SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पति देव की प्रतिमा प्रतिष्ठित की थीं। ले० नं० १६० में राजेन्द्र का पूरा नाम राजेन्द्र चोल कोवाल्व दिया गया है । सन् १०७० के एक त्रुटित लेख (२०६) में पृषि कोशाल्व नाममात्र मिलता है उसके श्रागे का श्रंश नहीं पर ले० नं० २२०' में उसका पूरा नाम राजेन्द्र पृथ्वी कोशाल्व श्रदटरादित्य दिया गया है । इसने दरादित्य नामक चैत्यालय निर्माण कराया था । पहले के शासन काल कम उदधृत लेखों और इस लेख से ज्ञात होता है कि उसका से कम सन् २०१६ से १०७६ ई० तक अवश्य था । उक्त लेख में राजेन्द्र कोशाल्व की महत्त्वपूर्ण अनेकों उपाधियाँ दी गई है जिनसे मालुम होता है कि वे सूर्यवंशी थे और चोलवंश से उनकी उत्पत्ति हुई थी। उन्हें रेयूर पुरवराधीश्वर कहा गया है । ओरेयूर व उरगपुर चोलराज्य की प्राचीन राजधानी थी। इस वंश के नरेश प्रारंभ से ही होग्सल राजाओं के अधीन सामन्त थे तथा पीछे विजय नगर राज्य के अधीन बने रहे । प्रस्तुत संग्रह में इस वंश के और राजाओं के लेख नहीं आ सके। ले० नं० ५६० (सन् १३६१ ) में कोङ्गालववंशी किसी राजा की रानी सुगुरण देवी द्वारा प्रतिमा स्थापना एवं दानादि कार्यों का उल्लेख है। इससे विदित होता कि इस वंशके नरेश चौदहवीं शताब्दी या उसके बाद तक जैन धर्म पालन करते रहे । ५. चङ्गालव वंशः - कोङ्गाल्वों के दक्षिण में चंगाल्व वंश का राज्य था । पहले वे चंगनाडू ( मैसूर रियासत का वर्तमान हुए सूर तालुका ) के अधिपति थे । पश्चात् इनका राज्य पश्चिम मैसूर और कुर्ग में फैला था । यद्यपि ये शैव सम्प्रदाय के थे पर प्रस्तुत संग्रह के कुछ लेख यह सिद्ध करते हैं कि ११ वीं शताब्दी के अन्तिम एवं १२वीं के प्रथम दशकों में वे जैन धर्मावलम्बी थे । ले० नं० १७५, १६५, १६६ एवं २२३ से ज्ञात होता है कि वीर राजेन्द्र चोल नन्नि चंगा ने देशियगण, पुस्तक गच्छ के लिए कुछ बसदियाँ बनवायी थीं । लेख न० २४० और २४१ में कथन है कि उसी राजेन्द्र चंगाल्व ने सन् ११०० • में 1 ११ - जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, ले० नं० ५००
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy