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________________ प्राक-कथन जैन-शिलालेखसंग्रह, भाग १, का जब मैंने आज से कोई बत्तीस वर्ष पूर्व सम्पादन किया था, तब मुझे यह आशा थी कि शेष प्राप्य जैन शिलालेखों के मंग्रह भी शीघ्र हो क्रमशः प्रस्तुत किये जा सकेंगे। किन्तु वह कार्य शीघ्र सम्पन्न न हो सका। तथापि इस योजना की चिन्ता माणिकचन्द्र ग्रंथमाला के कर्णधार श्रद्धं य पं० नाथूराम जी प्रेमी को बनी ही रही। उसी के फलस्वरूप गेरीनो की शिलालेख सूची के अनुसार अब यह संग्रह कार्य भाग दूसरे और तीसरे में पूरा हो गया है । गेरीनो की सूची बनने के पश्चात् जो जैन लेख प्रकाश में आये हैं, तथा जो महत्त्वपूर्ण लेख उम सूची में उल्लिखित होने से छूट गये हैं उनका संकलन करना अब भी शेष रहा है। ____ यह तो मानी हुई बात है कि देश, धर्म और समाज के इतिहास में पाषाण, ताम्रपट अादि लेख सर्वोपरि प्रामाणिक होते हैं। भारत का प्राचीन इतिहास तभी से विधिवत् प्रस्तुत किया जा सका है जब से कि इन शिला आदि लेखों के अध्ययन अनुशीलन की ओर ध्यान दिया गया है। जितने शिलालेख प्रस्तुत संग्रह में समाविष्ट हैं वे सभी गत मौ वर्षों में समय समय पर. यथास्थान पत्रिकाओं आदि में प्रकाशित हो चुके हैं और उनसे प्राप्य राजनीतिक वृत्तान्त का उपयोग भी प्राय: किया जा चुका है। किंतु जैन इतिहास के निमीण में उनका पूर्णतः उपयोग करना अभी भी शेष है। इस संग्रह में जो मौर्य सम्राट अशोक से लेकर कुषाण, गुप्त, चालुक्य, गंग, कदम्ब, राष्ट्रकूट श्रादि राजवंशो के काल के जैन लेख संकलित हैं उनमें भारतीय इतिहास और विशेषतः जैन धर्म के प्राचीन इतिहास की बड़ो बहुमूल्य सामग्री बिखरी हुई पड़ी है जिसका अध्ययन कर जैन इतिहास को परिष्कृत करना आवश्यक है । शिलालेखसंग्रह के प्रथम भाग की भूमिका में मैने वहाँ संकलित लेखो का विभिन्न दृष्टियों से एक अध्ययन प्रस्तुत किया था। अब इस भाग के साथ
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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