ हेगोरेय ३२१ होयसळदेव ३०७, ३१६, ३२४, ३२७ हेग्गेरे ३६४, ५४५, ६७७ होयसल विष्णु ३१८ हेमाणे बक्कण ३५६ होम्बुच्च ५६७ हेण्णगेरे ३५६ होली ६१७ हेबिडि ३१८ होलेयन्बे गेरेय ३०५ हेमकीर्ति ६४०, ६४३ होल्ळकेरे ३३८, ४६० हेमचन्द्र ८३८ होसकेरी ३१६ हेमचन्द्र भट्टारक ५६० होसत्र ३७८ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- _