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भक्त थे हालांकि उन्होंने अपनी भक्ति एवं श्रादर दूसरे जैन संघों के प्रति भी प्रदर्शित किया है । धार्मिक उदारता सचमुच में उस युग की देन थी। - इसके बाद इस नवीन संघ के एक प्रमुख प्राचार्य के रूप में वज्रपाणि पण्डित का नाम आता है । लेख नं० १७८ में इन्हें द्रविड़ान्वय मूलसंघ का तथा नं. १८५ में सूरस्थ गण का लिखा है। पिछले लेख में उनकी एक गृहस्थ शिष्या के दान का उल्लेख है । लेख नं० १७८ की शुरू की पत्तियां भग्न हैं पर 'तर्काच्चालित' श्रादि विशेषणों से प्रतीत होता है कि थे बड़े तार्किक थे। ये होय्सल नरेश राचमल्ल भूपाल ( नृपकाम ) के गुरु थे और इन्होंने होयसलों के उत्पत्तिस्थान सोसेवर में अपना जीवन बिता कर संन्यास मरण किया था । लेख में यद्यपि काल निर्देश नहीं है फिर भी उनका समय द्रविड़ संघ का प्रथम साहित्यिक उल्लेख करने वाले ग्रन्थ दर्शनसार और होयसल नृपकाल के समय के आसपास होना चाहिये। देवसेनाचार्य के दर्शनसार में जिस वज्रनन्दि का वर्णन किया गया है और उनके द्वारा प्रवृत्त जिस शिथिलाचार की अोर संकेत किया गया है, उससे प्रतीत होता है कि इस संघ की स्थापना देवसेन के समय (१० वीं शता० ) या उससे कुछ पूर्व हुई है । वि० सं० ५२६ के जिस वज्रनन्दि को ग्रन्थकर्ता ने शिथिलाचार फैलाने का दोषी ठहराया है, उसका उल्लेख किसी लेख या उनसे पूर्व किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता । फिर जिन कटुशब्दों द्वारा एक संघ के अनुयायी द्वारा दूसरे संघ के प्रतिष्ठापक आचार्य की भर्त्सना को गई इससे प्रनीत होता है कि वे समकालीन या कुछ ही समय पूर्ववर्ती रहे होंगे। संभव है इस लेख के वज्रपाणि ही वग्रनन्दि हों, पर इस अनुमान की पुष्टि के लिए. अभी और प्रमाणों की आवश्यकता है।
वज्रपाणि पण्डित की आगे पीछे की गुरुपरम्परा का वर्णन हमें किसी लेख से प्राप्त नहीं हुआ । इसके बाद इस संब के लेखों में नन्दिसंघ के प्राचार्यों की परम्परा चलने लगती है। इस संघ के अनेकों ऐसे लेख हैं जो कि पटावली कहे जा सकते हैं पर उनमें गुरुपरम्परा का क्रम व्यवस्थित म होने से कम से कम प्राचीन प्राचार्यों के क्रम पर विश्वास नहीं किया जा सकता । अनेकों लेखों